शब्द विचार | Shabd Vichar | शब्द Shabd की परिभाषा | शब्द Shabd के भेद | उत्पत्ति के आधार पर शब्द | रचना के आधार पर शब्द | | प्रयोग के आधार पर | अर्थ के आधार पर
परिभाषा | शब्द Shabd
एक या एक से अधिक वर्णों से बने सार्थक ध्वनि-समूह को शब्द कहते है।
शब्द Shabd के भेद
शब्द की उत्पत्ति या स्रोत, रचना या बनावट, प्रयोग तथा अर्थ के आधार पर शब्दों के निम्न भेद किये जाते हैं-
उत्पत्ति के आधार पर शब्द
उत्पत्ति एवं स्रोत के आधार पर हिन्दी भाषा में शब्दों को निम्न चार उपभेदों में बाँटा गया है
तत्सम शब्द
तत् अर्थात उसके, सम अर्थात समान अर्थात अपनी मूल भाषा के समान प्रयुक्त होने वाले शब्द।
किसी भाषा में प्रयुक्त उसकी मूल भाषा के शब्दों को तत्सम शब्द कहते हैं।
हिन्दी की मूल भाषा संस्कृत है अतः संस्कृत के वे शब्द, जो हिन्दी में ज्यों के त्यों प्रयुक्त होते हैं, उन्हें तत्सम शब्द कहते हैं।
तद् अर्थात उसके, भव अर्थात (समान) भाव देने वाला अर्थात संस्कृत के वे शब्द जिनका हिन्दी में रूप परिवर्तित हो गया हो, परंतु अर्थ वही रहे, तद्भव शब्द कहलाते हैं।
जैसे – अक्षि से आँख, सूर्य से सूरज, हरिद्रा से हल्दी, घृत से घी आदि बने शब्द तद्भव शब्द कहलाते हैं।
देशज शब्द
किसी भाषा में प्रचलित वे शब्द, जो क्षेत्रीय जनता द्वारा आवश्यकतानुसार गढ लिए जाते है, देशज शब्द कहलाते हैं।
अर्थात् भाषा के अपने शब्दों को देशज शब्द कहते हैं।
साथ ही वे शब्द भी देशज शब्दों की श्रेणी में आते हैं जिनके सोत का कोई पता नहीं है तथा हिन्दी में संस्कृतेतर भारतीय भाषाओं से आ गये हैं-
(अ) अपनी गढंत से बने शब्द
(आ) द्रविड़ जातियों की भाषाओं से आये देशज शब्द
(इ) कोल, भील, संस्थाल आदि जातियों की भाषा से आये शब्द
विदेशी शब्द
राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक आदि विभिन्न कारणों से किसी भाषा में अन्य देशों की भाषाओं से भी शब्द आ जाते है. उन्हें विदेशी शब्द कहते हैं।
हिन्दी भाषा में प्रयुक्त अंग्रेजी, अरबी, फारसी, पुर्तगाली, तुर्की, फ्रांसीसी, चीनी भाषाओं के अतिरिक्त डच, जर्मनी, जापानी, तिब्बती, रूसी, यूनानी भाषा के भी शब्द प्रयुक्त होते हैं।
शब्द विचार Shabad Vichar
रचना के आधार पर शब्द
शब्दों की रचना प्रक्रिया के आधार पर हिन्दी भाषा के शब्दों के तीन भेद किये जाते हैं (1) रूढ़ शब्द (2) यौगिक शब्द (3) योग रूढ़ शब्द
रूढ़ शब्द
वे शब्द जो किसी व्यक्ति, स्थान, प्राणी और वस्तु के लिए वर्षों से प्रयुक्त होने के कारण किसी विशिष्ट अर्थ में प्रचलित हो गए है, रूढ़ शब्द कहलाते है।
इन शब्दों की निर्माण प्रक्रिया भी पूर्णतः ज्ञात नहीं होती।
इनका अन्य अर्थ भी नही होता तथा इन शब्दों के टुकड़े करने पर भी उन टुकड़ों के स्वतन्त्र अर्थ नहीं होते
वे यौगिक शब्द जिनका निर्माण पृथक-पृथक अर्थ देने वाले के योग से होता है,
किन्तु ये अपने द्वारा प्रतिपादित अनेक अर्थों में से किसी एक विशेष अर्थ के लिए ही प्रतिपादित होकर रूढ़ हो गये है,
ऐसे शब्दों को योगरूढ शब्द कहलाते हैं।
जैसे-त्रिनेत्र, शब्द ‘त्रि’ और ‘नेत्र’ के योग से बना है, जो भगवान शिव के अर्थ में रुढ है।
इसी प्रकार चक्रपाणि, वीणापाणि, रेवतीरमण, श्यामसुंदर, हिमालय. जलज, जलद, गजानन, लम्बोदर, पीताम्बर, सुरारि।
शब्द विचार Shabad Vichar
प्रयोग के आधार पर
प्रयोग के आधार पर हिन्दी में शब्दों के दो भेद किए जाते है-
विकारी शब्द
वे शब्द, जिनका रूप लिंग, वचन, कारक और काल के अनुसार परिवर्तित हो जाता है,
उन्हें विकारी शब्द कहते हैं विकारी शब्दों में समस्त संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण तथा क्रिया शब्द आते हैं।
इनका विस्तृत अध्ययन अलग प्रकरण में किया गया है।
अविकारी या अव्यय शब्द
ये शब्द जिनके रूप में लिंग, वचन, कारक, काल के अनुसार कोई विकार (परिवर्तन) उत्पन्न नहीं होता अर्थात इन शब्दों का रूप सदैव वही बना रहता है।
ऐसे शब्दों को अविकारी या अव्यय शब्द कहते हैं।
अविकारी शब्दों में क्रियाविशेषण, सम्बन्धबोधकअव्यय, समुच्चयबोधक अव्यय तथा विस्मयादिबोधक अव्यय आदि शब्द आते हैं।
अर्थ के आधार पर
अर्थ के आधार पर शब्दों के निम्न भेद किए जाते हैं
एकार्थी शब्द : वे शब्द जिनका प्रयोग प्रायः एक ही अर्थ में होता है, एकार्थी शब्दकहलाते है।
जैसे रात, धूप, लडका, पहाड़, नदी।
अनेकार्थी शब्द: वे शब्द, जिनके एक से अधिक अर्थ होते है. तथा उनका प्रयोग अलग-अलग अर्थ में किया जा सकता है।
जैसे: अंक, सारंग, कर, द्विज, हरि आदि अनेकार्थी शब्द है।
पर्यायवाची शब्द: ये शब्द जिनका अर्थ समान होता है। अर्थात् एक ही शब्द के अनेक समानार्थी शब्द पर्यायवाची शब्द कहलाते है।
जैसे चंद्रमा- चाँद, शशि, राकेश, मयंक आदि शब्द चंद्रमा के समानार्थी या पर्यायवाची शब्द हैं।
विलोम शब्द: वे शब्द जो एक दूसरे का विपरीत अर्थ देते है, उन्हें विलोम या विपरीतार्थक शब्द कहते हैं।
जैसे शीत-ऊष्ण, काला-सफेद, जीवन-मरण, सुख-दुःख।
समोच्चारित भिन्नार्थक शब्द या युग्म शब्द : वे शब्द जिनका उच्चारण समान प्रतीत होता है किन्तु अर्थ बिल्कुल भिन्न होता है।
ऐसे शब्दों को समोच्चारित भिन्नार्थक शब्द या युग्म-शब्द कहते हैं। जैसे आवरण-आभरण।
शब्द समूह के लिए एक शब्द : शब्द जो किसी वाक्य, वाक्यांश या शब्द समूह के लिए एक शब्द बन कर प्रयुक्त होते है उन्हें शब्द समूह के लिए प्रयुक्त एक शब्द कहते हैं।
जैसे – जिसका कोई अंत न हो – अनंत।
शब्द विचार Shabd Vichar
समानार्थक प्रतीत होने वाले भिन्नार्थक शब्द: वे शब्द जो सामान्यतः समान अर्थ वाले प्रतीत होते हैं, किन्तु उनमें अर्थ का सूक्ष्म अन्तर होता है तथा उन्हें अलग-अलग संदर्भ में ही प्रयुक्त किया जाता है जैसे अस्त्र-शस्त्र।
अस्त्र शब्द उन हथियारों के लिए प्रयुक्तजिन्हें फेंक कर वार किया जाता है।
जैसे-तीर बम, बन्दुक, आदि, जबकि शस्त्र उन हथियारो को कहते है जिनका प्रयोग पास में रखकर ही किया जाता है जैसे- लाठी. तलवार, चाकू, भाला आदि।
समूहवाची शब्द: किसी एक समूह का बोध कराने वाले शब्दों को समूहवाची शब्द कहते हैं
जैसे: गठ्ठर (लकड़ियों का) गुच्छा (चाबियों या अंगूर का) गिरोह (माफिया या डाकुओं का), जोडा (जूतों का, हसों का) जत्था (यात्रियों का, सत्याग्रहियों का), झुण्ठ (पशुओं का) टुकड़ी (सेना की), ढेर (अनाज का), पंक्ति (मनुष्यों, हंसों की) भीड (मनुष्यों की), माला (फूलो की, मोतियों की), श्रृंखला (मानव, लौह) रेवड़ (भेड़ व बकरियों का) समूह (मनुष्यों का)
ध्वन्यार्थक शब्द
वे ध्वन्यात्मक शब्द जिनका अर्थ ध्वनियों पर आधारित होता है। इनको निम्न उपभेदों में बाँट सकते हैं
भाषा तथा व्याकरण Bhasha Vyakaran | भाषा-व्याकरण में अंतर | भाषा-व्याकरण में संबंध । भाषा किसे कहते हैं? | भाषा के भेद ।
मनुष्य सामाजिक प्राणी है और इसी सामाजिकता के गुण के कारण उसे सदैव विचार विनिमय की आवश्यकता रही है विचार विनिमय के लिए है मानव पहले संकेतों तथा हाव-भाव का प्रयोग करता था और उसके बाद में ध्वनि संकेतों का प्रयोग शुरू हुआ।
इन्हीं ध्वनि संकेतों से भाषा का विकास हुआ। भाषा एक मात्र ऐसा साधन है, जिसके माध्यम से मनुष्य अपने हृदय के भाव एवं मस्तिष्क के विचार दूसरे मनुष्यों के समक्ष प्रकट कर सकता है और इस प्रकार समाज में पारस्परिक जुडाव की स्थिति बनती है।
यदि भाषा का विकास नहीं होता तो मनुष्य भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति नहीं कर पाता और न ही अपने विचारों की अभिव्यक्ति ही कर पाता।
Bhasha Vyakaran
भाषा के अभाव में मनुष्य पशु तुल्य रहता क्योंकि वह अपने पूर्व अनुभवों से कोई लाभ किसी को नहीं दे पाता।
भाषा शब्द संस्कृत के ‘भाष्’ से व्युत्पन्न हुआ है। जिसका अर्थ होता है -प्रकट करना।
जिस माध्यम से हम अपने मन के भाव एवं मस्तिष्क के विचार बोलकर प्रकट करते उसे भाषा कि संज्ञा दी गई है।
भाषा ही मनुष्य की पहचान होती है।
उसके व्यापक स्वरूप के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि- “भाषा वह साधन है जिसके माध्यम से हम सोचते है और अपने भावों/विचारों को व्यक्त करते है।”
आज विश्व के अलग-अलग भागों में अलग-अलग भाषाएं प्रचलित हैं भारत में भी अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग भाषाएं प्रचलित हैं
इन भाषाओं में से हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त है और वही हमारी राजभाषा भी है हिंदी एक वैज्ञानिक भाषा है, इस वैज्ञानिक भाषा का अध्ययन हम आगे करेंगे।
भाषा व्याकरण Bhasha Vyakaran
व्याकरण
व्याकरण वह शास्त्र है, जिसके द्वारा हम किसी भी भाषा को शुद्ध लिखना, बोलना और पढ़ना सीखते हैं।
प्रत्येक भाषा के लिखने, पढ़ने और बोलने केनियम मौलिक और निश्चित होते हैं।
भाषा की शुद्धता और गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए इन नियमों का पालन करना अतिआवश्यक होता है।
ये नियम भी व्याकरण के अंतर्गत आते हैं, अतः कह सकते हैं कि किसी भाषा को सीखने के नियमों के संग्रह को व्याकरण कहते हैं।
वर्ण विचार
किसी भाषा के व्याकरण ग्रंथ में इन तीन तत्वों की विशेष एवं आवश्यक रूप से विवेचना की जाती है-
वर्ग
शब्द
वाक्य
हिन्दी विश्व की सभी भाषाओं में सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा है।
जिसमें में 44 वर्ण हैं, जिन्हें दो भागों में बांटा जा सकता है- स्वर और व्यंजन।
स्वर
ऐसी ध्वनियों का उच्चारण करने मे अन्य किसी ध्वनि की सहायता की आवश्यकता नहीं होती. उन्हें स्वर कहते हैं।
स्वर ग्यारह होते हैं. अ. आ, इ, ई, उ. ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ।
स्वरों का वर्गीकरण
उच्चारण काल/ मात्रा के आधार पर
इन्हें तीन भागों में बांटा जा सकता है-
हृस्व
दीर्घ एवं
प्लुत
हृस्व स्वर
जिन स्वरों के उच्चारण में अपेक्षाकृत कम समय लगे, अथवा एक मात्रा जितना समय लगे उन्हें हृस्व स्वर कहते हैं। जैसे- अ, इ, उ, ऋ।
दीर्घ स्वर
जिन स्वरों को उच्चारण में अधिक समय लगेअथवा दो मात्रा जितना समय लगे उन्हें दीर्घ स्वर कहते है।
इन्हे मात्रा द्वारा भी दर्शाया जाता है। ये दो स्वरों को मिला कर बनते हैं. अतः इन्हें संयुक्त स्वर भी कहा जाता है।
आ. ई. ऊ, ए. ऐ, ओ, औ दीर्घ स्वर है। स्वरों के मात्रा रूप इस प्रकार है : ा ि ी ु ू ृ े ै ो ौ
प्लुत स्वर
जिन वर्णों के उच्चारण में दीर्घ स्वर से भी अधिक समय लगता है, उन्हें प्लुतस्वर कहते हैं।
हिंदी में आवश्यकता अनुसार सभी स्वर प्लुत स्वर होते हैं।
किसी को पुकारने में या नाटक के संवाद आदि में इसका प्रयोग किया जाता है। जैसे –पूSSSSत्र
जिह्वा के प्रयोग के आधार पर
जिह्वा के प्रयोग के आधार पर स्वर तीन प्रकार के होते हैं– अग्रस्वर,मध्य स्वर, और पश्च स्वर।
अग्र स्वर: जिन स्वरों के उच्चारण में जिह्वा का अग्र भाग अपेक्षाकृत अधिक सक्रिय रहता है – इ ई ए ऐ।
मध्य स्वर : जिन स्वरों के उच्चारण में जिह्वा का मध्य भाग अपेक्षाकृत अधिक सक्रिय रहता है- अ।
पश्च स्वर: जिन स्वरों के उच्चारण में जिह्वा का पश्च भाग अपेक्षाकृत अधिक सक्रिय रहता है- आ उ ऊ ओ औ।
मुख-विवर (मुख- द्वार) के खुलने के आधार पर :
मुख विवर के खुलने के आधार पर स्वर चार प्रकार के होते हैं –विवृत स्वर, अर्ध विवृत स्वर, अर्ध संवृत स्वर और संवृत स्वर
विवृत (Open): जिन स्वरों के उच्चारण में मुख-द्वार पूरा खुलता है – आ।
अर्ध-विवृत (Half-Open): जिन स्वरों के उच्चारण में मुख-विवर (मुख-द्वार) आधा खुलता है–अ, ऐ, ओ, औ
अर्ध-संवृत (Half-close): जिन स्वरों के उच्चारण में मुख-द्वार (मुख-विवर)आधा बंद रहता है – ए, ओ।
संवृत (Close): जिन स्वरों के उच्चारण में मुख-द्वार (मुख-विवर) लगभग बंद रहता है – इ.ई. उ, ऊ।
4.ओष्ठ की स्थिति के आधार पर
ओष्ठ की स्थिति के आधार पर स्वर दो प्रकार के होते हैं- अवृतमुखी और वृत्तमुखी
अवृतमुखी– जिन स्वरों के उच्चारण में ओष्ठ वृतमुखी या गोलाकार नहीं होते हैं –अ, आ, इ, ई, ए, ऐ।
वृतमुखी- जिन स्वरों के उच्चारण में ओष्ठ वृतमुखी या गोलाकार होते हैं (उ, ऊ, ओ, औ)।
5.हवा के नाक व मुँह से निकलने के आधार पर
हवा के नाक व मुंह से निकलने के आधार पर स्वर दो प्रकार के होते हैं- निरनुनासिक, अनुनासिक
निरनुनासिक/मौखिक स्वर– जिन स्वरों के उच्चारण में वायु केवल मुंह से निकलती है– अ, आ आदि।
अनुनासिक स्वर– जिन स्वरों के उच्चारण में वायु मुँह के साथ-साथ नाक से भी निकलती है – अँ, आँ, इँ आदि।
घोषत्व के आधार पर– घोष का अर्थ है नाद या स्वर तंत्रियों में श्वास का कंपन। घोषत्व के आधार पर ध्वनियां/वर्ण दो प्रकार की होती/होते हैं-
सघोष ध्वनियां- जिन स्वरों के उच्चारण से स्वरतंत्री में कंपन होता है उन्हे ‘घोष / सघोष ध्वनि कहते हैं। सभी स्वर ‘सघोष’ ध्वनियाँ होती हैं।
अघोष ध्वनियां- कोई भी स्वर अघोष नहीं होता। अघोष वर्णों का विवरण व्यंजनों के अंतर्गत दिया गया है।
व्यंजन
जो ध्वनियां स्वरों की सहायता से उच्चारित की जाती है, उन्हें व्यंजन कहते हैं।
जब हम ‘क’बोलते हैं तब उसमें ‘क्’ + ‘अ’ का उच्चारण मिला होता है।
इस प्रकार हर व्यंजन स्वर की सहायता से ही बोला जाता है।
व्यंजनों को पाँच वर्ग तथा स्पर्श, अन्तस्थ एवं ऊष्म व्यंजनों में बाँटा जा गया है।
वर्गीय व्यंजन/स्पर्श व्यंजन :
क वर्ग – क्, ख्, ग्, घ्, (ङ्)
च वर्ग – च्, छ्, ज्,झ्, (ञ्)
ट वर्ग – ट्, ठ्, ड्, ढ्, (ण्)
त वर्ग – त्, थ्,द्, ध्, (न्)
प वर्ग –प्, फ्,ब्,भ्, (म्)
अन्तस्थ-य्, र्, ल्, व्
ऊष्म –श्, ष्, स्,ह्
संयुक्ताक्षर
इसके अतिरिक्त हिन्दी में निम्नलिखित तीन संयुक्त व्यंजन भी होते है, जिनका निर्माण इस प्रकार होता है-
क्ष – क्+ष
त्र – त्+र
ज्ञ – ज्+ञ
हिन्दी वर्णमाला में 11 स्वर और 33 व्यंजन अर्थात् कुल 44 वर्ण है तथा तीन सयुक्ताक्षर होते हैं।
इन सबके अतिरिक्त हिंदी में कुछ अन्य ध्वनियाँ भी प्रचलित हैं, जिनका विवरण इस प्रकार है-
‘ड़’ इसका विकास हिंदी में हुआ है।
मूल संस्कृत व्याकरण से जो वर्णमाला हिंदी में ग्रहण की गई है, उसमें यह वर्ण नहीं मिलता है।
उपर्युक्त वर्ण ‘ट वर्गीय’ व्यंजन ‘ड’से मिलता जुलता ही हैं, परंतु इसके नीचे तलबिंदु/ नुक्ता का प्रयोग किया जाता है।
‘ट वर्गीय’व्यंजन ‘ड’ के आगे बिंदु का प्रयोग होने से वह ‘क वर्गीय’ पंचम वर्ण ङ बन जाता है।
भाषा व्याकरण Bhasha Vyakaran
अतः हिंदी में मिलते जुलते तीन रूप प्रचलित हैं लेकिन तीनों के उच्चारण और प्रयोग अलग-अलग हैं, जो इस प्रकार हैं
क वर्गीय पंचम वर्ण = ङ (यह न्ग की ध्वनि देता है। हिंदी में इससे कोई भी शब्द शुरू नहीं होता है, यह केवल क वर्ग के पंचम वर्ण के स्थान पर ही काम आता है।)
ट वर्गीय तृतीय वर्ण = ड (इसका प्रयोग शब्द में किसी भी स्थान पर किया जा सकता है।)
हिंदी में विकसित नवीन ध्वनि = ड़(हिंदी में इससे कोई भी शब्द शुरू नहीं होता है।
यह किसी भी शब्द के बीच में या अंत में आता है।
‘ढ़’ इसका विकास भी हिंदी में हुआ है।
मूल संस्कृत व्याकरण से जो वर्णमाला हिंदी में ग्रहण की गई है, उसमें यह वर्ण भी नहीं मिलता है।
(उपर्युक्त दोनों वर्ण ‘ट वर्गीय’ व्यंजन ‘ड’, ‘ढ’ से मिलते जुलते ही हैं, परंतु इनके नीचे तलबिंदु/ नुक्ता का प्रयोग किया जाता है।
ड़ और ढ़ दोनों ही वर्णों से हिंदी का कोई भी शब्द शुरू नहीं होता है अर्थात यह दोनों वर्ण हिंदी के किसी भी शब्द के प्रारंभ में नहीं आते हैं।)
द्य यह वर्ण भी एक तरह का संयुक्ताक्षर है, जो कि द्+य के मेल से बना है और द्य की ध्वनि देता है।
इसका प्रयोग विद्यालय, विद्या, विद्युत, उद्यम, उद्योग इत्यादि शब्दों में होता है।
यह वर्ण धवर्ण से अलग होता है। द्य के स्थान पर ध का प्रयोग शुद्ध होता है।
श्र यह भी एक प्रकार से संयुक्ताक्षर ही है, जिसकानिर्माण श्+र के मेल से होता है।
इसे भी वर्णों में या संयुक्त अक्षरों में नहीं गिना जाता है।
विदेशी/आगत ध्वनियां
अंग्रेजी भाषा से
ऑ इसका आगमन आंग्ल भाषा से हुआ है। जिसका प्रयोग डॉक्टर, कॉलेज, नॉलेज नॉन आदि शब्दों में होता है।
अरबी, फारसी से
क़, ख़, ग़, ज़, फ़ यह सभी व्यंजन अरबी फारसी से हिंदी में आए हैंऔर हिंदी के व्यंजनों से मिलते जुलते ही हैं, परंतु इनके साथ तलबिंदु / नुक्ता का प्रयोग किया जाता है और इनका उच्चारण भी हिंदी के व्यंजनों से थोड़ा सा अलग होता है इन व्यंजनों का प्रयोग अरबी फारसी उर्दू के शब्दों में या कुछ अंग्रेजी के शब्दों में भी होता है।
वर्णों के उच्चारण स्थान : भाषा व्याकरण Bhasha Vyakaran
भाषा को शुद्ध रूप में बोलने और समझने के लिए विभिन्न वर्णों के उच्चारण स्थान को जानना आवश्यक है।
वर्ण उच्चारण स्थानवर्ण ध्वनि का नाम
अ, आ, कठ कोमल तालुकंठ्य – क वर्ग और विसर्ग
इ.ई.च वर्ग, तालु तालव्य -य् श
ऋ, ट वर्ग। मूर्द्धा मूर्धन्य – और र, ष
त वर्ग, दंत दंत्य -ल, स
उ, ऊ, ओष्ठ। ओष्ठ्य -प वर्ग
अं, ङ, ञ, नासिका नासिक्य – ण, न म
ए, ऐ कंठ तालु कंठ-तालव्य –
ओ. औ कंठ ओष्ठ कंठोष्ठ्य
व दंत ओष्ठ दंतोष्ठ्य
हस्वर यन्त्रअलिजिहवा
अनुनासिक
अनुनासिक ध्वनियों के उच्चारण में वर्ण विशेष का उच्चारण स्थान के साथ-साथ नासिका का भी योग रहता है अतः अनुनासिक वर्णों का उच्चारण स्थान उस वर्ग का उच्चारण स्थान और नासिका होगा।
जैसे अं में कंठ और नासिका दोनो का उपयोग होता है अतः इसका उच्चारण स्थान कंठ नासिका दोनो होगा।
उच्चारण की दृष्टि से व्यंजनों को आठ भागों में बांटा जा सकता है-
स्पर्शी व्यंजन : जिन व्यंजनों के उच्चारण में फेफड़ों से छोड़ी जाने वाली वायु वाग्यंत्र के किसी अवयव का स्पर्श करती है और फिर बाहर निकलती है। निम्नलिखित व्यंजन स्पर्शी हैं :
क्, ख्, ग्, घ्
ट्, ठ्, ड्, ढ्
त्, थ्, द्, ध्
प्, फ्, ब्, भ्
भाषा व्याकरण Bhasha Vyakaran
संघर्षी व्यंजन: जिन व्यंजनों के उच्चारण में दो उच्चारण अवयव इतने निकट आ जाते हैं किबीच का मारक छोटा हो जाता है, तब वायु उनसे घर्षण करती हुई निकलती है।
ऐसे व्यंजन संघर्षी व्यंजन है-श्,ष्, स्, ह्, ख्, ज्, फ्
स्पर्श संघर्षी व्यंजन: जिन व्यंजनों के उच्चारण में स्पर्श का समय अपेक्षाकृत अधिक होता है और उच्चारण के बाद वाला भाग संघर्षी हो जाता है, वे स्पर्श संघर्षी व्यंजन कहलाते हैं – च्, छ्,ज्, झ्।
नासिक्य व्यंजन: जिनके उच्चारण में हवा का प्रमुख अंश नाक से निकलता है – ङ्, ञ्,ण्, न्,म्
पार्श्विक व्यंजन : जिनव्यंजनोंके उच्चारण में जिह्वा का अगला भाग मसूड़ों को छूता है और वायु पार्श्व (आस-पास) से निकल जाती है, वे पार्श्विक व्यंजन है जैसे- ल्।
प्रकम्पित व्यंजन: जिन व्यंजनों के उच्चारण में जिह्वा को दो तीन बार कंपन करना पड़ता है, वे प्रकंपित कहलातेव्यंजन हैं। जैसे- र्।
उत्क्षिप्त/ ताड़नजात व्यंजन: जिनके उच्चारण में जिह्वा की नोक झटके से नीचे गिरती है तो वह उक्षिप्त (फेंका हुआ) ध्वनि कहलाती है। ड्, ढ् उत्क्षिप्त ध्वनियाँ हैं।
भाषा व्याकरण Bhasha Vyakaran
संघर्षहीन व्यंजन: जिन ध्वनियों के उच्चारण में हवा बिना किसी संघर्ष के बाहर निकल जाती है ये संघर्षहीन ध्वनियाँ कहलाती है। जैसे- य्, व्।
इनके उच्चारण में स्वरों से मिलता जुलता प्रयत्न करना पड़ता है. इसलिए इन्हें अर्धस्वर भी कहते हैं।
इसके अतिरिक्त स्वर तन्त्रियों की स्थिति और कम्पन के आधार पर वर्णो को घोष/ सघोष और अघोष श्रेणी में भी बांटा जा सकता है।
घोष वर्ण : घोष का अर्थ है नाद या गूंज। जिन वर्णों का उच्चारण करते समय गूंज (स्वर तंत्र में कंपन) होती है, उन्हें घोष वर्ण कहते हैं।
सभी स्वर,पाँचों वर्गों के अन्तिम तीन वर्ण तथा य, र, ल, व,ह घोष वर्ण कहलाते है। इनकी कुल संख्या इकतीस है।
अघोष वर्ण: जिन वर्णों के उच्चारण में प्राणवायु में कम्पन नहीं होता अतः कोई गूज न होने से ये अघोष वर्ण होते हैं।
सभी वर्गों के पहले और दूसरे वर्ण तथा श, ष, स, आदि सभी अघोष वर्ण है। इनकी संख्या तेरह है।
श्वास वायु के आधार पर वर्णों के दो भेद है:
अल्पप्राण वर्ण: जिन वर्णों के उच्चारण में श्वास वायु कम मात्रा में मुख विवर से बाहर निकलतीहै, वे अल्पप्राण वर्ण कहलाते हैं।सभी स्वर, सभी वर्गों का पहला, तीसरा और पाँचवा वर्ण तथा य,र, ल, व अल्पप्राण हैं।
महाप्राण वर्ण: जिन वर्णों के उच्चारण में श्वास वायु अधिक मात्रा में मुख विवर से बाहर निकलती है. उन्हें महाप्राण ध्वनियों कहते है।
प्रत्येक वर्ग का दूसरा और चौथा वर्ण तथा श,ष, स् ह महाप्राण है।
अनुनासिक: अनुनासिक ध्वनियों के उच्चारण में नाक का सहयोग रहता है, जैसे –अँ, आँ, ईँ, उँ आदि।
हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण : भाषा व्याकरण Bhasha Vyakaran
संयुक्त वर्ण :
खड़ी पाई वाले व्यंजन : खडी पाई वाले व्यंजनों का संयुक्त रूप सटी पाई को हटाकर ही बनाया जाना चाहिए:
यथा ख्याति, लग्न विध्न कच्चा, छज्जा, नगण्य, कुत्ता, पथ्य, ध्यान, न्यास, पाठ. डिब्बा, सभ्य, रम्य, उल्लेख व्यास, श्लोक, राष्ट्रीय आदि।
विभक्ति चिह्न :
(क) हिन्दी के विभक्ति चिह्न सभी प्रकार के संज्ञा शब्दों से पृथक लिखेजाय,जैसे – राम ने, राम को, राम से आदि।
सर्वनाम शब्दों में ये चिह्न प्रातिपदिक के साथ मिलाकर लिखे जाय, जैसे – उसने, उसको, उससे।
(ख) सर्वनाम के साथ यदि दो विभक्ति चिहन हों तो उनमें से पहला मिलाकर और दूसरा पृथक लिखा जाय – जैसे – उसके लिए, इसमें से।
क्रिया पद : संयुक्त क्रियाओं में सभी अंगीभूत क्रियाएँ पृथक-पृथक् लिखी जाय
जैसे- पढ़ रहा है, बढ़ते आ रहे हैं, जा सकता है, खाता रहता है, खेला करता है, घूमता रहेगा आदि।
संयोजक चिहन (हाइफन):संयोजक चिह्न का विधान अर्थ की स्पष्टता के लिए किया गया है। यथा –
(क) द्वन्द्व समास में पदों के बीच संयोजक चिह्न रखा जाए – जैसे -दिन-रात,दाल-रोटी, भाई-भतीजा,देख-भाल,दो-चार, हंसी-मजाक, लेन-देन, पाप-पुण्य, अमीर-गरीब
(ख) सा, जैसा आदि से पूर्व संयोजक चिह्न रखा जाए, जैसे- तुम-सा मोटा-सा, चाँद-सा,कमल-जैसा. तलवारसीधार।
(ग) तत्पुरुष समास में योजक चिह्न का प्रयोग वहीं किया जाए. जहाँ उसके बिना अर्थ के स्तर पर भ्रम होने की संभावना हो,
अन्यथा नहीं, जैसे भू-तत्व (पृथ्वी तत्व)।
संयोजक चिह न लगाने पर भूतत्व लिखा जाएगा और इसका अर्थ भूत होने का भाव भी लगाया जा सकता है।
सामान्यतः तत्पुरुष समास में संयोजक चिन्ह लगाने की आवश्यकता नहीं है.
अतः शब्दों को मिलाकर ही लिखा जाए, जैसे रामराज्य राजकुमार, गंगाजल, ग्रामवासी आत्महत्या आदि।
किन्तु अ-नख (बिना नख का), अति (नमता का अभाव) अ-परस (जिसे किसी ने छुआ न हो) आदि शब्दों में संयोजक चिन्ह लगाया जाना चाहिए अन्यथा रख, अनति, अपरस शब्द बन जाएँगे।
5 अव्यय : ‘तक’,‘साथ’’ आदि अव्यय सदा पृथक लिखे जाय जैसे – आपके साथ, यहाँ तक।
अन्य नियम :
अंग्रेजी के जिन शब्दों में अर्द्धवृत्त ‘ऑ’ ध्वनि का प्रयोग होता है, उनके शुद्ध रूप का हिन्दीमें प्रयोग अभीष्ट होने पर आ की मात्रा के ऊपर अर्द्धचन्द्का प्रयोग किया जाय।
जैसे – कॉलेज, डॉक्टर, कॉपरेटिव आदि।
हिन्दी में कुछ शब्द ऐसे है जिनके दो-दो रूप बराबर चल रहे है।
विद्वत्समाज में दोनों रूपों की एक-सी मान्यता है जैसे गरदन/गर्दन, गर्मी/गर्मी, बरफ/बर्फ, बिलकुल/बिल्कुल. सरदी/सर्दी कुरसी/कुर्सी, भरती/भर्ती, फुरसत/फुर्सत. बरदाश्त/बरदाश्त, वापस/वापिस, आखीर/आखिर, बरतन/बर्तन, दोबारा/दुबारा, दुकान/ दुकान आदि।
पूर्वकालिक प्रत्यय : भाषा व्याकरण Bhasha Vyakaran
पूर्वकालिक प्रत्यय –कर क्रिया से मिलाकर लिखा जाए: जैसे मिलाकर, खा-पीकर, पढ़कर,सोकर।
शिरोरेखा का प्रयोग प्रचलित रहेगा।
पूर्ण विराम को छोड़कर शेष विराम चिह्न वही ग्रहण कर लिए जाय जो अंग्रेजी में प्रचलित है, जैसे : ? ; ! :- –
पूर्ण विराम के लिए खड़ी पाई। (।) का प्रयोग किया जाये।
अंग्रेजी हिन्दी अनुवाद कार्य तथा अन्य प्रशासनिक साहित्य में विषय के विभाजन, उपविभाजन तथा अवतरणों, उप अवतरणों का क्रमांकन करते समय अंग्रेजी के A, B,C, अथवा a, b,c, के स्थान पर सर्वत्र क, ख, ग का प्रयोग किया जाए (अ.ब. स, अथवा अ. आ, इ, आदि का नहीं) आवश्यकतानुसार 1,23, अथवा रोमनI,ii, iiiका प्रयोग किया जा सकता है।
हल चिह्न (्) का प्रयोग : भाषा व्याकरण Bhasha Vyakaran
सामान्य रूप से व्यंजन का उच्चारण स्वर की सहायता से होता है किंतु हिंदी में बहुत से ऐसेबहुत से शब्द प्रचलित हैं।
जिनमें व्यंजन के साथ स्वर का प्रयोग नहीं होता सामान्य बोलचाल की भाषा में इसे आधा व्यंजन कहा जाता है।
इस प्रकार के आधे व्यंजनया बिना स्वर के व्यंजन को दर्शाने के लिए जिन व्यंजनों के साथ खड़ी पाई का प्रयोग होता है (क ख ग)उनमें उनकी खड़ी पाई को हटा दिया जाता है
या फलक वाले व्यंजनों (क, फ) में उनके फलक को हटा दिया जाता है जैसे–ख्याति, व्यंजन, ग्यारह, क्या, फ्लू आदि।
इसके अतिरिक्त खड़ी पाई वाले व्यंजनों के साथ हल चिह्न का प्रयोग करके भी इन्हें आधा या बिना स्वर का लिखा जा सकता है, जैसे- क्, त् , थ् आदि।
गोल पेंदे वाले व्यंजनों (ट, ठ, ड, ढ, द, ह) को आधा या बिना स्वर का लिखने के लिए हल चिह्न का ही प्रयोग किया जाता है जैसे- ट्, ठ्, ड्, ढ्, द्।
अतः स्पष्ट है कि हल चिह्न का प्रयोग किसी व्यंजन को आधा या बिना स्वर का लिखने के लिए होता है।
अर्थात जिस व्यंजन के साथ हल चिह्न का प्रयोग होता है, वह स्वर रहित होता है।