विशेषण Visheshan

विशेषण Visheshan

विशेषण Visheshan | visheshan ke bhed | visheshan | kise kahate hain | paribhasha | visheshan in hindi | prakar | परिभाषा | विशेषण के उदाहरण

प्रयोग के आधार पर हिन्दी में शब्दों के दो भेद किए जाते हैं।
(i) विकारी (Vikari Shabad)

(ii) अविकारी या अव्यय शब्द (Avikari Shabad)

(i) विकारी शब्द वे शब्द होते हैं, जिनका रूप लिंग, वचन, कारक और काल के अनुसार परिवर्तित हो जाता है, उन्हें विकारी शब्द कहते हैं विकारी शब्दों में समस्त संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण तथा क्रिया शब्द आते हैं।

(ii) अविकारी या अव्यय शब्द वे शब्द होते हैं, जिनके रूप में लिंग, वचन, कारक, काल के अनुसार कोई विकार उत्पन्न नहीं होता अर्थात् इन शब्दों का रूप सदैव वही बना रहता है।

ऐसे शब्दों को अविकारी या अव्यय शब्द कहते हैं। अविकारी शब्दों में क्रियाविशेषण, सम्बन्धबोधक अव्यय, समुच्चय बोधक अव्यय तथा विस्मयादिबोधक अव्यय आदि शब्द आते हैं। विस्तृत विवरण इस प्रकार है-

विशेषण Visheshan

परिभाषा: वे शब्द, जो किसी संज्ञा या सर्वनाम शब्द की विशेषता बतलाते हैं, उन्हें विशेषण कहते हैं। जैसे-

नीला-आकाश

छोटी लड़की

दुबला आदमी

कुछ पुस्तकें

में क्रमशः नीला, छोटी, दुबला, कुछ पद विशेषण हैं, जो आकाश लड़की, आदमी पुस्तकें आदि संज्ञाओं की विशेषता का बोध कराते हैं।

अतः विशेषता बतलाने वाले शब्द विशेषण कहलाते हैं वहीं वह विशेषण पद जिस संज्ञा या सर्वनाम की विशेषता बतलाता है उसे विशेष्य कहते हैं उक्त उदाहरणों में आकाश, लड़की आदमी पुस्तकें आदि पद विशेष्य कहलायेंगे।

विशेषण संज्ञा की व्याप्ति मर्यादित करता है

इस उक्ति का अर्थ यह है कि विशेषण रहित संज्ञा से जितनी वस्तुओं का बोध होता है उनकी संख्या विशे षण के योग से कम हो जाती ।

“दो शब्द से जितने प्राणियों का बोध होता है उसके प्राणियों का बोध “काला घोड़ा,” शब्दों से नहीं होता है।

“घोड़ा” शब्द जितना व्यापक है उतना “काला घोड़ा” शब्द नहीं है।

“घोड़ा” शब्द की व्याप्ति ( विस्तार ) “काला” शब्द से मर्यादित (संकुचित ) होती है; अर्थात “घोड़ा” शब्द अधिक प्राणियों का बोधक है और “काला घोड़ा” शब्द उससे कम प्राणियों का बोधक है।

आदिकाल के साहित्यकार

भक्तिकाल के प्रमुख साहित्यकार

आधुनिक काल के साहित्यकार

विशेषण Visheshan के प्रकार

विशेषण मुख्यतः 5 प्रकार के होते हैं – पंडित कामता प्रसाद गुरु ने विशेषण के तीन भेद स्वीकार किए हैं-

1 सार्वनामिक विशेषण

2 गुणवाचक विशेषण

3 संख्यावाचक विशेषण

1. गुणवाचक विशेषण : वे शब्द, जो किसी संज्ञा या सर्वनाम के गुण, दोष, रूप, रंग, आकार, स्वभाव, दशा आदि का बोध कराते हैं, उन्हें गुणवाचक विशेषण कहते हैं। जैसे-

काल- नया, पुराना, ताजा, भूत, वर्तमान, भविष्य, प्राचीन, अगला, पिछला, मौसमी, आगामी, टिकाऊ, इत्यादि ।

स्थान – लंबा, चौड़ा, ऊँचा, नीचा, गहरा, सीधा, सकरा, तिरछा, भीतरी, बाहरी, ऊजड़, स्थानीय, इत्यादि।

आकार – गोल, चौकोर सुडौल, समान, पोला, सुंदर, नुकीला, इत्यादि ।

रंग – लाल, पीला, नीला, हरा, सफेद, काला, बैंगनी, सुनहरी, चमकीला, धुंधला, फीका, इत्यादि ।

दशा – दुबला, पतला, मोटा, भारी, पिघला, गाढ़ा, पीला, सूखा, घना, गरीब, उद्योग, पालतू , रोगी, इत्यादि।

गुण – भला, बुरा, उचित, अनुचित, सच, झूठ, पापी, दानी, न्यायी, दुष्ट, सीधा, शांत, इत्यादि ।

2. संख्यावाचक विशेषण

वे विशेषण, जो किसी संज्ञा या सर्वनाम की निश्चित, अनिश्चित संख्या, क्रम या गणना का बोध कराते हैं उन्हें संख्यावाचक विशेषण कहते हैं।

ये भी दो प्रकार के होते हैं- एक वे जो निश्चित संख्या का बोध कराते हैं तथा दूसरे वे जो अनिश्चित संख्या का बोध कराते हैं जैसे-

(i) निश्चित संख्यावाचक

निश्चित संख्यावाचक विशेषण से वस्तुओं की निश्चित संख्या का बोध होता है; जैसे, एक लड़का, पच्चीस रुपये, दसवाँ भाग, दूना मोल, पाँचों इंद्रियाँ, हर आदमी, इत्यादि।

निश्चित संख्या-वाचक विशेपणों के पाँच भेद हैं-

(अ) गणनावाचक – एक, दो, तीन।

(आ) क्रमवाचक – पहला, दूसरा।

(इ) आवृत्तिवाचक – दोगुना, चौगुना।

(द) समुदाय वाचक – दोनों तीनों, चारों।

(य) प्रत्येक बोधक – “हर घड़ी”, ” हर एक आदमी”, “प्रति जन्म”, “प्रत्येक बालक, “हर आठवें दिन”, इत्यादि।

(ii) अनिश्चय संख्यावाचक – कई, कुछ, सब, बहुत, थोड़े।

3. परिमाण वाचक विशेषण

वे विशेषण, जो किसी पदार्थ की निश्चित या अनिश्चित मात्रा, परिमाण, नाप या तौल आदि का बोध कराते है, उन्हें परिमाण वाचक विशेषण कहते हैं।

इसके भी दो उपभेद किए जा सकते हैं यथा-

(i) निश्चित परिमाण वाचक : दो मीटर, पाँच किलो, सात लीटर।

(ii) अनिश्चित परिमाण वाचक : थोड़ा, बहुत, कम, ज्यादा, अधिक, जरा-सा, सब आदि।

4. संकेतवाचक विशेषण

वे सर्वनाम शब्द, जो विशेषण के रूप में किसी संज्ञा या सर्वनाम की विशेषता बताते हैं, उन्हें संकेतवाचक या सार्वनामिक विशेषण कहते हैं। जैसे-

(i) इस गेंद को मत फेको।

(ii) उस पुस्तक को पढ़ो।

(iii) वह कौन गा रही है?

वाक्यों में इस, उस वह आदि शब्द संकेतवाचक विशेषण हैं।

5. व्यक्तिवाचक विशेषण

वे विशेषण, जो व्यक्तिवाचक संज्ञा से बनकर अन्य संज्ञा या सर्वनाम की विशेषण बतलाते हैं उन्हें व्यक्तिवाचक विशेषण कहते हैं। जैसे-

जोधपुरी जूती, बनारसी साड़ी, कश्मीरी सेब, बीकानेरी भुजिए वाक्यों में जोधपुरी, बनारसी, कश्मीरी, बीकानेरी शब्द व्यक्तिवाचक विशेषण है।

विशेष : कतिपय विद्वान एक और प्रकार विभाग वाचक विशेषण का भी उल्लेख करते हैं। जैसे- प्रत्येक हर एक आदि।

विशेषण Visheshan की अवस्थाएँ

गुणवाचक विशेषण की तुलनात्मक स्थिति को अवस्था कहते हैं। अवस्था के तीन प्रकार माने गये हैं-

(i) मूलावस्था – जिसमें किसी संज्ञा या सर्वनाम की सामान्य स्थिति का बोध होता है। जैसे- राम अच्छा लड़का है।

(ii) उत्तरावस्था – जिसमें दो संज्ञा या सर्वनाम की तुलना की जाती है। जैसे-अशोक रमेश से अच्छा है।

(iii) उत्तमावस्था – जिसमें दो से अधिक संज्ञा या सर्वनामों की तुलना करके, एक को सबसे अच्छा या बुरा बतलाया जाता है वहाँ उत्तमावस्था होती है। जैसे – राम सबसे अच्छा है। सीता सुन्दरतम लड़की है।

अवस्था परिवर्तन : मूलावस्था के शब्दों में तर तथा तम प्रत्यय लगा कर या शब्द के पूर्व शाम से अधिक, या सबसे अधिक शब्दों का प्रयोग कर क्रमशः उत्तरावस्था एवं उत्तमावस्था में प्रयुक्त किया जाता है, जैसे-

मूलावस्था   उत्तरावस्था    उत्तमावस्था
उच्च              उच्चतर           उच्चतम
तीव्र               तीव्रतर            तीव्रतम
अच्छा            से अच्छा         सबसे अच्छा
ऊँचा             से ऊँचा           सबसे ऊँचा

विशेष

सार्वनामिक विशेषण Visheshan तथा सर्वनाम में अंतर

पुरुषवाचक और निजवाचक सर्वनामों को छोड़कर शेष सर्वनामों का प्रयोग विशेषण के समान होता है।

जब ये शब्द अकेले आते हैं, तब सर्वनाम होते हैं और जब इनके साथ संज्ञा आती है तब ये विशेषण होते हैं; जैसे-

“नौकर आया है ; वह बाहर खड़ा है।”

इस वाक्य में ‘वह’ सर्वनाम है; क्योंकि वह “नौकर” संज्ञा के बदले आया है।

“वह नौकर नही आया यहाँ “वह” विशेषण है; क्योकि “वह” “नौकर” संज्ञा की व्याप्ति मर्यादित करता है।

अर्थात् उसका आश्रय बताता है।

इसी तरह “किसी को बुलाओ” और “किसी ब्राह्मण को बुलाओ “- इन दोनो वाक्यो में “किसी” क्रमशः सर्वनाम और विशेषण है।

विशेष्य

विशेषण के योग से जिस संज्ञा की व्याप्ति मर्यादित होती है उस संज्ञा को विशेष्य कहते हैं;

जैसे, “ठंडी हवा चली” – इस वाक्य में ‘ठंडी’ विशेषण और ‘हवा’ विशेष्य है।

विशेष्य (उद्देश्य) विशेषण और विधेय विशेषण

व्यक्तिवाचक संज्ञा के साथ जो विशेषण आता है वह उस संज्ञा की व्याप्ति मर्यादित नहीं करता, जैसे-

पतिव्रता सीता

प्रतापी भोज

दयालु ईश्वर

इन उदाहरणों में विशेषण संज्ञा के अर्थ को केवल स्पष्ट करते हैं।

“पतिव्रता सीता” वही व्यक्ति है जो ‘सीता है।

इसी प्रकार “भोज” और प्रतापी भोज एक ही व्यक्ति के नाम हैं।

किसी शब्द का अर्थ स्पष्ट करने के लिये जो शब्द आते हैं वे समानाधिकरण कहाते है।

ऊपर के वाक्यों में “पतिव्रता,” “प्रतापी” और “दयालु” समानाधिकरण विशेषण हैं।

विशेषण Visheshan

जातिवाचक संज्ञा के साथ उसका साधारण धर्म सूचित करनेवाला विशेषण समानाधिकरण होता है; जैसे-

मूक पशु, अबोध बच्चा, काला कौआ, ठंढी बर्फ, इत्यादि ।

इन उदाहरणो में विशेषणों के कारण संज्ञा की व्यापकता कम नही होती ।

(क) विशेष्य के साथ विशेषण का प्रयोग दो प्रकार से होता है-

(1) संज्ञा के साथ, (2) क्रिया के साथ।

पहले प्रयोग को विशेष्य (उद्देश्य) – विशेषण और दूसरे को विधेय-विशेषण कहते हैं।

विशेष्य – विशेषण विशेष्य (संज्ञा) के साथ और विधेय-विशेषण क्रिया के साथ आता है, जैसे-

ऐसी सुडौल चीज कहीं नहीं बन सकती।

हमे तो संसार सूना देख पडता है।

(ख) विधेय-विशेषण समानाधिकरण होता है, जैसे-

“यह ब्राह्मण चपल है।”

इस वाक्य में ‘यह शब्द के कारण “ब्राह्मण” संज्ञा की व्यापकता घटती है, परतु “चपल” पद उस व्यापकता को और कम नहीं करता।

उससे ब्राह्मण के विषय मे केवल एक नई बात ‘चपलता’ जानी जाती है।

(उद्धृत – हिन्दी व्याकरण – पं. कामत गुरु)

विशेषण Visheshan की रचना

संज्ञा, सर्वनाम, क्रिया तथा अव्यय शब्दों के साथ प्रत्यय के मेल से विशेषण पद बन जाता है।

(I) संज्ञा से विशेषण बनाना :

प्यार – प्यारा

समाज – सामाजिक

पुष्प – पुष्पित

स्वर्ण – स्वर्णिम

जयपुर – जयपुरी

धन – धनी

भारत – भारतीय

रंग – रंगीला

श्रद्धा – श्रद्धालु

चाचा – चचेरा

विष – विषैला

बुद्धि – बुद्धिमान

गुण – गुणवान

दूर – दूरस्थ।

(ii) सर्वनाम से विशेषण :

यह – ऐसा

जो – जैसा

मैं – मेरा

तुम – तुम्हारा

वह – वैसा

कौन – कैसा।

(iii) क्रिया से विशेषण :

भागना – भगोड़ा

लड़का – लड़की

लूटना – लुटेरा।

(iv) अव्यय से विशेषण :

आगे – आगे

पीछे – पिछला

बाहर – बाहरी

स्रोत – हिन्दी व्याकरण – पं. कामताप्रसाद गुरु

विशेषण

क्रिया विशेषण

कारक

स्वर सन्धि

व्यंजन संधि

विसर्ग सन्धि

सर्वनाम Sarvanam

सर्वनाम Sarvanam

सर्वनाम Sarvanam | परिभाषा | भेद | प्रकार | उदाहरण | सर्वनाम किसे कहते हैं | सर्वनाम शब्द | पुरुषवाचक | निजवाचक | सर्वनाम के प्रश्न

परिभाषा

सर्वनाम शब्द का अर्थ है- सब का नाम।

वाक्य में संज्ञा की पुनरुक्ति को दूर करने के लिए संज्ञा के स्थान पर प्रयोग किए जाने वाले शब्दों को सर्वनाम कहते हैं जैसे- सीता विद्यालय जाती है।

वह वहाँ पढ़ती है।

पहले वाक्य में सीता’ तथा विद्यालय शब्द संज्ञा है, दूसरे वाक्य में सीता के स्थान पर वह तथा विद्यालय के स्थान पर वहाँ शब्द प्रयुक्त हुए है।

अतः वह और वहाँ शब्द संज्ञा के स्थान पर प्रयुक्त हुए है इसलिए इन्हे सर्वनाम कहते हैं।

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सर्वनाम Sarvanam

सर्वनाम Sarvanam के भेद

पुरुषवाचक सर्वनाम

जिन सर्वनामों का प्रयोग बोलने वाले सुनने वाले या अन्य किसी व्यक्ति के स्थान पर किया जाता है, उन्हें पुरुषवाचक सर्वनाम कहते है।

पुरुषवाचक सर्वनाम तीन प्रकार के होते हैं –

(1) उत्तम पुरुषवाचक सर्वनाम

वे सर्वनाम शब्द जिनका प्रयोग बोलने वाला व्यक्ति स्वयं अपने लिए करता है। जैसे – हम, मुझे, मेरा, हमारा, हमें आदि।

(2) मध्यम पुरुषवाचक सर्वनाम

वे सर्वनाम शब्द, जो सुनने वाले के लिए प्रयुक्त किये जाते हैं।

जैसे- तू, तुम, तुझे, तुम्हें, तेरा, आप, आपका, आपको आदि।

(हिन्दी में अपने से बड़े या आदरणीय व्यक्ति के लिए तुम की अपेक्षा आप सर्वनाम का प्रयोग किया जाता है।)

(3) अन्य पुरुषवाचक सर्वनाम

वे सर्वनाम, जिनका प्रयोग बोलने तथा सुनने वाले व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के लिए प्रयुक्त करते हैं।

जैसे– यह, वह, वे, उन्हें, उसे, इसे, उसका इसका आदि।

निश्चयवाचक सर्वनाम Sarvanam

वे सर्वनाम, जो किसी निश्चित वस्तु का बोध कराते है, उन्हें निश्चयवाचक सर्वनाम कहते हैं।

जैसे- यह, वह, वे, इस, उस. ये आदि। जैसे-

वह आपकी पुस्तक है, वाक्य में वह पद निश्चयवाचक सर्वनाम है।

इसी प्रकार “यह मेरा घर है” में यह पद निश्चय वाचक सर्वनाम है।

अनिश्चयवाचक सर्वनाम

वे सर्वनाम शब्द, जिनसे किसी निश्चित वस्तु या व्यक्ति का बोध नहीं होता बल्कि अनिश्चय की स्थिति बनी रहती है, उन्हें अनिश्चयवाचक सर्वनाम कहते हैं। जैसे-

कोई जा रहा है।

वह कुछ खा रहा है।

किसी ने कहा था।

वाक्यों में कोई, कुछ, किसी पद अनिश्चयवाचक सर्वनाम हैं।

प्रश्नवाचक सर्वनाम

वे सर्वनाम, जो प्रश्न का बोध कराते हैं या वाक्य को प्रश्नवाचक बना देते हैं, उन्हें प्रश्नवाचक सर्वनाम कहते हैं। जैसे-

कौन गाना गा रही है?

वह क्या लाया?

किसकी पुस्तक पड़ी है?

उक्त वाक्यों में कौन, क्या, किसकी पद प्रश्नवाचक सर्वनाम है।

सम्बन्धवाचक सर्वनाम

सर्वनाम, जो दो पृथक-पृथक बातों के स्पष्ट सम्बन्ध को व्यक्त करते है, उन्हें सम्बन्धवाचक सर्वनाम कहते हैं।

जैसे-जो- वह, जो-सो, जिसकी-उसकी. जितना-उतना, आदि सम्बन्ध वाचक सर्वनाम है। उदाहरणार्थ-

जो पढ़ेगा सो पास होगा।

जितना गुड़ डालोगे उतना मीठा होगा।

निजवाचक सर्वनाम Sarvanam

ये सर्वनाम, जिन्हें बोलने वाला कर्ता स्वयं अपने लिए प्रयुक्त करता है, उन्हें निजवाचक सर्वनाम कहते हैं।

आप अपना, स्वयं, खुद आदि निजवाचक सर्वनाम है।

मैं अपना खाना बना रहा हूँ।

तुम अपनी पुस्तक पढो।

आदि वाक्यों में अपना, अपनी पद निजवाचक सर्वनाम है।

सर्वनाम Sarvanam की सही पहचान

‘आप’ शब्द में सही सर्वनाम

प्रयोग के आधार पर ‘आप’ शब्द में तीन सर्वनाम हो सकते हैं

अत: सही सर्वनाम की पहचान के लिए निम्नलिखित सूत्र अत्यंत उपयोगी है-

मध्यम पुरुषवाचक

यदि ‘आप’ शब्द तू/तुम के आदर रूप में प्रयुक्त होता है तो निश्चय ही वह श्रोता के लिए प्रयुक्त होगा अतः वहाँ यह मध्यमपुरुषवाचक सर्वनाम माना जाता है। जैसे– आप आराम कीजिए।

आप कहाँ जा रहे हैं?

आप क्या खाना पसंद करेंगे?

उपर्युक्त सभी उदाहरणों में आप पद श्रोता के लिएआदर सूचक रूप में ही प्रयुक्त हुआ है,

अतः यहां मध्यम पुरुषवाचक सर्वनाम माना जाएगा।

अन्य पुरुषवाचक

यदि ‘आप’ शब्द का प्रयोग किसी व्यक्ति विशेष का परिचय करवाने के अर्थ में किया जाता है तो वहाँ यह ‘अन्य पुरुषवाचक सर्वनाम’ माना जाता है।

जैसे– भगत सिंह क्रांतिकारी युवक थे, आपने ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ का नारा बुलंद किया।

उपर्युक्त उदाहरण में भगत सिंह के लिए प्रयुक्त आपने शब्द भगत सिंह के परिचय के रूप में प्रयुक्त हुआ है, अतः यहां अन्य पुरुषवाचक सर्वनाम माना जाएगा।

इस प्रकार के परिचयात्मक रूप में यदि आप शब्द का प्रयोग किया जाता है और वह व्यक्ति जिस का परिचय दिया जा रहा है वह वहां उपस्थित हो तो भी आप शब्द का प्रयोग अन्य पुरुषवाचक सर्वनाम ही माना जाएगा। क्योंकि जिस व्यक्ति का परिचय दिया जा रहा है, भले ही वह वहां उपस्थित हो परंतु वह उस बातचीत में शामिल नहीं है। बातचीत में शामिल केवल वक्ता और श्रोता ही है। वह व्यक्ति बातचीत को सुनने के बावजूद भी उस बातचीत का अंग नहीं माना जाता,अतः ऐसी स्थिति में वहां अन्य पुरुषवाचक सर्वनाम ही माना जाता है।

निजवाचक

यदि ‘आप’ शब्द अपनेपन को प्रकट करता है तो वहाँ वह निजवाचक सर्वनाम माना जाता है।

निजवाचक “आप” का प्रयोग नीचे लिखे अर्थों में होता है-

(अ) किसी संज्ञा या सर्वनाम के उदाहरण के लिए, जैसे

“मैं आप वहीं से आया हूँ ।”

“बनते कभी हम आप योगी।”

(आ) दूसरे व्यक्ति के निराकरण के लिए, जैसे –

(अ) “श्रीकृष्ण जी ने ब्राह्मण को विदा किया और आप चलने का विचार करने लगे।”

(आ) “वह अपने को सुधार रहा है।”

(इ) अवधारणा के अर्थ में “आप” के साथ कभी कभी “ही” जोड़ देते हैं, जैसे, “मैं तो आपही आती थी।”

“वह अपने पात्र के सम्पूर्ण गुण अपने ही में भरे हुए अनुमान करने लगता है।”

(ई) कभी-कभी “आप” के साथ उसका रूप “अपना” जोड़ देते हैं –

जैसे, “किसी दिन मैं आप अपने को न भूल जाऊँ ।

“क्या वह अपने आप झुका है ?”

“राजपूत वीर अपने आपको भूल गये।”

(उ) “आप” शब्द कभी-कभी वाक्य में अकेला आता है और अन्य पुरुष का बोधक होता है; जैसे-

आप कुछ उपार्जन किया ही नहीं, जो था वह नाश हो गया।”

(ऊ) सर्व-साधारण के अर्थ में भी “आप” आता है-

जैसे आप भला तो जग भला ।” (कहावत)

“अपने से बड़ों का आदर करना उचित है।”

ऋ) “आप” के बदले व उसके साथ बहुधा “खुद” (उर्दू), “स्वयं वा स्वतः” (संस्कृत) का प्रयोग होता है। स्वयं, स्वतः और खुद हिंदी में अव्यय हैं और इनका प्रयोग बहुधा क्रिया विशेषण के समान होता है। आदरसूचक ‘आप’ के साथ द्विरुक्ति के निवारण के लिए इनमें से किसी एक का प्रयोग करना आवश्यक है; जैसे-

आप खुद यह बात समझ सकते हैं।”

“हम आज अपने आपको भी हैं स्वयं भूले हुए ।”

महाराज स्वतः वहाँ गये थे।”

(ए) कभी-कभी “आप” के साथ निज (विशेषण) संज्ञा के समान आता है; पर इसका प्रयोग केवल संबंध-कारक में होता है। जैसे, “हम तुम्हें एक अपने निज के काम मे भेजा चाहते हैं ।

(ऐ) “आप” शब्द का रूप “आपस“, “परस्पर” के अर्थ मे आता है। इसका प्रयोग केवल संबंध और अधिकरण-कारकों मे होता है; जैसे-

“एक दूसरे की राय आपस में नहीं मिलती।”

आपस की फूट बुरी होती है।”

(ओ) “आपही”, “अपने आप”, “आपसे आप” और “आपही आप का अर्थ “मन से” या “स्वभाव से” होता है और इनका प्रयोग क्रिया विशेषण-वाक्यांश के समान होता है, जैसे-

“ये मानवी यंत्र आपही आप घर बनाने लगे।” (उद्धृत –पं. कामताप्रसाद गुरु)

अन्य उदाहरण-

वह आप ही आ जायेगा।

मैं अपने-आप चला जाऊंगा।

यह/वह/वे शब्दों में पहचान : सर्वनाम Sarvanam

यह/वह/वे का प्रयोग भी प्राय: दो सर्वनामों में किया जाता है अत: सही सर्वनाम की पहचान के लिए निम्नलिखित सूत्र बहुत उपयोगी है। अगर

वह/वे अन्य पुरुष के रूप में तब आते हैं, जब वह/वे का प्रयोग वक्ता या श्रोता से इतर किसी अन्य व्यक्ति के लिए किया जाता है। जैसे-

वह (कृष्ण) तो गवार ग्वाला है।

वे (कालिदास) असामान्य वैयाकरण थे।

क्या अच्छा होता जो वह इस काम को कर जाते।

वह सौदागर की सब दुकान को अपने घर ले जाना चाहता है।

(ध्यातव्य है कि वह/वे अन्य पुरुष के रूप में तब प्रयुक्त होता है जब वह वह किसी व्यक्ति के लिए प्रयुक्त हो न कि किसी पदार्थ या वस्तु के लिए।)

यदि यह/वह/वे के तुरन्त बाद कोई अन्य शब्द आए तथा उसके बाद ‘संकेतित’ पदार्थ/वस्तु वाक्य में प्रयुक्त हो रहा है तो वहाँ यह/वह/वे शब्दों को निश्चयवाचक सर्वनाम में मानना चाहिए। जैसे-

वह मेरी पुस्तक है।

यह किसकी साइकिल है।

वे सूखे पेड़ कौन ले गया।

उक्त सभी उदाहरणों में यह, वह, वे पद निश्चित वस्तुओं की ओर संकेत कर रहे हैं, अतः यहां निश्चयवाचक माना जाएगा।

(यदि यह, वह,वे शब्दों के तुरंत बाद कोई संज्ञा शब्द आ जाए और वह उन संज्ञा शब्दों की विशेषता प्रकट करें तो वहां संकेतवाचक विशेषण माना जाएगा इसकी विस्तृत चर्चा विशेषण प्रकरण के अंतर्गत की जाएगी।)

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क्रिया विशेषण

कारक

स्वर सन्धि

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संज्ञा Sangya

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संज्ञा Sangya की परिभाषा, संज्ञा के भेद, संज्ञा के उदाहरण, प्रकार, संज्ञा की पहचान, हिंदी व्याकरण में संज्ञा संपूर्ण जानकारी सहित परीक्षोपयोगी तथ्य

प्रयोग के आधार पर हिन्दी में शब्दों के दो भेद किए जाते हैं।

(i) विकारी (Vikari Shabad)

(ii) अविकारी या अव्यय शब्द (Avikari Shabad)

(i) विकारी शब्द वे शब्द होते हैं, जिनका रूप लिंग, वचन, कारक और काल के अनुसार परिवर्तित हो जाता है, उन्हें विकारी शब्द कहते हैं विकारी शब्दों में समस्त संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण तथा क्रिया शब्द आते हैं।

(ii) अविकारी या अव्यय शब्द वे शब्द होते हैं, जिनके रूप में लिंग, वचन, कारक, काल के अनुसार कोई विकार उत्पन्न नहीं होता अर्थात् इन शब्दों का रूप सदैव वही बना रहता है। ऐसे शब्दों को अविकारी या अव्यय शब्द कहते हैं। अविकारी शब्दों में क्रियाविशेषण, सम्बन्धबोधक अव्यय, समुच्चय बोधक अव्यय तथा विस्मयादिबोधक अव्यय आदि शब्द आते हैं। विस्तृत विवरण इस प्रकार है-

संज्ञा Sangya की परिभाषा

परिभाषा

किसी प्राणी, वस्तु स्थान, भाव अवस्था, गुण या दशा के नाम को संज्ञा कहते हैं। जैसे राम, नदी, आगरा, स्वतंत्रता, बचपन, मिठास, खटास आदि।

संज्ञा Sangya के भेद

संज्ञा मुख्यतः तीन प्रकार की होती है

(1) व्यक्तिवाचक संज्ञा (2) जातियाचक संज्ञा (3) भाववाचक संज्ञा

(1) व्यक्तिवाचक संज्ञा Sangya

व्यक्ति विशेष, वस्तु विशेष अथवा स्थान विशेष के नाम को व्यक्तिवाचक संज्ञा कहते है। जैसे

व्यक्ति विशेष : जय, गौतम, रमेश, नीलेश।

वस्तु विशेष : रामायण, रविपंखा, उषामशीन।

स्थान विशेष : बीकानेर, गंगा, मीनाक्षी मंदिर, हिमालय।

व्यक्तिवाचक संज्ञा में रहने वाले शब्दों की पहचान

(i)  व्यक्तियों के नाम

(ii) दिशाओं के नाम

(iii) देशों के नाम

(iv) पहाड़ों के नाम

(v) समुद्रों के नाम

(vi) नदियों के नाम

(vii) दिनों के नाम

(viii) महीनों के नाम

(ix) पुस्तकों के नाम

(x) समाचार पत्रों के नाम

(xi) त्योहारों/उत्सवों के नाम

(xii) नगरों के नाम

(xiii) सड़कों के नाम

(xiv) चौकों के नाम

(xv) ऐतिहासिक युद्धों के नाम

(xvi) राष्ट्रीय जातियों के नाम

कतिपय परिस्थितियों में व्यक्तिवाचक संज्ञा शब्द भी जातिवाचक संज्ञा के रूप में स्वीकार किए जाते हैं

व्यक्तिवाचक संज्ञा का कोई शब्द जब अपने साथ अन्य नामों का भी बोध कराता है तो वहाँ जातिवाचक संज्ञा मानी जाती है- जैसे

समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहा जाता है।

उक्त उदाहरण में नेपोलियन शब्द व्यक्तिवाचक संज्ञा का उदाहरण है परंतु यहाँ अन्य नामो का बोध कराने के कारण यह जातिवाचक संज्ञा माना गया है।

अन्य उदाहरण –

कलियुग के भीम

कविता हमारे घर की लक्ष्मी है

देश में जयचन्दों की कमी नहीं है।

तीसरे उदाहरण में ‘लक्ष्मी’ संज्ञा जातिवाचक है, क्योंकि उससे विष्णु की स्त्री का बोध नहीं होता, किंतु लक्ष्मी के समान एक गुणवती स्त्री का बोध होता है। इसी प्रकार   ‘भीम’ भी जातिवाचक संज्ञा हैं। “गुप्तों की शक्ति क्षीण होने पर यह स्वतंत्र हो गया था”। इस वाक्य में “गुप्तों” शब्द से अनेक व्यक्तियों का बोध होने पर भी वह नाम व्यक्तिवाचक संज्ञा है, क्योंकि इससे किसी व्यक्ति के विशेष धर्म का बोध नहीं होता, किंतु कुछ व्यक्तियोंके एक विशेष समूह का बोध होता है। (उद्धृत – हिंदी व्याकरण पंडित कामताप्रसाद गुरु पृ. सं. 80)

(2) जातिवाचक संज्ञा Sangya

जिस संज्ञा से किसी प्राणी, वस्तु अथवा स्थान की जाति या पूरे वर्ग का बोध होता है, उसे जातिवाचक संज्ञा कहते हैं। जैसे –

प्राणी : मानव, लड़का, घोड़ी, मोर, फौज, भीड़।

वस्तु : पुस्तक, पंखा, चाय, साबुन, सोना,पर्वत, गेंहूँ।

स्थान : नदी, गांव, विद्यालय।

जातिवाचक संज्ञा में रहने वाले शब्दों की पहचान-

I. पदों के नाम- राष्ट्रपति, सभापति, जिलाधीश, तहसीलदार, प्रधानाचार्य, अध्यापक।

II. व्यवसाय के नाम- डाॅक्टर, वकील, मजदूर आदि।

III. सामाजिक संबंधों के नाम- दादा, दादी, भाई, पिताजी, माताजी आदि।

IV. प्राकृतिक आपदाओं के नाम- आँधी, तूफान, भूकम्प आदि।

V. फर्नीचर के नाम- मेज, कुर्सी, चारपाई आदि।

कतिपय परिस्थितियों में जातिवाचक संज्ञा शब्द भी व्यक्तिवाचक संज्ञा के रूप में स्वीकार किए जाते हैं

जब कोई जातिवाचक संज्ञा शब्द किसी व्यक्ति विशेष के अर्थ में रूढ़ हो जाता है तो वहाँ व्यक्तिवाचक संज्ञा मानी जाती है। कुछ जातिवाचक संज्ञाओं का प्रयोग व्यक्तिवाचक संज्ञाओं के समान होता है।

जैसे-

पुरी = जगन्नाथ

देवी = दुर्गा

दाऊ = बलराम

संवत् = विक्रमी संवत् इत्यादि ।

इसी वर्ग में वे शब्द शामिल हैं जो मुख्य नामों के बदले उपनाम के रूप में आते हैं। जैसे-

सितारे – हिंद = राजा शिवप्रसाद

भारतेन्दु = बाबू हरिश्चन्द्र

गुसाईजी = गोस्वामी तुलसीदास इत्यादि।

बहुत सी योगरूढ़ संज्ञा, जैसे, गणेश, हनुमान, हिमालय, गोपाल, इत्यादि मूल में जातिवाचक संज्ञाएँ हैं, परंतु अब इनका प्रयोग जातिवाचक अर्थ में प्रायः नहीं होता। (उद्धृत – हिंदी व्याकरण पंडित कामताप्रसाद गुरु पृ. सं. 80-81)

अन्य उदाहरण –

नेताजी ने जय हिंद का नारा दिया।

उक्त उदाहरण में नेताजी शब्द जातिवाचक संज्ञा के अंतर्गत है। क्योंकि नेताजी शब्द का अपने सामान्य अर्थ में कोई भी नेताजी हो सकते हैं, परंतु उक्त वाक्य में ऐसा नहीं है।यहां नेताजी शब्द सुभाषचंद्र बोस के लिए रूढ़ हो गया है, अतः यहां नेताजी शब्द व्यक्तिवाचक संज्ञा माना जाएगा।

बापू ने आजादी के लिए चरखा चलाया।

सरदार ने देश को संगठित किया।

देश हमें प्राणों से प्यारा है।

(3) भाववाचक संज्ञा Sangya

किसी भाव. अवस्था, गुण अथवा दशा के नाम को भाववाचक संज्ञा कहते हैं।

जैसे-सुख, दु:ख, बचपन, जवानी, तरुणाई, बुढा़पा,  सुन्दरता, आजादी, गुलामी, स्वतंत्रता, मिठास, खटास।

कतिपय परिस्थितियों में भाववाचक संज्ञा शब्द भी जातिवाचक संज्ञा के रूप में स्वीकार किए जाते हैं

कभी-कभी भाववाचक संज्ञा का प्रयोग जातिवाचक संज्ञा के समान होता है, जैसे-

“उसके आगे सब निरादर है”।

इस वाक्य में “निरादर” शब्द से”निरादर-योग्य ‘स्त्री’ का बोध होता है ।

“ये सब कैसे अच्छे पहिरावे है”।

यहाँ “पहनावे” का अर्थ बहुत करके“पहनने के वस्त्र” है ।

(उद्धृत – हिंदी व्याकरण पंडित कामताप्रसाद गुरु पृ. सं. 81)

सामान्य परिस्थितियों में भाववाचक संज्ञा का प्रयोग  एकवचन में ही होता है। परंतु यदि भाववाचक संज्ञा को बहुवचन में प्रयुक्त कर दिया जाये तो वहाँ पर जातिवाचक संज्ञा मानी जाती है।

अब तो दूरियाँ भी नजदीकियाँ बन गयी हैं।

आजकल चोरियाँ बहुत हो रही हैं।

सबकी प्रार्थनाएँ व्यर्थ नहीं जायेंगी।

उक्त उदाहरणों में दूरियां, नज़दीकियां, चोरियां,प्रार्थनाएं आदि विशेषण शब्द है, परंतु बहुवचन में प्रयुक्त होने के कारण जातिवाचक संज्ञा माने गए हैं।

विशेष: कुछ विद्वान अंग्रेजी व्याकरण की नकल करते हुए हिन्दी में भी संज्ञा के निम्नलिखित दो भेद और मानते हैं

(1) समुदायवाचक संज्ञा Sangya (Collective Noun)-

जिन संज्ञा शब्दों से व्यक्तियों, वस्तुओं आदि के समूह का बोध हो, उन्हें समुदायवाचक संज्ञा कहते हैं। जैसे –

(अ) व्यक्तियों का समूह- भीड़, कक्षा, दल, सभा, सेना, फौज, जत्था, सम्मेलन, गिरोह, संगोष्टी मंडली, टीम, दल, वृन्द।

(ब) वस्तुओं का समूह- गुच्छा, मंडल, झुण्ड, ढेर, कुंज, आगार।

(2) द्रव्यवाचक संज्ञा Sangya (Material Noun)-

जिन संज्ञा शब्दों से किसी धातु, द्रव्य आदि पदार्थों का बोध हो, उन्हें द्रव्य वाचक संज्ञा कहते हैं। जैसे-

तेल, सोना, चाँदी, चावल, घी, पीतल, गेहूँ, कोयला, लकड़ी आदि।

किन्तु हिन्दी में उक्त दोनों भेद जाति-वाचक संज्ञा के अन्तर्गत आते है।

भाववाचक संज्ञा बनाना –

जातिवाचक संज्ञा, सर्वनाम विशेषण, क्रिया तथा कुछ अव्यय पदों के साथ प्रत्यय के मेल से भाववाचक संज्ञा बनती हैं। तथा –

1- संज्ञा से भाववाचक संज्ञा –

  • ता प्रत्यय के मेल से

मानव-मानवता

मित्र-मित्रता

प्रभु-प्रभुता

पशु-पशुता

  • त्व प्रत्यय के मेल से

पशु-पशुत्व

कवि- कवित्व

गुरु- गुरुत्व

मनुष्य– मनुष्यत्व

  • पन प्रत्यय के मेल से

लड़का-लड़कपन

बच्चा – बचपन

  • अ प्रत्यय के मेल से

शिशु-शैशव

गुरु-गौरव

वैभव – वैभव

  • इ प्रत्यय के मेल से

भक्त-भक्ति।

  • ई प्रत्यय के मेल से

नौकर – नौकरानी

चोर-चोरी

  • आपा प्रत्यय के मेल से

बूढ़ा – बुढ़ापा

बहन – बहनापा

2- सर्वनाम से भाववाचक संज्ञा :

(अ) त्व  प्रत्यय के मेल से –

अपना-अपनत्व

निज – निजत्व

स्व-स्वत्व

(आ) पन प्रत्यय के मेल से –

अपना – अपनापन

पराया – परायापन

कार प्रत्यय के मेल से –

अहं – अहंकार

(इ)स्व  प्रत्यय के मेल से –

सर्व – सर्वस्व

3- विशेषण से भाववाचक संज्ञा :

(अ) आई प्रत्यय के मेल से –

साफ – सफाई

अच्छा – अच्छाई

बुरा – बुराई

(आ) आस प्रत्यय के मेल से –

खट्टा – खटास

मीठा – मिठास

(इ) ता प्रत्यय के मेल से –

उदार – उदारता

वीर – वीरता

सरल – सरलता

(ई) य प्रत्यय के मेल से –

मधुर – माधुर्य

सुन्दर – सौन्दर्य

स्वस्थ – स्वास्थ्य

(उ) पन प्रत्यय के मेल से –

खट्टा – खट्टापन

पीला – पीलापन

(ऊ) त्व प्रत्यय के मेल से –

वीर – वीरत्व।

(ए) ई प्रत्यय के मेल से –

लाल – लाली

4. क्रिया से भाववाचक संज्ञा :

(अ) अ प्रत्यय के मेल से –

खेलना – खेल

लूटना – लूट,

जीतना-जीत।

(आ) ई प्रत्यय के मेल से –

हँसना-हँसी

(इ) आई प्रत्यय के मेल से –

चढ़ना-चढ़ाई

पढ़ना-पढ़ाई

लिखना-लिखाई

(ई) आवट प्रत्यय के मेल से –

बनाना – बनावट

थका – थकावट

लिखना – लिखावट

(उ) आव प्रत्यय के मेल से –

चुनना – चुनाव

(ऊ) आहट प्रत्यय के मेल से –

घबराना – घबराहट

गुनगुनाना – गुनगुनाहट

(ए) न प्रत्यय के मेल से –

लेना-देना – लेन-देन

खाना-खान।

5- अव्यय से भाववाचक संज्ञा

(अ) ई प्रत्यय के मेल से –

भीतर – भीतरी

ऊपर – ऊपरी

दूर – दूरी

(आ) य प्रत्यय के मेल से –

समीप – सामीप्य

(इ) इक प्रत्यय के मेल से –

परस्पर – पारस्परिक

व्यवहार -व्यावहारिक

(ई) ता प्रत्यय के मेल से –

निकट – निकटता

शीघ – शीघ्रता

इन्हें भी अवश्य पढ़िए-

संज्ञा

विशेषण

क्रिया विशेषण

कारक

स्वर सन्धि

व्यंजन संधि

विसर्ग सन्धि

अभिक्रमित अनुदेशन हिन्दी शिक्षण विधियाँ Hindi Shikshan Vidhiya

अभिक्रमित अनुदेशन हिन्दी शिक्षण विधियाँ Hindi Shikshan Vidhiya

अभिक्रमित अनुदेशन हिन्दी शिक्षण विधियाँ Hindi Shikshan Vidhiya | परिभाषाएं, सिद्धांत/नियम, विशेषताएं प्रकार | Abhikramit Anudeshan

प्रस्तावना

अभिक्रमित अनुदेशन अधिगम के क्षेत्र में प्रस्तुत की जाने वाली एक आधुनिक विधि है।

इस विधि के द्वारा शिक्षार्थियों को अपनी वैयक्तिक भित्रताओं के अनुसार सीखने का अवसर प्राप्त होता है।

इस विधि पर आधारित पाठ्यवस्तु को उसके तत्वों में विभक्त करके, छोटे-छोटे पदो के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। सीखने वाला इनकी सहायता से अपनी योग्यता एवं क्षमता के अनुसार तीव्र अथवा सामान्य गति से सीखता है।

पदों का अध्ययन करके शिक्षार्थियों को अपेक्षित अनुक्रियाएं करनी होती है।

इन अनुक्रियाओं की जाँच भी शिक्षार्थी को ही करनी होती है। सीखने वाला अपनी उपलब्धि का मूल्यांकन साथ-साथ करता चलता है। इस प्रकार के अध्ययन में शिक्षार्थी निरन्तर तत्पर बना रहता है तथा उसे अपने ज्ञान प्राप्ति का समुचित बोध भी होता है। यह विधि शिक्षार्थियों को नवीन ज्ञान प्रदान करने, अधिगम की दिशा में तत्पर बनाये रखने तथा उन्हें उद्दीपन प्रदान करने में सहायक है।

अभिक्रमित अनुदेशन हिन्दी शिक्षण-विधियाँ
अभिक्रमित अनुदेशन हिन्दी शिक्षण-विधियाँ

प्रस्तावना

इस प्रकार, यह सीखने की एक ऐसी मनोवैज्ञानिक विधि है, जिसमें शिक्षार्थी को स्वयं ही सीखने का अवसर प्राप्त होता रहता है।

आज की इस अभिक्रमित अनुदेशन विधि के जनक अमेरिका के मनोवैज्ञानिक बीएफ स्किनर है।

स्किनर ने सीखने की प्रक्रिया का सूक्ष्मता से अध्ययन किया और प्रयोगों द्वारा वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्रयत्न तथा सफलता प्राप्त करने से सीखने वाले को प्रोत्साहन मिलता है और वह सीखने में बराबर रुचि लेता है। स्किनर ने पुनर्बलन का सिद्धांत एवं क्रिया प्रसूत अनुकूलन इन दो सिद्धांतों के आधार पर सन 1956 में अभिक्रमित अनुदेशन की विधि का निर्माण किया। शिक्षा जगत में स्किनर ने प्रथमतः अभिक्रमित अनुदेशन शब्द का प्रयोग किया। प्रो. बी एफ स्किनर, नॉर्मन ए क्राउडर, थॉमस एफ गिलबर्ट, सिडनी एल. प्रेसे आदि को इस विधि के प्रतिपादन का श्रेय जाता है।

परिभाषाएँ

बीएफ स्किनर- “अभिक्रमित अध्ययन यह अधिगम शिक्षण की कला तथा विज्ञान है।”

एस्पिच एवं विलियम्स- “अभिक्रमित अनुदेशन से अभिप्राय अनुभवों के उस नियोजित रेखीय क्रम से है, जो उद्दीपक अनुप्रिया संबंध के संदर्भ में प्रभावशाली माने जाने वाली दक्षता की ओर अग्रसर करती है।”

सुमित एवं मोरे- “अभिक्रमित अनुदेशन किसी अधिगम सामग्री को क्रमिक पदों की श्रृंखला में व्यवस्थित करने वाली प्रक्रिया है और प्रायः इसके द्वारा किसी विद्यार्थी को उसकी परिचित पृष्ठभूमि से संप्रत्ययों, प्रनियमों और बोध के एक जटिल और नवीन स्तर पर लाया जाता है।”

एन एस मावी- “अभिक्रमित अनुदेशन अनुदेशनात्मक क्रिया को अनुदेशन एवं स्व अधिगम में परिवर्तित करने की तकनीक है। इसमें विषय वस्तु को छोटी-छोटी श्रृंखलाओं में विभाजित किया जाता है। अधिगमकर्ता उन्हें पढ़कर सही या गलत अनुक्रिया करता है। गलत अनुक्रिया को ठीक करता है, सही अनुक्रियाओं की पुष्टि करता है। वह सूक्ष्म रेखिय में पारंगत होने का प्रयास करता है।”

डी एल कुक- “अभिक्रमित अधिगम एक शब्द है जो स्वचालित आत्म-निर्देशित विधि के पर्याय के रूप में प्रयुक्त किया जाता है।”

अभिक्रमित अनुदेशन के सिद्धांत/नियम

अभिक्रमित अनुदेशन स्वयं एक शैक्षिक नवाचार है। इसमें शिक्षा तथा शिक्षा मनोविज्ञान के अनेक सिद्धांत निहित हैं, जो इस प्रकार से है-

1. क्रमिक लघु पदों का नियम-

अभिक्रमित अनुदेशन में सिखाई जाने वाली सामग्री को तार्किक क्रम में छाटे-छोटे फ्रेम में इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है कि पहला फ्रेम आगे आने वाले फ्रेम का आधार होता है। विषय वस्तु के इस छोटे पद या अंश को फ्रेम कहा जाता है यह पद एक दूसरे के साथ रेखे रूप में जुड़े रहते हैं। इसमें शिक्षार्थी प्रत्येक फ्रेम को आसानी से समझ कर समग्र ज्ञान प्राप्त कर सकता है।

2. सक्रिय प्रतिभागिता का नियम

विषय वस्तु के साथ बालक जब सक्रिय प्रतिभागिता करता है तब वह सरलता से सीखता है, अतः सक्रिय प्रतिभागिता से अभिप्राय बालक द्वारा पाठ्यवस्तु का तत्परता के साथ अध्ययन किया जाता है। इसके अनुसार सीखने की आवश्यक शर्त सक्रियता है।

3. प्रतिपुष्टि का सिद्धांत

यह सिद्धांत उत्तर की तुरंत जांच पर आधारित है शिक्षार्थी अभिक्रमित अध्ययन सामग्री में उपलब्ध सही उत्तर को देखकर अपने उत्तर की पुष्टि कर सकता है इससे उसे आंतरिक संतुष्टि एवं बल प्राप्त होता है जिससे सीखने की गति बढ़ जाती है सीखने के तुरंत बाद सीखने का मूल्यांकन और प्रश्न का उत्तर ठीक देने पर उसकी पुष्टि और इससे आगे बढ़ने की प्रेरणा को प्रतिपुष्टि का सिद्धांत कहते हैं।

4. स्वयं गति का सिद्धांत

इस सिद्धांत में व्यक्तिगत विभिन्नताओं को ध्यान में रखा जाता है।

इसे बालक अपनी गति बुद्धि क्षमता योग्यता अभिवृत्ति आदि के अनुसार सीखता है इसे ही शक्ति का सिद्धांत कहते हैं

सोया परीक्षण का सिद्धांत इस सिद्धांत के अनुसार सीखने वाला स्वयं अपना परीक्षण कर सकता है और वह यह भी जान सकता है कि उसने कितना सीखा है और कितना सीखना शेष है इसके माध्यम से अध्यापक शिक्षार्थियों की कमजोरियों को जानकर अपने अभिक्रमित अधिगम को सुधार सकता है इसे स्वयं परीक्षण का सिद्धांत कहा जाता है।

5. स्व परीक्षण का सिद्धांत

इस सिद्धांत के अनुसार सीखने वाला स्वयं अपना परीक्षण कर सकता है और वह यह भी जान सकता है कि उसने कितना सीखा है और कितना सीखना शेष है।

इसके माध्यम से विद्यार्थी अपनी कमजोरियों को जानकर अपने अभिक्रमित अधिगम को सुधार सकता है।

इसे स्वर परीक्षण का सिद्धांत कहा जाता है।

अभिक्रमित अनुदेशन की विशेषताएं : अभिक्रमित अनुदेशन हिन्दी शिक्षण विधियाँ Hindi Shikshan Vidhiya

1. अभिक्रमित अनुदेशन में पाठ्य-सामग्री को छोटे-छोटे अंशों में विभाजित कर पढ़ाया जाता है।
2. ये छोटे-छोटे अंश परस्पर रेखीयबद्ध होते है।
3. अभिक्रमित निर्देशन में प्रत्येक पद अपने आगे वाले पद से तार्किक रूप से जुड़ा होता है।
4. सीखने वाले को सतत प्रयास करना पड़ता है।
5. शिक्षार्थियों के पूर्व व्यवहार अथवा पूर्व ज्ञान का विशेष ध्यान रखा जाता है।
6. अनुदेशन के उद्देश्यों को व्यावहारिक रूप में लिखा जाता है।
7. शिक्षा पाठय-सामग्री का स्वयं अध्ययन करता है। साथ-साथ वह अनुक्रिया भी करता है।
8. शिक्षार्थी के व्यवहार को समुचित पृष्ठपोषण (Feedback) प्रदान किया जाता है।

विशेषताएं

9. शिक्षार्थी की प्रत्येक अभिक्रिया उसे एक नया ज्ञान प्रदान करती है।
10. शिक्षार्थियों की अनुक्रियाओं के आधार पर स्व-मूल्यांकन किया जाता है और तदनुसार उसमें सुधार तथा परिवर्तन भी किया जाता है।
11. अभिक्रमित अनुदेशन शिक्षार्थियों की कठिनाइयों और कमजोरियों का निदान कर उपचारात्मक अनुदेशन की भी व्यवस्था करता है।
12. अध्यापक की उपस्थिति के बिना शिक्षार्थी सुगमता से अधिगम प्राप्त कर लेता है।
13. अभिक्रमित अनुदेशन में पुनर्बलन के सिद्धांतों की पुष्टि होती है।
14. अभिक्रमित अनुदेशन प्रणाली मनोवैज्ञानिक अधिगम सिद्धांतों पर आधारित है।
15. अभिक्रमित-अनुदेशन द्वारा परंपरागत शिक्षा की अपेक्षा शिक्षार्थी अधिक सीखता है।

अभिक्रमित अनुदेशन के प्रकार

अभिक्रमित अनुदेशन एक संपूर्ण शैक्षिक कार्यक्रम है।

इसकी रचना के आधार पर अभिक्रमित अनुदेशन का वर्गीकरण निम्नानुसार किया जा सकता है-
1. रेखीय अभिक्रमित
2. शाखीय अभिक्रम
3. मेथेटिक्स अभिक्रम

अभिक्रमित अनुदेशन के दोष अथवा सीमाएं

अभिक्रमित अनुदेशन में केवल पढ़ने और बोध शक्ति के विकास को ही अवसर मिलता है

भाषा शिक्षण के अन्य कौशल जैसे- सुनना, बोलना, लिखना, चिंतन मनन शक्ति आदि के विकास संबंधी पक्ष उपेक्षित रह जातें हैं

जो विद्यार्थी लापरवाह प्रवृत्ति के होते हैं यदि उन पर अध्यापक बराबर नियंत्रण न हो तो वे और भी लापरवाह हो जाते हैं

धीरे-धीरे शिक्षा में उनकी अरुचि हो जाती है

यह तकनीकी अनुदेशात्मक उद्देश्यों में से ज्ञानात्मक उद्देश्य को प्राप्त करने में सहायक हो सकती है

अभिक्रमित अनुदेशन का प्रयोग हर विषय के लिए किया जाना असंभव है
क्योंकि सभी विषयों व उनसे संबंधित प्रकरणों का अभिक्रम का निर्माण किया जाना मुश्किल है

अभिक्रमित अनुदेशन के दोष अथवा सीमाएं

कंप्यूटर मशीन द्वारा शिक्षण होने से कक्षा में जो एक भावनात्मक वातावरण बनता है उसका अभाव होता है
शिक्षा अपने व्यक्तित्व से होने अनेक बातों के लिए छात्रों को प्रभावित करता है इसमें प्रभाव का अभाव रहता है

अभिक्रमित अनुदेशन को व्यक्तिक अनुदेशन की एक तकनीकी माना गया है
परंतु वास्तव में यह बात ठीक नहीं हर छात्र को अधिगम में अपनी अपनी गति से तो आगे बढ़ना होता है
परंतु अधिगम की सामग्री तो हर छात्र के लिए एक सी ही होती है
सभी छात्रों को एक से तरीके से सिखाना होता है और अधिगम अनुदेशन में बताए हुए एक से रास्ते से ही आगे बढ़ना होता है

अभिक्रमित अनुदेशन, अनुदेशन प्रक्रिया की स्वाभाविकता को समाप्त कर उसे यांत्रिक प्रक्रिया बना देती है
विद्यार्थी, विद्यार्थी न रहकर मशीन के पुर्जे बन जाते हैं

स्रोत NCERT शिक्षा में सूचना एवं संचार तकनीकी

हिन्दी शिक्षण-विधियाँ – अभिक्रमित अनुदेशन की विभिन्न परिभाषाएं, अभिक्रमित अनुदेशन के सिद्धांत/नियम, अभिक्रमित अनुदेशन की विशेषताएं एवं अभिक्रमित अनुदेशन के प्रकार

कंप्यूटर-आधारित संगणक सह-अनुदेशन हिन्दी-शिक्षण-विधियाँ
शाखीय अभिक्रमित-अनुदेशन हिन्दी शिक्षण-विधियाँ
रेखीय अभिक्रमित-अनुदेशन हिन्दी शिक्षण-विधियाँ
अभिक्रमित अनुदेशन हिन्दी शिक्षण-विधियाँ

रेखीय अभिक्रमित-अनुदेशन हिन्दी शिक्षण-विधियाँ

रेखीय अभिक्रमित-अनुदेशन हिन्दी शिक्षण-विधियाँ

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प्रस्तावना

हावर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर बी.एफ.स्किनर ने क्रिया प्रस्तुत अनुकूलन सिद्धांत (Operant Conditioning) का प्रतिपादन किया है।
इस सिद्धांत को लागू करके उन्होंने ‘सक्रिय अनुबद्ध अनुक्रिया शिक्षण प्रतिमान’ (Operant Conditioning Model of Teaching) का विकास किया। जिसका मुख्य लक्ष्य (focus) व्यवहार परिवर्तन है इस प्रतिमान का उदाहरण रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन (Linear Programming) है। स्किनर के शिक्षण प्रतिमान के तत्वों का प्रयोग इस अभिक्रमित अनुदेशन में किया जाता है। रेखीय अनुदेशन में शिक्षार्थी एक पथ द्वारा सीधे ज्ञान प्राप्त करता है। शिक्षार्थी इसी रूप में अनुसरण करके अध्ययन करते है तथा विचलित नहीं होते हैं। इसमें छोटे-छोटे पद (Frame) बनाये जाते है। शिक्षार्थी इनको स्वयं पढ़ता जाता है तथा साथ में अनुक्रिया भी करता जाता है। इसके बाद अनुक्रिया की वह स्वयं जाँच करता है। शिक्षार्थी इस प्रकार एक पद के बाद दूसरे पद का अध्ययन करता है।

रेखीय अभिक्रमित-अनुदेशन की आवश्यकता (Need)

इसका प्रयोग निम्नलिखित समस्याओं के समाधान के लिए किया जाता है –

1. क्रियाशील शिक्षा शिक्षण में शिक्षार्थियों की क्रियाशीलता की अपेक्षा प्रस्तुति करने पर अधिक बल दिया जाता है।

2. सफलता की जांच शिक्षण विधियाँ, पाठ्यपुस्तके तथा सहायक सामग्री शिक्षार्थियों की तत्काल जाँच के लिए कोई ऐसी व्यवस्था नहीं करती जिससे यह जानकारी हो सके कि शिक्षार्थियों को कितनी सफलता मिल रही है ?

3. निदानात्मक एवं उपचारात्मक अनुदेशन शिक्षण में शिक्षार्थियों की कमजोरियों के निदान एवं उपचारात्मक अनुदेशन की व्यवस्था नहीं की जाती है।

4. अनुक्रियाओं का पुनर्बलन विद्यार्थियों को अध्ययन की पाठ्य पुस्तकों तथा अध्ययन की सहायक सामग्री में शिक्षार्थी के व्यवहार तथा अनुक्रियाओं को पुनर्बलन प्रदान करने की कोई व्यवस्था नहीं की जाती है।

रेखीय अभिक्रमित-अनुदेशन हिन्दी शिक्षण-विधियाँ
रेखीय अभिक्रमित-अनुदेशन हिन्दी शिक्षण-विधियाँ

रेखीय अभिक्रमित-अनुदेशन की अवधारणाएं

इस अनुदेशन की अवधारणा निम्नलिखित हैं-

1. स्वतंत्रता शिक्षार्थी की सही अनुक्रियाओं अथवा व्यवहारों को प्रेरित करने और गलत अनु क्रियाओं को छोड़ देने से भी अधिक सीखते हैं अनुक्रिया को सही पाने पर उसे पुनर्बलन मिलता है और गलत अनुक्रिया करने पर पद को दोहराना पड़ता है।

2. तत्परता शिक्षार्थी तत्पर रहने से अधिक सीखता है। अनुक्रिया के लिए शिक्षार्थी को तत्पर रहना पड़ता है इस प्रकार अभिक्रमित अनुदेशन का अध्ययन शिक्षार्थी तत्पर रहकर करता है जिससे निष्पत्ति स्तर ऊंचा रहता है।

3. बोधगम्य आकार यदि पाठ्यपुस्तक को छोटे-छोटे पदों में प्रस्तुत किया जाए और पद का आकार शिक्षार्थियों के लिए बोधगम्य हो तो शिक्षार्थी अधिक सीखते हैं रेखीय अधिगम में पाठ्यपुस्तक को छोटे-छोटे पदों में प्रस्तुत किया जाता है शिक्षार्थी एक समय में एक ही पद को पढ़ता है। इसलिए इससे अधिक सीखते हैं।

4. कम से कम त्रुटियां अध्ययन के समय शिक्षार्थी कम त्रुटियां करने पर अधिक सीखता है। रेखीय अनुदेशन में शिक्षार्थियों को त्रुटि नहीं करनी चाहिए। मानक पद वह माना जाता है जिस पर कोई शिक्षार्थी त्रुटि नहीं करता है।

रेखीय अभिक्रमित-अनुदेशन की अवधारणाएं

5. क्रमबद्ध विषय वस्तु रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन में बैठे वस्तु में तार्किक क्रम का मूल्यांकन किया जाता है और मनोविज्ञान की दृष्टि से शुद्ध होने पर अभिक्रमित पुस्तक का प्रकाशन किया जाता है।

6. उभारक अनुबोधक इसके प्रस्तावना पदों में उभारक तथा प्राथमिक दोनों तरह के अनुबोधक प्रयुक्त किए जाते हैं जिससे पूर्व ज्ञान का नवीन ज्ञान से संबंध स्थापित किया जा सके। इसके निर्माण विधि में शिक्षार्थियों के पूर्व व्यवहारों को लिखा जाता है।

7. अवधि की स्वतंत्रता शिक्षार्थियों को उनकी क्षमताओं तथा अध्ययन गति के अनुकूल अवधि की स्वतंत्रता देने से शिक्षार्थी अधिक से अधिक सीखते हैं। इसके अध्ययन के लिए प्रत्येक शिक्षार्थी को पूर्ण स्वतंत्रता दी जाती है, जिससे शिक्षार्थियों को व्यक्तिगत भिन्नता के अनुसार सीखने का अवसर मिलता है। शिक्षार्थियों की अध्ययन अवधि भिन्न-भिन्न होती है, परंतु उनका निष्पादन स्तर समान होता है।

रेखीय अभिक्रमित-अनुदेशन की संरचना एवं स्वरूप (Structure)

इस व्यवस्था में पाठ्यवस्तु को छोटे-छोटे पदों में क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत किया जाता है। प्रत्येक पद शिक्षार्थी को नवीन ज्ञान प्रदान करता है। प्रत्येक पद पर शिक्षार्थी सही अनुक्रिया करता है। पदों का सम्बन्ध अंतिम व्यवहार से होता है। शिक्षार्थी एक समय में जितना पढ़ता है उसे पद (Frame) कहते हैं। सभी पदों में परस्पर चढ़ाव के क्रम में सम्बन्ध होता है। प्रत्येक पद के निम्नलिखित तीन भाग होते हैं-
1. उद्दीपक
2. पुनर्बलन
3. अनुक्रिया

1. उद्दीपक (Stimulus)

रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन व्यवहारवादी मनोविज्ञान के सिद्धांतों पर आधारित है। इसलिए अधिगम की प्रक्रिया की उद्दीपक-अनुक्रिया (S-R) के रूप में व्याख्या की जाती है।

इसमें वातावरण और परिस्थिति को प्रधानता दी जाती है।

उद्दीपक पाठ्यवस्तु के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

इस स्वतंत्र चर (Independent Variables) भी कहते हैं।

पाठ्यवस्तु उद्दीपक अनुक्रिया के लिए परिस्थिति उत्पन्न करता है।

यह अपेक्षित अनुक्रिया के लिए पर्याप्त नहीं होता इसलिए अतिरिक्त उद्दीपक भी प्रयुक्त किया जाता है, जो सही अनुक्रिया करने में शिक्षार्थियों को सहायता प्रदान करता है। इन्हें उभारक और अनुबोधक (Prompts) कहते है।

2. अनुक्रिया (Response)

शिक्षार्थी को उद्दीपक के लिए अपेक्षित अनुक्रिया करनी होती है, जिसे आश्रित चर (Dependent Variables) कहते हैं। अनुक्रिया उद्दीपक पर निर्भर करती है सही अनुक्रिया करने से शिक्षार्थी नया ज्ञान प्राप्त करता है प्रत्येक अनुक्रिया नए व्यवहार का विकास करती है, जिसका संबंध अग्रिम व्यवहार से होता है। इस प्रकार रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन की अनुक्रियाओं की तीन विशेषताएं-
(1) अनुक्रिया से शिक्षार्थी को नया ज्ञान प्राप्त होता है।
(2) अनक्रिया का सम्बन्ध अन्तिम व्यवहारों से होता है।
(3) अनुक्रिया की पुष्टि शिक्षार्थी को पुनर्बलन प्रदान करती है।

3. पुनर्बलन (Reinforcement)

शिक्षार्थियों को अपनी अनुक्रियाओं की जांच करनी होती है। सही उत्तर पदों के साथ दिया जाता है। सही अनुक्रिया पाने पर शिक्षार्थियों को प्रसन्नता होती है और अगले पद को पढ़ने के लिए पुनर्बलन मिलता है। सही अनुक्रिया परिणाम का ज्ञान प्रदान करती है। इस प्रकार पुनर्बलन से शिक्षार्थी उद्दीपक और अनुकिया के बीच नये सम्बन्ध स्थापित करता है। इसे पुष्टिकरण (Confirmation) कहते है।
इस अनुदेशन का प्रमुख लक्ष्य व्यवहार परिवर्तन (Modification of Behavior) करना है।
पदों की व्यवस्था इस प्रकार की जाती है कि एक पद की अनुक्रिया अगले पद के लिए उद्दीपक का कार्य करती है
प्रथम पद की अनुक्रिया1 द्वितीय पद में उद्दीपक दो का कार्य करती है। द्वितीय पद की अनुक्रिया दो तृतीय में उद्दीपक तीन का कार्य करती है। यह रेखीय श्रृंखला चलती रहती है।

रेखीय अभिक्रमित-अनुदेशन में पदों के प्रकार

1. प्रस्तावना पद
2. शिक्षण पद
3. अभ्यास पद
4. परीक्षण पद

रेखीय अभिक्रमित-अनुदेशन की विशेषताएं (Characteristics of Programmed Instruction) : रेखीय अभिक्रमित-अनुदेशन हिन्दी शिक्षण-विधियाँ

रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन की अपनी कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जिनका अधिगम की क्रियाओं में अधिक महत्व है।

इसकी प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित है:

1. शिक्षा की यह एक एसी व्यवस्था है जो मनोविज्ञान के अधिगम के सिद्धांतों पर आधारित है।

2. यह स्वतः अध्ययन सामग्री प्रस्तुत करती है जिसकी सहायता से प्रखर बद्धि, सामान्य बुद्धि तथा मन्द बुद्धि के शिक्षार्थियों को अपनी गति के अनुसार सीखने का अवसर मिलता है।

3. पाठ्यवस्तु को क्रमबद्ध रूप में छोटे-छोटे पदों में प्रस्तुत किया जाता है।
यह तार्किक क्रम मनोविज्ञान की दृष्टि से भी प्रभावशाली होता है।

4. इसकी सहायता से कठिन प्रत्ययों को सरलता एवं सुगमता से बोधगम्य बनाया जाता है।

5. व्यक्तिगत भिन्नता के अनुसार सीखने की स्वतंत्रता प्रदान की जाती है।

6. अधिगम के समय शिक्षार्थी को क्रियाशील रहना पड़ता है जिससे शिक्षार्थी सीखने के लिए तत्पर रहता है

7. शिक्षक की अनुपस्थिति में भी शिक्षार्थी नवीन प्रत्ययों (Concepts) को सुगमता से सीखते है।

8. परंपरागत शिक्षण की अपेक्षा अभिक्रमित अनुदेशन से शिक्षार्थी अधिक सीखते है।

9. अधिगम-अनुक्रिया अधिक प्रभावशाली होती है क्योंकि शिक्षार्थी की सही अनुक्रिया को पुनर्बलन दिया जाता है।

10. शिक्षार्थियों की बोधगम्यता के अनुरूप पाठ्यवस्तु को छोटे-छोटे पदों में प्रस्तुत किया जाता है।

रेखीय अभिक्रमित-अनुदेशन की सीमाएँ (Limitation of Linear Programming)

यह व्यवस्था अपने में पूर्ण नहीं है। इसकी निम्नलिखित सीमाएँ हैं –

1. इसमें प्रत्येक शिक्षार्थी को एक ही क्रम का अनुसरण करना पड़ता है।
उसकी आवश्यकताओं को ध्यान में नहीं रखा जाता है।

2. इसमें ज्ञानात्मक पक्ष के उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकती है।

3. सृजनात्मक तथा उच्च उद्देश्यों की प्राप्ति में प्रगति नहीं की जा सकती है।

4. इसका प्रयोग केवल प्रत्ययात्मक पाठ्यवस्तु के लिए ही किया जा सकता है।
यह तथ्यात्मक पाठ्यवस्तु के लिए उपयोगी नहीं है।

5. शिक्षार्थी को अनुक्रियाओं के लिए स्वतंत्रता नहीं होती है।
इसमें अधिगम नियंत्रित परिस्थितियों में होता है।

6. इसका निर्माण करना कठिन है।
प्रशिक्षण ग्रहण करने के बाद भी उत्तम प्रकार के अनुदेशन सामग्री का निर्माण नहीं हो पाता है।

7. प्रतिभाशाली शिक्षार्थी इसमें अधिक रुचि नहीं लेते हैं।

8. इसका प्रयोग शिक्षण तथा अनुदेशन के लिए ही किया जाता है।
इसे सुधारात्मक शिक्षण के लिए प्रयुक्त नहीं किया जाता है।

9. इसमें सामाजिक अभिप्रेरणा नहीं दी जाती है।

स्रोत NCERT शिक्षा में सूचना एवं संचार तकनीकी

रेखीय अभिक्रमित-अनुदेशन हिन्दी शिक्षण-विधियाँ, रेखीय अभिक्रमित-अनुदेशन की आवश्यकता, रेखीय अभिक्रमित-अनुदेशन की अवधारणाएं, रेखीय अभिक्रमित-अनुदेशन संरचना, रेखीय अभिक्रमित-अनुदेशन के प्रकार, रेखीय अभिक्रमित-अनुदेशन की विशेषताएं, रेखीय अभिक्रमित-अनुदेशन के दोष अथवा सीमाएं

कंप्यूटर-आधारित संगणक सह-अनुदेशन हिन्दी-शिक्षण-विधियाँ
शाखीय अभिक्रमित-अनुदेशन हिन्दी शिक्षण-विधियाँ
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अभिक्रमित अनुदेशन हिन्दी शिक्षण-विधियाँ

शाखीय अभिक्रमित-अनुदेशन हिन्दी शिक्षण-विधियाँ

शाखीय अभिक्रमित-अनुदेशन (Branching Programmed Instruction)

हिन्दी शिक्षण-विधियाँ शाखीय अभिक्रमित-अनुदेशन, आलोचना, मूल सिद्धांत, व्यावहारिक नियम, अवधारणाएं, स्वरूप, प्रकार, निर्माण विधि, विशेषताएं एवं सीमाएं आदि की पूरी जानकारी

प्रस्तावना (Introduction)

रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन पूरी तरह से अभिक्रमित अनुदेशन नहीं होता है अपितु उसका एक प्रमुख रूप है। इसका दूसरा महत्त्वपूर्ण प्रकार ‘शाखीय अभिक्रमित अनुदेशन’ है। इसे सन 1954 में नार्मन ए.क्राउडर ने प्रस्तुत किया था।

शाखीय अभिक्रमित-अनुदेशन हिन्दी शिक्षण-विधियाँ
शाखीय अभिक्रमित-अनुदेशन हिन्दी शिक्षण-विधियाँ

नार्मन ए.क्राउडर ने स्किनर के अभिक्रमित अनुदेशन की कटु आलोचना की है और इस संबंध में निम्नलिखित आपत्तियाँ उठाई हैं:

(1) मानव और अन्य प्राणियों के अधिगम में भिन्नता-

नार्मन ए. क्राउडर का पहला तर्फ यह है कि बी.एफ.स्किनर ने चूहों तथा कबूतरों पर प्रयोग द्वारा जिन अधिगम सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। उनका ही मानव के अधिगम की व्याख्या के लिए भी उपयोग किया। यह न्याय-संगत प्रतीत नहीं होता है क्योंकि मानव अधिगम चूहों तथा कबूतरों के अधिगम से पूर्वतः भिन्न होता है।

(2) प्रतिभाशाली शिक्षार्थियों में अरुचि उत्पन्न होना-

क्राउडर का दूसरा तर्क यह है कि रेखीय अधिगम अनुदेशन प्रतिभाशाली शिक्षार्थियों के लिए एक अवमान होता है क्योंकि उन्हें छोटे-छोटे पदों में एक ही ढंग में अध्ययन करना होता है तथा सभी प्रकार के शिक्षार्थियों को भी एक ही ढंग से अध्ययन करना होता है। अभ्यास के पद प्रतिभाशाली शिक्षार्थियों में अरुचि उत्पन्न करते हैं।

(3) सुधार के लिए विकल्प की अनुपलब्धता-

रेखीय अभिक्रमित अधिगम में यदि शिक्षार्थी गलत अनुक्रिया करता है तब उसके सुधार के लिए कोई भी प्रयास नहीं किया जाता है।

(4) निर्माण कार्य कठिन होना-

एक प्रभावशाली शाखीय अनुदेशन की अपेक्षा एक प्रभावशाली रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन का निर्माण करना कठिन होता है।

(5) अनुक्रिया चयन-

रेखीय अनुदेशन के अध्ययन में शिक्षार्थी को अनुक्रिया करनी होती है। जबकि शाखीय अनुदेशन में बहुनिर्वचन में से सही अनुक्रिया का चयन करना सरल होता है।

(6) शिक्षार्थियों की सही अनुक्रिया ही महत्वपूर्ण-

रेखीय अनुदान व सफल अनुक्रिया के सम्बन्ध में कोई चर्चा नहीं की जाती है जबकि अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन के लिए शिक्षार्थियों की सही अनुक्रियाएं ही महत्वपूर्ण होती हैं। सुसन मारकल का कथन है कि शिक्षार्थी अध्ययन में कम त्रटियाँ करने से अधिक सीखते हैं जबकि सभी अधिगमों के लिए यह धारणा सही नहीं होती है।

(7) सामाजिक अभिप्रेरणा का कम महत्व-

रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन में मनोवैज्ञानिक अभिप्रेरणा को ही अधिक महत्व दिया जाता है जबकि सामाजिक अभिप्रेरणा के महत्त्व पर कम बल दिया जाता है।

(8) उपचारात्मक शिक्षण का स्थान न होना-

रेखीय अनुदेशन में शिक्षार्थियों की कमजोरियों के लिए उपचारात्मक शिक्षण (Remedial Instruction) के लिए कोई स्थान नहीं होता है।

शाखीय अभिक्रमित-अनुदेशन के मूल सिद्धांत (Basic Theories Branching or Instruction Program)

(1) अनुक्रिया-अधिगम सिद्धांत

डेविड केम के अनुसार शाखीय अनुदेशन का पहला सिद्धांत यह है कि शिक्षार्थियों की गलत अनुक्रियाएँ अधिगम में बाधक नहीं होती, अपितु शिक्षार्थियों को अध्ययन के लिए निर्देशन प्रदान करती है। प्रत्येक अनुक्रिया शिक्षार्थियों में संप्रेषण की परीक्षा करती है। गलत अनुक्रिया से शिक्षार्थी संबंधी कमजोरियों का निदान होता है।

(2) निदान-उपचार सिद्धांत-

इसमें प्रश्नों का उद्देश्य निदान करना होता है परीक्षण करना नहीं। इस प्रविधि से निदान के लिए विशिष्ट उपचार तुरन्त प्रदान किया जाता है जिसमें प्रत्येक शिक्षार्थी की कमजोरियों में सुधार किया जाता है।

(3) सरलता का सिद्धांत-

शाखीय अभिक्रिया की मुख्य रुचि यह होती है कि शिक्षार्थी ने सीखा है अथवा नहीं। वे इस गहराई में रुचि नहीं लेते कि शिक्षार्थी कैसे सीखता है? इस प्रकार इस अनुदेशन में अधिगम की प्रक्रिया को अपेक्षा अधिगम उत्पादन को अधिक महत्त्व देते हैं।

(4) विभेदीकरण अधिगम सिद्धान्त : हिन्दी शिक्षण-विधियाँ शाखीय अभिक्रमित-अनुदेशन

आन्तरिक अनुदेशन में शिक्षार्थियों को सही अनुक्रिया करने के लिए कोई अनुबोधक (Prompts) तथा संकेतक नहीं प्रयुक्त जाते प्रश्न अनुबोधक रहित होता है। प्रश्न कोक बहुवचन में प्रस्तुत किया जाता है। इसलिए सही अनुक्रिया के चयन में विभेदीकरण अधिगम को बढ़ावा मिलता है।

शाखीय अभिक्रमित-अनुदेशन के व्यावहारिक नियम (Fundamental Principles of Branching Program)

इन अवधारणाओं तथा मूल सिद्धान्तों के आधार पर तीन व्यावहारिक अधिनियम दिए जा सकते हैं-

(1) व्याख्यात्मक अधिनियम (Expository Principle) : हिन्दी शिक्षण-विधियाँ शाखीय अभिक्रमित-अनुदेशन

इस व्यावहारिक अधिनियम के अनुसार सर्वप्रथम प्रत्यय अथवा इकाई के स्वरूप को व्याख्या की जाती है जिससे शिक्षार्थी समग्र रूप में पढ़ता है। जिस पृष्ठ पर व्याख्या दी जाती है उसे मुख्य पृष्ठ (Home Page) कहते हैं। व्याख्या के अन्त में बहुविकल्प वाले प्रश्न दिए जाते हैं।

(2) निदानात्मक अधिनियम (Principle of Diagnosis)

इस व्यावहारिक अधिनियम का तात्पर्य निदान करने से है। मुख्य पृष्ठ पर जो बहुविकल्प प्रश्न दिए जाते है उसका उद्देश्य निदान करना होता है। यदि शिक्षार्थी सही अनुक्रिया का चयन कर लेता है तो वह अगले प्रत्यय पर अग्रसर होता है। परन्तु गलत अनुक्रिया करने पर उसे त्रुटि पृष्ठ (Wrong Page) पर जाना होता है। क्योंकि वह प्रत्यय को सही रूप में ग्रहण नहीं कर सका है।

(3) उपचारात्मक अधिनियम (Principle of Remediation)

इस व्यावहारिक अधिनियम का कार्य उपचार प्रदान करना है। गलत अनुक्रिया से शिक्षार्थी की कमजोरियों का निदान होता है और वह गलत अनुक्रिया के सामने अंकित पृष्ठ पर सही रूप में ग्रहण कर सकें। उपचारात्मक अनुदेशन में प्रत्येक गलत अनुक्रिया के लिए अलग-अलग पृष्ठ कर दिए जाते हैं जिन्हें त्रुटि पृष्ठ (Wrong Page) कहते हैं।

हिन्दी शिक्षण-विधियाँ : शाखीय अभिक्रमित-अनुदेशन की अवधारणाएँ (Assumptions of Branching Programmed Instruction)

1 पहली

धारणा यह है कि किसी पाठ्यवस्तु को शिक्षार्थियों के समक्ष सम्पूर्ण रूप में प्रस्तुत करने से ये उसे सुगमता से ग्रहण कर लेते हैं इसलिए इसे व्याख्यात्मक अनुदेशन (Expository Program) भी कहते हैं। सम्पूर्ण प्रत्यय अथवा इकाई की व्याख्या एक साथ ही की जाती है।

2 दूसरी

धारणा यह है कि शिक्षार्थियों की गलत अनुक्रियाएँ अधिगम में बाधक नहीं होती अपितु निदान में सहायक होती हैं।

3 तीसरी

धारणा यह है कि यदि शिक्षार्थियों को अध्ययन के साध निदान के लिए उपचारात्मक अनुदेशन (Remedial Instruction) प्रदान किया जाए तो वे अधिक सीखते है।

4 चौथी

शिक्षार्थियों की व्यक्तिगत भिन्नताओं को ध्यान में रखते हुए उनकी आवश्यकताओं के अनुसार सीखने का अवसर देने से प्रक्रिया अधिक प्रभावशाली होती है। यह इस अनुदेशन की चौथी धारणा है।

5 पाचवी : हिन्दी शिक्षण-विधियाँ शाखीय अभिक्रमित-अनुदेशन

धारणा यह है कि बहुविकल्प वाले प्रश्न में से सही अनुक्रिया का चयन करने से शिक्षार्थी प्रत्यय को सुगमता से ग्रहण कर लेते हैं।

हिन्दी शिक्षण-विधियाँ : शाखीय अभिक्रमित-अनुदेशन का स्वरूप (Structure of Branching Program)

इस व्यवस्था में पाठयवस्तु को छोटे-छोटे पदों में न रखकर समग्र पाठ या एक इकाई या प्रत्यय के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। प्रत्येक पद का आकर बड़ा, एक या दो पराग्राफ से लंकर सम्पूर्ण पृष्ठ तक का होता है। अध्ययन के समय पृष्ठों का क्रमबद्ध रूप में अनुसरण नहीं किया जाता इसलिए इसे उत्कट पाठ्यपुस्तक (Scramble Test) कहते हैं। इस प्रकार की पाठ्यवस्तु में दो प्रकार के पृष्ठ होते हैं-

(1) मुख्य पृष्ठ / गृहपृष्ठ (Home Page)
(2) त्रुटि पृष्ठ (Wrong Page)

हिन्दी शिक्षण-विधियाँ : शाखीय अभिक्रमित-अनुदेशन के प्रकार (Types of Branching Program)

(1) बहुविकल्प प्रश्न पर आधारित (Base on Multiple Choice Question)

शाखीय अनुदेशन के इस रूप में सूचना के अन्त में बहुविकल्प प्रश्न दिया जाता है जिसमें प्रश्न के लिए कई सम्भावित विकल्प दिये जाते हैं। उनमें से एक सही होता है। शिक्षार्थियों को उनमें से एक ही उत्तर का चयन करना होता है। यदि वह सही विकल्प का चयन कर लेता है तब उसके सामने अंकित संख्या के प्रश्न से उसकी पुष्टि होती है। गलत अनुक्रिया करने पर उसके सामने अंकित संख्या के पृष्ठ पर उपचार के लिए अनुदेशन दिये जाते हैं।

(2) रचनात्मक अनुक्रिया प्रश्न पर आधारित (Based on Constructive Response Question)

सूचना के अन्त में प्रश्न दिए जाते है और उनके उत्तर के लिए कोई विकल्प नहीं दिए जाते। शिक्षार्थियों को उन प्रश्नों का उत्तर स्वयं देना होता है। शिक्षार्थी अपनी अनुक्रिया को शुद्धता की जाँच स्वयं करता है और गलत अनुक्रिया के लिए उसे उपचारात्मक अनुदेशन नहीं प्रदान किया जाता है। शिक्षार्थी प्रस्तुत सूचना को दोहरा सकता है।

(3) रचनात्मक निर्वचन प्रश्न पर आधारित (Base on Constructive Choice Question)

इस प्रकार के शाखीय अनुदेशन में शिक्षार्थियों को प्रश्न का उत्तर लिखना होता है। इसके बाद शिक्षार्थी पृष्ठ को पलट कर अपनी अनुक्रिया की पुष्टि करता है। जब शिक्षार्थी अगले पृष्ठ पर पहुंचता है तब वहाँ उसे उपचारात्मक अनुदेशन दिया जाता है क्योंकि इस पृष्ठ पर सही अनुक्रिया के लिए विकल्प दिये जाते है। प्रत्येक विकल्प के लिए उपचारात्मक अनुदेशन दिया जाता है। शिक्षार्थी को अनुक्रिया जिस विकल्प से मिलती जुलती है उसी के उपचारात्मक अनुदेशन का शिक्षार्थी अध्ययन करता है। गलत अनुक्रिया लिए उपचारात्मक अनुदेशन की सहायता प्रदान की जाती है।

(4) पुंज (Cluster) प्रश्न पर आधारित

इस प्रकार के शाखीय अनुदेशन का रूप ‘अपठित विषय’ वस्तु के समान होता है। प्रस्तुतिकरण में पर्याप्त सूचना शिक्षार्थी को प्रदान की जाती है और उससे सम्बन्धित कई प्रश्नों का उसे उत्तर देना होता है। आरंम्भ में इस प्रकार के पदों की रचना नहीं की जाती क्योंकि इसमें शिक्षार्थी से कई प्रकार के प्रश्न पूछे जाते है। इसमें शिक्षार्थी की अनुक्रिया की पुष्टि भी नहीं की जाती और न गलत अनुक्रियाओं के लिए उपचारात्मक अनुदेशन ही प्रदान किया जाता है। पुंज प्रश्न पर आधारित शाखीय अनुदेशन का प्रयोग परीक्षण के लिए किया जाता है।

(5) रेखीय क्रम (Linear Sequence)

कभी-कभी विशेष रूप से जब शिक्षार्थियों को तथ्यों तथा प्रत्ययों का पुनःस्मरण (Recall) करना होता है तब शाखीय अनुदेशन में एक रेखीय क्रम की आवश्यकता होती है। शाखीय अनुदेशन में मुख्य पृष्ठ की सूचनाओं को सीखने के क्रम में ही व्यवस्थित किया जाता है। यदि शिक्षार्थी सही अनुक्रिया का चयन करता है तब वह रेखीय क्रम का अनुसरण करता है।

हिन्दी शिक्षण-विधियाँ : शाखीय अभिक्रमित-अनुदेशन की निर्माण विधि (Development of Branching Program)

(1) प्रकरण का चयन (Selection of Topic)

सर्वप्रथम मानदंडों को ध्यान में रखकर पाठ्यवस्तु में प्रकरण का चयन किया जाता है। प्रकरण के लिए उपचारात्मक अनुदेशन को आवश्यकता है अथवा नहीं इस बात को भी ध्यान में रखा जाता है। शाखीय अनुदेशन पदों का निर्माण प्रकरण के चयन के बाद किया जाता है।

(2) अवधारणा (Assumption)

इस सापान के अंतर्गत प्रकरण से संबंधित पूर्व व्यवहार में लिखा जाता है। इसके लिए ब्लूम के वर्गीकरण का अनुसरण किया जाता है। शाखीय उद्देश्यों के निर्माण विधि के अध्याय में जो रूपरेखा दी गई है उसका प्रयोग शाखीय अनुदेशन के उद्देश्यों को व्यावहारिक रूप में लिखने के लिए किया जाता है।

(3) पाठ्यवस्तु विश्लेषण (Content Analysis) : हिन्दी शिक्षण-विधियाँ शाखीय अभिक्रमित-अनुदेशन

इस सोपान में शाखीय अनुदेशन के निर्माण हेतु निर्धारित पाठ्यवस्तु का इकाइयों में विश्लेषण किया जाता है इस प्रकार के अनुदेशन में तत्वों का अपेक्षा प्रत्यय तथा पाठ्यवस्तु की इकाइयों को अधिक महत्त्व दिया जाता है।
पाठ्यवस्तु का इकाइयों में विश्लेषण करने से मुख्य पृष्ठ की संख्या निश्चित होती है। क्योंकि पाठ्यवस्तु की प्रत्येक इकाई को एक मुख्य पृष्ठ पर लिखा जाता है। इसके अतिरिक्त यदि शाखीय अनुदेशन के बहु निर्वाचन प्रश्न में विकल्पों की संख्या निश्चित हो जाती है तब त्रुटिपृष्ठ की संख्या भी निर्धारित हो जाती है। इन सब बातों के आधार पर अभिक्रमक एक चार्ट तैयार कर लेता है जो उसके लिए निर्देशन का कार्य करता है।

(4) पदों की रचना (Writing of Frames) : हिन्दी शिक्षण-विधियाँ शाखीय अभिक्रमित-अनुदेशन

पदों की रचना आरम्भ करने से पूर्व शाखीय अनुदेशन के अनुसार पृष्ठों की संख्या अकित कर ली जायेगी प्रथम पद मुख्य पृष्ठों पर लिखा जायेगा। पाठ्यवस्तु को इकाई के पूर्व व्याख्या प्रस्तुत की जायेगी। इसके बाद बहुविकल्प वाले रूप की रचना की जायेगी जिससे पाठ्यवस्तु की बोधगम्यता की जाँच की जा सके। गलत अनुक्रिया का उपचारात्मक अनुदेशन त्रुटिपृष्ठ पर प्रस्तुत किया जायेगा। इस प्रकार अभिक्रमक चार्ट की सहायता से अनुर्दशन का निर्माण सुगमता से कर सकेगा। मुख्य पृष्ठ की सही अनुक्रिया की पुष्टि की जायेगी और उसके बाद समाप्त लिख दिया जायेगा।

(5) जाँच करना (Check out) : हिन्दी शिक्षण-विधियाँ शाखीय अभिक्रमित-अनुदेशन

अनुदेशन के पदों का निर्माण करण के बाद उनकी जाँच की जाती है। यह शिक्षार्थियों के लिए कहाँ तक उपयोगी है? इसकी पहले व्यक्तिगत जाँच की जाती है। एक-एक शिक्षक को पद पढ़ने को दिया जाता है और उसकी भाषा, शब्द तथा बोधगम्यता की कठिनाई का पता लगाकर उनमें सुधार किया जाता है। व्यक्तिगत जाँच के बाद पदों की समूह पर जाँच की जाती है। शिक्षार्थियों की अनुक्रियाओं की सहायता से अनुदेशन के पदों में सुधार तथा विकास किया जाता है और इसके बाद पदों का अन्तिम रूप तैयार किया जाता है। अन्तिम रूप की प्रतिलिपियों तैयार की जाती है जिसका प्रयोग मूल्यांकन के लिये किया जाता है।

(6) मूल्यांकन (Evolution)

पदों के अन्तिम रूप का मूल्यांकन प्रतिदर्शन के आधार पर किया जाता है। न्यादर्शों का आकार कम से कम 40 शिक्षार्थियों का होना चाहिये। सबसे पहले पूर्व-पूर्व परीक्षा के आधार पर न्यादर्शों का चयन किया जाता है जिससे पूर्व निष्पादन का मापन किया जाता है। इसके बाद अनुदेशन सामग्री पढ़ने के लिए दी जाती है। अनुदेशन के अन्त म मानदण्ड परीक्षा को अन्तिम परीक्षा के रूप में स्वीकार किया जाता है।

(7) अनुसूची तेयार करना (Manual of Program)

इस सोपान के अन्तर्गत अनुदेशन को सूची तैयार की जाती है।

सूची के अन्तर्गत अनुदेशन से सम्बन्धित सभी आवश्यक सूचनाओं का आलेख किया जाता है।

अनुसूची में निम्नलिखित सूचना की जाती है-
(1) अनुदेशन के संबंध में ऐतिहासिक रूपरेखा।
(2) अवधारणाओं का विशिष्टीकरण।
(3) मुख्य पृष्ठ तथा त्रुटि पृष्ठ चाट।
(4) मानदण्ड परीक्षा तथा उसकी कुंजी।
(5) अनुदशन के पदों का विवरण।
(6) मूल्यांकन मानदण्ड गुणको का आलेख।

यदि शाखीय अनुदेशन का निर्माण उपचारात्मक अनुदेशन के लिए किया गया है तब अनुसूची में निदानात्मक विवेचन भी दिया जाता है।

हिन्दी शिक्षण-विधियाँ : शाखीय अभिक्रमित-अनुदेशन की विशेषताएं (Characteristics of Branching Program)

(1) आवश्यकता के अनुसार अध्ययन

प्रत्येक शिक्षार्थी के लिए अपनी आवश्यकताओं के अनुसार अध्ययन का अवसर दिया जाता है।

प्रत्येक शिक्षार्थी अपने अपने अध्ययन का मार्ग निर्धारित करता है।

(2) अनुक्रियाओं को स्वतंत्रता

शिक्षार्थियों को अनुक्रियाओं के लिए स्वतंत्रता दी जाती है।

बहुविकल्प रूप के विकल्पों में से शिक्षार्थी किसी का भी चयन कर सकता है।

(3) उपचारात्मक अनुदेशन

शिक्षार्थियों को गलत अनुक्रियाओं के आधार पर उनकी व्यक्तिगत कठिनाइयों को जानकारी होती है।

उनको कमजोरियों के लिए उपचारात्मक अनुदेशन की भी व्यवस्था को जाती है।

(4) अनुवर्ग शिक्षण प्रणाली

शाखीय अनुदेशन एक अनुवर्ग शिक्षण प्रणाली की भांति कार्य करता है।

शिक्षार्थियों की कठिनाइयों तथा आवश्यकताओं को अधिक महत्त्व दिया जाता है।

(5) सरल निर्माण

शाखीय अनुदेशन का निर्माण कार्य अपेक्षाकृत अधिक सरल होता है।

(6) मानव अधिगम के प्रयुक्त : हिन्दी शिक्षण-विधियाँ शाखीय अभिक्रमित-अनुदेशन

इसका विकास मानव प्रशिक्षण के शोध कार्यों से हुआ है।

इसलिए यह मानव अधिगम के लिए भली प्रकार प्रयुक्त किया जा सकता है।

(7) उच्च शिक्षा के उद्देश्य

इसका प्रयोग क्या शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए किया जाता है।

(8) शिक्षण, अनुदेशन, उपचारात्मक अनुदेशन

इस का प्रयोग शिक्षण, अनुदेशन तथा उपचारात्मक अनुदेशन के लिए प्रभावशाली ढंग से किया जाता है।

(9) मनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक प्रेरणा

इसमें मनोवैज्ञानिक तथा सामाजिक दोनो प्रकार की ‘अभिप्रेरणा की व्यवस्था की जाती है।

(10) प्रत्ययात्मक (Conceptual) तथा विवरणात्मक (Descriptive)

इसका प्रयोग प्रत्ययात्मक तथा विवरणात्मक दोनों प्रकार की पाठ्यवस्तु के अनुदेशन के लिए किया जाता है।

(11) समायोजन प्रविधि

इसे समायोजन प्रविधि (Adjective Device) के रूप में भी प्रयुक्त किया जाता है जिससे व्यक्तिगत भिन्नताओं के अनुसार शिक्षाधीयों को अध्ययन का अवसर मिलता है।

(12) शिक्षण एवं कला संबंध

इस व्यवस्था का सम्बन्ध शिक्षण की कला से है जबकि स्किनर की व्यवस्था का सम्बन्ध ‘अधिगम के विज्ञान’ से है।

हिन्दी शिक्षण-विधियाँ : शाखीय अभिक्रमित-अनुदेशन की सीमाएं (Limitation)

नार्मन ए, क्राउड ने रेखीय अनुदेशन की सीमाओं को ध्यान में रखकर अपनी व्यवस्था का विकास किया परन्तु यह भी अपने में पूर्ण नहीं है। इसकी निम्नलिखित सीमाएं हैं-

(1) कम रुचि और ज्यादा कठिनाइयां : हिन्दी शिक्षण-विधियाँ शाखीय अभिक्रमित-अनुदेशन

शिक्षार्थिया की अध्ययन के समय पृष्ठों के क्रम का अनुसरण नहीं करना होता।

उन्हें कभी आगे कभी पीछे के पृष्ठों को उलटकर अध्ययन करना होता है।

इसलिए शिक्षार्थी कम रुचि लेते हैं तथा अध्यापन में कठिनाई का अनुभव करते हैं।

(2) सुधार की सीमित सम्भावना

शिक्षार्थी जब गलत अनुक्रिया करता है, तब उसे उसी सूचना को दुहराना पड़ता है।

इसमे शिक्षार्थी की कमजोरी को सुधारने की सम्भावना कम हो जाती है।

(3) अनुमान से विकल्प का चयन : हिन्दी शिक्षण-विधियाँ शाखीय अभिक्रमित-अनुदेशन

शिक्षार्थियों को विकल्प वाले प्रश्नों में से अपनी अनुप्रिया के लिए विकल्पों में से एक का चयन करना होता है।

अतः शिक्षार्थी बिना समझ के अनुमान से भी एक विकल्प का चयन कर लेते है।

(4) गलत विकल्प – त्रुटिपृष्ठ

गलत विकल्प सदैव त्रुटि-पृष्ठ (Wrong Page) पर दिये जाते हैं।

अतः उन पृष्ठों के विकल्पों का शिक्षार्थी सही चयन नहीं करते हैं क्योंकि एक त्रुटि-पृष्ठ पर कई विकल्पों के लिए उपचार किये जाते है।

(5) संगणक का उपयोजन असंभव

शाखीय अनुदान को संगणक तथा शिक्षण मशीन पर नहीं दिया जा सकता है।

(6) व्यक्तिगत भिन्नता

व्यक्तिगत भिन्नता के अनुसार कितनी बार शाखाएँ दी जानी चाहिये?

इस प्रश्न का उत्तर देना कठिन है।

प्रश्न के विकल्पों की संख्या निश्चित करना एक गम्भीर समस्या है।

(7) उच्च शिक्षा के लिए उपयुक्त

इस व्यवस्था का प्रयोग छोटे बालका तथा प्राथमिक एवं माध्यमिक कक्षाओं के लिए नहीं किया जा सकता है।

यह उच्च शिक्षा के स्तर पर ही उपयुक्त है।

(8) अधिगम परिस्थितियों और प्रकियाओं पर ध्यान नहीं

इसमें अधिगम परिस्थितियों तथा अधिगम प्रक्रियाओं पर ध्यान नहीं दिया जाता है, जो प्रभावशाली शिक्षण व्यवस्था के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण तत्व हैं।

स्रोत NCERT शिक्षा में सूचना एवं संचार तकनीकी

कंप्यूटर-आधारित संगणक सह-अनुदेशन हिन्दी-शिक्षण-विधियाँ
शाखीय अभिक्रमित-अनुदेशन हिन्दी शिक्षण-विधियाँ
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कंप्यूटर-आधारित संगणक सह-अनुदेशन हिन्दी-शिक्षण-विधियाँ

कंप्यूटर-आधारित संगणक सह-अनुदेशन हिन्दी-शिक्षण-विधियाँ (Computer Assisted Instruction – CAI)

हिन्दी-शिक्षण-विधियाँ कंप्यूटर-आधारित संगणक सह-अनुदेशन का अर्थ, आधारभूत मान्यताएं, प्रकार, विशेषताएं, शिक्षण प्रक्रिया, आवश्यक विशेषज्ञ, प्रणाली की उपयोगिता एवं सीमाएं आदि की जानकारी

कंप्यूटर-आधारित संगणक सह-अनुदेशन का अर्थ (Meaning of Computer Assisted Instruction)

संगणक द्वारा अनुदेशन के अन्तर्गत, अधिगम करने वाले शिक्षार्थी के लिए विभिन्न प्रकार की अधिगम परिस्थितियों को उत्पन्न किया जाता। इन परिस्थितियों को अनुदेशन के आधार पर उत्पन्न किया जाता है। जब इन अधिगम परिस्थितियों को नियन्त्रित अनुदेशन के माध्यम से संगणक द्वारा उत्पन्न किया जाता है तो इस प्रक्रिया को संगणक के द्वारा अनुदेशन के नाम से संबोधित किया जाता है। इस प्रकार संगणक द्वारा नियंत्रित अनुदेशन पर अधिगम परिस्थितियों को उत्पन्न करने की प्रक्रिया को संगणक आधारित अधिगम, संगणक अनुसूचित शिक्षा, संगणक समर्पित अधिगम तथा संगणक से अनुदेशन के नाम से भी संबोधित किया जाता है।

संगणक से अनुदेशन की प्रक्रिया में शिक्षार्थी को व्यक्तिगत रूप से स्वयं ही सीखने का अवसर प्राप्त होता है अतः यह एक व्यक्तिनिष्ठ अनुदेशन अथवा स्वतः अनुदेशन की प्रक्रिया के अंतर्गत सम्मिलित की जाने वाली प्रक्रिया है, इसके अतिरिक्त संगणक की यह एक विलक्षण विशेषता है कि इनमें किसी अध्यापक की आवश्यकता नहीं होती है, वरन अधिगम के लिए शिक्षार्थी व संगणक के मध्य जिस अन्तःक्रिया की आवश्यकता होती है, यह अन्तःक्रिया, इस प्रक्रिया के अन्तर्गत, शिक्षार्थी व संगणक के मध्य होती है।

कंप्यूटर-आधारित संगणक सह-अनुदेशन हिन्दी-शिक्षण-विधियाँ
कंप्यूटर-आधारित संगणक सह-अनुदेशन हिन्दी-शिक्षण-विधियाँ

एक अध्यापक किस प्रकार भाषा के आधार पर पाठ्यवस्तु की प्रस्तुति करते हुए, शिक्षार्थियों को अधिगम कराता है, उसी प्रकार संगणक द्वार भी, विशिष्ट उद्देश्यों, अनुदेशों तथा पुनर्बलन के आधार पर शिक्षार्थियों को अधिगम कराया जाता है। अध्यापक द्वारा किये जाने वाले शिक्षण में अनियमितता अथवा अनिष्पक्षता की संभावना भी होती है। परंतु संगणक द्वारा अनुदेशन की प्रणाली व्यक्तिनिष्ठ प्रभावों से पूर्णतया मुक्त तथा निष्पक्ष होती है। इसके अतिरिक्त अध्यापक के समान इस पर का द्वारा शिक्षार्थिया का समुचित मूल्यांकन भी किया जा सकता है।

कंप्यूटर-आधारित संगणक सह-अनुदेशन की आधारभूत मान्यताएं (Basic Assumptions CAI)

कुछ आधारभूत मान्यताओं के आधार पर संगणक सह-अनुदेशन का विकारा किया गया है। यही कारण है कि इसकी लोकप्रियता शिक्षण प्रशिक्षण के विभिन्न स्तरों एवं क्षेत्रों में बढ़ती जा रही हैं:

(1) बहुसंख्य शिक्षार्थियों के लिए उपयुक्त

संगणक सह-अनुदेशन की प्रथम मान्यता यह है कि इस मॉडल का प्रयोग एक समय में एक साथ हजारों शिक्षार्थियों पर किया जा सकता है। इस प्रकार शिक्षा में संख्यात्मक प्रसार करने एवं गुणात्मक स्तर को बनाये रखने के लिए यह अनुदेशन उपयोगी है। इस अनुदेशन प्रविधि में शिक्षार्थियों की वैयक्तिक भिन्नताओं के अनुरूप अनेक शाखात्मक अनुक्रम संगणक में रखे जा सकते है। शिक्षार्थी की आवश्यकता, योग्यता और व्यवहार के स्तर को समझते हुए संगणक शिक्षार्थी के लिए अभिक्रम का चयन कर सकता है। इस प्रकार अधिगमकर्ता अपनी योग्यता के अनुरूप तुरन्त अभिक्रम प्राप्त कर अपनी गति से अधिगम कर सकता है, तथा तत्काल व्यक्तिगत प्रतिपुष्टि भी प्राप्त कर सकता है। इस प्रकार संगणक सह-अनुदेशन पूरी तरह से वैयक्तिक अनुदेशन पद्धति है ।

(2) तत्काल मूल्यांकन एवं सुधार

संगणक सह-अनुदेशन से सम्बन्धित दूसरी मान्यता किसी भी विषय या विषयवस्तु में यह है कि अधिगमकर्ता द्वारा अधिगम और परीक्षण के समय किये गये उसके व्यवहार को स्वतः रिकॉर्ड किया जा सकता है। इस प्रकार इस रिकॉर्ड के आधार पर शिक्षक उसके व्यवहार का तत्काल मूल्यांकन कर सकता है और मूल्यांकन के उपरान्त अधिगमकर्ता के लिए भावी शिक्षण एवं अधिगम की रूपरेखा तैयार की जा सकती है।

(3) माध्यम से विषयवस्तु को प्रस्तुत करने की क्षमता

संगणक सह-अनुदेशन से सम्बन्धित तीसरी मान्यता किसी भी विषय या विषयवस्तु को विभिन्न विधियों के माध्यम से प्रस्तुत करने की क्षमता से सम्बन्धित है। विषयवस्तु को आवश्यकतानुसार शब्द, चित्रों या प्रयोगों के माध्यम से अधिगमकर्ता के समक्ष प्रस्तुत किया जा सकता है। संगणक सह अनुदेशन एक प्रभावशाली शैक्षिक उपकरण की भाँति, शिक्षार्थियों की विभिन्न समस्याओं का शैक्षिक समाधान प्रस्तुत कर सकता है।

कंप्यूटर-आधारित संगणक सह-अनुदेशन के प्रकार (Types of CAI)

संगणक सह-अनुदेशन कार्यक्रम कई तरह का होता है। कुछ मुख्य प्रकारों का विवरण निम्नलिखित है-

(1) लोगो प्रणाली

इस प्रणाली का अविष्कार पापर्ट तथा फरजीग ने किया।

यह बच्चों के लिए भाषा में तैयार किया गया प्रोग्राम है।

(2) अनुकरण या खेल विधि

संगणक सह-अनुदेशन दूसरे प्रकार के प्रोग्राम अनुकरण विधि पर आधारित होता है।

इस विधि के अन्तर्गत खेल द्वारा अधिगम को सम्मिलित किया जाता है।

यथा, उत्पत्ति प्रकरण के अध्ययन के अन्तर्गत पुष्पों के उत्पादन संबंधी प्रयोग में पंक्तियों को प्रयुक्त किया जाता है।

विज्ञान संबंधी प्रयोग के विविध विषयों में यह विध विशेष रूप से सहायक सिद्ध होती है।

(3) नियंत्रित अधिगम

यह अभ्यास पर आधारित है।

अध्यापक द्वारा कराये जाने वाला यह अभ्यास अनुपूरक का कार्य करता है।

नियंत्रित अधिगम कुछ सीमा तक शाखीय प्रोग्राम से अधिक कुछ नहीं है।

इसमें रुचिप्रद स्वीकार्य सोपानों का उपयोग किया जा सकता है।

संगणक अभिक्रमित अनुदेशन की प्रस्तुति ही नहीं करता वरन् शिक्षार्थियों के व्यवहारों को नियन्त्रित भी करता है।

कंप्यूटर-आधारित संगणक सह-अनुदेशन की विशेषताएं-

इस प्रक्रिया में सूचनाओं का व्यापक स्तर पर संचित एवं व्यवस्थित किया जा सकता है।

इसके द्वारा वैयक्तिक विभिन्नताओं के आधार पर अनुदेशन प्रदान किया जा सकता है।

यह स्वतः अनुदेशन प्रदान करने में सहायक है।

संगणक सह-अनुदेशन की प्रक्रिया में संगणक द्वारा अनुदेशन पर आधारित परिस्थितियों को अभिकल्पित किया जाता है।

इसे प्रायः समस्त शैक्षिक स्तरों पर तथा समस्त विषयों के अनुदेशकों हेतु प्रयोग किया जा सकता है।

एक ही समय में अनेक प्रकार के अनुक्रम प्रस्तुत किये जा सकते हैं और एक ही समय में 30 शिक्षार्थियों को अनुदेशन दिया जा सकता है।

इसके द्वारा अधिगम परिस्थितियों को रुचिकर बनाया जाता है तथा यह नियंत्रित परिस्थितियों में अधिगम की प्रकिया को संचालित करने में सहायक है।

यह अभिक्रमित अध्ययन पर आधारित एक नवीन एवं मौलिक प्रणाली है।

इसमें विभिन्न अधिगम स्वरूपों के आधार पर कई प्रकार के अभिक्रम प्रस्तुत किये जाते है।

यह व्यक्तिनिष्ठ अध्ययन का ही एक रूप है किन्तु व्यक्तिनिष्ठ प्रभावों से पूर्णतः मुक्त है।

इसमें अनुदेशन और अधिगम की प्रक्रिया के बाद शिक्षार्थियों को निरंतर पुनर्बलन प्राप्त होता है।

इस प्रणाली के अन्तर्गत शिक्षार्थियों को पूर्ण योग्यताओं के आधार पर तथा उनके प्रविष्ट व्यवहारों या पूर्ण ज्ञान के आधार पर उनको (प्रविष्ट) अनुदेशन प्रदान किया जाता है।

इसके द्वारा शिक्षार्थियों को उनके उत्तर की तत्काल जानकारी हो जाती है तथा उत्तर गलत होने की स्थिति में उन्हें अपनी त्रुटि का कारण भी ज्ञात हो जाता है।

इस प्रणाली में शिक्षार्थियों की उपलब्धि का समस्त प्रलेख रखा जाता है।

इसमें संचयन, विश्लेषण और संश्लेषण की विशिष्ट क्षमता होती है। इसी कारण इससे मानव मस्तिष्क के समान, संगणक मस्तिष्क के नाम से संबोधित किया।

संगणक प्रदत्त शिक्षण प्रक्रिया  (Computerized Teaching Process)

संगणक प्रदत्त शिक्षण प्रक्रिया में शिक्षक के स्थान पर संगणक का अनुदेशन के लिए प्रयोग किया जाता है। संगणक द्वारा शिक्षण की प्रक्रिया दो भागों में विभक्त होती है :

(1) पूर्व अनुवर्ग शिक्षण चरण (Pre-tutorial Phase)

पूर्व अनुवर्ग शिक्षण चरण में विशिष्ट उदेश्यों को प्राप्त करने के लिए विशिष्ट विद्यार्थी को उसके पूर्व व्यवहार के आधार पर संगणक द्वारा सह-अनुदेशन दिया जाता है।

(2) अनुवर्ग शिक्षण चरण (Tutorial Phase)

अनुवर्ण शिक्षण चरण के अन्तर्गत शिक्षार्थी के अनुरूप संगणक द्वारा अनुदेशन सामग्री को प्रस्तुत किया जाता है। अनुदेशन को प्रस्तुत करने के बाद संगणक उसका नियंत्रण भी करता है और अधिगम को पुनरावर्तन भी प्रदान करता है।

उपर्युक्त दोनों शिक्षण चरणों के कार्य को संगणक दो सोपानों के अन्तर्गत करता है-

(1) अपेक्षित जनसंख्या का चयन (Selection of Target Population)

विद्यार्थी को शैक्षणिक योग्यता, शैक्षिक उपलब्धि एवं पूर्व व्यवहार जो कार्ड पर अंकित रहते हैं. संगणक उसे पढ़कर विद्यार्थी के पूर्व व्यवहार के स्तर की परख करनेकरन तथा पुष्टि के लिए उसको पूर्व परीक्षा (pre – test) लेता है। इस परीक्षण के परिणाम के आधार पर संगणक शिक्षार्थी के शैक्षिक स्तर अथया पूर्व व्यवहार के स्तर को निर्धारित कर लेता है।
इसके उपरान्त संगणक पुनः एक पूर्व (व्यवहार) परीक्षण करता है और इसके आधार पर विद्यार्थी के व्यवहार का विश्लेषण और मूल्यांकन करता है। इस प्रकार संगणक यह पता लगा लेता है कि विद्यार्थी को पाठ्यवस्तु का पूर्व ज्ञान कितना है, इस प्रकार संगणक विद्यार्थी के स्तर के अनुसार अभिक्रम का चयन करता है। यदि संगणक के अन्दर उस शिक्षार्थी के स्तर का अनुक्रम संग्रहीत नहीं होता तो संगणक शिक्षार्थी को अयोग्य घोषित कर देता है।

(2) अनुक्रम का प्रस्तुतिकरण तथा अधिगम नियंत्रण

संगणक एक समय में 30 शिक्षार्थियों के लिये एक ही पाठ्यवस्तु से सम्बन्धित 30 अभिक्रमों को प्रस्तुत करता है। संगणक शिक्षार्थी को जब अपने योग्य पाता है तो उसके पूर्व व्यवहार के अनुकूल शिक्षार्थी को अनुदेशन दिये जाते है। संगणक के अन्तर्गत विद्युत टंकण मशीन के टेप द्वारा सूचनाओं को संप्रेषित किया जाता है। यदि शिक्षार्थी गलत अनुक्रिया करता है तो त्रुटि के अनुरूप ही संगणक अनुदेशन को बदल सकता है।
संगणक केवल अभिक्रमित अनुदेशन को ही प्रस्तुत नहीं करता बल्कि वह शिक्षार्थियों के व्यवहारों को भी नियंत्रित करता है।

कंप्यूटर-आधारित संगणक सह-अनुदेशन के लिए आवश्यक विशेषज्ञ (Experts Needed in CAI) : हिन्दी-शिक्षण-विधियाँ

संगणक सह-अनुदेशन की प्रविधि के प्रयोग के लिए किसी भी संख्या को निम्नांकित प्रकार के विशेषज्ञों की आवश्यकता पड़ती है-

(1) अनुक्रम लेखक (Programmer)

अनुक्रम का लेखन कठिन कार्य होता है।

इसके लिए कुशल लेखकों की आवश्यकता पड़ती है।

क्योंकि लेखक को अधिगम के सिद्धांतों को समझना पड़ता है बाल मनोविज्ञान का ज्ञाता तथा आयु के अनुसार विकास प्रक्रिया को जानने वाला शिक्षक ही अभिक्रमा का निर्माण कर सकता है।

(2) संगणक अभियंता (Computer Engineer)

संगणक अभियंता एक विशेषज्ञ होता है।

वह अनुक्रम के मूल सिद्धांतों और शैलियां को समझता है।

संगणक के विभिन्न अंगों, उनकी रचना एवं कार्यप्रणाली तथा उसके सिद्धांतों को भलीभाँती समझता है।

अभिक्रमित पाठ को संगणक अपनी भाषा द्वारा अनुदित कर सकता है।

संगणक के लिए निर्देशों की रूपरेखा इसके द्वारा सुनिश्चित की जाती है।

(3) प्रणाली प्रचालक (System Operator)

संगणक सह- अनुदेशन को प्रणाली में प्रचालक संगणक और अधिगमकर्ता के मध्य की कड़ी होता है।

प्रणाली-प्रचालक संगणक की संपूर्ण कार्य प्रणाली से अवगत रहते हैं तथा संगणक के डाटा-बेस के उपयोग में सहायक होते है।

अभिक्रम से सम्बन्धित त्रुटियों को सुधारने का कार्य प्रणाली-प्रचालक ही करता है।

कंप्यूटर-आधारित संगणक सह-अनुदेशन प्रणाली की उपयोगिता (Utility of CAI) : हिन्दी-शिक्षण-विधियाँ

कई प्रकार के विषयों के अनुदेशन हेतु इसका उपयोग किया जा सकता है।

संगणक को सहायता से शिक्षार्थियों को व्यक्तिनिष्ठ पाठ उपलब्ध कराये जा सकते है।

संगठन के द्वारा विचार तथा सूचनाओं के भण्डार को संचित एवं व्यवस्थित किया जा सकता है।

संगणक के द्वारा शिक्षार्थियों की आवश्यकता के अनुरूप प्रदत्त कार्यों का चयन किया जा सकता है।

शिक्षार्थियों को अपनी अनुक्रियाएं करने का अवसर प्राप्त होता है

शिक्षार्थियों के उत्तर की तत्काल पुष्टि हो जाती है।

अनुदेशन के प्रातः शिक्षार्थियों में रुचि, सजगता, तत्परता एवं तल्लीनता का विकास होता है।

अभिक्रमित रूप से गठित सामग्री को अधिक रोचक ढंग के साथ प्रस्तुत किया जाना सम्भव है।

एक पाठ्यवस्तु के कई अनुदेशों का वैयक्तिक अनुदेशन के आधार पर, विभिन्न योग्यताओं वाले शिक्षार्थियों को, अध्ययन का अवसर प्राप्त होता है।

यह कक्षा अध्यापन में अध्यापक के लिए प्रभावी रूप से सहायक है।

प्रस्तुति के साथ-साथ, शिक्षार्थियों को अनुक्रियाओं का अवलोकन भी किया जाता है।

इसके द्वारा शिक्षार्थियों के पूर्ण ज्ञान के सम्बन्ध में निर्णय लिया जा सकता है।

शैक्षिक निर्देशन के क्षेत्र में यह शिक्षार्थियों की कमजोरी ज्ञात करके उनका उपचारात्मक रूप से निदान करता है।

यह शोध कार्य में प्रदत्तों के संकलन एवं विश्लेषण में सहायक है।

शिक्षार्थियों के उत्तरों का अंकन व उनकी उपलब्धि का आलेख तैयार करने में सहायक है।

शिक्षार्थियों को उनकी अनुक्रिया के उपरान्त, निरन्तर पुनर्बलन देने में भी संगणक सह-अनुदेशन प्रणाली सहायक है।

कंप्यूटर-आधारित संगणक सह-अनुदेशन की सीमाएं (Limitation of CAI) : हिन्दी-शिक्षण-विधियाँ

अभिक्रमित अनुदेशन के क्षेत्र में अनुसंधानकर्ताओं ने संगणक सह अनुदेशन को कई सीमाओं की ओर संकेत किया है जो इस प्रकार है-

(1) अनुक्रिया का अप्राप्त अवसर-

इस प्रणाली के अन्तर्गत टेलीटाइप पर उत्तरों को टाइप करना होता है अथवा स्क्रीन पर पेन से उपयुक्त उत्तर को स्पर्श करना होता है।

ध्वनि अथवा लेखन के आधार पर नये शिक्षार्थियों को अनुक्रिया का अवसर नहीं प्राप्त होता है

और न ही संगणक के द्वारा इस आधार पर उनकी अनुक्रियाओं को विश्लेषित करने की क्षमता प्राप्त होते हैं।

(2) संज्ञानात्मक विकास की संभावना

शिक्षा में शिक्षार्थियों को संवेगात्मक एवं कार्यात्मक शक्तियों का विकास करना भी प्रमुख स्थान रखता है।

परंतु इस प्रणाली के द्वारा शिक्षार्थियों का केवल ज्ञानात्मक स्तर पर ही विकास संभव है।

इस प्रकार कक्षा में शिक्षार्थी और अध्यापक की अन्तःक्रिया के आधार पर तथा परंपरागत विधि द्वारा ही शिक्षार्थियों का संवेगात्मक विकास किया जा सकता है।

संगणक द्वारा इस दिशा में कोई योगदान प्राप्त नहीं होता है।

(3) शैक्षिक व मनोवैज्ञानिक समस्या

संगणक द्वारा बहुविकल्पीय प्रश्नों के आधार पर सूचनाएँ प्रेषित की जाती है।

किन्तु केवल बहुविकल्प वाले प्रश्नों के आधार पर न तो शिक्षार्थियों को समस्त सूचनाएं दी जा सकती हैं और न ही उनके मन में उत्पन्न समस्त कठिनाइयों को समझा जा सकता है।

शिक्षार्थियों की अनेक शैक्षिक या मनोवैज्ञानिक समस्याओं का केवल संगणक के द्वारा ही हल नहीं किया जा सकता ह बल्कि इसके लिए अध्यापक और निर्देशन विभाग को सेवाएं नितान्त ही आवश्यक होती है।

(4) भाषा संबंधी योग्यताओं के विकास में कठिनाई

भाषा संबंधी योग्यताओं का विकास प्रत्येक शिक्षार्थी के लिए परम आवश्यक है परंतु संगणक द्वारा समस्त भाषा संबंधी योग्यताओं का विकास किया जाना अत्यंत कठिन काम है।

तर्कपूर्ण क्रम तथा अपेक्षित शैली के अनुसार प्रस्तुति करने की क्षमता का विकास, संक्षिप्त वाक्यों के अथवा व्याख्याओं विस्तार के साथ अभिव्यक्त करने जैसी योग्यताओं का विकास कक्षा में अध्यापक के सानिध्य में रहकर ही किया जा सकता है।

(5) अधिक थकान का अनुभव

संगणक प्रणाली द्वारा अधिगम में शिक्षार्थियों को अधिक थकान का अनुभव होता है।

इसका कारण यह है कि यह विधि रुचिकर होते हुए भी शिक्षार्थियों से अधिक तल्लीनता के साथ सक्रियता की अपेक्षा करती है।

अनुसंधान के आधार पर यह सिद्ध हो चुका है कि इसमें कम समय में ही शिक्षार्थी थक जाते हैं।

(6) कार्यप्रणाली में असमानता

इस प्रणाली में शिक्षार्थियों को एक नियंत्रित अधिगम परिस्थिति लम्बे समय तक रह कर अधिगम करना होता है

तथा प्रत्येक स्थिति में यंत्र की कार्य प्रणाली के अनुकूल तत्पर रहना होता है।

कुछ क्षणों के लिए यदि शिक्षार्थी अपना ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते हैं तो उन्हें सम्बन्धित सूचनाओं का अधिगम नहीं हो पाता है।

परंन्तु यह सम्भव नहीं है कि प्रत्येक शिक्षार्थी सम्पूर्ण समय तक तल्लीन रहकर अधिगम कर सके।

मनुष्य और मशीन को कार्यप्रणाली में विशेषकर गति की दृष्टि से समानता नहीं हो सकती।

(7) व्यवसाय प्रणाली

संगणक द्वारा सरल व जटिल दोनों प्रकार के अनुदेशनों को प्रस्तुत किया जा सकता है

परंतु इस प्रकार की प्रणाली का प्रयोग अत्यन्त व्ययसाध्य है।

यही कारण हैं कि उसका प्रयोग चयनित सेवाओं उच्च संस्थाओं में हो किया जाता है।

शिक्षा के क्षेत्र में इस प्रणाली का प्रयोग केवल समृद्ध देश ही कर सकते है।

(8) कार्यपूर्णता कठिन

भारत में इसके प्रयोग से पूर्व इसकी समस्त योजना तैयार करना, अध्यापकों को इसके संचालन हेतु प्रशिक्षित करना, कक्षाओं में आवश्यक रूप से संशोधन करना, सम्बन्धित शोध कार्य को पूर्ण करना व इन यंत्रों को व्यापक स्तर पर उपलब्ध कराना भी एक जटिल कार्य है।

उपर्युक्त सीमाओं के होते हुए भी शिक्षा व्यवस्था परन्तु जैसे-जैसे ज्ञान का विस्तार हो जायेगा, वैसे-वैसे शिक्षा जगत में संगणकों की माँग बढ़ेगी।

भविष्य मैं संगणक शिक्षा और संगणक तकनीकी पाठ्यक्रम के प्रमुख विषय होंगे।

हिन्दी-शिक्षण-विधियाँ कंप्यूटर-आधारित संगणक सह-अनुदेशन का अर्थ, आधारभूत मान्यताएं, प्रकार, विशेषताएं, शिक्षण प्रक्रिया, आवश्यक विशेषज्ञ, प्रणाली की उपयोगिता एवं सीमाएं आदि की जानकारी

स्रोत- NCERT शिक्षा में सूचना एवं संचार तकनीकी

कंप्यूटर-आधारित संगणक सह-अनुदेशन हिन्दी-शिक्षण-विधियाँ
शाखीय अभिक्रमित-अनुदेशन हिन्दी शिक्षण-विधियाँ
रेखीय अभिक्रमित-अनुदेशन हिन्दी शिक्षण-विधियाँ
अभिक्रमित अनुदेशन हिन्दी शिक्षण-विधियाँ

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