मेजर ध्यानचंद Major Dhayanchand जीवन परिचय पुरस्कार एवं सम्मान तथा संपूर्ण जानकारी
“हमारी टीम से खेलो हम तुम्हें जर्मनी की नागरिकता और जर्मन सेना में जनरल का पद देंगे।”
1936 के बर्लिन ओलंपिक में हॉकी के फाइनल मैच में भारत से मिली करारी हार के बाद जर्मन तानाशाह हिटलर ने यह शब्द हॉकी के जादूगर ध्यानचंद से कहे थे।
ध्यानचंद ने बड़ी निर्भीकता से जर्मन नागरिकता और सेना का पद ठुकरा दिया और भारतीय स्वाभिमान को और अधिक दृढ़ कर दिया।
मेजर ध्यानचंद Major Dhayanchand जीवन परिचय पुरस्कार एवं सम्मान तथा संपूर्ण जानकारी
जीवन परिचय : मेजर ध्यानचंद Major Dhayanchand जीवन परिचय पुरस्कार एवं सम्मान तथा संपूर्ण जानकारी
भारतीय हॉकी के आदिपुरुष मेजर ध्यानचंद का जन्म 29 अगस्त 1905 को उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में हुआ।
ध्यानचंद के पिता ब्रिटिश भारतीय सेना में थे, इसलिए स्थानांतरण के कारण एक शहर से दूसरे शहर जाते रहते थे।
ध्यानचंद के जन्म के कुछ समय बाद ही उनके पिता का स्थानांतरण झांसी हो गया और वे झांसी में बस गये।
हॉकी से परिचय : मेजर ध्यानचंद Major Dhayanchand जीवन परिचय पुरस्कार एवं सम्मान तथा संपूर्ण जानकारी
कहा जाता है कि शुरुआत में ध्यानचंद की हॉकी में कोई विशेष रूचि नहीं थी
लेकिन डॉ. विभा खरे के अनुसार ध्यानचंद बचपन से ही हॉकी की ओर आकर्षित थे।
उनके इसी आकर्षण को देखकर उनके पिता ने उन्हें हॉकी खेलने के लिए प्रेरित किया।
उनके खेल से प्रभावित होकर एक अंग्रेज ने उन्हें सेना में भर्ती होने के लिए प्रेरित किया।
उसी अंग्रेज की प्रेरणा पाकर 1922 में ध्यानचंद तात्कालिक ब्रिटिश भारतीय सेना में एक सिपाही के रूप में इकतालीस वी पंजाब रेजिमेंट में शामिल हो गए, जहां उन्हें भोला तिवारी नामक कोच मिले।
तिवारी कोच से ध्यानचंद ने हॉकी के कई मंत्र सीखे, लेकिन हॉकी का असली मंत्र ध्यानचंद के मस्तिष्क में ही था।
वह मैदान की वास्तविक स्थिति और खिलाड़ियों की सही पोजीशन बहुत जल्दी भाँप जाते थे।
पहली अंतरराष्ट्रीय श्रृंखला
ध्यानचंद 1922 में सेना में भर्ती हुए और वहीं से हॉकी की शुरुआत की।
1926 में पहली बार ध्यानचंद को न्यूजीलैंड जाने का अवसर प्राप्त हुआ।
मौका था भारतीय हॉकी टीम का न्यूजीलैंड दौरा।
इस दौरे पर जाने के लिए ध्यानचंद की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, फिर भी वे खुशी-खुशी जैसी व्यवस्था हुई उसी के साथ गए।
इस श्रृंखला में कुल 5 मैच खेले गए थे।
जिनमें से सभी में भारत ने विजयश्री प्राप्त की।
पूरी श्रृंखला में भारतीय दल द्वारा साठ गोल किए गए जिसमें से पैंतीस अकेले ध्यानचंद ने किये थे।
ओलंपिक की यात्रा : मेजर ध्यानचंद Major Dhayanchand जीवन परिचय पुरस्कार एवं सम्मान तथा संपूर्ण जानकारी
1928 का एम्सटर्डम ओलंपिक
वर्ष 1928 में एम्सटर्डम (नीदरलैंड) में ओलंपिक खेलों का आयोजन हुआ।
भारतीय हॉकी टीम ने पहली बार ओलंपिक में भाग लिया।
भारत की शुरुआत बहुत ही भव्य रही।
उसने अपने पहले ही मैच में ऑस्ट्रेलिया को 6-0 से हराया।
इसके बाद बेल्जियम को 9-0 के अंतर से डेनमार्क को 5-0 के अंतर से स्विट्जरलैंड को 6-0 के अंतर से हराकर एक तरफा जीत प्राप्त की।
फाइनल में हॉलैंड को 3-0 से हराकर अपनी जीत का डंका पूरी दुनिया में बजा दिया।
स्वर्ण पदक विजेता भारतीय दल की विजय के नायक ध्यानचंद ही थे।
फाइनल मैच में ध्यानचंद ने दो गोल किए।
1932 का लॉस एंजलिस ओलंपिक
1932 में ओलंपिक खेलों का आयोजन अमेरिका की खूबसूरत शहर लॉस एंजिलिस में हुआ।
भारतीय दल ने इस बार पिछले ओलंपिक से भी जबरदस्त हॉकी खेली और पहले ही मैच में जापान को 11-0 के बड़े अंतर से हराया।
जिसमें ध्यानचंद ने चार गोल किए।
इसी ओलंपिक के में भारतीय टीम ने फाइनल में मेजबान अमेरिका को 24-1 के विशाल अंतर से हराया जो आज भी एक विश्व कीर्तिमान है।
इस मैच की कवरेज करते हुए लॉस एंजेलिस के एक अखबार ने लिखा कि- “भारतीय दल ध्यानचंद और रूप सिंह के रूप में एक ऐसा तूफान लाया है, जिसने नचा-नचा कर अमेरिकी खिलाड़ियों को मैदान के बाहर ला पटका और खाली मैदान पर भारतीय खिलाड़ियों ने मनचाहे गोल किए।”
अखबार ने यह भी लिखा कि- “भारतीय हॉकी टीम तो पूर्व से आया तूफान थी। उसने अपने वेग से अमेरिकी टीम के ग्यारह खिलाड़ियों को कुचल दिया।”
1936 का बर्लिन ओलंपिक
1936 में ओलंपिक खेलों का आयोजन जर्मनी के बर्लिन शहर में हुआ।
भारतीय टीम का डंका पहले ही सारी दुनिया में बज चुका था, लेकिन जर्मनी के साथ अपने अभ्यास मैच में भारतीय टीम 4-1 से पराजित हो गई।
यह भारतीय टीम के लिए इतनी जबरदस्त थी कि पूरी टीम सारी रात सो नहीं सकी।
इस हार के लिए ध्यान चंद अपनी आत्मकथा ‘गोल’ में लिखते हैं-
“मैं जब तक जीवित रहूँगा। इस हार को कभी नहीं भूलूंगा। इस हार ने हमें इतना हिला कर रख दिया कि हम पूरी रात सो नहीं पाए। हमने तय किया कि इनसाइड राइट पर खेलने के लिए आईएनएस दारा को तुरंत भारत से हवाई जहाज़ से बर्लिन बुलाया जाए।”
जर्मनी के ख़िलाफ फ़ाइनल मैच
जर्मनी के ख़िलाफ फ़ाइनल मैच 14 अगस्त 1936 को खेला जाना था, लेकिन उस दिन बहुत बारिश हो गई, इसलिए मैच 15 अगस्त को खेला गया।
मैच से पहले भारतीय टीम के मैनेजर पंकज गुप्ता ने अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का झंडा निकाला (उस समय भारत का कोई ध्वज नहीं था क्योंकि उस समय भारत परतंत्र था।अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का ध्वज ही राष्ट्रीयता का प्रतीक था।)
सभी खिलाड़ियों ने उसे सेल्यूट किया।
40,000 लोगों की क्षमता वाला बर्लिन का स्टेडियम बड़ौदा के महाराजा, भोपाल की बेगम और जर्मन तानाशाह हिटलर सरीखे महत्वपूर्ण लोगों तथा जन सामान्य से खचाखच भरा हुआ था।
भारत ने जर्मनी को 8-1 के बड़े अंतर से हराया
इसमें तीन गोल ध्यानचंद ने किए।
अगले दिन एक अख़बार मॉर्निंग पोस्ट ने लिखा-
“बर्लिन लंबे समय तक भारतीय टीम को याद रखेगा. भारतीय टीम ने इस तरह की हॉकी खेली मानो वो स्केटिंग रिंक पर दौड़ रहे हों। उनके स्टिक वर्क ने जर्मन टीम को अभिभूत कर दिया.”
ऑस्ट्रेलिया न्यूजीलैंड का दौरा 1934
1934 में ऑस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड के दौरे के दौरान भारतीय टीम ने कुल 48 मैच खेले।
(कहीं-कहीं इस दौरे का वर्ष 1935 भी बताया जाता है।)
पूरी टीम ने 584 गोल किये।
ध्यानचंद के खेल में इतनी विविधता, तीव्रता और गति थी कि अकेले ध्यानचंद ने 200 गोल किये।
गोलों की विशाल संख्या देखकर ऑस्ट्रेलिया के महान क्रिकेटर डॉन बैडमेन आश्चर्यचकित होकर बोले कि-
“ये किसी क्रिकेट खिलाड़ी द्वारा बनाए गए दोहरे शतक की संख्या तो नहीं है।”
ध्यानचंद जी के बारे में ऑस्ट्रेलियन प्रेस की टिप्पणी ने तो पूरे विश्व में तहलका मचा दिया था कि-
“देखने में सामान्य सा दिखने वाला खिलाड़ी एक सक्रिय क्रिस्टल की तरह रहता है और किसी भी परिस्थिति से निपटने की उसमें जन्मजात क्षमता है। उसके पास बाज की आंखें और चीते की गति है।”
पुरस्कार एवं सम्मान :मेजर ध्यानचंद Major Dhayanchand जीवन परिचय पुरस्कार एवं सम्मान तथा संपूर्ण जानकारी
भारत सरकार द्वारा सन् 1956 में पद्मभूषण।
सन् 1989 में मरणोपरांत ध्यानचंद के नाम से डाक टिकट।
8 मार्च सन् 2002 को राष्ट्रीय स्टेडियम दिल्ली का पुनः नामकरण ध्यानचंद जी के नाम पर।
झांसी के पूर्व सांसद पंडित विश्वनाथ शर्मा की मांग – मेजर ध्यानचंद जी के जन्म दिवस 29 अगस्त को ‘खेल दिवस’ घोषित किया जाए।
1994 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव की सरकार ने 29 अगस्त को विधिवत् राष्ट्रीय खेल दिवस घोषित कर दिया।
उपनाम
ध्यान चंद जी को ‘हॉकी के जादूगर’ के नाम से जाना जाता है
उन्हें यह उपाधि कब और किसने दी इसकी तो कोई सही और निश्चित जानकारी नहीं है
लेकिन इतना अवश्य है कि एमस्टर्डम में एक मैच के दौरान उनकी स्टिक को तोड़कर देखा गया था कि कहीं उसमें कोई मैग्नेट तो नहीं है।
यह सिर्फ एक घटना नहीं है।
ऐसी कई और घटनाएं हैं जब उनकी हॉकी स्टिक की जांच की जाती थी।
ऐसी ही घटनाएं उन्हें हॉकी का जादूगर कहने के लिए काफी हैं।
अंतिम समय
20 नवंबर 1979 को मेजर ध्यानचंद जी अचानक बीमार पड़ गये, उन्हें दिल्ली ले जाया गया। उपचार के बावजूद ध्यानचंद जी ने 3 दिसंबर 1979 को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में इस भौतिक संसार से सदा-सदा के लिए विदा ले ली।
अनेक किंवदंतियां इस महान हॉकी खिलाड़ी के साथ जुड़ी हुई है, जो इसे और भी महान बनाती है। वर्ष 2017 से इन्हें भारत रत्न दिये जाने की मांग लगातार बढ़ती जा रही है।
वर्तमान NDA सरकार से बात की अपेक्षा की जाती है कि वह जनता की इस माह को अवश्य पूरा करेगी।
कालखंड नामकरण एवं हिन्दी साहित्य काल विभाजन तथा हिंदी साहित्य में प्रचलित काल विभाजन और नामकरण की संपूर्ण जानकारी | हिन्दी साहित्य काल विभाजन एवं कालखंड नामकरण | काल विभाजन और नामकरण की जानकारी | Hindi Sahitya | Kaalkhand | Kaal Vibhajan | Naamkaran
Hindi Sahitya | Kaalkhand | Kaal Vibhajan | Naamkaran
हिन्दी साहित्य के काल-विभाजन को लेकर विद्वानों में मतभेद है,
लेकिन यह मतभेद अधिक गहरा नहीं है मतभेद केवल हिन्दी साहित्य के आरम्भ को लेकर है।
जिसमें मुख्य रुप से दो वर्ग सामने आते हैं पहला वर्ग वह है जो हिंदी साहित्य का प्रारंभ सातवीं शताब्दी ईस्वी से मानता है
दूसरा वर्ग वह है जो हिंदी साहित्य का प्रारंभ दसवीं शताब्दी ईस्वी से स्वीकार करता है।
सातवीं शताब्दी ईस्वी से दसवीं शताब्दी ईस्वी तक का साहित्य अपभ्रंश भाषा में है और अपभ्रंश से ही हिन्दी भाषा का विकास हुआ है।
इसलिए यदि इस कालखंड के भाषा साहित्य एवं साहित्यिक चेतना को यदि समझ लिया जाए तो हिंदी साहित्य की मूल चेतना को समझने में आसानी रहेगी
हिन्दी भाषा एवं साहित्य की मूल चेतना को जानने के लिए इस कालखण्ड की भाषा के स्वरुप एवं साहित्य-धारा को समझना अति आवश्यक है।
इसीलिए पति पर विद्वानों ने अपनी सरकार को भी हिंदी में शामिल कर लिया है और वे हिंदी साहित्य का प्रारंभ सातवीं शताब्दी ईस्वी से मानते हैं जिस प्रकार हिंदी साहित्य के काल विभाजन में न्यूनाधिक मतभेद है
हिन्दी साहित्य कालखंड नामकरण
उसी प्रकार इसके नामकरण में भी मतभेद है यह मतभेद मुख्यत: दसवीं शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी तक के
आरम्भिक कालखंड (आदिकाल) और सत्रहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी तक के कालखण्ड (रीतिकाल) के नामकरण को लेकर ही अधिक मतभेद है। हिंदी साहित्य के विभिन्न काल खंडों का नामकरण विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने तर्कानुसार किया है जो निम्नलिखित प्रकार से है।
(अ) दसवी शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी तक के हिन्दी साहित्य कालखंड नामकरण
ग्रियर्सन – चारण काल
मिश्रबंधु – प्रारंभिक काल
रामचंद्र शुक्ल – वीरगाथा काल
विश्वनाथ प्रसाद मिश्र – वीर काल
महावीर प्रसाद दिवेदी – बीजवपन काल
हजारी प्रसाद द्विवेदी – आदिकाल
राहुल संकृत्यायन – सिद्ध-सामन्त काल
रामकुमार वर्मा – संधि काल और चारण काल
श्यामसुंदर दास – अपभ्रंस काल/वीरकाल
चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ – अपभ्रंस काल
धीरेंद्र वर्मा – अपभ्रंस काल
हरीश – उत्तर अपभ्रंस काल
बच्चन सिंह – अपभ्रंस काल: जातिय साहित्य का उदय
गणपति चंद्र गुप्त – प्रारंभिक काल/शुन्य काल
पृथ्वीनाथ कमल ‘कुलश्रेष्ठ’ – अंधकार काल
रामशंकर शुक्ल – जयकाव्य काल
रामखिलावन पाण्डेय – संक्रमण काल
हरिश्चंद्र वर्मा – संक्रमण काल
मोहन अवस्थी – आधार काल
शम्भुनाथ सिंह – प्राचीन काल
वासुदेव सिंह – उद्भव काल
रामप्रसाद मिश्र – संक्रांति काल
शैलेष जैदी – आविर्भाव काल
चारण काल-
सर्वप्रथम ग्रियर्सन ने हिन्दी साहित्येतिहास का काल विभाजन प्रस्तुत किया
और हिंदी साहित्येतिहास के आरम्भिक काल का नामकरण ‘चारणकाल’ किया है,
परंतु इस नामकरण के पीछे वह कोई ठोस प्रमाण नही दे पाये।
ग्रियर्सन ने चारण काल का प्रारंभ 643 ईसवी से स्वीकार किया है
जबकि विद्वानों के अनुसार 1000 ईसवी तक चारणों की कोई रचना उपलब्ध नहीं होती है
चारणों की जो रचनाएं उपलब्ध होती है वह 1000 ईसवी के बाद की है।
अतः यह नामकरण उपयुक्त नहीं है।
प्रारम्भिक काल-हिन्दी साहित्य कालखंड नामकरण
मिश्रबन्धुओं ने 643 ईसवी से 1387 ईसवी तक के काल को ‘प्रारम्भिक काल’ नाम से अभिहित किया है।
यह नाम किसी साहित्यिक प्रवृत्ति का द्योतक नही है।
यह एक सामान्य संज्ञा है जो हिन्दी भाषा के प्रारम्भ को बताती है।
अत: यह नाम भी तर्कसंगत नही है।
वीरगाथाकाल : हिन्दी साहित्य कालखंड नामकरण
आ. रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास का काल विभाजन करते हुए संवत् 1050 से 1375 विक्रमी तक के कालखंड को हिंदी साहित्य का पहला कालखंड स्वीकार करते हुए हिंदी साहित्य का प्रारंभ संवत् 1000 विक्रमी में स्वीकार किया है
तथा इस कालखंड को ‘वीरगाथा काल’ नाम दिया है।
अपने मत के समर्थन में उन्होंने कहा है-
“आदिकाल की दीर्घ परम्परा के बीच प्रथम डेढ़-दो सौ वर्षों के भीतर तो रचना की किसी विशेष प्रवृत्ति का निश्चय नहीं हो पाता है – धर्म, नीति, श्रृन्गार, वीर सब प्रकार की रचनाएँ दोहों में मिलती है। इस अनिर्दिष्ट लोक-प्रवृत्ति के उपरान्त जब से मुसलमानों की चढ़ाइयाँ आरंभ होती है तब से हम हिन्दी साहित्य की प्रवृत्ति विशेष रूप में बँधती हुई पाते है। राजाश्रित कवि और चारण जिस प्रकार रीति, श्रृन्गार आदि के फुटकल दोहे राजसभा में सुनाया करते थे, उसी प्रकार अपने आश्रयदाता राजाओं के पराक्रम पूर्ण चरितों या गाथाओं का भी वर्णन किया करते थे। यह प्रबन्ध परम्परा ‘रासो’ के नाम से पाई जाती है, जिसे लक्ष्य करके इस काल को हमने ‘वीरगाथा काल’ कहा है।”
शुक्लजी ने इस युग का नामकरण करने के लिए निम्नलिखित बारह ग्रन्थों को आधार बनाया है- 1. विजयपाल रासो 2. हम्मीर रासो 3. कीर्तिलता 4. कीर्तिपताका 5. खुमान रासो 6. बीसलदेव रासो 7. पृथ्वीराज रासो 8. जयचंद प्रकाश 9. जयमयंक जसचन्द्रिका 10. परमाल रासो 11. खुसरो की पहेलियाँ 12. विद्यापति की पदावली
हिन्दी साहित्य : कालखंड नामकरण
जिन बारह रचनाओं के आधार पर शुक्ल जी ने नामकरण किया है उनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है।
हम्मीर रासो, जयचंद्र प्रकाश और जयमयंक जसचन्द्रिका तो नोटिस मात्र ही है।
खुसरो की पहेलियाँ और विद्यापति की पदावली भी वीरगाथात्मक नही है।
परमाल रासो या आल्हाखंड के मूल का आज कही पता नही लगा है।
बीसलदेव रासो और खुमाण रासो भी नये शोधों के आधार पर सोलहवीं शताब्दी में रचित माने गए हैं इसी प्रकार प्रसिद्ध महाकाव्य पृथ्वीराज रासो को भी अर्द्धप्रामाणिक मान लिया गया है।
इसके अतिरिक्त इस काल में केवल वीर काव्य ही नही बल्कि धार्मिक, श्रृंगारिक और लौकिक साहित्य भी प्रचूर मात्रा में रचा गया।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने उन रचनाओं को अप्रामाणिक सिद्ध करते हुए ‘वीरगाथाकाल’ नामकरण को निरर्थक सिद्ध किया है।
सिद्ध सामंत काल
सामाजिक जीवन पर सिद्धों के तथा राजनीतिक जीवन पर सामंतों के वर्चस्व के कारण राहुल सांकृत्यायन ने इस काल का नामकरण ‘सिद्ध सामन्त काल’ किया है।
इस कालखंड के कवियों ने अपने आश्रयदाता सामंतों को प्रसन्न करने के लिए उनका यशोगान किया है तथा सामाजिक जीवन पर दृष्टि डालें तो समाज सिद्ध मत से प्रभावित है।
इस नामकरण पर विद्वानों का मतैक्य नहीं है।
नामकरण से तत्कालीन राजनीतिक वातावरण का ज्ञान होता है, परंतु किसी साहित्यिक प्रवृत्ति का पता नहीं चलता है। इसके साथ ही नाथ पंथियों का हठयोगिक साहित्य, खुसरो का लौकिक साहित्य विद्यापति की पदावली तथा अन्य साहित्यिक प्रवृत्तियों का इसमें समावेश नहीं होता है अतः यह नाम भी उपयुक्त नहीं है।
बीजवपन काल
भाषा की प्रारंभिक दृष्टि को देखते हुए आ. महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने इस काल का नामकरण ‘बीजवपन काल’ किया है।
परंतु यह नाम भी उपयुक्त नहीं है।
इस नाम से यह आभास होता है कि उस समय साहित्यिक प्रवृत्तियाँ शैशव में थी,
जबकि ऐसा नही है साहित्य उस युग में भी प्रौढ़ता को प्राप्त या अंत: यह नाम उचित नहीं है।
वीरकाल
आ. रामचन्द्र शुक्ल से प्रभावित होकर आ. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र जी ने इस काल का नाम ‘वीरकाल’ किया है।
वास्तव में मिश्रा जी ने इसमें किसी नवीन तथ्य का उद्घाटन नहीं किया है बल्कि यह नाम आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा सुझाए गए वीरगाथा काल नाम का ही परिवर्तित रूप है, अंत: यह नाम भी समीचीन नही है।
सन्धि एवं चारण काल
डॉ. रामकुमार वर्मा ने हिंदी साहित्य के प्रथम कालखंड को दो खण्डों मे विभाजित कर ‘सन्धिकाल’ एवं ‘चारण काल’ नाम दिया है।
इस नामकरण को दो भागों में बाँटने के पीछ कारण था।
संधि काल दो भाषाओं की संधि का काल था
तथा चारणकाल चारण जाति के कवियों द्वारा राजाओं की यशोगाथा को प्रकट करता है
उसमें तत्काीन राजाओ के शौर्य, वीरता एवं साहस का वर्णन है।
उनके जीवन प्रसंगों को अतिशयोक्तिपूर्ण बनाकर वर्णन करना है।
किसी जाति विशेष के नाम पर साहित्य में उस काल का नामकरण उचित नहीं अत: यह नामकरण भी ठीक नहीं है।
अपभ्रंश काल
चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’, श्यामसुंदर दास, धीरेंद्र वर्मा, हरीश, बच्चन सिंह आदि ने हिन्दी साहित्य के प्रथम काल को अपभ्रंश काल के नाम से सम्बोधित किया है।
उन्होंने बताया कि हिन्दी की प्रारम्भिक स्थिति अपभ्रंश भाषा के साहित्य से शुरू होती है,
इसलिए अपभ्रंश काल कहना उचित है ।
आदिकाल
आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने इस काल के साहित्य को अधिकांशतः संदिग्ध और अप्रामाणिक मानते हुए भी उसमें दो विशेषताओं को रेखांकित किया।
नवीन ताजगी और अपूर्व तेजस्विता।
इन दोनों विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए इस काल का नाम उन्होंने ‘आदिकाल’ रखा।
अपने इस मत को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है कि- “वस्तुत: हिन्दी का आदिकाल शब्द एक प्रकार की भ्रामक धारणा की सृष्टि करता है और श्रोता के चित्त में यह भाव पैदा करता है कि यह काल के आदिम मनोभावापन परम्पराविनिर्मुक्त काव्य रूढ़ियों से अछूते साहित्य का काल है। यह ठीक नहीं है यह काल बहुत अधिक परम्परा प्रेमी, रूढ़िग्रस्त और सचेत कवियों का काल है।”
अतः आदिकाल ना किसी एक परंपरा का सूचक ना होकर परंपरा के विकास का सूचक है तथा अपने अंदर सिद्ध, नाथ, रसों, जैन तथा लौकिक एवं फुटकर साहित्य को भी समाहित कर लेता है। यह नाम भाषा और काव्य रूपों के आदि स्वरूप को भी प्रकट करने वाला है अतः हिंदी साहित्य के प्रथम कालखंड के लिए ‘आदिकाल’ नाम ही सर्वाधिक उपयुक्त एवं सर्वमान्य है
(ब) चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक के कालखंड नामकरण
चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक के कालखण्ड में भक्ति की प्रवृत्ति को देखते हुए आ. रामचन्द्र शुक्ल जी ने सं. 1375 से लेकर 1700 वि. तक के कालखण्ड को पूर्व मध्यकाल की संज्ञा से अभिहित किया है।
आलोच्य युग के साहित्य में भक्ति की मुख्य प्रवृत्ति को देखते हुए आ. शुक्ल ने इस कालावधि का नामकरण ‘भक्तिकाल’ भी किया है।
‘भक्तिकाल’ नाम को परवर्ती सभी विद्वानों ने स्वीकार किया है और आज भी भक्तिकाल’ नामकरण सर्वमान्य है।
(स) सत्रहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी तक के कालखण्ड (रीतिकाल) के नामकरण :-
आलोच्य काल के नामकरण को लेकर भी विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है विभिन्न विद्वानों ने अपने अपने तर्कों के आधार पर उक्त कालखंड के विभिन्न नामकरण किए हैं जो निम्नलिखित प्रकार से हैं-
अलंकृतकाल – मिश्रबन्धु
रीतिकाल – आ. रामचन्द्र शुक्ल
कलाकाल – रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल
श्रृंगार काल – पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र
अलंकृतकाल
इस काल की कविता में अलंकारों की प्रधानता को देखते हुए मिश्र बंधुओं ने इसे अलंकृत काल कहा है।
मिश्रबन्धुओं ने इस युग का नामकरण करते हुए कहा है कि – “रीतिकालीन कवियों” ने जितने आग्रह के साथ रचना शैली को अलंकृत करने का प्रयास किया है. उतना अन्य किसी भी काल के कवियों ने नहीं।
इस प्रवृत्ति के कारण यह अलंकृतकाल है।
इस काल को अलंकृतकाल कहने का दूसरा कारण यह है कि इस काल के कवियों ने अलंकार निरूपक ग्रन्थों के लेखन में विशेष रूचि प्रदर्शित की।
परंतु इस काल को ‘अलंकृतकाल’ नाम देना उचित नहीं है क्योंकि यह कविता केवल अलंकृत ही नहीं है इतर काव्यांगों को भी इसमें यथोचित स्थान प्राप्त रहा है। अलंकरण की प्रवृत्ति इस काल की विशेष प्रवृत्ति नहीं है। यह प्रवृत्ति तो हिन्दी के आदिकाल से लेकर आज तक चली आ रही है। दूसरे यह नामकरण कविता के केवल बहिरंग पक्ष का सूचक है। इससे कविता के अंतरंग पक्ष, भाव एवं रस की अवहेलना होती है। आलोच्य काल के कवियों ने अलंकारों की अपेक्षा रस पर अधिक बल दिया है। इसके अतिरिक्त अलंकृतकाल नाम को स्वीकार कर लेने से इस काल की विशेष प्रवृत्ति श्रृंगार और शास्त्रीयता की पूर्ण उपेक्षा हो जाती है।
कलाकाल
रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल’ ने इस काल में सामाजिक सांस्कृतिक तथा साहित्यिक पक्ष में कला वैशिष्ट्य को ध्यान में रखते हुए आलोच्य काल को ‘कलाकाल’ नाम दिया है।
उनका कहना है कि “मुगल सम्राट शाहजहाँ का सम्पूर्ण शासन काल कला वेष्टित था। इस युग में एक ओर स्थापत्य कला का चरम बिन्दु ताजमहल के रूप में ‘काल के गाल का अश्रू’ बनकर प्रकट हुआ तो दूसरी ओर हिन्दी कविता भी कलात्मकता से संयुक्त हुई। इस काल के कवियों ने विषय की अपेक्षा शैली की ओर अधिक ध्यान दिया। उनकी कविता में चित्रकला का भी योग हुए बिना न रह सका। अत:एवं यह कलाकाल है।”
डॉ रमा शंकर शुक्ल ‘रसाल’ द्वारा सुझाए गए कलाकाल नाम से भी मिश्र बंधुओं द्वारा सुझाए गए अलंकृत काल नाम की तरह ही कविता के बाह्य पक्ष की विशेषता का ही बोध होता है और कविता का आंतरिक पक्ष उपेक्षित रह जाता है तथा इस युग की व्यापक श्रृंगारिक चेतना और शास्त्रीयता की पूर्ण अवहेलना हो जाती है।
श्रृंगारकाल
पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इस काल मे श्रृंगार रस की प्रधानता को ध्यान में रखकर इस काल को को ‘श्रृंगारकाल’ की उपमा दी है।
परंतु यह नाम भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि रीतिकालीन कवियों ने श्रृंगार के अतिरिक्त अन्य रसों की कविता भी लिखी है।
श्रृगारिकता के साथ-साथ आलंकारिकता और शास्त्रीयता इस काल की कविता के विशेष गुण हैं भक्तिपरक, नीतिपरक रचनाएँ भी इस युग में लिखी गई है।
इस युग के कवियों का उद्देश्य तो अपने आश्रयदाताओं को प्रसन्न कर अर्थोपार्जन करना था अत: यह नामकरण उचित नहीं है।
रीतिकाल
मूर्धन्य विद्वान आ. रामचन्द्र शुक्ल जी ने एक परम्परा की प्रवृति के आधार पर इस युग का नामकरण ‘रीतिकाल’ किया है।
उनका मत है कि- “इन रीतिग्रन्थों” के कर्ता भावुक, सहृदय और निपुण कवि थे।
उनका उद्देश्य कविता करना था, न कि काव्यांगो का शास्त्रीय पद्धति पर निरुपण करना।
अत: उनके द्वारा बड़ा भारी कार्य यह हुआ कि रसों (विशेषतः श्रृंगार रस) और अलंकारों के बहुत ही सरस और हृदयग्राही उदाहरण अत्यन्त प्रचूर परिमाण में प्राप्त हुए।”
अलंकृत काल
शुक्लजी के इस नामकरण का आधार इस काल में रीतिग्रन्थों और रीति ग्रन्थकारों की सुदीर्घ परम्परा है।
इस नाम को सभी परवर्ती सभी विद्वानों ने लगभग एकमत से स्वीकार किया है।
‘रीतिकाल’ नाम की सार्थकता को स्पष्ट करते हुए डॉ० भगीरथ मिश्र ने ‘रीतिकाल’ नामकरण का अनुमोदन करते हुए कहा है-
“इस युग के नाम के सम्बन्ध में मतभेद मिलता है।
मिश्रबन्धु इसको ‘अलंकृत काल’ कहते हैं।
आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र इसे श्रृंगार काल’ नाम से अभिहित करते हैं तथा डॉ नगेन्द्र इसे रीतियुग कहने के पक्ष में हैं।
प्रत्येक विद्वान के अपने-अपने तर्क हैं और उस आधार पर इन नामों का औचित्य भी ठहरता है।
अलंकार की प्रधान प्रवृत्ति के कारण इसका अलंकृत काल नाम जहाँ औचित्य रखत है, वहीं श्रृंगारिक रचना की प्रधानता के कारण इसे शृंगार-काल कहा जा सकता है।
परन्तु उस युग के समग्र काव्य ध्यानपूर्वक देखने पर हमें लगता है कि न तो अलंकरण ही स्वच्छंद है और न श्रृंगार वर्णन ही।
पर ये दोनों एक ही परिपाटी पर चलते हैं रीति में बँधे हैं।
अलंकार के विपरीत उस युग में निरलंकृत भक्ति व रस काव्य भी कम नहीं है और श्रृंगार के विपरीत बीर, नीति और भक्ति काव्य बहुत प्रचुर मात्रा में मिलता है।
पर यह समग्र काव्य अपनी-अपनी परिपाटी का पालन करते हुए लिखा गया है।
चाहे वह भक्ति, बीर, नीति, शृंगार कोई भी काव्य क्यों न हों, एक रीतिबद्धता इस युग में देखने को मिलती है।
बीर काव्य युद्ध वर्णन की पद्धति को अपनाकर चलता अथवा काव्यशास्त्रीय लक्षणों का आधार ग्रहण किए है।
रीतिकाल
इसी प्रकार निर्गुण भक्ति-काव्य विभिन्न अंगों में विभाजित है।
कृष्ण-भक्ति-काव्य रागों या अष्टायाम-पूजा या लीला-पद्धति में ढलकर आया है,
इतना ही नहीं इस युग के काव्य की प्रमुख विशेषता रीतिबद्धता है
ऐसी दशा में इस युग का नाम रीति-युग ही स्वीकार करना अधिक उपयुक्त होगा।
इस नाम से उस युग के समग्र काव्य का स्वरूप स्पश्ट हो जाता है
और यह रीतिबद्धता की विशेषता चेतन या अचेतन रूप में उस युग की समस्त-काव्य-धाराओं पर लागू होती है।
इसलिए मेरे विचार से रीतियुग नाम देना ही उचित है।
“इस प्रकार ‘रीतिकाल’ नामकरण अधिक युक्तियुक्त, सार्थक एवंम् समीचीन है।
(द) 19वीं शताब्दी से अब तक के कालखंड नामकरण
यद्यपि प्रत्येक काल अपने पूर्व काल से अधिक आधुनिक होता है तथापि गद्य का आविर्भाव ही इस आलोच्य काल की सबसे बड़ी विशेषता है।
संवत् 1900 से आरम्भ हुए आधुनिक काल में गद्य का विकास इस काल की सबसे महत्वपूर्ण घटना और आधुनिकता का सूचक है।
यद्यपि इस काल में कविता के क्षेत्र में भी विविध नवीन प्रवृत्तियों का विकास हुआ है,
किंतु जैसा विकास गद्य के विभिन्न अंगों का हुआ है, वैसा कविता का नहीं हो सका है।
को आ. रामचन्द्र शुक्लजी ने गद्य के पूर्ण विकास एवं प्रधानता को देखते हुए ‘गद्य काल’ नाम दिया है।
आ. हजारीप्रसाद द्विवेदी प्रेस के उद्भव को ही आधुनिकता का वाहक मानते है।
‘आधुनिक काल’ को आ. शुक्ल जी ने तीन चरणों में विभक्त किया है और इन्हें प्रथम उत्थान, द्वितीय उत्थान तथा तृतीय उत्थान कहा है।
अधिकांश आधुनिक विद्वानो ने इस काल के प्रमुख साहित्यकारों के अवदान के आधार पर इसके उपभागों के नामकरण ‘भारतेन्दु युग’ अथवा ‘पुनर्जागरण काल’, ‘द्विवेदी युग अथवा ‘जागरण-सुधार काल’ आदि किये हैं।
इसके बाद के कालखण्डों को भी विद्वानों ने ‘छायावादी युग’ तथा ‘छायावादोत्तर युग’ में प्रगति, प्रयोग काल, नवलेखन काल नाम दिये हैं।
आधुनिक काल की प्रगति इतनी विशाल और बहुमुखी है कि उसे किसी विशिष्ट वाद या प्रवृत्ति की संकुचित सीमा में नहीं बाँधा जा सकता।
सर्वमान्य मत के अनुसार आलोच्य काल का नाम आधुनिक काल ही उपयुक्त है।
दिल कहाँ रखा? रचनाकार अरुण स्वामी द्वारा रचित प्रसिद्ध कविता
फुरसत में करेंगे तुझसे हिसाब ऐ जिन्दगी,
अभी तो उलझे हैं खुद को सुलझाने में।
कभी इसका दिल रखा कभी उसका दिल रखा,
इसी कशमकश में भूल गए
खुद का दिल कहाँ रखा?????
हिन्दी साहित्य काल विभाजन एवं कालखण्डों के नामकरण तथा हिंदी साहित्य में प्रचलित काल विभाजन और नामकरण की संपूर्ण जानकारी
“प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य-परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ‘साहित्य का इतिहास’ कहलाता है।” (आ.शुक्ल)
हिन्दी साहित्य काल विभाजन
पूर्व काल में घटित घटनाओं, तथ्यों का विवेचन, विश्लेषण एवं मूल्यांकन इतिहास में किया जाता है, और साहित्य में मानव-मन एवं जातीय जीवन की सुखात्मक दुखात्मक ललित भावनाओं की अभिव्यक्ति इस प्रकार की जाती है कि वे भाव सर्वसामान्य के भाव बन जाते हैं।
इससे स्पष्ट होता है कि, विभिन्न परिस्थितियों अनुसार परिवर्तित होने वाली जनता की सहज चित्तवृत्तियों की अभिव्यक्ति साहित्य में की जाती है जिससे साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता रहता है।
विभिन्न परिस्थितियों के आलोक में साहित्य के इसी परिवर्तनशील प्रवृत्ति और साहित्य में अंतर्भूत भावाभिव्यक्ति को प्रस्तुत करना ही साहित्येतिहास कहलाता है।
हिन्दी साहित्य काल विभाजन
आज साहित्य का अध्ययन एवं विश्लेषण केवल साहित्य और साहित्यकार को केंद्र में रखकर नहीं किया जा सकता बल्कि साहित्य का भावपक्ष, कलापक्ष, युगीन परिवेश, युगीन चेतना, साहित्यकार की प्रतिभा, प्रवृत्ति आदि का भी विवेचन विश्लेषण किया जाना चाहिए।
अतः कहा जा सकता है कि साहित्येतिहास का उद्देश्य ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्में साहित्य को वस्तु, कला पक्ष, भावपक्ष, चेतना तथा लक्ष्य की दृष्टि से स्पष्ट करना है साहित्य का बहुविध विकास, साहित्य में अभिव्यक्त मानव जीवन की जटिलता, ऐतिहासिक तथ्यों की खोज, अनेक सम्यक अनुशीलन के लिए साहित्येतिहास की आवश्यकता होती है।
“किसी भाषा में उस साहित्य का इतिहास लिखा जाना उस साहित्य की समृद्धि का परिणाम है। साहित्य के इतिहास का लिखा जाना अपनी साहित्यिक निधि की चिंता करना एवं उन साहित्यिकों के प्रति न्याय एवं कृतज्ञता प्रकट करना है जिन्होंने हमारे जातीय एवं राष्ट्रीय जीवन को प्रभावित किया है साहित्य के इतिहास को वह भित्तिचित्र समझिए जिसमें साहित्यिकों के आकृति-चित्र ही नहीं होते, हृदयचित्र और मस्तिष्क-चित्र भी होते हैं। इसके लिए निपुण चित्रकार की आवश्यकता होती है।” (विश्वंभर मानव)
हिन्दी साहित्य का काल विभाजन
जॉर्ज ग्रियर्सन द्वारा किया गया काल – विभाजन :
चारणकाल (700 इ. से 1300 इ. तक)
19 शती का धार्मिक पुनर्जागरण
जयसी की प्रेम कविता
कृष्ण संप्रदाय
मुगल दरबार
तुलसीदास
प्रेमकाव्य
तुलसीदास के अन्य परवर्ती
18 वीं शताब्दी
कंपनी के शासन में हिंदुस्तान
विक्टोरिया के शासन में हिंदुस्तान
इस काल विभाजन में एकरूपता का अभाव है। यह काल विभाजन कहीं कवियों के नाम पर; कहीं शासकों के नाम पर; कहीं शासन तंत्र के नाम पर किया गया है।
इस काल विभाजन में साहित्यिक प्रवृत्तियों और साहित्यिक चेतना का सर्वथा अभाव है।
अनेकानेक त्रुटियां होने के बाद भी काल विभाजन का प्रथम प्रयास होने के कारण ग्रियर्सन का काल विभाजन सराहनीय एवं उपयोगी तथा परवर्ती साहित्येतिहासकारों के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हुआ है।
मिश्र बंधुओं द्वारा किया गया काल-विभाजन :
मिश्र बंधुओं ने अपने साहित्येतिहास ग्रंथ ‘मिश्र बंधु विनोद’ (1913) में नया काल विभाजन प्रस्तुत किया।
यह काल विभाजन भी सर्वथा दोष मुक्त नहीं है, इस काल विभाजन में वैज्ञानिकता का अभाव है परंतु यह काल विभाजन ग्रियर्सन के काल विभाजन से कहीं अधिक प्रौढ़ और विकसित है-
प्रारंभिक काल (सं. 700 से 1444 विक्रमी तक)
माध्यमिक काल (सं. 1445 से 1680 विक्रमी तक)
अलंकृत काल (सं. 1681 से 1889 विक्रमी तक)
परिवर्तन काल (सं. 1890 से 1925 विक्रमी तक)
वर्तमान काल (सं. 1926 से अब तक)
आ. रामचंद्र शुक्ल द्वारा किया गया काल विभाजन :
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ (1929) में हिंदी साहित्य के इतिहास का नवीन काल विभाजन प्रस्तुत किया, यह काल विभाजन पूर्ववर्ती काल विभाजन से अधिक सरल, सुबोध और श्रेष्ठ है।
आचार्य शुक्ल द्वारा किया गया काल विभाजन वर्तमान समय तक सर्वमान्य है-
आदिकाल (वीरगाथा काल, सं. 1050 से 1375 विक्रमी तक)
पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल, सं. 1375 से 1700 विक्रमी तक)
उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल, सं. 1700 से 1900 विक्रमी तक)
आधुनिक काल (गद्य काल, सं. 1900 से आज तक)
डॉ. रामकुमार वर्मा द्वारा किया गया काल-विभाजन :
डॉ रामकुमार वर्मा ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ में काल विभाजन हेतु आचार्य शुक्ल का अनुसरण करते हुए अपना काल विभाजन प्रस्तुत किया है
कालविभाजन के अंतिम चार खंड तो आ. शुक्ल के समान ही है, लेकिन वीरगाथा काल को चारण काल नाम देकर इसके पूर्व एक संधिकाल और जोडकर हिंदी साहित्य का आरंभ सं. 700 से मानते हुए काल-विभाजन प्रस्तुत किया है।
आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आ. शुक्ल जी के काल-विभाजन को ही स्वीकार कर केवल संवत् के स्थान पर ईस्वी सन् का प्रयोग किया है।
द्विवेदीजी ने पूरी शताब्दी को काल विभाजन का आधार बनाकर वीरगाथा की अपेक्षा आदिकाल नाम दिया है।
आदिकाल (सन् 1000 ई. से 1400 ई. तक)
पूर्व मध्यकाल (सन् 1400 ई. से 1700 ई. तक)
उत्तर मध्यकाल (सन् 1700 ई. से 1900 ई. तक)
आधुनिक काल (सन् 1900 ई. से अब तक)
बाबू श्यामसुन्दर दास द्वारा किया गया काल-विभाजन:
बाबू श्यामसुन्दर दास द्वारा किया गया काल-विभाजन आ. शुक्ल के काल-विभाजन से साम्य रखता है।
दोनों के काल विभाजन में कोई अधिक भिन्नता नहीं है का काल-विभाजन इस प्रकार है-
आदिकाल (वीरगाथा का युग संवत् 1000 से संवत् 1400 तक)
पूर्व मध्य युग (भक्ति काल युग, संवत् 1400 से संवत् 1700 तक)
उत्तर मध्ययुग (रीति ग्रन्थों का युग, संवत् 1700 से, संवत् 1900 तक)
आधुनिक युग (नवीन विकास का युग, संवत् 1900 से अब तक)
डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त द्वारा किया गया काल-विभाजन:
डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने अपने ग्रन्थ ‘हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास’ में शुक्ल जी के काल विभाजन का ही समर्थन किया है। उनका काल-विभाजन इस प्रकार है-
प्रारम्भिक काल (1184 – 1350 ई.)
पूर्व मध्यकाल (1350 – 1600 ई.)
उत्तर मध्यकाल (1600 – 1857 ई.)
धुनिक काल (1857 ई. अब तक)
डॉ. नगेंद्र द्वारा किया गया काल-विभाजन :
आदिकाल (7 वी सदी के मध्य से 14 वीं शती के मध्यतक)
भक्तिकाल (14 वीं सदी के मध्य से 17 वीं सदी के मध्यतक)
रीतिकाल (17 वीं सदी के मध्य से 19 वीं शती के मध्यतक)
“घर बालक की प्रथम पाठशाला और माता-पिता उसके प्रथम शिक्षक होते हैं।”
उक्त कथन पूर्ण सत्य है बालक अपना पहला ज्ञान अपने परिवार और परिजनों से ही लेता है और उसके बाद ही वह समाज में प्रवेश करता है।
समाज में प्रवेश करके वह समाज के बारे में प्रयोगात्मक ज्ञान प्राप्त करता है
लेकिन इसके बाद भी उसे ज्ञान प्राप्ति के लिए विद्यालय और उसके पश्चात महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय की आवश्यकता होती है।
वर्तमान समय में हमें शिक्षा की कितनी आवश्यकता है उस शिक्षा से हम क्या क्या कर सकते हैं,
किस तरह से हम अपने तथा दूसरों के जीवन में परिवर्तन ला सकते हैं।
इसके लिए नेल्सन मंडेला का यह कथन पूर्णतया सार्थक है
“शिक्षा सबसे शक्तिशाली हथियार है जिसका उपयोग आप विश्व को बदलने के लिए कर सकते हैं”।
भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान
भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान
विश्व की सबसे प्राचीन और विकसित सभ्यता भारतीय सभ्यता है विश्व के सबसे प्राचीन ग्रंथ वेद है, जो कि ज्ञान का अथाह भंडार है।
प्राचीन काल से ही भारत में शिक्षा का प्रचार प्रसार अत्यंत व्यापक था।
वेदो के अध्ययन से हमें पता चलता है कि प्राचीन काल में भारत में सभी वर्गों को शिक्षा प्राप्ति का अधिकार था
प्राचीन समय में भारत में गुरुकुल पद्धति से शिक्षा दी जाती थी।
विद्यार्थी अपने गुरु के पास जाकर शिक्षा ग्रहण करते थे और शिक्षा पूर्ण होने पर ही अपने घर लौटते थे।
यह पद्धति अत्यंत कठिन थी परंतु इससे प्राप्त ज्ञान जीवन को बदलने वाला था
प्राचीन भारतीय शिक्षा का उद्देश्य केवल परीक्षाएं पास करवाकर डिग्रियां बांटना नहीं था बल्कि सीखे हुए ज्ञान को जीवन में धारण करना तथा यथा समय उसका प्रयोग किया जा सके शिष्य को इस योग्य बनाया जाना था।
भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान
आज से लगभग 2700 वर्ष पूर्व भारत में विश्व का पहला विश्वविद्यालय स्थापित किया गया।
यह विश्वविद्यालय तक्षशिला नामक स्थान पर स्थापित किया गया था।
इसके बाद लगभग 2300 वर्ष पूर्व नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना की गई।
यह दोनों ही विश्वविद्यालय वेद वेदांग के अतिरिक्त ज्ञान-विज्ञान, तकनीकी, गणित खगोल, भौतिकी, राजनीति शास्त्र, अर्थशास्त्र, नीति शास्त्र, व्याकरण आदि अनेक विषयों के लिए प्रसिद्ध थे।
इन्ही विश्वविद्यालयों में प्रसिद्ध भारतीय विद्वानों, जैसे- चरक, सुश्रुत, आर्यभट्ट, चाणक्य, पतंजलि आदि ने ज्ञान प्राप्त किया और ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों, जैसे- गणित, खगोल विज्ञान, भौतिकी, रसायन शास्त्र, चिकित्सा विज्ञान और शल्य चिकित्सा इत्यादि में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
सभी प्रकार के स्वास्थ्य और विज्ञान में भारतीयों का स्थान प्रथम है
यथा- आचार्य कणाद परमाणु संरचना पर सर्वप्रथम प्रकाश डालने वाले महापुरूष थे।
कणाद का कहना था– “यदि किसी पदार्थ को बार-बार विभाजित किया जाए और उसका उस समय तक विभाजन होता रहे, जब तक वह आगे विभाजित न हो सके, तो इस सूक्ष्म कण को परमाणु कहते हैं। परमाणु स्वतंत्र रूप से नहीं रह सकतेI परमाणु का विनाश कर पाना भी सम्भव नहीं हैं।”
प्राचीन वैज्ञानिकों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त
बौधायन भारत के प्राचीन गणितज्ञ और शुल्ब सूत्र तथा श्रौतसूत्र के रचयिता थे। उस समय भारत में रेखागणित या ज्यामिति को शुल्व शास्त्र भी कहा जाता था।
सुश्रुत प्राचीन भारत के महान चिकित्साशास्त्री एवं शल्यचिकित्सक थे। उनको शल्य चिकित्सा का जनक कहा जाता है।
चरक एक महर्षि एवं आयुर्वेद विशारद के रूप में विख्यात हैं। वे कुषाण राज्य के राजवैद्य थे। इनके द्वारा रचित चरक संहिता एक प्रसिद्ध आयुर्वेद ग्रन्थ है।
जीवक कौमारभच्च प्राचीन भारत के प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्यथे। अनेक बौद्ध ग्रन्थों में उनके चिकित्सा-ज्ञान की व्यापक प्रशंसा मिलती है। वे बालरोग विशेषज्ञ थे।
आर्यभट प्राचीन भारत के एक महान ज्योतिषविद् और गणितज्ञ थे। इन्होंने आर्यभटीय ग्रंथ की रचना की जिसमें ज्योतिषशास्त्र के अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन है।
वराहमिहिर (वरःमिहिर) ईसा की पाँचवीं-छठी शताब्दी के भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ थे। वाराहमिहिर ने ही अपने पंचसिद्धान्तिका में सबसे पहले बताया कि अयनांश का मान 50.32 सेकेण्ड के बराबर है।
ब्रह्मगुप्त (५९८-६६८) प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ थे। वे तत्कालीन गुर्जर प्रदेश (भीनमाल) के अन्तर्गत आने वाले प्रख्यात शहर उज्जैन (वर्तमान मध्य प्रदेश) की अन्तरिक्ष प्रयोगशाला के प्रमुख थे और इस दौरान उन्होने दो विशेष ग्रन्थ लिखे: ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त (सन ६२८ में) और खण्डखाद्यक या खण्डखाद्यपद्धति (सन् ६६५ ई में)। ये अच्छे वेधकर्ता थे और इन्होंने वेधों के अनुकूल भगणों की कल्पना की है। प्रसिद्ध गणितज्ञ ज्योतिषी, भास्कराचार्य, ने अपने सिद्धांत को आधार माना है और बहुत स्थानों पर इनकी विद्वत्ता की प्रशंसा की है। मध्यकालीन यात्री अलबरूनी ने भी ब्रह्मगुप्त का उल्लेख किया है।
भास्कराचार्य या भास्कर द्वितीय (1114 – 1185) प्राचीन भारत के एक प्रसिद्ध गणितज्ञ एवं ज्योतिषी थे। इनके द्वारा रचित मुख्य ग्रन्थ सिद्धान्त शिरोमणि है जिसमें लीलावती, बीजगणित, ग्रहगणित तथा गोलाध्याय नामक चार भाग हैं। ये चार भाग क्रमशः अंकगणित, बीजगणित, ग्रहों की गति से सम्बन्धित गणित तथा गोले से सम्बन्धित हैं।
भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान
विदेशी आक्रमणों के साथ ही भारतीय शिक्षा पद्धति का प्रभाव भी शुरू हो गया विदेशी आक्रांता ओं ने न सिर्फ भारतीय शिक्षा पद्धति का नाश किया बल्कि अनेक अनेक ग्रंथों विश्वविद्यालयों पुस्तकालय आदि को भी नष्ट कर दिया। अंग्रेजी शासनकाल में मैकाले द्वारा शुरू की गई शिक्षा पद्धति ने भारतीय शिक्षा की रीड की हड्डी ही तोड़ दी।
अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार से भारतीय शिक्षा और ज्ञान विज्ञान अपना प्रभुत्व खोने लगे और उस पर एक नया स्वरूप छाने लगा जिसे पाश्चात्य शिक्षा कहा गया।
कालांतर में भारतीय विद्वानों ने भी इसी पाश्चात्य शिक्षा का अनुसरण किया स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अनेक आयोग तथा समितियां गठित किए गए लेकिन उनमें से किसी ने भी भारतीय शिक्षा पद्धति की तरफ ध्यान नहीं दिया सभी ने पाश्चात्य शिक्षा पद्धति से ही शिक्षा देने का समर्थन किया जो शायद समय की मांग भी थी।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत में शिक्षा से संबंधित आयोग और समितियां (Commissions and Committees related with Education over the years)
विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग या राधा कृष्ण आयोग (1948):
स्वतंत्र भारत का यह पहला शिक्षा आयोग था जो पूर्व राष्ट्रपति शिक्षाविद एवं दार्शनिक डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्ण की अध्यक्षता में गठित हुआ इसके द्वारा क्षेत्र, जाति, लैंगिक विषमता का भेदभाव किए बिना समाज के सभी वर्गों के लिए उच्च शिक्षा को उपलब्ध कराने की अनुशंसा की गई।
मुदालियर आयोग या माध्यमिक शिक्षा आयोग:
डॉ. ए. लक्ष्मण स्वामी मुदलियार की अध्यक्षता में गठित माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952):
समिति ने सम्पूर्ण भारत में एक समान प्रारूप लागू करने,
आउटकम की दक्षता में वृद्धि,
मैट्रिक पाठ्यक्रमों का विविधीकरण,
बहुउद्देशीय मैट्रिक विद्यालयों तथा तकनीकी विद्यालयों की स्थापना की सिफारिश की।
भारतीय शिक्षा आयोग या कोठारी आयोग (1964-66)
डॉ. दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में गठित भारतीय शिक्षा आयोग का गठन 1964 में किया गया
इस आयोग द्वारा – a आंतरिक परिवर्तन b गुणात्मक सुधार और c शैक्षिक सुविधाओं का विस्तार, के आधार पर एक व्यापक पुनर्निर्माण के तीन मुख्य बिंदुओं कि अनुशंसा की गयी।
1968 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति:
कोठारी आयोग की अनुशंसा के आधार पर 1968 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति का निर्माण किया गया।
इसने माध्यमिक विद्यालयों में क्षेत्रीय भाषाओं पर बल देने; संविधान में प्रस्तावित 6-14 वर्ष की आयु वर्गों के बालकों के लिए अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान करने;
अंग्रेजी को विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम बनाने,
हिंदी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्वीकार करने एवं
संस्कृत के विकास को बढ़ावा देने तथा राष्ट्रीय आय का 6 प्रतिशत शिक्षा पर व्यय करने जैसी कई महत्त्वपूर्ण अनुशंसाएं की।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986):
(अद्यतन1992) इसके प्रमुख प्रावधानों में शामिल हैं-
समाज के सभी वर्गों विशेष रूप से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और महिलाओं को शिक्षा की पहुँच सुनिश्चित करना;
निर्धनों के लिए छात्रवृत्ति का प्रावधान,
प्रौढ़ शिक्षा प्रदान करना,
वंचित/पिछड़े वर्गों से शिक्षकों की भर्ती करना और नए विद्यालयों एवं महाविद्यालयों का विकास करना;
छात्रों को प्राथमिक शिक्षा प्रदान करना;
गांधीवादी दर्शन के साथ ग्रामीण लोगों को शिक्षा प्रदान करना;
मुक्त विश्वविद्यालयों की स्थापना करना;
शिक्षा में IT का प्रचार करना;
तकनीकी शिक्षा क्षेत्र को प्रारम्भ करने के अतिरिक्त वृहद स्तर पर निजी उद्यम को बढ़ावा देना।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1992):
भारत सरकार द्वारा 1990 में आचार्य राममूर्ति की अध्यक्षता में 1986 की राष्ट्रीय नीति के परिणामों की समीक्षा करने के लिए एक आयोग का गठन किया गया।
इसकी प्रमुख अनुशंसाओं में शामिल थीं-
केंद्र और राज्य सरकारों को सलाह देने के लिए उच्चतम सलाहकार निकाय के रूप में केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड का गठन;
शिक्षा की गुणवत्ता में वृद्धि पर ध्यान केंद्रित करना;
छात्रों में नैतिक मूल्यों को विकसित करना तथा
जीवन में शिक्षा को आत्मसात करने पर बल देना।
टी एस आर सुब्रमण्यम समिति की प्रमुख सिफारिशें:भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान
फेल नहीं करने की नीति पांचवी कक्षा तक ही लागू होनी चाहिए।। उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को बेहतर बनाने के लिए विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत आने की अनुमति दी जानी चाहिए।
मानव संसाधन के अधीन एक ’भारतीय शिक्षा सेवा’ का गठन किया जाए, (Indian Education Service: IES) का गठन किया जाना चाहिए; शिक्षा पर व्यय GDP का कम से कम 6% तक बढ़ाया जाना चाहिए; मौजूदा B.Ed पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए स्नातक स्तर पर 50% अंकों के साथ न्यूनतम पात्रता शर्त होनी चाहिए; सभी शिक्षकों की भर्ती के लिए शिक्षक पात्रता परीक्षा (Teacher Eligibility Test: TET) अनिवार्य किया जाना चाहिए; सरकार और निजी स्कूलों में शिक्षकों के लिए लाइसेंसिंग या प्रमाणीकरण को अनिवार्य बनाना चाहिए; 4 से 5 वर्ष की आयु वर्ग के बच्चों के लिए पूर्व-विद्यालय शिक्षा को अधिकार के रूप में घोषित किया जाना चाहिए; मिड-डे-मील योजना का विस्तार माध्यमिक विद्यालय तक किया जाए ; भारत में कैंपस खोलने के लिए शीर्ष 200 विदेशी विश्वविद्यालयों को अनुमति दी जानी चाहिए।
नई शिक्षा नीति तैयार करने हेतु कस्तूरीरंगन आयोग (2017) का गठन : भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान
केंद्र सरकार द्वारा एक नई शिक्षा नीति तैयार करने हेतु कस्तूरीरंगन आयोग (2017) का गठन किया गया है।
नई शिक्षा नीति में ध्यान केंद्रित किए जाने वाले प्रमुख बिंदु हैं:
आंगनबाड़ी को प्री-प्राइमरी स्कूल में बदला जायेगा।
राज्य एक साल के भीतर कोर्स बनायेंगे तथा शिक्षकों का अलग कैडर बनायेंगे।
सभी प्राइमरी स्कूल प्री-प्राइमरी स्कूल से सुसज्जित होंगे। आगनबाड़ी केंद्रों को स्कूल कैम्पस में स्थापित किया जायेगा।
नो डिटेंशन अब कक्षा 05 तक होगा।
RTE को 12 वीं तक ले जाया जायेगा।
विज्ञान, गणित तथा अंग्रेजी का समान राष्ट्रीय पाठ्यक्रम होगा।
सामाजिक विज्ञान का एक हिस्सा समान होगा, शेष का निर्माण राज्य करेंगे।
कक्षा 6 से ICT आरंभ होगी।
कक्षा 6 से विज्ञान सीखने के लिए प्रयोगशाला की सहायता ली जायेगी।
गणित, विज्ञान तथा अंग्रेजी के कक्षा 10 हेतु दो लेवल होंगे-A तथा B
ICT का शिक्षण तथा अधिगम सुनिश्चित करने हेतु प्रयोग।
विद्यालय के कार्यों का कम्प्यूटीकरण तथा शिक्षकों-छात्रों की उपस्थिति की ऑनलाइन मॉनिटरिंग।
राज्यों में शिक्षकों की नियुक्ति के लिये अलग से ‘शिक्षक भर्ती आयोग’।
नियुक्ति पारदर्शी तथा मैरिट के आधार पर होगी।
सभी रिक्त पद भरे जाएं। प्रधानाचार्यों के लिये लीडरशिप ट्रेनिंग अनिवार्य।
राष्ट्रीय स्तर पर ‘टीचर एजुकेशन विश्वविद्यालय’ की स्थापना।
हर पांच साल में शिक्षकों को एक परीक्षा देनी होगी। इसे उनके प्रमोशन तथा इन्क्रीमेंट से जोड़ा जायेगा।
GDP का 6% शिक्षा पर खर्च करने के लक्ष्य को पूरा करने की कोशिश हो।
नयी संस्थाओं को खोलने के बजाय मौजूदा शिक्षण संस्थाओं को मजबूत किया जाये।
मिड डे मील का दायित्व शिक्षकों के ऊपर से हटाकर महिला स्वयं सहायता समूहों को दिया जायेगा।
भोजन बनाने की केंद्रिकत प्रणाली विकसित की जायेगी।
निष्कर्ष
आधुनिक शिक्षा आज की आवश्यकता है परंतु केवल भौतिक उन्नति ही जीवन का सार नहीं है इसके साथ आध्यात्मिक उन्नति भी आवश्यक है स्वतंत्र भारत में जितने भी आयोग और समितियां शिक्षा की उन्नति के लिए गठित किए गए।
उन सभी का विश्लेषण करने के बाद यह प्रतीत होता है कि किसी ने भी प्राचीन भारतीय ज्ञान और विज्ञान के बारे में ऐसा कोई विचार नहीं दिया जिससे कि प्राचीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान का सदुपयोग आज की भौतिकवादी सभ्यता में किया जा सके।
बिना आध्यात्मिक मुक्ति के गौरी भौतिकता सर्वनाश की ओर ले जाती है।
प्राचीन भारतीय ज्ञान विज्ञान में भौतिक उन्नति के स्थान पर आध्यात्मिक व्यक्ति को महत्व दिया गया था
इसीलिए उनका जीवन शांतिपूर्ण और सात्विक था।
प्राचीन भारतीय मनीषियों ने वर्तमान समय से कहीं अधिक उन्नति कर ली थी।
ज्ञान विज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में वह आज से कहीं आगे थे
अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि आधुनिकता को अपनाया तो जाएं लेकिन अपने प्राचीन गौरव को ना छोड़ा जाए।
‘कोरोना’ का प्रकोप चल रहा है। पूरे देश में लाॅकडाउन का चौथा चरण शुरू हो गया है। आज धर्मपत्नी ने ‘टिक-टाॅक’ पर रेसिपी देखकर मुझसे कहा, ‘‘आज भटूरे बनाकर खिलाऊँगी।’’ उसकी यह बात सुनकर मेरे भी मुँह में पानी आ गया और मैंने भी आवेग में आकर कहा, ‘‘मैं भी आज इस रेसिपी बनाने में तुम्हारा हाथ बंटाता हूँ।’’
अब हमने भटूरे बनाने का कार्यक्रम का श्रीगणेश किया। धर्मपत्नी ने मैदा गूंथकर तेल गर्म किया। वह चकला-बेलन पर भटूरे बेलकर कड़ाही में भरे गर्म तेल में डालने लगी और मैंने तलने का काम शुरू किया।
अब बनने लगे तरह-तरह के भटूरे। कोई भटूरा तो फूलकर इतना गोल हो गया कि बाकी भटूरों से हलग हस्ती बनाकर बैठा है। कोई भटूरा इतना पिचक गया कि उसे कितना ही फुलाने का प्रयत्न करें, फूलना ही नहीं चाहता, शायद इस मोह-माया के संसार से विरक्त हो गया है।
कोई भटूरा तला नहीं है कच्चा रह गया है, यूँ लग रहा है दुनियादारी में इसकी पार कैसे पड़ेगी? कोई भटूरा इतना जल गया है कि स्वाद में कड़वा हो गया है, जो भी खाता है बाहर थूक देता है। कोई भटूरा एकदम छोटा रह गया है, अब बड़े-बड़े भटूरों के बीच असहज अनुभव कर रहा है। कोई भटूरा इतना गर्म है कि किसी को छूने भी नहीं दे रहा है। कोई बेचारा इतना ठण्डा है कि खाने में स्वाद ही नहीं आ रहा।
कोई भटूरा इतना कड़क हो गया है कि आम इंसान के बस की बात नहीं कि उसका एक कौर भी तोड़कर खाले। कोई इतना नरम कि हर कोई उसे तोड़कर खा ले।
खैर, इन तरह-तरह के भटूरों को देखकर मैं आजकल के लोगों के बारे में सोच रहा था कि इतने में धर्मपत्नी ने कहा, ‘‘भटूरे ठण्डे हो जाएंगे, अभी खा लो, नहीं तो स्वादिष्ट नहीं रहेंगे।’’
मैंने आनन्दपूर्वक छोले-भटूरे खाये। लाॅकडाउन में घर के अंदर बना होटल जैसा खाना खाकर मन तृप्त हो गया और मैंने छोले-भटूरों के लिए धर्मपत्नी को धन्यवाद दिया। धर्मपत्नी भी प्रशंसा पाकर खुश हो गई।
Computer History Timeline – कम्प्यूटर इतिहास टाईम लाइन (Part – 02)
Computer History Timeline | कम्प्यूटर का इतिहास हिंदी में| रोबोट|BM| जॉयस्टिक| प्रिंटेड सर्किट बोर्ड |एटानासॉफ-बेरी कंप्यूटर|MARK II |
1909 में ब्रायंट कंप्यूटर उत्पादों की स्थापना हुई।
1910 में हेनरी बैबेज, चार्ल्स बैबेज के सबसे छोटे बेटे एनालिटिकल इंजन के एक हिस्से को पूरा करते हैं और बुनियादी गणना करने में सक्षम बना देते हैं।
1911 में 16 जून को आईबीएम कंपनी की स्थापना न्यूयॉर्क में हुई।
आईबीएम को मूल रूप से कंप्यूटिंग-टेबुलेटिंग-रिकॉर्डिंग कंपनी (C-T-R), कम्प्यूटिंग स्केल कंपनी और अंतर्राष्ट्रीय समय रिकॉर्डिंग कंपनी के एक समेकन के रूप में जाना जाता था।
25 जुलाई 1911 को आईबीएम ने अपना पहला पेटेंट लिया।
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1921 में चेक नाटककार कारेल कैपेक ने 1921 में आरयूआर (रोसुम के यूनिवर्सल रोबोट्स) में “रोबोट” शब्द का सिक्का चलाया।
1923 में जैक सेंट क्लेयर किल्बी, नोबेल पुरस्कार विजेता और इंटीग्रेटेड सर्किट के आविष्कारक, हैंडहेल्ड कैलकुलेटर और थर्मल प्रिंटर का जन्म 8 नवंबर, 1923 को हुआ था।
1924 कम्प्यूटिंग-टेबुलेटिंग-रिकॉर्डिंग कंपनी (C-T-R) का नाम बदलकर 14 फरवरी 1924 को IBM कर दिया गया।
1925 में पश्चिमी इलेक्ट्रिक अनुसंधान प्रयोगशालाएँ और एटी एंड टी का इंजीनियरिंग विभाग समेकित तौर पर बेल टेलीफोन प्रयोगशालाएँ बनाता है।
1926 में अमेरिकी नौसेना अनुसंधान प्रयोगशाला में सी बी मिरिक द्वारा पहले जॉयस्टिक का आविष्कार किया गया।
1926 में सेमीकंडक्टर ट्रांजिस्टर के लिए पहला पेटेंट बनाया गया।
1936 में जर्मनी के कोनराड ज़्यूस ने Z1 बनाया जो पहले बाइनरी डिजिटल कंप्यूटरों में से एक है और एक मशीन जिसे एक पंच टेप के माध्यम से नियंत्रित किया जा सकता है।
1936 में रेडियो पर काम करते हुए पॉल आइस्लर ने प्रिंटेड सर्किट बोर्ड (पीसीबी) का आविष्कार किया।
12 मई, 1936 को ड्वोरक को कीबोर्ड के लिए पेटेंट मिला।
1937 आयोवा स्टेट कॉलेज के जॉन विंसेंट अटानासॉफ तथा क्लिफर्ड बेरी बाइनरी-आधारित एबीसी (एटानासॉफ-बेरी कंप्यूटर) बनाना शुरू किया। यह पहला इलेक्ट्रॉनिक डिजिटल कंप्यूटर माना जाता है।
1938 कंपनी को हिउलेट पैकार्ड ने अपना पहला उत्पाद एचपी 200 ए बनाया।
22 अक्टूबर, 1938 को चेस्टर कार्लसन ने पहली इलेक्ट्रोफोटोग्राफ़िक इमेज बनाई जो बाद में ज़ेरॉक्स मशीन बन गई।
1939 में हेवलेट पैकर्ड की स्थापना 1939 में विलियम हेवलेट और डेविड पैकर्ड द्वारा की गई थी।
कंपनी की आधिकारिक तौर पर 1 जनवरी, 1939 को स्थापना की गई थी।
1939 में जॉर्ज स्टिबिट्ज ने जटिल संख्या कैलकुलेटर बनाया जो जटिल संख्याओं को जोड़ने, घटाने, गुणा करने और विभाजित करने में सक्षम था। यह उपकरण डिजिटल कंप्यूटर के लिए एक आधार प्रदान करता है।
1939 आयोवा स्टेट कॉलेज के जॉन विंसेंट अटानासॉफ और क्लिफोर्ड बेरी ने बाइनरी आधारित एबीसी (एटानासॉफ-बेरी कंप्यूटर) का एक प्रोटोटाइप बनाया।
जॉन एतानासॉफ़ एबीसी (एटनासॉफ़-बेरी कंप्यूटर) का सफलतापूर्वक परीक्षण करता है जो पुनर्योजी संधारित्र ड्रम मेमोरी का उपयोग करने वाला पहला कंप्यूटर था।
ENIAC (इलेक्ट्रॉनिक न्यूमेरिकल इंटीग्रेटर एंड कंप्यूटर), पहला सामान्य उद्देश्य इलेक्ट्रॉनिक डिजिटल कैलकुलेटर का निर्माण शुरू होता है।
इस कंप्यूटर को सबसे पहले इलेक्ट्रॉनिक कंप्यूटर माना जाता है।
टॉमी फ्लावर्स द्वारा विकसित पहला इलेक्ट्रिक प्रोग्रामेबल कंप्यूटर द कोलोसस, पहली बार दिसंबर 1943 में प्रदर्शित किया गया था।
मार्क 1 कोलोसस कंप्यूटर 5 फरवरी, 1944 को चालू हो गया।
यह कंप्यूटर पहला बाइनरी और आंशिक रूप से प्रोग्रामेबल कंप्यूटर है।
1 जून 1994 को मार्क 2 कोलोसस कंप्यूटर चालू हो गया।
हार्वर्ड मार्क I कंप्यूटर रिले-आधारित हार्वर्ड-आईबीएम मार्क I एक बड़ी प्रोग्राम-नियंत्रित गणना मशीन है जो अमेरिकी नौसेना के लिए महत्वपूर्ण गणना प्रदान करता है। ग्रेस हॉपर इसका प्रोग्रामर बन गया।
वॉन न्यूमैन आर्किटेक्चर और संग्रहीत कार्यक्रमों के साथ एक सामान्य-उद्देश्य वाले इलेक्ट्रॉनिक डिजिटल कंप्यूटर का विवरण जॉन वॉन न्यूमैन की EDVAC की रिपोर्ट में पेश किया गया था।
8 फरवरी, 1945 को हार्वर्ड मार्क I डिजिटल कंप्यूटर के लिए पेटेंट दायर किया गया था।
कंप्यूटर बग के रूप में बग शब्द को ग्रेस हॉपर ने MARK II की प्रोग्रामिंग करते हुए कहा था।
जन राजमैन ने सेलेरॉन ट्यूब विकसित करने पर अपना काम शुरू किया जो 256 बिट्स को संग्रहीत करने में सक्षम था।
उस समय चुंबकीय कोर मेमोरी की लोकप्रियता के कारण, सेलेरॉन ट्यूब को बड़े पैमाने पर उत्पादन में नहीं डाला गया था।
फ्रेडी विलियम्स 11 दिसंबर, 1946 को अपने CRT (कैथोड-रे ट्यूब) भंडारण उपकरण पर एक पेटेंट के लिए आवेदन करते हैं।
वह उपकरण जो बाद में विलियम्स ट्यूब या अधिक उपयुक्त रूप से विलियम्स-किलबर्न ट्यूब के रूप में जाना जाने लगा।
ट्यूब केवल 128 40-बिट शब्दों को संग्रहीत करता है।
जॉन बार्डीन, वाल्टर ब्रेटन, और विलियम शॉकले ने 23 दिसंबर, 1947 को बेल लेबोरेटरीज में पहले ट्रांजिस्टर का आविष्कार किया।
कम्प्यूटिंग मशीनरी के लिए एसोसिएशन की स्थापना 1947 में हुई थी।
थॉमस टी गोल्डस्मिथ जूनियर और एस्टले रे मान ने 25 जनवरी, 1947 को सीआरटी पर
खेले गए पहले कंप्यूटर गेम में से एक का वर्णन करते हुए # 2,455,992 का पेटेंट कराया।
जे फोरेस्टर और अन्य शोधकर्ता व्हर्लविंड कंप्यूटर में चुंबकीय-कोर मेमोरी का उपयोग करने के विचार के साथ आते हैं।
1822 में चार्ल्स बैबेज द्वारा बनाया गया पहला मैकेनिकल कंप्यूटर वास्तव में ऐसा नहीं था, जो आज का कंप्यूटर है। जैसे जैसे समय बीतता गया तकनीक और अधिक विकसित होती गई और उसका स्वरूप हमारे सामने है। आने वाले समय और अधिक विकसित होगा। कम्प्यूटर क्षेत्र में कब किसने क्या योगदान दिया आइए जानते हैं
30,000 ई.पू. ऐसा माना जाता है कि यूरोप में पैलियोलिथिक लोग हड्डियों, हाथी दांत और पत्थर पर निशान निशान बनाकर कोई रिकॉर्ड रखते थे।
3500 ई.पू. लेखन का पहला सबूत मिलता है।
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3400 ई.पू. मिस्र के लोगों ने 10 की संख्या के लिए एक प्रतीक बनाया ताकि बड़ी बड़ी गणनाएं आसानी से हो सकें।
3000 ई.पू. मिस्र में सबसे पहले हाइरोग्लिफ़िक अंक का उपयोग किया जाता है।
300 ई.पू. यूक्लिड नामक गणितज्ञ ने यूनानियों की 13 पुस्तकों को प्रस्तुत किया जो गणितीय ज्ञान को संक्षेप मं प्रस्तुत करती हैं।
300 ई.पू. यूक्लिड ने यूक्लिडियन एल्गोरिथम बनाया, जिसे पहला एल्गोरिदम माना जाता है। उनके गणित और ज्यामिति आज भी पढ़ाए जाते हैं।
300 ई.पू. आज के अबेकस जैसा हाथ अबेकस बना।
260 ई.पू. माया गणित की आधार -20 प्रणाली विकसित करती है, जो शून्य का परिचय देती है।
1000 A.D. गार्बर्ट डी’रिलैक के नाम का एक चर्चमैन जो बाद में पोप सिल्वेस्टर II बनता है, यूरोप में अबेकस और हिंदू-अरबी गणित के महत्व को समझाते हैं।
1440 जोहान्स गुटेनबर्ग ने अपने पहले प्रिंटिंग प्रेस गुटेनबर्ग प्रेस के विकास को पूरा किया।
1492 लियोनार्डो दा विंसी 13 अंकों के cog-wheeled adder वाले योजक का डायग्राम बनाया।
1500 में लियोनार्डी दा विंची ने एक यांत्रिक कैलकुलेटर का आविष्कार किया।
1605 में फ्रांस के बेकन ने एक संदेश लिखने वाले ए बी के संदेशों को सांकेतिक शब्दों में बदलने के लिए एक साइफर बेकेनियन सिफर का उपयोग किया।
1613 “कंप्यूटर” शब्द पहली बार 1613 में इस्तेमाल किया गया।
1617 जॉन नेपियर ने हाथी दांत से “नेपियर बोन्स” नामक एक प्रणाली शुरू की, जो अंकों का जोड, घटाव व गुणा कर सकता थी।
1621 में विलियम मस्ट्रेड ने सर्कुलर स्लाइड रूल का आविष्कार किया गया।
1623 में जर्मनी के विल्हेम स्किकार्ड ने पहली यांत्रिक गणना मशीन बनाई। यह मशीन नेपियर बोंस की तरह हड्डियों द्वारा बनाई गई।
1632 में कैम्ब्रिज के विलियम मस्टर्ड ने स्लाइड रूल जैसा एक उपकरण बनाने के लिए दो गंटर नियमों को संयोजित किया।
1642 में फ्रांस के ब्लेज पास्कल पास्कलीन नामक यंत्र बनाया जो गणनाएं कर सकता था।
1671 गॉटफ्रीड लीबनिज़ ने स्टेप रेकनर बनाया जो स्क्वेयर रूट को गुणा, भाग व मूल्यांकन करता था।
1679 में गॉटफ्रीड लीबनिज बाइनरी अंकगणित की खोज की। बाइनरी में प्रत्येक संख्या को केवल 0 और 1 द्वारा दर्शाया जा सकता है।
1725 को फ्रांस में बेसिल बाउचॉन ने एक लूम का आविष्कार किया जिसमें एक छिद्रित पेपर टेप रोल का उपयोग किया गया था, जिसे बाद में 1728 में उनके सहायक जीन-बैप्टिस्ट फाल्कन ने पंच कार्ड का उपयोग करने के लिए अपग्रेड किया। यह पूरी तरह से स्वचालित नहीं था।
1801 में फ्रांसिस जोसेफ-मैरी जैक्वार्ड ने पहली बार जैक्वार्ड लूम का प्रदर्शन किया।
1804 फ्रांसिस जोसेफ मैरी जैक्वार्ड ने पूरी तरह से स्वचालित लूम को पूरा किया जो पंच कार्ड द्वारा क्रमानुसार आदेश प्राप्त करता था।
1820 में चार्ल्स जेवियर थॉमस डी कॉलमार ने अरिथोमीटर नामक पहली व्यावसायिक रूप से सफल गणना मशीन बनाई।
यह न केवल जोड़, बल्कि घटाव, गुणा और भाग भी कर सकता था।
1822 की शुरुआत में, चार्ल्स बैबेज ने डिफरेंशियल इंजन विकसित करना शुरू किया, जिसमें पहला मैकेनिकल प्रिंटर शामिल था।
1823 में बैरन जोन्स जैकब बर्ज़ेलियस ने सिलिकॉन निर्मित सीआई की खोज की, जो आज के आईसी (एकीकृत सर्किट) का मूल घटक है।
1832 में कोर्साकोव ने पहली बार जानकारी स्टोरज के लिए के लिए पंच कार्ड का उपयोग किया।
1836 को शेमूएल मोर्स और अल्फ्रेड वेल ने एक कोड विकसित करना शुरू किया जिसे मोर्स कोड कहा गया।
इसमें अंग्रेजी वर्णमाला और दस अंकों के अक्षरों का प्रतिनिधित्व करने के लिए विभिन्न संख्याओं का उपयोग किया।
1837 में चार्ल्स बैबेज ने पहली बार एनालिटिकल इंजन बनाया, जो कि कंप्यूटर को मेमोरी के रूप में पंच कार्ड और कंप्यूटर को प्रोग्राम करने का एक तरीका था।
1845 इज़्रेल स्टाफ़ेल ने वारसॉ में औद्योगिक प्रदर्शनी में स्टाफ़ के कैलकुलेटर का प्रदर्शन किया।
1854 ऑगस्टस डेमोरोन और जॉर्ज बोले ने तार्किक कार्यों के एक सेट को व्यवहारिक रूप दिया।
1860 में 29 फरवरी को हरमन होलेरिथ का जन्म हुआ।
1868 में क्रिस्टोफर शोल्स ने एक टाइपराइटर के लिए QWERTY लेआउट कीबोर्ड का उपयोग किया और 14 जुलाई 1868 को इसका पेटेंट ले लिया।
1877 को संयुक्त राज्य अमेरिका के एमिल बर्लिनर ने माइक्रोफोन का आविष्कार किया।
1878 में कीबोर्ड रेमिंग्टन नंबर 2 टाइपराइटर कुंजी रखने वाला पहला कीबोर्ड 1878 में पेश किया गया था।
1884 में हरमन होलेरिथ ने द होलेरिथ इलेक्ट्रिक टेबुलेटिंग सिस्टम बनाया।
1889 में हरमन होलेरिथ ने सबसे पहले अपने डॉक्टरेट थीसिस में टेबुलेटिंग मशीन का वर्णन किया।
1890 में हरमन होलेरिथ ने मशीनों से अमेरिकी जनगणना के लिए पंच कार्डों द्वारा रिकॉर्ड करने और संग्रहीत करने के लिए एक प्रणाली विकसित की और एक कंपनी गठित की जिसे आज आईबीएम के नाम से जाना जाता है।
1893 में पहला अंडरवुड टाइपराइटर का आविष्कार किया गया।
1896 में हर्मन होलेरिथ ने टैबुलेटिंग मशीन कंपनी शुरू की।
कंपनी बाद में प्रसिद्ध कंप्यूटर कंपनी आईबीएम (इंटरनेशनल बिजनेस मशीन) बन गई।
1904 को एप्पल macOS का युग शुरू हुआ।
1904 में ही जॉन एंब्रोज फ्लेमिंग ने एडिसन के डायोड वैक्यूम ट्यूबों के साथ प्रयोग किया और पहला वाणिज्यिक डायोड वैक्यूम ट्यूब बनाया।
1907 में ली डी फ्रॉस्ट ने वैक्यूम ट्यूब ट्रायोड के लिए पेटेंट दायर किया।
बाद में इस पेटेंट को बाद में पहले इलेक्ट्रॉनिक कंप्यूटर में इलेक्ट्रॉनिक स्विच के रूप में उपयोग किया है।
1907 आईबीएम ने 11 अक्टूबर 1907 को अपने पहले अमेरिकी पेटेंट के लिए दायर किया।