जगदीश चंद्र बोस की जीवनी – Jagdish Chandra Bose Biography in Hindi

जगदीश चंद्र बोस की जीवनी – Jagdish Chandra Bose Biography in Hindi

सामान्य परिचय एवं जन्म

जगदीश चंद्र बसु का जन्म 30 नवंबर 1818 में मोमिन से नमक स्थान पर हुआ यह जगह वर्तमान बांग्लादेश में है इनकी पिता भगवान चंद्र बसु उप मजिस्ट्रेट इसके साथ साथ ही वे ब्रह्म समाज से भी जुड़े हुए थे। मूलतः इनका परिवार रारीखाल गांव विक्रमपुर से आया था। तो अब जानते हैं जगदीश चंद्र बोस की जीवनी – Jagdish Chandra Bose Biography in Hindi

 

जगदीश चंद्र बोस की जीवनी - Jagdish Chandra Bose Biography in Hindi
जगदीश चंद्र बोस की जीवनी – Jagdish Chandra Bose Biography in Hindi

शिक्षा दीक्षा

बालक जगदीश चंद्र की प्रारंभिक शिक्षा गांव के ही एक बंगाली विद्यालय में हुई।

इनके पिता चाहते थे कि उनका बेटा अंग्रेजी जानने से पहले अपनी मातृभाषा सीखे।

एक जगह स्वयं जगदीश चंद्र बसु ने कहा है कि

”अंग्रेजी स्कूल में भेजना हैसिहत की निशानी माना जाता था। मैं जिस बंग्ला विद्यालय में जाता था, वहां पर मेरे दाएं तरफ मेरे पिता के मुस्लिम नौकर का बेटा बैठता था, मेरी बाई तरफ एक मछुआरे का बेटा। उनकी पक्षियों, जानवरों और जलीय जीवो की कहानियों को मैं कान लगाकर सुनता था शायद इन्हीं कहानियों ने मेरे मस्तिष्क में प्रकृति की संरचना पर अनुसंधान करने की गहरी रुचि जगाई।”

महा विद्यालय शिक्षा एवं विदेश गमन

विद्यालय स्तर की पढ़ाई के बाद बसु ने कोलकाता के प्रसिद्ध सेंट जेवियर महाविद्यालय से 1880 में स्नातक की उपाधि प्राप्त की अब जगदीश चंद्र बसु चिकित्सा शास्त्र की पढ़ाई करना चाहते थे, इसके लिए उन्हें लंदन जाना था।

सन् 1880 में ही उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय में चिकित्सा के पाठ्यक्रम में प्रवेश ले लिया,

परंतु कुछ ही समय में वहां बसु का स्वास्थ्य खराब रहने लगा जिसके कारण उन्हें चिकित्सा की पढ़ाई बीच में ही छोड़ देनी पड़ी और 1881 में कैंब्रिज विश्वविद्यालय के क्राइस्ट कॉलेज में विज्ञान के पाठ्यक्रम में प्रवेश लिया

इसी कॉलेज में बसु प्रोफेसर लाफोंट से मिले जिन्होने उन्हें भौतिक शास्त्र के अध्ययन के लिए प्रेरित किया।

1884 में बोस इंग्लैंड से बीएससी की उपाधि प्राप्त कर भारत लौट आये।

भारतीयों के साथ होने वाले भेदभाव के विरुद्ध सत्याग्रह

1885 में बसु की नियुक्ति कोलकाता के प्रतिष्ठित प्रेसिडेंसी कॉलेज में भौतिक विज्ञान के प्राध्यापक के रूप में हुई।

लेकिन यहां अंग्रेजों की भेदभाव की नीति काम कर रही थी। अंग्रेजी अधिकारियों ने पहले तो बसु की नियुक्ति में ही कई अड़ँगे लगाए।

जब श्री बसु ने बंगाल के शिक्षा संचालक को उनके नाम लिखा वाइसराय का पत्र दिखाया तो शिक्षा संचालक एल्फ्रेड क्राफ्ट ने बसु का अपमान करते हुए कहा कि

“एक काला आदमी विज्ञान सिखाने लायक नहीं होता।”

जब वायसराय को बसु की नियुक्ति की सूचना नहीं मिली तो उन्होंने क्राफ्ट से पूछताछ की इस तरह वायसराय द्वारा पूछताछ करने पर डर के कारण क्राफ्ट ने तत्काल बसु की नियुक्ति प्रेसिडेंसी कॉलेज में की।

बसु के साथ दूसरा भेदभाव यह किया गया जो कि प्रत्येक भारतीय के साथ किया जाता था भारतीयों को अंग्रेज अधिकारियों की तुलना में आधा वेतन दिया जाता था क्योंकि बसु की नियुक्ति तत्काल हुई थी इसलिए उन्हें अंग्रेज प्राध्यापकों की तुलना में एक तिहाई ही वेतन दिया जाता था।

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जिसके विरोधस्वरूप बसु ने वेतन लेने से मना कर दिया।

बसु ने सत्याग्रह के मार्ग को अपनाया, उन्होंने अपना अध्यापन कार्य जारी रखा किंतु वेतन स्वीकार नहीं किया।

बसु अब बिना वेतन के ही कॉलेज में काम करते रहे।

यह सिलसिला तीन साल तक चलता रहा। इस दौरान उनके परिवार पर कर्ज का बोझ बढ़ता गया घर की आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गई और इसी अवधि में बसु का विवाह भी हो गया।

ऐसी परिस्थितियों में भी परिवार और पत्नी ने उनका भरपूर सहयोग किया।

बसु अपना काम पूरी मेहनत और लगन से करते रहे और तीन साल बाद प्राचार्य टॉने तथा शिक्षा संचालक क्रॉफ्ट को अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने बसु को अंग्रेज प्राध्यापकों के समान नियुक्ति तिथि से ही पूरा वेतन देना स्वीकार किया।

इसी वेतन से उन्होंने अपने परिवार का ऋण चुकाया।

विवाह

जगदीश चंद्र बसु का विवाह उनके पिता के एक सहयोगी दुर्गा मोहन दास की द्वितीय पुत्री अबला से 1887 ईस्वी में हुआ।

जगदीश चंद्र बसु और अबला का जिस समय विवाह हुआ उस समय अब अबला मद्रास में चिकित्सा शास्त्र के तृतीय वर्ष की पढ़ाई कर रही थी।

विज्ञान की पृष्ठभूमि से आने के कारण अबला जी अपने पति को उनके क्षेत्र में अत्यधिक सहयोग कर पाई। यह सहयोग आजीवन चलता रहा।

अध्यापन और अनुसंधान

अध्यापन की तरह ही अनुसंधान कार्य भी बसु के लिए आसान नहीं रहा। महाविद्यालय में उन्हें ऐसी कोई सुविधा प्राप्त नहीं थी जिससे अनुसंधान में सहायता मिल सके।

इस समय की प्रसिद्ध रॉयल सोसाइटी का मानना था कि “विज्ञान के क्षेत्र में मौलिक अनुसंधान ब्रिटिशों के ऊपर छोड़ दिया जाए और भारतीय वैज्ञानिक प्रायोगिक विषयों पर अनुसंधान करें।”

ऐसी विकट परिस्थिति में भी बसु ने हार नहीं मानी और महाविद्यालय के मात्र 20 वर्ग फीट के कमरे में उन्होंने एक प्रयोगशाला बनाई।

बसु के साथी प्राध्यापक भी उन पर तंज कसते उन्हें हतोत्साहित करने का पूरा प्रयास करते। उनकी बातें सुनकर बसु दुगने उत्साह से अपने काम में लग जाते।

छत्तीसवां जन्मदिन और संकल्प

अपने छत्तीसवें जन्मदिन पर जगदीश चंद्र बसु ने यह दृढ़ संकल्प लिया कि “इससे आगे की अपनी आयु अनुसंधान कार्य में ही बताऊंगा” और इस संकल्प का उन्होंने जीवन भर पालन किया।

बसु का आकर्षण अब विद्युत चुंबकीय तरंगों की तरफ हुआ बसु उसे पहले 1863 में मैक्सवेल नामक ब्रितानी वैज्ञानिक ने विद्युत चुंबकीय तरंग के अस्तित्व को गणितीय आधार पर सिद्ध किया।

मैक्सवेल के बाद ओलिवर लॉग नामक ब्रिटिश वैज्ञानिक ने मैक्सवेल के अनुसंधान को आगे बढ़ाया।

जर्मन वैज्ञानिक हॉट्स ने यह सिद्ध किया की तरंग को बिना तार के भी भेजा जा सकता है।

1894 में हॉट्स की मृत्यु के बाद लॉज ने उनके अनुसंधान कार्य पर एक भाषण दिया।

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यह भाषण ‘वर्क ऑफ हार्ट्स एंड सम ऑफ हिस सक्सेस’ नाम से प्रकाशित हुआ।

लॉज के इसी भाषण रूपी पुस्तक को पढ़कर बसु भी इस विषय की ओर आकृष्ट हुए और उसे अनुसंधान के विषय के रूप में चुना।

बसु दा का अनुसंधान कार्य सतत् चलता रहा। इस दौरान उन्होंने कई उपकरण भी बनाए।

जब उन्होंने अपने प्रयोग पाश्चात्य देशों में प्रस्तुत किए तो पश्चिमी वैज्ञानिकों ने इनकी खोज और उपकरण देखकर आश्चर्य से दांतो तले उंगली दबा ली।

1894 में बसु ने सूक्ष्म तरंगों की सहायता से दूर स्थित गन पाउडर को प्रज्वलित किया और एक घंटी भी बजाई।

बसु ने अपने किसी भी आविष्कार का कभी भी पेटेंट नहीं करवाया एक अमेरिकी मित्र के आग्रह पर 1901 में उन्होंने अपना पहला पेटेंट करवाया जो किसी भी भारतीय का पहला पेटेंट था जो उन्हें 1904 में प्राप्त हुआ।

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बसु ने तरंगों पर अनुसंधान करते हुए कई अभिनव प्रयोग किए।

1895 में उन्होंने कोलकाता के टाउन हॉल में सबके सामने एक प्रयोग किया इस संबंध में स्वयं बसु लिखते हैं

“इस प्रयोग के समय लेफ्टिनेंट गवर्नर विलियम मैकेंजी मुख्य अतिथि थे। सभागृह में निर्माण किए गए तरंग उनके मोटे शरीर तथा तीन दीवारों से गुजरकर 75 फीट की दूरी पर स्थित एक कक्ष में पहुंचे और वहां उन्होंने तीन प्रकार के कार्य किए एक पिस्तौल से गोली उड़ी दूसरा तोप से गोला फेंका गया और तीसरा बारूद के ढेर में चिंगारी को स्पर्श कर उसमें विस्फोट हुआ।”

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दुनिया के संभवत इस पहले प्रयोग को देखकर लेफ्टिनेंट मैकेंजी बहुत खुश हुए और बसों के लिए ₹1000 का पारितोषिक घोषित किया

1896 में बसु इंग्लैंड गये जहां लिवरपूल में ब्रिटिश एसोसिएशन की परिषद् में बसु ने अपने अनुसंधान निबंध पढ़े।

उनकी प्रस्तुति और प्रयोग इतने प्रभावशाली थे कि सभी ने उनकी प्रशंसा की।

ब्रिटिश समाचारपत्र जो उस समय भारतीयों के लिए दोयम दर्जे की भाषा का प्रयोग करते थे, उन्होंने भी बसु के लिए गौरवपूर्ण शब्दों का प्रयोग किया।

ब्रिटेन में दिए गए अपनी इन्हीं व्याख्यानो के कारण महान वैज्ञानिक लॉर्ड केल्विन ने भारत मंत्री लॉर्ड हेमिल्टन को एक पत्र लिखा जिसमें भारत में अनुसंधान के लिए प्रयोगशाला स्थापित करने का सुझाव और मांग थी।

इसी तरह का एक पत्र रॉयल इंस्टीट्यूशन ने भी भारत मंत्री के लिए लिखा, भारत मंत्री ने भारत सरकार को पत्र लिखकर भारत में प्रयोगशाला स्थापित करने हेतु आगे की कार्रवाई करने के लिए कहा।

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भारत सरकार ने तत्कालिक बंगाल की प्रांतीय सरकार को पत्र लिखा लेकिन यह कार्रवाई कागजों में ही दब कर रह गयी अंततः केंद्र सरकार ने बसु को वार्षिक ₹2000 अनुदान अनुसंधान कार्य के लिए मंजूर किया।

सन 1900 में जिन दिनों बसु इंग्लैंड में थे उनके प्रयोगों और व्याख्यान की चारों ओर धूम मची हुई थी। चारों तरफ से उन्हें बधाई मिल रही थी।

तभी प्रोफेसर लॉज तथा प्रोफेसर बैरट ने बसु के सामने एक प्रस्ताव रखा कि वे भारत छोड़कर इंग्लैंड में आ जाएं यहां एक विश्वविद्यालय में एक प्राध्यापक का स्थान खाली है लेकिन राष्ट्रभक्त बसु ने वह स्वर्णिम प्रस्ताव ठुकरा दिया।

इस संबंध में उन्होंने अपने परम मित्र रवींद्र नाथ टैगोर से भी विचार विमर्श किया।

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बसु द्वारा इंग्लैंड में प्राध्यापक पद ठुकरा देने के बाद घटनाक्रम कुछ ऐसा हुआ कि उन्हें काफी समय तक इंग्लैंड में ही रहना पड़ा।

इसी प्रवास में बसु रवींद्रनाथ टैगोर की कथाओं का अंग्रेजी अनुवाद करते तथा अपने अनुसंधान में भी लगे रहते हैं।

लेकिन मित्रों एक बात बार-बार उन्हें कचोट रही थी कि वह क्या करें?

क्या अभी इंग्लैंड में ही रही?

क्या वे भारत लौट जाएं?

नौकरी जारी रखें या

अवकाश ले ले यदि नौकरी छोड़ दें तो पैसे कहां से आएंगे?

ऐसी गंभीर विषय पर वह किससे बात करें किससे अपने मन की बात बताएं यह भी एक उलझन थी

अंततः उन्होंने अपने अंतरंग मित्र रवींद्र नाथ ठाकुर से बात की रवींद्र नाथ ठाकुर यह चाहते थे कि बसु इंग्लैंड में रहकर ही अनुसंधान कार्य करें और उनको वेतन नहीं मिलने की स्थिति में रवींद्र नाथ ठाकुर स्वयं धन की व्यवस्था कर देंगे।

बसु अपनी आर्थिक तंगी को मिटाने के लिए अपने अनुसंधान एवं लेखों के कॉपीराइट भी बेच सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया।

जीव-अजीव पर अनुसंधान और विवाद

बसु ने जीव और अजीव दोनों चीजों पर अनुसंधान किया।

उन्होंने सिद्ध किया कि जीव-अजीव सभी में वेदना का अनुभव होता है।

सभी वस्तुएँ जहर के प्रति प्रतिक्रिया देती है, चाहे वे जीव हो या अजीव।

उनके बनाए उपकरण से अजीव पदार्थों की धड़कन भी समझी जा सकती थी।

इन प्रयोगों और व्याख्यानो पर उन्हें पाश्चात्य वैज्ञानिकों से प्रतिकार भी झेलना पड़ा। लेकिन भी अडिग रहें और अपना काम करते रहे।

पश्चिमी वैज्ञानिक यह मानने को तैयार ही नहीं थे की वनस्पतियों से विद्युतीय प्रतिसाद प्राप्त हो सकता है या अधातु भी प्रतिक्रिया दे सकते लेकिन जगदीश चंद्र बसु इसे सिद्ध करने पर अडिग थे।

ऐसी परिस्थितियों में पश्चिमी वैज्ञानिक चाह रहे थे कि बसु भारत लौट जाए।

उसी समय त्रिपुरा के राजा ने उन्हें दस हजार रुपए आर्थिक सहायता देना स्वीकार कर लिया और यह भी वचन दिया कि वह इसी वर्ष में दस हजार रुपए की और उन्हें सहायतार्थ दे सकते हैं। अब बसु के लिए 1 वर्ष और इंग्लैंड में रहने की व्यवस्था हो गई थी।

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21 मार्च 1902 को वह दिन भी आया जब बसु ने शरीर विज्ञान, जीव विज्ञान तथा अन्य शास्त्रों के विद्वानों के सामने रॉयल सोसाइटी के समक्ष किए गए प्रयोग पुनः प्रस्तुत किए और सब लोगों ने उनकी प्रशंसा की 1 जनवरी 1903 में जगदीश चंद्र बसु ने CIE (कमांडर ऑफ द इंडियन एंपायर) की उपाधि से सम्मानित किया गया।

इसके बाद जगदीश चंद्र बसु उत्तरोत्तर अनुसंधान करते रहे उन्हें अपार सफलताएं मिली।

पुस्तकें

(क) अंग्रेजी पुस्तकें

1. रिस्पॉन्स इन द लिविंग एंड नॉन-लिविंग। (1902)

2. फॉर रिस्पॉन्स इज अ मीन्स ऑफ फिजियोलॉजिकल इन्वेस्टिगेशन। (1906)

3. कॉपरेटिव इलेक्ट्रो फिजियोलॉजी (1907)

4. रिसर्चेस ऑन इरिटॉबिलिटी ऑफ प्लांट्स (1912)

5. द फिजियोलॉजी ऑफ फोटोसिंथेसिस (1924)

6. नर्वस मेकेनिज्म ऑफ प्लांट्स (1926)

7. कलेक्टेड फिजिकल पेपर्स (1927)

8. फॉर ऑटोग्राफ्स एंड देअर रिवीलेशंस (1927)

9. द मोटर मेकेनिज्म ऑफ प्लांट्स (1928)

10. ग्रोथ एंड ट्रॉपिक मूवमेंट्स ऑफ प्लांट्स। (1929)

(ख) संपादित पुस्तकें

1. खंड 1 : 1918

2. खंड 2 : 1919

3. खंड 3 : 1920 ‘लाइफ मूवमेंट्स इन प्लांट्स’ शीर्षक से

4. खंड 4 : 1921 एक साथ प्रकाशित

5. खंड 5: 1923; ‘द फिजियोलॉजी ऑफ दि एसेंट ऑफ सैप शीर्षक से।

6. खंड 6 : 1932; ‘लाइफ मूवमेंट्स इन प्लांट्स’ शीर्षक से।

7. खंड 7 : 1933

8. खंड 8 : 1934

9. खंड 9 : 1935

10. खंड 10 : 1936

11. खंड 11 : 1937

(ग) बंग्ला ग्रंथ

अव्यक्त (1921) बँगला लेखों एवं भाषणों का संग्रह।

जगदीश चंद्र बसु की जीवन यात्रा कालक्रम अनुसार

1858 ― 30 नवंबर को मैमनसिंह (वर्तमान बांग्लादेश में) में जन्म

1863 ― बांग्ला विद्यालय में प्रवेश।

1869 ― कोलकाता के प्रसिद्ध सेंट जेवियर स्कूल में प्रवेश।

1875 ― मैट्रिक की परीक्षा पास।

1880 ― बी.ए. उत्तीर्ण।
चिकित्सा स्वास्थ्य की पढ़ाई के लिए लंदन विश्वविद्यालय में प्रवेश।

1881 ― चिकित्सा शास्त्र में काम आने वाले रसायनों से एलर्जी के कारण पाठ्यक्रम बीच में छोड़कर लंदन विश्वविद्यालय के क्राइस्ट कॉलेज में विज्ञान पाठ्यक्रम में प्रवेश लिया।

1884 ― बी.एस-सी. उपाधि प्राप्त और भारत वापसी।

1885: कलकत्ता के प्रसिद्ध ‘प्रेसीडेंसी कॉलेज’ में भौतिक विज्ञान के प्राध्यापक के रूप में नियुक्ती कम वेतन के विरोध में वेतन न स्वीकारने का सत्याग्रह किया।

1887: अबला दास के साथ विवाह ।

1888 ― तीन वर्ष तक सत्याग्रह किया और विजय प्राप्त की। पिता के ऋण को चुकाया।

1890 ― पिता का निधन।

1891― माता भामासुंदरी का निधन ।

1894 ― 36वीं वर्षगांठ जीवन भर अनुसंधान कार्य करने का संकल्प लिया ‘विद्युत्-चुंबकीय तरंग एवं बेतार संदेशों का आदान-प्रदान’ विषय में अनुसंधान आरंभ। अनेक नवीनता-युक्त उपकरणों का निर्माण।

1895 ― कलकत्ता के टाउन हॉल में आम लोगों के सामने बेतार संदेश का अभिनव प्रयोग।

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1896 ― वैज्ञानिकों से चर्चा हेतु पहले विदेशी दौरे हेतु प्रस्थान।

1897 ― ब्रिटेन से फ्रांस और जर्मनी का दौरा। भारत सरकार द्वारा अनुसंधान कार्य के लिए वार्षिक ₹2000 का अनुदान स्वीकृत।

1900 ― पेरिस में हुई पदार्थ-वैज्ञानिकों की परिषद् में भारत का प्रतिनिधित्व।

1901: रॉयल इंस्टीट्यूशन में व्याख्यान पाश्चात्य वैज्ञानिकों द्वारा इसका विरोध किया गया तथा उस निबंध को प्रकाशित न करने का सोसाइटी का निर्णय लिया।

1902 ― ‘लिनियन सोसायटी में व्याख्यान दिया।

प्रतिपादित सिद्धांत का बिना किसी विरोध के स्वीकृत।

वनस्पतियों पर अनुसंधान तेज कर दिया।

इसी वर्ष पहली पुस्तक प्रकाशित तथा भारत वापसी भी इसी वर्ष हुई।

1906 ― दूसरी पुस्तक प्रकाशित।

1907 ― तीसरी पुस्तक प्रकाशित।
इसी वर्ष यूरोप के दौरे पर तीसरी बार प्रस्थान

1908 ― अमेरिका यात्रा।
सुखद अनुभव।

1909 ― भारत वापसी।

1911 ― 14 अप्रैल से मैमनसिंह में ‘बंगीय साहित्य सम्मेलन’ की अध्यक्षता।

1912 ― कलकत्ता विश्वविद्यालय द्वारा सम्माननीय डी.एस-सी. की उपाधि।

1913 ― चौथी पुस्तक प्रकाशित। अवकाश ग्रहण से पूर्व दो वर्ष का सेवाकाल बढ़ाया गया।

1914 ― ब्रिटेन, जर्मनी, ऑस्ट्रिया, अमेरिका तथा जापान में व्याख्यान के लिए चौथी बार विदेश यात्रा।

1915 ― अवकाश ग्रहण पर एमिरेटस प्रोफेसर का सम्मान।

1916 ― ‘बंगीय साहित्य परिषद्’ के निर्विरोध अध्यक्ष।

1917 ― सर की उपाधि से सम्मानित।

बोस इंस्टिट्यूशन का उद्घाटन दोनों (30 नवंबर को)।

1919 ― नवंबर में पांचवी बार यूरोप यात्रा पर।

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1920 ― रॉयल सोसाइटी द्वारा फेलो स्वीकृत (पहले भारतीय) फ्रांस, जर्मनी, स्वीडन तथा ऑस्ट्रिया की यात्रा।

1921― कोलकात्ता में नागरिक सम्मान।

1923 छठी यूरोपीय यात्रा पर।

1924 ― पाँचवी पुस्तक प्रकाशित।

1925 ― एक-एक ग्रंथ का फ्रेंच तथा जर्मन में अनुवाद प्रकाशित।

1926 ― ‘लीग ऑफ नेशंस’ का ‘कमेटी ऑन इंटेलेक्चुअल को-ऑपरेशन के सदस्य मनोनयन। छठी पुस्तक प्रकाशित।

1927 ― लाहौर में आयोजित ‘इंडियन साइंस कांग्रेस’ के अध्यक्ष बनाये गये। यूरोप की आठवीं यात्रा।

कुछ निबंधों का संकलन सातवें ग्रंथ में प्रकाशित।

आठवाँ ग्रंथ भी प्रकाशित ‘बोस इंस्टीट्यूट’ की दसवीं वर्षगाँठ।

1928 ― नौवीं विदेश यात्रा।

ऑस्ट्रिया आठवें ग्रंथ का जर्मन अनुवाद। 30 नवंबर को सप्ततिपूर्ति के उपलक्ष्य में सम्मान

नौवीं पुस्तक प्रकाशित।

1929 ― दसवीं विदेश यात्रा
दसवी पुस्तक प्रकाशित।

1931 ― श्री सयाजीराव गायकवाड़ पुरस्कार’ से सम्मानित।

14 अप्रैल को कलकत्ता महानगर पालिका की ओर से प्रकट सम्मान।

रवींद्रनाथ के सप्ततिपूर्ति समारोह समिति के अध्यक्ष।

1934 ― अखिल भारतीय ग्रामोद्योग समिति’ की परामर्श समिति में चयन।

1935 ― ‘प्रेसीडेंसी कॉलेज’ से संबंधों के 50 वर्ष के उपलक्ष्य में छात्रों की ओर से सम्मानित।

1937 ― 23 नवंबर को गिरिडीह में अंतिम सांस। कलकत्ता में अंतिम संस्कार।

अटल बिहारी वाजपेयी

मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या-आधुनिक भारत के निर्माता

सरदार वल्लभ भाई पटेल : भारतीय लौहपुरूष

सुंदर पिचई – सफलताओं के पर्याय

डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम

डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन

मेजर ध्यानचंद

जगदीश चंद्र बोस

सरदार वल्लभ भाई पटेल

भारतीय लौहपुरूष : सरदार वल्लभ भाई पटेल

सरदार वल्लभ भाई पटेल, जीवनी, योगदान, शिक्षा, स्टेच्यू आॅफ यूनिटी, भारत का एकीकरण एवं स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदारी आदि पूरी जानकारी।

सरदार सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्म 31 अक्टूबर 1875 गुजरात के नाडियाद जिले के करमसद गाँव में एक किसान परिवार में हुआ था।

उनके पिता का नाम झवेर भाई और माता का नाम लाडबा देवी था।

सरदार पटेल अपने तीन भाई बहनों में सबसे छोटे और चौथे नंबर पर थे।

सरदार वल्लभ भाई पटेल | जीवनी | योगदान | स्टेच्यू आॅफ यूनिटी | Statue of Unity | भारत का एकीकरण | स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदारी |
Sardar Vallabh Bhai Patel

सरदार वल्लभ भाई पटेल : शिक्षा

पटेल जी की प्रारंभिक शिक्षा नादियाड में हुई।

प्रारंभिक शिक्षा समाप्त करने के बाद आप बड़ौदा के हाई स्कूल में अध्ययन करने के लिए आये।

विद्यालय में सरदार पटेल पढ़ाई-लिखाई में एक औसत दर्जे के छात्र थे।

मैट्रिक में वह बिल्कुल साधारण छात्रों की तरह ही पास हुए।

इससे आगे की शिक्षा दिला पाना उनके पिता के लिए संभव नहीं था इसलिए मैट्रिक पास कर लेने के बाद वल्लभभाई ने अपने बूते पर कुछ करने का सोचा और गोधरा में मुख्तारी का काम शुरू कर दिया।

वह बैरिस्टर बनना चाहते थे।

किन्तु जब तक समय और परिस्थितियाँ अनुकूल न हों, तब तक के लिए उन्होंने प्रतीक्षा करना उचित समझा।

नोबेल पुरस्कार-2020 एवं नोबेल पुरस्कार की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

कुछ दिनों तक गोधरा में मुख्तारी करने के बाद वल्लभभाई बोरसद चले आए और फ़ौजदारी मुकदमों में वकालत करने लगे जहां उन्हें अत्यधिक सफलता मिली।

उन्होंने इतना धन एकत्र कर लिया कि विलायत जा सकते थे।

उन्होंने पहले अपने बड़े भाई को विलायत भेजा।

उनके लौटने के बाद यह स्वयं विलायत गये और उस समय पर अपनी बैरिस्टर की पढ़ाई पूरी कर भारत लौट आए।

सरदार वल्लभ भाई पटेल : स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदारी

पहले पहल सरदार पटेल ने महात्मा गांधी की अहिंसा की नीति को बेकार की बातें मानते थे,

परंतु गांधी जी से मिलने के बाद उनसे प्रेरित होकर स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया था।

पहले पहल गोधरा में एक राजनीतिक सम्मेलन में बेगार प्रथा को हटाने के सम्बन्ध में गाँधीजी और पटेल का साथ हुआ था।

बेगार प्रथा को हटाने के लिए एक समिति बनाई गयी थी।

उस कमेटी के मंत्री वल्लभभाई चुने गये थे पटेल ने कुछ दिनों में बेगार प्रथा को समाप्त करवा दिया।

खेड़ा आन्दोलन

1918 में खेड़ा क्षेत्र सूखे की चपेट में था और वहां के किसानों ने अंग्रेजी सरकार से कर में राहत देने की मांग की।

पर अंग्रेज सरकार ने इस मांग को स्वीकार नहीं किया, तो सरदार पटेल, महात्मा गांधी और अन्य लोगों ने किसानों का नेतृत्व किया और उन्हें कर न देने के लिए प्ररित किया।

अंत में सरकार को झुकना पड़ा और किसानों को कर में राहत दे दी गई।

सरदार की उपाधि

सरदार पटेल को सरदार नाम, बारडोली सत्याग्रह के दौरान मिला, एक बार वल्लभभाई ने अपनी ओर संकेत करते हुए कहा था “बारडोली में केवल एक ही सरदार है, उसकी आज्ञा का पालन सब लोग करते हैं।”

बात सच थी, फिर भी कहीं मजाक में कही गयी थी।

तब से ही वह सरदार कहलाने लगे। यह उपनाम उनके नाम के साथ सदा के लिए जुड़ गया।

योगदान

असहयोग आंदोलन के समय उन्होंने अपने बच्चों को सरकारी स्कूल से निकाल लिया।

उन्होंने गुजरात विद्यापीठ की स्थापना की और इसके लिए दस लाख रुपये भी एकत्रित किए।

1922 में गांधी जी को 6 साल की जेल हो गयी। गांधीजी की अनुपस्थिति में गुजरात में पटेल जी ने ही राजनीतिक आंदोलन का संचालन किया। 930 में राजनीतिक कारणों से सरदार पटेल को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें तीस महीने की सजा हुई।

कांग्रेस के अध्यक्ष

जेल से बाहर आते ही, 1931 में, भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के कराची अधिवेशन में, पटेल अध्यक्ष चुने गए।

बोरसद के सत्याग्रह और नागपुर के झंडा सत्याग्रह में उन्हें अपार सफलता प्राप्त हुई।

भारत का एकीकरण

स्वतंत्रता के समय भारत में लगभग 600 (562) देसी रियासतें थीं।

इनका क्षेत्रफल भारत का 40 प्रतिशत था।

देश की आजादी के साथ ही ये रियासतें भी अंग्रेजों से आजाद हो गई और अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखना चाहती थी।

सरदार पटेल और वीपी मेनन के समझाने बुझाने के परिणामस्वरूप तीन को छोडकर शेष सभी राजवाडों ने स्वेच्छा से भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

केवल जम्मू एवं कश्मीर, जूनागढ तथा हैदराबाद स्टेट के राजाओं ने ऐसा करना नहीं स्वीकारा।

जूनागढ सौराष्ट्र के पास एक छोटी रियासत थी और चारों ओर से भारतीय भूमि से घिरी थी।

वह पाकिस्तान के समीप नहीं थी।

वहाँ के नवाब ने 15 अगस्त 1947 को पाकिस्तान में विलय की घोषणा कर दी।

राज्य की अधिकांश जनता हिंदू थी और भारत विलय चाहती थी।

नवाब के विरुद्ध बहुत विरोध हुआ तो भारतीय सेना जूनागढ़ में प्रवेश कर गयी।

नवाब भागकर पाकिस्तान चला गया और 9 नवम्बर 1947 को जूनागढ भारत में मिल गया।

फरवरी 1948 में वहाँ जनमत संग्रह कराया गया, जो भारत में विलय के पक्ष में रहा।

हैदराबाद भारत की सबसे बड़ी रियासत थी, जो चारों ओर से भारतीय भूमि से घिरी थी।

वहाँ के निजाम ने पाकिस्तान के प्रोत्साहन से स्वतंत्र राज्य का दावा किया और अपनी सेना बढ़ाने लगा।

वह ढेर सारे हथियार आयात करता रहा। पटेल चिंतित हो उठे।

अन्ततः भारतीय सेना 13 सितंबर 1948 को हैदराबाद में प्रवेश कर गयी।

तीन दिनों के बाद निजाम ने आत्मसमर्पण कर दिया और नवंबर 1948 में भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

अनुच्छेद 370 और 35(अ) समाप्त

नेहरू ने काश्मीर को यह कहकर अपने पास रख लिया कि यह समस्या एक अन्तरराष्ट्रीय समस्या है।

कश्मीर समस्या को संयुक्त राष्ट्रसंघ में ले गये और अलगाववादी ताकतों के कारण कश्मीर की समस्या दिनोदिन बढ़ती गयी।

अंततोगत्वा 5 अगस्त 2019 को प्रधानमंत्री मोदी जी और गृहमंत्री अमित शाह जी के प्रयास से कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाला अनुच्छेद 370 और 35(अ) समाप्त हुआ।

कश्मीर भारत का अभिन्न अंग बन गया और सरदार पटेल का भारत को अखण्ड बनाने का स्वप्न साकार हुआ।

31 अक्टूबर 2019 को जम्मू-कश्मीर तथा लद्दाख के रूप में दो केन्द्र शासित प्रेदश अस्तित्व में आये।

अब जम्मू-कश्मीर केन्द्र के अधीन रहेगा और भारत के सभी कानून वहाँ लागू होंगे।

पटेल जी को कृतज्ञ राष्ट्र की यह सच्ची श्रद्धांजलि है।

आजादी के बाद ज्यादातर प्रांतीय समितियां सरदार पटेल के पक्ष में थीं।

गांधी जी की इच्छा थी, इसलिए सरदार पटेल ने खुद को प्रधानमंत्री पद की दौड़ से दूर रखा और जवाहर लाल नेहरू को समर्थन दिया।

दो अगस्त 1946 को पहली बार केंद्र में बनी लोकप्रिय सरकार में उन्हें गृहमंत्री और सूचना विभाग के मंत्री बनाया गया।

स्वतंत्रता के बाद उन्हें पहले की भांति गृह और सूचना विभाग में मंत्री बनाया गया तथा उपप्रधानमंत्री का पद सौंपा गया, जिसके बाद उनकी पहली प्राथमिकता देसी रियासतों तो भारत में शामिल करना था।

सरदार वल्लभ भाई पटेल : भारत का लौह पुरूष, भारत का बिस्मार्क और बर्फ से ढका हुआ ज्वालामुखी

आजादी के समय ऐसी लगभग 600 रियासतें थी इस कार्य को उन्होंने बगैर किसी बड़े लड़ाई झगड़े के किया।

परंतु हैदराबाद के ऑपरेशन पोलो के लिए सेना भेजनी पड़ी।

चूंकि भारत के एकीकरण में सरदार पटेल का योगदान अत्यंत महत्त्वपूर्ण था, इसलिए उन्हें भारत का लौह पुरूष और भारत का बिस्मार्क कहा गया।

सरदार पटेल शक्ति के पुंज थे। विपत्ति के सामने उनके इरादे चट्टान की भांति अजय हो जाते थे।

मौलाना शौकत अली ने उन्हें बर्फ से ढका हुआ ज्वालामुखी कहा है।

उनके लिए इससे अच्छी दूसरी उपमा ढूंढ पाना कठिन है।

15 दिसंबर 1950 को लौहपुरुष सदा के लिए चिरनिद्रा में सो गये।

सरदार वल्लभ भाई पटेल का सम्मान

अहमदाबाद के हवाई अड्डे का नामकरण सरदार वल्लभभाई पटेल अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र रखा गया है।

गुजरात के वल्लभ विद्यानगर में सरदार पटेल विश्वविद्यालय

सन 1991 में मरणोपरान्त भारत रत्न से सम्मानित

भारत के राजनीतिक एकीकरण के लिए सरदार वल्लभ भाई पटेल के योगदान को चिरस्थाई बनाए रखने के लिए उनके जनमतिथि 31 अक्टूबर को राष्ट्रीय एकता दिवस में मनाया जाता है।

इसका आरम्भ भारत के प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने सन 2014 में किया।

इसी दिन को राष्ट्रीय अखंडता दिवस के रूप में भी मनाया जाता है।

इस दिन राष्ट्रीय एकता के लिए ‘रन फॉर यूनिटी’ का संपूर्ण देश में आयोजन किया जाता है।

स्टैच्यू ऑफ यूनिटी

240 मीटर ऊँची इस प्रतिमा का आधार 58 मीटर का है।

मूर्ति की ऊँचाई 182 मीटर है, जो स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी से लगभग दोगुनी ऊँची है।

31 अक्टूबर 2013 को सरदार पटेल की 137वीं जयंती के अवसर पर गुजरात के तात्कालिक मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गुजरात के नर्मदा जिले में सरदार पटेल के एक नए स्मारक का शिलान्यास किया।

यहाँ लौहे से निर्मित सरदार वल्लभ भाई पटेल की एक विशाल प्रतिमा लगाने का निश्चय किया गया, अतः इस स्मारक का नाम ‘एकता की मूर्ति’ (स्टैच्यू ऑफ यूनिटी) रखा गया है।

यह प्रतिमा को एक छोटे चट्टानी द्वीप ‘साधू बेट’ पर स्थापित किया गया है जो केवाडिया में सरदार सरोवर बांध के सामने नर्मदा नदी के बीच स्थित है।

2018 में तैयार इस प्रतिमा को प्रधानमंत्री मोदी जी ने 31 अक्टूबर 2018 को राष्ट्र को समर्पित किया।

यह प्रतिमा 5 वर्षों में लगभग 3000 करोड़ रुपये की लागत से तैयार हुई है।

ऐसे थे अपने देश के लौहपुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल।

सरदार वल्लभ भाई पटेल, जीवनी, योगदान, शिक्षा, स्टेच्यू आॅफ यूनिटी, भारत का एकीकरण एवं स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदारी आदि पूरी जानकारी।

डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम APJ Abdul Kalam

डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जीवन परिचय

डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम APJ Abdul Kalaam | जीवन परिचय | Biography | चर्चित पुस्तकें | Books | मिसाइल मैन | World Student Day |

मिसाइल मैन, भारत रत्न, भारत के प्रथम नागरिक (राष्ट्रपति), परमाणु वैज्ञानिक, शिक्षाविद्, विद्यार्थी, आदि कई विरुदों से विभूषित डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम APJ Abdul Kalam (डॉ अवुल पाकिर जैनुलआब्दीन अब्दुल कलाम) भारतीय गणतंत्र के 11वें राष्ट्रपति थे। इन सबके बावूजद भी कलाम ने स्वयं को हमेशा एक ‘लर्नर’ ही माना।

डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम APJ Abdul Kalaam | जीवन परिचय | Biography | चर्चित पुस्तकें | Books | मिसाइल मैन | World Student Day |
डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जीवन परिचय शिक्षा वैज्ञानिक जीवन राष्ट्रपति जीवन चर्चित पुस्तकें युवाओं के लिए संदेश

प्रारंभिक जीवन : डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम

राष्ट्रपति बनने तक के सफर में इन्होंने खूब परिश्रम किया। बचपन में पढ़ाई करने के लिए अखबार भी बांटे और अन्य काम भी किये।

अबुल पाकिर जैनुलआब्दीन अब्दुल कलाम का जन्म तमिलनाडु के धनुषकोडी (रामेश्वरम) शहर में 15 अक्टूबर 1931 को हुआ।

उनके पिता जैनुलाब्दीन संयुक्त परिवार में रहते थे।

इनके पाँच बटे पाँच बेटियां थी। जिस घर में इनका परिवार रहता था उसमें तीन परिवार रहते थे।

कलाम के पिता की आर्थिक हालत ठीक नहीं थी।

वे मछुआरों को नाव किराए पर देते थे और उसी से अपना गुजर-बसर चलाते थे।

कलाम भी बचपन से ही परिवार को आर्थिक सहायता देने के लिए छोटे-मोटे काम करते थे, जिससे अखबार वितरण का काम प्रमुख है।

इनके पिता अधिक पढ़े लिखे नहीं पढ़ाई के महत्त्व को बहुत अच्छी तरह से जानते थे इसलिए उन्होंने अपने बच्चों को संस्कारित किया।

पिता के संस्कारों अब्दुल कलाम पर गहरा प्रभाव पड़ा जो उनके चरित्र में नजर आता है।

इनकी माता एक साधारण गृहणी थी परंतु मानवता में उनकी गहरी आस्था थी जिसके साफ झलक अब्दुल कलाम के व्यक्तित्व मैं झलकती है।

शिक्षा दीक्षा

अब्दुल कलाम ने अपनी प्राथमिक शिक्षा की शुरुआत रामेश्वरम के प्राथमिक विद्यालय शुरु की।

पढ़ाई के दिनों में वे सामान्य विद्यार्थी थे, लेकिन उनमें सीखने की तीव्र भूख थी।

रामनाथपुरम स्वार्ट्ज मैट्रिकुलेशन स्कूल से स्कूल की पढ़ाई पूरी कर अब्दुल कलाम ने तिरुचिरापल्ली के सेंट जोसेफ कॉलेज में प्रवेश किया और 1954 में भौतिक विज्ञान में स्नातक की उपाधि प्राप्त की।

1955 उन्होंने मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के एयरोस्पेस इंजीनियरिंग ब्रांच में प्रवेश लिया तथा 1960 में अपनी पढ़ाई पूरी की।

वैज्ञानिक जीवन

एक वैज्ञानिक के तौर पर अपने करियर की शुरुआत करने पर स्वयं श्री कलाम ने अपनी पुस्तक में लिखा कि – “यह मेरा पहला चरण था; जिसमें मैंने तीन महान शिक्षकों- विक्रम साराभाई, प्रोफेसर सतीश धवन और ब्रह्म प्रकाश से नेतृत्व सीखा।

मेरे लिए यह सीखने और ज्ञान के अधिग्रहण के समय था।”

मद्रास से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद से कलाम रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) में वैज्ञानिकों के पद पर कार्य करना शुरू किया।

DRDO में कलाम ने एक छोटा होवरक्राफ्ट डिजाइन किया था तथा भारतीय सेना के लिए एक छोटा हेलीकॉप्टर बनाया।

DRDO में वे अपने काम से पूर्णतया संतुष्ट नहीं थे।

1969 में उनका स्थानांतरण हो गया और वे भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) में आ गए।

यहां उनकी टीम ने देश का पहला स्वदेशी रूप से डिजाइन और निर्मित उपग्रह प्रक्षेपण यान तैयार किया और रोहिणी नामक उपग्रह को पृथ्वी की कक्षा में स्थापित करने में सफलता प्राप्त की।

IGMDP का शुभारंभ और मिसाइलमैन

1980 में भारतीय रक्षा मंत्रालय ने डीआरडीओ के नेतृत्व में अन्य मंत्रालयों के साथ मिलकर इंटीग्रेटेड गाइडेड मिसाइल डेवलपमेंट प्रोग्राम (IGMDP) का शुभारंभ किया।

इस परियोजना की जिम्मेदारी कलाम को दी गई।

उन्हीं के नेतृत्व में देश ने अग्नि और पृथ्वी जैसी मिसाइलों का सफल परीक्षण किया।

इसी के साथ डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम “मिसाइल मैन” बन गये।

श्री कलाम 1992 से 1999 तक रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन के सचिव तथा प्रधानमंत्री के मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार भी रहे।

भारत गौरव पोकरण परमाणु परीक्षण

2000 वर्षों के इतिहास में भारत पर 600 वर्षों तक अन्य लोगों ने शासन किया है।

यदि आप विकास चाहते हैं तो देश में शांति की स्थिति होना आवश्यक है और शांति की स्थापना शक्ति से होती है।

इसी कारण प्रक्षेपास्त्रों को विकसित किया गया ताकि देश शक्ति सम्पन्न हो।

अपनी सोच के कारण डॉ कलाम भारत को हमेशा परमाणु शक्ति संपन्न करने में प्रयासरत रहे।

2 मई 1998 में राजस्थान के पोकरण में भारत द्वारा किए गए दूसरे सफल परमाणु परीक्षण करने वाली टीम के नायक भी श्री कलाम ही थे।

बहुत ही गुप्त रूप से किए गए इस परीक्षण में भारत को एकाएक परमाणु संपन्न राष्ट्र घोषित कर दिया।

एक बार पुनः भारत को विश्व शक्ति बनाने की ओर यह पहला कदम था।

देश को परमाणु शक्ति बनाने में कलाम की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण रही।

कलाम राजू स्टेंट

वर्ष 1998 मैं कलाम ने जाने-माने कार्डियोलॉजिस्ट डॉ सोमा राजू के साथ मिलकर बहुत कम खर्च में कोरोनरी स्टेंट विकसित किया, जिसका नाम कलाम राजू स्टेंट रखा गया।

इसी प्रकार उक्त दोनों महानुभावों ने ग्रामीण क्षेत्र में स्वास्थ्य देखभाल के लिए टेबलेट पीसी भी डिजाइन किया इसका नाम भी इन्हीं दोनों के नाम पर कलाम राजू टेबलेट रखा गया।

राष्ट्रपति

25 जुलाई 2002 में भारतीय गणतंत्र के दसवें राष्ट्रपति के रूप में डॉ के आर नारायणन का कार्यकाल समाप्त होने वाला था।

देश के नये राष्ट्रपति के चुनाव की तैयारियां शुरू हुई।

श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली तात्कालिक एन डी ए सरकार ने कलाम को अपना उम्मीदवार घोषित किया

कांग्रेस का भी समर्थन मिला।

18 जुलाई 2002 को वे भारत के 11 राष्ट्रपति चुने गए तथा इनका पाँच वर्षीय गरिमामयी कार्यकाल 25 जुलाई 2007 को समाप्त हुआ।

राष्ट्रपति पद से मुक्ति के बाद

25 जुलाई 2007 को राष्ट्रपति के दायित्व से मुक्त होने के बाद आप सार्वजनिक जीवन में लौट आए।

कलाम ने भारतीय प्रबंधन संस्थान शिलांग, भारतीय प्रबंधन संस्थान अहमदाबाद, भारतीय प्रबंध संस्थान इंदौर, भारतीय विज्ञान संस्थान बेंगलुरु के मानद फेलो तथा विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में कार्य किया।

इसके साथ ही भारतीय अंतरिक्ष विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान तिरुवंतपुरम के कुलाधिपति, अन्ना विश्वविद्यालय में एयरोस्पेस इंजीनियरिंग के प्रोफेसर बने।

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, अन्ना विश्वविद्यालय तथा अंतरराष्ट्रीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान हैदराबाद में सूचना प्रौद्योगिकी विषय पढा़या।

अन्य अनेक विश्वविद्यालय तथा संस्थाओं में सैकड़ों व्याख्यान दिए।

कलाम की युवाओं के लिए दस बिंदुओं की शपथ : डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम APJ Abdul Kalaam

मैं अपनी शिक्षा पूरी करूगा व कार्य समर्पण के साथ करूंगा और मैं इनमें श्रेष्ठ (अग्रणी) बनूंगा।

अब से आगे बढ़कर, मैं कल से कम से कम दस लोगों को पढ़ना और लिखना सिखाउंगा. जो पढ़ लिख नहीं सकते।

कम से कम दस पौधे लगाऊंगा और पूरी जिम्मेदारी से वृद्धि करूँगा।

मैं निश्चित रूप से अपने मुसीबत में पड़े साथियों के दु:ख कम करने की कोशिश करूंगा।

ग्रामीण या शहरी क्षेत्रों की यात्रा करूंगा तथा कम से कम पांच लोगों को नशा तथा जुए से पूर्णतः मुक्ति दिलाऊंगा।

मैं ईमानदार रहूंगा और भ्रष्टाचार से मुक्त समाज बनाने की पूरी कोशिश करूंगा।

एक सजग नागरिक बनने का कार्य करूंगा तथा अपने परिवार को कर्मठ बनाऊंगा।

मैं किसी धर्म, जाति या भाषा में अंतर का समर्थन नहीं करूगा।

हमेशा ही मानसिक और शारीरिक चुनौती प्राप्त विकलांगों से मित्रवत् रहूंगा तथा वे हमारी तरह सामान्य महसूस कर सके ऐसा बनाने के लिए कठिन परिश्रम करूँगा।

मैं अपने देश तथा अपने देश के लोगों की सफलता पर गर्वोत्सव मनाऊंगा।

डॉ. कलाम की उपलब्धियां : डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम

वर्ष 1962 में स्वदेशी मिसाईल एस एलवी-3 का निर्माण

जुलाई 1980 में रोहिणी उपग्रह को पृथ्वी के समीप स्थापित करना

वर्ष 1998 में पोखरण में न्यूक्लियर बम को परमाणु ऊर्जा के साथ मिलाकर विस्फोट किया

और इसके साथ ही भारत ने परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में अपना स्थान हासिल किया।

चर्चित पुस्तकें : डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम APJ Abdul Kalaam

1997-2007

इंडिया 2020: ए विजन फॉर द न्यू मिलेनियम (India 2020: A Vision for the New Millennium) प्रकाशन वर्ष: 1998

विंग्स ऑफ फायर: एन ऑटोबायोग्राफी (Wings of Fire: An Autobiography) प्रकाशन वर्ष: 1999

इगनाइटेड माइंड्स: अनलीजिंग द पॉवर विदिन इंडिया (Ignited Minds: Unleasing the Power Within India) प्रकाशन वर्ष: 2002

द ल्यूमिनस स्पार्क्स: ए बायोग्राफी इन वर्स एंड कलर्स (The Luminous Sparks: A Biography in Verse and Colours) प्रकाशन वर्ष: 2004

गाइडिंग सोल्स: डायलॉग्स ऑन द पर्पस ऑफ लाइफ (Guiding Souls: Dialogues on the Purpose of Life) प्रकाशन वर्ष: 2005 सह-लेखक: अरूण तिवारी

मिशन ऑफ इंडिया: ए विजन ऑफ इंडियन यूथ (Mission of India: A Vision of Indian Youth) प्रकाशन वर्ष: 2005

इन्स्पायरिंग थॉट्स: कोटेशन सीरिज (Inspiring Thoughts: Quotation Series) प्रकाशन वर्ष: 2007

2011-2012

यू आर बोर्न टू ब्लॉसम: टेक माई जर्नी बियोंड (You Are Born to Blossom: Take My Journey Beyond) प्रकाशन वर्ष: 2011
सह-लेखक: अरूण तिवारी

द साइंटिफिक इंडियन: ए ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी गाइड टू द वर्ल्ड अराउंड अस (The Scientific India: A Twenty First Century Guide to the World Around Us) प्रकाशन वर्ष: 2011 सह-लेखक: वाई. एस. राजन

फेलियर टू सक्सेस: लीजेंडरी लाइव्स (Failure to Success: Legendry Lives) प्रकाशन वर्ष: 2011 सह-लेखक: अरूण तिवारी

टारगेट 3 बिलियन (Target 3 Billion) प्रकाशन वर्ष: 2011 सह-लेखक: श्रीजन पाल सिंह

यू आर यूनिक: स्केल न्यू हाइट्स बाई थॉट्स एंड एक्शंस (You Are Unique: Scale New Heights by Thoughts and Actions)
प्रकाशन वर्ष: 2012 सह-लेखक: एस. कोहली पूनम

टर्निंग पॉइंट्स: ए जर्नी थ्रू चैलेंजेस (Turning Points: A Journey Through Challenges) प्रकाशन वर्ष: 2012

2013-2015

इन्डोमिटेबल स्प्रिट (Indomitable Spirit) प्रकाशन वर्ष: 2013

स्प्रिट ऑफ इंडिया (Spirit of India) प्रकाशन वर्ष: 2013 भारतीय पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्तकर्ताओं की सूची

थॉट्स फॉर चेंज: वी कैन डू इट (Thoughts for Change: We Can Do It) प्रकाशन वर्ष: 2013 सह-लेखक: ए. सिवाथानु पिल्लई

माई जर्नी: ट्रांसफॉर्मिंग ड्रीम्स इन्टू एक्शंस (My Journey: Transforming Dreams into Actions) प्रकाशन वर्ष: 2013

गवर्नेंस फॉर ग्रोथ इन इंडिया (Governance for Growth in India) प्रकाशन वर्ष: 2014

मैनीफेस्टो फॉर चेंज (Manifesto For Change) प्रकाशन वर्ष: 2014 सह-लेखक: वी. पोनराज

फोर्ज योर फ्यूचर: केन्डिड, फोर्थराइट, इन्स्पायरिंग (Forge Your Future: Candid, Forthright, Inspiring) प्रकाशन वर्ष: 2014

बियॉन्ड 2020: ए विजन फॉर टुमोरोज इंडिया (Beyond 2020: A Vision for Tomorrow’s India) प्रकाशन वर्ष: 2014

द गायडिंग लाइट: ए सेलेक्शन ऑफ कोटेशन फ्रॉम माई फेवरेट बुक्स (The Guiding Light: A Selection of Quotations from My Favourite Books) प्रकाशन वर्ष: 2015

रिग्नाइटेड: साइंटिफिक पाथवेज टू ए ब्राइटर फ्यूचर (Reignited: Scientific Pathways to a Brighter Future) प्रकाशन वर्ष: 2015 सह-लेखक: श्रीजन पाल सिंह

द फैमिली एंड द नेशन (The Family and the Nation) प्रकाशन वर्ष: 2015 सह-लेखक: आचार्य महाप्रज्ञा

ट्रांसेडेंस माई स्प्रिचुअल एक्सपीरिएंसेज (Transcendence My Spiritual Experiences) प्रकाशन वर्ष: 2015 सह-लेखक: अरूण तिवारी

पुरस्कार, सम्मान एवं उपलब्धियां : डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम APJ Abdul Kalaam

डॉ एपीजे अब्दुल कलाम के 79 में जन्म दिवस पर संयुक्त राष्ट्र संघ विद्यार्थी ने दिवस मना कर उन्हें सम्मानित किया तथा उनके जन्मदिवस को विश्व विद्यार्थी दिवस घोषित किया। इसी दिन विश्व हाथ धुलाई दिवस भी मनाया जाता है।

1981 में, डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम को भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया.

1990 में, पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया.

1997 में, भारत रत्न जैसे सर्वाेच्च नागरिक पुरस्कार से सम्मानित किया गया. भारत के सर्वाेच्च पद पर नियुक्ति से पहले भारत रत्न पाने वाले कलाम देश के केवल तीसरे राष्ट्रपति हैं. इससे पहले यह सर्वपल्ली राधाकृष्णन और जाकिर हुसैन के नाम है।

1997 में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार

1998 में, वीर सावरकर पुरस्कार से सम्मानित किया गया.

2000 में, अलवरस रिसर्च सेंटर, चेन्नई ने उन्हें रामानुजन पुरस्कार प्रदान किया.

2007 में, ब्रिटेन रॉयल सोसाइटी द्वारा किंग चार्ल्स द्वितीय मेडल से सम्मानित किया गया.

2008 में, उन्हें सिंगापुर के नान्यांग तकनीकी विश्वविद्यालय से डॉक्टर ऑफ इंजीनियरिंग (ऑनोरिस कौसा) की उपाधि प्रदान की गई थी.

2009 में, अमेरिका एएसएमई फाउंडेशन (ASME Foundation) द्वारा हूवर मेडल से सम्मानित किया गया

2010 में, वाटरलू विश्वविद्यालय ने डॉ. कलाम को डॉक्टर ऑफ इंजीनियरिंग के साथ सम्मानित किया.

2011 में, वह आईईईई (IEEE) के मानद सदस्य बने.

2013 में, उन्हें राष्ट्रीय अंतरिक्ष सोसाइटी द्वारा वॉन ब्रौन पुरस्कार से सम्मानित किया गया.

2014 में, एडिनबर्ग विश्वविद्यालय, ब्रिटेन द्वारा डॉक्टर ऑफ साइंस उपाधि से नवाजा गया था.

डॉ. कलाम लगभग 40 विश्वविद्यालयों के मानद डॉक्टरेट के प्राप्तकर्ता थे.

विश्व छात्र दिवस,  युवा पुनर्जागरण दिवस एवं डाकटिकट

2015 में, संयुक्त राष्ट्र ने डॉ. कलाम के जन्मदिन को “विश्व छात्र दिवस” ​​के रूप में मान्यता दी

डॉ. कलाम की मृत्यु के बाद, तमिलनाडु सरकार द्वारा 15 अक्टूबर जो कि उनका जन्म दिवस है को राज्य भर में युवा पुनर्जागरण दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की गई.

इसके अलावा, राज्य सरकार ने उनके नाम पर “डॉ एपीजे अब्दुल कलाम पुरस्कार” की स्थापना की.

इस पुरस्कार के तहत 8 ग्राम का स्वर्ण पदक और 5 लाख रुपये नगद दिया जाता है.

यह पुरस्कार उन लोगों को दिया जाता है, जो वैज्ञानिक विकास, मानविकी और छात्रों के कल्याण को बढ़ावा देने का काम करते हैं.

यही नहीं, 15 अक्टूबर, 2015 को डॉ. कलाम  के जन्म की 84वीं वर्षगांठ पर, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी नई दिल्ली में डीआरडीओ भवन में डॉ. कलाम की याद में डाक टिकट जारी किया.

निधन : डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम APJ Abdul Kalaam

डॉ एपीजे अब्दुल कलाम जीवन पर्यंत क्रियाशील रहे। उनके जीवन में रुकना बेमानी था।

वे हमेशा तेज कदमों से चलते थे। उनके स्वभाव के कारण उनके अंगरक्षकों को भी कई बार परेशानी का सामना करना पड़ता था।

27 जुलाई 2015 को जिस समय उनकी मृत्यु हुई उस समय भी वे आईआईएम शिलांग में व्याख्यान दे रहे थे।

वे वहीं मंच पर अचानक से गिर पड़े और गोलोक गमन किया।

अंत में हृदय से उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए उन्हीं की कविता के साथ इस आलेख को संपन्न करता हूं –

ज्ञान का दीप जलाए रहूंगा,
हे भारतीय युवक, ज्ञानी-विज्ञानी,
मानवता के प्रेमी.
संकीर्ण तुच्छ लक्ष्य की लालसा पाप है, बड़े है, जिन्हें पूरा करने
के लिए, मैं बड़ी मेहनत करेगा,
मेरा भारत महान हो,
यह प्रेरणा का
भाव अमूल्य है.
इसी धरती दीप जलाऊंगा,
ज्ञान का दीप जलाए रखना,
जिससे मेरा भारत महान हो,
मेरा भारत महान हो।

डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जीवन परिचय, शिक्षा, वैज्ञानिक जीवन, राष्ट्रपति जीवन, चर्चित पुस्तकें, युवाओं के लिए संदेश, विश्व विद्यार्थी दिवस, विश्व हाथ धुलाई दिवस।

डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम

मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या – आधुनिक भारत के निर्माता

भारत रत्न डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन

सुंदर पिचई का जीनव परिचय (Biography of Sundar Pichai)

मेजर ध्यानचंद (हॉकी के जादूगर)

सिद्ध सरहपा

गोरखनाथ 

स्वयम्भू

महाकवि पुष्पदंत

महाकवि चंदबरदाई

मैथिल कोकिल विद्यापति

मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या – Mokshagundam Visvesvaraya

मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या Mokshagundam Visvesvaraya – आधुनिक भारत के निर्माता

भारतीय इंजीनियर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या – Mokshagundam Visvesvaraya के संपूर्ण जीवन परिचय के साथ-साथ अभियंता दिवस, उनकी शिक्षा, कार्य, पुरस्कार एवं सम्मान के बारे में पूरी जानकारी जानेंगे।

एक 6 वर्षीय बालक अपने घर के बरामदे में खड़ा बारिश का दृश्य देख रहा था बालक के घर के पास बहने वाली नाली का पानी उमड़ घुमड़ रहा था।

उसमें छोटे-छोटे भंवर उठ रहे थे और कहीं कहीं और सोनाली ने प्रपात का रूप ले रखा था बहाव अपने साथ कई छोटे-बड़े कंकड़ मित्रों को भी बधाई ले जा रहा था।

अचानक कुछ अवश्य मालिक ने देखा कि ताड़ पत्र की छतरी हाथ में लिए एक आकृति खड़ी है बालक उस आकृति को भलीभांति पहचानता था उसके कपड़े फटे हुए थे वह एक झोपड़ी में रहती थी उसके बच्चे कभी स्कूल नहीं जाते थे।

वह गरीब थी मैं छोटा सा बालक बड़ी गंभीरता से प्रकृति और गरीबी के कारणों को जानने का प्रयास करता।

अपने अध्यापकों से वाद-विवाद करता परिवार वालों से जानने का प्रयास करता यह बालक था आधुनिक भारत का निर्माता सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया हम भारत के औद्योगिक विकास में इनकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण थी।

मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या
मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या

मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या जीवन परिचय

आइए अब जानते हैं भारतीय इंजीनियर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या के संपूर्ण जीवन परिचय के साथ-साथ अभियंता दिवस, उनकी शिक्षा, कार्य, पुरस्कार एवं सम्मान के बारे में पूरी जानकारी-

विश्वेश्वरैया के पूर्वज आंध्र प्रदेश के कुरनूल जिले के मोक्षगुंडम गांव के निवासी थे।

सैकड़ों वर्ष पूर्व इनका परिवार तात्कालिक मैसूर राज्य (वर्तमान कर्नाटक) के कोलार जिले के मुद्देनाहल्ली गांव में आ बसे।

यह गांव वर्तमान बेंगलुरु शहर से 60 किलोमीटर दूर है।

इसी गांव में मोक्षगुंडम श्रीनिवास शास्त्री और वेंकटलक्ष्म्मा के घर 15 सितंबर 1860 को विश्वेश्वर्या का जन्म हुआ।

यह दशक भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी दशक में रवींद्र नाथ टैगोर (1861), प्रफुल्ल चंद्र राय (1861), मोतीलाल नेहरू 1861, मदनमोहन मालवीय (1861), स्वामी विवेकानंद (1863), आशुतोष मुखर्जी (1864), लाला लाजपत राय (1865), गोपाल कृष्ण गोखले (1866) और महात्मा गांधी (1869) जैसे महापुरुषों का जन्म हुआ।

दक्षिण भारतीय परंपरा के अनुसार यहां के लोग अपने बच्चों के नाम के साथ अपने पैतृक गांव का नाम भी जोड़ते हैं, अतः विश्वेश्वरिया के नाम के साथ भी उनका पैतृक गांव मोक्षगुंडम का नाम उनके माता-पिता ने जोड़ दिया और उनका नामकरण हुआ मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया। मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया आगे चलकर सर एम वी के नाम से विख्यात हुए।

शिक्षा

आइए अब जानते हैं भारतीय इंजीनियर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या के संपूर्ण जीवन परिचय के साथ-साथ अभियंता दिवस, उनकी शिक्षा, कार्य, पुरस्कार एवं सम्मान के बारे में पूरी जानकारी-

विश्वेश्वर्या जो 5 वर्ष के थे तभी उनका परिवार चिकबल्लापुर आ गया चिकबल्लापुर में ही इनकी आरंभिक शिक्षा हुई हाईस्कूल तक की शिक्षा उन्होंने इसी गांव के विद्यालय से प्राप्त की पिता की मृत्यु के बाद यह बेंगलुरु अपने मामा के पास चले आए उस समय इनकी आयु 12 वर्ष थी।

यहां आकर विश्वेश्वर्या ने सेंट्रल कॉलेज में प्रवेश लिया और 1880 में बीए की परीक्षा विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण की इसके बाद विश्वेश्वर्या इंजीनियरिंग की पढ़ाई करना चाहते थे लेकिन घरेलू परिस्थितियों इस बात की आज्ञा नहीं देती थी कि यह इंजीनियरिंग कॉलेज में जा सके सौभाग्य से ने मैसूर राज्य से छात्रवृत्ति मिल गई और उन्होंने पुणे के साइंस कॉलेज में प्रवेश ले लिया।

यहां उन्होंने सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की 1883 में मुंबई विश्वविद्यालय के समस्त कॉलेजों में सर्वोच्च अंक प्राप्त कर विश्वेश्वरैया ने इंजीनियरिंग की डिग्री भी प्राप्त कर ली। इस सफलता पर उन्हें उस समय का प्रतिष्ठित जेम्स बोर्कले मेडल भी प्राप्त हुआ।

प्रथम नियुक्ति

1884 में विश्वेश्वरय्या की नियुक्ति मुंबई प्रेसिडेंसी सरकार के लोक निर्माण विभाग में नासिक में हुई।

मुंबई प्रेसिडेंसी में आप 1908 ईस्वी तक रहे।

इस समयावधि में विश्वेश्वरैया ने पूना (पुणे), कोल्हापुर, धारवाड़, बेलगाम बीजापुर आदि कई शहरों की जलापूर्ति योजना तैयार की।

नियमित कार्यों के साथ-साथ विश्वेश्वरैया बाढ़ नियंत्रण, बांध सुदृढ़ीकरण, जलापूर्ति, नगरीय विकास, सार्वजनिक निर्माण, सड़क, भवन इत्यादि के निर्माण की महत्वाकांक्षी योजनाओं से जुड़े रहे।

सक्खर में स्वच्छ जल

1892 में जब सक्खर (सिंध) नगर परिषद सक्खर शहर की जलापूर्ति योजना में असमर्थ हो गयी थी।

तो विश्वेश्वरैया ने ही सक्खर शहर को स्वच्छ जलापूर्ति करवायी।

यह उनकी ही बुद्धि का परिणाम था कि सिंधु नदी के पास ही एक कुआं खोदकर उसमें रेत की कई परतें बिछाई गई और उसे एक सुरंग द्वारा नदी से जोड़ दिया गया।

सुरंग से कुएं में आने वाला पानी स्वतः ही रेत से रिस-रिस कर फिल्टर हो जाता।

जिसे पंप द्वारा पहाड़ की चोटी पर ले जाया गया और वहां से शहर में जलापूर्ति की गयी।

पुणे में विश्वेश्वरैया

पुणे में विश्वेश्वरैया ने सिंचाई की नई पद्धति जिसे सिंचाई की ब्लॉक पद्धति कहा जाता है प्रारंभ की।

जिससे नहर के पानी की बर्बादी को रोका जा सके।

1901 में विश्वेश्वरैया ने बांधों की जल भंडारण क्षमता में वृद्धि के लिए विशेष प्रकार के जलद्वारों का निर्माण किया।

इन विशेष जलद्वारों से बांध में 25 प्रतिशत अधिक पानी भंडारण किया जा सकता था।

आज इन्हें विश्वेश्वरय्या फाटक कहते हैं। विश्वेश्वरैया ने इनका पेटेंट अपने नाम से करवाया।

इन फाटकों का पहला प्रयोग मुथा नदी की बाढ़ पर नियंत्रण के लिए खडकवासला में किया गया।

इस सफल प्रयोग के बाद तिजारा बांध ग्वालियर, कृष्णसागर बांध मैसूर और अन्य बड़े बांधों में इन जलद्वारों का सफल प्रयोग किया गया।

अदन बंदरगाह की छावनी में पानी की समस्या

1906 अदन बंदरगाह के सैनिक छावनी पीने के पानी की भारी कमी थी।

इस समस्या के निवारण के लिए विश्वेश्वरिया को वहां भेजा गया।

विश्वेश्वरैया ने अदन से 97 किलोमीटर दूर उत्तर की ओर पहाड़ी क्षेत्र की खोज की जहां पर्याप्त वर्षा होती थी।

क्षेत्र में बहने वाली नदी के तल में बंद मुंह वाले कुएँ बनाए गए और वर्षा जल को एकत्र कर पम्पों द्वारा अदन बंदरगाह तक पहुंचाया गया।

हैदराबाद में सेवाएं

1907-08 तक मुंबई प्रेसिडेंसी में सेवाएं देने के बाद 1909 में हैदराबाद के निजाम का एक अनुरोध विश्वेश्वरय्या को प्राप्त हुआ।

इस अनुरोध पर उन्होंने बाढ़ से नष्ट हुए हैदराबाद शहर का पुनर्निर्माण तथा भविष्य में बाढ़ से बचने की विशेष योजना तैयार की।

मैसूर राज्य के चीफ इंजीनियर और दीवान

मुंबई प्रेसिडेंसी के सेवा में रहते हुए 1907 में कुछ समय के लिए विश्वेश्वरिया तीन सुपरीटेंडेंट इंजीनियरों का उत्तर दायित्व संभाल रहे थे

परंतु वे जानते थे कि यहां रहते हुए वे चीफ इंजीनियर के पद पर कभी नहीं पहुंच सकते।

क्योंकि यह पद केवल अंग्रेजों के लिए ही सुरक्षित था।

1907 में उन्होंने राजकीय सेवा से त्यागपत्र दे दिया और विदेश भ्रमण के लिए चले गए।

1909 में विश्वेश्वरैया को मैसूर राज्य से चीफ इंजीनियर पद के लिए आमंत्रित किया गया।

उन्होंने सरकार से पहले यह आश्वासन लिया कि उनकी योजनाएं पूरी करने में कोई उच्चाधिकारी अकारण ही बाधा नहीं डालेगा।

सरकार द्वारा आश्वस्त किए जाने के बाद 1909 में विश्वेश्वरैया ने चीफ इंजीनियर का कार्यभार संभाल लिया।

इसके साथ ही उन्हें रेल सचिव भी नियुक्त किया गया।

कार्यभार संभालते ही विश्वेश्वरैया ने राज्य में सिंचाई और बिजली की तरफ ध्यान दिया

और रेलों का जाल बिछाने के लिए एक महत्वकांक्षी योजना तैयार की।

1912 में विश्वेश्वर्या को मैसूर राज्य का दीवान बना दिया गया किसी इंजीनियर का इस पद पर पहुंचना पहली बार हुआ था।

इसलिए यह लोगों में एक आश्चर्य का विषय भी था।

मैसूर राज्य में शिक्षा

मैसूर राज्य के दीवान पद पर रहते हुए विश्वेश्वरैया ने अनेक योजनाएं पूरी की।

इसके साथ ही उन्होंने राज्य की शिक्षा की तरफ भी पर्याप्त ध्यान दिया।

उन्हीं के प्रयासों से मैसूर विश्वविद्यालय की स्थापना हुई जो देसी रियासतों में पहला विश्वविद्यालय था।

मैसूर में औद्योगिकरण

विश्वेश्वरैया के अथक प्रयासों से मैसूर राज्य में रेशम, चंदन के तेल, साबुन, धातु, चमड़ा रंगने आदि के कारखाने लगे।

भद्रावती में लौह इस्पात कारखाने की योजना भी विश्वेश्वरिया की ही देन है।

उन्हीं के प्रयासों से अक्टूबर 1913 में बैंक ऑफ मैसूर की स्थापना हुयी।

दीवान का पद त्याग

1917-18 में जब विश्वेश्वरैया की ख्याति अपने चरमोत्कर्ष पर थी तब उनके विरोधी राज्य में तरह-तरह की अफवाहें उड़ा रहे थे।

उन्होंने राजा तथा दीवान के बीच अविश्वास का वातावरण उत्पन्न कर दिया था।

जिसके कारण 1918 में विश्वेश्वरैया ने दीवान का पद छोड़ दिया।

दीवान का पद छोड़ने के बाद विश्वेश्वरैया स्वतंत्र रहकर कार्य करने लगे।

1923 में उन्होंने भद्रावती के लोहे के कारखाने का अध्यक्ष बनना स्वीकार किया, बेंगलुरु के लिए पेयजल योजना तैयार की।

1927 में कृष्णराजा सागर बांध से संबंधित नहरों व सुरंगों का काम पूरा किया।

हीराकुंड बांध और विश्वेश्वरैया

1937 में उड़ीसा में आई विनाशकारी बाढ़ से दुखी होकर महात्मा गांधी ने विश्वेश्वरैया से अनुरोध किया कि वे उड़ीसा जाकर बाढ़ से रोकथाम संबंधी कार्य करें।

1938 में विशेष औरैया में महा नदी के डेल्टा का गहन अध्ययन किया।

और अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी इसी रिपोर्ट के आधार पर हीराकुंड बांध का निर्माण हुआ।

भारत की प्रथम बहुउद्देश्यीय परियोजना

1902 में शिवसमुद्रम झरने पर बिजली घर लगाया गया। लेकिन योजना लगभग असफल रही।

मैसूर सरकार के सामने कोलार की खानों को पर्याप्त बिजली देने की चुनौती आ गयी।

इस समय मैसूर राज्य के चीफ इंजीनियर विश्वेश्वरैया थै जो बिजली विभाग के सचिव भी थे।

उन्होंने एक महत्वकांक्षी योजना तैयार की। इसके अंतर्गत कावेरी नदी पर एक बहुत बड़ा जलाशय बनाने की योजना थी।

यह परियोजना लगभग 253 करोड रुपए की थी।

सबसे बड़ी समस्या इसे वित्त विभाग से मंजूरी दिलवाने की थी।

उसके बाद भी अनेक समस्याएं आ रही, लेकिन सभी समस्याओं पर विजय प्राप्त कर 1911 में बांध की नींव डाली गयी।

केवल नींव डालना ही काफी नही था, बहुत सी मानवीय और प्राकृतिक आपदाएं इस परियोजना में आती रही।

लेकिन फिर भी विश्वेश्वरैया जी ने समय पर परियोजना को पूरा कर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया।

कावेरी नदी पर कृष्णा राजा सागर बांध बन जाने से कर्नाटक कि एक लाख एकड़ भूमि पर सिंचाई होने लगी चीनी के मिलें, रुई की मिलें, सूती कपड़े की मिलें लगाई गयी।

बिजली बनाने के लिए विशाल बिजलीघर लगाया गया, जिससे कोलार की खानों की बिजली आवश्यकता पूरी करने के बाद भी अनेक उद्योगों को बिजली दी गयी।

अनेक शहरों में पेयजल योजनाओं को पूरा इसी जलाशय के माध्यम से किया गया।

अन्य कार्य

देश में उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए विश्वेश्वरैया ने अखिल भारतीय निर्माता संघ की स्थापना की सन 1941 से 1956 तक वहीं संघ के अध्यक्ष रहे।

अनेक सरकारी व गैर सरकारी समितियों से जुड़े रहे 1922 में वे नई दिल्ली नगर निर्माण कमेटी के सदस्य बने उसी वर्ष उन्हे सर्वदलीय प्रतिनिधि राजनीतिक कॉन्फ्रेंस की अध्यक्षता करने का मौका मिला।

विश्वेश्वरैया जी ने लगभग 70 वर्षों तक देश की सेवा की।

1960 में उनका जन्म शताब्दी वर्ष पूरे देश में धूमधाम के साथ मनाया गया।

पुरस्कार एवं सम्मान

आइए अब जानते हैं भारतीय इंजीनियर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या के संपूर्ण जीवन परिचय के साथ-साथ अभियंता दिवस, उनकी शिक्षा, कार्य, पुरस्कार एवं सम्मान के बारे में पूरी जानकारी-

7 सितंबर 1955 के दिन विश्वेश्वरैया को देश के सर्वोच्च नागरिक से भारत रत्न से अलंकृत किया गया।

इससे पूर्व भी इन्हे अनेक पुरस्कार प्राप्त हो चुके थे परंतु भारत रत्न के साथ-साथ जो सबसे महत्वपूर्ण सम्मान भारत सरकार द्वारा प्रदान किया गया वह था।

इनके जन्म दिवस 15 सितंबर को राष्ट्रीय अभियंता दिवस के रूप में बनाए जाने की घोषणा करना।

अन्य पुरस्कार

सन् 1911 में दिल्ली दरबार में उन्हें कम्पैनियन ऑफ इंडियन इम्पायर (सी० आई० ई०) के खिताब से सम्मानित किया गया था।

मैसूर राज्य में वाइसराय की यात्रा के बाद सन् 1915 में वे नाइट कमांडर ऑफ दी आर्डर ऑफ दी इंडियन इम्पायर (के० सी० आई० ई०) से सम्मानित किए गए थे।

इस प्रकार वे सर विश्वेश्वरैया बने।

विश्वेश्वरैया को आठ विश्वविद्यालयों से मानद उपाधियाँ प्राप्त हुईं।

बम्बई और मैसूर विश्वविद्यालयों से एल-एल० डी०
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय और आंध विश्वविद्यालय से डी० लिट्०
कोलकाता, पटना, इलाहाबाद और जादवपुर विश्वविद्यालयों द्वारा उन्हें डी० एस० की मानद उपाधियाँ दी गईं।

उन्होंने समय-समय पर अनेक विश्वविद्यालयों के दीक्षांत-भाषण भी दिए

रायल एशियाटिक सोसायटी, काउंसिल ऑफ बंगाल, कलकत्ता द्वारा फरवरी 1958 में विश्वेश्वरैया को दुर्गा प्रसाद खेतान स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ।

वे सन् 1887 में ही इंस्टीट्यूट ऑफ सिविल इंजीनियर्स के सह सदस्य बन गए थे। सन् 1904 में सदस्य।

सन् 1952 में उनका नाम इंस्टीट्यूट की सूची में बगैर शुल्क के रखना तय हुआ।

इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियर्स (भारत) के तो वे सन् 1943 से सम्मानित आजीवन सदस्य थे।

इंडियन साइंस कांग्रेस एसोसिएशन के सम्मानित सदस्य

इंस्टीट्यूट ऑफ टाउन प्लानिंग (भारत) के सम्मानित फैलो भी रहे।

भारत के विश्व प्रसिद्ध संस्थान इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस बंगलौर की कोर्ट के लगातार 9 वर्षों तक अध्यक्ष रहे।

टाटा आयरन और स्टील कम्पनी के लगभग 28 वर्षों तक डायरेक्टर रहे।

उन्होंने जनवरी 1923 में लखनऊ में हुए इंडियन कांग्रेस के अधिवेशन की अध्यक्षता की।

विश्वेश्वरैया के जन्म शताब्दी पर भारत सरकार ने एक विशेष डाक टिकट जारी किया।

मृत्यु

अपने 102 वर्ष के लंबे जीवन काल में इन्होंने छोटे-बड़े अनेक कार्य किए और 1962 में उन्होंने अपनी भौतिक दे को त्याग कर परलोक गमन किया।

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विकिपीडिया लिंक- मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या

मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या – आधुनिक भारत के निर्माता

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सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जीवनी

सर्वपल्ली राधाकृष्णन Sarvepalli Radhakrishnan | 5 सितंबर | 5 September | राष्ट्रीय शिक्षक दिवस | National Teacher’s Day

बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा।
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू।
समन सकल भव रुज परिवारू॥
भावार्थ-
मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि, सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है॥

तमिलनाडु के सर्वपल्ली गांव का एक ब्राह्मण परिवार वर्षों पहले आजीविका की तलाश में मद्रास वर्तमान चेन्नई से लगभग 60 किलोमीटर दूर धार्मिक स्थल तिरुत्तनी में आ बसा।

इस ब्राह्मण परिवार में 5 सितंबर 1888 में पिता सर्वपल्ली वीरा स्वामी तथा माता सीतम्मा के यहां एक तेजस्वी पुत्र जन्म लिया।

वीरस्वामी के पूर्वज सर्वपल्ली ग्राम से तिरुत्तनी में आए थे लेकिन वह अपने पूर्व ग्राम का नाम अपने से अलग नहीं कर पाए इसलिए वे सभी अपने नाम से पूर्व अपने पूर्व ग्राम का नाम भी जोड़ते थे इसलिए इस तेजस्वी बालक का नाम रखा गया सर्वपल्ली राधाकृष्णन।

राधा कृष्ण के भाई बहनों में दूसरे स्थान पर थे। राधाकृष्णन के पिता अधिक धनवान नहीं थे।

उनके जीवनचर्या सुखपूर्वक चल रही थी। वह विद्यानुरागी, ईश्वर भक्त और धर्म आचरण करने वाले उदार ब्राह्मण थे। जिसका अत्यधिक प्रभाव राधाकृष्णन पर भी पड़ा।

सर्वपल्ली राधाकृष्णन जीवनी 5सितंबर राष्ट्रीय शिक्षक दिवस
सर्वपल्ली राधाकृष्णन जीवनी 5सितंबर राष्ट्रीय शिक्षक दिवस

प्रारंभिक जीवन एवं शिक्षा दीक्षा : सर्वपल्ली राधाकृष्णन Sarvepalli Radhakrishnan

राधाकृष्णन का प्रारंभिक जीवन तिरूत्तनी और तिरुपति जैसे धार्मिक स्थलों पर बीता। गांव तथा परिवार के धार्मिक विचारों ने बालक राधाकृष्णन को पर्याप्त प्रभावित किया।

इनके पिता धार्मिक प्रवृत्ति के ब्राह्मण थे, फिर भी इन्होंने राधाकृष्णन को 1896 में लूथर्न मिशन स्कूल तिरुपति में प्रवेश दिलाया जो कि क्रिश्चियन मिशनरी स्कूल था।

सन् 1900 में आप पढ़ने के लिए वेल्लूर चले गये और इसके बाद क्रिश्चियन कॉलेज मद्रास में शिक्षा प्राप्त की।

राधाकृष्णन ने 1902 में मैट्रिक तथा 1904 में कला संकाय प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण कर उच्च अध्ययन के लिए छात्रवृत्ति प्राप्त की।

1911 में राधाकृष्णन ने दर्शन शास्त्र में एम. ए. की उपाधि भी प्राप्त कर ली।

वैवाहिक जीवन : सर्वपल्ली राधाकृष्णन जीवनी 5सितंबर राष्ट्रीय शिक्षक दिवस

तात्कालिक परिस्थितियों और परंपराओं के अनुसार ही राधाकृष्णन् का विवाह अल्पायु में ही 1903 में शिवाकामू से हो गया।

राधाकृष्णन्-शिवाकामू दंपत्ति को अपने वैवाहिक जीवन में पांच पुत्रियां और एक पुत्र की प्राप्ति हुई।

शैक्षिक जीवन

डॉ राधाकृष्णन् ने अपने शिक्षक जीवन की शुरुआत 20 वर्ष की अवस्था में 1960 में की।

आप सर्वप्रथम प्रेसिडेंसी कॉलेज मद्रास में दर्शनशास्त्र के सहायक अध्यापक के रूप में नियुक्त हुए।

1917 तक यहां सेवाएं देते हुए आपकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी।

तत्कालिक मैसूर राज्य के दीवान और प्रसिद्ध इंजीनियर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया के आमंत्रण पर आप 1918 में मैसूर चले गये।

श्री विश्वेश्वरैया ने इन्हें महाराजा कॉलेज मैसूर में दर्शनशास्त्र का प्रोफेसर नियुक्त किया।

डॉक्टर राधाकृष्णन् 1921 तक मैसूर में रहे। जहां इनका काम अत्यंत सराहनीय रहा।

सर्वपल्ली राधाकृष्णन और कोलकाता विश्वविद्यालय

सुविख्यात शिक्षा शास्त्री सर आशुतोष मुखर्जी ने कलकत्ता विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर विभाग की स्थापना की।

इस विभाग की एक पीठ जॉर्ज पंचम प्रोफेसर ऑफ फिलॉसफी में श्री मुखर्जी ने डॉक्टर राधाकृष्णन को नियुक्त किया।

सन 1921 से 1931 तक आप कोलकाता विश्वविद्यालय में रहे।

सर्वपल्ली राधाकृष्णन और आंध्र विश्वविद्यालय

सन 1931 में राधाकृष्णन कलकत्ता विश्वविद्यालय से आंध्र विश्वविद्यालय में कुलपति नियुक्त हुए 1932 से 1941 तक डॉ राधाकृष्णन आंध्र विश्वविद्यालय तथा ऑक्सफोर्ड में स्पालडिंग चेयर ऑफ ईस्टर्न एंड एथिक्स के प्रोफेसर रहे।

यह उनकी विद्वत्ता के कारण ही संभव हो सका कि एक व्यक्ति एक साथ दो जगह पर नियुक्त हो।

डॉ राधाकृष्णन और काशी हिंदू विश्वविद्यालय

सन 1939 में सर्वपल्ली डॉ राधाकृष्णन् काशी हिंदू विश्वविद्यालय में स्वैच्छा से अवैतनिक सेवा देने लगे।

अब वे कलकत्ता विश्वविद्यालय, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय एवं काशी विश्वविद्यालय तीनों में अपनी सेवाएं दे रहे थे।

किसी भी विद्वान के लिए बहुत ही दुर्लभ क्षण होता है कि वह एक साथ ही तीन तीन विश्व प्रसिद्ध शिक्षण संस्थानों में अपनी सेवाएं दे रहा हो। यह क्रम 1948 तक सतत् चलता रहा।

सर्वपल्ली डॉक्टर राधाकृष्णन और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय

ऑक्सफोर्ड में रहते हुए राधाकृष्णन ने अनेक व्याख्यान दिए। आपके द्वारा दिए गए व्याख्यानमाला के संबंध में हिवर्ट जनरल ने लिखा “भारत के बाहर हमारे विश्वविद्यालय में व्याख्यान देखकर आपने हमारा गौरव बढ़ाया है।”

राजनीतिक जीवन

सर्वपल्ली राधाकृष्णन की कार्यकुशलता, अनुभव, बुद्धिमत्ता और प्रतिभा थी कि राजनीति से प्रत्यक्ष संबंध में होने के बाद भी स्वतन्त्रता के बाद इन्हें संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया। वे 1947 से 1949 तक इसके सदस्य रहे।

राधा कृष्ण आयोग 1948

स्वतंत्रता के पश्चात भारत सरकार ने विश्वविद्यालय शिक्षा की समीक्षा के लिए सर्वपल्ली डॉक्टर राधाकृष्णन् की अध्यक्षता में राधाकृष्णन् आयोग अथवा विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग का गठन किया।

आयोग ने अपनी रिपोर्ट अगस्त 1949 में दी। यूजीसी की स्थापना राधाकृष्णन् आयोग की ही देन है।

रूस में भारत के राजदूत

1950 में राधाकृष्णन् की विद्वता और योग्यता को देखकर भारत सरकार ने उन्हें रूस में भारत का राजदूत नियुक्त किया वह समय शीतयुद्ध का समय था और उसका दृष्टिकोण भारत के प्रति सकारात्मक नहीं था परंतु डॉ. राधाकृष्णन के कुशल नेतृत्व ने रूसी नेताओं को ऐसा मोहित किया कि सुषुप्त पड़े मैत्री संबंध प्रगाढ़ मैत्री में बदल गये।

के सी व्हियर ने डॉ राधाकृष्णन् के बारे में लिखा कि “मास्को में राधाकृष्णन् के राजदूत नियुक्त होने का विशेष अर्थ था। वहां वे पूर्णतया सफल राजदूत के रूप में विश्व के समक्ष आए।”

उप राष्ट्रपति सर्वपल्ली डॉ राधाकृष्णन् : सर्वपल्ली राधाकृष्णन Sarvepalli Radhakrishnan

सन 1952 में सर्वपल्ली डॉ राधाकृष्णन् स्वतंत्र भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति निर्वाचित हुए।

आप दो बार इस पद के लिए निर्वाचित हुए और 1962 तक इस पद को सुशोभित किया।

उपराष्ट्रपति पद के साथ-साथ आप दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे।

उपराष्ट्रपति के रूप में आपकी कार्यशैली की बहुत सराहना की गयी।

राष्ट्रपति: डॉ. राधाकृष्णन्

भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद का चयन इस सर्वोच्च पद के लिए दो बार हुआ।

डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद 1962 तक भारत के राष्ट्रपति रहे।

इसी समयावधि में सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन् उपराष्ट्रपति रहे डॉ. राजेंद्र प्रसाद के बाद राधाकृष्णन् राष्ट्रपति निर्वाचित हुए।

12 मई 1962 को आपने विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली।

इस अवसर पर बर्टेण्ड रसेल ने कहा- “फिलोसोफी सम्मानित हुई समस्त विश्व के शांतिप्रिय विवेकशील समाज ने इस चुनाव का अभिनंदन किया है।”

सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जीवनी, शैक्षिक जीवन, राष्ट्रपति जीवन, 5 सितंबर को राष्ट्रीय शिक्षक दिवस, पुरस्कार, उपलब्धियां एवं अन्य संपूर्ण जानकारी

व्याख्यान

डॉ राधाकृष्णन द्वारा दिए गए प्रमुख व्याख्यान

1926 में डॉ राधाकृष्णन ने आक्सफोर्ड के मैनचेस्टर कालेज में “दी हिन्दू न्यू आफ लाइफ” पर व्याख्यान दिया जिसमें उन्होंने हिन्दू धर्म को एक प्रगतिशील ऐतिहासिक प्रवाह के रूप में प्रतिस्थापित किया। उनके अनुसार हिन्दू धर्म आज भी गतिशील है, जिसमें दोष परम्परा और सत्य के अन्तर को भुला देने के कारण है।

डॉ राधाकृष्णन ने ब्रिटिश साम्राज्य के विश्वविद्यालयों के सम्मेलन में भाग लेते हुए अपनी प्रतिभा से पाश्चात्य जनमानस को आश्चर्यचकित किया।

1929 में डॉ राधाकृष्णन ने एन “आइडियालिस्ट न्यू आफ लाइफ” शीर्षक से व्याख्यान लन्दन तथा मैनचेस्टर विश्वविद्यालय में दिया। इस व्याख्यान मे उन्होंने सत्य के विषय में हिन्दू धर्म की अवधारणा प्रस्तुत कि जिसका पाश्चात्य जगत के अनेक विद्वानों ने समर्थन किया।

आक्सफोर्ड में उनके अनेक भाषण ईस्ट एण्ड वेस्ट इन रिलीजन’ के नाम से प्रकाशित हुए।

लन्दन की प्रतिष्ठित ब्रिटिश ऐकेडमी ने उन्हें गौतम बुद्ध पर भी भाषण देने हेतु आमंत्रित किया तथा उन्हें अपनी संस्था का सदस्य भी बनाया।

डॉ राधाकृष्णन ने कोलंबिया विश्वविद्यालय की शताब्दी समारोह के अवसर पर भारतीय संस्कृति के महत्व को स्पष्ट करते हुए अपने व्याख्यान दिया।

साहित्य सृजना : सर्वपल्ली राधाकृष्णन Sarvepalli Radhakrishnan

प्रमुख रचनाएं तथा उनके प्रकाशन वर्ष

दी इसेन्सयल्स ऑफ फिलासफी 1911

The फिलासफी ऑफ रविन्द्र नाथ टैगोर 1918

दी रेन ऑफ रिलीजन इन कन्टेम्पररी फिलॉसफी 1920

इण्डियन फिलासफी (वाल्यूम वन) 1923

दी हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ 1926

इण्डियन फिलॉसफी (वाल्यूम टू) 1927

द रिलीजन वी नीड 1928

काल्की या दी फ्यूचर ऑफ सिविलाइजेशन 1929

एन आडियालिस्ट व्यू ऑफ लाइफ ईस्ट एण्ड वेस्ट इन रिलीजन 1932

दी हार्ट ऑफ हिन्दुस्तान 1933

फ्रीडम एण्ड कल्चर 1936

कन्टेम्पररी इंडियन फिलॉसफी 1936

रिलीजन इन ट्राजिशन 1936

‘गौतम बुद्ध 1937

‘महात्मा गांधी 1938

इण्डिया एण्ड चाइना 1939

‘एजुकेशन, पॉलिटिक्स एण्ड वॉर’ 1944

‘इज दिस पीस 1944

‘रिलीजन एण्ड सोसायटी’ 1945

‘भगवद्गीता 1947

‘ग्रेट इण्डियन्स’ 1948

‘दी यूनिवर्सिटी एजुकेशन कमीशन रिपोर्ट 1949

द धर्मपद 1949

‘एन एन्थोलोजी ऑफ राधाकृष्णन राइटिंग 1950

‘दी रिलीजन ऑफ दी स्प्रिट एण्ड वर्ल्डस नीड, 1952

‘फ्रेगमेण्टस ऑफ कन्वेंशन 1952

हिस्ट्री ऑफ फिलासफी इन ईस्ट एण्ड वेस्ट (दो वाल्यूम) 1952

दि प्रिंसिपल उपनिषद्स 1953

ईस्ट एण्ड वेस्ट, ‘सम रिफलेक्शन्स’ 1955

रिकवरी ऑफ फेथ 1956

ए सोर्स बुक इन इंडियन फिलॉस्फी (राधाकृष्णन तथा चार्ल्स मूर द्वारा सम्पादित) 1957

दी ब्रह्मसूत्र दी फिलासफी आफ स्प्रिचुअल लाइफ 1960

दी कॉन्सेप्ट आफ मेन 1960

फेलोशिप आफ फेशस 1961

आन नेहरू 1965

रिलीजन इन ए चेजिंग वर्ल्ड 1967

रिलीजन एण्ड कल्चर 1969

आवर हेरीटेज 1970

लिविंग विद ए परपज 1976

टू नालेज 1978

उपर्युक्त पुस्तकों के अतिरिक्त “राधाकृष्णन रीडर एन एनथालाजी” नामक ग्रन्थ का प्रकाशन भारतीय विद्या भवन द्वारा 1969 में किया गया है।

इसके अतिरिक्त उनके भाषणों तथा लेखों का प्रकाशन भारत सरकार द्वारा किया गया।

पुरस्कार सम्मान एवं उपलब्धियां : सर्वपल्ली राधाकृष्णन Sarvepalli Radhakrishnan

सर्वपल्ली डॉक्टर राधाकृष्णन एक महान शिक्षाविद थे देश-विदेश के अनेक विश्वविद्यालयों में उन्होंने शिक्षक के रूप में कार्य किया।

1908 से 1917 तक मद्रास प्रेसिडेंसी कॉलेज में सहायक प्राध्यापक रहे।

1918 से 1921 तक महाराजा कॉलेज मैसूर में दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर रहे।

1921 से 1948 कोलकाता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे।

सन् 1931 से 36 तक आन्ध्र विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर रहे।

ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में 1936 से 1952 तक प्राध्यापक रहे।

कलकत्ता के अन्तर्गत आने वाले जॉर्ज पंचम कॉलेज के प्रोफेसर के रूप में 1937 से 1941 तक कार्य किया।

सन् 1939 से 48 तक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के चांसलर रहे।

1953 से 1962 तक दिल्ली विश्वविद्यालय के चांसलर रहे।

1946 में युनेस्को में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।

एक शिक्षक के रूप में इनके अतुलनीय योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने उनके जन्मदिन 5 सितंबर को राष्ट्रीय शिक्षक दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया।

भारत रत्न

एक महान दार्शनिक और महान शिक्षक के रूप में इनकी उपलब्धियों और योगदान को देखते हुए 1954 में भारत सरकार ने इन्हें भारत के सबसे बड़े नागरिक सम्मान भारत रत्न से अलंकृत किया।

निधन

17 अप्रैल 1975 को लंबी बीमारी के बाद इस महान दार्शनिक और शिक्षक ने इस भौतिक संसार से सदा सदा के लिए विदा ले ली।

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मेजर ध्यानचंद (हॉकी के जादूगर)

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मेजर ध्यानचंद (हॉकी के जादूगर)

मेजर ध्यानचंद जीवन परिचय

मेजर ध्यानचंद Major Dhayanchand जीवन परिचय पुरस्कार एवं सम्मान तथा संपूर्ण जानकारी

“हमारी टीम से खेलो हम तुम्हें जर्मनी की नागरिकता और जर्मन सेना में जनरल का पद देंगे।”

1936 के बर्लिन ओलंपिक में हॉकी के फाइनल मैच में भारत से मिली करारी हार के बाद जर्मन तानाशाह हिटलर ने यह शब्द हॉकी के जादूगर ध्यानचंद से कहे थे।

ध्यानचंद ने बड़ी निर्भीकता से जर्मन नागरिकता और सेना का पद ठुकरा दिया और भारतीय स्वाभिमान को और अधिक दृढ़ कर दिया।

मेजर ध्यानचंद Major Dhayanchand जीवन परिचय पुरस्कार एवं सम्मान तथा संपूर्ण जानकारी
मेजर ध्यानचंद Major Dhayanchand जीवन परिचय पुरस्कार एवं सम्मान तथा संपूर्ण जानकारी

जीवन परिचय : मेजर ध्यानचंद Major Dhayanchand जीवन परिचय पुरस्कार एवं सम्मान तथा संपूर्ण जानकारी

भारतीय हॉकी के आदिपुरुष मेजर ध्यानचंद का जन्म 29 अगस्त 1905 को उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में हुआ।

ध्यानचंद के पिता ब्रिटिश भारतीय सेना में थे, इसलिए स्थानांतरण के कारण एक शहर से दूसरे शहर जाते रहते थे।

ध्यानचंद के जन्म के कुछ समय बाद ही उनके पिता का स्थानांतरण झांसी हो गया और वे झांसी में बस गये।

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कहा जाता है कि शुरुआत में ध्यानचंद की हॉकी में कोई विशेष रूचि नहीं थी

लेकिन डॉ. विभा खरे के अनुसार ध्यानचंद बचपन से ही हॉकी की ओर आकर्षित थे।

उनके इसी आकर्षण को देखकर उनके पिता ने उन्हें हॉकी खेलने के लिए प्रेरित किया।

उनके खेल से प्रभावित होकर एक अंग्रेज ने उन्हें सेना में भर्ती होने के लिए प्रेरित किया।

उसी अंग्रेज की प्रेरणा पाकर 1922 में ध्यानचंद तात्कालिक ब्रिटिश भारतीय सेना में एक सिपाही के रूप में इकतालीस वी पंजाब रेजिमेंट में शामिल हो गए, जहां उन्हें भोला तिवारी नामक कोच मिले।

तिवारी कोच से ध्यानचंद ने हॉकी के कई मंत्र सीखे, लेकिन हॉकी का असली मंत्र ध्यानचंद के मस्तिष्क में ही था।

वह मैदान की वास्तविक स्थिति और खिलाड़ियों की सही पोजीशन बहुत जल्दी भाँप जाते थे।

पहली अंतरराष्ट्रीय श्रृंखला

ध्यानचंद 1922 में सेना में भर्ती हुए और वहीं से हॉकी की शुरुआत की।

1926 में पहली बार ध्यानचंद को न्यूजीलैंड जाने का अवसर प्राप्त हुआ।

मौका था भारतीय हॉकी टीम का न्यूजीलैंड दौरा।

इस दौरे पर जाने के लिए ध्यानचंद की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, फिर भी वे खुशी-खुशी जैसी व्यवस्था हुई उसी के साथ गए।

इस श्रृंखला में कुल 5 मैच खेले गए थे।

जिनमें से सभी में भारत ने विजयश्री प्राप्त की।

पूरी श्रृंखला में भारतीय दल द्वारा साठ गोल किए गए जिसमें से पैंतीस अकेले ध्यानचंद ने किये थे।

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1928 का एम्सटर्डम ओलंपिक

वर्ष 1928 में एम्सटर्डम (नीदरलैंड) में ओलंपिक खेलों का आयोजन हुआ।

भारतीय हॉकी टीम ने पहली बार ओलंपिक में भाग लिया।

भारत की शुरुआत बहुत ही भव्य रही।

उसने अपने पहले ही मैच में ऑस्ट्रेलिया को 6-0 से हराया।

इसके बाद बेल्जियम को 9-0 के अंतर से डेनमार्क को 5-0 के अंतर से स्विट्जरलैंड को 6-0 के अंतर से हराकर एक तरफा जीत प्राप्त की।

फाइनल में हॉलैंड को 3-0 से हराकर अपनी जीत का डंका पूरी दुनिया में बजा दिया।

स्वर्ण पदक विजेता भारतीय दल की विजय के नायक ध्यानचंद ही थे।

फाइनल मैच में ध्यानचंद ने दो गोल किए।

1932 का लॉस एंजलिस ओलंपिक

1932 में ओलंपिक खेलों का आयोजन अमेरिका की खूबसूरत शहर लॉस एंजिलिस में हुआ।

भारतीय दल ने इस बार पिछले ओलंपिक से भी जबरदस्त हॉकी खेली और पहले ही मैच में जापान को 11-0 के बड़े अंतर से हराया।

जिसमें ध्यानचंद ने चार गोल किए।

इसी ओलंपिक के में भारतीय टीम ने फाइनल में मेजबान अमेरिका को 24-1 के विशाल अंतर से हराया जो आज भी एक विश्व कीर्तिमान है।

इस मैच की कवरेज करते हुए लॉस एंजेलिस के एक अखबार ने लिखा कि- “भारतीय दल ध्यानचंद और रूप सिंह के रूप में एक ऐसा तूफान लाया है, जिसने नचा-नचा कर अमेरिकी खिलाड़ियों को मैदान के बाहर ला पटका और खाली मैदान पर भारतीय खिलाड़ियों ने मनचाहे गोल किए।”

अखबार ने यह भी लिखा कि- “भारतीय हॉकी टीम तो पूर्व से आया तूफान थी। उसने अपने वेग से अमेरिकी टीम के ग्यारह खिलाड़ियों को कुचल दिया।”

1936 का बर्लिन ओलंपिक

1936 में ओलंपिक खेलों का आयोजन जर्मनी के बर्लिन शहर में हुआ।

भारतीय टीम का डंका पहले ही सारी दुनिया में बज चुका था, लेकिन जर्मनी के साथ अपने अभ्यास मैच में भारतीय टीम 4-1 से पराजित हो गई।

यह भारतीय टीम के लिए इतनी जबरदस्त थी कि पूरी टीम सारी रात सो नहीं सकी।

इस हार के लिए ध्यान चंद अपनी आत्मकथा ‘गोल’ में लिखते हैं-

“मैं जब तक जीवित रहूँगा। इस हार को कभी नहीं भूलूंगा। इस हार ने हमें इतना हिला कर रख दिया कि हम पूरी रात सो नहीं पाए। हमने तय किया कि इनसाइड राइट पर खेलने के लिए आईएनएस दारा को तुरंत भारत से हवाई जहाज़ से बर्लिन बुलाया जाए।”

जर्मनी के ख़िलाफ फ़ाइनल मैच

जर्मनी के ख़िलाफ फ़ाइनल मैच 14 अगस्त 1936 को खेला जाना था, लेकिन उस दिन बहुत बारिश हो गई, इसलिए मैच 15 अगस्त को खेला गया।

मैच से पहले भारतीय टीम के मैनेजर पंकज गुप्ता ने अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का झंडा निकाला (उस समय भारत का कोई ध्वज नहीं था क्योंकि उस समय भारत परतंत्र था।अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का ध्वज ही राष्ट्रीयता का प्रतीक था।)

सभी खिलाड़ियों ने उसे सेल्यूट किया।

40,000 लोगों की क्षमता वाला बर्लिन का स्टेडियम बड़ौदा के महाराजा, भोपाल की बेगम और जर्मन तानाशाह हिटलर सरीखे महत्वपूर्ण लोगों तथा जन सामान्य से खचाखच भरा हुआ था।

भारत ने जर्मनी को 8-1 के बड़े अंतर से हराया

इसमें तीन गोल ध्यानचंद ने किए।

अगले दिन एक अख़बार मॉर्निंग पोस्ट ने लिखा-

“बर्लिन लंबे समय तक भारतीय टीम को याद रखेगा. भारतीय टीम ने इस तरह की हॉकी खेली मानो वो स्केटिंग रिंक पर दौड़ रहे हों। उनके स्टिक वर्क ने जर्मन टीम को अभिभूत कर दिया.”

ऑस्ट्रेलिया न्यूजीलैंड का दौरा 1934

1934 में ऑस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड के दौरे के दौरान भारतीय टीम ने कुल 48 मैच खेले।

(कहीं-कहीं इस दौरे का वर्ष 1935 भी बताया जाता है।)

पूरी टीम ने 584 गोल किये।

ध्यानचंद के खेल में इतनी विविधता, तीव्रता और गति थी कि अकेले ध्यानचंद ने 200 गोल किये।

गोलों की विशाल संख्या देखकर ऑस्ट्रेलिया के महान क्रिकेटर डॉन बैडमेन आश्चर्यचकित होकर बोले कि-

“ये किसी क्रिकेट खिलाड़ी द्वारा बनाए गए दोहरे शतक की संख्या तो नहीं है।”

ध्यानचंद जी के बारे में ऑस्ट्रेलियन प्रेस की टिप्पणी ने तो पूरे विश्व में तहलका मचा दिया था कि-

“देखने में सामान्य सा दिखने वाला खिलाड़ी एक सक्रिय क्रिस्टल की तरह रहता है और किसी भी परिस्थिति से निपटने की उसमें जन्मजात क्षमता है। उसके पास बाज की आंखें और चीते की गति है।”

पुरस्कार एवं सम्मान :मेजर ध्यानचंद Major Dhayanchand जीवन परिचय पुरस्कार एवं सम्मान तथा संपूर्ण जानकारी

भारत सरकार द्वारा सन् 1956 में पद्मभूषण।

सन् 1989 में मरणोपरांत ध्यानचंद के नाम से डाक टिकट।

8 मार्च सन् 2002 को राष्ट्रीय स्टेडियम दिल्ली का पुनः नामकरण ध्यानचंद जी के नाम पर।

झांसी के पूर्व सांसद पंडित विश्वनाथ शर्मा की मांग – मेजर ध्यानचंद जी के जन्म दिवस 29 अगस्त को ‘खेल दिवस’ घोषित किया जाए।

1994 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव की सरकार ने 29 अगस्त को विधिवत् राष्ट्रीय खेल दिवस घोषित कर दिया।

उपनाम

ध्यान चंद जी को ‘हॉकी के जादूगर’ के नाम से जाना जाता है

उन्हें यह उपाधि कब और किसने दी इसकी तो कोई सही और निश्चित जानकारी नहीं है

लेकिन इतना अवश्य है कि एमस्टर्डम में एक मैच के दौरान उनकी स्टिक को तोड़कर देखा गया था कि कहीं उसमें कोई मैग्नेट तो नहीं है।

यह सिर्फ एक घटना नहीं है।

ऐसी कई और घटनाएं हैं जब उनकी हॉकी स्टिक की जांच की जाती थी।

ऐसी ही घटनाएं उन्हें हॉकी का जादूगर कहने के लिए काफी हैं।

अंतिम समय

20 नवंबर 1979 को मेजर ध्यानचंद जी अचानक बीमार पड़ गये, उन्हें दिल्ली ले जाया गया। उपचार के बावजूद ध्यानचंद जी ने 3 दिसंबर 1979 को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में इस भौतिक संसार से सदा-सदा के लिए विदा ले ली।

अनेक किंवदंतियां इस महान हॉकी खिलाड़ी के साथ जुड़ी हुई है, जो इसे और भी महान बनाती है। वर्ष 2017 से इन्हें भारत रत्न दिये जाने की मांग लगातार बढ़ती जा रही है।

वर्तमान NDA सरकार से बात की अपेक्षा की जाती है कि वह जनता की इस माह को अवश्य पूरा करेगी।

सुंदर पिचई का जीनव परिचय (Biography of Sundar Pichai)

मेजर ध्यानचंद (हॉकी के जादूगर)

सिद्ध सरहपा

गोरखनाथ 

स्वयम्भू

महाकवि पुष्पदंत

महाकवि चंदबरदाई

मैथिल कोकिल विद्यापति