Munshi Premchand जीवन परिचय

उपन्यास सम्राट Munshi Premchand जीवन परिचय

कलम का सिपाही, कलम का जादूगर एवं उपन्यास सम्राट कहलाने वाले Munshi Premchand के जीवन परिचय, साहित्यिक परिचय, रचनाएं, कहानियाँ और उपन्यास, महत्त्वपूर्ण तथ्य, एवं मान सरोवर आदि के बारे संपूर्ण जानकारी।

Munshi Premchand का जीवन परिचय

जन्म- 31 जुलाई 1880 लमही, वाराणसी, उत्तरप्रदेश

मृत्यु- 8 अक्टूबर 1936 (56 वर्ष की आयु में ) वाराणसी, उत्तरप्रदेश

व्यवसाय- अध्यापक, लेखक, पत्रकार राष्ट्रीयता― भारतीय

अवधि/काल- आधुनिक काल

विधा- कहानी और उपन्यास

विषय- सामाजिक और कृषक-जीवन साहित्यिक आन्दोलन-आदर्शोन्मुखी यथार्थवादी

अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ

Munshi Premchand का साहित्यिक परिचय

उपन्यास

सेवा सदन― 1918

प्रेमाश्रय― 1922

रंगभूमि― 1925

कायाकल्प― 1926

निर्मला― 1927

गबन― 1931

कर्मभूमि― 1933

गोदान― 1935

मुंशी प्रेमचंद जीवन परिचय
मुंशी प्रेमचंद जीवन परिचय

उपन्यासों को कालक्रम अनुसार याद करने के लिए अचूक सूत्र

प्रेमचंद की सेवा और प्रेम का लोगों पर ऐसा रंग चढ़ा कि उनकी काया निर्मल हो गई और उन्होंने गबन का कर्म छोड़कर गोदान करके पूरा न सही पर अधूरा मंगल अवश्य किया।

सेवा- सेवा सदन-1918

प्रेम-प्रेमाश्रय-1922

रंग-रंगभूमि-1925

काया-कायाकल्प-1926

निर्मल-निर्मला-1927

गबन-गबन-1931

कर्म-कर्मभूमि-1933

गो दान- गोदान-1935

मंगल-मंगलसूत्र (यह इनका अधूरा उपन्यास है जिसे इनके पुत्र ‘अमृतराय’ ने पूरा कर 1948 मे प्रकाशित करवाया)

उपन्यास संबंधी विशेष तथ्य : मुंशी प्रेमचंद जीवन परिचय

सेवा सदन

यह उपन्यास पहले ‘बाज़ारे- हुस्न’ नाम से उर्दू में लिखा गया।

इसमें विवाह से जुड़ी समस्याएं दहेज प्रथा, कुलीनता, विवाह के बाद पत्नी का स्थान, समाज में वेश्याओं की स्थिति का चित्रण किया गया है।

प्रेमचंद ने स्वयं इसे ‘हिंदी का बेहतरीन नावेल’ कहा है।

प्रेमाश्रय

यह पहले गोशए-आफ़ियत नाम से उर्दू मे लिखा गया।

यह हिन्दी का पहला राजनीतिक उपन्यास माना जाता है।

रंगभूमि

यह पहले चौगाने हस्ती नाम से उर्दू मे लिखा गया।

इसमें शासक व अधिकारी वर्ग के अत्याचारों का चित्रण किया गया है इसका नायक एक अंधा सूरदास है।

यह उपन्यास महात्मा गांधी की व्यक्तिगत सत्याग्रह नीति से प्रभावित माना जाता है।

कायाकल्प

प्रेमचंद जी का मूल रूप से हिंदी में लिखित पहला उपन्यास माना जाता है।

इसमें ढोंगी बाबाओं के चमत्कार, पूर्व जन्म की स्मृतियां, वृद्धा को तरुणी में बदलना आदि संप्रदायिक समस्याओं का चित्रण किया गया है।

यह योग संबंधी कल्पना से मंडित उपन्यास है इसमें कई जन्मों की कहानियां कही गई है।

निर्मला

इस उपन्यास में दहेज व अनमेल विवाह की समस्या को उभारा आ गया है।

गबन- इसमें भारतीय मध्यम आय वर्ग की आभूषण लालसा एवं आर्थिक विषमता की समस्या को उभारा गया है।

कर्मभूमि- इसमें हरिजन की स्थिति एवं उनकी समस्याओं का चित्रण किया गया है।

गोदान

यह प्रेमचंद जी का अंतिम प्रकाशित उपन्यास है।

इसमें किसान व मजदूर वर्ग की समस्याओं को निरूपित किया गया है।

मालती-मेहता, धनिया-होरी,गोबर आदि इसके प्रमुख पात्र है।

डॉक्टर नगेंद्र ने इस उपन्यास को ‘ग्रामीण जीवन और कृषि संस्कृति का महाकाव्य’ माना है।

मंगलसूत्र

इनका अपूर्ण उपन्यास।

प्रेमचंद के प्रथम उपन्यास संबंधी मत : Munshi Premchand जीवन परिचय

इसरारे मोहब्बत (1898 ई.) प्रेमचंद का पहला उपन्यास था जो जो 19वीं सदी के अन्य उपन्यासों की तरह बनारस के एक साप्ताहिक पत्र में प्रकाशित हुआ था। कदाचित् प्रतापचंद’ (1901 ई) उपन्यास भी उर्दू की रचना थी। -कथाकार प्रेमचंद : डॉ. रामरतन भटनागर

इसरारे मोहब्बत (सन् 1898) एक संक्षिप्त उपन्यास जो बनारस के साप्ताहिक ‘आवाजें खल्क’ में क्रमशः प्रकाशित हुआ। प्रतापचंद (1901ई) जो अपने असली रूप में प्रकाशित नहीं हुआ।

प्रेमचंद एक विवेचन. डॉ. इंद्रनाथ मदान

“प्रेमचंद का पहला नॉवेल ‘हम खुर्मा ओ हम शबाब’ था।” ‘जमाना’ (प्रेमचंद नवंबर)― सं. -दयानारायण निगम

“’प्रतापचंद प्रेमचंद का पहला उपन्यास है।”― आजकल (दिल्ली, 1953) -मो. उमर खान

“हिंदी में प्रेमचंद का पहला नॉवेल ‘प्रेमा और उर्दू में ‘प्रतापचंद’ धनपत राय के नाम से छपे हुए हैं।”― जमाना (प्रेमचंद, नवंबर), जोगेश्वर नाथ वर्मा

“असरारे मआबिद ही प्रेमचंद की पहली प्रकाशित औपन्यासिक रचना प्रसिद्ध है।”― पत्रिका (बिहार राष्ट्रभाषा)― डॉ. जाफर रजा

“‘असरा रेमआबिद’ धारावाहिक रूप में बनारस के साप्ताहिक ‘आवाज ए खल्क’ में 8 अक्टूबर 1903 से 1 जनवरी 1904 तक प्रकाशित हुआ था।”― डॉ. जाफर रजा

“असरारे-मआबिद (उर्फ देवस्थान रहस्य) प्रेमचंद का प्रथम प्रकाशित उपन्यास है।”― डॉ. गोपाल राय, प्रेमचंद मेरठ वि. वि. शोध पत्रिका, 1981

“‘हम खुरमा वा हम सबाब’ प्रेमचंद का दूसरा उपन्यास है। इसका हिंदी रूपान्तरण प्रेमा अर्थात् ‘दो सखियों का विवाह शीर्षक से 1907 में प्रकाशित हुआ। ‘किसना’ संभवतः प्रेमचंद का उर्दू में रचित तीसरा उपन्यास है।”― डॉ. गोपाल राय, प्रेमचंद मेरठ वि. वि. शोध पत्रिका, 1981

प्रेमचंद का पहला उपन्यास प्रतापचंद ही है।― शिवरानी देवी : प्रेमचंद घर में

अन्य महत्वपूर्ण तथ्य

असरारे मुआविद उर्फ देवस्थान रहस्य’ का नाम डॉ. राजेश्वर गुरु एवं इद्रनाथ मदान ने ‘असररारे मुहब्बत’ दिया है जबकि मदन गोपाल ने ‘असरारे मुआविद’ नाम दिया है।

‘वरदान’ मूल रूप से ‘जलवाए-ईसार’ शीर्षक से लिखा गया था वर्षो बाद प्रेमचंद ने स्वयं इसका हिंदी में रूपान्तरण ‘वरदान’ शीर्षक से किया।

‘प्रतिज्ञा’ उपन्यास मूल रूप से ‘हमखुर्मा-वा-हमसबाब’ के नाम से उर्दू में लिखा गया और हिंदी में ‘प्रेमा’ नाम से प्रकाशित हुआ। उर्दू में इसका एक अन्य नाम ‘बेवा’ था।

‘किशना’ उपन्यास का उल्लेख अमृतराय और मदनगोपाल ने किया है यह उपन्यास उपलब्ध नहीं है।

‘सेवासदन’ की रचना पहले उर्दू में ‘बाजारे हुस्न’ शीर्षक से हुई थी। यह पहले हिंदी में छपा और इसका रूपान्तरण स्वयं प्रेमचंद ने किया था।

अन्य महत्वपूर्ण तथ्य

‘प्रेमाश्रम’ (1922 ई.) पहले उर्दू में ‘गोश-ए-आफियत’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ।

‘रंगभूमि’ (1925 ई.) ‘चौगाने हस्ती’ शीर्षक से छपा।

रंगभूमि के संबंध में अमृतराय ने लिखा है कि रंगभूमि (चौगाने हस्ती) पहले मूल रूप में उर्दू में लिखा गया था पर छपा पहले हिंदी में।

रंगभूमि का मराठी में भी रूपान्तर ‘जगाचार’ शीर्षक से हुआ था।

‘प्रेमाश्रम’ के उर्दू में ‘नाकाम’, ‘नेकनाम’, ‘गोशाए-आफियत’ विभिन्न नाम रखे गये।

‘कायाकल्प’ मूल रूप से हिंदी में लिखित प्रेमचंद की पहली रचना है। प्रेमचंद ने इस उपन्यास के अन्य नाम आर्तनाद, असाध्य साधना, माया इत्यादि रखे थे। उर्दू में इसका रूपांतर ‘पर्दा ए मजाज’ शीर्षक से हुआ।

‘गबन’ उपन्यास मूल में प्रेमचंद ने हिंदी में ही लिखा था और उर्दू में भी यही नामकरण रहा।

निर्मला उपन्यास ‘चाँद’ में धारावाहिक रूप में छपा। यह हिंदी में ही लिखा गया था।

कर्मभूमि मूल रूप से हिंदी में लिखित उपन्यास है, जिसका उर्दू में रूपान्तर ‘मैदाने अमल’ था।

अन्य महत्वपूर्ण तथ्य

गोदान का उर्दू में नाम गऊदान रखा गया था।

शरच्चंद्र चटर्जी ने प्रेमचंद के ‘उपन्यास सम्राट’ की उपाधि दी।

‘रंगभूमि’ उपन्यास को ‘भारतीय जनजीवन का रंगमंच’ कहा गया है।

डॉ. बच्चन सिंह ने ‘रंगभूमि’ को गांधीवादी जीवन दर्शन का ‘महाकाव्यात्मक उपन्यास’ (एपिक नावेल) कहा है।

प्रेमचंद ने ‘प्रेमा अर्थात दो सखियों का विवाह’ नामक उपन्यास को संशोधित कर ‘प्रतिज्ञा’ शीर्षक से 1929 में प्रकाशित करवाया।

अमृत राय ने इन पर ‘कलम का सिपाही’ तथा मदन गोपाल ने ‘कलम का जादूगर’ नामक जीवनियाँ लिखी।

डॉ. रामविलास शर्मा ने इन्हें कबीर के बाद दूसरा सबसे बड़ा व्यंग्यकार कहा है।

प्रेमचंद ने आदर्शोन्मुखी यथार्थवादी उपन्यास लेखन परंपरा का प्रवर्तन किया।

गोदान संबंधी प्रसिद्ध मत अथवा कथन : Munshi Premchand जीवन परिचय

कमल किशोर गोयनका, प्रेमचंद के उपन्यासों का शिल्पविधान- “गोदान की महाकाव्यात्मकता महाकाव्य के समान निर्मित नहीं हुई है बल्कि यह उपन्यास यथार्थवादी नींव पर अवस्थित है। कृषक जीवन और कृषक संस्कृति के पतन की एपिक कहानी के कारण गोदान एक महाकाव्यात्मक उपन्यास है।”

बच्चन सिंह आधुनिक हिंदी उपन्यास सं. नरेन्द्र मोहन- “गोदान महाकाव्यात्मक उपन्यास है। दुनिया में केवल दो ही महाकाव्यात्मक उपन्यास हैं एक तालस्ताय का ‘युद्ध और शांति’ और दूसरा प्रेमचंद का ‘गोदान’।”

डॉ. गोपाल राय, गोदान एक नया परिप्रेक्ष्य- “गोदान कृषि संस्कृति एवं ग्रामीण जीवन का महाकाव्य है।”

गोपालकृष्ण कौल, आलोचना, अक्टूबर, 1952, अंक 5- “गोदान उपन्यास की शैली में भारतीय जीवन का महाकाव्य है।”

नलिन विलोचन शर्मा, आलोचना, अक्टूबर, 1952- “गोदान कृषि संस्कृति का शोकगीत न होकर करुण महाकाव्य है।”

शांति स्वरूप गुप्त, हिंदी उपन्यास : महाकाव्य के स्वर- “गोदान गद्यशैली में लिखा गया भारतीय जीवन विशेषतः ग्राम जीवन और कृषि संस्कृति का महाकाव्य है।”

नलिन विलोचन शर्मा, आलोचना 1952, अंक 5- “गोदान का स्थापत्य पूर्णतः समानान्तर स्थापत्य शैली है। गोदान के स्थापत्य की यही वह विशेषता है, जिसके कारण उसमें महाकाव्यात्मक गरिमा आ जाती है। नदी के दो तट असंबद्ध दिखते हैं पर ये वस्तुतः असंबद्ध नहीं रहते-उन्हीं के बीच से भारतीय जीवन की विशाल धारा बहती चली जाती है। भारतीय जनजीवन का इतना यथार्थ चित्रण किसी उपन्यास में नहीं हुआ है।”

आचार्य नंद दुलारे वाजपेयी, प्रेमचंद साहित्यिक विवेचन- “गोदान को इसलिए एपिकल नॉवेल नहीं माना जा सकता क्योंकि वह राष्ट्रीय प्रतिनिधि उपन्यास की उन शर्तों को पूरा नहीं करता, जिन्हें टॉलस्टाय का वार एंड पीस उपन्यास करता है।”

गोदान का उद्देश्य

डॉ. रामविलास शर्मा, प्रेमचंद और उनका युग- गोदान की मूल समस्या ऋण की समस्या है।

कमल किशोर गोयनका, प्रेमचंद के उपन्यासों का शिल्प विधान- गोदान का उद्देश्य कृषि संस्कृति के ध्वंस की यथार्थ कहानी है।

नलिन विलोचन शर्मा, हिंदी उपन्यास विशेषतः प्रेमचंद- भारतीय जीवन का विराट चित्र।

गोदान जीवन के विविध प्रश्नों को उपस्थित कर ग्रामीण जीवन की स्थिति का उद्घाटन― नंद दुलारे वाजपेयी, प्रेमचंद साहित्यिक विवेचन

प्रेमचंद की साहित्यिक जीवन का श्रीगणेश― उर्दू उपन्यास से (सोजेवतन से पूर्व उर्दू में इनके 4 उपन्यास प्रकाशित हो चुके थे―

असरारे मुआबिद

हमखुर्मा व हम सवाब

किशना

रूठी रानी (हिंदी उपन्यास) मूल लेखक― मुंशी देवीप्रसाद जोधपुरी। इसी शीर्षक से उर्दू अनुवाद― प्रेमचंद

मुंशी प्रेमचंद की कहानियाँ : Munshi Premchand जीवन परिचय

कहानी-यात्रा― 1908-1936 ई.

प्रेमचंद जी की पहली कहानी, पहली हिंदी कहानी, पहली प्रकाशित कहानी, अंतिम कहानी इत्यादि बिंदुओं पर पर्याप्त मतभेद हैं इन मतभेदों से संबंधित प्रमुख तथ्य निम्नलिखित हैं―

प्रेमचंद के अनुसार उनकी पहली कहानी― ‘संसार का अनमोल रतन’ (1907 में जमाना में प्रकाशित) उनके लेख जीवन-सार के अनुसार। कमलकिशोर गोयनका ने इसे गलत मानते हुए ‘इश्के दुनिया’ और ‘हुब्बे वतन’ को उनकी पहली कहानी माना है।

प्रथम उर्दू कहानी― ‘इश्के दुनिया और हुब्बे वतन’ (हिंदी में सांसारिक प्रेम और देश प्रेम), जमाना, अप्रैल 1908 अंक में प्रकाशित

प्रथम उर्दू कहानी-संग्रह― सोजेवतन (जमाना प्रेस, कानपुर से जून 1908 में प्रकाशित)

प्रेमचंद की पहली हिंदी कहानी― परीक्षा (कानपुर के साप्ताहिक प्रताप के विजयादशमी अंक अक्टूबर 1914 में प्रकाशित)

प्रेमचंद की हिंदी कहानियों का प्रथम संग्रह― सप्तसरोज (1917 ई.)। भूमिका लेखक मन्नन द्विवेदी गजपुरी थे, जिन्होंने प्रेमचंद को टैगोर के समकक्ष स्थान दिया था।

मानसरोवर में संगृहीत कुल कहानियाँ

मानसरोवर भाग 1 से 8 तक में संगृहीत कहानियों की संख्या― 203

प्रेमचंद की कुल कहानियों की संख्या― प्रेमचंद के अनुसार― 250

श्रीपति शर्मा― 280 + 178 उर्दू कहानियाँ

रामरतन भटनागर― 250 से 300

नंददुलारे वाजपेयी― 380 के लगभग + 100 के ऊपर उर्दू

इंद्रनाथ मदान― 250

लक्ष्मीनारायण लाल― 400 जिनमें 178 उर्दू कहानियाँ

देवराज उपाध्याय― 400

अमृतराय कलम का सिपाही में― 224

कमल किशोर गोयनका के अनुसार― 301

हिंदी―उर्दू कहानियों से संबंधित मत― प्रेमचंद के जीवन काल में 25 कहानी-संग्रह प्रकाशित जिनमें 208 कहानियाँ संगृहीत थीं।
कमल किशोर गोयनका ने इनकी संख्या 289 बताया है।

प्रेमचंद की अंतिम कहानी

क्रिकेट मैच―जमाना नामक पत्रिका जुलाई, 1937 में यह उर्दू में प्रकाशित हुई थी। (कमल किशोर गोयनका के अनुसार)

यह भी नशा वह भी नशा मार्च 1987 में यह हिंदी में प्रकाशित हुई थी।

‘सोजे वतन’ (कहानी-संग्रह) ‘सोजे वतन’ की देशभक्तिपूर्ण कहानियों को तात्कालिक अंग्रेजी सरकार ने राजद्रोह मानते हुए इसकी 700 प्रतियाँ जलवा दी थीं।

प्रेमचंद जी की पहली कहानी- ‘संसार का अनमोल रत्न’ यह 1907 ईस्वी में ‘जमाना’ पत्र में प्रकाशित यह उर्दू में ‘नवाब राय’ नाम से लिखी गई।

प्रेमचंद नाम से रचित पहली कहानी

डॉ. नगेंद्र के अनुसार हिंदी में रचित सर्वप्रथम कहानी- ‘सौत’ 1915

गणपति चंद्र गुप्त के अनुसार प्रेमचंद की प्रथम हिंदी कहानी- पंच परमेश्वर 1916

नगेंद्र के अनुसार प्रेमचंद की हिंदी में रचित अंतिम कहानी- कफन 1936

तात्कालिक अंग्रेजी सरकार द्वारा ‘सोजे वतन’ (कहानी संग्रह) जप्त कर लिए जाने के बाद ‘जमाना’ के सं. मुंशी दयाराम निगम ने प्रेमचद को प्रेमचंद नाम दिया और वे नवाबराय नाम छोड़कर प्रेमचंद नाम से लिखने लगे।

‘सेवासदन’ उपन्यास के संबंध में प्रेमचंद के शब्द “नक्कादों ने हिंदी जबान का बेहतरीन नाविल घोषित किया।”

पंडित नेहरू की पुस्तक ‘पिता के पत्र पुत्री के नाम’ (इंदिरा गांधी को लिखे गए पत्रों का संग्रह) का हिंदी अनुवाद प्रेमचंद ने किया।

प्रेमचंद की प्रसिद्ध कहानी ‘कफन’, ‘चांद’ के अप्रैल 1936 अंक में प्रकाशित हुई थी। यह कहानी प्रेमचंद की उर्दू कहानी ‘कफन’ (जामिया उर्दू पत्रिका, दिसंबर 1935) का हिंदी रूपांतरण है।

प्रेमचंद की मृत्यूपरांत मानसरोवर भाग 3 से लेकर भाग 8 तक की कहानी-संग्रह का प्रकाशन हुआ।

गुप्तधन I, II का प्रकाशन 1962 ई. में हुआ (अमृतराय द्वारा दो खंडों में 56 अप्राप्य कहानियों का संकलन)

सोजेवतन में 5 उर्दू कहानियां थीं-

सोजेवतन (हिंदी में यही शीर्षक)

दुनिया का सबसे अनमोल रतन (हिंदी में यही शीर्षक)

शेख मखमूर (हिंदी में यही शीर्षक)

यही मेरा वतन है (हिंदी में यही मेरी मातृभूमि है)

सिला-ए-मात (हिंदी में शोक का पुरस्कार शीर्षक)

प्रेमचंद की कहानियों का उर्दू संग्रह

संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार के सौजन्य से प्रेमचंद का समग्र उर्दू साहित्य 24 खंडों में प्रकाशित है।

डॉ. कमल किशोर गोयनका कृत ‘प्रेमचंद की कहानियों का कालक्रमानुसार अध्ययन’ के अनुसार

सोजेवतन (1908)

प्रेमपचीसी (1914)

सैरे दरवेश (1914)

प्रेमपचीसी भाग-2 (1918)

प्रेम बत्तीसी (1920)

प्रेम बत्तीसी भाग-2 (1920)

ख्वाबो ख्याल (1928)

खाके परवाना (1929)

फिरदौसे ख्याल (1929)

प्रेम चालीसा भाग 1-2 (1930)

निजात (1931)

मेरे बेहतरीन अफसाने (1933)

आखिरी तोहफा (1934)

जादे राह (1936)

दूध की कीमत (1937)

वारदात (f1938)

देहात के अफसाने (1993)

जेल (अज्ञात)

वफा की देवी (अज्ञात)

प्रेमचंद : अफसाने (1993)

प्रेमचंद : मजीद अफसाने

कुल्लियाते प्रेमचंद (संपादक-मदन गोपाल)

प्रेमचंद की कहानियों को तीन सोपानों मे विभाजित किया जाता है-

प्रथम सोपान -1915-1920 ई.

इस सोपान में आदर्शवादी कहानियों को सम्मिलित किया गया है।

सौत 1915

पंच परमेश्वर 1916

सज्जनता का दंड 1916

ईश्वरीय न्याय 1917

दुर्गा का मंदिर 1917

बलिदान 1918

आत्माराम 1920

द्वितीय सोपान-1920 से 1930

इस सोपान में प्रेमचंद जी की यथार्थवादी कहानियों को सम्मिलित किया गया है।

बूढ़ी काकी 1921

विचित्र होली 1921

गृहदाह 1922

हार की जीत 1922

परीक्षा 1923

आपबीती 1923

उद्धार 1924

सवा सेर गेहूं 1924

शतरंज के खिलाड़ी 1925

माता का हृदय 1925

कजाकी 1926

सुजान भगत 1927

इस्तीफा 1928

अलग्योझा 1929

पूस की रात 1930

तृतीय सोपान-1930 से 1936 तक

इस सोपान की कहानियों में मानवीय अंतर्द्वंद्वों एवं मानव मनोविज्ञान का सूक्ष्म चित्रण किया गया है।

होली का उपहार 1931

तावान 1931

ठाकुर का कुआं 1932

बेटों वाली विधवा 1932

ईदगाह 1933

नशा 1934

बडे भाईसाहब 1934

कफन 1936

अन्य प्रसिद्ध कहानियां

मंत्र

शांति

पंडित मोटेराम

मिस पद्मा

लाटरी

व्रजपात

रानी सारंधा

नमक का दरोगा

दो बैलों की कथा

विशेष- प्रेमचंद्र जी द्वारा रचित कहानियों की कुल संख्या लगभग 301 मानी जाती है।

  • प्रेमचंद की कहानियों का संग्रह ‘मानसरोवर’ नाम से ‘आठ’ भागों में सरस्वती प्रेस बनारस द्वारा प्रकाशित करवाया गया।

Munshi Premchand के विभिन्न कहानी संग्रह एवं उनमें संगृहीत कहानियाँ

सप्त सरोज (1917) प्रेमचंद का प्रथम हिंदी कहानी संग्रह

बडे घर की बेटी

सौत

सज्जनता का दंड

पंच परमेश्वर

नमक का दरोगा

उपदेश

परीक्षा

नवनिधि (1917) प्रेमचंद का द्वितीय हिंदी कहानी-संग्रह

राजा हरदौल

रानी सारघा

मर्यादा की वेदी

पाप का अग्नि कुंड

जुगुनू की चमक

धोखा

अमावस्या की रात्रि

ममता

पछतावा

प्रेम-पूर्णिमा (1919)

ईश्वरी न्याय

शंखनाद

खून सफेद

गरीब की हाय

दो भाई

बेटी का धन

धर्म-संकट

दुर्गा का मन्दिर

सेवा-मार्ग

शिकारी राजकुमार

बलिदान

बोध

सच्चाई का उपहार

ज्वालामुखी

महातीर्थ

प्रेम-पचीसी (1923)

आत्माराम

पशु से मनुष्य

मूंठ

ब्रह्म का स्वाग

सुहाग की साड़ी

विमाता

विस्मृति

बूढ़ी काकी

हार की जीत

लोकमत का सम्मान

दफ्तरी

विध्वंस

प्रारब्ध

बैर का अंत

नागपूजा

स्वत्व रक्षा

पूर्व संस्कार

दुस्साहस

बौड़म

गुप्त धन

आदर्श विरोधी

विषम समस्या

अनिष्ट शंका

नैराश्य-लीला

परीक्षा। (प्रेमचंद का एकमात्र कहानी-संग्रह जो हिंदी और उर्दू में एक नाम से प्रकाशित है।)

प्रेम-प्रसून (1924)

शाप

त्यागी का प्रेम

मृत्यु के पीछे

यही मेरी मातृभूमि है

लाग-डाट

चकमा

आप-बीती

आभूषण

राजभक्त

अधिकार चिंता

दुरासा

गृहदाह

प्रेम-प्रमोद (1926)

विश्वास

नरक का मार्ग

स्त्री और पुरुष

उद्धार

निर्वासन

कौशल

स्वर्ग की देवी

आभूषण

आधार

एक आंच की कसर

माता का हृदय

परीक्षा

तेंतर

नैराश्य लीला

दंड

धिक्कार

प्रेम-प्रतिमा (1926)

मुक्ति धन

दीक्षा

क्षमा

मनुष्य का परम धर्म

गुरु मंत्र

सौभाग्य के कोड़े

विचित्र होली

मुक्ति मार्ग

बिक्री के रुपये

शतरंज के खिलाडी

वज्रपात

भाड़े का टट्टू

बाबाजी का भोग

विनोद

भूत

सवा सेर गेहूँ

सभ्यता का रहस्य

लैला

प्रेम-द्वादशी (1928)

शान्ति

बैंक का दीवाला

आत्माराम

दुर्गा का मन्दिर

बड़े घर की बेटी

सत्याग्रह

गृहदाह

बिक्री के रुपये

मुक्ति का मार्ग

शतरंज के खिलाड़ी

पंच परमेश्वर

शखनाद

प्रेम-तीर्थ (1928)

मन्दिर

निमंत्रण

राम लीला

मंत्र

कामना-तरु

सती

हिंसा परमोधर्मः

बहिष्कार

चोरी

लांछन

कजाकी

आँसुओं की होली

प्रेम-चतुर्थी (1928)

बैंक का दीवाला

शान्ति

लालफीता

लाग-डाट

पंच प्रसून

बैंक का दीवाला

शान्ति

शंखनाद

आत्माराम

बूढी काकी

नव-जीवन

महातीर्थ

सुहाग की साड़ी

दो भाई

ब्रह्म का स्वांग

आभूषण

रानी सारंधा

बूढी काकी

जुगुनू की चमक

माँ दुर्गा का मन्दिर

पाँच फूल (1929)

कप्तान साहब

इस्तीफा

जिहाद

मंत्र

फातहा

सप्त सुमन (1930)

बैर का अंत

मन्दिर

ईश्वरीय न्याय

सुजान भगत

ममता

सती

गृहदाह (इसका प्रकाशन हाई स्कूल के छात्रों के लिए किया गया था।)

प्रेम-पंचमी (1930)

मृत्यु के पीछे

आभूषण

राज्य भक्त

अधिकार-चिंता

गृहदाह

प्रेम-पीयूष

प्रेरणा

डिमांस्ट्रेंशन

मंत्र

सती

मन्दिर

कजाकी

क्षमा

मुक्ति-मार्ग

बिक्री के रुपये

सवा सेर गेहूँ

सुजान भगत

गुप्त धन, भाग 1 (1962)

दुनिया का सबसे अनमोल रतन

शेख मखमूर

शोक का पुरस्कार

सांसारिक प्रेम और देश प्रेम

विक्रमादित्य का तेगा

आखिरी मंजिल

आल्हा

नसीहतों का दफ्तर

राजहट

त्रिया चरित्र

मिलाप

मनोबन

अंधेर

सिर्फ एक आवाज

नेकी

बांका जमींदार

अनाथ लड़की

कर्मों का फल

अमृत

अपनी करनी

गैरत की कटार

घमंड का पुतला

विजय

वफा का खंजर

मुबारक बीमारी

वासना की कड़ियाँ

गुप्त धन, भाग 2 (1962)

पुत्र प्रेम

इज्जत का खून

होली की छुट्टी

नादान दोस्त

प्रतिशोध

देवी

खुदी

बड़े बाबू

राष्ट्र का सेवक

आखिरी तोहफा

कातिल

बोहनी

बन्द दरवाजा

तिरसूल

स्वांग

शैलानी बन्दर

नदी का नीति-निर्वाह

मन्दिर और मस्जिद

प्रेम-सूत्र

तांगे वाले की बड़

शादी की वजह

मोटेराम जी शास्त्री

पर्वत-यात्रा

कवच

दूसरी शादी

स्त्रोत

देवी

पैपुजी

क्रिकेट मैच

कोई दुःख न हो तो बकरी खरीद लो

मुंशी प्रेमचंद के नाटक : Munshi Premchand जीवन परिचय

संग्राम (1923)

कर्बला (1924)

प्रेम की वेदी (1933)

कथेतर साहित्य

प्रेमचंद : विविध प्रसंग- सं. अमृतराय (इसमें प्रेमचंद के निबंध, संपादकीय तथा पत्रों का संग्रह है।)

प्रेमचंद के विचार- तीन खण्ड (यह संग्रह भी प्रेमचंद के विभिन्न निबंधों, संपादकीय, टिप्पणियों आदि का संग्रह है।)

साहित्य का उद्देश्य― इसी नाम से उनका एक निबन्ध-संकलन भी प्रकाशित हुआ है जिसमें 40 लेख हैं।

चिट्ठी-पत्री- (दो खण्ड) संपादक― पहला भाग अमृतराय और मदनगोपाल, दूसरा भाग अमृतराय ने संपादित किया है।यह प्रेमचंद के पत्रों का संग्रह है।

Munshi Premchand के निबन्ध

पुराना जमाना नया जमाना

स्‍वराज के फायदे

कहानी कला (1, 2, 3)

कौमी भाषा के विषय में कुछ विचार

हिन्दी-उर्दू की एकता

महाजनी सभ्‍यता

उपन्‍यास

जीवन में साहित्‍य का स्‍थान

अनुवाद

‘टॉलस्‍टॉय की कहानियाँ’ (1923)

गाल्‍सवर्दी के तीन नाटकों का अनुवाद― (I) हड़ताल (1930), (II) चाँदी की डिबिया (1931), (III) न्‍याय (1931) नाम से अनुवाद किया।

रतननाथ सरशार के उर्दू उपन्‍यास फसान-ए-आजाद का अनुवाद

Munshi Premchand का बाल साहित्य

रामकथा

कुत्ते की कहानी

दुर्गादास

संपादन

‘जागरण’ (समाचार पत्र)

‘हंस’ (मासिक पत्रिका)

उन्होंने ‘सरस्वती प्रेस’ भी चलाया था।

Munshi Premchand पर लिखी गई जीवनियाँ

प्रेमचंद घर में – 1944 ई. प्रेमचंद की पत्नी शिवरानी देवी द्वारा लिखी गई है।

प्रेमचंद कलम का सिपाही – 1962 ई.प्रेमचंद के पुत्र अमृतराय द्वारा लिखी गई।

कलम का मज़दूर : प्रेमचन्द- 1964 ई. इस कृति की भूमिका रामविलास शर्मा ने लिखी। प्रेमचंद पर प्रेमचंद की परिवार से बाहर के किसी व्यक्ति द्वारा लिखी गई पहली जीवनी है। यह मूलतः अंग्रेजी में लिखी गई रचना है।

प्रेमचंद पर लिखी गई आलोचनात्मक पुस्तकें

रामविलास शर्मा – ‘प्रेमचंद और उनका युग’

संपादन– कमलकिशोर गोयनका – ‘प्रेमचंद विश्‍वकोश’ (दो भाग) (प्रेमचंद का अप्राप्‍य साहित्‍य (दो भाग) का प्रकाशन भी किया है।)

‘प्रेमचंद : सामंत का मुंशी’ ‘प्रेमचंद की नीली आँखें’ (डॉ. धर्मवीर ने दलित दृष्टि से प्रेमचंद साहित्‍य का मूल्यांकन किया है)

प्रेमचंद और सिनेमा

शतरंज के खिलाड़ी (1977) और सद्गति (1981)― निर्देशक- सत्यजीत रे

1938 में सेवासदन उपन्यास पर सुब्रमण्यम ने फ़िल्म बनाई।

1977 में मृणाल सेन ने प्रेमचंद की कहानी कफ़न पर आधारित ‘ओका ऊरी कथा’ नाम से एक तेलुगू फ़िल्म बनाई, जिसको सर्वश्रेष्ठ तेलुगू फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला।

1963 में गोदान और 1966 में गबन उपन्यास पर लोकप्रिय फ़िल्में बनीं।

1970 में उनके उपन्यास पर बना टीवी धारावाहिक ‘निर्मला’ भी बहुत लोकप्रिय हुआ था।

“साहित्य के प्रति और साहित्य के हर दृष्टि के प्रति यानी चाहे राजनीतिक, सामाजिक, पारिवारिक सभी को उन्होंने जिस तरह अपनी रचनाओं में समेटा और खास करके एक आम आदमी को, एक किसान को, एक आम दलित वर्ग के लोगों को वह अपने आप में एक उदाहरण था। साहित्य में दलित विमर्श की शुरुआत शायद प्रेमचंद की रचनाओं से हुई थी।”― मन्नू भंडारी द्वारा बीबीसी को दिए गए एक साक्षात्कार से।

कलम का सिपाही, कलम का जादूगर एवं उपन्यास सम्राट कहलाने वाले मुंशी प्रेमचंद के जीवन परिचय, साहित्यिक परिचय, रचनाएं, कहानियाँ और उपन्यास, महत्त्वपूर्ण तथ्य, एवं मान सरोवर आदि के बारे संपूर्ण जानकारी।

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रीतिकाल के राष्ट्रकवि भूषण का जीवन परिचय एवं साहित्य परिचय

रीतिकाल के राष्ट्रकवि भूषण

इस आलेख में रीतिकाल के राष्ट्रकवि भूषण का जीवन परिचय, कवि भूषण का साहित्यिक परिचय, रचनाएं, भाषा शैली, मूल नाम, शिवा बावनी, छत्रसाल दशक एवं विशेष तथ्यों के बारे में पढेंगे।

रीतिकाल के राष्ट्रकवि भूषण Rashtra Kavi Bhushan
रीतिकाल के राष्ट्रकवि भूषण

कवि भूषण का जीवन परिचय

आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के अनुसार इनका मूल नाम ‘घनश्याम’ था।

अन्य नाम – किवदंतियों के अनुसार इनके अन्य नाम- पतिराम, मनिराम भी माने जाते हैं।

जन्म – 1613 ई( 1670 वि.) (लगभग) जन्म भूमि- तिकवांपुर, कानपुर

जन्म संबंधी मतभेद-
मिश्रबन्धुओं तथा रामचन्द्र शुक्ल ने भूषण का समय 1613-1715 ई. माना है।
शिवसिंह संगर ने भूषण का जन्म 1681 ई. माना जाता है।
ग्रियर्सन के अनुसार 1603 ई. इनका जन्म माना जाता है।

मृत्यु 1715 ई. (वि.स. 1772) (लगभग)

पिता- रत्ननाकर (कान्यकुब्ज ब्राह्मण)

भाई- चिन्तामणि, भूषण, मतिराम और नीलकण्ठ माने जाते हैं। (विद्वानों में मतभेद है)

आश्रयदाता- छत्रसाल बुन्देला व शिवाजी

काल- रीतिकाल (रीतिबद्ध कवि)

विषय- वीर रस कविता

भाषा- ब्रज, अरबी, फारसी, तुर्की

शैली – वीर रस की ओजपूर्ण शैली

छंद – कवित्त, सवैया

रस – प्रधानता वीर, भयानक, वीभत्स, रौद्र और श्रृंगार भी है

अलंकार – लगभग सभी अलंकार

उपाधि – भूषण (यह की उपाधि उन्हें चित्रकूट के राजा ‘रूद्रशाह सौलंकी’ ने दी)

प्रसिद्धि- वीर-काव्य तथा वीर रस

कवि भूषण का साहित्यिक परिचय

रचनाएं

विद्वानों ने इनके छह ग्रंथ माने हैं-

शिवराजभूषण

शिवाबावनी

छत्रसालदशक

भूषण उल्लास

भूषण हजारा

दूषनोल्लासा

शिवराज भूषण-1673 ई.

यह इनका अलंकार लक्षण ग्रंथ है।

इसमें कुल 105 अलंकारों का विवेचन किया गया है इनके उदाहरण के लिए कुल 385 पद रखे गए हैं।

इस ग्रंथ में अलंकारों के लक्षण ‘दोहा’ छंद में एवं उदाहरण ‘सवैया’ छंद में रखे गए हैं।

इसके अलंकारों के लक्षण आचार्य पीयूषवर्ष जयदेव द्वारा रचित ‘चंद्रालोक’ एवं मतिराम द्वारा रचित ‘ललित ललाम’ ग्रंथों पर आधारित माने जाते हैं।

यह रचना शिवाजी के आश्चर्य में रची गई।

इनकी सम्पूर्ण कविता वीर रस और ओज गुण से ओतप्रोत है जिसके नायक शिवाजी हैं और खलनायक औरंगजेब।

औरंगजेब के प्रति उनका जातीय वैमनस्य न होकर शासक के रूप में उसकी अनीतियों के विरुद्ध है।

शिवा बावनी

शिवा बावनी में 52 कवितों में शिवाजी के शौर्य, पराक्रम आदि का ओजपूर्ण वर्णन है।

छत्रसाल दशक

छत्रशाल दशक में केवल दस कवितों के अन्दर बुन्देला वीर छत्रसाल के शौर्य का वर्णन किया गया है।

नोट- भूषण उल्लास, भूषण हजारा, दूषनोल्लासा तीनों रचना वर्तमान में उपलब्ध नहीं है।

रीतिकाल के राष्ट्रकवि भूषण संबंधी विशेष तथ्य

हिंदी साहित्य जगत में इनको ‘रीतिकाल का राष्ट्रकवि’ कहा जाता है।

नगेंद्र ने इनको रीतिकाल का विलक्षण कवि माना है, क्योंकि इन्होंने रीतिकाल की श्रंगार एवं प्रेम परंपरा से हटकर ‘वीररस’ में काव्य रचना की है।

ऐसा माना जाता है कि राजा छत्रसाल ने इनकी पालकी को कंधा लगाया था इस पर इन्होंने लिखा था-
शिवा को बखानाँ कि बखानाँ छत्रसाल को।
इन्द्र जिमि जंभ पर, वाडव सुअंभ पर।
रावन सदंभ पर , रघुकुल राज है ॥१॥

यह कविता भूषण ने शिवाजी को 52 बार सुनाई थी जिस पर प्रसन्न होकर शिवाजी ने इनको 52 लाख रूपये, 52 हाथी तथा 52 गांव दान में देकर सम्मानित किया था।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इनकी भाषा की आलोचना की है|

रीति युग था पर भूषण ने वीर रस में कविता रची।

उनके काव्य की मूल संवेदना वीर-प्रशस्ति, जातीय गौरव तथा शौर्य वर्णन है।

निरीह हिन्दू जनता अत्याचारों से पीड़ित थी।

भूषण ने इस अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाई तथा निराश हिन्दू जन समुदाय को आशा का संबल प्रदान कर उसे संघर्ष के लिए उत्साहित किया। इन्होंने अपने काव्य नायक शिवाजी व छत्रसाल को चुना।

शिवाजी की वीरता के विषय में भूषण लिखते हैं
“भूषण भनत महावरि बलकन लाग्यो सारी पातसाही के उड़ाय गये जियरे।
तमके के लाल मुख सिवा को निरखि भये स्याह मुख नौरंग सिपाह मुख पियरे॥”

रीतिकाल के राष्ट्रकवि भूषण की काव्य विशेषताएं और भाषा शैली

वीर रस की ओजपूर्ण शैली।

भूषण ने मुक्तक शैली में काव्य की रचना की।

इन्होंने अलंकारों का सुन्दर प्रयोग किया है।

कवित्त व सवैया, छंद का प्रमुखतया प्रयोग किया है।

वे कवि व आचार्य थे।

भूषण ने विवेचनात्मक एवं संश्लिष्ट शैली को अपनाया।

इनकी रचनाएं ओजपूर्ण हैं।

इन्होंने अपने लेखन में अरबी, फारसी एवं तुर्की भाषा का भरपूर प्रयोग किया है।

रीतिकाल के राष्ट्रकवि भूषण की प्रसिद्ध पंक्तियां

“ऊंचे घोर मंदर के अंदर रहन वारी, ऊंचे घोर मंदर के अंदर रहाती हैं।
कंद मूल भोग करें कंद मूल भोग करें, तीन बेर खातीं, ते वे तीन बेर खाती हैं।”

 

“वेद राखे विदित पुराने राखे सारयुत, राम नाम राख्यों अति रसना सुधार मैं,
हिंदुन की चोटी रोटी राखी है सिपहिन की, कांधे में जनेऊ राख्यो माला राखी गर मैं॥”- शिवा बावनी

 

“साजि चतुरंग बीररंग में तुरंग चढ़ि। सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत है॥
भूषन भनत नाद विहद नगारन के। नदी नद मद गैबरन के रलत हैं॥
ऐल फैल खैल भैल खलक में गैल गैल, गाजन की ठेल-पेल सैल उसलत हैं।
तारा सों तरनि घूरि धरा में लगत जिम, धारा पर पारा पारावार ज्यों हलत हैं॥” – (शिवा बावनी)

 

“घूटत कमान अरू तीर गोली बानन के मुसकिल होति मुरचान हू की ओट में ।
ताहि समै सिवराज हुकम के हल्ल कियो दावा बांधि पर हल्ला वीर भट जोट में॥”

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शिवपूजन सहाय की जीवनी

शिवपूजन सहाय की जीवनी

आचार्य शिवपूजन सहाय की जीवनी एवं इनके साहित्यिक परिचय में रचनाएं, कविताएं आदि के साथ-साथ पुरस्कार, प्रमुख कथन एवं विशेष तथ्य के बारे में जानेंगे।

जीवन परिचय

नाम- आचार्य शिवपूजन सहाय

जन्म― 9 अगस्त, 1893

जन्म भूमि शाहाबाद, बिहार

मृत्यु― 21 जनवरी, 1963

मृत्यु स्थान― पटना

बचपन का नाम― भोलानाथ

दसवीं की परीक्षा पास करने के बाद आपने बनारस की अदालत में नकलनवीस की नौकरी की। बाद में वे हिंदी के अध्यापक बन गए।

कर्म-क्षेत्र― साहित्य, पत्रकारिता

विषय― गद्य, उपन्यास, कहानी

प्रसिद्धि― कहानीकार, पत्रकार, उपन्यासकार, सम्पादक

शिवपूजन सहाय के पुरस्कार एवं मान-सम्मान

पद्म भूषण (1960)

पटना नगर निगम द्वारा― ‘नागरिक सम्मान’

राष्ट्रभाषा परिषद् द्वारा― ‘वयोवृद्ध साहित्यिक सम्मान’

उपाधि― भागलपुर विश्वविद्यालय द्वारा डी. लिट् की मानद उपाधि

शिवपूजन सहाय की भाषा-शैली

इनकी भाषा बड़ी सहज रही है।

इन्होंने उर्दू शब्दों का प्रयोग धड़ल्ले से किया है और प्रचलित मुहावरों के संतुलित उपयोग द्वारा लोकरुचि का स्पर्श करने की चेष्टा की है।

कहीं-कहीं अलंकार प्रधान अनुप्रास बहुला भाषा का भी व्यवहार किया है और गद्य में पद्य की सी छटा उत्पन्न करने की चेष्टा की है।

भाषा के इस पद्यात्मक स्वरूप के बावजूद इनके गद्य लेखन में गाम्भीर्य का अभाव नहीं है।

शैली ओज- गुण सम्पन्न है और यत्र तत्र उसमें व्यक्तित्व कला की विशेषताएँ उपलब्ध होती है।

शिवपूजन सहाय की जीवनी
शिवपूजन सहाय की जीवनी

साहित्यिक परिचय

रचनाएं

कथा एवं उपन्यास

वे दिन वे लोग – 1963

कहानी का प्लॉट – 1965

मेरा जीवन – 1985

स्मृतिशेष – 1994

हिन्दी भाषा और साहित्य – 1996

ग्राम सुधार – 2007

देहाती दुनिया – 1926 (हिंदी कक्षा 10 (NCERT) अनुसार हिंदी का सर्वप्रथम आंचलिक उपन्यास माना जाता है। स्मृति शैली पर आधारित हिंदी का सर्वप्रथम उपन्यास माना जाता है।)

विभूति – 1935

माता का आँचल

‘शिवपूजन रचनावली’ (चार खण्डों में, बिहार राष्ट्रीय भाषा परिषद्, पटना।)

सम्पादन कार्य

द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ – 1933

जयन्ती स्मारक ग्रन्थ – 1942

अनुग्रह अभिनन्दन ग्रन्थ – 1946

राजेन्द्र अभिननदन ग्रन्थ – 1950

आत्मकथा

रंगभूमि

समन्वय

मौजी

गोलमाल

जागरण

बालक

हिमालय

हिन्दी साहित्य और बिहार

संपादित पत्र-पत्रिकाएं

मारवाड़ी सुधार – 1921

मतवाला – 1923

माधुरी – 1924

समन्वय – 1925

मौजी – 1925

गोलमाल – 1925

जागरण – 1932

गंगा – 1931

बालक – 1934

हिमालय – 1946-47

साहित्य – 1950-62

शिवपूजन सहाय संबंधी विशेष तथ्य

शिवपूजन सहाय की ‘देहाती दुनिया’ (1926 ई.) प्रयोगात्मक चरित्र प्रधान औपन्यासिक कृति है। इसकी पहली पाण्डुलिपि लखनऊ के हिन्दू-मुस्लिम दंगे में नष्ट हो गयी थी। उन्होंने दुबारा वही पुस्तक पुनः लिखकर प्रकाशित करायी, किन्तु उससे सहायजी को पूरा संतोष नहीं हुआ। अंतस की इस पीड़ा को व्यक्त करते हुए सहाय जी लिखते हैं- “पहले की लिखी हुई चीज़ कुछ और ही थी।”

हिंदी रचना संसार में जिस रचना को आंचलिक उपन्यास की उपमा दी जाती है, वह किसी अंचल विशेष की सभ्यता, संस्कृति, बोलचाल, भाषा और रहन-सहन पर आश्रित होती है।

शिवपूजन सहाय जी का ‘देहाती दुनिया शीर्षक उपन्यास हिंदी जगत् में जिसे आंचलिक उपन्यास की संज्ञा दी जाती है, वह किसी अंचल विशेष की सभ्यता, संस्कृति, बोलचाल, भाषा और रहन-सहन पर निर्भर होती है।

शिवपूजन सहाय जी का ‘देहाती दुनिया शीर्षक उपन्यास इस परिभाषा पर शत-प्रतिशत खरा उतरता है।

इसका प्रकाशन प्रेमचंद के प्रसिद्ध उपन्यास ‘रंगभूमि’ से पहले हुआ था।

अतः ‘देहाती दुनिया’ में प्रेमचंद का प्रभाव खोजने का प्रयास करना बेकार है।

प्रमुख कथन : शिवपूजन सहाय की जीवनी

उपन्यास के प्रथम संस्करण की भूमिका में लेखक ने ‘देहात’ शब्द को स्पष्ट करते हुए लिखा है, “मैं ऐसे ठेठ देहात का रहनेवाला हूँ, जहाँ इस युग की नई सभ्यता का बहुत ही कम धुंधला प्रकाश पहुँचा है। वहाँ केवल दो ही चीजें प्रत्यक्ष देखने में आती हैं हैं- अज्ञानता का घोर अंधकार और दरिद्रता का तांडव नृत्य। वहाँ पर मैंने स्वयं जो देखा-सुना है, उसे यथाशक्ति ज्यों-का-त्यों अंकित कर दिया है। इसका एक शब्द भी मेरे दिमाग की उपज या मेरी मौलिक कल्पना नहीं है। यहाँ तक कि भाषा का प्रवाह भी मैंने ठीक वैसा ही रखा है, जैसा ठेठ देहातियों के मुख से सुना है।”

“आपकी गणना अपने समय के श्रेष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार के रूप में की गयी है। आपने साहित्य, भाषा, इतिहास, राजनीति, धर्म, नैतिकता आदि अनेक विषयों पर लेखनी चलायी। आप एक विचारशील लेखक हैं । आपके वैचरिक व्यक्तित्व में गहरा नैतिक भावबोध है जिसका आधार गांधीवादी आदर्शवादिता है। हिन्दी के प्रति आपके मन में प्रगाढ़ प्रेम है। ऐसा लगता है कि आपका मन हिन्दी प्रेम से ही रचा गया था। आपकी भाषा प्राणवाण और शैली सजीव है। आपके समस्त लेखन को देखकर ऐसा लगा है कि आपने देश और मानवहित की वेदी पर तिल-तिल आत्माहुति दी है।”― डॉ. रामचन्द्र तिवाड़ी

“आचार्य शिवपूजन सहाय गंगा की धारा की तरह लिखने वाले और गाँधी की वाणी बोलने वाले साहित्यकार थे। गंगा की धारा से संकेत उनकी शैली की निर्मलता तथा प्रवाहमयता की ओर है।” -डॉ. हरिहरनाथ द्विवेदी

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मुद्राराक्षस का जीवन परिचय

मुद्राराक्षस का जीवन परिचय Subhash Chandra Verma Mudrarakshas

सुभाष चन्द्र वर्मा जो कि साहित्य जगत में मुद्राराक्षस के नाम से प्रसिद्ध हैं। तो आइए जानते हैं मुद्राराक्षस का जीवन परिचय, मुद्राराक्षस की संपूर्ण जानकारी, मुद्राराक्षस का साहित्य, रचनाएं, नाटक, उपन्यास आदि के बारे में

मूल नाम -सुभाष चंद्र वर्मा

जन्म -21 जून, 1933

जन्म भूमि -लखनऊ, उत्तर प्रदेश

मृत्यु -13 जून, 2016

पिता― शिवरचणालाल (उत्तरप्रदेश की लुप्तप्राय प्राचीन लोकनाट्य परंपरा “स्वाँग” के एकमात्र वयोवृध्द, नायक, अभिनेता तथा निर्देशक थे। पिता से ही मुद्राराक्षस को संगीत नाटक की प्रेरणा मिली।)

माता― विद्यावती

पत्नी― इंदिरा (रंगमंच के क्षेत्र में नायिका के रूप में पति का सहयोग करती रही हैं।)

प्रसिद्धि -नाटककार, उपन्यासकार, व्यंग्यकार, कहानीकार तथा आलोचक।

शिक्षा― स्नातकोत्तर शिक्षा (एम.ए.) लखनऊ विश्वविद्यालय से

अखिल भारतीय आकाशवाणी कर्मचारी महासंघ के अध्यक्ष (1968 में) रहे।

स्वभाव― धुमक्कड तथा अध्ययनशील

सम्प्रति― उत्तरप्रदेश के लोक-संगीत -रूपक जीवनसिंह के स्वाँग के पुनर्जीवन, नवीकरण एवं प्रस्तुति के लिए केंद्र सरकार के सांस्कृतिक विभाग की सीनियर फेलोशिप।

मुद्राराक्षस का साहित्य : मुद्राराक्षस का जीवन परिचय

रचनाएं

उपन्यास

मकबरे

मैडेलिन

अचला एक मन: स्थिति

भगोडा

हम सब मंसाराम

शोकसंवाद

मेरा नाम तेरा नाम

शान्तिभंग

प्रपंचतंत्र

एक और प्रपंचतंत्र

दंडविधान

नाटक : मुद्राराक्षस का जीवन परिचय

तिलचट्टा

मरजीवा

योअर्स फेथफुली

तेंदुआ

संतोला

गुफाएँ

मालविकाग्निमित्र और हम

घोटाला

कोई तो कहेगा

सीढियाँ

आला अफसर

डाकू

आला अफसर (गोगोल के नाटक ‘ द गवर्नमेंट अफसर’ का नाट्य रूपान्तरण)

कहानी संग्रह

शब्द दंश

प्रति हिंसा तथा अन्य कहानियाँ

मेरी कहानियाँ

रेडिओ नाटक

काला आदमी

उसका अजनबी

लालू हरोबा

संतोला : एक छिपकली

उसकी जुराब

काले सूरज की शवयात्रा

विद्रूप

अनुत्तरीत प्रश्न

साहित्य : मुद्राराक्षस का जीवन परिचय

चींटी पूरम के भूलेराम

भारतेन्दु

हास्य व्यंग्य संग्रह

सुनोभाई साधो

मुद्राराक्षस की डायरी

आलोचना

साहित्य समीक्षा : परिभाषाएं और समस्याएँ- 1963

आलोचना का सामजशास्त्र-2004

संपादन

नयी सदी की पहचान (श्रेष्ठ दलित कहानियाँ)

ज्ञानोदय, पत्रिका― कलकत्ता

अंग्रेजी साप्ताहिक अनुव्रत, जीरो, साहित्य बुलेटिन, बेहतर का संपादन

बाल साहित्य

सरला

बिल्लू और जाला

मुद्राराक्षस के मान-सम्मान एवं पुरस्कार : मुद्राराक्षस का जीवन परिचय

‘विश्व शूद्र महासभा’ द्वारा ‘शुद्राचार्य’

‘अंबेडकर महासभा’ द्वारा ‘दलित रत्न’ की उपाधियाँ

‘संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार’

मुद्राराक्षस संबंधी विशेष तथ्य

सन 1951 से मुद्राराक्षस की प्रारंभिक रचनाएं छपनी शुरू हुईं। ये लगभग दो वर्ष में ही जाने-माने लेखक बन गए। ‘ज्ञानोदय’ और ‘अनुव्रत’ जैसी तमाम प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं का कुशल सम्पादन कार्य भी मुद्राराक्षस जी ने किया था।

“आधुनिक हिन्दी नाटककारों में मुद्राराक्षस की अपनी विशिष्ट भंगिमा है । वे एक साथ प्रकृतवाद, अभिव्यंजनावाद, थिएटर आफएल्टी और ऐब्सर्ड नाट्य परम्परा से इस कदर प्रभावित दिखाई देते हैं कि सबका एक मिलाजुला रूप उन्हें औरों से अलग ला खडा कर देता है। हिंसा, सेक्स, आदि मानवीय प्रवृत्तियों के प्रति लगाव, आक्रमक स्थितियाँ, उत्पीडक सत्ता के प्रति आक्रोश, तथा मृत्युबोध, उनके प्रिय विषय कहे जा सकते हैं। साथ ही जीवन और जगत की विसंगतियों को वे ऐसी स्वैर कल्पना के साथ रूपायित करते हैं जो सनकीपन, अतिरंजना, फँतासी और फार्स के मिले-जुले अनुभवों से घोषित लगती है।”― डॉ. गोविंद चातक

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अरस्तु का विरेचन सिद्धांत (Catharsis theory of Aristotle)

अरस्तु का विरेचन सिद्धांत (Catharsis theory of Aristotle)

यह आर्टिकल अरस्तु का विरेचन सिद्धांत (Catharsis theory of Aristotle) जानने के लिए महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगा।

यूनानी मूल शब्द ‘कथार्सिस’ (Catharsis) का हिंदी रूपांतरण विरेचन शब्द है।

उक्त दोनों शब्द अपनी-अपनी भाषाओं में चिकित्सा शास्त्र के परिभाषिक शब्द है।

अरस्तु का विरेचन सिद्धांत (Catharsis theory of Aristotle)
अरस्तु का विरेचन सिद्धांत (Catharsis theory of Aristotle)

विरेचन का अर्थ

‘विरेचन’ का शाब्दिक अर्थ– रेचन, दस्त, अतिसार, प्रवाहिका, साफ हो जाना, खाली होना आदि है।

साहित्य अथवा काव्य कला के संदर्भ में विरेचन का अर्थ है- दूषित विचारों का निष्कासन या शुद्धि

वस्तुतः विरेचन का अर्थ बाह्य विकारों की उत्तेजना और उसके शमन के द्वारा मन की शुद्धि और शांति है।

भारतीय विद्वानों का मत

डॉ. नगेंद्र- “मनोविकारों का उद्रेक और उसके शमन से उत्पन्न मनःशांति विरेचन है।”

डॉ.बच्चन सिंह- “अरस्तु के अनुसार प्रेक्षकों को आनंद की अनुभूति करना त्रासदी का प्रयोजन है इस दृष्टि से विरेचन सिद्धांत पर भारतीय काव्यशास्त्र के रस सिद्धांत के निकट है।”

डॉ. गणपति चंद्रगुप्त- “विरेचन एक अपूर्ण सिद्धांत है जो केवल दुखांत रचनाओं पर ही लागू होता है किंतु अरस्तु के व्याख्याता इसे परिपूर्ण सिद्धांत के रूप में ग्रहण करके व्याख्या करने का प्रयास करते हैं।”

विरेचन की विशेषताएं

विरेचन और द्रवण त्रासदी द्वारा ही हो सकता है।

घटनाओं तथा नायक के चयन में बड़ी सावधानी अपेक्षित है।

इसके लिए भय और करुणा के भाव के सम्यक नियोजन और प्रदर्शन आवश्यक है।

विरेचन से अरस्तु का अभिप्राय मनोविकारों के उद्रेक और उसके शमन से उत्पन्न मनःशांति तक ही सीमित माना है, जो उचित है।- डॉ. नगेंद्र

विरेचन सिद्धांत : विविध व्याख्या

1. धर्मपरक व्याख्या-

यह विरेचन सिद्धांत की सर्वप्रथम व्याख्या है।

प्रोफेसर गिलबर्ट मर्रे इस प्रकार की व्याख्या करने वाले प्रमुख व्याख्याकार हैं।

डॉ. नगेंद्र के अनुसार “यूनान की धार्मिक संस्थाओं में बाह्य विकारों द्वारा आंतरिक विकारों की शांति उनके शमन का उपाय अरस्तु को ज्ञात था और संभव है वहां से उन्हें विरेचन सिद्धांत की प्रेरणा मिली।”

प्राचीन यूनान में दीयोन्युसथ नामक देवता से संबद्ध उत्सव अपने आप में एक तरह की शुद्धि का प्रकार था।

इस उत्सव में उन्मादकारी संगीत का प्रयोग किया जाता था, उसे सुनकर सुप्त अवांछित मनोविकार शमित हो जाया करते थे।

2. नीतिपरक व्याख्या-

काश्नेई, रेसीन वारनेज आदि ने विरेचन का नीतिपरक अर्थ किया है।

उनके अनुसार मनोविकारों की उत्तेजना द्वारा विभिन्न अंतर्वृत्तियों का समन्वय या मन की शांति और परिष्कृति ही विरेचन है।

डॉ नगेंद्र के अनुसार “विरेचन से अरस्तु का अभिप्राय मनोविकारों के उद्रेक और उसके शमन से उत्पन्न मनःशांति तक ही सीमित माना है जो उचित है।”

3. चिकित्सापरक व्याख्या-

वर्जिज, डेचेज के अनुसार रेचक द्वारा उदर की शुद्धि होती है, उसी प्रकार त्रासदी का विरेचन मन को शुद्ध करता है।

वह त्रास और करुणा को बहिर्गत करता हुआ दर्शकों को विशेष प्रकार की शांति की अनुभूति कराता है।

4. कलापरक/सौंदर्यपरक व्याख्या-

प्रो. बूचर के अनुसार “त्रासदी का कार्य केवल करुणा एवं त्रास के लिए अभिव्यक्ति का माध्यम प्रस्तुत करना नहीं है बल्कि उन्हें एक सुनिश्चित कलात्मक परितोष प्रदान करना है। उन्हें कला के माध्यम से ढालकर परिष्कृत तथा स्पष्ट करना है।

भारतीय काव्यशास्त्र एवं विरेचन सिद्धांत

अनेक आलोचनाओं के बाद भी अरस्तु का विरेचन सिद्धांत अत्यंत उपयोगी है।

विरेचन सिद्धांत की तुलना अभिनवगुप्त के अभिव्यक्तिवाद से की जाती है।

अभिनवगुप्ता तथा अरस्तु दोनों ने ही रसास्वादन अथवा काव्यानंद के मूल में वासनाओं (मानसिक मल) के रेचन की बात स्वीकार की है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल प्रदेश की मुक्त अवस्था के रूप में विरेचन का ही अनुसरण करते हैं।

अरस्तु और अनुकरण

कल्पना अर्थ एवं स्वरूप

राघवयादवीयम् ग्रन्थ

भाषायी दक्षता

हालावाद विशेष

संस्मरण और रेखाचित्र

कामायनी के विषय में कथन

कामायनी महाकाव्य की जानकारी

अरस्तु और अनुकरण (Aristotle and Imitation)

अरस्तु और अनुकरण (Aristotle and Imitation)

अरस्तु और अनुकरण (Aristotle and Imitation)-arastu aur anukaran-अनुकरण संबंधी मूल धारणाएं-भारतीय काव्यशास्त्र और अनुकरण-अनुकरण और कलाएं…..

Aristotle के अनुकरण संबंधी विचार प्लेटो से भिन्न है।

अरस्तु अनुकरण का विचार प्लेटो से ही ग्रहण किया, परंतु एक भिन्न रूप में ग्रहण किया है।

Aristotle ने प्लेटो के अनुकरण के त्याज्य, घटिया, सस्ती नकल के रूप को नए रूप और अर्थ में स्वीकार किया है।

अरस्तु अनुकरण का अर्थ हूबहू नकल नहीं मानता है।

Aristotle के अनुसार कला या कविता प्रकृति की पूर्णतया नकल नहीं है।

कवि कला या कविता को जैसे वह हैं वैसे ही प्रस्तुत नहीं करता वरन् वह उसे अच्छे रूप में या हीन रूप में प्रस्तुत करता है।

कला प्रकृति और जीवन का पुनः प्रस्तुतीकरण है।

अरस्तु ने अनुकरण को प्रतिकृति/नकल न मान कर पुनः सृजन अथवा पुनर्निर्माण माना है। उसकी दृष्टि में अनुकरण नकल न होकर सृजन प्रक्रिया है।

Aristotle and Imitation-अरस्तु और अनुकरण
Aristotle and Imitation-अरस्तु और अनुकरण

अरस्तु की अनुकरण संबंधी मूल धारणाएं

कला प्रकृति की अनुकृति (नकल) है।

कवि को अनुकर्ता (नकल करने वाला) के रूप में तीन प्रकार की विषय वस्तु में से किसी एक का अनुकरण (नकल) करना चाहिए-
I. जैसी वे थी या हैं।
II. जैसी वे कही या समझी जाती है।
III. जैसी वे होनी चाहिए।

अरस्तु के अनुसार कलाकृति के रूप में वह अनुकृति (नकल) महत्त्वपूर्ण है जो वस्तुओं/घटनाओं को जैसी होना चाहिए वैसी चित्रित कर देती है।

हू ब हू अनुकृति (नकल) का संबंध इतिहासकार और इतिहास के साथ होता है। इतिहास का संबंध जो घटित हुआ है उसके साथ होता है। इतिहास विशिष्ट सत्य की अभिव्यक्ति में प्रवृत्त होता है। कलात्मक अनुकृति का संबंध कवि (कलाकार) और काव्यकृति (कलाकृति) के साथ होता है। कवि का संबंध जो घटित हो सकता है उसके साथ होता है। काव्य विश्वात्मक (सत्य) की अभिव्यक्ति में प्रवृत्त होता है

अनुकरण में आत्म तत्व का प्रकाशन निहित होता है। आनंद की उपलब्धि आत्मप्रकाश के बिना संभव नहीं है।

काव्य में कवि अनुकर्ता है। वह प्रकृति के तीन रूपों में किसी एक का अनुकरण करता है-
I. प्रतीयमान रूप (जैसा अनुकर्ता को प्रतीत हो अर्थात वस्तु जैसी वास्तव में है या दिखाई देती है।
II. संभाव्य रूप अर्थात जैसा वह हो सकती है।
III. आदर्श रूप अर्थात जैसा वह होनी चाहिए
आदर्श रूप अनुकर्ता की इच्छा और विचार से पोषित कल्पना की सृष्टि होती है अतः अनुकरण भावात्मक एवं कल्पनात्मक पुनःसृजन का पर्याय है, यथार्थ प्रत्यांकन (केवल नकल) नहीं।

कवि के काव्य का माध्यम भाषा को माना है अतः काव्य भाषा के माध्यम से कलात्मक अनुकृति होती है।

अरस्तु के अनुकरण की व्याख्या एवं अनुकरण का अर्थ

एटकिन्सन- प्रायः पुनःसृजन का दूसरा नाम अनुकरण है।

पॉट्स- अनुकरण का अर्थ जीवन का पुनःसृजन बताते हैं।

स्कॉटजेम्स- साहित्य में जीवन का वस्तुपरक अंकन अर्थात जीवन का कलात्मक पुनर्निर्माण है।

डॉ नगेंद्र- अनुकरण का अर्थ यथार्थ प्रत्यांकन (जैसा है वैसा) मात्र नहीं है। वह पुनःसृजन का प्रयास भी है और उसमें भाव तथा कल्पना का यथेष्ट अंतर्भाव भी है।

एबरक्रोंबी- पुनः प्रस्तुतीकरण ही अनुकरण है।

प्रो. बूचर- मूल वस्तु संबंधी मान्यताओं के चार चरणों का उल्लेख किया है-

कलाकृति मूल वस्तु का पुनरुपादन है।

 मूल वस्तु का पुनरुत्पादन तो कलाकृति है ही किंतु मौलिक रूप में न होकर उस रूप में है जैसी वह इंद्रियों को प्रतीत होती है।

कलाकृति जीवन के सामान्य पक्ष का अनुकरण करती है।

अनुकरण किसी एक अर्थ का वाचक नहीं वरन् पुनरुत्पादन, मानस बिंब, जीवन सामान्य तथा आदर्श पक्ष इत्यादि कई तथ्यों का यौगिक पूर्ण अर्थ है।

काव्य में अनुकृति का माध्यम

अरस्तु के अनुसार अनुकृति (नकल) का मध्यम काव्य भाषा है, जिसके माध्यम से कलात्मक अनुकृति होती है।

अनुकृति (नकल) के लिए केवल छंद ही माध्यम नहीं है, भाषा का कोई भी रूप काव्य में अनुकृति का माध्यम हो सकता है।

अनुकृति के विषय

काव्य में मानवीय क्रियाकलापों का अनुकरण होता है अतः अनुकरण का विषय व्यक्ति होते हैं।

ये व्यक्ति उच्च कोटि के या हीनतर/निम्न कोटि के हो सकते हैं।

काव्य में अनुकृति की विधि/विधान

अरस्तु ने अनुकृति के विषय के प्रस्तुतीकरण के लिए तीन शैलियों का उल्लेख किया है-

प्रबंधात्मक शैली- पात्रों को जीवित जागृत प्रस्तुत करता है।

अभिव्यंजनात्मक शैली- प्रारंभ से अंत तक एक जैसा रूप रखें।

नाट्य शैली- समस्त पात्रों को नाट्य शैली में प्रस्तुत करे।

अनुकरण और कलाओं का वर्गीकरण

प्लेटो ने कलाओं को दो वर्गों- ललित कला और उपयोगी कला में बांटा है जबकि अरस्तू ने इसे एक ही माना है।

अरस्तु ने ललित कलाओं को अनुकरणात्मक कला का नाम दिया है और इसे उत्कृष्ट कला कहा है।

मानव जीवन के विविध रूप ही इसके विषय है -अरस्तु के अनुसार।

ये मनुष्य के भावों, विचारों और कार्यों को अभिव्यक्त करती है।

काव्य, नृत्य और संगीत अनुकरणात्मक कलाएं हैं। काव्य कला ही श्रेष्ठ कला है।

अरस्तु ने कला की स्वतंत्र सत्ता स्थापित की।

कला को नीति शास्त्र और दर्शनशास्त्र के पिंजरे से मुक्त करवाया और सौंदर्यवाद की प्रतिष्ठा की।

आलोचना : अरस्तु और अनुकरण (Aristotle and Imitation)

वस्तु पर भाव तत्वों पर अधिक बल देता है आंतरिकता पर नहीं।

क्रोचे के अनुसार अनुकरण नकल कला सृजन में कोई महत्त्वपूर्ण वस्तु नहीं है। जबकि अरस्तु के अनुसार अनुकरण ही कला है।

अरस्तु ने अपने अनुकरण सिद्धांत के लिए ‘माईमैसिस’ या ‘इमिटेशन’ शब्द का प्रयोग किया है, किंतु ऐसे शब्द की परिधि में कल्पनात्मक पुनर्निर्माण, पुनःसर्जन, सर्जना के आनंद की स्थिति इत्यादि शब्द समाहित नहीं होता है।

डॉ. नगेंद्र के अनुसार अरस्तु का अनुकरण सिद्धांत अभावात्मक है, अरस्तु ने काव्य को ‘आत्मा का उन्मेष’ के स्थान पर ‘प्रकृति के अनुक्रम’ पर बल दिया है।

अरस्तु ने सभी विषयों को अनुकार्य माना है परंतु भारतीय परिप्रेक्ष्य में अभिव्यंजना का अनुकरण असंभव है।

वर्तमान समय में अनुकरण के स्थान पर ‘कल्पना’ एवं ‘नवोन्मेष’ शब्द प्रचलित है।

प्लेटो और अरस्तु के अनुकरण सिद्धांत में अंतर

प्लेटो के अनुसार ‘अनुकरण’ शब्द का अर्थ ‘हूबहू नकल’ है जबकि अरस्तु ‘अनुकरण’ का अर्थ पुनःसृजन को मानता है।

काव्य कला के प्रति प्लेटो का दृष्टिकोण नैतिक एवं आदर्शवादी है जबकि अरस्तु का काव्य कला के प्रति सौंदर्यवादी दृष्टिकोण है।

प्लेटो के अनुसार कवि अनुकृति (नकल) की अनुकृति करता है जबकि अरस्तु कला को प्रकृति और जीवन का पुनःप्रस्तुतीकरण मानता है।

प्लेटो के अनुसार कवि अनुकर्ता (नकल करने वाला) है जबकि अरस्तु के अनुसार कवि कर्ता है।

भारतीय काव्यशास्त्र और अनुकरण : अरस्तु और अनुकरण (Aristotle and Imitation)

भारतीय काव्यशास्त्र में भरत मुनि ने सर्वप्रथम अपने ‘नाट्य शास्त्र’ में ‘अनुकरण’ शब्द का प्रयोग किया है।

तीनों लोकों के भावों का अनुकीर्तन ही नाटक में है।

अवस्थानुकृतिर्नाट्यम अर्थात अवस्था की विशेष अनुकृति ही नाटक है।- धनंजय (दशरूपक)।

“अरस्तु का दृष्टिकोण भावात्मक रहा है तथा त्रास और करुणा का विवेचन उसकी चरम सिद्धि रही है।” डॉ. नगेंद्र

हालावाद विशेष

संस्मरण और रेखाचित्र

कामायनी के विषय में कथन

कामायनी महाकाव्य की जानकारी

संख्यात्मक गूढार्थक शब्द

राघवयादवीयम् ग्रन्थ

भाषायी दक्षता

‘रासो’ शब्द की व्युत्पत्ति – विभिन्न मत

रीतिकाल के प्रमुख ग्रंथ

कालक्रमानुसार हिन्दी में आत्मकथाएं

लेखक कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ Kanhaiyalal Mishra

लेखक कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ Kanhaiyalal Mishra ‘Prabhakar’

लेखक कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ Kanhaiyalal Mishra जीवन परिचय, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ की रचनाएं, कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ की भाषा शैली

जीवन परिचय

जन्म -29 मई, 1906

जन्म भूमि -देवबन्द, सहारनपुर

मृत्यु -9 मई 1995

कर्म-क्षेत्र -पत्रकार, निबंधकार

लेखक कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ की रचनाएं

निबंध

जिन्दगी लहलहाई

बाजे पायलिया के घुंघरू

महके आंगन चहके द्वार

जिएँ तो ऐसे जिएँ

कारवाँ आगे बढ़े

अनुशासन की राह में

कहानी संग्रह

आकाश के तारे

धरती के फूल

संस्मरण

जिन्दगी मुस्करायी, 1953

दीप जले शंख बजे, 1959

भूले हुए चेहरे

संस्मरणात्मक संघर्ष-कथा

तपती पगडंडियों पर पदयात्रा

रिपोर्ताज

क्षण बोले कण मुस्कराएं

रेखाचित्र

माटी हो गई सोना, 1959

नई पीढ़ी नये विचार

आकाश के तारे धरती के फूल (लघुकथा)

आत्मकथा (आत्म परिचय)

हमारी जापान यात्रा (यात्रा-साहित्य)

दूध का तालाब : एक मामूली पत्थर (बाल साहित्य)

अन्य रचनाएं

उत्तर प्रदेश स्वाधीनता संग्राम की झाँकी

यह गाथा वीर जवाहर की

इंदिरा गाँधी

कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ के पुरस्कार एवं मान-सम्मान

उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उदंत मार्तण्ड पुरस्कार (साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए)।

बिहार राजभाषा विभाग द्वारा शिखर सम्मान।

भारतीय भाषा परिषद् से पराड़कर सम्मान।

उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान से संस्थान सम्मान।

1990 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री सम्मान।

‘तपती पगडंडियों पर पदयात्रा’ के लिए भारतेंदु पुरस्कार।

मेरठ विश्वविद्यालय द्वारा डी.लिट.की उपाधि।

लेखक कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ की भाषा-शैली

कन्‍हैयालाल मिश्र प्रभाकर की भाषा प्रवाहमयी है। इन्होंने मुहावरों तथा उक्त्यिों का प्रयोग बहुत ही सहजता से किया है। इनके लेखन में आलंकारिक सौन्दर्य है। इन्होंने छोटे वाक्यों में भी गंभीर अर्थ प्रकट किया है। इनकी भाषा में व्‍यंग्‍यात्‍म्‍कता, सरलता, मार्मिकता, चुटीलापन तथा भावाभिव्‍यक्ति की क्षमता है। ये हिन्‍दी के मौलिक ौल्‍ीकार हैं। इनकी गद्य-शेैली चार प्रकार की है- भावात्‍मक शैली, वर्णनात्‍मक शैली, नाटकीय शैली एवं चित्रात्‍मक शैली।

लेखक कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’ संबंधी विशेष तथ्य

रामधारी सिंह दिनकर ने इन्हें ‘शैलियों का शैलीकार’ कहा था।

राजनीतिक एवं सामाजिक कार्यों में गहरी दिलचस्पी लेने के कारण कन्हैयालाल को अनेक बार जेल-यात्रा करनी पड़ी।

1933 से 1947 तक ‘विकास’ (स्वतंत्रता संग्राम के समय का महत्वपूर्ण पत्र) का संपादन।

इसके अतिरिक्त विश्व विज्ञान, मनोरंजन, शांति, राष्ट्रधर्म, ज्ञानोदय तथा नया जीवन आदि अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सफल संपादन।

आदिकाल के साहित्यकार

भक्तिकाल के प्रमुख साहित्यकार

आधुनिक काल के साहित्यकार

बालकृष्ण भट्ट Balkrishan Bhatt – हिंदी का स्टील

बालकृष्ण भट्ट Balkrishan Bhatt – हिंदी का स्टील

बालकृष्ण भट्ट Balkrishan Bhatt का जीवन परिचय, बालकृष्ण भट्ट का साहित्यिक परिचय, रचनाएं, निबंध, कहानी, उपन्यास, आलोचना, विशेष तथ्य

जीवन परिचय

जन्म- 3 जून, 1844

जन्म भूमि- इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश

मृत्यु -20 जुलाई, 1914

अभिभावक- पंडित वेणी प्रसाद

कर्म-क्षेत्र -हिन्दी साहित्य

काल- भारतेंदु युग

भाषा -हिन्दी, संस्कृत, अंग्रेज़ी, बंगला और फ़ारसी।

प्रसिद्धि – नाटककार, पत्रकार, उपन्यासकार और निबन्धकार।

बालकृष्ण भट्ट का साहित्यिक परिचय

गद्य काव्य की रचना सर्वप्रथम बालकृष्ण भट्ट ने प्रारंभ की थी। इनसे पूर्व तक हिन्दी में गद्य काव्य का नितांत अभाव था।

इन्होंने लगभग 1000 निबंध लिखे।

इनके निबंधों में विषय वस्तु और शैली दोनों का वैविध्य मिलता है।

यह भारतेंदु युग के सर्वाधिक समर्थ निबंधकार है इन्होंने सामयिक समस्याओं पर अपनी लेखनी जमकर चलाई है।

रचनाएं

निबन्ध संग्रह

साहित्य सुमन

भट्ट निबन्धावली (दो भाग)

निबंध

बाल-विवाह

स्त्रियां और उनकी शिक्षा

राजा और प्रजा

कृषकों की दुरवस्था

अंग्रेजी शिक्षा और प्रकाश

हमारे नए सुशिक्षितों में परिवर्तन

देश सेवा का महत्व

महिला-स्वातंत्र्य

ईश्वर भी ठठोल है

चली सो चली

देवताओं से हमारी बातचीत

नई तरह का जनून

खटका

मेला-ठैला

वकील

सहानुभूति

आशा

इंग्लिश पढ़े तो बाबू होय

रोटी तो किस भांति कमा खाय मछंदर

आत्मनिर्भरता

माधुर्य

शब्द की आकर्षण शक्ति

चन्द्रोदय

मुग्ध माधुरी

कौलीन्य

जातपाँत

भिक्षावृत्ति

सुगृहिणी

हिन्दुस्तार के रसई

हाकिम और उनकी हिकमत

राजभक्ति और देशभक्त

व्यवस्था या कानून

हुक्का स्तवन

ग्राम्य जीवन

ढोल के भीतर पोल

खेल-वंदना

नवीन

ढोला

साहित्य सुमन

उपन्यास

रहस्य कथा – 1879

नूतन ब्रह्मचारी – 1886

सौ अजान एक सुजान – 1892

‘नूतन ब्रह्मचारी’ उपन्यास का नायक विनायक डाकूओं का हृदय परिवर्तन करता है।

‘सौ अजान एक सुजान’ में सत्संग के कारण एक बिगड़े हुए सेठ का सुधार हो जाता है।

उक्त दोनों उपन्यासों की रचना विद्यार्थियों एवं युवकों को नैतिक शिक्षा प्रदान करने के लक्ष्य से की गई थी।

नाटक

जैसा काम वैसा परिणाम (प्रहसन), 1877

नयी रोशनी का विष, 1884

नलदमयंती स्वयंवर, 1895

आचार विडम्बन, 1899

वेणुसंहार, 1909

वृहन्नला

बाल-विवाह (प्रहसन)

चंद्रसेन

रेल का विकट खेल (प्रहसन)

कलिराज की सभा (प्रहसन)

आलोचना

सच्ची सामालोचना

इन्होंने अपने हिंदी प्रदीप पत्र में सच्ची समालोचना शीर्षक से लाला श्रीनिवास दास द्वारा रचित ‘संयोगिता स्वयंवर’ नाटक की समालोचना प्रकाशित की थी।

इन्होंने ‘नीलदेवी व परीक्षा गुरु उपन्यास’ की आलोचना भी प्रकाशित की थी।

नोट- डॉक्टर गणपति चंद्र गुप्त के अनुसार ‘इनकी शैली में भावात्मकता, आत्मानुभूति एवं लेखक को सीधा संबोधित करने की प्रवर्ती मिलती है।’

हिंदी में आलोचना के प्रवर्तन का श्रेय ‘भारतेंदु हरिश्चंद्र ‘को दिया जा सकता है तथा उनके द्वारा प्रवर्तित ‘समालोचना’ को आगे बढ़ाने का श्रेय ‘बद्रीनारायण चौधरी व बालकृषण भट्ट ‘को दिया जाता है।

अनुवाद

वेणीसंहार

मृच्छकटिक

पद्मावती।

बालकृष्ण भट्ट संबंधी विशेष तथ्य

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इनको ‘हिंदी का स्टील’ कहा है।

इनको ‘हिंदी का मोंटेन’ कहा जाता हैं।

भट्ट जी ने 1872 ईस्वी में ‘हिंदी प्रदीप’ का संपादन प्रारंभ किया था तथा वे 33 वर्षों तक इसे निकालते रहे थे| इस पत्र के मुख्य पृष्ठ पर छपा रहता था- “शुभ सरस देश सनेह पूरित प्रकट ह्वै आनंद भरे।”

इन्होने ‘प्रेम-पुंज’ नामक एक पत्रिका का संपादन भी किया था।

ये भारतेंदु मंडल के लेखकों में सबसे वरिष्ठ लेखक माने जाते हैं।

उन्होंने अपनी रचनाओं में मुहावरेदार भाषा का सर्वाधिक प्रयोग किया है।

इन्होंने साहित्य को ‘जनसमूह के हृदय का विकास’ कहा है।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार ये तीखी और झनझना देने वाली भाषा में खरी-खरी सुना देने वाले कवि माने जाते हैं।

आदिकाल के साहित्यकार

भक्तिकाल के प्रमुख साहित्यकार

आधुनिक काल के साहित्यकार

नासिरा शर्मा Nasira Sharma

नासिरा शर्मा Nasira Sharma

नासिरा शर्मा Nasira Sharma का जीवन परिचय, नासिरा शर्मा का साहित्यिक परिचय, नासिरा शर्मा की रचनाएं, उपन्यास, आत्मकथा, कहानी, नाटक

जीवन परिचय

जन्म- 22 अगस्त, 1948
जन्म भूमि- प्रयागराज (उत्तर प्रदेश)
कर्म-क्षेत्र – साहित्यकार
काल-आधुनिक काल
भाषा- हिंदी, फारसी भाषा, उर्दू, अंग्रेज़ी और पश्तो भाषा।

नासिरा शर्मा का साहित्यिक परिचय

रचनाएं

कहानी संग्रह

पत्थर गली – 1986

शामी कागज

संगसार – 1993

इब्ने मरियम – 1994

सबीना के चालिस चोर – 1997

ख़ुदा की वापसी – 1998

इंसानी नस्ल – 2001

बुतखाना

दूसरा ताजमहल – 2002

उपन्यास

पारिजात

सात नदियां एक समंदर – 1984

शाल्मली – 1987

ठीकरे की मंगनी – 1989

जिंदा मुहावरे – 1993

अक्षयवट – 2003

कुईयांजान – 2005

जीरो रोड

अजनबी जज़ीरा

कागज़ की नाव

नाटक

दहलीज

पत्थर गली

रिपोर्ताज

जहाँ फव्वारे लहू रोते हैं (संग्रह)

नासिरा शर्मा Nasira Sharma के पुरस्कार एवं मान-सम्मान

उपन्यास कुइयांजान के लिए उन्हें यूके कथा सम्मान से नवाजा गया।

हिंदी में वर्ष 2016 साहित्य अकादमी पुरस्कार इनके उपन्यास ‘परिजात’ के लिए दिया गया।

वर्ष 2019 का नासिरा शर्मा को व्यास सम्मान उनके उपन्यास कागज की नाव पर प्रदान किया गया।

नासिरा शर्मा Nasira Sharma संबंधी विशेष तथ्य

स्त्री विमर्श की दृष्टि से नासिरा की कहानियाँ अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं।

इन पर प्रेमचंद, मंटो, तबस्सुम आदि का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।

इनकी कहानियों पर अब तक ‘वापसी’, ‘सरज़मीन’ और ‘शाल्मली’ के नाम से तीन टीवी सीरियल और ‘माँ’, ‘तडप’, ‘आया बसंत सखि’, ‘काली मोहिनी’, ‘सेमल का दरख्त’ तथा ‘बावली’ नामक दूरदर्शन के लिए छह फ़िल्मों का निर्माण।

साहित्य अकादमी के 60 साल से ऊपर के इतिहास में हिंदी साहित्य में नासिरा शर्मा वह चौथी महिला हैं जिन्हें साहित्य अकादमी 2016 सम्मान मिला है।

इसके पहले कृष्णा सोबती (1980, जिंदगीनामा-जिंदा रख, उपन्यास), अलका सरावगी (2001 कली कथा: वाया बाईपास, उपन्यास) और मृदुला गर्ग (2013 मिलजुल मन, उपन्यास) को यह सम्मान मिल चुका है, साथ ही नासिरा शर्मा पहली मुस्लिम लेखिका हैं जिन्हें हिंदी का साहित्य अकादमी सम्मान मिला है।

इन्हें हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी , फारसी एवं पश्तो भाषाओं का बहुत गहरा ज्ञान है।

आदिकाल के साहित्यकार

भक्तिकाल के प्रमुख साहित्यकार

आधुनिक काल के साहित्यकार

शरद जोशी Sharad Joshi

शरद जोशी Sharad Joshi

शरद जोशी Sharad Joshi का जीवन परिचय, शरद जोशी का साहित्यिक परिचय, शरद जोशी की रचनाएं, शरद जोशी के व्यंग्य, शरद जोशी के पुरस्कार एवं मान-सम्मान

जीवन परिचय

पूरा नाम – शरद जोशी

जन्म- 21 मई 1931

जन्म भूमि – उज्जैन, मध्य प्रदेश

मृत्यु – 5 सितंबर 1991

मृत्यु स्थान- मुंबई

पत्नी- इरफाना सिद्धकी

कर्मक्षेत्र- व्यंग्यकार

शिक्षा- होल्कर कॉलेज, इंदौर से स्नातक।

जोशी जी मध्यप्रदेश सरकार के सूचना एवं प्रकाशन विभाग में नौकरी करते थे, परन्तु बाद में इन्होंने नौकरी छोड़कर लेखन को ही जीविकोपार्जन बनाया।

शरद जोशी का साहित्यिक परिचय

रचनाएं

निबंध

जादू की सरकार – 1993

तिलिस्म – 1999

जीप पर सवार इल्लियां

यत्र-तत्र-सर्वत्र – 2000

यथासम्भव – 2005

श्री गणेशाय नमः

भैंसन्ह माह रहता नित बगुला

हम भ्रष्टन के भ्रष्ट हमारे

सरकार का जादू

बिल्लियों का अर्थशास्त्र

दूतावास में चक्कर

हर फूल दिल्लीमुखी

बंसी वाले का पुजारी

साहित्य का महाबली

बुद्धिजीवी

अर्थब्रह्म

नदी में खड़ा कवि

प्रभु हमें डॉक्टरेट से बचा

मधुबाला से टीबी बाला तक

अब मैं रीतिकाल की और लौट रहा हूं

मेरी श्रेष्ठ व्यंग्य रचनाएँ

दूसरी सतह

परिक्रमा

किसी बहाने

रहा किनारे बैठ

नाटक

अंधों का हाथी

एक था गधा उर्फ अलादाद खाँ

संकलनकर्ता-रविन्द्र पुनिया

फिल्म लेखन

क्षितिज

छोटी सी बात

सांच को आंच नही

गोधूलि

उत्सव

टीवी धारावाहिक

यह जो है जिंदगी

मालगुड़ी डेज

विक्रम और बेताल

सिंहासन बत्तीसी

वाह जनाब

देवी जी

प्याले में तूफान

दाने अनार के

यह दुनिया गज़ब की

लापतागंज

शरद जोशी Sharad Joshi के पुरस्कार एवं मान-सम्मान

चकल्लस पुरस्कार।

काका हाथरसी पुरस्कार से सम्मानित किया।

श्री महाभारत हिन्दी सहित्य समिति इन्दौर द्वारा ‘सारस्वत मार्तण्ड’ की उपाधि परिवार पुरस्कार से सम्मानित।

1990 में भारत सरकार द्वारा पद्मश्री की उपाधि से सम्मानित।

शरद जोशी Sharad Joshi का कथन

‘’लिखना मेरे लिए जीवन जीने की तरकीब है। इतना लिख लेने के बाद अपने लिखे को देख मैं सिर्फ यही कह पाता हूँ कि चलो, इतने बरस जी लिया। यह न होता तो इसका क्या विकल्प होता, अब सोचना कठिन है। लेखन मेरा निजी उद्देश्य है।”

आदिकाल के साहित्यकार

भक्तिकाल के प्रमुख साहित्यकार

आधुनिक काल के साहित्यकार

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