अमीर खुसरो Amir Khusro

अमीर खुसरो Amir Khusro जीवन-परिचय

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Amir Khusro
Amir Khusro

जन्मकाल- 1255 ई. (1312 वि.)

मृत्युकाल – 1324 ई. (1381 वि.)

जन्मस्थान – गांव- पटियाली, जिला-एटा, उत्तर प्रदेश

मूलनाम- अबुल हसन

उपाधि- खुसरो सुखन (यह उपाधि मात्र 12 वर्ष की अल्प आयु में बुजर्ग विद्वान ख्वाजा इजुद्दीन द्वारा प्रदान की गई थी)

उपनाम-
1. तुर्क-ए-अल्लाह
2. तोता-ए-हिन्द ( हिंदुस्तान की तूती)

गुरु का नाम- निजामुद्दीन ओलिया

अपने गुरु निजामुद्दीन औलिया की मृत्यु पर कहे-
गोरी सोवे सेज पर मुख पर डारे केस
चल खुसरो घर आपने रैन भई चहुँ देस

अमीर खुसरो Amir Khusro की रचनाएं

खालिकबारी

पहेलियां

मुकरियाँ

ग़जल

दो सुखने

नुहसिपहर

नजरान-ए-हिन्द

हालात-ए-कन्हैया

अमीर खुसरो जीवन-परिचय एवं रचनाएं

विशेष तथ्य

इनकी खालिकबारी रचना एक शब्दकोश है यह रचना गयासुद्दीन तुगलक के पुत्र को भाषा ज्ञान देने के उद्देश्य से लिखी गई थी।

इनकी ‘नूहसिपहर’ है रचना में भारतीय बोलियों के संबंध में विस्तार से वर्णन किया गया है।

इनको हिंदू-मुस्लिम समन्वित संस्कृति का प्रथम प्रतिनिधि कवि माना जाता है।

यह खड़ी बोली हिंदी के प्रथम कवि माने जाते हैं।

खुसरो की हिंदी रचनाओं का प्रथम संकलन ‘जवाहरे खुसरवी’ नाम से सन 1918 ईस्वी में मौलाना रशीद अहमद सलाम ने अलीगढ़ से प्रकाशित करवाया था।

इसी प्रकार का द्वितीय संकलन 1922 ईसवी में ‘ब्रजरत्नदास’ में नागरी प्रचारिणी सभा काशी के माध्यम से ‘खुसरो की हिंदी कविता’ नाम से करवाया।

रामकुमार वर्मा ने इनको ‘अवधी’ का प्रथम कवि कहा है|

यह अपनी पहेलियों की रचना के कारण सर्वाधिक प्रसिद्ध हुए हैं|

इन्होंने गयासुद्दीन बलबन से लेकर अलाउद्दीन और कुतुबुद्दीन मुबारक शाह तक कई पठान बादशाहों का जमाना देखा था।

यह आदि काल में मनोरंजन पूर्ण साहित्य लिखने वाले प्रमुख कवि माने जाते हैं।

इनका प्रसिद्ध कथन- “मैं हिंदुस्तान की तूती हूं, अगर तुम भारत के बारे में वास्तव में कुछ पूछना चाहते हो तो मुझसे पूछो”

खुसरो की पहेलियां

“एक थाल मोती से भरा। सबके सिर पर औंधा धरा।
चारों और वह थाली फिरे। मोती उससे एक ना गिरे।” (आकाश)

“एक नार ने अचरज किया। सांप मारी पिंजडे़ में दिया।
जों जों सांप ताल को खाए। सूखे ताल सांप मर जाए|| (दिया-बत्ती)

“अरथ तो इसका बूझेगा। मुँह देखो तो सुझेगा।” (दर्पण)

अमीर खुसरो Amir Khusro की मुकरियां

1.
खा गया पी गया
दे गया बुत्ता
ऐ सखि साजन?
ना सखि कुत्ता!

2.
लिपट लिपट के वा के सोई
छाती से छाती लगा के रोई
दांत से दांत बजे तो ताड़ा
ऐ सखि साजन? ना सखि जाड़ा!

3.
रात समय वह मेरे आवे
भोर भये वह घर उठि जावे
यह अचरज है सबसे न्यारा
ऐ सखि साजन? ना सखि तारा!

4.
नंगे पाँव फिरन नहिं देत
पाँव से मिट्टी लगन नहिं देत
पाँव का चूमा लेत निपूता
ऐ सखि साजन? ना सखि जूता!

5.

ऊंची अटारी पलंग बिछायो
मैं सोई मेरे सिर पर आयो
खुल गई अंखियां भयी आनंद
ऐ सखि साजन? ना सखि चांद!

6.
जब माँगू तब जल भरि लावे
मेरे मन की तपन बुझावे
मन का भारी तन का छोटा
ऐ सखि साजन? ना सखि लोटा!

7.
वो आवै तो शादी होय
उस बिन दूजा और न कोय
मीठे लागें वा के बोल
ऐ सखि साजन? ना सखि ढोल!

8.
बेर-बेर सोवतहिं जगावे
ना जागूँ तो काटे खावे
व्याकुल हुई मैं हक्की बक्की
ऐ सखि साजन? ना सखि मक्खी!

9.
अति सुरंग है रंग रंगीले
है गुणवंत बहुत चटकीलो
राम भजन बिन कभी न सोता
ऐ सखि साजन? ना सखि तोता!

10.

आप हिले और मोहे हिलाए
वा का हिलना मोए मन भाए
हिल हिल के वो हुआ निसंखा
ऐ सखि साजन? ना सखि पंखा!

11.
अर्ध निशा वह आया भौन
सुंदरता बरने कवि कौन
निरखत ही मन भयो अनंद
ऐ सखि साजन? ना सखि चंद!

12.
शोभा सदा बढ़ावन हारा
आँखिन से छिन होत न न्यारा
आठ पहर मेरो मनरंजन
ऐ सखि साजन? ना सखि अंजन!

13.
जीवन सब जग जासों कहै
वा बिनु नेक न धीरज रहै
हरै छिनक में हिय की पीर
ऐ सखि साजन? ना सखि नीर!

14.
बिन आये सबहीं सुख भूले
आये ते अँग-अँग सब फूले
सीरी भई लगावत छाती
ऐ सखि साजन? ना सखि पाती!

15.

सगरी रैन छतियां पर राख
रूप रंग सब वा का चाख
भोर भई जब दिया उतार
ऐ सखि साजन? ना सखि हार!

16.
पड़ी थी मैं अचानक चढ़ आयो
जब उतरयो तो पसीनो आयो
सहम गई नहीं सकी पुकार
ऐ सखि साजन? ना सखि बुखार!

17.
सेज पड़ी मोरे आंखों आए
डाल सेज मोहे मजा दिखाए
किस से कहूं अब मजा में अपना
ऐ सखि साजन? ना सखि सपना!

18.
बखत बखत मोए वा की आस
रात दिना ऊ रहत मो पास
मेरे मन को सब करत है काम
ऐ सखि साजन? ना सखि राम!

19.
सरब सलोना सब गुन नीका
वा बिन सब जग लागे फीका
वा के सर पर होवे कोन
ऐ सखि ‘साजन’ना सखि! लोन(नमक)

20.

सगरी रैन मिही संग जागा
भोर भई तब बिछुड़न लागा
उसके बिछुड़त फाटे हिया’
ए सखि ‘साजन’ ना, सखि! दिया(दीपक)

21.
राह चलत मोरा अंचरा गहे।
मेरी सुने न अपनी कहे
ना कुछ मोसे झगडा-टंटा
ऐ सखि साजन ना सखि कांटा!

22.
बरसा-बरस वह देस में आवे,
मुँह से मुँह लाग रस प्यावे।
वा खातिर मैं खरचे दाम,
ऐ सखि साजन न सखि! आम।।

23.
नित मेरे घर आवत है,
रात गए फिर जावत है।
मानस फसत काऊ के फंदा,
ऐ सखि साजन न सखि! चंदा।।

24.
आठ प्रहर मेरे संग रहे,
मीठी प्यारी बातें करे।
श्याम बरन और राती नैंना,
ऐ सखि साजन न सखि! मैंना।।

25.
घर आवे मुख घेरे-फेरे,
दें दुहाई मन को हरें,
कभू करत है मीठे बैन,
कभी करत है रुखे नैंन।
ऐसा जग में कोऊ होता,
ऐ सखि साजन न सखि! तोता।।

अमीर खुसरो Amir Khusro की पहेलियां

अमीर खुसरो जीवन-परिचय एवं रचनाएं

1.
गोश्त क्यों न खाया?
डोम क्यों न गाया?
उत्तर—गला न था

2.
जूता पहना नहीं
समोसा खाया नहीं
उत्तर— तला न था

3.
अनार क्यों न चखा?
वज़ीर क्यों न रखा?
उत्तर— दाना न था (अनार का दाना औरदाना=बुद्धिमान)

4.
सौदागर चे मे बायद? (सौदागर कोक्या चाहिए )
बूचे (बहरे) को क्या चाहिए?
उत्तर (दो कान भी, दुकान भी)

5.
तिश्नारा चे मे बायद? (प्यासे को क्याचाहिए)
मिलाप को क्या चाहिए
उत्तर—चाह (कुआँ भी और प्यार भी)

6.

शिकार ब चे मे बायद करद? ( शिकारकिस चीज़ से करना चाहिए)
क़ुव्वते मग़्ज़ को क्या चाहिए? (दिमाग़ीताक़त को बढ़ाने के लिए क्या चाहिए)
उत्तर— बा दाम (जाल के साथ)और बादाम

7.
रोटी जली क्यों? घोडा अडा क्यों? पानसडा क्यों ?
उत्तर— फेरा न था

8.
पंडित प्यासा क्यों? गधा उदास क्यों ?
उत्तर— लोटा न था

9.
उज्जवल बरन अधीन तन, एक चित्तदो ध्यान।
देखत मैं तो साधु है, पर निपट पार कीखान।।

उत्तर – बगुला (पक्षी)

10.
एक नारी के हैं दो बालक, दोनों एकहिरंग।
एक फिर एक ठाढ़ा रहे, फिर भी दोनोंसंग।

उत्तर – चक्की।

11.

आगे-आगे बहिना आई, पीछे-पीछेभइया।
दाँत निकाले बाबा आए, बुरका ओढ़ेमइया।।

उत्तर – भुट्टा

12.
चार अंगुल का पेड़, सवा मन का फ्ता।
फल लागे अलग अलग, पक जाएइकट्ठा।

उत्तर – कुम्हार की चाक

13.
अचरज बंगला एक बनाया, बाँस नबल्ला बंधन धने।
ऊपर नींव तरे घर छाया, कहे खुसरोघर कैसे बने।।

उत्तर – बयाँ पंछी का घोंसला

14.

माटी रौदूँ चक धर्रूँ, फेर्रूँ बारम्बर।
चातुर हो तो जान ले मेरी जात गँवार।।

उत्तर – कुम्हार

15.

गोरी सुन्दर पातली, केहर काले रंग।
ग्यारह देवर छोड़ कर चली जेठ केसंग।।

उत्तर – अहरह की दाल।

16.
ऊपर से एक रंग हो और भीतरचित्तीदार।
सो प्यारी बातें करे फिकर अनोखीनार।।

उत्तर – सुपारी

17.
बाल नुचे कपड़े फटे मोती उतार।
यह बिपदा कैसी बनी जो नंगी कर दईनार।।

उत्तर – भुट्टा (छल्ली)

18.
एक नार कुँए में रहे,
वाका नीर खेत में बहे।
जो कोई वाके नीर को चाखे,
फिर जीवन की आस न राखे।।

उत्तर – तलवार

19.
एक जानवर रंग रंगीला,
बिना मारे वह रोवे।
उस के सिर पर तीन तिलाके,
बिन बताए सोवे।।

उत्तर – मोर।

20.
चाम मांस वाके नहीं नेक,
हाड़ मास में वाके छेद।
मोहि अचंभो आवत ऐसे,
वामे जीव बसत है कैसे।।

उत्तर – पिंजड़ा।

21.

स्याम बरन की है एक नारी,
माथे ऊपर लागै प्यारी।
जो मानुस इस अरथ को खोले,
कुत्ते की वह बोली बोले।।

उत्तर – भौं (भौंए आँख के ऊपर होतीहैं।)

22.
एक गुनी ने यह गुन कीना,
हरियल पिंजरे में दे दीना।
देखा जादूगर का हाल,
डाले हरा निकाले लाल।

उत्तर – पान।

23.
एक थाल मोतियों से भरा,
सबके सर पर औंधा धरा।
चारों ओर वह थाली फिरे,
मोती उससे एक न गिरे।

उत्तर – आसमान

24.
गोल मटोल और छोटा-मोटा,
हर दम वह तो जमीं पर लोटा।
खुसरो कहे नहीं है झूठा,
जो न बूझे अकिल का खोटा।।

उत्तर – लोटा।

25.

श्याम बरन और दाँत अनेक,
लचकत जैसे नारी।
दोनों हाथ से खुसरो खींचे
और कहे तू आ री।।

उत्तर – आरी।

26.
हाड़ की देही उज् रंग,
लिपटा रहे नारी के संग।
चोरी की ना खून किया
वाका सर क्यों काट लिया।

उत्तर – नाखून।

26.
बाला था जब सबको भाया,
बड़ा हुआ कुछ काम न आया।
खुसरो कह दिया उसका नाव,
अर्थ करो नहीं छोड़ो गाँव।।

उत्तर – दिया।

27.
नारी से तू नर भई
और श्याम बरन भई सोय।
गली-गली कूकत फिरे
कोइलो-कोइलो लोय।।

उत्तर – कोयल।

28.
एक नार तरवर से उतरी,
सर पर वाके पांव
ऐसी नार कुनार को,
मैं ना देखन जाँव।।

उत्तर – मैंना।

29.
सावन भादों बहुत चलत है
माघ पूस में थोरी।
अमीर खुसरो यूँ कहें
तू बुझ पहेली मोरी।।

उत्तर – मोरी (नाली)

30.
तरवर से इक तिरिया उतरी उसने बहुतरिझाया
बाप का उससे नाम जो पूछा आधानाम बताया
आधा नाम पिता पर प्यारा बूझ पहेलीमोरी
अमीर ख़ुसरो यूँ कहें अपना नामनबोली

अमीर खुसरो की उलटबांसियां

भार भुजावन हम गए, पल्ले बाँधी ऊन।
कुत्ता चरखा लै गयो, काएते फटकूँगी चून।।

काकी फूफा घर में हैं कि नायं, नायं तो नन्देऊ
पांवरो होय तो ला दे, ला कथूरा में डोराई डारि लाऊँ।।

खीर पकाई जतन से और चरखा दिया जलाय।
आयो कुत्तो खा गयो, तू बैठी ढोल बजाय, ला पानी पिलाय।

भैंस चढ़ी बबूल पर और लपलप गूलर खाय।
दुम उठा के देखा तो पूरनमासी के तीन दिन।।

पीपल पकी पपेलियाँ, झड़ झड़ पड़े हैं बेर।
सर में लगा खटाक से, वाह रे तेरी मिठास।।

लखु आवे लखु जावे, बड़ो कर धम्मकला।
पीपर तन की न मानूँ बरतन धधरया, बड़ो कर धम्मकला।।

भैंस चढ़ी बबूल पर और लप लप गूलर खाए।
उतर उतर परमेश्वरी तेरा मठा सिरानों जाए।।

भैंस चढ़ी बिटोरी और लप लप गूलर खाए।
उतर आ मेरे साँड की, कहीं हिफ्ज न फट जाए।।

आदिकाल के प्रमुख साहित्यकार

भक्तिकाल के प्रमुख साहित्यकार

आधुनिक-काल के साहित्यकार

अवधी भाषा Avadhi Bhasha का विकास व रचनाएं

अवधी भाषा Avadhi Bhasha का विकास व रचनाएं

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काव्य भाषा के रूप में अवधी का उदय और विकास

अवधी अर्धमगधी अपभ्रंश से विकसित है।

यह पूर्वी हिंदी बोली की यह प्रतिनिधि बोली है। इसके अन्य नाम – कोसली, पूरबिया, बैंसवाड़ी है।

भाषा के रूप में अवधी भाषा का प्रथम स्पष्ट उल्लेख सर्वप्रथम ‘खालिकबारि’ (अमीर खुसरो) तथा दूसरा प्रयोग ‘उक्तिव्यक्तिप्रकरण’ (दामोदर शर्मा) में मिलता है।

अवधी भाषा का विकास व रचनाएं
अवधी भाषा का विकास व रचनाएं

‘उक्तिव्यक्तिप्रकरण’ में 9-13वीं सदी की बोलियों के नमूने को कोसली तथा अपभ्रष्ट कहा गया है।

कोसली का उल्लेख ‘कुवलयमाला’ (9वी सदी) ग्रंथ में मिलता है

कोसल प्रदेश (लखीमपुरी, खेरी, बहराइच, गोडा. बाराबंकी लखनक, सीतापुर, उन्नाव, फैजाबाद, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, रायबरेली ) की बोली होने कारण कोसली नामकरण हुआ है।

बैंसवाड़ा अवध का एक भाग मात्र होने के कारण इसका नामकरण बैसवाड़ी हुआ।

अवधी का प्रथम ज्ञात काव्य ‘लोरकहा’ या ‘चंदायन’ (मुल्ला दाऊद,1979 ई) है।

जायसी अवधी के प्रथम कवि हैं, जिनके ग्रंथ ‘पद्मावत’ में अवधी अपने ठेठ रूप में प्रयुक्त होने के उपरांत भी अभिव्यंजना की दृष्टि से अत्यन्त सशक्त है।

तुलसीदास हिंदी के एकमात्र कवि हैं, जिन्होंने ब्रज एवं अवधी दोनों भाषाओं में साधिकार लिखा है।

सूफी काव्य की भाषा प्रायः अवधी है। शुक्लजी के अनुसार अनुराग बासुरी की भाषा सभी सूफी रचनाओं में बहुत अधिक संस्कृत गर्भित है।

शुक्लजी नूर मुहम्मद को सूफी काव्य-परंपरा का अंतिम कवि मानते हैं।

अवधी की प्रसिद्ध रचनाएँ

चंदायन (1370)- मुल्ला दाऊद

हरिचरित (1400 ई. के बाद) -लालदास

रामजन्म (15वीं सदी का अंतिम चरण) सूरजदास

सत्यवती कथा (1501) – ईश्वरदास

मृगावती (1503) – कुतुबन

पद्मावत (1527-1540), अखरावट, आखिरी कलाम, कहरनामा, चित्ररेखा (चित्रावत) मसलानामा – जायसी

मधुमालती (1545-) मंझन

बरवै रामायण, रामललानहछू (पूर्वी अवधी) – तुलसी

जानकी मंगल, पार्वती मंगल (पश्चिमी अवधी)- तुलसी

रामचरितमानस (1576 ) (बैसवाड़ी अवधी)- तुलसीदास

अवध विलास- लालदास

सीतायन – रामप्रियाशरण

अवध सागर – जानकी रसिकशरण

रामाश्वमेघ – मधुसूदनदास

कवितावली, रामायण, रामचरित – रामचरणदास

भावनापचीसी, समय प्रबंच, माधुरी प्रकाश – कृपाराम प्रेमप्रधान

सियाराम रसमंजरी- जानकी चरण

बरवै नायिका भेद (1600 ई.) रहीम

चित्रावली (1613 ई.) – उसमान

रसरतन (1618 ई.) – पुहकर

ज्ञानदीप (1619 ई.) – शेखनबी

कनकावती, कामलता, मधुकर, मालती, रतनावती छीता- न्यामत खाँ (जानकवि) (1659-1707) (21 प्रेमाख्यानक काव्य, कुल रचनाएँ 70)

पुहुपावती (1669 ई.)- दुखहरन दास

पुहुपावती (1725)- हुसैन अली

हंस जवाहिर (1736 ई.) – कासिमशाह

इंद्रावती- (1744)- नूर मुहम्मद

अनुराम बांसुरी (1764), नल दमन (1764-65)- नूर मुहम्मद

युसूफ जुलेखा- (1790) शेख निसार

अखरावटी, प्रेमचिनगारी (19वीं सदी का पूर्वाद्ध) शाह नजफ सलोनी

नूरजहाँ (1905)- ख्वाजा अहमद

माया प्रेम रस (1915)- शेख रहीम

प्रेम दर्पण (1917)- कवि नसीर

रामध्यान मंजरी- अग्रदास

अष्टयाम- नाभादास

हनुमन्नाटक- हृदयराम

अवधी भाषा का विकास व रचनाएं

ब्रजभाषा साहित्य का विकास

रीतिकाल के प्रमुख ग्रंथ

कालक्रमानुसार हिन्दी में आत्मकथाएं

राघवयादवीयम् ग्रन्थ

भाषायी दक्षता

‘रासो’ शब्द की व्युत्पत्ति – विभिन्न मत

हालावाद विशेष

संस्मरण और रेखाचित्र

कामायनी के विषय में कथन

भारत का स्वर्णिम अतीत : तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय

हिन्दी साहित्य विभिन्न कालखंडों के नामकरण

हिन्दी साहित्य काल विभाजन

भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान

मुसलिम कवियों का कृष्ण प्रेम

हाइकु कविता (Haiku)

संख्यात्मक गूढार्थक शब्द

ब्रजभाषा साहित्य Brajbhasha Sahitya का विकास

ब्रजभाषा साहित्य Brajbhasha Sahitya का विकास

ब्रजभाषा साहित्य Brajbhasha Sahitya का विकास, ब्रजभाषा का व्याकरण, ब्रजभाषा के प्रमुख ग्रंथ, ब्रजभाषा के प्रसिद्ध लेखक

ब्रजभाषा साहित्य Brajbhasha Sahitya का विकास, ब्रजभाषा का व्याकरण, ब्रजभाषा के प्रमुख ग्रंथ, ब्रजभाषा के प्रसिद्ध लेखक, Granth, lekhak
Brajbhasha sahitya ka vikas

काव्यभाषा के रूप में ब्रजभाषा का विकास : ब्रजभाषा साहित्य Brajbhasha Sahitya

पश्चिमी हिंदी बोलियों की प्रतिनिधि बोली ब्रजभाषा है। जिसका विकास शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ है।

18वीं सदी से पूर्व यह पिंगल तथा भाखा नाम से प्रसिद्ध थी।

शूरसेन (मथुरा, अलीगढ़ और आगरा) का दूसरा नाम ब्रजमडल है अतः यहाँ की भाषा ब्रजभाषा है।

विकास- ब्रजभाषा का विकास 1000 ई के आसपास हुआ।

ब्रजभाषा ओकार बहुला भाषा है। जैसे – पहिलो, दूजो। बुंदेली और ब्रजभाषा में घनिष्ठ संबंध है।

ब्रजभाषा की सबसे प्राचीन ज्ञात कृति अग्रवाल कवि विरचित ‘प्रद्युम्न चरित’ (1354 ई.) है

सूरदास जी से पूर्व ब्रजभाषा के कवियों में विष्णुदास सर्वाधिक लोकप्रिय कवि हुए हैं।

काव्यभाषा के रूप में शुद्ध ब्रजभाषा के प्रथम कवि अमीर खुसरो (1253-1325 ई) माने जाते हैं।

ब्रजभाषा को साहित्यिक रूप देने और साहित्य के चर्मोत्कर्ष पर पहुंचाने में सूर एवं नंददास ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

ब्रजभाषा के प्रथम महान् कवि सूरदास माने जाते हैं तो काव्य-भाषा के माधुर्य की दृष्टि से नंददास सर्वोपरि हैं।

भाषा विकास की दृष्टि से रीतिकाल ब्रजभाषा का ‘स्वर्णकाल’ कहलाता है।

आधुनिक युग में भारतेंदु हरिश्चंद्र, जगन्नाथ दास रत्नाकर, सत्यनारायण कविरत्न ने ब्रजभाषा के पुनरुद्धार का प्रयास किया। ये तीनों आधुनिक ब्रजभाषा काव्य के बृहत्त्रयी है।

ब्रजभाषा के संबंध में प्रसिद्ध कथन

ब्रजभाषा का जो माधुर्य हम सूरसागर में पाते हैं, वहीं माधुर्य हम गीतावली और श्रीकृष्ण गीतावली में भी पाते है।- रामचंद्र शुक्ल

सूरदास की रचना में संस्कृत की कोमलकांत पदावली और अनुप्रासों की वह विचित्र योजना नहीं है, जो गोस्वामीजी की रचना में है।- रामचंद्र शुक्ल

सूरसागर रचना इतनी प्रगल्भ और कलापूर्ण है कि आगे आने वाले कवियों की श्रृंगार और वात्सल्य की उक्तियाँ सूर की जूठी-सी जान पडती हैं।- रामचंद्र शुक्ल

घनानंद की सी विशुद्ध सरस और शक्तिशाली ब्रजभाषा लिखने में और कोई कवि समर्थ नहीं हुआ। प्रेममार्ग का ऐसा प्रवीण और धीर पथिक तथा जबांदानी का ऐसा दावा रखने वाला ब्रजभाषा का दूसरा कवि नहीं हुआ।- रामचन्द्र शुक्ल

लाक्षणिक मूर्तिमत्ता और प्रयोग-वैचित्र्य की जो छटा घनानंद में दिखाई पड़ी. वह फिर आधुनिक काल में ही देखी गई। -रामचन्द्र शुक्ल

पद्माकर की भाषा बहुत ही चलती, स्वाभाविक और साफ सुथरी है।- रामचन्द्र शुक्ल

सुंदरदास की ब्रजभाषा साहित्यिक, सरस और काव्य की मँजी हुई ब्रजभाषा है।- रामचन्द्र शुक्ल

लोकोक्तियों के मधुर उपयोग के लिए शुक्लजी ने ठाकुर की भाषा की प्रशंसा की है।

ब्रजनाथ ने घनानंद को ब्रजभाषा प्रवीण कहा है।

कल्पना की समाहार शक्ति एवं भाषा की समाहार शक्ति की दृष्टि से बिहारी ब्रजभाषा का सामर्थ्य आचार्य शुक्ल ने भी स्वीकार किया है।

ब्रजभाषा की प्रसिद्ध रचनाएँ

प्रद्युम्नचरित (1354 ई.) -अग्रवाल कवि

स्वर्गारोहण (1435 ई.) रुक्मिणी मंगल, महाभारत, स्नेह लीला (भ्रमरगीत)- विष्णुदास

वैताल पचीसी (1489 ई.)- मानिक कवि

छिताईवार्ता (1590 ई.)- नारायण दास

गीताभाषा (1500 ई)- मेघनाथ

लखमन सेन पद्मावती कथा (1459 ई)- दामों

मधुमालती- चतुर्भुजदास (प्रेमाख्यानक हिंदू कवि)

सूरसागर सूरसारावली, साहित्यलहरी – सूरदास

विनयपत्रिका (1653 संवत) कविताबली, गीतावली, कृष्णगीतावली- तुलसीदास

सुजान रसखान, प्रेमवारिका (रचना 1614 ई., दामलीला, अष्टयाम- रसखान

सुदामाचरित (1601) नरोत्तमदास

रामचंद्रिका (1601 है)- केशवदारा 13. रसकलश (1931 ई.)- हरिऔध

उद्धवशतक (1931 ई.), हरिश्चंद्र, गंगावतरण (1927 ई)- जगन्नाथदास रत्नाकर

हृदयतरंग (संपादक-बनारसी दास चतुर्वेदी) सत्यनारायण कविरत्न

अवधी भाषा का विकास व रचनाएं

ब्रजभाषा साहित्य का विकास

रीतिकाल के प्रमुख ग्रंथ

कालक्रमानुसार हिन्दी में आत्मकथाएं

राघवयादवीयम् ग्रन्थ

भाषायी दक्षता

‘रासो’ शब्द की व्युत्पत्ति – विभिन्न मत

हालावाद विशेष

संस्मरण और रेखाचित्र

कामायनी के विषय में कथन

भारत का स्वर्णिम अतीत : तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय

हिन्दी साहित्य विभिन्न कालखंडों के नामकरण

हिन्दी साहित्य काल विभाजन

भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान

मुसलिम कवियों का कृष्ण प्रेम

हाइकु कविता (Haiku)

संख्यात्मक गूढार्थक शब्द

Geography Quiz-09 Lesson-06 Class-12

Geography Quiz-09 Lesson-06 Class-12

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विश्व: मानव अधिवास

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मोहन राकेश जीवन परिचय

मोहन राकेश जीवन परिचय

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जन्म -8 जनवरी 1925

निधन -3 जनवरी 1972

जन्म स्थान- अमृतसर, पंजाब, भारत

कर्म-क्षेत्र- नाटककार व उपन्यासकार (प्रयोगवादी या आधुनिकबोधवादी उपन्यासकार)

मोहन राकेश साहित्य परिचय अथवा रचनाएं

मोहन राकेश जीवन परिचय
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कहानियां

मिस पाल

सीमाएँ

आर्द्रा

फ़ौलाद का आकाश(संग्रह)

सुहागिनें

मलबे का मालिक (1947 भारत विभाजन पर, इसमें मलबा उन्माद व वहशीपन का प्रतीक)

उसकी रोटी

एक और ज़िंदगी ( इनकी सर्वप्रसिद्ध एवं प्रतिनिधि कहानी मानी जाती है यह कहानी आज के मानसिक /ट्रैजिक तनाव को अभिव्यक्त करती है)(संग्रह)

परमात्मा का कुत्ता

जानवर और जानवर (संग्रह)

मवाली

मंदी

ज़ख़्म

अपरिचित

जीनियस

इंसान के खंडहर (संग्रह)

नये बादल (संग्रह)

आज के साये (संग्रह)

डॉक्टर (संग्रह)

ठहरा हुआ चाकू

वासना की छाया में

नाटक

आषाढ़ का दिन-1958 ( संस्कृत के महाकवि कालिदास के जीवन का अंतः संघर्ष चित्रित किया गया है इस नाटक को 1959 में संगीत नाटक अकादमी का प्रथम पुरस्कार भी मिला था)

लहरों के राजहंस-1963 ( इसमें नंद का अंतर्द्वंद चित्रित किया गया है इसमें नायक नंद आधुनिक भाव बोध का प्रतिनिधित्व करता है)

आधे-अधूरे-1969 ( इसमें मध्यवर्गीय परिवार की समस्याओं का चित्रण किया गया है)

पैरों तले की जमीन (अधूरा नाटक) (ये इनका अधूरा नाटक है जिसे कमलेश्वर द्वारा पूरा किया गया था)

अंडे के छिलके (एंकाकी)

सिपाही की माँ

जीवनी

आखिरी चट्टान तक- 1953

निबन्ध

हिंदी कथा-साहित्य : नवीन प्रवृत्तियाँ-1

हिंदी कथा-साहित्य : नवीन प्रवृत्तियाँ-2

आज की कहानी के प्रेरणास्रोत

कहानी क्यों लिखता हूँ

समकालीन हिंदी कहानी : एक परिचर्चा

डॉ. कार्लो कपोल और मोहन राकेश

नाटककार और रंगमंच

रंगमंच और शब्द

हिंदी रंगमंच

उपन्यास

अँधेरे बन्द कमरे ,1961 (चार भाग)

न आनेवाला कल (1. डर 2. सहयोगी 3. दरवाजे)

अन्तराल ,1972

नीली रोशनी की बाहें

कांपता दरिया

संपादन

सारिका

नई कहानी

विशेष तथ्य

मोहन राकेश नई कहानी आंदोलन के प्रमुख नायकों में रहे।

उनकी अनेक कहानियों पर फिल्में भी बनीं।

कहानी के अतिरिक्त उन्हें नाटक के क्षेत्र में अपरिमित सफलता मिली।

हिंदी प्रदेश का शायद ही कोई ऐसा इलाका हो जहाँ उनके नाटकों का मंचन न हुआ हो।

खासकर ‘आषाढ़ का एक दिन’ और ‘आधे अधूरे’ को तो क्लासिक का दर्जा हासिल है।

आदिकाल के प्रमुख साहित्यकार

भक्तिकाल के प्रमुख साहित्यकार

आधुनिक-काल के साहित्यकार

हिमांशु जोशी जीवन परिचय

हिमांशु जोशी जीवन परिचय

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जन्म:-4 मई, 1935
उत्तराँचल, भारत
मृत्यु:-22 नवम्बर 2018 हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार हिमांशु जोशी का लंबी बीमारी के बाद 83 वर्ष की उम्र में निधन हो गया. गुरुवार रात उन्होंने आखिरी सांस ली. उनके निधन से साहित्य जगत में शोक है. उनका जन्म उत्तराखंड के खेतीखान में हुआ था.
काल:-आधुनिक काल

हिमांशु जोशी का साहित्य

हिमांशु जोशी की रचनाएं

उपन्यास

अरण्य,

महासागर

छाया मत छूना मन,

कगार की आग,

समय साक्षी है,

तुम्हारे लिए ,

सु-राज

कहानी संग्रह

अंततः तथा अन्य कहानियां

मनुष्य-चिह्न तथा अन्य कहानियां

जलते हुए डैने तथा अन्य कहानियां

रथ-चक्र

हिमांशु जोशी की चुनी हुई कहानियां

तपस्या तथा अन्य कहानियां

गन्धर्व-गाथा

चर्चित कहानियां

आंचलिक कहानियां

श्रेष्ठ प्रेम कहानियां

इस बार फिर बर्फ गिरी तो

नंगे पांवों के निशान

दस कहानियां

प्रतिनिधि लोकप्रिय कहानियां

इकहत्तर कहानियां

सागर तट के शहर

स्मृतियाँ

परिणति तथा अन्य कहानियां

कविता संग्रह

अग्नि-सम्भव

नील नदी का वृक्ष

एक आँख की कविता

जीवनी तथा खोज-अमर शहीद अशफाक उल्ला खां,

यात्रा वृतांत

यातना-शिविर में (अंडमान की अनकही कहानी), रेडियो-नाटक-सु-राज तथा अन्य एकांकी, कागज की आग तथा अन्य एकांकी, समय की शिला पर, बाल साहित्य-अग्नि संतान आदि।

वैचारिक संस्मरण

उत्तर-पर्व

आठवां सर्ग

विशेष तथ्य

हिमांशु जोशी ने वर्ष 1956 से पत्रकारिता में कदम रखा.वे ‘कादम्बिनी’,‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’.दूरदर्शन व आकाशवाणी से भी जुड़े रहे थे.

कोलकत्ता से प्रकाशित साहित्यिक मासिक पत्रिका ‘वागार्थ’ के संपादक भी रहे थे.

उन्होंने हिंदी फिल्मों के लिए भी लेखन कार्य किया था.

सम्मान एवं पुरस्कार

‘छाया मत छूना मन’, ‘अरण्य’, ‘मनुष्य चिह्न’ ‘श्रेष्ठ आंचलिक कहानियां’ तथा ‘गन्धर्व कथा’ को ‘उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान’ से पुरस्कार.

‘हिमांशु जोशी की कहानियां’ तथा ‘भारत रत्न : पं. गोविन्द बल्लभ पन्त’ को ‘हिंदी अकादमी’ दिल्ली का सम्मान.

‘तीन तारे’ राजभाषा विभाग बिहार सरकार द्वारा पुरस्कृत.

पत्रकारिता के लिए ‘केंद्रीय हिंदी संसथान’ (मानव संसाधन मंत्रालय) द्वारा ‘स्व. गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार’ से सम्मानित.

आदिकाल के प्रमुख साहित्यकार

भक्तिकाल के प्रमुख साहित्यकार

आधुनिक-काल के साहित्यकार

लेखिका सुनीता जैन – व्यक्तित्व

लेखिका सुनीता जैन – व्यक्तित्व

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जन्म -13 जुलाई, 1941

जन्म भूमि- अम्बाला, पंजाब

विधाएँ :- उपन्यास, कहानी, कविता, बाल साहित्य, आत्मकथा, अनुवाद

भाषा -हिन्दी और अंग्रेज़ी

विद्यालय -स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ़ न्यूयार्क, यूनिवर्सिटी ऑफ़ नेब्रास्का

शिक्षा -एम. ए. (अंग्रेज़ी साहित्य), पीएच. डी.

लेखिका सुनीता जैन
लेखिका सुनीता जैन

सुनीता जैन का साहित्य अथवा रचनाएं

उपन्यास

बोज्यू,

सफर के साथी,

बिंदू,

मरणातीत,

अनुगूँज,

तितिक्षा-2000 ( पूर्व प्रकाशित पांचो उपन्यासों का संग्रह)

कहानी संग्रह

हम मोहरे दिन रात के,

इतने बरसों बाद,

पालना-2000

पाँच दिन-2003

कविता संग्रह

हो जाने दो मुक्त, 1978(प्रथम)

कौन सा आकाश,

एक और दिन,

रंग-रति,

कितना जल,

सूत्रधार सोते हैं,

सच कहती हूँ,

कहाँ मिलोगी कविता,

पौ फटे का पहला पक्षी,

युग क्या होते और नहीं,

सुनो मधु किश्वर,

धूप हठीले मन की,

इस अकेले तार पर,

मूकमं करोति वाचालं,

जाने लड़की पगली,

सीधी कलम सधे न,

जी करता है,

लेकिन अब,

बोलो तुम ही,

इतना भर समय,

हथकड़ी में चाँद,

गंगातट देखा,

सुनो कहानी,

माधवी : (खंड : 8),

तरूतरू की डाल पे,

तीसरी चिट्ठी,

जो मैं जानती,

दूसरे दिन,

चौखट पर व उठो माधवी,

प्रेम में स्त्री, 2006

बारिश में दिल्ली,

इस बार,

खाली घर में,

लाल रिब्बन का फुलवा,

किस्सा तोता मैना,

फैंटसी, 2007

क्षमा, 2008

गांधर्व पर्व,

कुरबक,

लूओं के बेहाल दिनों में,

ओक भर जल,

हेरवा,

रसोई की खिड़की में,

सूरज छुपने से पहले,

हुई साँझ की बेर,

अगर कभी लौटी तो,

राग और आग,

टेशन सारे

आत्मकथा

शब्दकाया

सम्मान

व्यास सम्मान-2015 (क्षमा काव्य संग्रह के लिए)

निराला नामित,

साहित्य भूषण,

साहित्यकार सम्मान,

महादेवी वर्मा,

हरियाणा गौरव,

पद्मश्री,

विश्व हिंदी सम्मान (8वें विश्व हिंदी सम्मेलन, न्यूयॉर्क में)

विशेष तथ्य

सुनीता जैन 8वें ‘विश्व हिन्दी सम्मेलन’, न्यूयॉर्क, 2007 में ‘विश्व हिन्दी सम्मान’ से सम्मानित हिन्दी की पहली कवयित्री हैं।

अमेरिका में अपने अंग्रेज़ी उपन्यास व कहानियों के लिए कई पुरस्कारों से भी उन्हें पुरस्कृत किया जा चुका है।

अमेरिका में प्रवासी हिन्दी लेखक।

आदिकाल के प्रमुख साहित्यकार

भक्तिकाल के प्रमुख साहित्यकार

आधुनिक-काल के साहित्यकार

डॉ. नगेन्द्र की जीवनी

डॉ. नगेन्द्र की जीवनी

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जन्म- 9 मार्च, 1915

जन्म भूमि- अलीगढ़, उत्तर प्रदेश

मृत्यु- 27 अक्टूबर, 1999

मृत्यु स्थान- नई दिल्ली

कर्म-क्षेत्र -लेखक, कवि, निबन्धकार, आलोचक, प्राध्यापक

पुरस्कार- साहित्य अकादमी पुरस्कार (‘रस-सिद्धांत’ के लिए 1965 में)

इन्होंने 1948 ईस्वी में रीतिकाव्य की भूमिका और महाकवि देव विषय पर शोध उपाधि प्राप्त की थी|

डॉ. नगेन्द्र की जीवनी
डॉ. नगेन्द्र की जीवनी

डॉ. नगेन्द्र का साहित्य

निबंध/आलोचना

1938 सुमित्रानंदन पंत (पहली आलोचनात्मक पुस्तक)

1939 साकेत: एक अध्ययन

1944 विचार और विवेचन(निबंध)

1949 आधुनिक हिंदी नाटक

1949-विचार और अनुभूति(निबंध)

1949 रीति काव्य की भूमिका

हिंदी साहित्य का इतिहास

1951 आधुनिक हिन्दी कविता की मुख्य प्रवृत्तियाँ

1955 विचार और विश्लेषण (निबंध)

1957 अरस्तू का काव्यशास्त्र

1961 अनुसंधान और आलोचना

1962 कामायनी के अध्ययन की समस्याएं

1964 रस-सिद्धांत

1966 आलोचक की आस्था (निबंध)

1969 आस्था के चरण (निबंध संग्रह)

1970 नयी समीक्षाः नये संदर्भ

1971 समस्या और समाधान

1973 हिन्दी साहित्य का बृहत इतिहास (दस भाग)

1979 मिथक और साहित्य

1982 साहित्य का समाज शास्त्र

1985 भारतीय समीक्षा और आचार्य शुक्ल की काव्य दृष्टि

1987 मैथलीशरण गुप्त : पुनर्मूल्यांकन

1990 प्रसाद और कामायिनी

1993 राम की शक्तिपूजा

अभिनव भारती

नाट्य दर्पण

काव्य में उदात्त तत्व

काव्य कला

भारतीय काव्यशास्त्र की परंपरा

पाश्चात्य काव्यशास्त्र की परंपरा

चेतना के बिंब (निबंध)

वीणापाणि के कम्पाउण्ड में (निबंध)

हिंदी उपन्यास (निबंध)

अर्द्धकथा-1988 (आत्मकथा)

डॉ. नगेन्द्र का काल विभाजन

इनके द्वारा भी सम्पूर्ण हिंदी साहित्योतिहास को चार प्रधान कालखंडों में बांटा गया है आधुनिक काल को भी चार उप भागों में बांटा गया है:-
1. आदिकाल- सातवीं शताब्दी के मध्य से 14वीं शताब्दी के मध्य तक
2.भक्तिकाल- 14 वी शताब्दी के मध्य से 17वीं शताब्दी के मध्य तक
3. रीतिकाल- 17वीं शताब्दी के मध्य से 19वीं शताब्दी के मध्य तक
4. आधुनिक काल- 19 वीं शताब्दी के मध्य से अब तक
(|)पुनर्जागरण काल (भारतेंदु काल) -1857 ई. से 1900 ई. तक
(2) जागरणसुधारकाल (द्विवेदी काल)- 1900-1918 ई. तक
(3) छायावादकाल-1918-1938 ई. तक
(4) छायावादोत्तर काल:-
(क) प्रगति-प्रयोग काल- 1938-1953 ई. तक
(ख) नवलेखनकाल- 1953 ई. से अब तक

विशेष तथ्य

ये रसवादी आलोचक माने जाते हैं|

इनका साहित्यिक जीवन कवि के रूप में आरंभ होता है। सन 1937 ई. में उनका पहला काव्य संग्रह ‘वनबाला’ प्रकाशित हुआ

इन्होंने फ्रायड के मनोविश्लेषण शास्त्र के आधार पर नाटक और नाटककारों की आलोचनाएँ लिखीं।

डॉ. नगेन्द्र के निबन्धों की भाषा शुद्ध, परिष्कृत, परिमार्जित, व्याकरण सम्मत तथा साहित्यिक खड़ी बोली है।

नगेन्द्र जी ‘दिल्ली विश्वविद्यालय’ से प्रोफ़ेसर तथा हिन्दी विभागाध्यक्ष के पद पर से सेवानिवृत्त होने के उपरान्त स्वतन्त्र रूप से साहित्य की साधना में संलग्न हो गये थे।

ये ‘आगरा विश्वविद्यालय’, आगरा से “रीतिकाल के संदर्भ में देव का अध्ययन” शीर्षक शोध प्रबन्ध पर शोध उपाधि से अलंकृत हुए थे।

डॉ. नगेन्द्र का यह मानना था कि “अध्यापक वृत्तितः व्याख्याता और विवेकशील होता है। ऊँची श्रेणी के विद्यार्थियों और अनुसन्धाताओं को काव्य का मर्म समझाना उसका व्यावसायिक कर्तव्य व कर्म है।” उन्होंने यह भी लिखा है कि “अध्यापन का, विशेषकर उच्च स्तर के अध्यापन का, साहित्य के अन्य अंगों के सृजन से सहज सम्बन्ध न हो, परन्तु आलोचना से उसका प्रत्यक्ष सम्बन्ध है।”

शैली

‘निबन्ध साहित्य’ में निम्नलिखित शैलियों का व्यवहार सम्यक रूपेण लक्षित होता है-

विवेचनात्मक शैली

नगेन्द्र जी मूलतः आलोचनात्मक एवं विचारात्मक निबन्धकार के रूप में समादृत रहे थे। इस शैली में लेखक तर्कों द्वारा युक्तियों को सुलझाता हुआ चलता है। वह अत्यन्त गम्भीर एवं बौद्धिक विषय को अपनी कुशल विवेचना पद्धति के द्वारा सरल रूप में स्पष्ट कर देता है तथा विवादास्पद विषयों को अत्यन्त बोधगम्य रीति से समझाने की चेष्टा करता है। उनका ‘आस्था के चरण’ शीर्षक निबन्ध संकलन इस शैली का अच्छा उदाहरण है।

प्रसादात्मक शैली

इस शैली का प्रयोग डॉ. नगेन्द्र के निबन्ध साहित्य में सर्वत्र देखा जा सकता है। इस शैली के द्वारा लेखक ने विषय को सरल तथा बोधगम्य रीति से प्रस्तुत करने का कार्य किया है। यह भी एक तथ्य है कि कि डॉ. नगेन्द्र का मन सम्पूर्णतः प्राध्यापन व्यवसाय में ही रमण करता रहा। इसीलिए लिखते समय वह इस बात का ध्यान रखते थे कि जो बात वह कह रहे हैं, उसमें कहीं किसी प्रकार की अस्पष्टता न रह जाए।

गोष्ठी शैली

‘हिन्दी उपन्यास’ नामक निबन्ध में नगेन्द्र जी ने “गोष्ठी शैली” का व्यवहार किया है। सही अर्थों में वे अपनी प्रतिभा के बल पर ही निबन्ध साहित्य में ‘गोष्ठी शैली’ की सृष्टि करने में सफल रहे थे।

सम्वादात्मक शैली

‘हिन्दी साहित्य में हास्य की कमी’ शीर्षक रचना में इस शैली का प्रयोग देखा जा सकता है। इस शैली में जागरुक अध्येताओं को स्पष्टता एवं विवेचना दोनों ही बातें लक्षित हो जाएंगी।

पत्रात्मक शैली

‘केशव का आचार्यत्व’ नामक रचना में डॉ. नगेन्द्र ने पत्रात्मक शैली का प्रयोग किया गया है। उल्लेखनीय बात तो यह है कि डॉ. विजयेन्द्र स्नातक कृत ‘अनुभूति के क्षण’ नामक रचना भी सम्पूर्णतः पत्रात्मक शैली की ही निबन्ध रचना है।

प्रश्नोत्तर शैली

डॉ. नगेन्द्र के लेखन में ‘प्रश्नोत्तर शैली’ का सौन्दर्य भी लक्षित हो जाता है। इस शैली में निबन्धकार स्वयं ही प्रश्न करता है तथा उसका उत्तर भी स्वयं ही देता है। डॉ. नगेन्द्र कृत ‘साहित्य की समीक्षा’ शीर्षक निबन्ध को इस शैली का अन्यतम उदाहरण माना जा सकता है।

संस्मरणात्मक शैली

‘अप्रवासी की यात्राएँ’ नामक कृति ‘यात्रावृत्त’ की विधा की एक प्रमुख कृति है। यह रचना डॉ. नगेन्द्र की संस्मरणात्मक शैली के सौन्दर्य का उदाहरण प्रस्तुत करती है। ‘दद्दा- एक महान व्यक्तित्व’ शीर्षक संस्मरणात्मक निबन्ध में इस शैली का व्यवहार लक्षित होता है।

आत्मसाक्षात्कार की शैली

‘आलोचक का आत्म विश्लेषण’ नामक रचना में डॉ. नगेन्द्र का लेख इस शैली का प्रयोग करता हुआ लक्षित होता है। वस्तुतः निबन्ध की विधा में वे ऐसे शैलीकार के रूप में सामने आते हैं, जो रचना में आद्योपान्त अपनी रचना प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हुए चलता है।

आदिकाल के प्रमुख साहित्यकार

भक्तिकाल के प्रमुख साहित्यकार

आधुनिक-काल के साहित्यकार

सुमित्रानंदन पंत

सुमित्रानंदन पंत का जीवन परिचय

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Sumitranandan Pant
Sumitranandan Pant

मूल नाम – गुसाईं दत्त

जन्म- 20 मई 1900

जन्म भूमि- कौसानी, उत्तराखण्ड, भारत

मृत्यु -28 दिसंबर, 1977

मृत्यु स्थान -इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत

कर्म भूमि- इलाहाबाद

कर्म-क्षेत्र – अध्यापक, लेखक, कवि

विषय- गीत, कविताएँ

भाषा -हिन्दी

विद्यालय -जयनारायण हाईस्कूल, म्योर सेंट्रल कॉलेज

काल- आधनिक काल (छायवादी युग)

आंदोलन- रहस्यवाद व प्रगतिवाद

सुमित्रानंदन पंत का साहित्यिक परिचय

कविता संग्रह / खंडकाव्य:- पंत जी द्वारा रचित काव्य को मुख्यतः निम्न चार श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है:-

1. छायावादी रचनाएं(1918-1943)

उच्छ्वास (1920)

ग्रन्थि (1920)

पल्लव (1926)

वीणा (1927, 1918-1919 की कविताएँ संकलित)

गुंजन (1932)

2. प्रगतिवादी रचनाएं(1935-1945)

युगांत (1936)
युगवाणी (1938)
ग्राम्‍या (1940)

3. अरविंद दर्शन से प्रभावित रचनाएं (1946-1948)[अंतश्चेतनावादी युग]

स्वर्णकिरण (1947)
स्वर्णधूलि (1947)
उत्तरा (1949)
युगपथ (1949)

4.मानवतावादी (अाध्यात्मिक) रचनाएं (1949 ई. के बाद) [नव मानवता वादी युग]

अतिमा (1955)

वाणी (1957)

चिदंबरा (1958)

पतझड़ (1959)

कला और बूढ़ा चाँद (1959)

लोकायतन (1964, महाकाव्य)(दो खंड एवं सात अध्यायों मे विभक्त)

गीतहंस (1969)

सत्यकाम (1975, महाकाव्य)

पल्लविनी

स्वच्छंद (2000)

मुक्ति यज्ञ

युगांतर

तारापथ

मानसी

सौवर्ण

अवगुंठित

मेघनाद वध

चुनी हुई रचनाओं के संग्रह

युगपथ (1949)

चिदंबरा (1958)

पल्लविनी

स्वच्छंद (2000)

काव्य-नाटक/काव्य-रूपक

ज्योत्ना (1934)

रजत-शिखर (1951)

शिल्पी (1952)

आत्मकथात्मक संस्मरण

साठ वर्ष : एक रेखांकन (1963)

आलोचना

गद्यपथ (1953)

शिल्प और दर्शन (1961)

छायावाद : एक पुनर्मूल्यांकन (1965)

कहानियाँ

पाँच कहानिय़ाँ (1938)

उपन्यास

हार (1960)

अनूदित रचनाओं के संग्रह

मधुज्वाल (उमर ख़ैयाम की रुबाइयों का फारसी से हिन्दी में अनुवाद)

संयुक्त संग्रह

खादी के फूल / सुमित्रानंदन पंत और बच्चन का संयुक्त काव्य-संग्रह

पत्र-संग्रह

पंत के सौ पत्र (1970, सं. बच्चन)

पत्रकारिता

1938 में उन्होंने ‘रूपाभ’ नामक प्रगतिशील मासिक पत्र निकाला।

पुरस्कार व सम्मान

1960 ‘कला और बूढ़ा चांद’ पर ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’

1961 ‘पद्मभूषण’ हिंदी साहित्य की इस अनवरत सेवा के लिए

1968 ‘चिदम्बरा’ नामक रचना पर ‘भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार’

‘लोकायतन’ पर ‘सोवियत लैंड नेहरु पुरस्कार’

विशेष तथ्य

पंत जी की सर्वप्रथम कविता- गिरजे का घंटा 1916

छायावाद का ‘घोषणा पत्र ‘(मेनिफेस्टो) पंत द्वारा रचित ‘पल्लव’ रचना की भूमिका को कहा जाता है|

पंत की सर्वप्रथम छायावादी रचना -उच्छ्वास 1920

युगांत रचना पंत जी के छायावादी दृष्टिकोण की अंतिम रचना मानी जाती है|

युगवाणी रचना में पंत जी ने प्रगतिवाद को ‘युग की वीणा’ बतलाया है|

पंत को छायावाद का विष्णु कहा जाता है|

आचार्य नंददुलारे वाजपेयी इनको छायावाद का प्रवर्तक मानते हैं|

रामचंद्र शुक्ल इनको छायावाद का प्रतिनिधि कवि मानते हैं|

रोला इनका सर्वप्रिय प्रिय छंद माना जाता है|

प्रकृति के कोमल पक्ष अत्यधिक वर्णन करने के कारण इन को प्रकृति का सुकुमार कवि भी कहा जाता है|

महर्षि अरविंद दवारा रचित ‘भागवत जीवन’ से यह इतने प्रभावित हुए थे कि उनकी जीवन दशा ही बदल गई|

इन्हे ‘रावणार्यनुज’ भी कहा जाता है|

यह अपनी सूक्ष्म कोमल कल्पना के लिए अधिक प्रसिद्ध है मूर्त पदार्थों के लिए अमूर्त उपमान देने की परंपरा पंत जी के द्वारा ही प्रारंभ की हुई मानी जाती है|

पंतजी भाषा के प्रति बहुत सचेत थे उनकी रचनाओं में प्रकृति की जादूगरी जिस भाषा में अभिव्यक्त हुई है उसे समय पंत ‘चित्र भाषा(बिबात्मक भाषा)’ की संज्ञा देते हैं|

प्रसिद्ध पंक्तियां

– “मुझे छोड़ अनगढ़ जग में तुम हुई अगोचर,
भाव-देह धर लौटीं माँ की ममता से भर !
वीणा ले कर में, शोभित प्रेरणा-हंस पर,
साध चेतना-तंत्रि रसौ वै सः झंकृत कर
खोल हृदय में भावी के सौन्दर्य दिगंतर !”

– “सुन्दर है विहग सुमन सुन्दर, मानव तुम सबसे सुन्दरतम।
वह चाहते हैं कि देश, जाति और वर्गों में विभाजित मनुष्य की केवल एक ही पहचान हो – मानव।”

-छोडो़ द्रुमों की मृदु छाया, तोडो प्रकृति की भी माया|
बाले तेरे बाल-जाल में, कैसे उलझा दूँ लोचन||”

आदिकाल के प्रमुख साहित्यकार

भक्तिकाल के प्रमुख साहित्यकार

आधुनिक-काल के साहित्यकार

मीराबाई का जीवन परिचय

मीराबाई का जीवन परिचय

मीराबाई का जीवन परिचय, मीराबाई की प्रमुख रचनाएं, मीराबाई का साहित्यिक परिचय, मीराबाई की पदावली, मीराबाई की काव्य शैली एवं भाषा शैली

जन्म – 1498

जन्म भूमि – कुडकी, पाली, राजस्थान,

बचपन का नाम पेमल

मृत्यु – 1547 (मीरा में भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति में समा गयी।)

अभिभावक- रत्नसिंह

पति- कुंवर- भोजराज ( उदयपुर के महाराणा सांगा के पुत्र)

गुरु/शिक्षक संत रविदास (माना जाता है कि इन्होंने जीव गोस्वामी से दीक्षा ली थी)

डॉ नगेंद्र ने इन्हें संप्रदाय निरपेक्ष भक्त कवयित्री कहा है।

कर्म भूमि- वृन्दावन

काल- भक्तिकाल

विषय – कृष्णभक्ति

Meerabai का जीवन परिचय
Meerabai का जीवन परिचय

मीराबाई की प्रमुख रचनाएं

मीराबाई ने चार ग्रन्थों की भी रचना की थी-

‘बरसी का मायरा’

‘गीत गोविंद टीका’

‘राग गोविंद’

‘राग सोरठ’

मीराबाई की पदावली : मीराबाई का जीवन परिचय

मीराबाई के गीतों का संकलन “मीराबाई की पदावली” नामक ग्रन्थ में किया गया है, जिसमें निम्नलिखित खंड प्रमुख हैं-

नरसी जी का मायरा

मीराबाई का मलार या मलार राग

गर्बा गीता या मीराँ की गरबी

फुटकर पद

सतभामानु रूसण या सत्यभामा जी नुं रूसणं

रुक्मणी मंगल

नरसिंह मेहता की हुंडी

चरित

विशेष तथ्य

प्रियादास ने संवत् 1769 वि. में भक्तमाल की टीका ‘भक्तिरस बोधिनी’ में लिखा है कि मीरा की जन्म भूमि मेड़ता थी।

नागरीदास ने लिखा है कि मेड़ता की मीराबाई का विवाह राणा के अनुज से हुआ था।

कर्नल टॉड ने ‘एनलस एण्ड एंटिक्वटीज ऑफ़ राजस्थान’ में मीरा का विवाह राणा कुम्भा से लिखा है।

पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने अपने उदयपुर राज्य के इतिहास में लिखा है कि महाराणा साँगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज का विवाह मेड़ता के राव वीरमदेव के छोटे भाई रत्नसिंह की पुत्री मीराबाई के साथ संवत् 1573 वि. में हुआ था।

स्मरण रहे कि कर्नल टॉड अथवा उन्हीं के आधार पर जिन विद्वानों ने मीरा को कुम्भा की पत्नी माना है, वे दन्त कथाओं के आधार पर गलती कर गए हैं।

सर्वप्रथम विलियम क्रुक ने बताया कि वास्तव में मीराबाई राणा कुम्भा की पत्नी नहीं थीं, वरन् साँगा के पुत्र भोजराज की पत्नी थीं।

पण्डित रामचन्द्र शुक्ल ने अपने इतिहास में लिखा है कि- ‘इनका जन्म संवत् 1573 वि. में चौकड़ी नाम के एक गाँव में हुआ था और विवाह उदयपुर के कुमार भोजराज के साथ हुआ था।’

डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने इनका जन्म सन् 1498 ई. (संवत् 1555 वि.) के लगभग माना है।

मीरा की भक्ति माधुर्य- भाव की भक्ति है।

वह अपने इष्टदेव कृष्ण की भावना प्रियतम या पति के रुप में करती थी।

उनका मानना था कि इस संसार में कृष्ण के अलावा कोई पुरुष है ही नहीं।

कृष्ण के रुप की दीवानी थी।

“मीराबाई रैदास को अपना गुरु मानते हुए कहती हैं-

‘गुरु मिलिया रैदास दीन्ही ज्ञान की गुटकी।’

मीराबाई और तुलसीदास का पत्र-व्यवहार

मीरा ने तुलसीदास को पत्र लिखा था-

“स्वस्ति श्री तुलसी कुलभूषण दूषन- हरन गोसाई।
बारहिं बार प्रनाम करहूँ अब हरहूँ सोक- समुदाई।।
घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई।
साधु- सग अरु भजन करत माहिं देत कलेस महाई।।
मेरे माता- पिता के समहौ, हरिभक्तन्ह सुखदाई।
हमको कहा उचित करिबो है, सो लिखिए समझाई।।”

मीराबाई के पत्र का जबाव तुलसी दास ने इस प्रकार दिया-

“जाके प्रिय न राम बैदेही।
सो नर तजिए कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेहा।।
नाते सबै राम के मनियत सुह्मद सुसंख्य जहाँ लौ।
अंजन कहा आँखि जो फूटे, बहुतक कहो कहां लौ।।”

मीराबाई की काव्य शैली एवं भाषा शैली : मीराबाई का जीवन परिचय

मीरा के काव्य की भाषा सामान्यतः राजस्थानी मिश्रित ब्रिज है।

उनके पदों पर गुजराती का विशेष पुट है।

खड़ी बोली और पंजाबी का भी उनकी कविता पर पर्याप्त प्रभाव दिखाई देता है।

संगीत और छंद विधान की दृष्टि से मीरा का काव्य उच्च कोटि का है उनके पद विभिन्न राग रागिनियों में बद्ध है।

भावना प्रधान होने के कारण मीरा के काव्य में अलंकारों की सायास योजना कहीं दिखाई नहीं देती है।

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