हिन्दी दिवस – 14 सितंबर

हिन्दी दिवस का इतिहास एवं उपलब्धियां

इस आलेख में हम हिन्दी दिवस का इतिहास एवं उपलब्धियां आदि के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त करेंगे।

क्यों मनाया जाता है हिन्दी दिवस?

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल,
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिट्य न हिय को सूल।

अब जानते हैं हिन्दी दिवस का इतिहास-

इतिहास

1 मई 1910 में नागरी प्रचारिणी सभा काशी के तत्वावधान में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन की स्थापना प्रयाग में हुयी।

हिंदी साहित्य सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य हिंदी भाषा और देवनागरी लिपि का व्यापक प्रचार प्रसार करना।

हिंदी भाषा एवं देवनागरी लिपि का विकास राष्ट्रव्यापी संपर्क भाषा और लिपि के रूप में करना था।

सम्मेलन का अधिवेशन प्रतिवर्ष होता था।

वर्ष 1918 के अधिवेशन में महात्मा गांधी ने अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में हिंदी को जन भाषा स्वीकार किया।

इसे राष्ट्रभाषा बनाने की वकालत की तथा कहा कि “राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।”

स्वतंत्रता आंदोलन में हिंदी का व्यापक योगदान रहा।

उत्तर से दक्षिण को जोड़ने का काम हिंदी ने किया।

स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान अहिंदी भाषी स्वतंत्रता सेनानियों ने हिंदी सीखी तथा दूसरों को भी हिंदी सीखने के लिए प्रेरित किया।

हिन्दी दिवस - 14 सितंबर
हिन्दी दिवस – 14 सितंबर

स्वतंत्र्योत्तर स्थिति

स्वतंत्रता के पश्चात देश के सामने अनेक कठिनाइयां आयी जिनमें से भाषा और लिपि की भी एक समस्या थी।

14 सितंबर 1949 को गहन विचार-विमर्श एवं वाद-विवाद के बाद यह निर्णय लिया गया कि “संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी।संघ के राजकीय प्रयोजनों के लिए प्रयोग होने वाले अंकों का रूप अंतरराष्ट्रीय रूप होगा।”

उक्त निर्णय को भारत के संविधान के भाग 17 में अनुच्छेद 343 (1) में वर्णित किया गया है।

अन्य सांविधानिक प्रावधान

26 जनवरी 1950 को संविधान के लागू होने के साथ ही उक्त प्रावधान लागू हो गया।

किंतु अनुच्छेद 343 (2) में यह व्यवस्था भी थी कि संविधान के लागू होने के 15 वर्ष की अवधि तक अर्थात् सन् 1965 ईस्वी तक संघ के सभी सरकारी कार्यों के लिए अंग्रेजी का भी प्रयोग होता रहेगा।

वर्ष 1965 में 15 वर्ष की अवधि पूरी होने के बाद भी अंग्रेजी में कामकाज जारी रहा।

1965 के बाद की स्थिति

26 जनवरी 1965 को भारतीय संसद में एक प्रस्ताव पारित हुआ जिसमें यह कहा गया कि-

“हिंदी का सभी कार्यालयों में प्रयोग किया जाएगा लेकिन उसके साथ साथ अंग्रेजी का भी सह राजभाषा के रूप में उपयोग किया जाएगा।”

1967 के ‘भाषा संशोधन विधेयक’ में अंग्रेजी को अनिवार्य किया और हिंदी का कहीं जिक्र तक नहीं किया गया।

राजभाषा की स्थिति पर श्री शंकर दयाल सिंह ने लिखा है कि

“आजादी मिलने के बाद यह नहीं कहा गया कि अभी राष्ट्रध्वज तैयार नहीं है।

इसलिए ‘यूनियन जैक कुछ दिन तक फहराता रहे या अपने राष्ट्रगान का स्वर अभी परिचित नहीं है इसलिए ‘लांग लिव द किंग कुछ दिनों तक चलना चाहिए।

जब ऐसी बातें राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रीय गान के संबंध में नहीं हुई तो फिर राष्ट्रभाषा के संबंध में यह पक्षपातपूर्ण नीति क्यों लागू की गयी ?

इससे एक बात तो स्पष्ट दिखती है कि अपने संविधान निर्माताओं और उसे लागू करने वालों की नीयत हिन्दी के संबंध में साफ नहीं थी।

हिन्दी के संबंध में इस आश्वासन और समझौते का औचित्य क्या है ?

कोई भी प्रधानमंत्री संविधान से बड़ा नहीं होता, संविधान के तहत ही होता है ।

जब संविधान में हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दे दिया गया तब फिर इस आश्वासन की जरूरत क्या है कि जब तक देश के सभी राज्य हिन्दी को न अपनाएँ तब तक वह राजभाषा नहीं होगी या अंग्रेजी इसके साथ-साथ चलेगी।”

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त श्री टी.एन. शेषन ने संसदीय राजभाषा समिति के पूर्व अध्यक्ष स्व. शंकर दयाल सिंह को लिखे एक पत्र में कहा था

“राष्ट्रभाषा हिन्दी की प्रतिष्ठा सर्वोपरि है और राष्ट्रीय एकता के प्रति सभी भारतवासियों को एक सूत्र में बांधने वाली इस भाषा के प्रति हमें जाग्रत चिंतन से कार्य करना चाहिए।”

उपलब्धियां

अब जानते हैं उपलब्धियां-

बांग्ला भाषी केशव चंद्र सेन की प्रेरणा से गुजराती भाषी दयानंद सरस्वती ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की रचना हिंदी में की, जबकि वे स्वयं संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे।

हिंदी साहित्य के विकास में अहिंदीभाषी क्षेत्र के विद्वानों, कवियों और लेखकों का अविस्मरणीय योगदान रहा है।

तेलुगु वल्लभाचार्य, तमिल रांगेय राघव, गुजराती अमृतलाल नागर, मराठी मुक्तिबोध, पंजाबी मोहन राकेश आदि कुछ उल्लेखनीय नाम है जिन्होंने हिंदी की विशेष सेवा की है, एक सकारात्मक संदेश दिया है।

आज के कंप्यूटर के युग में हिन्दी चहूँ ओर अपने पंख फैला रही है।

इंटरनेट के माध्यम से यह सर्वसुलभ हो रही है। संपूर्ण देश ही नहीं विदेश में भी इसकी पहचान बनी है।

विश्व के सौ से अधिक विश्वविद्यालयों में हिंदी का अध्ययन अध्यापन किया जा रहा है।

आज सभी विदेशी मोबाइल कंपनियां अपने मोबाइल में हिंदी भाषा अवश्य देती है।

गूगल ने भी हिंदी में अपने एप्लीकेशन तैयार किये है।

गूगल कीबोर्ड से आसानी से हिंदी टाइपिंग की जा सकती है।

ऑनलाइन शॉपिंग एप्लीकेशन ने अब हिंदी में शॉपिंग ऑप्शन देने शुरू कर दिए हैं।

विश्व में बोली जाने वाली तीसरी सबसे बड़ी भाषा हिंदी है।

हिंदी दिवस

हिंदी दुनिया की एकमात्र ऐसी भाषा है जिसकी सुरक्षा एवं देश के प्रति जागरूकता के दिवस मनाए जाने की आवश्यकता अनुभूति रही है।

हिंदीदिवस हिंदी को राजभाषा घोषित करने के साथ ही शुरू नहीं हुआ, बल्कि जब हिंदी प्रेमियों ने यह अनुभव किया कि हिंदी के लिए जो सांविधानिक प्रावधान किए गए हैं, उनको निष्ठापूर्वक लागू नहीं किया जा रहा है।

लोगों को जागरूक करने तथा हिंदी को अपना खोया गौरव लौटाने के लिए प्रतिवर्ष 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है चूंकि इसी दिन हिंदी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त हुआ था अतः इसी दिन हिंदी दिवस मनाया जाता है।

जब तक हिंदी को उसका सही अधिकार नहीं मिल जाता तब तक हिंदी दिवस की आवश्यकता रहेगी।

यह दिवस सत्ता लोलुप नेताओं के गालों पर करारा तमाचा है।

जिसकी गूंज प्रतिवर्ष 14 सितंबर को हमें सुनाई देती है और हमसे प्रश्न करती है कि क्यों मुझे अपने ही घर में कोई अधिकार नहीं है?

हिंदी को उसका अधिकार और खोया हुआ सम्मान दिलाने के लिए अनेक प्रयास अभी तक हुए हैं लेकिन सत्ता लोलुप नेताओं ने मुट्ठी भर कोटे की मानसिकता के लोगों के साथ मिलकर 120 करोड़ भारतीयों की भावनाओं पर कुठाराघात किया है।

इस आलेख में हम जैसा पहले हिन्दी दिवस का इतिहास एवं उपलब्धियां जान चुके हैं। अब जानते हैं इससे संबंधित कथन-

हिंदी दिवस पर विचाराभिव्यक्ति करते हुए डॉ विनोद अग्निहोत्री लिखते हैं

“आजादी की लड़ाई में हिन्दी भारत में अंग्रेजी साम्राज्यवाद और उपनिवेशवाद के खिलाफ स्वाधीनता संघर्ष की भाषा बन गयी थी।

आजादी के बाद हिन्दी भाषी एक ऐसी हीन ग्रंथि का शिकार होते चले गये।

हिन्दी उनके लिए एक ऐसी बूढ़ी मां की तरह है जो अपने ही घर के कोने में पड़ी है।”

डॉ अब्दुल बिस्मिल्लाह का कथन

“एक खास तरह का वर्ग है जो सभी महत्त्वपूर्ण जगहों को अपने हाथ में समेटे हुए हैं।

वह नहीं चाहता कि हिन्दी को सम्मानजनक स्थान मिले। फिर भी हिन्दी का विकास वे रोक नहीं पायेंगे।

हिन्दी का विकास विश्वविद्यालयों से नहीं, जनता के बीच से हो रहा है।

दुनिया में वही भाषा समृद्ध है जिसमें अधिक से अधिक दूसरी भाषाओं के शब्दों को खपा लेने की क्षमता है।

हिन्दी का विकास समितियों या कानून से संभव नहीं है, इसे जनता ही आगे बढ़ाएगी ।

यह सुखद बात है कि अब अहिन्दी प्रदेशों में भी हिन्दी खूब पढ़ी जा रही है।”

आशा है कि आपको यह आलेख हिन्दी दिवस का इतिहास एवं उपलब्धियां आदि के बारे में पूरी जानकारी मिली होगी।

विकिपीडिया लिंक हिन्दी दिवस- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%80_%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%B5%E0%A4%B8

सितम्बर माह के महत्त्वपूर्ण दिवस (Important Days of September)

अभिक्रमित अनुदेशन-हिन्दी शिक्षण विधियाँ

रेखीय अभिक्रमित अनुदेशन-हिन्दी शिक्षण विधियाँ

हिन्दी शिक्षण विधियाँ-शाखीय अभिक्रमित अनुदेशन (Branching Programmed Instruction)

हिन्दी शिक्षण विधियाँ-संगणक सह-अनुदेशन / कंप्यूटर आधारित अनुदेशन (Computer Assisted Instruction – CAI)

विसर्ग सन्धि Visarg Sandhi

विसर्ग संधि Visarg Sandhi

विसर्ग सन्धि Visarg Sandhi परिभाषा नियम प्रकार | सन्धि परिभाषा नियम प्रकार स्वर सन्धि व्यंजन सन्धि विसर्ग सन्धि उदाहरण एवं अपवाद | परीक्षोपयोगी जानकारी

सन्धि

परिभाषा- दो ध्वनियों (वर्णों) के परस्पर मेल को सन्धि कहते हैं। अर्थात् जब दो शब्द मिलते हैं तो प्रथम शब्द की अन्तिम ध्वनि (वर्ण) तथा मिलने वाले शब्द की प्रथम ध्वनि के मेल से जो विकार होता है उसे सन्धि कहते हैं।
ध्वनियों के मेल में स्वर के साथ स्वर (परम+ अर्थ)
स्वर के साथ व्यंजन (स्व+छंद)
व्यंजन के साथ व्यंजन (जगत्+विनोद), व्यंजन के साथ स्वर (जगत्+अम्बा)
विसर्ग के साथ स्वर (मनः+अनुकूल) तथा विसर्ग के साथ व्यंजन ( मनः+रंजन) का मेल हो सकता है।

विसर्ग सन्धि Visarg Sandhi के प्रकार

सन्धि तीन प्रकार की होती है

1. स्वर सन्धि

2. व्यंजन संधि

3. विसर्ग सन्धि

Visarg Sandhi विसर्ग सन्धि

विसर्ग के साथ स्वर अथवा व्यंजन के मेल को विसर्ग संधि कहते हैं|

मनः + विनोद = मनोविनोद

अंतः + चेतना = अंतश्चेतना

sandhi in hindi, संधि किसे कहते हैं, sandhi vichchhed, sandhi ki paribhasha, संधि का अर्थ, संधि का उदाहरण, संधि का क्या अर्थ है, sandhi ke bhed, sandhi ke udaharan, sandhi ke example, sandhi ke niyam, sandhi ke bare mein bataiye, sandhi ke apvad, sandhi for competitive exam, visarg sandhi, विसर्ग संधि उदाहरण, visarg sandhi ke bhed, विसर्ग संधि किसे कहते हैं, विसर्ग संधि के सूत्र, visarg sandhi example, विसर्ग संधि की ट्रिक, विसर्ग संधि के 10 उदाहरण, visarg sandhi ke udaharan, visarg sandhi ke bhed, विसर्ग संधि की पहचान, visarg sandhi ke niyam, विसर्ग संधि की ट्रिक, विसर्ग संधि की परिभाषा उदाहरण सहित, visarg sandhi ke 10 udaharan, visarg sandhi ke apvad, visarg sandhi ki paribhasha, visarg sandhi kise kahate hain, visarg sandhi ki trick
विसर्ग सन्धि परिभाषा नियम प्रकार

1. विसर्ग से पहले यदि अ तथा बाद में किसी वर्ग का तीसरा चौथा पांचवा व्यंजन अथवा अ, आ, य, र, ल, व, ह में से कोई आए तो विसर्ग का ओ हो जाता है तथा अ/आ का लोप हो जाता है-

अंततः + गत्वा = अंततोगत्वा

अधः+भाग = अधोभाग

अधः+मुख = अधोमुख

अधः+गति = अधोगति

अधः+लिखित = अधोलिखित

अधः+वस्त्र = अधोवस्त्र

अधः+भाग = अधोभाग

अधः+हस्ताक्षरकर्ता = अधोहस्ताक्षरकर्ता

अधः+गमन = अधोगमन

तिरः + हित = तिरोहित

उर: + ज = उरोज (स्तन)

तमः + गुण = तमोगुण

उरः + ज्वाला = उरोज्वाला

तपः + धन = तपोधन

तिरः + भाव = तिरोभाव

तिरः + हित = तिरोहित

तपः + भूमि = तपोभूमि

तेजः + मय = तेजोमय

पुरः + हित = पुरोहित

मनः + हर = मनोहर

मन: + रम = मनोरम

मनः + हर = मनोहर

मनः + वृत्ति – मनोवृत्ति

मन: + मालिन्य = मनोमालिन्य

यशः + मती = यशोमती

यशः + दा = यशोदा

यश: + गान = यशोगान

यश: + वर्धन = यशोवर्धन

रज: + दर्शन = रजोदर्शन

रजः + मय – रजोमय

सरः + रुह = सरोरुह (कमल)

शिरः + धार्य = शिरोधार्य

विशेष-

प्रातः का मूल रूप प्रातर् , पुनः का मूल रूप पुनर् तथा अंतः का मूलभूत अंतर् होता है। प्रातः, पुनः, अंतः आदि शब्दों के विसर्ग के मूल में र है तथा र से ही इनके विसर्ग बने हैं अतः ऐसे शब्दों में उक्त नियम नहीं लागू होता बल्कि र ही रहता है।

(अंत्य र् के बदले भी विसर्ग होता है । यदि र के आगे अघोष-वर्ण आवे तो विसर्ग का कोई विकार नहीं होता; और उसके आगे घोष-वर्ण आवे तो र ज्यों का त्यों रहता है- उद्धृत- हिन्दी व्याकरण – पंडित कामताप्रसाद गुरु पृष्ठ सं. 60) जैसे-

अंत: (अंतर्) + आत्मा = अंतर्रात्मा

अंतः (अंतर्) + निहित = अंतर्निहित

अंत: (अंतर्) + हित = अंतर्हित

अंतः(अंतर्) + धान = अंतर्धान

अंत: (अंतर्)+भाव = अंतर्भाव

अंतः (अंतर्) + यात्रा = अंतर्यात्रा

अंतः(अंतर्)+द्वंद्व = अतर्द्वंद्व

अंतः(अंतर्)+अग्नि = अंतरग्नि

अंतः(अंतर्)+गत = अंतर्गत

अंतः(अंतर्)+मुखी = अंतर्मुखी

अंतः(अंतर्)+धान = अंतर्धान

प्रातः(प्रातर्)+उदय = प्रातरुदय

प्रातः(प्रातर्)+अर्चना = प्रांतरचना

पुनः(पुनर्)+आगमन = पुनरागमन

पुनः(पुनर्)+गठन = पुनर्गठन

पुनः(पुनर्)+अपि = पुनर्गठन

पुनः(पुनर्)+अपि = पुनरपि

पुनः(पुनर्)+जन्म = पुनर्जन्म

पुनः(पुनर्)+मिलन = पुनर्मिलन

अंतः (अंतर्) + पुर = अंतःपुर

अंतः (अंतर्) + करण = अंतःकरण

प्रातः (प्रातर्) + काल = प्रातःकाल

2. विसर्ग से पहले यदि इ/ई, उ/ऊ तथा बाद में किसी वर्ग का तीसरा चौथा पांचवा व्यंजन, य, ल, व, ह अथवा कोई स्वर में से कोई आए तो विसर्ग का र् हो जाता है-

आशी: + वचन = आशीर्वचन

आशी: +वाद = आशीर्वाद

आवि: + भाव =आविर्भाव

आविः + भूत = आविर्भूत

आयु: + वेद = आयुर्वेद

आयुः + विज्ञान = आयुर्विज्ञान

आयुः + गणना = आयुर्गणना

चतुः + दिक = चतुर्दशी

चतुः + दिशा = चतुर्दिश (आ का लोप)

चतु: + युग = चतुर्युग

ज्योतिः + विद = ज्योतिर्विद

ज्योतिः + मय = ज्योतिर्मय

दुः+लभ = दुर्लभ

दुः+जय = दुर्जय

दुः+अवस्था = दुरावस्था

नि:+उपम = निरुपम

नि:+लिप्त = निर्लिप्त

निः+रक्षण = निरीक्षण

प्रादुः+भूत = प्रादुर्भूत

प्रादुः+भाव = प्रादुर्भाव

बहिः+रंग = बहिरंग

बहिः-गमन = बहिर्गमन

बहिः+मंडल = बहिर्मंडल

यजुः + र्वेद = यजुर्वेद

श्री: + ईश = श्रीरीश

3. विसर्ग से पहले यदि अ/इ/उ (हृस्व स्वर) तथा दूसरे पद का प्रथम वर्ण र हो तो विसर्ग का लोप हो जाता है तथा हृस्व स्वर दीर्घ हो जाता है-

पुनः + रचना = पुनारचना

निः+रव = नीरव

नि:+रंध्र = नीरंध्र

निः+रोध = निरोध

नि:+रस = नीरस

निः+रोग = निरोग

निः+रुज = नीरुज

दुः + राज = दूराज

दुः + रम्य = दूरम्य

चक्षुः + रोग = चक्षूरोग

4. यदि विसर्ग के साथ च/छ/श का मेल हो तो विसर्ग के स्थान पर श् हो जाता है-

अंत:- चेतना = अंतश्चेतना/ अंत:चेतना

आः + श्चर्य = आश्चर्य

क: + चित = कश्चित

तपः + चर्या = तश्चर्या

दुः + चरित्र = दुश्चरित्र

निः + चय = निश्चय

निः + छल = निश्छल

मनः + चिंतन = मनश्चिंतन

प्रायः + चित = प्रायश्चित

बहिः + चक्र = बहिश्चक्र

मनः+चेतना = मनश्चेतना

मनः+चिकित्सक = मनश्चिकित्सक

मनः+चिकित्सा = मनश्चिकित्सा

हरिः + चंद्र = हरिश्चंद्र

यशः + शरीर = यशश्शरीर

यशः + शेष = यशश्शेष

5. यदि विसर्ग के साथ ट/ठ/ष का मेल हो तो विसर्ग के स्थान पर ष् हो जाता है-

धनुः + टंकार = धनुष्टंकार

चतुः + टीका = चतुष्टीका

चतुः + षष्टि = चतुष्षष्टि

6. यदि विसर्ग के साथ त/थ/स का मेल हो तो विसर्ग के स्थान पर स् हो जाता है-

अंतः + ताप = अंतस्ताप

अंत: + तल = अंत:स्तल

चतुः + सीमा = चतुस्सीमा

प्रातः + स्मरण = प्रातस्स्मरण/प्रात:स्मरण

दुः + साहस = दुस्साहस

नमः + ते = नमस्ते

नि: + संदेह = निस्संदेह/निःसंदेह

निः + तार = निस्तार

निः + सहाय = निस्सहाय

नि: + संकोच = निस्संकोच/नि:संकोच

बहि: + थल = बहिस्थल

पुरः + सर = पुरस्सर

मनः + ताप = मनस्ताप

मनः + ताप =मनस्ताप/मन:ताप

पुनः + स्मरण = पुनस्स्मरण

वि: + स्थापित = विस्स्थापित

विः + तीर्ण = विस्तीर्ण

ज्योतिः + तरंग = ज्योतिस्तरंग

निः + तेज़ = निस्तेज

7. विसर्ग से पहले यदि इ/उ (हृस्व स्वर) तथा दूसरे पद का प्रथम वर्ण क/प/फ हो तो विसर्ग का ष् हो जाता है

आविः + कार = आविष्कार

चतुः+पद = चतुष्पाद

चतुः+पाद = चतुष्पाद

चतुः+पथ = चतुष्पथ

चतुः+काष्ठ = चतुष्काष्ठ

ज्योतिः + पिंड – ज्योतिष्पिंड

चतुः + कोण = चतुष्कोण

ज्योतिः + पति = ज्योतिष्पति

नि:+कर्मण = निष्कर्मण

नि:+काम = निष्काम

नि:+फल = निष्फल

बहिः + कृत = बहिष्कृत

बहि: + क्रमण – बहिष्क्रमण

8. विसर्ग से पहले यदि अ/आ हो तथा दूसरे पद का प्रथम वर्ण क/प/ हो तो विसर्ग में कोई परिवर्तन नहीं होता है-

अंतः + पुर = अंत:पुर

अंत: + करण = अंतःकरण

अध: पतन = अध:पत (अधोपतन अशुद्ध है)

पय + पान = पय:पान (पयोपान अशुद्ध है)

प्रातः + काल = प्रातःकाल

मनः + कल्पित = मन:कल्पित

मनः + कामना = मन:कामना (मनोकामना अशुद्ध है)

विसर्ग सन्धि Visarg Sandhi के अपवाद

घृणा: + पद = घृणास्पद

पुरः + कृत = पुरस्कृत

पुरः + कार = पुरस्कार

श्रेयः + कर = श्रेयस्कर

घृणा: + पद = घृणास्पद

यशः + कर = यशस्कर

नमः + कार = नमस्कार

परः + पर = परस्पर

भाः + कर = भास्कर

भाः + पति = भास्पति

वनः + पति = वनस्पति

बृहः + पति – बृहस्पति

वाचः + पति = वाचस्पति

मनः + क = मनस्क

9. विसर्ग से पहले यदि अ हो तथा दूसरे पद का प्रथम वर्ण अ से भिन्न कोई स्वर हो तो विसर्ग का लोप हो जाता है-

अतः -एव = अतएव

तपः + उत्तम = तपउत्तम

मनः + उच्छेद = मनउच्छेद

यश: + इच्छा = यशइच्छा

हरिः + इच्छा = हरिइच्छा

विशेष-

निः और दुः संस्कृत व्याकरण में उपसर्ग नहीं माने गए हैं बल्कि निर् , निस् , दुर् और दुस् उपसर्ग माने गए हैं परंतु देशभर में जो प्रतियोगी परीक्षाएं आयोजित हुई है उनमें अभी तक विसर्ग संधि के संदर्भ में जो प्रश्न किए गए हैं

उन सभी प्रश्नों में निः और दुः वाले विकल्प ही सही माने गए हैं

पंडित कामता प्रसाद गुरु, डॉ. हरदेव बाहरी एवं अन्य विद्वानों ने भी निः और दुः का सन्धि रूप ही स्वीकार किया है।

अतः हमें यही रूप स्वीकार करना चाहिए परंतु यदि निः और दुः से बने शब्दों पर उपसर्ग से संबंधित प्रश्न पूछा जाए तो उनमें आवश्यकतानुसार निर् , निस् , दुर् और दुस् उपसर्ग बताना चाहिए।

इन्हें भी अवश्य पढ़िए-

1. स्वर सन्धि

2. व्यंजन संधि

3. विसर्ग सन्धि

स्वर सन्धि Swar Sandhi

स्वर सन्धि Swar Sandhi

स्वर संधि Swar Sandhi | व्यंजन सन्धि | विसर्ग सन्धि | परिभाषा | उदाहरण | अपवाद | दीर्घ सन्धि | गुण सन्धि की परिभाषा, उदाहरण एवं अपवाद परीक्षोपयोगी दृष्टि से-

परिभाषा- दो ध्वनियों (वर्णों) के परस्पर मेल को सन्धि कहते हैं।

अर्थात् जब दो शब्द मिलते हैं तो प्रथम शब्द की अन्तिम ध्वनि (वर्ण) तथा मिलने वाले शब्द की प्रथम ध्वनि के मेल से जो विकार होता है उसे सन्धि कहते हैं।

ध्वनियों के मेल में स्वर के साथ स्वर (परम+ अर्थ)

स्वर के साथ व्यंजन (स्व+छंद)

व्यंजन के साथ व्यंजन (जगत्+विनोद), व्यंजन के साथ स्वर (जगत्+अम्बा)

विसर्ग के साथ स्वर (मनः+अनुकूल) तथा विसर्ग के साथ व्यंजन ( मनः+रंजन) का मेल हो सकता है।

प्रकार : सन्धि तीन प्रकार की होती है

1. स्वर सन्धि

2. व्यंजन संधि

3. विसर्ग सन्धि

1. स्वर संधि Swar Sandhi : परिभाषा, उदाहरण एवं अपवाद

स्वर के साथ स्वर के मेल को स्वर सन्धि कहते हैं।

(हिन्दी में स्वर ग्यारह होते हैं। यथा-अ. आ. इ. ई. उ, ऊ. ऋ. ए. ऐ. ओ. औं तथा व्यंजन प्रायः स्वर की सहायता से बोले जाते हैं।

जैसे ‘परम’ में ‘म’ में “अ स्वर निहित है। ‘परम’ में ‘म’ का ‘अ – तथा ‘अर्थ’ के ‘अ’ स्वर का मिलन होकर सन्धि होगी।)

sandhi in hindi, संधि किसे कहते हैं, sandhi vichchhed, sandhi ki paribhasha, संधि का अर्थ, संधि का उदाहरण, संधि का क्या अर्थ है, sandhi ke bhed, sandhi ke udaharan, sandhi ke example, sandhi ke niyam, sandhi ke bare mein bataiye, sandhi ke apvad, swar sandhi ke bhed, स्वर संधि, स्वर संधि के उदाहरण, swar sandhi ke udaharan, स्वर संधि किसे कहते हैं, स्वर संधि के कितने भेद हैं, स्वर संधि के अपवाद, swar sandhi ke example, swar sandhi kise kahate hain, swar sandhi ki paribhasha, swar sandhi ki paribhasha udaharan sahit, swar sandhi ko samjhaie, स्वर संधि को समझाइए, swar sandhi ki trick, swar sandhi kitne prakar ki hoti, swar sandhi ke example, swar sandhi ke prakar, swar sandhi ke prakar in hindi, swar sandhi ke panch bhed, swar sandhi ke panch panch udaharan likhiye
स्वर-संधि परिभाषा उदाहरण अपवाद

स्वर सन्धि पाँच प्रकार की होती है-

1 दीर्घ सन्धि

2 गुण सन्धि

3 वृद्धि सन्धि

4 यण सन्धि

5 अयादि सन्धि

(I) दीर्घ सन्धि-

दो समान हृस्व या दीर्घ स्वर मिलकर दीर्घ हो जाते हैं, इसे दीर्घ संधि कहते हैं-

1 अ + अ = आ

2 अ + आ = आ

3 आ + अ = आ

4 आ + आ = आ

5 इ + इ = ई

6 इ + ई = ई

7 ई + इ = ई

8 ई + ई = ई

9 उ + उ = ऊ

10 उ + ऊ = ऊ

11 ऊ + उ = ऊ

12 ऊ + ऊ = ऊ

उदाहरण-

1. अ + अ = आ

दाव + अनल = दावानल

नयन + अभिराम = नयनाभिराम

रत्न + अवली = रत्नावली

मध्य + अवधि = मध्यावधि

नील + अम्बर = नीलाम्बर

दीप + अवली = दीपावली

अभय + अरण्य = अभयारण्य

जठर + अग्नि = जठराग्नि

पुण्डरीक + अक्ष = पुण्डरीकाक्ष

2. अ + आ = आ

कृष्ण + आनंद = कृष्णानंद

प्राण+ आयाम = प्राणायाम

छात्र + आवास = छात्रावास

रत्न + आकर = रत्नाकर

घन + आनंद = घनानंद

अल्प + आयु = अल्पायु

कार्य + आलय = कार्यालय

धर्म + आत्मा = धर्मात्मा

भोजन + आलय = भोजनालय

पुण्य + आत्मा = पुण्यात्मा

पुस्तक + आलय = पुस्तकालय

हास्य + आस्पद = हास्यास्पद

लोक + आयुक्त = लोकायुक्त

पद + आक्रान्त = पदाक्रान्त

गज + आनन = गजानन

भय + आनक = भयानक

3. आ + अ = आ

विद्या + अर्थी = विद्यार्थी

तथा + अपि = तथापि

कक्षा + अध्यापक = कक्षाध्यापक

रचना + अवली = रचनावली

द्वारका + अधीश = द्वारकाधीश

व्यवस्था + अनुसार = व्यवस्थानुसार

कविता + अवली = कवितावली

करुणा + अमृत = करुणामृत

रेखा + अंकित = रेखांकित

मुक्ता + अवली = मुक्तावली

विद्या + अध्ययन = विद्याध्ययन

4. आ + आ = आ

आत्मा + आनंद = आत्मानंद

विद्या + आलय = विद्यालय

क्रिया + आत्मक = क्रियात्मक

प्रतीक्षा + आलय = प्रतीक्षालय

द्राक्षा + आसव = द्राक्षासव

दया +आनन्द = दयानन्द

महा + आत्मा = महात्मा

क्रिया + आत्मक = क्रियात्मक

रचना + आत्मक = रचनात्मक

कारा + आवास = कारावास

कारा + आगार = कारागार

महा + आशय = महाशय

प्रेरणा + आस्पद = प्रेरणास्पद

5. इ+ इ = ई

अति + इव = अतीव

रवि + इन्द्र = रवीन्द्र

मुनि + इन्द्र = मुनींद्र

प्रति + इक = प्रतीक

अभि + इष्ट = अभीष्ट

प्राप्ति + इच्छा = प्राप्तीच्छा

सुधि + इन्द्र = सुधीन्द्र

हरि + इच्छा = हरीच्छा

अधि + इन = अधीन

प्रति + इत = प्रतीत

अति + इव = अतीव

कवि + इन्द्र = कवीन्द्र

गिरि + इन्द्र = गिरीन्द्र

मणि + इन्द्र = मणीन्द्र

अति + इत = अतीत

अति + इन्द्रिय = अतीन्द्रिय

6. इ + ई = ई

हरि + ईश = हरीश

अधी + ईक्षक = अधीक्षक

परि + ईक्षा = परीक्षक

परि + ईक्षा = परीक्षा

अभि + ईप्सा = अभीप्सा

मुनि + ईश्वर = मुनीश्वर

वि + ईक्षण = वीक्षण

कपि + ईश = कपीश

अधि + ईक्षण = अधीक्षण

परि + ईक्षण = परीक्षण

प्रति + ईक्षा = प्रतीक्षा

वारि + ईश = वारीश

क्षिति + ईश = क्षितीश

अधि + ईश = अधीश

7. ई + इ = ई

मही + इन्द्र = महीन्द्र

लक्ष्मी + इच्छा = लक्ष्मीच्छा

यती + इन्द्र = यतीन्द्र

फणी + इन्द्र = फणीन्द्र

महती + इच्छा = महतीच्छा

शची + इन्द्र = शचीन्द्र

8. ई + ई = ई

रजनी + ईश = रजनीश

नारी + ईश्वर = नारीश्वर

नदी + ईश = नदीश

गौरी + ईश = गिरीश

फणी + ईश्वर = फणीश्वर

सती + ईश = सतीश

श्री + ईश = श्रीश

जानकी + ईश = जानकीश

भारती + ईश्वर = भारतीश्वर

नदी + ईश्वर = नदीश्वर

9. उ + उ = ऊ

भानु + उदय = भानूदय

सु + उक्ति = सूक्ति

कटु + उक्ति = कटूक्ति

बहु + उद्देश्यीय = बहूद्देश्यीय

लघु + उत्तर = लघूत्तर

मधु + उत्सव = मधूत्सव

गुरु + उपदेश = गुरूपदेश

मंजु + उषा = मंजूषा

अनु + उदित = अनूदित

10. उ + ऊ = ऊ

लघु + ऊर्मि = लघूर्मि

धातु + ऊष्मा = धातूष्मा

सिंधु + ऊर्मि = सिंधूर्मि

बहु + ऊर्जा = बहूर्जा

मधु + ऊर्मि = मधूर्मि

भानु + ऊर्ध्व = भानूर्ध्व

11. ऊ + उ = ऊ

वधू + उत्सव = वधूत्सव

भू + उपरि = भूपरि

चमू + उत्तम = चमूत्तम

वधू + उल्लास = वधूल्लास

वधू + उक्ति = वधूक्ति

चमू + उत्साह = चमूत्साह

भू + उद्धार = भूद्धार

12. ऊ + ऊ = ऊ

चमू + ऊर्जा = चमूर्जा

सरयू + ऊर्मि – सरयूर्मि

भू + ऊष्मा = भूष्मा

स्वर-संधि की परिभाषा, उदाहरण एवं अपवाद परीक्षोपयोगी दृष्टि से-

(II) गुण सन्धि-

अथवा आ के साथ इ/ई, उ/ऊ तथा ऋ के आने से वे क्रमश ए, ओ तथा अर् में बदल जाते हैं इसे गुण संधि कहते हैं-

1. अ + इ = ए

अल्प + इच्छा = अल्पेच्छा

इतर + इतर = इतरेतर

कर्म + इंद्री = कर्मेद्री

खग + इंद्र = खगेंद्र

गोप + इंद्र = गोपेन्द्र

जीत + इंद्रिय = जीतेंद्रिय

देव + इंद्र = देवेंद्र

न + इति = नेति

नर + इंद्र = नरेंद्र

पूर्ण + इंदु = पूर्णेन्दु

भारत + इंदु = भारतेंदु

सुर + इंद्र = सुरेन्द्र

विवाह + इतर = विवाहेतर

मानव + इतर = मानवेतर

स्व + इच्छा = स्वेच्छा

शब्द + इतर = शब्देतर

2. अ + ई = ए

अप + ईक्षा = अपेक्षा

आनंद + ईश्वर = आनंदेश्वर

एक + ईश्वर = एकेश्वर

खग + ईश = खगेश

गोप + ईश = गोपेश

ज्ञान + ईश – ज्ञानेश

लोक + ईश = लोकेश

अखिल + ईश = अखिलेश

प्र + ईक्षक = प्रेक्षक

सिद्ध + ईश्वर = सिद्धेश्वर

3. आ + इ = ए

महा + इंद्र = महेंद्र

रसना + इंद्रिय = रसनेंद्रिय

रमा + इंद्र = रमेंद्र

राका + इंदु = राकेंदु

सुधा + इंदु = सुधेंदु

4. आ + ई = ए

अलका + ईश = अलकेश

ऋषिका + ईश = ऋषिकेश

महा + ईश = महेश

रमा + ईश = रमेश

कमला + ईश = कमलेश

उमा + ईश = उमेश

गुडाका + ईश = गुडाकेश (शिव)

(गुडाका – नींद)

महा + ईश्वर = महेश्वर

5. अ + उ = ओ

अतिशय + उक्ति = अतिशयोक्ति

पर + उपकार = परोपकार

सर्व + उपरि = सर्वोपरि

उत्तर + उत्तर = उत्तरोत्तर

रोग + उपचार = रोगोपचार

हित + उपदेश = हितोपदेश

स + उदाहरण = सोदाहरण

प्रवेश + उत्सव = प्रवेशोत्सव

स + उत्साह = सोत्साह

स + उद्देश्य = सोद्देश्य

6. आ + उ = ओ

आत्मा + उत्सर्ग = आत्मोत्सर्ग

करुणा + उत्पादक= करुणोत्पादक

गंगा + उदक = गंगोदक (गंगाजल)

महा + उरु = महोरु

यथा + उचित = यथोचित

सेवा + उपरांत = सेवोपरांत

होलिका + उत्सव = होलिकोत्सव

7. अ + ऊ = ओ

जल + ऊर्मि = जलोर्मि

जल + ऊष्मा = जलोष्मा

नव + ऊढ़ = नवोढ़ा

सूर्य + ऊष्मा = सूर्योष्मा

समुद्र + ऊर्मि = समुद्रोर्मि

नव + ऊर्जा = नवोर्जा

8. आ + ऊ = ओ

महा + ऊर्जा = महोर्जा

महा + ऊर्मि = महोर्मि

गंगा + ऊर्मि = गंगोर्मि

यमुना + ऊर्मि = यमुनोर्मि

सरिता + ऊर्मि = सरितोर्मि

9. अ + ऋ = अर्

उत्तम + ऋण = उत्तमर्ण (ऋण देने वाला)

अधम + ऋण = अधमर्ण (ऋण लेने वाला)

कण्व + ऋषि = कण्वर्षि

देव + ऋषि = देवर्षि

देव + ऋण = देवर्ण

वसंत + ऋतु = वसंतर्तु

सप्त + ऋषि = सप्तर्षि

10. आ + ऋ = अर्

वर्षा + ऋतु = वर्षर्तु

महा + ऋषि = महर्षि

महा + ऋण = महर्ण

(III) वृद्धि संधि-

अ अथवा आ के साथ ए अथवा ऐ या ओ अथवा औ के आने से दोनों मिलकर क्रमशः ऐ तथा औ में बदल जाते हैं इसे वृद्धि संधि कहते हैं-

1. अ + ए = ऐ

एक + एक = एकैक

हित + एषी = हितैषी

धन + एषी = धनैषी

शुभ + एषी = शुभैषी

वित्त + एषणा = वित्तैषणा

पुत्र + एषणा = पुत्रैषणा

धन + एषणा = धनैषणा

विश्व + एकता = विश्वैकता

2. आ + ए = ऐ

तथा + एव = तथैव

वसुधा + एव = वसुधैव

सदा + एव = सदैव

महा + एषणा = महैषणा

3. अ + ऐ = ऐ

विश्व + ऐक्य – वैश्विक

मत + ऐक्य – मतैक्य

धर्म + ऐक्य = धर्मैक्य

विचार + ऐक्य = विचारैक्य

धन + ऐश्वर्य = धनैश्वर्य

स्व + ऐच्छिक = स्वैच्छिक

4. आ + ऐ = ऐ

महा + ऐश्वर्य = महैश्वर्य

गंगा + ऐश्वर्य = गंगैश्वर्य

5. अ + ओ = औ

जल + ओक = जलौक

जल + ओघ = जलौघ

परम + ओजस्वी = परमौजस्वी

6. अ + औ = औ

भाव + औचित्य = भावौचित्य

भाव + औदार्य = भावौदार्य

परम + औदार्य = परमौदार्य

मिलन + औचित्य = मिलनौचित्य

मंत्र + औषधि = मंत्रौषधि

जल + औषधि = जलौषधि

7. आ + ओ = औ

गंगा + ओक = गंगौक

महा + ओज = महौज

महा + ओजस्वी = महौजस्वी

8. आ + औ = औ

महा + औषधि = महौषधि

महा + औदार्य = महौदार्य

वृथा + औदार्य = वृथौदार्य

मृदा + औषधि = मृदौषधि

(IV) यण् संधि-

इ/ई, उ/ऊ अथवा ऋ के साथ कोई असमान स्वर आए तो इ/ई का य् , उ/ऊ का व् तथा ऋ का र् हो जाता है तथा असमान स्वर य् , व् , र् में मिल जाता है इसे यण् संधि कहते हैं-

(असमान स्वर से तात्पर्य है कि इ/ई के साथ इ/ई को छोड़कर अन्य कोई भी स्वर इसी प्रकार उ/ऊ के साथ उ/ऊ को छोड़कर अन्य कोई भी स्वर तथा ऋ के साथ ऋ को छोड़कर अन्य कोई भी स्वर)

1. इ/ई + असमान स्वर = य्

अति + अधिक = अत्यधिक

अति + अंत = अत्यंत

अभि + अर्थी – अभ्यर्थी

इति + अलम् = इत्यलम्

परि + अवसान = पर्यवसान

परि + अंक = पर्यंक (पलंग)

प्रति + अर्पण = प्रत्यर्पण

वि + अवहार = व्यवहार

वि+अंजन = व्यंजन

वि + अष्टि = व्यष्टि

वि + अय = व्यय

अति + आवश्यक = अत्यावश्यक

अधि + आदेश = अध्यादेश

इति + आदि = इत्यादि

अधि + आपक = अध्यापक

उपरि + उक्त = उपर्युक्त

अभि + उदय = अभ्युदय

वि + उत्पत्ति = व्युत्पत्ति

प्रति + उपकार = प्रत्युपकार

नि + ऊन = न्यून

वि + ऊह = व्यूह

प्रति + एक = प्रत्येक

देवी + अर्पण = देव्यर्पण

नारी + उचित = नर्युचित

सखी + आगमन = सख्यागमन

2. उ/ऊ + असमान स्वर = व्

अनु + अय = अन्वय

तनु + अंगी = तन्वंगी

मनु + अंतर = मन्वंतर

सु + अच्छ = स्वच्छ

गुरु + आज्ञा = गुर्वाज्ञा

मधु + आचार्य = मध्वाचार्य

साधु + आचरण = साध्वाचरण

अनु + इति = अन्विति

धातु + इक = धात्विक

लघु + ओष्ठ = लघ्वोष्ठ

शिशु + ऐक्य = शिश्वैक्य

गुरु + औदार्य = गुर्वौदार्य

चमू + अंग = चम्वंग

वधू + आगमन = वध्वागमन

3. ऋ + असमान स्वर = र्

(यहां यण् संधि में एक विशेष नियम काम करता है जिसके अंतर्गत ऋ के साथ असमान स्वर मिलने से ऋ का र् हो जाता है तथा पितृ शब्द में आया अंतिम त हलंत रह जाता है ऐसी स्थिति में हलंत त और र् का मेल होने से दोनों मिलकर त्र् हो जाते हैं और त्र् में असमान स्वर मिल जाता है)
जैसे-

पितृ + अनुमति = पित्रनुमति

मातृ + आज्ञा = मात्राज्ञा

भ्रातृ + आनंद = भ्रात्रानंद

पितृ + इच्छा = पित्रिच्छा

मातृ + उपदेश = मात्रुपदेश

भ्रातृ + उत्कंठा = भ्रात्रुत्कंठा

वक्तृ + उद्बोधन = वक्त्रुद्बोधन

दातृ + उदारता = दात्रुदारता

स्वर-संधि की परिभाषा, उदाहरण एवं अपवाद परीक्षोपयोगी दृष्टि से-

(V) अयादि सन्धि-

  • ए, ऐ, ओ, औ के साथ कोई असमान स्वर आए तो ए का अय् , ऐ का आय् , ओ का अव् तथा औ का आव् हो जाता है तथा असमान स्वर अय् ,आय् ,अव् ,आव् में मिल जाता है इसे अयादि संधि कहते हैं-

(असमान स्वर से तात्पर्य है कि ए, ऐ, ओ, औ के साथ ए, ऐ, ओ, औ को छोड़कर अन्य कोई भी स्वर)

1. ए + असमान स्वर = अय्

चे + अन = चयन

ने + अन = नयन

प्रले + अ= प्रलय

विजे + व = विजय

जे + अ = जय

ने + अ = नय

ले + अ = लय

विजे + ई = विजयी

2. ऐ + असमान स्वर = आय्

गै + अक = गायक

गै + अन = गायन

नै + अक = नायक

विधै + अक = विधायक

गै + इका = गायिका

नै + इका = नायिका

विधै + इका = विधायिका

दै + अनी = दायिनी

दै + इका = दायिका

3. ओ + असमान स्वर = अव्

पो + अन = पवन

भो + अन = भवन

श्रो + अन = श्रवण

हो + अन = हवन

भो + अति = भवति

पो + इत्र = पवित्र

भो + इष्य = भविष्य

4. औ + असमान स्वर = आव्

धौ + अन = धावन

पौ + अक = पावक

भौ + अक = भावक

शौ + अक = शावक

श्रौ + अक = श्रावक

पौ + अन = पावन

श्रौ + अन = श्रावण

भौ + अना = भावना

नौ + इक = नाविक

धौ + इका = धाविका

भौ + उक = भावुक

स्वर सन्धि के अपवाद

प्र + ऊढ़़ = प्रौढ़

अक्ष + ऊहिणी = अक्षौहिणी

स्व + ईरिणी = स्वैरिणी

स्व + ईर = स्वैर

दश + ऋण = दशार्ण

सुख + ऋत = सुखार्त

अधर + ओष्ठ = अधरोष्ठ/अधरौष्ठ

बिम्ब + ओष्ठ = बिम्बोष्ठ/बिम्बौष्ठ

दन्त + ओष्ठ = दन्तोष्ठ/दन्तौष्ठ

शुद्ध + ओदन = शुद्धोदन/शुद्धौदन

मिष्ट + ओदन = मिष्टोदन/मिष्टौदन

दुग्ध + ओदन = दुग्धोदन/दुग्धौदन

शुक + ओदन = शकोदन/शुकौदन

घृत + ओदन = घृतोदन/घृतौदन

इन्हें भी अवश्य पढ़िए-

1. स्वर सन्धि

2. व्यंजन संधि

3. विसर्ग सन्धि

मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या – Mokshagundam Visvesvaraya

मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या Mokshagundam Visvesvaraya – आधुनिक भारत के निर्माता

भारतीय इंजीनियर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या – Mokshagundam Visvesvaraya के संपूर्ण जीवन परिचय के साथ-साथ अभियंता दिवस, उनकी शिक्षा, कार्य, पुरस्कार एवं सम्मान के बारे में पूरी जानकारी जानेंगे।

एक 6 वर्षीय बालक अपने घर के बरामदे में खड़ा बारिश का दृश्य देख रहा था बालक के घर के पास बहने वाली नाली का पानी उमड़ घुमड़ रहा था।

उसमें छोटे-छोटे भंवर उठ रहे थे और कहीं कहीं और सोनाली ने प्रपात का रूप ले रखा था बहाव अपने साथ कई छोटे-बड़े कंकड़ मित्रों को भी बधाई ले जा रहा था।

अचानक कुछ अवश्य मालिक ने देखा कि ताड़ पत्र की छतरी हाथ में लिए एक आकृति खड़ी है बालक उस आकृति को भलीभांति पहचानता था उसके कपड़े फटे हुए थे वह एक झोपड़ी में रहती थी उसके बच्चे कभी स्कूल नहीं जाते थे।

वह गरीब थी मैं छोटा सा बालक बड़ी गंभीरता से प्रकृति और गरीबी के कारणों को जानने का प्रयास करता।

अपने अध्यापकों से वाद-विवाद करता परिवार वालों से जानने का प्रयास करता यह बालक था आधुनिक भारत का निर्माता सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया हम भारत के औद्योगिक विकास में इनकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण थी।

मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या
मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या

मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या जीवन परिचय

आइए अब जानते हैं भारतीय इंजीनियर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या के संपूर्ण जीवन परिचय के साथ-साथ अभियंता दिवस, उनकी शिक्षा, कार्य, पुरस्कार एवं सम्मान के बारे में पूरी जानकारी-

विश्वेश्वरैया के पूर्वज आंध्र प्रदेश के कुरनूल जिले के मोक्षगुंडम गांव के निवासी थे।

सैकड़ों वर्ष पूर्व इनका परिवार तात्कालिक मैसूर राज्य (वर्तमान कर्नाटक) के कोलार जिले के मुद्देनाहल्ली गांव में आ बसे।

यह गांव वर्तमान बेंगलुरु शहर से 60 किलोमीटर दूर है।

इसी गांव में मोक्षगुंडम श्रीनिवास शास्त्री और वेंकटलक्ष्म्मा के घर 15 सितंबर 1860 को विश्वेश्वर्या का जन्म हुआ।

यह दशक भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी दशक में रवींद्र नाथ टैगोर (1861), प्रफुल्ल चंद्र राय (1861), मोतीलाल नेहरू 1861, मदनमोहन मालवीय (1861), स्वामी विवेकानंद (1863), आशुतोष मुखर्जी (1864), लाला लाजपत राय (1865), गोपाल कृष्ण गोखले (1866) और महात्मा गांधी (1869) जैसे महापुरुषों का जन्म हुआ।

दक्षिण भारतीय परंपरा के अनुसार यहां के लोग अपने बच्चों के नाम के साथ अपने पैतृक गांव का नाम भी जोड़ते हैं, अतः विश्वेश्वरिया के नाम के साथ भी उनका पैतृक गांव मोक्षगुंडम का नाम उनके माता-पिता ने जोड़ दिया और उनका नामकरण हुआ मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया। मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया आगे चलकर सर एम वी के नाम से विख्यात हुए।

शिक्षा

आइए अब जानते हैं भारतीय इंजीनियर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या के संपूर्ण जीवन परिचय के साथ-साथ अभियंता दिवस, उनकी शिक्षा, कार्य, पुरस्कार एवं सम्मान के बारे में पूरी जानकारी-

विश्वेश्वर्या जो 5 वर्ष के थे तभी उनका परिवार चिकबल्लापुर आ गया चिकबल्लापुर में ही इनकी आरंभिक शिक्षा हुई हाईस्कूल तक की शिक्षा उन्होंने इसी गांव के विद्यालय से प्राप्त की पिता की मृत्यु के बाद यह बेंगलुरु अपने मामा के पास चले आए उस समय इनकी आयु 12 वर्ष थी।

यहां आकर विश्वेश्वर्या ने सेंट्रल कॉलेज में प्रवेश लिया और 1880 में बीए की परीक्षा विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण की इसके बाद विश्वेश्वर्या इंजीनियरिंग की पढ़ाई करना चाहते थे लेकिन घरेलू परिस्थितियों इस बात की आज्ञा नहीं देती थी कि यह इंजीनियरिंग कॉलेज में जा सके सौभाग्य से ने मैसूर राज्य से छात्रवृत्ति मिल गई और उन्होंने पुणे के साइंस कॉलेज में प्रवेश ले लिया।

यहां उन्होंने सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की 1883 में मुंबई विश्वविद्यालय के समस्त कॉलेजों में सर्वोच्च अंक प्राप्त कर विश्वेश्वरैया ने इंजीनियरिंग की डिग्री भी प्राप्त कर ली। इस सफलता पर उन्हें उस समय का प्रतिष्ठित जेम्स बोर्कले मेडल भी प्राप्त हुआ।

प्रथम नियुक्ति

1884 में विश्वेश्वरय्या की नियुक्ति मुंबई प्रेसिडेंसी सरकार के लोक निर्माण विभाग में नासिक में हुई।

मुंबई प्रेसिडेंसी में आप 1908 ईस्वी तक रहे।

इस समयावधि में विश्वेश्वरैया ने पूना (पुणे), कोल्हापुर, धारवाड़, बेलगाम बीजापुर आदि कई शहरों की जलापूर्ति योजना तैयार की।

नियमित कार्यों के साथ-साथ विश्वेश्वरैया बाढ़ नियंत्रण, बांध सुदृढ़ीकरण, जलापूर्ति, नगरीय विकास, सार्वजनिक निर्माण, सड़क, भवन इत्यादि के निर्माण की महत्वाकांक्षी योजनाओं से जुड़े रहे।

सक्खर में स्वच्छ जल

1892 में जब सक्खर (सिंध) नगर परिषद सक्खर शहर की जलापूर्ति योजना में असमर्थ हो गयी थी।

तो विश्वेश्वरैया ने ही सक्खर शहर को स्वच्छ जलापूर्ति करवायी।

यह उनकी ही बुद्धि का परिणाम था कि सिंधु नदी के पास ही एक कुआं खोदकर उसमें रेत की कई परतें बिछाई गई और उसे एक सुरंग द्वारा नदी से जोड़ दिया गया।

सुरंग से कुएं में आने वाला पानी स्वतः ही रेत से रिस-रिस कर फिल्टर हो जाता।

जिसे पंप द्वारा पहाड़ की चोटी पर ले जाया गया और वहां से शहर में जलापूर्ति की गयी।

पुणे में विश्वेश्वरैया

पुणे में विश्वेश्वरैया ने सिंचाई की नई पद्धति जिसे सिंचाई की ब्लॉक पद्धति कहा जाता है प्रारंभ की।

जिससे नहर के पानी की बर्बादी को रोका जा सके।

1901 में विश्वेश्वरैया ने बांधों की जल भंडारण क्षमता में वृद्धि के लिए विशेष प्रकार के जलद्वारों का निर्माण किया।

इन विशेष जलद्वारों से बांध में 25 प्रतिशत अधिक पानी भंडारण किया जा सकता था।

आज इन्हें विश्वेश्वरय्या फाटक कहते हैं। विश्वेश्वरैया ने इनका पेटेंट अपने नाम से करवाया।

इन फाटकों का पहला प्रयोग मुथा नदी की बाढ़ पर नियंत्रण के लिए खडकवासला में किया गया।

इस सफल प्रयोग के बाद तिजारा बांध ग्वालियर, कृष्णसागर बांध मैसूर और अन्य बड़े बांधों में इन जलद्वारों का सफल प्रयोग किया गया।

अदन बंदरगाह की छावनी में पानी की समस्या

1906 अदन बंदरगाह के सैनिक छावनी पीने के पानी की भारी कमी थी।

इस समस्या के निवारण के लिए विश्वेश्वरिया को वहां भेजा गया।

विश्वेश्वरैया ने अदन से 97 किलोमीटर दूर उत्तर की ओर पहाड़ी क्षेत्र की खोज की जहां पर्याप्त वर्षा होती थी।

क्षेत्र में बहने वाली नदी के तल में बंद मुंह वाले कुएँ बनाए गए और वर्षा जल को एकत्र कर पम्पों द्वारा अदन बंदरगाह तक पहुंचाया गया।

हैदराबाद में सेवाएं

1907-08 तक मुंबई प्रेसिडेंसी में सेवाएं देने के बाद 1909 में हैदराबाद के निजाम का एक अनुरोध विश्वेश्वरय्या को प्राप्त हुआ।

इस अनुरोध पर उन्होंने बाढ़ से नष्ट हुए हैदराबाद शहर का पुनर्निर्माण तथा भविष्य में बाढ़ से बचने की विशेष योजना तैयार की।

मैसूर राज्य के चीफ इंजीनियर और दीवान

मुंबई प्रेसिडेंसी के सेवा में रहते हुए 1907 में कुछ समय के लिए विश्वेश्वरिया तीन सुपरीटेंडेंट इंजीनियरों का उत्तर दायित्व संभाल रहे थे

परंतु वे जानते थे कि यहां रहते हुए वे चीफ इंजीनियर के पद पर कभी नहीं पहुंच सकते।

क्योंकि यह पद केवल अंग्रेजों के लिए ही सुरक्षित था।

1907 में उन्होंने राजकीय सेवा से त्यागपत्र दे दिया और विदेश भ्रमण के लिए चले गए।

1909 में विश्वेश्वरैया को मैसूर राज्य से चीफ इंजीनियर पद के लिए आमंत्रित किया गया।

उन्होंने सरकार से पहले यह आश्वासन लिया कि उनकी योजनाएं पूरी करने में कोई उच्चाधिकारी अकारण ही बाधा नहीं डालेगा।

सरकार द्वारा आश्वस्त किए जाने के बाद 1909 में विश्वेश्वरैया ने चीफ इंजीनियर का कार्यभार संभाल लिया।

इसके साथ ही उन्हें रेल सचिव भी नियुक्त किया गया।

कार्यभार संभालते ही विश्वेश्वरैया ने राज्य में सिंचाई और बिजली की तरफ ध्यान दिया

और रेलों का जाल बिछाने के लिए एक महत्वकांक्षी योजना तैयार की।

1912 में विश्वेश्वर्या को मैसूर राज्य का दीवान बना दिया गया किसी इंजीनियर का इस पद पर पहुंचना पहली बार हुआ था।

इसलिए यह लोगों में एक आश्चर्य का विषय भी था।

मैसूर राज्य में शिक्षा

मैसूर राज्य के दीवान पद पर रहते हुए विश्वेश्वरैया ने अनेक योजनाएं पूरी की।

इसके साथ ही उन्होंने राज्य की शिक्षा की तरफ भी पर्याप्त ध्यान दिया।

उन्हीं के प्रयासों से मैसूर विश्वविद्यालय की स्थापना हुई जो देसी रियासतों में पहला विश्वविद्यालय था।

मैसूर में औद्योगिकरण

विश्वेश्वरैया के अथक प्रयासों से मैसूर राज्य में रेशम, चंदन के तेल, साबुन, धातु, चमड़ा रंगने आदि के कारखाने लगे।

भद्रावती में लौह इस्पात कारखाने की योजना भी विश्वेश्वरिया की ही देन है।

उन्हीं के प्रयासों से अक्टूबर 1913 में बैंक ऑफ मैसूर की स्थापना हुयी।

दीवान का पद त्याग

1917-18 में जब विश्वेश्वरैया की ख्याति अपने चरमोत्कर्ष पर थी तब उनके विरोधी राज्य में तरह-तरह की अफवाहें उड़ा रहे थे।

उन्होंने राजा तथा दीवान के बीच अविश्वास का वातावरण उत्पन्न कर दिया था।

जिसके कारण 1918 में विश्वेश्वरैया ने दीवान का पद छोड़ दिया।

दीवान का पद छोड़ने के बाद विश्वेश्वरैया स्वतंत्र रहकर कार्य करने लगे।

1923 में उन्होंने भद्रावती के लोहे के कारखाने का अध्यक्ष बनना स्वीकार किया, बेंगलुरु के लिए पेयजल योजना तैयार की।

1927 में कृष्णराजा सागर बांध से संबंधित नहरों व सुरंगों का काम पूरा किया।

हीराकुंड बांध और विश्वेश्वरैया

1937 में उड़ीसा में आई विनाशकारी बाढ़ से दुखी होकर महात्मा गांधी ने विश्वेश्वरैया से अनुरोध किया कि वे उड़ीसा जाकर बाढ़ से रोकथाम संबंधी कार्य करें।

1938 में विशेष औरैया में महा नदी के डेल्टा का गहन अध्ययन किया।

और अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी इसी रिपोर्ट के आधार पर हीराकुंड बांध का निर्माण हुआ।

भारत की प्रथम बहुउद्देश्यीय परियोजना

1902 में शिवसमुद्रम झरने पर बिजली घर लगाया गया। लेकिन योजना लगभग असफल रही।

मैसूर सरकार के सामने कोलार की खानों को पर्याप्त बिजली देने की चुनौती आ गयी।

इस समय मैसूर राज्य के चीफ इंजीनियर विश्वेश्वरैया थै जो बिजली विभाग के सचिव भी थे।

उन्होंने एक महत्वकांक्षी योजना तैयार की। इसके अंतर्गत कावेरी नदी पर एक बहुत बड़ा जलाशय बनाने की योजना थी।

यह परियोजना लगभग 253 करोड रुपए की थी।

सबसे बड़ी समस्या इसे वित्त विभाग से मंजूरी दिलवाने की थी।

उसके बाद भी अनेक समस्याएं आ रही, लेकिन सभी समस्याओं पर विजय प्राप्त कर 1911 में बांध की नींव डाली गयी।

केवल नींव डालना ही काफी नही था, बहुत सी मानवीय और प्राकृतिक आपदाएं इस परियोजना में आती रही।

लेकिन फिर भी विश्वेश्वरैया जी ने समय पर परियोजना को पूरा कर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया।

कावेरी नदी पर कृष्णा राजा सागर बांध बन जाने से कर्नाटक कि एक लाख एकड़ भूमि पर सिंचाई होने लगी चीनी के मिलें, रुई की मिलें, सूती कपड़े की मिलें लगाई गयी।

बिजली बनाने के लिए विशाल बिजलीघर लगाया गया, जिससे कोलार की खानों की बिजली आवश्यकता पूरी करने के बाद भी अनेक उद्योगों को बिजली दी गयी।

अनेक शहरों में पेयजल योजनाओं को पूरा इसी जलाशय के माध्यम से किया गया।

अन्य कार्य

देश में उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए विश्वेश्वरैया ने अखिल भारतीय निर्माता संघ की स्थापना की सन 1941 से 1956 तक वहीं संघ के अध्यक्ष रहे।

अनेक सरकारी व गैर सरकारी समितियों से जुड़े रहे 1922 में वे नई दिल्ली नगर निर्माण कमेटी के सदस्य बने उसी वर्ष उन्हे सर्वदलीय प्रतिनिधि राजनीतिक कॉन्फ्रेंस की अध्यक्षता करने का मौका मिला।

विश्वेश्वरैया जी ने लगभग 70 वर्षों तक देश की सेवा की।

1960 में उनका जन्म शताब्दी वर्ष पूरे देश में धूमधाम के साथ मनाया गया।

पुरस्कार एवं सम्मान

आइए अब जानते हैं भारतीय इंजीनियर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या के संपूर्ण जीवन परिचय के साथ-साथ अभियंता दिवस, उनकी शिक्षा, कार्य, पुरस्कार एवं सम्मान के बारे में पूरी जानकारी-

7 सितंबर 1955 के दिन विश्वेश्वरैया को देश के सर्वोच्च नागरिक से भारत रत्न से अलंकृत किया गया।

इससे पूर्व भी इन्हे अनेक पुरस्कार प्राप्त हो चुके थे परंतु भारत रत्न के साथ-साथ जो सबसे महत्वपूर्ण सम्मान भारत सरकार द्वारा प्रदान किया गया वह था।

इनके जन्म दिवस 15 सितंबर को राष्ट्रीय अभियंता दिवस के रूप में बनाए जाने की घोषणा करना।

अन्य पुरस्कार

सन् 1911 में दिल्ली दरबार में उन्हें कम्पैनियन ऑफ इंडियन इम्पायर (सी० आई० ई०) के खिताब से सम्मानित किया गया था।

मैसूर राज्य में वाइसराय की यात्रा के बाद सन् 1915 में वे नाइट कमांडर ऑफ दी आर्डर ऑफ दी इंडियन इम्पायर (के० सी० आई० ई०) से सम्मानित किए गए थे।

इस प्रकार वे सर विश्वेश्वरैया बने।

विश्वेश्वरैया को आठ विश्वविद्यालयों से मानद उपाधियाँ प्राप्त हुईं।

बम्बई और मैसूर विश्वविद्यालयों से एल-एल० डी०
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय और आंध विश्वविद्यालय से डी० लिट्०
कोलकाता, पटना, इलाहाबाद और जादवपुर विश्वविद्यालयों द्वारा उन्हें डी० एस० की मानद उपाधियाँ दी गईं।

उन्होंने समय-समय पर अनेक विश्वविद्यालयों के दीक्षांत-भाषण भी दिए

रायल एशियाटिक सोसायटी, काउंसिल ऑफ बंगाल, कलकत्ता द्वारा फरवरी 1958 में विश्वेश्वरैया को दुर्गा प्रसाद खेतान स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ।

वे सन् 1887 में ही इंस्टीट्यूट ऑफ सिविल इंजीनियर्स के सह सदस्य बन गए थे। सन् 1904 में सदस्य।

सन् 1952 में उनका नाम इंस्टीट्यूट की सूची में बगैर शुल्क के रखना तय हुआ।

इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियर्स (भारत) के तो वे सन् 1943 से सम्मानित आजीवन सदस्य थे।

इंडियन साइंस कांग्रेस एसोसिएशन के सम्मानित सदस्य

इंस्टीट्यूट ऑफ टाउन प्लानिंग (भारत) के सम्मानित फैलो भी रहे।

भारत के विश्व प्रसिद्ध संस्थान इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस बंगलौर की कोर्ट के लगातार 9 वर्षों तक अध्यक्ष रहे।

टाटा आयरन और स्टील कम्पनी के लगभग 28 वर्षों तक डायरेक्टर रहे।

उन्होंने जनवरी 1923 में लखनऊ में हुए इंडियन कांग्रेस के अधिवेशन की अध्यक्षता की।

विश्वेश्वरैया के जन्म शताब्दी पर भारत सरकार ने एक विशेष डाक टिकट जारी किया।

मृत्यु

अपने 102 वर्ष के लंबे जीवन काल में इन्होंने छोटे-बड़े अनेक कार्य किए और 1962 में उन्होंने अपनी भौतिक दे को त्याग कर परलोक गमन किया।

आशा है कि आपको भारतीय इंजीनियर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या के संपूर्ण जीवन परिचय के साथ-साथ अभियंता दिवस, उनकी शिक्षा, कार्य, पुरस्कार एवं सम्मान के बारे में पूरी जानकारी पसंद आयी होगी।

विकिपीडिया लिंक- मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या

मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या – आधुनिक भारत के निर्माता

भारत रत्न डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन

सुंदर पिचई का जीनव परिचय (Biography of Sundar Pichai)

मेजर ध्यानचंद (हॉकी के जादूगर)

सिद्ध सरहपा

गोरखनाथ 

स्वयम्भू

महाकवि पुष्पदंत

महाकवि चंदबरदाई

मैथिल कोकिल विद्यापति

व्यंजन संधि Vyanjan Sandhi

व्यंजन संधि Vyanjan Sandhi

व्यंजन संधि Vyanjan Sandhi | परिभाषा | नियम | प्रकार | स्वर सन्धि व्यंजन सन्धि विसर्ग सन्धि अपवाद के बारे में विस्तृत जानकारी

Vyanjan Sandhi व्यंजन का व्यंजन अथवा स्वर के साथ मेल होने से जो विकार उत्पन्न होता है उसे व्यंजन संधि कहते हैं।
ऋक् + वेद = ऋग्वेद
शरद् + चंद्र = शरच्चन्द्र

सन्धि

परिभाषा- दो ध्वनियों (वर्णों) के परस्पर मेल को सन्धि कहते हैं। अर्थात् जब दो शब्द मिलते हैं तो प्रथम शब्द की अन्तिम ध्वनि (वर्ण) तथा मिलने वाले शब्द की प्रथम ध्वनि के मेल से जो विकार होता है उसे सन्धि कहते हैं।
ध्वनियों के मेल में स्वर के साथ स्वर (परम+ अर्थ)
स्वर के साथ व्यंजन (स्व+छंद)
व्यंजन के साथ व्यंजन (जगत्+विनोद), व्यंजन के साथ स्वर (जगत्+अम्बा)
विसर्ग के साथ स्वर (मनः+अनुकूल) तथा विसर्ग के साथ व्यंजन ( मनः+रंजन) का मेल हो सकता है।

सन्धि की परिभाषा, नियम, प्रकार एवं स्वर सन्धि, व्यंजन सन्धि तथा विसर्ग सन्धि के बारे में विस्तृत जानकारी

प्रकार

सन्धि तीन प्रकार की होती है

1. स्वर सन्धि

2. व्यंजन संधि

3. विसर्ग सन्धि

1. किसी भी वर्ग के पहले व्यंजन के बाद किसी भी वर्ग का तीसरा, चौथा व्यंजन अथवा य, र, ल, व, ह या कोई स्वर में से कोई आए तो पहला व्यंजन अपने वर्ग का तीसरा व्यंजन हो जाता है।
यदि व्यंजन से स्वर का मेल होता है तो जो स्वर की मात्रा होगी वो हलन्त वर्ण में जुड़ जाएगी।
यदि व्यंजन से व्यंजन का मिलन होगा तो वे हलन्त ही रहेंगे।

(व्यंजनों का वर्गीकरण जानने के लिए यहाँ स्पर्श करें)

व्यंजन संधि Vyanjan Sandhi | परिभाषा | नियम | प्रकार | स्वर सन्धि व्यंजन सन्धि विसर्ग सन्धि अपवाद | Vyanjan Sandhi | Swar Sandhi | Visarga
व्यंजन संधि Vyanjan Sandhi

1. क् का ग् में परिवर्तन

ऋक् + वेद = ऋग्वेद

दिक्+दिगंत = दिग्दिगंत

दिक्+वधू = दिग्वधू

दिक्+हस्ती – दिग्हस्ती

दृक् + अंचल – दृगंचल

दिक्+अंबर = दिगम्बर

दिक्+अंचल = दिगंचल

दिक्+गयंद = दिग्गयंद (दिशाओं के हाथी)

दिक्+दर्शन = दिग्दर्शन

दिक्+वारण = दिग्वारण

दिक्+विजय = दिग्विजय

दृक्+विकार = दृग्विकार

प्राक् + ऐतिहासिक = प्रागैतिहासिक

दिक्+गज – दिग्गज

दिक्+अंत = दिगंत

दिक्+ज्ञान = दिग्ज्ञान

वाक्+ईश = वागीश

वाक्+ईश्वरी = वागीश्वरी

वाक्+देवी = वाग्देवी

वाक्+दुष्ट = वाग्दुष्ट

वाक्+विलास = वाग्विलास

वाक्+वैभव = वाग्वैभव

वाक्+वज्र = वाग्वज्र

वाक्+अवयव = वागवयव

वाक्+व्यापार = वाग्व्यापार

वाक्+जड़ता = वाग्जड़ता

वाक्+दत्ता = वाग्दत्ता

वाक्+वितंड = वाग्वितंड

वाक्+हरि = वाग्हरि/वाघरि

वाक्+दंड = वाग्दंड

वाक्+दान = वाग्दान

वाक्+जाल = वाग्जाल

2. च् का ज् में परिवर्तन

अच् + आदि = अजादि

अच् + अंत = अजंत

3. ट् का ड् में परिवर्तन

षट्+गुण = षड्गुण

षट्+यंत्र = षड्यंत्र

षट्+आनन – षडानन

षट्+दर्शन – षड्दर्शन

षट्+अंग – षडंग

षट्+रस – षड्रस

षट्+अक्षर = षडक्षर

षट्+अभिज्ञ = षडभिज्ञ

षट्+भुजा = षड्भुज

सन्धि की परिभाषा, नियम, प्रकार एवं स्वर सन्धि, व्यंजन सन्धि तथा विसर्ग सन्धि के बारे में विस्तृत जानकारी

4. त् का द् में परिवर्तन

वृहत्+आकाश = वृहदाकाश

वृहत्+आकार = वृहदाकार

जगत्+ईश = जगदीश

जगत्+अम्बा = जगदम्बा

जगत्+विनोद = जगद्विनोद

उत्+वेग = उद्वेग

उत्+यान = उद्यान

उत्+भव = उद्भव

उत्+योग = उद्योग

सत् + आनंद = सदानंद

5. प् का ब् में परिवर्तन

अप्+ज = अब्ज

अप्+द = अब्द

सुप् + अंत = सुबंत


2. किसी भी वर्ग के पहले अथवा तीसरे व्यंजन के बाद किसी भी वर्ग का पाँचवाँ व्यंजन आए तो पहला/तीसरा व्यंजन अपने वर्ग का पाँचवाँ व्यंजन हो जाता है

1. क् का ङ में परिवर्तन

दिक्+नाग = दिङ्नाग (दिशा का हाथी)

दिक्+मय = दिङ्मय

दिक्+मुख = दिङ्मुख

दिक्+मूढ़ = दिङ्मूढ

वाक्+मय = वाङ्मय

वाक्+मुख = वाङ्मुख

वणिक् + माता =  वणिङ्माता

वाक्+मूर्ति = वाङ्मूर्ति

सम्यक्+नीति = सम्यङ्नीति

सम्यक्+मात्रा = सम्यङ्मात्रा

2. ट् का ण् में परिवर्तन

षट्+मुख = षण्मुख

षट्+मूर्ति – षण्मूर्ति

षट्+मातुर = षण्मातुर

षट्+नियमावली = षण्नियमावली

षट्+नाम = षण्णाम

षट्+मास = षण्मास

सम्राट् + माता = सम्राण्माता

3. त् का न में परिवर्तन

उत्+मुख = उन्मुख

उत्+मूलन = उन्मूलन

उत्+नति = उन्नति

उत्+मार्ग = उन्मार्ग

उत्+मेष = उन्मेष

उत्+निद्रा = उन्निद्रा

उत्+मूलित = उन्मूलित

उत्+नयन = उन्नयन

उत्+मोचन = उन्मोचन

एतत् + मुरारि = एतन्मुरारी

जगत्+नायक = जगन्नायक

जगत्+मिथ्या = जगन्मिथ्या

जगत्+नियंता = जगन्नियंता

जगत्+मोहिनी = जगन्मोहिनी

तत् + मात्र = तन्मात्रा

उत्+नायक = उन्नायक

उत्+मीलित – उन्मीलित

उत्+मान = उन्मान

चित् + मय = चिन्मय

जगत्+नाथ = जगन्नाथ

जगत्+माता = जगतन्माता

जगत्+निवास = जगन्निवास

जगत्+नियम = जगन्नियम

सत्+ मार्ग = सन्मार्ग

सत्+नारी = सन्नारी

सत्+मति = सन्मति

सत्+निधि = सन्निधि

सत्+नियम = सन्नियम

4. द् का न में परिवर्तन

उपनिषद्+मीमांसा = उपनिषन्मीमांसा

उपनिषद्+मर्म = उपनिषन्मर्म

शरद्+महोत्सव = शरन्महोत्सव

शरद्+मास = शरन्मास


3. यदि म् के बाद क से म तक का कोई भी व्यंजन आए तो म् आए हुए व्यंजन के वर्ग का पाँचवाँ व्यंजन हो जाता है

1. म् का ङ् में परिवर्तन

अलम्+कृति = अलङ्कृति/अलंकृति

अलम्+कृत = अलङ्कृत/अलंकृत

अलम्+करण = अलङ्करण/अलंकरण

अलम्+कार = अलङ्कार/अलंकार

अहम्+कार = अहङ्कार/अहंकार

दीपम्+ कर = दीपङ्कर/दीपंकर

तीर्थम् + कर = तीर्थङ्कर/तीर्थंकर

भयम् + कर = भयङ्कर/भयंकर

शुभम् + कर = शुभङ्कर/शुभंकर

सम्+कलन = सङ्कलन/संकलन

सम्+कीर्तन = सङ्कीर्तन/संकीर्तन

सम्+कोच = सङ्कोच/संकोच

सम्+क्षेप = सङ्क्षेप/संक्षेप

सम्+गति = सङ्गति/संगति

सम्+गठन = सङ्गठन/संगठन

सम्+गीत = सङ्गीत/संगीत

अस्तम् + गत = अस्तङ्गत/अस्तंगत

सम्+गम = सङ्गम/संगम

सम्+घटन = सङ्घटन/संघटन

सम्+घर्ष = सङ्घर्ष/संघर्ष

सम्+घनन = सङ्नन/संघनन

2. म् का ञ् में परिवर्तन

अकिम् + चन = अकिञ्चन/अकिंचन

पम्+चम -पञ्चम/पंचम

सम् + चार = सञ्चार/संचार

चम् + चल = चञ्चल/चंचल

सम्+चय = सञ्चय/संचय

सम्+चित् = सञ्चित/संचित

अम् + जन = अञ्जन/अंजन

चिरम्+जीव = चिरञ्जीवी/चिरंजीव

चिरम्+जीत = चिरञ्जीत/चिरंजीत

धनम् + जय = धनञ्जय/धनंजय

सम्+जय = सञ्जय/संजय

सम्+ज्ञा = सञ्ज्ञा/संज्ञा

सम्+संजीवनी = सञ्जीवनी/संजीवनी

3. म् का ण् में परिवर्तन

दम् + ड = दण्ड/दंड

4. म् का न् में परिवर्तन

चिरम् + तन = चिरन्तन/चिरंतन

परम् + तु = परन्तु/परंतु

सम्+ताप = सन्ताप/संताप

सम्+तति = सन्तति/संतति

सम्+त्रास = सन्त्रास/संत्रास

सम्+तुलन = सन्तुलन/संतुलन

सम्+तुष्ट = सन्तुष्ट/संतुष्ट

सम्+तोष = सन्तोष/संतोष

सम्+देह = सन्देह/संदेह

सम्+देश = सन्देश/संदेश

सम्+धि = सन्धि/संधि

धुरम् + धर = धुरन्धर/धुरंधर

सम् + न्यासी = सन्न्यासी/संन्यासी**

किम् + नर = किन्नर*

सम्+निकट = सन्निकट*

सम्+निहित = सन्निहित*

5. म् का म् में परिवर्तन

सम्+पादक = सम्पादक/संपादक

सम्+प्रदान = सम्प्रदान/संप्रदान

सम्+प्रदाय =सम्प्रदाय/संप्रदाय

सम्+पूर्ण = सम्पूर्ण/संपूर्ण)

सम्+बोधक = सम्बोधक/संबोधक

सम्+बोधन = सम्बोधन/संबोधन

सम्+भाव = सम्भाव/संभाव

सम्+भावना = सम्भावना/संभावना

विश्वम् + भर = विश्वम्भर/विश्वंभर

अवश्यम् + भावी = अवश्यम्भावी/अवश्यंभावी

सम्+मत = सम्मत*

सम्+मान = सम्मान*

सम्+मेलन = सम्मेलन*

सम्+मुख = सम्मुख*

सम्+मोहन = सम्मोहन*
( * दो पंचम वर्ण एक साथ आने पर अनुस्वार नहीं किया जाता
** सन्न्यासी शब्द में भी उक्त नियम लागू होता है परंतु सन्न्यासी शब्द को अभी तक परीक्षाओं में संन्यासी रूप में ही पूछा गया है और इसे ही सही माना गया है व्याकरण की दृष्टि से सन्न्यासी रूप सही है)

4. यदि म् के बाद य, र, ल, व, श, ष, स, ह में से कोई भी व्यंजन आए तो म् का अनुस्वार हो जाता है

किम् + वदंती = किंवदंती

प्रियम् + वदा – प्रियंवदा

सम्+वाद = संवाद

सम्+वेदना = संवेदना

स्वयम् + वर = स्वयंवर

सम्+ विधान = संविधान

सम्+वाहक = संवाहक

सम्+शय = संशय

सम्+श्लेषण = संश्लेषण

सम्+सर्ग = संसर्ग

सम्+सार = संसार

सम्+सृति = संसृति

किम् + वा = किंवा

सम्+क्षेप = संक्षेप

सम्+त्राण = संत्राण

सम्+लाप = संलाप

सम्+योग = संयोग

सम्+यम = संयम

सम्+लग्न = संलग्न

सम्+वर्धन = संवर्धन

सम्+हार = संहार

सम्+वेदना = संवेदना

सम्+शोधन = संशोधन

सम्+स्मरण = संस्मरण

5. यदि द् के बाद क, ख, क्ष, त, थ, प, स (ट्रिक- तक्षक, सपथ, ख) में से कोई भी व्यंजन आए तो द् का त् हो जाता है

उद्+कट = उत्कट

उद्+क्षिप्त = उत्क्षिप्त

उद्+कीर्ण = उत्कीर्ण

उपनिषद् + कथा = उपनिषत्कथा

तद् + काल = तत्काल

विपद् + काल = विपत्काल

उद् + खनन = उत्खनन

आपद् + ति = आपत्ति

उद्+तर = उत्तर

उद्+तम = उत्तम

उद्+कोच = उत्कोच

उपनिषद् + काल = उपनिषत्काल

तद् + क्षण = तत्क्षण

शरद्+काल = शरत्काल

शरद्+समारोह = शरत्समारोह

शरद्+सुषमा = शरत्सुषमा

उद्+ताप = उत्ताप

उद्+तप्त = उत्तप्त

उद्+तीर्ण = उत्तीर्ण

उद्+तेजक = उत्तेजक

सम्पद् + ति = सम्पत्ति

उद्+पाद = उत्पाद

तद्+पुरुष = तत्पुरुष

उद्+फुल्ल = उत्फुल्ल

सद्+संग = सत्संग

उद्+संग = सत्संग

उद्+सर्ग = उत्सर्ग

उद्+साह = उत्साह

उपनिषद् + समीक्षा = उपनिषत्समीक्षा

संसद् + सत्र = संसत्सत्र

तद्+सम = तत्सम

संसद् + सदस्य = संसत्सदस्य

व्यंजन संधि Vyanjan Sandhi की परिभाषा, नियम, प्रकार एवं स्वर सन्धि, व्यंजन सन्धि तथा विसर्ग सन्धि के बारे में विस्तृत जानकारी

6. यदि त् अथवा द् के बाद च/छ, ज/झ, ट/ठ, ड/ढ, ल में से कोई भी व्यंजन आए तो त्/द् का क्रमशः च् , ज् ,ट् , ड् , ल् हो जाता है

1. त्/द् का च् में परिवर्तन

उत्+चारण – उच्चारण

उत्+चाटन – उच्चाटन

जगत्+चिंतन = जगच्चिंतन

भगवत् + चरण – भगवच्चरण

वृहत् + चयन् = वृहच्चयन

भगवत् + चिंतन = भगवच्चिंतन

विद्युत + चालक = विद्युच्चालक

सत्+चरित्र = सच्चरित्र

सत्+चित् + आनंद = सच्चिदानंद

शरद् + चंद्र = शरच्चंद्र

उद्+छादन = उच्छादन

उद्+छिन्न = उच्छिन्न

उद्+छेद = उच्छेद

2. त्/द् का ज् में परिवर्तन

उत् + ज्वल = उज्ज्वल

तत् + जन्य = तज्जन्य

तड़ित् + ज्योति = तड़िज्ज्योति

जगत् + जीवन = जगज्जीवन

बृहत् + जन = बृहज्जन

यावत् + जीवन – यावज्जीवन

उत् + जयिनी = उज्जयिनी

जगत् + जननी = जगज्जननी

भगवत् + ज्योति – भगज्ज्योति

बृहत् + ज्योति – बृहज्ज्योति

विपद् + जाल – विपज्जाल

विपद् + ज्वाला = विपज्ज्वाला

3. त्/द् का ट् में परिवर्तन

तत् + टीका = तट्टीका

बृहत् + टीका = बृहट्टीका

मित् + टी = मिट्टी

4. त्/द् का ड् में परिवर्तन

उत् + डयन = उड्डयन

भवत् + डमरू = भवड्डमरू

5. त्/द् का ल् में परिवर्तन

उत्+लेख = उल्लेख

उत्+लंघन = उल्लंघन

तत् + लीन – तल्लीन

तड़ित् + लेखा = तड़िल्लेखा

विपद् + लीन = विपल्लीन

शरद् + लास = शरल्लास

उत् + लिखित + उल्लिखित

विद्युत् + लेखा = विद्युल्लेखा

7. यदि त् अथवा द् के बाद श आए तो त्/द् का च् तथा श का छ हो जाता है

उत्+श्वास = उच्छ्वास

उत्+शासन = उच्छासन

उत्+शृंखल = उच्छृंखल

उत्+शिष्ट = उच्छिष्ट

उत्+शास्त्र = उच्छास्त्र

उत्+श्वास = उच्छवास

मृद् + शकटिक = मृच्छकटिक

जगत् + शान्ति = जगच्छांति

शरद् + शवि = शरच्छवि

सत् + शास्त्र = सच्छास्त्र

सत् + शासन- सच्छासन

श्रीमत् + शरत् + चंद्र = श्रीमच्छरच्चंद्र

8. यदि त् अथवा द् के बाद ह आए तो त्/द् का द् तथा ह का ध हो जाता है

उत् + हार = उद्धार

तत् + हित = तद्धित

उत् + हरण = उद्धरण

पत् + हति = पद्धति

मरुत् + हारिणी = मरुद्धारिणी

उत् + हृत = उद्धृत

9. किसी भी स्वर के बाद यदि छ आए तो छ से पहले च् का आगमन हो जाता है

वि + छेद = विच्छेद

तरु + छाया = तरुच्छाया

छत्र + छाया = छत्रच्छाया

प्रति + छाया = प्रतिच्छाया

अनु + छेद = अनुच्छेद

प्र + छन्न = प्रच्छन

स्व + छंद = स्वच्छंद

आ + छादन = आच्छादन

आ + छन्न = आच्छन्न

मातृ + छाया = मातृच्छाया

10. सम् के बाद यदि कृ धातु से बनने वाले शब्द आए तो सम् वाले म् का अनुस्वार तथा अनुस्वार के बाद स् का आगमन हो जाता है
(कृ धातु वाले प्रमुख शब्द- करण, कार, कृत, कृति, कर्ता, कार्य)

सम्+कृत = संस्कृत

सम्+कर्ता = संस्कर्ता

सम्+कृति = संस्कृति

सम्+करण = संस्करण

सम्+कार = संस्कार

सम्+कार्य = संस्कार्य

11. परि के बाद यदि कृ धातु से बनने वाले शब्द आए तो दोनों पदों के बीच ष् का आगमन हो जाता है
(कृ धातु वाले प्रमुख शब्द- करण, कार, कृत, कृति, कर्ता, कार्य)

परि+कृत = परिष्कृत

परि+करण = परिष्करण

परि+कारक = परिष्कारक

परि+कृति = परिष्कृति

परि+कार = परिष्कार

परि+कर्ता = परिष्कर्ता

परि+कार्य = परिष्कार्य

व्यंजन संधि Vyanjan Sandhi की परिभाषा, नियम, प्रकार एवं स्वर सन्धि, व्यंजन सन्धि तथा विसर्ग सन्धि के बारे में विस्तृत जानकारी

12. किसी शब्द में कहीं पर भी इ, ऋ, र, ष में से कोई आए तथा दूसरे शब्द में कहीं पर भी न आए तो न का ण हो जाता है
(विशेष- र और ष हलंत और सस्वर किसी भी रूप में हो सकते हैं)

ऋ + न = ऋण

तर + अन = तरण

दूष् + अन = दूषण

प्र+नेता = प्रणेता

प्रा + आन = प्राण

प्र+मान = प्रमाण

प्र+आंगन = प्रांगण

प्र+नाम = प्रणाम

परि + नय = परिणय

पुरा + न = पुराण

भर + अन = भरण

पोष् + अन = पोषण

मर् + अन = मरण

भूष् + अन = भूषण

परि + नति = परिणति

राम + अयन = रामायण (दीर्घ संधि-अपवाद)

शिक्ष् + अन = शिक्षण

वर्ष् + अन = वर्षण

शूर्प + नखा = शूर्पणखा

विष् + नु = विष्णु

हर् + अन = हरण

13. किसी भी स्वर के बाद यदि स आए तो स का ष हो जाता है यदि उसी पद में स के बाद में कहीं भी थ या न आये तो थ का ठ तथा न का ण क हो जाता है

अभि + सेक =अभिषेक

अभि + सिक्त =अभिषिक्त

उपनि + सद् = उपनिषद्

नि + सेध = निषेध

नि + साद = निषाद

प्रति + शोध + प्रतिषेध

वि+सम + विषम

परि + षद् = परिषद्

वि+साद = विषाद

अनु + संगी = अनुषंगी

सु+सुप्त = सुषुष्त

सु+षमा = सुषमा

सु+सुष्टि = सुषुप्ति

सु+स्मिता = सुष्मिता

जिस संस्कृत धातु में पहले स हो और बाद में ऋ या र या उससे बने शब्द के स उक्त नियम के अनुसार ष में नही बदलते जैसे-

अनु + सार = अनुसार

वि+स्मरण = विस्मरण

वि+सर्ग = विसर्ग

वि+सर्जन = विसर्जन

वि+स्मृति = विस्मृति

सन्धि की परिभाषा, नियम, प्रकार एवं स्वर सन्धि, व्यंजन सन्धि तथा विसर्ग सन्धि के बारे में विस्तृत जानकारी

14. अहन् के बाद यदि र आए तो अहन् पद में आये न् का उ हो जाता है तथा अहन् पद में आए ह व्यंजन के अंतिम स्वर अ का उ से मेल होने से गुण संधि के नियमानुसार दोनों मिलकर ओ हो जाते हैं

अहन्+रात्रि = अहोरात्र

अहन्+रूप – अहोरूप

परन्तु यदि अहन् के बाद र के अतिरिक्त कोई और वर्ण आए तो न् का र् हो जाता है

अहन्+पति = अहर्पति

अहन्+मुख = अहर्मुख

अहन्+अहन् = अहरह

अहन्+निशा = अहर्निश

15. किसी पद में यदि अंतिम व्यंजन द् हो तथा उससे पहले ऋ आए तो द् का ण् हो जाता है

मृद्+मय = मृण्मय

मृद्+मयी = मृण्मयी

मृद्+मूर्ति = मृण्मूर्ति

16. यदि ष् के बाद त/थ है हो तो त/थ का ट/ठ हो जाता है

सृष् + ति = सृष्टि

वृष + ति = वृष्टि

दृष् + ती = दृष्टि

षष् + ति = षष्टि

षष् + थ = षष्ठ

उत्कृष्ट + त = उत्कृष्ट

आकृष् + त = आकृष्ट

पुष् + त = पुष्ट

इन्हें भी अवश्य पढ़िए-

1. स्वर सन्धि

2. व्यंजन संधि

3. विसर्ग सन्धि

भारत रत्न डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन

सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जीवनी

सर्वपल्ली राधाकृष्णन Sarvepalli Radhakrishnan | 5 सितंबर | 5 September | राष्ट्रीय शिक्षक दिवस | National Teacher’s Day

बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा।
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू।
समन सकल भव रुज परिवारू॥
भावार्थ-
मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि, सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है॥

तमिलनाडु के सर्वपल्ली गांव का एक ब्राह्मण परिवार वर्षों पहले आजीविका की तलाश में मद्रास वर्तमान चेन्नई से लगभग 60 किलोमीटर दूर धार्मिक स्थल तिरुत्तनी में आ बसा।

इस ब्राह्मण परिवार में 5 सितंबर 1888 में पिता सर्वपल्ली वीरा स्वामी तथा माता सीतम्मा के यहां एक तेजस्वी पुत्र जन्म लिया।

वीरस्वामी के पूर्वज सर्वपल्ली ग्राम से तिरुत्तनी में आए थे लेकिन वह अपने पूर्व ग्राम का नाम अपने से अलग नहीं कर पाए इसलिए वे सभी अपने नाम से पूर्व अपने पूर्व ग्राम का नाम भी जोड़ते थे इसलिए इस तेजस्वी बालक का नाम रखा गया सर्वपल्ली राधाकृष्णन।

राधा कृष्ण के भाई बहनों में दूसरे स्थान पर थे। राधाकृष्णन के पिता अधिक धनवान नहीं थे।

उनके जीवनचर्या सुखपूर्वक चल रही थी। वह विद्यानुरागी, ईश्वर भक्त और धर्म आचरण करने वाले उदार ब्राह्मण थे। जिसका अत्यधिक प्रभाव राधाकृष्णन पर भी पड़ा।

सर्वपल्ली राधाकृष्णन जीवनी 5सितंबर राष्ट्रीय शिक्षक दिवस
सर्वपल्ली राधाकृष्णन जीवनी 5सितंबर राष्ट्रीय शिक्षक दिवस

प्रारंभिक जीवन एवं शिक्षा दीक्षा : सर्वपल्ली राधाकृष्णन Sarvepalli Radhakrishnan

राधाकृष्णन का प्रारंभिक जीवन तिरूत्तनी और तिरुपति जैसे धार्मिक स्थलों पर बीता। गांव तथा परिवार के धार्मिक विचारों ने बालक राधाकृष्णन को पर्याप्त प्रभावित किया।

इनके पिता धार्मिक प्रवृत्ति के ब्राह्मण थे, फिर भी इन्होंने राधाकृष्णन को 1896 में लूथर्न मिशन स्कूल तिरुपति में प्रवेश दिलाया जो कि क्रिश्चियन मिशनरी स्कूल था।

सन् 1900 में आप पढ़ने के लिए वेल्लूर चले गये और इसके बाद क्रिश्चियन कॉलेज मद्रास में शिक्षा प्राप्त की।

राधाकृष्णन ने 1902 में मैट्रिक तथा 1904 में कला संकाय प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण कर उच्च अध्ययन के लिए छात्रवृत्ति प्राप्त की।

1911 में राधाकृष्णन ने दर्शन शास्त्र में एम. ए. की उपाधि भी प्राप्त कर ली।

वैवाहिक जीवन : सर्वपल्ली राधाकृष्णन जीवनी 5सितंबर राष्ट्रीय शिक्षक दिवस

तात्कालिक परिस्थितियों और परंपराओं के अनुसार ही राधाकृष्णन् का विवाह अल्पायु में ही 1903 में शिवाकामू से हो गया।

राधाकृष्णन्-शिवाकामू दंपत्ति को अपने वैवाहिक जीवन में पांच पुत्रियां और एक पुत्र की प्राप्ति हुई।

शैक्षिक जीवन

डॉ राधाकृष्णन् ने अपने शिक्षक जीवन की शुरुआत 20 वर्ष की अवस्था में 1960 में की।

आप सर्वप्रथम प्रेसिडेंसी कॉलेज मद्रास में दर्शनशास्त्र के सहायक अध्यापक के रूप में नियुक्त हुए।

1917 तक यहां सेवाएं देते हुए आपकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी।

तत्कालिक मैसूर राज्य के दीवान और प्रसिद्ध इंजीनियर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया के आमंत्रण पर आप 1918 में मैसूर चले गये।

श्री विश्वेश्वरैया ने इन्हें महाराजा कॉलेज मैसूर में दर्शनशास्त्र का प्रोफेसर नियुक्त किया।

डॉक्टर राधाकृष्णन् 1921 तक मैसूर में रहे। जहां इनका काम अत्यंत सराहनीय रहा।

सर्वपल्ली राधाकृष्णन और कोलकाता विश्वविद्यालय

सुविख्यात शिक्षा शास्त्री सर आशुतोष मुखर्जी ने कलकत्ता विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर विभाग की स्थापना की।

इस विभाग की एक पीठ जॉर्ज पंचम प्रोफेसर ऑफ फिलॉसफी में श्री मुखर्जी ने डॉक्टर राधाकृष्णन को नियुक्त किया।

सन 1921 से 1931 तक आप कोलकाता विश्वविद्यालय में रहे।

सर्वपल्ली राधाकृष्णन और आंध्र विश्वविद्यालय

सन 1931 में राधाकृष्णन कलकत्ता विश्वविद्यालय से आंध्र विश्वविद्यालय में कुलपति नियुक्त हुए 1932 से 1941 तक डॉ राधाकृष्णन आंध्र विश्वविद्यालय तथा ऑक्सफोर्ड में स्पालडिंग चेयर ऑफ ईस्टर्न एंड एथिक्स के प्रोफेसर रहे।

यह उनकी विद्वत्ता के कारण ही संभव हो सका कि एक व्यक्ति एक साथ दो जगह पर नियुक्त हो।

डॉ राधाकृष्णन और काशी हिंदू विश्वविद्यालय

सन 1939 में सर्वपल्ली डॉ राधाकृष्णन् काशी हिंदू विश्वविद्यालय में स्वैच्छा से अवैतनिक सेवा देने लगे।

अब वे कलकत्ता विश्वविद्यालय, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय एवं काशी विश्वविद्यालय तीनों में अपनी सेवाएं दे रहे थे।

किसी भी विद्वान के लिए बहुत ही दुर्लभ क्षण होता है कि वह एक साथ ही तीन तीन विश्व प्रसिद्ध शिक्षण संस्थानों में अपनी सेवाएं दे रहा हो। यह क्रम 1948 तक सतत् चलता रहा।

सर्वपल्ली डॉक्टर राधाकृष्णन और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय

ऑक्सफोर्ड में रहते हुए राधाकृष्णन ने अनेक व्याख्यान दिए। आपके द्वारा दिए गए व्याख्यानमाला के संबंध में हिवर्ट जनरल ने लिखा “भारत के बाहर हमारे विश्वविद्यालय में व्याख्यान देखकर आपने हमारा गौरव बढ़ाया है।”

राजनीतिक जीवन

सर्वपल्ली राधाकृष्णन की कार्यकुशलता, अनुभव, बुद्धिमत्ता और प्रतिभा थी कि राजनीति से प्रत्यक्ष संबंध में होने के बाद भी स्वतन्त्रता के बाद इन्हें संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया। वे 1947 से 1949 तक इसके सदस्य रहे।

राधा कृष्ण आयोग 1948

स्वतंत्रता के पश्चात भारत सरकार ने विश्वविद्यालय शिक्षा की समीक्षा के लिए सर्वपल्ली डॉक्टर राधाकृष्णन् की अध्यक्षता में राधाकृष्णन् आयोग अथवा विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग का गठन किया।

आयोग ने अपनी रिपोर्ट अगस्त 1949 में दी। यूजीसी की स्थापना राधाकृष्णन् आयोग की ही देन है।

रूस में भारत के राजदूत

1950 में राधाकृष्णन् की विद्वता और योग्यता को देखकर भारत सरकार ने उन्हें रूस में भारत का राजदूत नियुक्त किया वह समय शीतयुद्ध का समय था और उसका दृष्टिकोण भारत के प्रति सकारात्मक नहीं था परंतु डॉ. राधाकृष्णन के कुशल नेतृत्व ने रूसी नेताओं को ऐसा मोहित किया कि सुषुप्त पड़े मैत्री संबंध प्रगाढ़ मैत्री में बदल गये।

के सी व्हियर ने डॉ राधाकृष्णन् के बारे में लिखा कि “मास्को में राधाकृष्णन् के राजदूत नियुक्त होने का विशेष अर्थ था। वहां वे पूर्णतया सफल राजदूत के रूप में विश्व के समक्ष आए।”

उप राष्ट्रपति सर्वपल्ली डॉ राधाकृष्णन् : सर्वपल्ली राधाकृष्णन Sarvepalli Radhakrishnan

सन 1952 में सर्वपल्ली डॉ राधाकृष्णन् स्वतंत्र भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति निर्वाचित हुए।

आप दो बार इस पद के लिए निर्वाचित हुए और 1962 तक इस पद को सुशोभित किया।

उपराष्ट्रपति पद के साथ-साथ आप दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे।

उपराष्ट्रपति के रूप में आपकी कार्यशैली की बहुत सराहना की गयी।

राष्ट्रपति: डॉ. राधाकृष्णन्

भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद का चयन इस सर्वोच्च पद के लिए दो बार हुआ।

डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद 1962 तक भारत के राष्ट्रपति रहे।

इसी समयावधि में सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन् उपराष्ट्रपति रहे डॉ. राजेंद्र प्रसाद के बाद राधाकृष्णन् राष्ट्रपति निर्वाचित हुए।

12 मई 1962 को आपने विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली।

इस अवसर पर बर्टेण्ड रसेल ने कहा- “फिलोसोफी सम्मानित हुई समस्त विश्व के शांतिप्रिय विवेकशील समाज ने इस चुनाव का अभिनंदन किया है।”

सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जीवनी, शैक्षिक जीवन, राष्ट्रपति जीवन, 5 सितंबर को राष्ट्रीय शिक्षक दिवस, पुरस्कार, उपलब्धियां एवं अन्य संपूर्ण जानकारी

व्याख्यान

डॉ राधाकृष्णन द्वारा दिए गए प्रमुख व्याख्यान

1926 में डॉ राधाकृष्णन ने आक्सफोर्ड के मैनचेस्टर कालेज में “दी हिन्दू न्यू आफ लाइफ” पर व्याख्यान दिया जिसमें उन्होंने हिन्दू धर्म को एक प्रगतिशील ऐतिहासिक प्रवाह के रूप में प्रतिस्थापित किया। उनके अनुसार हिन्दू धर्म आज भी गतिशील है, जिसमें दोष परम्परा और सत्य के अन्तर को भुला देने के कारण है।

डॉ राधाकृष्णन ने ब्रिटिश साम्राज्य के विश्वविद्यालयों के सम्मेलन में भाग लेते हुए अपनी प्रतिभा से पाश्चात्य जनमानस को आश्चर्यचकित किया।

1929 में डॉ राधाकृष्णन ने एन “आइडियालिस्ट न्यू आफ लाइफ” शीर्षक से व्याख्यान लन्दन तथा मैनचेस्टर विश्वविद्यालय में दिया। इस व्याख्यान मे उन्होंने सत्य के विषय में हिन्दू धर्म की अवधारणा प्रस्तुत कि जिसका पाश्चात्य जगत के अनेक विद्वानों ने समर्थन किया।

आक्सफोर्ड में उनके अनेक भाषण ईस्ट एण्ड वेस्ट इन रिलीजन’ के नाम से प्रकाशित हुए।

लन्दन की प्रतिष्ठित ब्रिटिश ऐकेडमी ने उन्हें गौतम बुद्ध पर भी भाषण देने हेतु आमंत्रित किया तथा उन्हें अपनी संस्था का सदस्य भी बनाया।

डॉ राधाकृष्णन ने कोलंबिया विश्वविद्यालय की शताब्दी समारोह के अवसर पर भारतीय संस्कृति के महत्व को स्पष्ट करते हुए अपने व्याख्यान दिया।

साहित्य सृजना : सर्वपल्ली राधाकृष्णन Sarvepalli Radhakrishnan

प्रमुख रचनाएं तथा उनके प्रकाशन वर्ष

दी इसेन्सयल्स ऑफ फिलासफी 1911

The फिलासफी ऑफ रविन्द्र नाथ टैगोर 1918

दी रेन ऑफ रिलीजन इन कन्टेम्पररी फिलॉसफी 1920

इण्डियन फिलासफी (वाल्यूम वन) 1923

दी हिन्दू व्यू ऑफ लाइफ 1926

इण्डियन फिलॉसफी (वाल्यूम टू) 1927

द रिलीजन वी नीड 1928

काल्की या दी फ्यूचर ऑफ सिविलाइजेशन 1929

एन आडियालिस्ट व्यू ऑफ लाइफ ईस्ट एण्ड वेस्ट इन रिलीजन 1932

दी हार्ट ऑफ हिन्दुस्तान 1933

फ्रीडम एण्ड कल्चर 1936

कन्टेम्पररी इंडियन फिलॉसफी 1936

रिलीजन इन ट्राजिशन 1936

‘गौतम बुद्ध 1937

‘महात्मा गांधी 1938

इण्डिया एण्ड चाइना 1939

‘एजुकेशन, पॉलिटिक्स एण्ड वॉर’ 1944

‘इज दिस पीस 1944

‘रिलीजन एण्ड सोसायटी’ 1945

‘भगवद्गीता 1947

‘ग्रेट इण्डियन्स’ 1948

‘दी यूनिवर्सिटी एजुकेशन कमीशन रिपोर्ट 1949

द धर्मपद 1949

‘एन एन्थोलोजी ऑफ राधाकृष्णन राइटिंग 1950

‘दी रिलीजन ऑफ दी स्प्रिट एण्ड वर्ल्डस नीड, 1952

‘फ्रेगमेण्टस ऑफ कन्वेंशन 1952

हिस्ट्री ऑफ फिलासफी इन ईस्ट एण्ड वेस्ट (दो वाल्यूम) 1952

दि प्रिंसिपल उपनिषद्स 1953

ईस्ट एण्ड वेस्ट, ‘सम रिफलेक्शन्स’ 1955

रिकवरी ऑफ फेथ 1956

ए सोर्स बुक इन इंडियन फिलॉस्फी (राधाकृष्णन तथा चार्ल्स मूर द्वारा सम्पादित) 1957

दी ब्रह्मसूत्र दी फिलासफी आफ स्प्रिचुअल लाइफ 1960

दी कॉन्सेप्ट आफ मेन 1960

फेलोशिप आफ फेशस 1961

आन नेहरू 1965

रिलीजन इन ए चेजिंग वर्ल्ड 1967

रिलीजन एण्ड कल्चर 1969

आवर हेरीटेज 1970

लिविंग विद ए परपज 1976

टू नालेज 1978

उपर्युक्त पुस्तकों के अतिरिक्त “राधाकृष्णन रीडर एन एनथालाजी” नामक ग्रन्थ का प्रकाशन भारतीय विद्या भवन द्वारा 1969 में किया गया है।

इसके अतिरिक्त उनके भाषणों तथा लेखों का प्रकाशन भारत सरकार द्वारा किया गया।

पुरस्कार सम्मान एवं उपलब्धियां : सर्वपल्ली राधाकृष्णन Sarvepalli Radhakrishnan

सर्वपल्ली डॉक्टर राधाकृष्णन एक महान शिक्षाविद थे देश-विदेश के अनेक विश्वविद्यालयों में उन्होंने शिक्षक के रूप में कार्य किया।

1908 से 1917 तक मद्रास प्रेसिडेंसी कॉलेज में सहायक प्राध्यापक रहे।

1918 से 1921 तक महाराजा कॉलेज मैसूर में दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर रहे।

1921 से 1948 कोलकाता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे।

सन् 1931 से 36 तक आन्ध्र विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर रहे।

ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में 1936 से 1952 तक प्राध्यापक रहे।

कलकत्ता के अन्तर्गत आने वाले जॉर्ज पंचम कॉलेज के प्रोफेसर के रूप में 1937 से 1941 तक कार्य किया।

सन् 1939 से 48 तक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के चांसलर रहे।

1953 से 1962 तक दिल्ली विश्वविद्यालय के चांसलर रहे।

1946 में युनेस्को में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।

एक शिक्षक के रूप में इनके अतुलनीय योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने उनके जन्मदिन 5 सितंबर को राष्ट्रीय शिक्षक दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया।

भारत रत्न

एक महान दार्शनिक और महान शिक्षक के रूप में इनकी उपलब्धियों और योगदान को देखते हुए 1954 में भारत सरकार ने इन्हें भारत के सबसे बड़े नागरिक सम्मान भारत रत्न से अलंकृत किया।

निधन

17 अप्रैल 1975 को लंबी बीमारी के बाद इस महान दार्शनिक और शिक्षक ने इस भौतिक संसार से सदा सदा के लिए विदा ले ली।

सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जीवनी, शैक्षिक जीवन, राष्ट्रपति जीवन, 5सितंबर को राष्ट्रीय शिक्षक दिवस, पुरस्कार, उपलब्धियां एवं अन्य संपूर्ण जानकारी

डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम

मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या – आधुनिक भारत के निर्माता

भारत रत्न डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन

सुंदर पिचई का जीनव परिचय (Biography of Sundar Pichai)

मेजर ध्यानचंद (हॉकी के जादूगर)

सिद्ध सरहपा

गोरखनाथ 

स्वयम्भू

महाकवि पुष्पदंत

महाकवि चंदबरदाई

मैथिल कोकिल विद्यापति

भारत का स्वर्णिम अतीत : तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय

भारत का स्वर्णिम अतीत : तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय

इन्क्रेडिबल इंडिया: सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय जैसी सांस्कृतिक विरासत का महत्त्व एवं ऐतिहासिक योगदान के बारे में जानकारी

असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मामृतं गमय।।

बृहदारण्यकोपनिषद् का उक्त वाक्य भारतीय ज्ञान और ज्ञान प्राप्ति की तीव्र उत्कंठा को दर्शाता है।

विश्व के ज्ञात इतिहास को परखे तो पता चलता है कि विश्व में केवल भारत ही वह पुण्य भूमि है जहां ज्ञान की उत्पत्ति हुई और ज्ञान को सर्वोपरि महत्त्व दिया गया प्राचीन भारत में अनेक विश्वविद्यालय थे,

जो ज्ञान का केंद्र बिंदु थे अनेक ज्ञात विश्वविद्यालयों की सूची में तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय का नाम एक स्वर्णिम अध्याय के रूप में जुड़ चुका है।

तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय की उपस्थिति भारत को जगद्गुरु और ज्ञान का केंद्र बिंदु सिद्ध करने में एक और अध्याय जोड़ता है।

इस विश्वविद्यालय के भग्नावशेषों से यह सिद्ध हो जाता है कि प्राचीन भारत में शिक्षा की एक सुदीर्घ और सुव्यवस्थित प्रणाली विकसित हो चुकी थी, जिसकी कीर्ति भारत ही नहीं वरन् उसके बाहर भी दूर-दूर तक थी।

यह विश्वविद्यालय नालंदा विश्वविद्यालय और विक्रमशिला विश्वविद्यालय से लगभग 300 से 400 वर्ष प्राचीन है

जिसके अवशेष 2014 में बिहार के नालंदा जिले में एकंगरसराय उपखण्ड के तेल्हाड़ा ग्राम में उत्खनन के दौरान प्राप्त हुए हैं।

तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय सांस्कृतिक विरासत इन्क्रेडिबल इंडिया
तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय सांस्कृतिक विरासत इन्क्रेडिबल इंडिया

काल निर्धारण : तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय सांस्कृतिक विरासत इन्क्रेडिबल इंडिया

बिहार पुरातत्व विभाग के अनुसार इस स्थल की सर्वप्रथम खोज वर्ष 1872 में एस. ब्रोडले ने की थी।

ब्रोडले ने इस स्थल के लिए तिलास-अकिया शब्द का प्रयोग किया है।

तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय से भी अधिक प्राचीन था।

इसकी पुष्टि यहां से प्राप्त तीन प्रकार की ईंटों से भी हो जाती है।

सबसे बड़े आकार की ईंटें कुषाण कालीन है जिनका आकार 42*32*6 सेमी. है, जो इस महाविहार में सबसे नीचे प्राप्त हुई है।

इसके ऊपर गुप्तकालीन ईंटें हैं जिनका आकार 36*28*5 सेमी. है।

इसके ऊपर पालकालीन ईंटों की चिनाई है जिनका आकार 32*28*5 सेमी. है ईंटों के आकार और चिनाई से ज्ञात होता है कि इस महाविहार का जीर्णोद्धार विभिन्न राजवंशों ने करवाया था।

 

कुषाण कालीन इंटों का सबसे नीचे मिलने का अर्थ है महाविहार का प्रारंभिक निर्माण कुषाण शासकों द्वारा करवाया गया था,

जबकि नालंदा विश्वविद्यालय गुप्तकालीन (चौथी शताब्दी ईस्वी) है और विक्रमशिला विश्वविद्यालय (सातवीं शताब्दी ईस्वी) पाल शासकों की देन है,

अतः कालक्रम की दृष्टि से देखें तो तेल्हाड़ा महाविहार (विश्वविद्यालय) नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय से प्राचीन सिद्ध होता है।

उत्खनन में प्राप्त सामग्री : तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय सांस्कृतिक विरासत इन्क्रेडिबल इंडिया

उत्खनन में महाविहार के भग्नावशेषों के साथ-साथ अनेक सील और सीलिंग (मुहरें) घंटियां, कांस्य प्रतिमाएँ, आंगन, बरामदा, साधना कक्ष, कुएं और नाले के साक्ष्य मिले हैं।

तप में लीन बुद्ध की अस्थिकाय दुर्लभ मूर्ति भी प्राप्त हुयी है जो एक सील (मुहर) पर उत्कीर्ण है।

यहां से प्राप्त अधिकतर सीलें (मुहरें) टेराकोटा (एक विशेष प्रकार की मिट्टी) की बनी हुई हैं।

उत्खनन में प्राप्त एक मोहर पर पालि में लिखे लेख को पढ़ने में कोलकाता विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. एस. सान्याल ने सफलता प्राप्त की है।

उनके अनुसार मुहर पर उत्कीर्ण लेख में वर्णित जानकारी के अनुसार इस महाविहार का वास्तविक नाम तिलाधक, तेलाधक्य या तेल्हाड़ा नहीं वरन श्री प्रथम शिवपुर महाविहार है।

चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा इत्सिंग ने भी अपने वृतांतों में इस महाविहार का उल्लेख किया है।

ह्वेनसांग और इत्सिंग ने इसका उल्लेख तीलाधक नाम से किया है।

ह्वेनसांग और इत्सिंग के अनुसार यह महाविहार अपने समय का उच्च कोटि का सुंदर, विशिष्ट और श्रेष्ठ महाविहार था।

महाविहार में तीन मंजिला मंडप के साथ-साथ तीन मंदिर, अनेक तोरणद्वार, मीनार और घंटिया होती थीं।

चीनी यात्रियों के कथन की पुष्टि उत्खनन में प्राप्त अवशेषों से होती है।

चरमोत्कर्ष एवं पतन : तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय सांस्कृतिक विरासत इन्क्रेडिबल इंडिया

प्राचीन भारत ज्ञान विज्ञान अध्यात्म धर्म दर्शन आदि सभी विधाओं में अत्यंत समृद्ध था।

वैदिक वांग्मय उक्त कथन का पुष्ट प्रमाण है।

बौद्धकाल आते-आते भारतीय ज्ञान-विज्ञान की ख्याति सुदूर देशों तक फैल गई, जिसका प्रमाण प्राचीन भारत के शिक्षा केंद्र के रूप में स्थापित महाविहार (विश्वविद्यालय), उन में पढ़ने वाले असंख्य देशी-विदेशी छात्र और शिक्षक हैं।

तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय अपनी स्थापना (प्रथम शताब्दी ईस्वी) के कुछ वर्षों बाद ही प्रसिद्धि को प्राप्त करने लगा था।

ह्वेनसांग के वृतांत के अनुसार सातवीं शताब्दी तक तेल्हाड़ा महाविहार में सात मठ तथा शिक्षकों के लिए अलग-अलग कक्ष थे।

इस महाविहार में लगभग 1000 बौद्ध भिक्षु महायान संप्रदाय की शिक्षा ग्रहण करते थे।

ह्वेनसांग और इत्सिंग के वृत्तांतों से सिद्ध होता है कि यह महाविहार बौद्ध शिक्षा का प्रसिद्ध केंद्र था

जो कि मुख्यतः बौद्ध धर्म की हीनयान शाखा को समर्पित था।

11 वीं शताब्दी ईस्वी तक तेल्हाड़ा महाविहार की प्रसिद्धि चरमोत्कर्ष पर थी।

 

कभी-कभी किसी स्थान की समृद्धि ही उसके पतन का कारण बन जाती है।

ऐसा ही भारत और उसके ज्ञान विज्ञान के साथ हुआ है।

मुस्लिम आक्रांताओं के आक्रमण सातवीं शताब्दी से ही शुरू हो गए थे परंतु 10 वीं शताब्दी तक भारतीय शासकों ने उनसे कड़ा संघर्ष किया 11वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारतीय शक्ति क्षीण होने लगी इस्लामी के आक्रांताओं ने साम-दाम-दंड-भेद की नीति का अनुसरण किया और एक के बाद एक प्रदेशों को जीते चले गये।

तेल्हाड़ा के उत्खनन में महाविहार की दीवारों पर अग्नि के साक्ष्य और राख की एक फुट मोटी परत मिली है।

इसी के आधार पर विशेषज्ञों का मानना है कि-

1192 में तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने ओदंतपुरी की विजय के दौरान मनेर से दक्षिण की ओर तेल्हाड़ा की ओर प्रस्थान किया था।

उसने नालंदा विहार की तरह यहां भी बहुत आतंक मचाया और यहां के शिक्षकों और शिक्षार्थियों का वध कर महाविहार में आग लगा दी जिसके कारण इसका पतन हो गया।

विशेषज्ञों का मत –

बिहार के कला संस्कृति और युवा विभाग के सचिव आनंद किशोर का दावा है, ”तेल्हाड़ा में 100 से ज्यादा ऐसी चीजें मिली हैं, जो साबित करती हैं कि तेल्हाड़ा में प्राचीन विश्वविद्यालय के अवशेष हैं. यहां कुषाणकालीन ईंट और मुहरें मिली हैं, जिनके पहली शताब्दी में बने होने का प्रमाण मिलता है. ध्यान देने वाली बात है कि नालंदा को चौथी और विक्रमशिला को आठवीं शताब्दी का विश्वविद्यालय माना जाता है।”

बिहार पुरातत्व विभाग के निदेशक डॉ. अतुल कुमार वर्मा की माने तो संभवतः तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय बिहार का प्रथम विश्वविद्यालय था।

प्राचीन भारत के अन्य विश्वविद्यालयों की तरह तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय कि सभी व्यवस्थाएं भी शासकों द्वारा प्राप्त दान अथवा उनके द्वारा दान में दिए ग्रामों से प्राप्त आय के द्वारा ही होती थी।

विद्यार्थियों की शिक्षा, आवास, भोजन, चिकित्सा इत्यादि सभी नि:शुल्क थे।

बिहार विरासत समिति के सचिव डॉ. विजय कुमार चौधरी कहते हैं, ”बिहार में ऐसे पुरातात्विक साक्ष्य भरे पड़े हैं. राज्य में पुरातात्विक स्थलों के सर्वेक्षण में 6,500 साइटें मिली हैं.

उनमें कई महत्वपूर्ण महाविहार हैं. तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय का अवशेष उसी कड़ी का हिस्सा है।

भविष्य की योजना-

तेल्हाड़ा को विश्व पटल पर लाने के लिए बिहार सरकार ने 28 करोड़ की लागत से तेल्हाड़ा मैं एक म्यूजियम की योजना तैयार की है।

म्यूजियम के साथ-साथ तेल्हारा विद्यालय के लिए एक मास्टर प्लान भी तैयार करने की योजना है

जिसमें तेल्हाड़ा की खुदाई के साथ ही उसे यूनेस्को की वर्ल्ड हेरिटेज साइट में शामिल कराने के लिए आवश्यक प्रपत्र तैयार करने से संबंधित विषय भी शामिल किये जाएंगे।

इन्क्रेडिबल इंडिया: सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय जैसी सांस्कृतिक विरासत का महत्त्व एवं ऐतिहासिक योगदान के बारे में जानकारी

नीति आयोग के उपाध्यक्ष डॉ० अरविंद पनगढिय़ा

प्राचीन तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय के खंडहर का अवलोकन कर इसे इन्क्रेडिबल इंडिया – अतुल्य भारत में शामिल करने कि बात की है।

अतः निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि प्राचीन भारत वास्तव में जगद्गुरु था।

भारत ने ही विश्व को ज्ञान की प्रथम किरण दिखाई थी और हमारे पूर्वजों ने ही संपूर्ण विश्व में ज्ञान का प्रकाश फैलाया था।

हमें गर्व है अपने गौरवशाली स्वर्णिम अतीत तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय पर।

आइए भारतीय होने पर स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करें और अपनी सांस्कृतिक विरासत पर गर्व करें।

हाइकु (Haiku) कविता

संख्यात्मक गूढार्थक शब्द

मुसलिम कवियों का कृष्णानुराग

श्री सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या के मतानुसार प्रांतीय भाषाओं और बोलियों का महत्व

संपूर्ण वर्ष के राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय दिवसों की जानकारी तथा अन्य परीक्षोपयोगी सामग्री के लिए इस लिंक पर क्लिक कीजिए

भारत का विधि आयोग (Law Commission, लॉ कमीशन)

मानवाधिकार (मानवाधिकारों का इतिहास)

मानव अधिकार संरक्षण (संशोधन) अधिनियम 2019

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग : संगठन तथा कार्य

भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान

भटूरे (Bhature)

विज्ञान तथा प्रकृति (Science and Nature)

कम्प्यूटर क्षेत्र में विश्व में प्रथम (First in computer field in the World)

Google का नाम Google ही क्यों पड़ा?

कंप्यूटर वायरस क्या है? What is computer virus?

सुंदर पिचई का जीनव परिचय (Biography of Sundar Pichai)

सर्च इंजिन क्या है?

पहला सर्च इंजिन कौनसा था?

अतः हमें आशा है कि आपको यह जानकारी बहुत अच्छी लगी होगी। इस प्रकार जी जानकारी प्राप्त करने के लिए आप https://thehindipage.com पर Visit करते रहें।

Social Share Buttons and Icons powered by Ultimatelysocial