हाइकु कविता (Haiku)

हाइकु कविता (Haiku)

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कविता का कैनवास विश्वव्यापी है।

ब्रह्मांड की प्रत्येक वस्तु कविता का क्षेत्र है।

विश्व की अलग-अलग भाषाओं में कविता रचना की अलग-अलग शैलियां और छंद हैं,

परंतु बहुत कम शैलियां या छंद ऐसे हैं जो विश्वव्यापी हुए हैं।

किसी छंद के वैश्वीकरण के लिए उस छंद में विश्व की अन्य भाषाओं में ढलने की क्षमता और प्रभावोत्पादकता होनी चाहिए।

हाइकु जापानी भाषा का एक ऐसा ही छंद है, जिसका प्रसार विश्व की अनेक भाषाओं में हुआ है।

हाइकु के संबंध में कतिपय विद्वानों के मत इस प्रकार हैं-

हायकु काव्य छंद इतिहास
हायकु काव्य छंद इतिहास

(धर्मयुग, 16 अक्टूबर 1966) उद्धृत हाइकु दर्पण के अनुसार

“हाइकु का जन्म जापानी संस्कृति की परम्परा, जापानी जनमानस और सौन्दर्य चेतना में हुआ और वहीं पला है। हाइकु में अनेक विचार-धाराएँ मिलती हैं- जैसे बौद्ध-धर्म (आदि रूप, उसका चीनी और जापानी परिवर्तित रूप, विशेष रूप से जेन सम्प्रदाय) चीनी दर्शन और प्राच्य-संस्कृति। यह भी कहा जा सकता है कि एक “हाइकु” में इन सब विचार-धाराओं की झाँकी मिल जाती है या “हाइकु” इन सबका दर्पण है।”

प्रो० नामवर सिंह[ हाइकु पत्र, 1 फरवरी 1978, उद्धृत हाइकु दर्पण के अनुसार

“Haiku एक संस्कृति है, एक जीवन-पद्धति है।

तीन पंक्तियों के लघु गीत अपनी सरलता, सहजता, संक्षिप्तता के लिए जापानी-साहित्य में विशेष स्थान रखते हैं।

इसमें एक भाव-चित्र बिना किसी टिप्पणी के, बिना किसी अलंकार के प्रस्तुत किया जाता है, और यह भाव-चित्र अपने आप में पूर्ण होता है।”

हाइकु की पहचान

हाइकु मूलतः जापानी छन्द है।

जापानी हाइकु में वर्ण-संख्या और विषय दोनों के बंधन रहे हैं।

हाइकु की मोटी पहचान 5-7-5 के वर्णक्रम की तीन पक्तियों की सत्रह-वर्णी कविता के रूप में है और इसी रूप में वह विश्व की अन्य भाषाओं में भी स्वीकारा गया है।

महत्त्व वर्ण-गणना का इतना नहीं जितना आकार की लघुता का है। यही लघुता इसका गुण भी बनती है और यही इसकी सीमा भी।

जापानी में वर्ण स्वरान्त होते हैं, हृस्व “अ” होता नहीं।

5-7-5 के क्रम में एक विशिष्ट संगीतात्मकता या लय कविता में स्वयं आ जाती है।

तुक का आग्रह नहीं है।

अनुभूति के क्षण की वास्तविक अवधि एक निमिष, एक पल अथवा एक प्रश्वास भी हो सकती है, अतः अभिव्यक्ति की सीमा उतने ही शब्दों तक है जो उस क्षण को उतार पाने के लिए आवश्यक है।

यह भी कहा गया है कि एक साधारण नियमित साँस की लम्बाई उतनी ही होती है, जितनी में सत्रह वर्ण सहज ही बोले जा सकते हैं।

कविता की लम्बाई को एक साँस के साथ जोड़ने की बात के पीछे उस बौद्ध-चिन्तन का भी प्रभाव हो सकता है, जिसमें क्षणभंगुरता पर बल है। -प्रोफेसर सत्यभूषण वर्मा (“हाइकु”भारतीय हाइकु क्लब का लघु पत्र), अगस्त- 1978, सम्पादक- डा० सत्यभूषण वर्मा, से साभार) उद्धृत हाइकु दर्पण

भारत में हायकु

पिछले कुछ वर्षों में हाइकु ने हिंदी में भी अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज करवाई है।

पहले पहल हाइकु कविता अनुवाद के माध्यम से हिंदी पाठकों के सामने आयी।

रवींद्रनाथ टैगोर तथा सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय ने अपनी जापान यात्रा से लौटकर जापानी हाइकु कविता का अनुवाद किया।

कविवर रवींद्रनाथ टैगोर तथा अज्ञेय से प्रभावित होकर हिंदी के अनेक कवियों ने जापानी हाइकु कविता पर अपने हाथ आजमाएं।

हाइकु कविता को भारत में लाने का श्रेय महाकवि रवींद्रनाथ टैगोर को जाता है।

“भारतीय भाषाओं में रवींद्र नाथ ठाकुर ने जापान यात्रा से लौटने के पश्चात 1919 ईस्वी में जापान यात्री में हाइकु की चर्चा करते हुए बांग्ला में दो कविताओं के अनुवाद प्रस्तुत किए यह कविताएं थी-

     पुरोनो पुकुर

     ब्यांगेर लाफ

     जलेर शब्द

तथा

     पचा डाल

     एकटा को

     शरत्काल

दोनों अनुवाद शब्दिक हैं और बाशो की प्रसिद्ध कविताओं के हैं।”(प्रो. सत्यभूषण वर्मा, जापानी कविताएँ, पृष्ठ-29)

हाइकु कविता का इतिहास

हाइकु कविता का इतिहास अत्यंत पुराना है।

यदि जापानी साहित्येतिहास के अध्ययनमें हम पाते हैं कि हाइकु कविता की रचना सैकड़ों वर्ष पूर्व जापान में हो रही थी।

इसके प्रारंभिक कवि यामजाकी सोकान (1465-1553) और आराकीदा मोरिताके (1472-1549) थे 17 वीं शताब्दी में मृतप्राय हो चुकी हाइकु कविता को मात्सूनागा तोईतोकु (1570-1653) ने नवजीवन प्रदान किया।

उन्होंने हाइकु कि तोईतोकु धारा का प्रवर्तन किया।

बाशो और उनका युग

जापानी हाइकु की प्रतिष्ठा को चरमोत्कर्ष पर पहुंचाने और उसका सर्वांगीण विकास करने का श्रेय प्रसिद्ध कवि मात्सुओ बाशो (1644-1694) को जाता है।

लगभग चालीस वर्ष के छोटे से जीवन काल में ही उन्होंने जापानी साहित्य की इतनी सेवा कर दी कि 17वीं शताब्दी के मध्य से 18 वीं शताब्दी के मध्य के जापानी साहित्येतिहास के कालखंड को बाशो युग कहा जाता है।

बाशो ने हाइकु कविता के लिए अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है कि “जिसने जीवन में तीन से पांच हाइकु रच डालें वह हाइकु कवि है जिसने दस हाइकु की रचना कर डाली वह महाकवि है।” (प्रो. सत्यभूषण वर्मा, जापानी कविताएँ, पृष्ठ-22)

जापानी काव्यशास्त्र के अनुसार बाशो के काव्य मैं मुख्यतः तीन प्रवृत्तियां मिलती है-

अकेलेपन की स्थिति अर्थात वाबि।

अकेलेपन की स्थिति से उत्पन्न संवेदना परक अनुभूति अर्थात साबि।

सहज अभिव्यक्ति अर्थात करीमि।

1686 ईस्वी में बाशो ने अपने सबसे प्रसिद्ध हाइकु की रचना की-

ताल पुराना

कूदा दादुर

पानी का स्वर

(अनुवाद प्रो. सत्यभूषण वर्मा, जापानी हाइकु और आधुनिक हाइकु कविता पृष्ठ-15)

बुसोन और बुसोन का युग

इस युग के श्रेष्ठ हाइकुकार बुसोन हुए हैं, जो कि प्रख्यात चित्रकार भी थे।

डॉ सत्यभूषण वर्मा ने बाशो और बुसोन को जापानी काव्य गगन के सूर्य और चंद्रमा कहा है

इस्सा

बुसोन के बाद जापानी हाइकु साहित्य में प्रमुख का नाम कोबायाशी इस्सा का आता है। इनकी कविताएं जीवन के अधिक निकट है।

शिकि

शिकि पर बुसोन का अधिक प्रभाव था।

इसने बाशो की आलोचना की तथा मित्रों के सहयोग से ‘हाइकाइ’ नामक हाइकु पत्रिका निकाली।

शिकि ने  नयी कविता और उपन्यासों की भी रचना की।

इनकी एक अन्य हाइकु पत्रिका होतोतोगिसु ने जापानी हाइकु कविता को नया आधार और नयी दिशा दी।

इसके बाद बदलते परिवेश और विचारधाराओं के साथ-साथ हाइकु में भी परिवर्तन आए।

नित नए प्रयोग इस कविता में होने लगे।

डॉ. सत्य भूषण वर्मा के अनुसार 1957 ईस्वी में जापान में लगभग 50 मासिक हाइकु पत्रिका में प्रकाशित हो रही थी।……… प्रत्येक पत्रिका के हर अंक में कम से कम 1500 हाइकु रचनाएं थी।(प्रो. सत्यभूषण वर्मा, जापानी हाइकु और आधुनिक हाइकु कविता पृष्ठ-28)

डॉ. शैल रस्तोगी के कथनानुसार

“….छठे दशक के आसपास चुपचाप प्रविष्ट होने वाली इस जापानी काव्य-विधा ने हिंदी कविता में अपना प्रमुख स्थान बना लिया है और कविता के क्षेत्र में एक युगांतर प्रस्तुत किया। अकविता, विचार कविता, बीट कविता, ताजी कविता, ठोस कविता आदि अनेक काव्यांदोलनों के बीच पल्लवित और पुष्पित होती इस काव्य-शैली ने हिंदी कवियों को बड़ी शिद्दत से विमोहित किया; जिससे साहित्य में हाइकु-लेखन को एक सुदृढ़ परंपरा पड़ी और हिंदी कविता जापान से आने वाले रचना प्रभाव से खिल उठी।”

हाइकु कविता के विकास में अमूल्य योगदान

1956 से 1959 ईस्वी के कालखंड में अज्ञेय द्वारा रचित एवं अनूदित व कविताओं के संग्रह ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’ से हिंदी में हाइकु कविता का श्रीगणेश माना जाता है।

अज्ञेय के इस संग्रह में 27 अनूदित और कुछ मौलिक हाइकु संकलित है।

डॉ. प्रभा शर्मा के अनुसार “सन् 1967 ईस्वी में प्रकाशित श्रीकांत वर्मा के कविता संग्रह  ‘माया दर्पण’ में शब्द संयम और मिताक्षरता, बिम्बात्मकता और चित्रात्मकता से युक्त कविताएं संग्रहित हैं, जो हाइकु की पूर्वपीठिका स्वीकार की जानी चाहिए।”

‘आधुनिक हिंदी कविता और विदेशी काव्य रूप’ में डॉ एस नारायण ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक लिखा है कि “डॉ प्रभाकर माचवे ने भी जापान में अपने प्रवास काल में लगभग 250  हाइकुओं के अनुवाद किये।”

डॉ सत्यभूषण वर्मा का मत है कि “हाइकु को एक आंदोलन के रूप में उठाने का प्रयत्न रीवा के आदित्य प्रताप सिंह ने किया।उन्होंने हाइकु और सेनर्यु (व्यंग्य प्रधान हाइकु) के नाम से ढेरों कविताएं लिखी और लिखवायी है।”

इसके साथ-साथ अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने भी हाइकु कविता के विकास में अपना अमूल्य योगदान दिया है।

हाइकु कविता का शिल्प सौंदर्य

प्रत्येक भाषा की अपनी रचना शैली होती है, जो दूसरी भाषाओं से पृथक होती है।

सभी भाषाएं ध्वनि विधान, शब्द विधान, स्वर-व्यंजन, उच्चारण, पद क्रम, काल, लिंग, वचन, कारक, क्रिया आदि सभी दृष्टियों में एक दूसरे से सर्वथा भिन्न-भिन्न और विशिष्ट होती हैं।

इन विशेषताओं के कारण ही सभी भाषाओं में काव्य शैलियों भी अलग-अलग होती है।

जापानी और हिंदी दोनों ही भाषाओं में हाइकु कविता का काव्य रूप मुक्तक ही रहा है

यह सर्वविदित है कि हाइकु कविता जापानी भाषा से हिंदी में आई है।

हिंदी में जिस प्रकार इसे एक छंद के रूप में अपनाया गया है, उसी प्रकार इसके शिल्प को भी अपना लिया गया है

हाइकु के शिल्प पर हिंदी में कई प्रश्न हैं, उन प्रश्नों के उत्तर जाने से पहले जापानी तथा हिंदी में हाइकु के शिल्प को समझ लेना आवश्यक है।

प्राचीन काल से ही जापानी मुक्तक काव्य में तीन शैलियां प्रचलित रही है-

ताँका (5 पंक्तियाँ तथा 5,7,5,7,7 वर्णक्रम)

सेदोका (6 पंक्तियाँ तथा 5,7,7,5,7,7 वर्णक्रम)

चोका (पंक्तियाँ अनिश्चित तथा 5,7,5,7 वर्णक्रम)

यह तीनों शैलियां 5-7 संख्या की ओंजि (लघ्वोच्चारणकाल घटक) पर आधारित है।

डॉ. सत्यभूषण वर्मा ने हाइकु भारती पत्रिका में ओंजि को लेकर अपना मत इस प्रकार दिया है- “जापानी लिपि मूलतः चीन की भावाक्षर लिपि से विकसित हुई है; जिसे हिन्दी में सामान्यतः चित्रलिपि कहा जाता है।

अंग्रेजी में इन भावाक्षरों को ‘इडियोग्राफ’ कहा गया है | भावाक्षर किसी ध्वनि को नहीं, एक पूरे शब्द के भाव या अर्थ को व्यक्त करता है|

भारतीय लिपियाँ ध्वनि मूलक हैं जिनमें शब्द को लिखित ध्वनि-चिह्नों में बदलकर उससे अर्थ ग्रहण किया जाता है|

चीनी और जापानी लिपियाँ अर्थमूलक हैं, जिनमें शब्द के लिखित रूप सीधे अर्थ को व्यक्त कर देते हैं।

एक ही भावाक्षर प्रसंग और अन्य भावाक्षर के संयोग से अनेक प्रकार से पढ़ा या उच्चरित किया जा सकता है|

जापानी भावाक्षर को ‘कांजि’ कहा जाता है।

कालांतर में जापान ने चीनी भावाक्षर लिपि को जापानी भाषा की प्रकृति के अनुरूप ढालने के प्रयत्न में इन्हीं भावाक्षरों में अपनी ध्वनि मूलक लिपियों का विकास किया जो ‘हीरागाना और ‘काताकाना’ कहलायीं|

आज की जापानी में ‘कांजि’, ‘हीरागाना’ और ‘काताकाना’ तीनों लिपियों का एक साथ मिश्रित प्रयोग होता है|

रोमन अक्षरों में लिखी गयी जापानी के लिये ‘रोमाजि’ शब्द का प्रयोग होता है|

किसी भी लिखित प्रतीक चिह्न को जापानी में ‘जि’ कहा जाता है|

वह कोई भावाक्षर भी हो सकता है, कानाक्षर भी अथवा कोई अंक भी|

‘ओन’ का अर्थ है ध्वनि, इस प्रकार ‘ओं’ का सीधा सा अर्थ हुआ ध्वनि-चिन्ह जो वर्णया अक्षर का ही पर्याय हो सकता है|” -(उद्धृत डॉ भगवतशरण अग्रवाल हाइकु काव्य विश्वकोश पृष्ठ 19)

ओन, ओंजि एवं सिलेबल्स (Syllables) तथा हायकु कविता का अनुवाद

चूंकि हिंदी में प्रारंभिक हाइकु कविता अनुवाद के माध्यम से आई है।

अनुवाद दो तरह से हुआ पहला- जापानी से सीधे हिंदी में अनुवाद।

दूसरा- जापानी से अंग्रेजी में अनुवाद और पुनः अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद।

इसलिए यह समझना होगा कि जापानी भाषा में जो ओन है,

वह अंग्रेजी और हिंदी में क्या होगा या अंग्रेजी और हिंदी में उसका समानार्थी क्या होगा।

जापानी में जिसे ओन कहा जाता है उसे अंग्रेजी में सिलेबल्स (Syllables) तथा हिंदी में अक्षर कहा जाता है

लेकिन प्रख्यात हाइकुकार डॉ भगवतशरण अग्रवाल उक्त मत से कुछ कम ही सहमत हैं।

इस संबंध में वे लिखते हैं “अनेक समीक्षकों ने ओंजि का अंग्रेजी पर्याय सिलेबल्स माना है जो गलत है।

वास्तव में इसका अंग्रेजी पर्याय मोरा है फिर भी इस संदर्भ में मोरा के स्थान पर सिलेबल्स ही अधिक प्रचलित है।

हिंदी के भाषा वैज्ञानिकों ने सिलेबल्स का पर्याय अक्षर को माना है।”

भले ही विद्वतजन और आलोचक ओन या ओंजि  का अंग्रेजी पर्याय सिलेबल्स और हिंदी पर्याय अक्षर करें;

परंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रत्येक भाषा की बनावट अलग अलग होती है,

इसलिए यह कहना संगत नहीं होगा कि जापानी में लिखे हाइकु में जितने ओन या ओंजि होंगे,

अंग्रेजी में उतने ही सिलेबल्स और हिंदी में उतने ही अक्षर होंगे।

जापानी हाइकु कविता में 17 ओन या ओंजि होते हैं, लेकिन यह देखने में आया है,

कि अंग्रेजी के 12 सिलेबल्स में जापानी के लगभग 17 ओन या ओंजि पूरे हो जाते हैं

लेकिन अंग्रेजी हाइकुकार 17 सिलेबल्स का प्रयोग करते हैं।

हाइकु के शिल्प

हाइकु के शिल्प के संबंध में डॉ भगवतीशरण अग्रवाल लिखते हैं ”हाइकु के शिल्प के संबंध में एक दो और बातें मुझे कहनी है-

प्रथम तो यह कि जापानी काव्य में अक्षरों को नहीं  ओन या ओंजि अर्थात अंग्रेजी में मोरा जिसका हिंदी पर्याय लघ्वोच्चारणकाल है को मान्यता मिली है”

रामेश्वर कम्बोज ‘हिमांशु’ ने जापानी हाइकु और हिन्दी में हाइकु की संरचना में वर्ण या अक्षर गणना को लेकर निम्नलिखित वर्णन किया है

“इस तकनीकी शब्दावली के बाद हाइकु के लिए अक्षर, वर्ण या जापानी भाषा का शब्द ग्रहण करें तो परस्पर पर्याय की समानता तलाशना मुश्किल है|

अक्षर के लिए निकटतम शब्द syllable है लेकिन जापानी में इसके लिए कुछ समतुल्य ‘on’ है,

पूरी तरह पर्याय नहीं; क्योंकि जापानी में ‘on’ का अर्थ syllable से थोड़ा कम है|

जैसे – haibun अंग्रेज़ी में दो अक्षर हैं- हाइ-बन परन्तु जापानी में चार अक्षर या चार ‘on’ हैं -(ha-i-bu-n)-हा-इ-ब-न |”

रामेश्वर कम्बोज ‘हिमांशु ने हिंदी में हाइकु की गणना को स्पष्ट करते हुए कहा है कि”हिन्दी की भाषा वैज्ञानिक शब्दावली में इसे 5-7-5 वर्ण का छन्द कहा जाना चाहिए, न कि 5-7-5 अक्षर का छन्द|

इसका कारण है कि हिन्दी में अक्षर का अर्थ है – वह वाग्ध्वनि जो एक ही स्फोट में उच्चरित हो|

उदहारण के लिए कमला= कम-ला=२, धरती=धर-ती=२, मखमल= मख- मल=२, करवट= कर-वट=२,पानी=पा-नी=२, अपनाना = अप – ना – ना = ३, चल= १, सामाजिक= सा-मा-जिक=३ (ये अक्षर=गणना दी गई है) आ,न , ओ हिन्दी मे वर्ण भी हैं, एक ही स्फोट में बोले जाते हैं -अक्षर भी हैं और सार्थक भी हैं (आ-आना क्रिया का रूप , न निषेध के अर्थ में, ओ-पुकारने के अर्थ में , जैसे ओ भाई! इसी तरह गाना आदि भी हैं।]

हिन्दी हाइकु के सन्दर्भ में

हिन्दी हाइकु के सन्दर्भ में कमला-क-म-ला-3, धरती-ध-र-ती-3, मखमल-म-ख-म-ल-4, करवट- क-र-ब-ट-4 पानी=पा-नी=2, अपनाना=अ-प-ना-ना=4, चल=च-ल=2 सामाजिक= सा-मा-जि-क=4 वर्ण गिने जाएँगेहाइकु के बारे में सीधा और सरल शास्त्रीय नियम है – 5-7-5 = 17 वर्ण (स्वर या स्वरयुक्तवर्ण) न कि अक्षर जैसा कि असावधानीवश लिख दिया जाता है।“

इस मत पर आधारित अनेक उदाहरण हैं;

जिनसे यह मत पुष्ट होता है कि हिंदी हाइकु में 5,7,5 के क्रम में 17 वर्णों का छंद विधान हाइकु है न कि अक्षर क्रम का जैसे-

दीपोत्सव-सा

हम सबका

रिश्ता जगमगाए

 

शीत के दिनों

सर्प-सी फुफकारें

चलें हवाएँ

 

घास-सी बढ़ी

गुलाब-सी खिलती

बेटी डराती

हाइकु तुकांत और अतुकांत दोनों ही हो सकते हैं, हिंदी में दोनों प्रकार के हाइकु लिखे गए हैं।

शिल्प के अंतर्गत छंद यति,  गति, तुक के अतिरिक्त

अलंकार, शब्द-शक्ति, बिंब विधान, प्रतीक विधान, मिथक आदि सभी शिल्प गत विशेषताओं से युक्त होता है हाइकु।

हाइकु (Haiku) कविता

संख्यात्मक गूढार्थक शब्द

मुसलिम कवियों का कृष्णानुराग

श्री सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या के मतानुसार प्रांतीय भाषाओं और बोलियों का महत्व

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सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या – प्रांतीय भाषा-बोलियाँ

सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या – प्रांतीय भाषा-बोलियाँ

श्री सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या के अनुसार प्रांतीय भाषा-बोलियाँ का महत्त्व

भाषा-बोलियाँ का महत्त्व

‘प्रांतीय भाषाओं के पुनरुद्धार से हिन्दी का आंतरप्रदेशिक महत्व किसी तरह कम नहीं हो सकता |

पच्छाहीं के लोगों ने बेशक हिंदी का थोड़ा बहुत फैलाव किया है और टूटी फूटी व्याकरण-भ्रष्ट हिंदी को अपनाकर पच्छाहीं के आसपास के लोगों ने हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाया है, लेकिन राष्ट्रभाषा या आंतरप्रदेशिक भाषा में और घरेलू बच्चों की शिक्षा की बोली या प्रांतीय कामकाज की बोली में बहुत पार्थक्य है|

मातृभाषा के सिवाय किसी दूसरी भाषा में मनुष्य के हृदय के भावों का पूरा-पूरा प्रकाश नहीं हो सकता और जब तक मनुष्य साहित्य में अपना पूरा प्रकाश नहीं कर सकता, तबतक वह जो साहित्य बनाने की कोशिश करता है, उसमें बहुत सी व्यर्थता आ जाती है |

श्री तुलसीदासजी और विद्यापति ने जो कुछ लिखा, अपनी मातृभाषा में ही लिखा, इसीलिए भारतीय-साहित्य के उद्यान में विद्यापति के पद और तुलसीदास का ‘रामचरितमानस’ हर तरह से सफल रचना होकर अधिक से अधिक लोकप्रिय हो सकी और जन-जन की जिव्हा पर आसानी से स्थान पा सकी|

महत्त्व

भारत में इस वक्त 15 मुख्य भाषाएँ चालू है |

प्रांतीय बोलियों की तो गिनती ही नहीं की जा सकती |

इन मुख्य या साहित्यिक भाषाओं में 11 भाषाएँ उत्तर भारत की गिनी जाती है और 4 दक्षिण भारत की |

इनके अतिरिक्त ऐसी कुछ भाषाएँ भी है

जो आज साहित्यिक महत्त्व की अधिकारिणी तो नहीं है,

परन्तु प्राचीन समय में उनका साहित्य उच्च कोटि का था

और उनकी संतानों के हृदय की सभी बातें उन्हीं भाषाओं में प्रकट होती थी |

राजस्थानी और मैथिली

राजस्थानी और मैथिली– और बोलियों के साथ इन दो भाषाओँ के निकेन्द्रीकरण की बात आज हिंदी संसार में लाई गई है |

‘हिन्दी प्रान्त’ में जो बोलियां सिर्फ घर में और सीमित प्रांत में काम में लाई जाती है, उन बोलियों के दो जबरदस्त और नामी वकील हिन्दी साहित्य क्षेत्र में पधारे हैं|

उनमें से एक हैं श्री बनारसीदास चतुर्वेदी और

दूसरे हैं श्री राहुलजी सांकृत्यायन |

भाषा तात्त्विकी दृष्टि से मेरी राय यह है कि जहां सचमुच व्याकरण का पार्थक्य दिखाई दे|

जहां प्राचीन साहित्य रहने के कारण प्रांतीय बोली के लिए उसके बोलने वालों में अभिमान बोध हो और जहां प्रांतीय बोली बोलने वाले बच्चों और वय:प्राप्त लोगों को हिंदी अपनाने में दिक्कत हो, वहाँ ऐसी प्रान्तीय बोली की शिक्षा और प्रांतीय कामकाज में ला देने का सवाल आ सकता है |

जहां तक हम देखते हैं व्याकरण की दृष्टि से राजस्थानी—खड़ीबोली हिंदी से पार्थक्य रखती है |

राजस्थानी जनता में अपने प्राचीन साहित्य के लिए एक नई चेतना भी दिखाई दे रही है |

राजस्थानी के प्राचीन साहित्य के बारे में कुछ बोलने की जरूरत नहीं |

अगर तथाकथित ‘हिंदी’ साहित्य से राजस्थानी में लिखा हुआ साहित्य निकाल दिया जाय, तो प्राचीन हिंदी साहित्य का गौरव कितना ही घट जाएगा|

चंदबरदाई

चंदबरदाई के पहले के समय में और उसके बाद के समय में राजस्थानमें जितने कवि हो गये हैं,

उन पर ज्यों-ज्यों प्रकाश डाला जाता है, त्यों-त्यों हमारा विस्मय और आनन्द बढ़ता जाता है |

केवल राजस्थानी बोलने वालों ही को इसका गौरव नहीं है, लेकिन समस्त भारत को इसका गौरव है |

इस गौरव के वश यदि राजस्थानी लोग अपनी मातृभाषा का पुनरुद्धार और पुनःप्रतिष्ठा करना चाहते हैं, तो इसमें नाराज होने और बुरा मानने का कुछ नहीं है |

भारत की प्रमुख 15 भाषाओँ में यदि राजस्थानी जैसी दो-चार भाषाएँ प्रतिष्ठित हो जाएं, तो इसमें आशंका और भय की कोई बात नहीं है | राजस्थानी लोग अपनी मूर्च्छित सी आत्मा को फिर सजग और सचेत करना चाहते हैं, इसमें समस्त भारत को लाभ पहुंचेगा, और राष्ट्रीय एकता की कोई भी हानि नहीं होगी |
(श्री सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या—भारतीय भाषातत्त्व के आचार्य –कलकत्ता विश्वविद्यालय 11-2- 1944)

प्रख्यात राजस्थानी कवि और लेखक डॉ आईदान सिंह भाटी की फेसबुक वॉल से साभार प्राप्त

भारत का विधि आयोग (Law Commission, लॉ कमीशन)

मानवाधिकार (मानवाधिकारों का इतिहास)

मानव अधिकार संरक्षण (संशोधन) अधिनियम 2019

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग : संगठन तथा कार्य

भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान

श्री सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या के मतानुसार प्रांतीय भाषाओं और बोलियों का महत्व