सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या – प्रांतीय भाषा-बोलियाँ
श्री सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या के अनुसार प्रांतीय भाषा-बोलियाँ का महत्त्व
भाषा-बोलियाँ का महत्त्व
‘प्रांतीय भाषाओं के पुनरुद्धार से हिन्दी का आंतरप्रदेशिक महत्व किसी तरह कम नहीं हो सकता |
पच्छाहीं के लोगों ने बेशक हिंदी का थोड़ा बहुत फैलाव किया है और टूटी फूटी व्याकरण-भ्रष्ट हिंदी को अपनाकर पच्छाहीं के आसपास के लोगों ने हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाया है, लेकिन राष्ट्रभाषा या आंतरप्रदेशिक भाषा में और घरेलू बच्चों की शिक्षा की बोली या प्रांतीय कामकाज की बोली में बहुत पार्थक्य है|
मातृभाषा के सिवाय किसी दूसरी भाषा में मनुष्य के हृदय के भावों का पूरा-पूरा प्रकाश नहीं हो सकता और जब तक मनुष्य साहित्य में अपना पूरा प्रकाश नहीं कर सकता, तबतक वह जो साहित्य बनाने की कोशिश करता है, उसमें बहुत सी व्यर्थता आ जाती है |
श्री तुलसीदासजी और विद्यापति ने जो कुछ लिखा, अपनी मातृभाषा में ही लिखा, इसीलिए भारतीय-साहित्य के उद्यान में विद्यापति के पद और तुलसीदास का ‘रामचरितमानस’ हर तरह से सफल रचना होकर अधिक से अधिक लोकप्रिय हो सकी और जन-जन की जिव्हा पर आसानी से स्थान पा सकी|
महत्त्व
भारत में इस वक्त 15 मुख्य भाषाएँ चालू है |
प्रांतीय बोलियों की तो गिनती ही नहीं की जा सकती |
इन मुख्य या साहित्यिक भाषाओं में 11 भाषाएँ उत्तर भारत की गिनी जाती है और 4 दक्षिण भारत की |
इनके अतिरिक्त ऐसी कुछ भाषाएँ भी है
जो आज साहित्यिक महत्त्व की अधिकारिणी तो नहीं है,
परन्तु प्राचीन समय में उनका साहित्य उच्च कोटि का था
और उनकी संतानों के हृदय की सभी बातें उन्हीं भाषाओं में प्रकट होती थी |
राजस्थानी और मैथिली
राजस्थानी और मैथिली– और बोलियों के साथ इन दो भाषाओँ के निकेन्द्रीकरण की बात आज हिंदी संसार में लाई गई है |
‘हिन्दी प्रान्त’ में जो बोलियां सिर्फ घर में और सीमित प्रांत में काम में लाई जाती है, उन बोलियों के दो जबरदस्त और नामी वकील हिन्दी साहित्य क्षेत्र में पधारे हैं|
उनमें से एक हैं श्री बनारसीदास चतुर्वेदी और
दूसरे हैं श्री राहुलजी सांकृत्यायन |
भाषा तात्त्विकी दृष्टि से मेरी राय यह है कि जहां सचमुच व्याकरण का पार्थक्य दिखाई दे|
जहां प्राचीन साहित्य रहने के कारण प्रांतीय बोली के लिए उसके बोलने वालों में अभिमान बोध हो और जहां प्रांतीय बोली बोलने वाले बच्चों और वय:प्राप्त लोगों को हिंदी अपनाने में दिक्कत हो, वहाँ ऐसी प्रान्तीय बोली की शिक्षा और प्रांतीय कामकाज में ला देने का सवाल आ सकता है |
जहां तक हम देखते हैं व्याकरण की दृष्टि से राजस्थानी—खड़ीबोली हिंदी से पार्थक्य रखती है |
राजस्थानी जनता में अपने प्राचीन साहित्य के लिए एक नई चेतना भी दिखाई दे रही है |
राजस्थानी के प्राचीन साहित्य के बारे में कुछ बोलने की जरूरत नहीं |
अगर तथाकथित ‘हिंदी’ साहित्य से राजस्थानी में लिखा हुआ साहित्य निकाल दिया जाय, तो प्राचीन हिंदी साहित्य का गौरव कितना ही घट जाएगा|
चंदबरदाई
चंदबरदाई के पहले के समय में और उसके बाद के समय में राजस्थानमें जितने कवि हो गये हैं,
उन पर ज्यों-ज्यों प्रकाश डाला जाता है, त्यों-त्यों हमारा विस्मय और आनन्द बढ़ता जाता है |
केवल राजस्थानी बोलने वालों ही को इसका गौरव नहीं है, लेकिन समस्त भारत को इसका गौरव है |
इस गौरव के वश यदि राजस्थानी लोग अपनी मातृभाषा का पुनरुद्धार और पुनःप्रतिष्ठा करना चाहते हैं, तो इसमें नाराज होने और बुरा मानने का कुछ नहीं है |
भारत की प्रमुख 15 भाषाओँ में यदि राजस्थानी जैसी दो-चार भाषाएँ प्रतिष्ठित हो जाएं, तो इसमें आशंका और भय की कोई बात नहीं है | राजस्थानी लोग अपनी मूर्च्छित सी आत्मा को फिर सजग और सचेत करना चाहते हैं, इसमें समस्त भारत को लाभ पहुंचेगा, और राष्ट्रीय एकता की कोई भी हानि नहीं होगी |
(श्री सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या—भारतीय भाषातत्त्व के आचार्य –कलकत्ता विश्वविद्यालय 11-2- 1944)
प्रख्यात राजस्थानी कवि और लेखक डॉ आईदान सिंह भाटी की फेसबुक वॉल से साभार प्राप्त
भारत का विधि आयोग (Law Commission, लॉ कमीशन)
मानवाधिकार (मानवाधिकारों का इतिहास)
मानव अधिकार संरक्षण (संशोधन) अधिनियम 2019
राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग : संगठन तथा कार्य
श्री सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या के मतानुसार प्रांतीय भाषाओं और बोलियों का महत्व
7 thoughts on “सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या – प्रांतीय भाषा-बोलियाँ”
Comments are closed.