चट्टानें अथवा शैल Rocks

चट्टानें अथवा शैल

चट्टानें अथवा शैल Rocks के प्रकार, विशेषताएं एवं उदाहरण की पूरी जानकारी।

जिन पदार्थो से भूपर्पटी बनी है, उन्हें शैल कहते हैं। शैलें विभिन्न प्रकार की होती हैं । भूपर्पटी पर मिलने वाले सभी पदार्थ जो धातु नहीं होती चाहे वे ग्रेनाइट की तरह कठोर, चीका मिट्टी की तरह मुलायम अथवा बजरी के समान बिखरी  हुई हों शैल कहलाती हैं। शैलें विभिन्न रंग, भार और कठोरता लिए होती है।

चट्टानें अथवा शैल के प्रकार

शैलें अपने गुण, कणों के आकार और उनके बनने की प्रक्रिया के आधार पर विभिन्न प्रकार की होती हैं। निर्माण क्रिया की दृष्टि से शैलों के तीन वर्ग हैं-

आग्नेय या प्राथमिक चट्टान/शैल

अवसादी या परतदार चट्टान/शैल

कायंतरित या रूपांतरित चट्टान/शैल

आग्नेय या प्राथमिक चट्टान:  चट्टानें शैल प्रकार विशेषताएं

Igneous (“इगनियस”) अंग्रेजी भाषा का शब्द है जो कि लैटिन भाषा के इग्निस शब्द से बना है जिसका अर्थ अग्नि होता है। अर्थात वह शैल जिनकी उत्पत्ति अग्नि से हुई है, उन्हें आग्नेय शैल कहते हैं। अर्थात आग्नेय शैलें अति तप्त चट्टानी तरल पदार्थ, जिसे मैग्मा कहते हैं, के ठण्डे होकर जमने से बनती हैं।

पृथ्वी की प्रारम्भिक भूपर्पटी आग्नेय शैलों से बनी है, अतः अन्य सभी शैलों का निर्माण आग्नेय शैलों से ही हुआ है। इसी कारण आग्नेय शैलों को जनक या मूल शैल भी कहते हैं।

भूगर्भ के सबसे ऊपरी 16 किलोमीटर की मोटाई में आग्नेय शैलों का भाग लगभग 95 प्रतिशत है।

आग्नेय शैलें सामान्यतया कठोर, भारी, विशालकाय और रवेदार होती हैं।

चट्टानें अथवा शैल Rocks के प्रकार, विशेषताएं एवं उदाहरण की पूरी जानकारी। आग्नेय शैल, अवसादी शैल, रूपांतरित चट्टान, परतदार शैल
चट्टानें शैल प्रकार विशेषताएं

निर्माण-स्थल के आधार पर आग्नेय शैलों को दो वर्गों में बाँटा गया है –

(i) बाह्य या बहिर्भेदी (ज्वालामुखी) आग्नेय शैल

(ii) आन्तरिक या अन्तर्भेदी आग्नेय शैल।

(i) बाह्य आग्नेय शैलें:

धरातल पर लावा के ठण्डा होकर जमने से बनी है। इन्हें ज्वालामुखी शैल भी कहते हैं। गेब्रो और बैसाल्ट बाह्य आग्नेय शैलों के सामान्य उदाहरण हैं। भारत के दक्कन पठार की “रेगुर” अथवा काली मिट्टी लावा से बनी है।

(ii) आन्तरिक आग्नेय शैल:

इन शैलों की रचना मैग्मा (लावा) के धरातल के नीचे जमने से होती है। ग्रेनाइट और डोलोमाइट आंतरिक आग्नेय शैल के सामान्य उदाहरण हैं।

रासायनिक गुणों के आधार पर आग्नेय शैलों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- अम्लीय और क्षारीय शैल। ये क्रमशः अम्लीय और क्षारीय लावा के जमने से बनती है।

अम्लीय आग्नेय शैल:

ऐसी शैलों में सिलीका की मात्रा 65 प्रतिशत होती है। इनका रंग बहुत हल्का होता है। ये कठोर और मजबूत शैल है ग्रेनाइट इसी प्रकार की शैल का उदाहरण है।

क्षारीय आग्नेय शैल: ऐसी शैलों में लोहा और मैगनीशियम की अधिकता है। इनका रंग गहरा और काला होता है। गैब्रो, बैसाल्ट तथा डोलेराइट क्षारीय शैलों के उदाहरण हैं।

आग्नेय चट्टानों की विशेषताएं: चट्टानें शैल प्रकार विशेषताएं

यह चट्टाने लावा के धीरे-धीरे ठंडा होने से बनती है, इसलिए रवेदार और दानेदार होती है।

इन में धात्विक खनिज सर्वाधिक मात्रा में पाए जाते हैं।

यह अत्यधिक कठोर होती है जिससे वर्षा का जल इनमें प्रवेश नहीं कर पाता और रासायनिक अपक्षय की क्रिया कम होती है।

यह चट्टाने लावा के ठंडे होने से बनती है, जिसके कारण इनमें जीवा अवशेष नहीं पाए जाते हैं।

इन चट्टानों में परते नहीं पाई जाती हैं।

अवसादी या परतदार चट्टान:

अवसादी अर्थात् Sedimentary (सेडीमेंटेरी) शब्द की व्युत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द सेडिमेंटस से हुई है जिसका अर्थ है, व्यवस्थित होना।

इन शैलों की रचना अवसादों के एक के ऊपर एक जमा होने के परिणाम स्वरूप होती है। इन शैलों में परतें होती हैं। अतः इन्हें परतदार शैल भी कहते हैं।

इन शैलों की परतों के बीच जीवाश्म भी मिलते हैं

जीवाश्म प्रागैतिहासिक काल के पेड़ – पौधों अथवा पशुओं के अवशेष हैं, जो अवसादी शैलों की परतों के बीच में दबकर ठोस रूप धारण कर चुके हैं।

संसार के सभी जलोढ़ निक्षेप भी अवसादों के एकीकृत रूप हैं।

अतः सभी नदी द्रोणियां विशेषकर उनके मैदान तथा डेल्टा अवसादों के जमाव से बने हैं।

इनमें सिंधु-गंगा का मैदान और गंगा-ब्रह्मपुत्र का डेल्टा सबसे उत्तम उदाहरण है।

धरातल पर विभिन्न शैलों पर बाह्य कारकों के प्रभाव से विभिन्न पदार्थों की परत बनती जाती है और सघनता के कारण यह परतें शैल में परिवर्तित हो जाती है इस प्रक्रिया को शिलीभवन (Lithification) कहते हैं।

संसार के विशालकाय वलित पर्वतों जैसे हिमालय, एण्डीज आदि की रचना शैलों से हुई है।

बलुआ पत्थर, शैल, चूना पत्थर और डोलोमाइट यांत्रिक अवसादी शैलें हैं।

कोयला और चूना पत्थर जैविक/कार्बनिक मूल की अवसादी शैलें हैं।

सेंधा नमक, जिप्सम, शोरा आदि सब रासायनिक प्रकार की शैलें है।

कायंतरित या रूपांतरित चट्टान: चट्टानें शैल प्रकार विशेषताएं

अवसादी अथवा आग्नेय शैलों पर अत्याधिक ताप से या दाब पड़ने के कारण रूपान्तरित शैलें बनती हैं।

उच्च ताप और उच्च दाब, पूर्ववर्ती शैलों के रंग, कठोरता, गठन तथा खनिज संघटन में परिवर्तन कर देते हैं।

इस परिवर्तन की प्रक्रिया को रूपान्तरण कहते हैं।

इस प्रक्रिया द्वारा बनी शैल को रूपांतरित शैल कहते हैं।

स्लेट, नीस-शीस्ट, संगमरमर और हीरा रूपान्तरित शैलों के उदाहरण हैं।

यह चट्टानी अपनी मूल चट्टान से अधिक मजबूत और कठोर होती हैं।

रूपांतरण के कारण इन चट्टानों में जीवावशेष नष्ट हो जाते हैं अतः इन में जीवाश्म लगभग नहीं पाए जाते हैं।

कायांतरण की प्रक्रिया में शैलों के कुछ कण या खनिज सतहों या रेखाओं के रूप में व्यवस्थित हो जाते हैं।

इस व्यवस्था को पत्रण (Foliation) या रेखांकन कहते हैं।

कभी-कभी खनिज या विभिन्न समूहों के कण पतली से मोटी सतह में इस प्रकार व्यवस्थित होते हैं, कि वे हल्के एवं गहरे रंगों में दिखाई देते हैं।

कायांतरित शैलों में ऐसी संरचनाओं को बैंडिंग कहते हैं।

शैल अथवा चट्टानों से संबंधित विज्ञान को पैट्रोलॉजी कहते हैं।

कठोरता-

दस चुने हुए खनिजों में से दस तक की श्रेणी में कठोरता मापना।

ये खनिज हैं 1. टैल्क, 2. जिप्सम, 3. कैल्साइट, 4. फ्लोराइट, 5. ऐपेटाइट, 6. फ़ेल्डस्पर. 7. क्वार्ट्ज, 8. टोपाज, 9. कोरंडम, 10. हीरा।

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वायुदाब

पवनें

वायुमण्डल

चट्टानें अथवा शैल

जलवायु

चक्रवात-प्रतिचक्रवात

पवनें Pawane Winds

पवनें Pawane Winds परिभाषा, प्रकार एवं विशेषताएं

पवनें Pawane Winds परिभाषा, प्रकार, विशेषताएं, गर्म पवनें, ठण्डी पवनें, विश्व एवं भारत की प्रमुख स्थानीय पवनें, वायुदाब प्रवणता आदि पवनों के बारे में जानकारी

एक स्थान से एक निश्चित दिशा की ओर चलती हुई वायु को पवन कहते हैं।

पवन हमेशा उच्च वायुदाब से निम्न वायुदाब की ओर चलती है।

वायुदाब के अन्तर के कारण क्षैतिज रूप में चलने वाली वायु को पवन कहते हैं।

जब वायु ऊर्ध्वाधर रूप में गतिमान होती है तो उसे वायुधारा कहते हैं।

पवने और वायुधाराएं मिलकर वायुमंडल की परिसंचरण व्यवस्था बनाती हैं।

वायुदाब प्रवणता एवं पवने

किन्हीं दो स्थानों के बीच वायुदाब के अंतर को दाब प्रवणता कहते हैं। यह प्रवणता क्षैतिज दिशा में होती है। दाब प्रवणता को बैरोमैट्रिक ढाल भी कहते हैं।

वायुदाब की प्रवणता और पवन की गति में बहुत निकट का संबंध है। दो स्थानों के बीच वायुदाब का जितना अधिक अन्तर होगा, उतनी ही पवन की गति अधिक होगी इसके विपरीत यदि वायुदाब की प्रवणता मन्द होगी तो पवन की गति भी कम होगी।

कोरिओलिस प्रभाव और पवनें

पृथ्वी की परिभ्रमण/घूर्णन गति के कारण पवनें विक्षेपित हो जाती हैं, इसे कोरियोलिस बल कहते हैं। तथा इस बल के प्रभाव को कोरियोलिस प्रभाव कहते हैं। इस प्रभाव के कारण पवनें उत्तरी गोलार्द्ध मंे अपनी दाहिनी ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में अपनी बाईं ओर विक्षेपित हो जाती हैं। इस प्रभाव को फेरल नाक वैज्ञानिक ने सिद्ध किया था। इसलिए इसे फेरल का नियम भी कहते हैं।

वैश्विक स्तर पर पवनों के निम्न प्रकार होते हैं- (पवनें – परिभाषा, प्रकार एवं विशेषताएं)

भूमण्डलीय या स्थाई पवने/प्रचलित पवने/सनातनी पवने।

आवर्ती पवनें/सामयिक पवने/मौसमी पवने/अस्थाई पवने।

स्थानीय पवने।

भूमण्डलीय या स्थाई पवने-

सामान्यतया  पवने सदैव उच्च वायुदाब से निम्न वायुदाब की ओर चलती है लेकिन पृथ्वी के घूर्णन से उत्पन्न कोरिओलिस बल के कारण यह पवने सीधी नहीं चलती अपितु अपने प्रभाव मार्ग से मुड़ जाती हैं।

इनके तीन उपविभाग हैं-

(i) पूर्वी पवनें या व्यापारिक पवनें

(ii) पश्चिमी पवनें या  पछुआ पवनें

(iii) ध्रुवीय पूर्वी पवनें या ध्रुवीय पवनें

(i) पूर्वी पवनें या व्यापारिक पवनें:

पूर्वी पवनें या व्यापारिक पवनें उपोष्ण उच्च वायुदाब क्षेत्रों से विषुवतीय निम्न वायुदाब क्षेत्र की ओर चलती है। इन्हें ट्रेड विंड’ भी कहते हैं। ‘ट्रेड’ जर्मन भाषा का शब्द हैं जिसका अर्थ है ‘पथ’। ‘ट्रेड के चलने का अर्थ है नियमित रूप से एक ही पथ पर निरन्तर एक ही दिशा से चलना। अतः इन्हें सन्मार्गी पवनें भी कहते हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में पूर्वी या सन्मार्गी पवनें उत्तर-पूर्व दिशा से तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिण-पूर्व दिशा से चलती हैं। सन्मार्गी पवनें उष्ण कटिबंध में मुख्यतया पूर्व दिशा से चलती हैं अतः इन्हें उष्ण कटिबन्धीय पूर्वी पवनें भी कहते हैं।

व्यापारिक पवने उत्तरी गोलार्द्ध में उत्तर पूर्व से दक्षिण पश्चिम की ओर यह अपने दाएं और  मुड़ेंगी तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिण पूर्व से उत्तर पश्चिम की ओर यह अपने  बांयीं ओर मुड़ेंगी।

(नोट: फैरोल के नियम के अनुसार बॉयस हैंडले का नियम इसके विपरीत है)

(ii) पश्चिमी पवनें या  पछुआ पवनें-

पश्चिमी या पछुआ पवनें उपोष्ण उच्च वायुदाब की पेटी से अधोध्रुवीय निम्न वायुदाब की पेटी की ओर चलती हैं। कोरिओलिस बल के कारण ये पवनें उत्तरी गोलार्द्ध में अपने दायीं ओर को मुड़कर चलती हैं और यहाँ इनकी दिशा दक्षिण-पश्चिम होती है। दक्षिणी गोलार्द्ध में ये बाईं ओर मुड़कर चलती है और यहाँ इनकी दिशा उत्तर-पश्चिम होती है। मुख्य दिशा पश्चिम होने के कारण इन्हें पश्चिमी पवनें कहते हैं।

मौसम की परिवर्तनशीलता ही इनकी विशेषता है। (पवनें – परिभाषा, प्रकार एवं विशेषताएं)

40 डिग्री दक्षिणी अक्षांश – गरजती चालीसा/दहाड़ती चालीसा

50 डिग्री दक्षिणी अक्षांश – प्रचंड पचासा भयंकर पचासा/डरावनी पचासा

60 डिग्री दक्षिणी अक्षांश – चीखता साठा

(iii) ध्रुवीय पूर्वी पवनें या ध्रुवीय पवनें

ये पवनें ध्रुवीय उच्च वायुदाब क्षेत्र से अधोधुवीय निम्न वायुदाब क्षेत्र की ओर चलती हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में इनकी दिशा उत्तर-पूर्व से दक्षिण पश्चिम की ओर, दक्षिण गोलार्द्ध में दक्षिण-पूर्व से उत्तर पश्चिम की ओर होती है।

आवर्ती पवनें/सामयिक पवने/मौसमी पवने/अस्थाई पवने- (पवनें – परिभाषा, प्रकार एवं विशेषताएं)

इन पवनों की दिशा ऋतु परिवर्तन के साथ बदलती रहती है। मानसून पवने बहुत ही महत्वपूर्ण आवर्ती पवनें हैं।

मानसून पवनें

‘मानसून’ शब्द की उत्पत्ति अरबी भाषा के शब्द ‘मौसम’ से हुई है, जिसका अर्थ है ‘मौसम’। जो पवनें ऋतु परिवर्तन के साथ अपनी दिशा उलट लेती हैं, उन्हें मानसून पवनें कहते हैं। ग्रीष्म ऋतु में मानसून पवनें समुद्र से स्थल की ओर तथा शीत ऋतु में स्थल से समुद्र की ओर चलती हैं।

स्थानीय पवनें

कुछ पवनें ऐसी भी हैं जो स्थानीय मौसम को प्रभावित करती हैं। सामान्यतः स्थानीय पवनें छोटे क्षेत्र को प्रभावित करती हैं। ये क्षोभमण्डल के निम्नभाग तक ही सीमित रहती हैं कुछ स्थानीय पवनों का वर्णन नीचे दिया जा रहा है ।  यह मुख्यता चार प्रकार की हैं-

(i) समुद्र-समीर एवं स्थल-समीर

समुद्र-समीर और स्थल- समीर समुद्र तटों और झीलों के आस-पास के क्षेत्रों में चला करती हैं। दिन के समय स्थल भाग समुद्र या झील की अपेक्षा शीघ्र और अधिक गर्म हो जाता है। इस कारण स्थल भाग पर स्थानीय निम्न वायुदाब विकसित हो जाता है और इसके विपरीत समुद्र या झील की सतह पर उच्च वायुदाब होता है। वायुदाबों में अन्तर होने के कारण समुद्र से स्थल की ओर वायु चलती है। इसे समुद्र-समीर कहते हैं। समुद्र-समीर दोपहर से कुछ पहले चलना आरंभ करती है और इसकी तीव्रता दोपहर और दोपहर बाद सबसे अधिक होती है। इन शीतल पवनों का तटीय भागों के मौसम पर समकारी प्रभाव पड़ता है।

रात के समय स्थल भाग शीघ्र ठंडा हो जाता है, इसके परिणामस्वरूप स्थल भाग पर उच्च वायुदाब होता है और समुद्री-भाग पर अपेक्षाकृत निम्न वायुदाब, अतः पवनें स्थल-भाग से समुद्र की ओर चला करती है ऐसी पवनों को स्थल-समीर कहते हैं।

(ii) घाटी समीर एवं पर्वतीय समीर :

दिन के समय पर्वतीय ढाल घाटी की अपेक्षा अधिक गर्म हो जाते हैं इससे ढालों पर वायुदाब कम और घाटी तल पर वायुदाब अधिक होता है अतः दिन के समय घाटी तल से वायु मन्द गति से पर्वतीय ढालों की ओर चला करती है। इसे घाटी-समीर कहते हैं।

सूर्यास्त के बाद पर्वतीय ढालों पर तेजी से ताप का विकिरण हो जाता है। अतः पर्वतीय ढालों पर घाटी तल की अपेक्षा शीघ्रता से उच्च वायुदाब विकसित हो जाता है। अतः पर्वतीय ढालों की ठंडी और भारी वायु नीचे घाटी तल की ओर बहने लगती है। इसे पर्वतीय- समीर कहते हैं। घाटी-समीर और पर्वतीय-समीर को क्रमशः एनाबेटिक तथा केटाबेटिक समीर भी कहते हैं।

(iii) गर्म पवनें (पवनें – परिभाषा, प्रकार एवं विशेषताएं)

लू. फोहन और चिनूक प्रमुख गर्म प्रकार की स्थानीय पवने हैं।

(1) लू

लू अति गर्म तथा शुष्क पवनें हैं जो मई तथा जून के महीनों में भारत के उत्तरी मैदानों और पाकिस्तान में चला करती हैं इन पवनों की दिशा पश्चिम से पूर्व है ओर ये सामान्यतया दोपहर के बाद चलती हैं। इन पवनों का तापमान 450 सें. से 50 से. के बीच होता है। जिसे वस्तुत: तापलहरी भी कहा जाता है।

(2) फोहन/फॉन

आल्प्स पर्वत माला के पवनाविमुख (उत्तरी) ढालों पर नीचे की ओर उतरने वाले तीव्र, झोंकेदार, शुष्क और गर्म स्थानीय पवन को फोहन कहते हैं। स्थानीय वायुदाब प्रवणता के कारण वायु आलस पर्वत के दक्षिणी ढलानों पर चढ़ती है। चढ़ते समय इन ढलानों पर कुछ वर्षा भी करती है। परन्तु पर्वतमाला को पार करने के बाद ये पवनें उत्तरी ढलानों पर गर्म पवन के रूप में नीचे उतरती हैं इनका तापमान 15 डिग्री से. से 20 डिग्री से. तक होता है और ये पर्वतों पर पड़ी हिम को पिघला देती है इनसे चारागाह पशुओं के चरने योग्य बन जाते हैं और अंगूरों को शीघ्र पकने में इनसे सहायता मिलती है।

(3) चिनूक

संयुक्त राज्य अमरीका और कनाड़ा में रॉकी पर्वतमाला के पूर्वी ढालों पर नीचे उतरती गर्म पवन को चिनूक कहते हैं। स्थानीय भाषा में चिनूक शब्द का अर्थ है हिम भक्षक’ क्योंकि वे हिम को समय से पूर्व पिघलाने में समर्थ हैं अतः ये घास स्थलों को हिमरहित बना देती हैं, जिससे चारागाहों पर पर्याप्त मात्रा में घास उपलब्ध हो जाती है।

(4) सिरोंको (Sirocco):

यह गर्म शुष्क तथा रेत से भरी हवा है जो सहारा के रेगिस्तानी भाग से उत्तर की ओर भूमध्यसागर होकर इटली और स्पेन में प्रविष्ट होती है। यहाँ इनसे होने वाली वर्षा को रक्त वर्षा (Blood Rain) के नाम से जाना जाता है, क्योंकि यह अपने साथ सहारा क्षेत्र के लाल रेत को भी लाता है। इनका वनस्पतियों, कृषि व फलों के बागों पर विनाशकारी प्रभाव पड़ता है। मिस्र, लीबिया, ट्यूनीशिया में सिरॉको का स्थानीय नाम क्रमशः खमसिन, गिबली, चिली. है। स्पेन तथा कनारी त मेडिरा द्वीपों में सिरॉको का स्थानीय नाम क्रमश: लेवेश व लेस्ट है।

(5) ब्लैक रोलर:

ये उत्तरी अमेरिका के विशाल मैदानों में  चलने वाली गर्म एवं धूलभरी शुष्क हवाएँ हैं।

(6) योमा:

यह जापान में सेंटाएना के समान ही चलने वाली गर्म व शुष्क हवा है।

(7) टेम्पोरल:

यह मध्य अमेरिका में चलने वाली मानसूनी हवा है।

(8) सिमूम:

अरब के रेगिस्तान में चलने वाली गर्म व शुष्क हवा जिससे रेत की आंधी आती है दृश्यता समाण हो जाती है।

(9) सामुन:

यह ईरान व इराक के कान में चलने वाली स्थानीय हवा है जो फोहन के समान विशेषताएँ रखती है।

(10) शामल:

यह इराक, ईरान और अरब के  मरुस्थलीय क्षेत्र में चलने वाली गर्म, शुष्क व रेतीली पवनें है।

(11) सीस्टन:

यह पूर्वी ईरान में ग्रीष्मकाल में प्रवाहित होने वाली तीव्र उत्तरी पवन है।

(12) हबूब:

उत्तरी सूडान में मुख्यतः खारतूम के समीप चलने वाली यह धूलभरी आँधियाँ है जिनसे दृश्यता कम हो जाती है ओर कभी-कभी तड़ित झंझा (Thunder storm) सहित भारी वर्षा होती है।

(13) काराबुरान:

यह मध्य एशिया के तारिम बेसिन में उत्तर पूर्व की ओर प्रवाहित होने वाली धूल भरी आधियाँ हैं।

(14) कोइम्यैंग:

फोहन के समान जावा द्वीप (इंडोनेशिया) में चलने वाली पवनें हैं, जो तंबाकू आदि फसलों को नुकसान पहुँचाती है।

(15) हरमट्टन:

सहारा रेगिस्तान में उत्तर-पूर्व तथा पूर्वी दिशा से पश्चिमी दिशा में चलने वाली यह गर्म तथा शुष्क हवा है, जो अफ्रीका के पश्चिमी तट की उष्ण तथा आर्द्र हवा में शुष्कता लाती है, जिससे मौसम सुहावना व स्वास्थ्यप्रद हो जाता है। इसी कारण गिनी तट पर इसे ‘डॉक्टर’ हवा कहा जाता है।

(16) ब्रिकफिल्डर:

आस्ट्रेलिया के विक्टोरिया प्रांत में चलने वाली यह उष्ण व शुष्क हवा है।

(17) नार्वेस्टर:

यह उत्तर न्यूजीलैंड में चलने वाली गर्म व शुष्क हवा है।

(18) सेंटाएना:

यह कैलिफोर्निया में चलने वाली गर्म व शुष्क हवा है।

(19) जोन्डा:

ये अर्जेंटीना और उरूवे में एडीज से मैदानी भागों की ओर चलने वाली शुष्क पवनें है इसे शीत फोहन भी कहा जाता है।

पवनें परिभाषा प्रकार विशेषताएं
पवनें परिभाषा प्रकार विशेषताएं

(iv) ठंडी पवनें:

ठंडी पवनें शीत ऋतु में हिमाच्छादित पर्वतों पर उत्पन्न होती है और ढाल के अनुरूप घाटी की ओर नीचे उतरती हैं। भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में इनके अलग-अलग नाम हैं। इनमें से प्रमुख मिस्ट्रल पवन हैं।

(1) मिस्टूल :

यह ठंडी ध्रुवीय हवाएँ है जो रोन नदी को घाटी से होकर चलती है एवं रूमसागर (भूमध्य सागर) के उत्तर पश्चिम भाग विशेषकर स्पेन में फ्रास को प्रभावित करती है। इसके आने से तापमान हिमांक के नीचे गिर जाता है।

(2) बोरा :

मिस्टूल के समान ही यह भी एक शुष्क व अत्यधिक ठंडी हवा है एवं एड्रियाटिक सागर के पूर्वी किनारों पर चलती है इससे मुख्यत: इटली व यूगोस्लाविया प्रभावित होते है।

(3) ब्लिजर्ड या हिम झंझावात :

ये बर्फ के कणों से युक्त ध्रुवीय हवाएँ हैं। इससे साइबेरियाई क्षेत्र, कनाडा, सं.रा अमेरिका प्रभावित होता है। इनके आगमन से तापमान हिमांक से नीचे गिर जाता है। रूस के टुंड्रा प्रदेश एवं साइबेरिया क्षेत्र में ब्लिजर्ड का स्थानीय नाम क्रमश: पुरगा व बुरान है।

(4) नार्टे:

ये संयुक्त राज्य अमेरिका में शीत ऋतु में प्रवाहित होने वाली ध्रुवीय पवनें हैं दक्षिणी सं.रा. अमेरिका में शीत ऋतु में प्रवाहित होने वाली ध्रुवीय पवनों को नार्दर या नार्दर्न पवनें कहा जाता है।

(5) पैंपेरो:

ये अर्जेंटीना, चिली व उरुग्वे में बहने वाली तीव्र ठंडी ध्रुवीय हवाएँ हैं।

(6) ग्रेगाले:

ये द. यूरोप के भूमध्यसागरीय क्षेत्रों के मध्यवर्ती भाग में बहने वाली शीतकालीन पवनें हैं।

(7) जूरन:

ये जूरा पर्वत (स्विटजरलैंड) से जेनेवा झील (इटली) तक रात्रि के समय चलने वाली शीतल व शुष्क पवनें हैं।

(8) मैस्ट्रो:

ये भूमध्यसागरीय क्षेत्र के मध्यवर्ती भागों में चलने वाली उत्तर पश्चिमी पवनें हैं।

(9) पुना:

यह एंडीज क्षेत्र में चलने वाली ठंडी पवन हैं।

(10) पापागायो:

यह मैक्सिको के तट पर चलने वाली शुष्क और शीतल उत्तर-पूर्व पवनें हैं।

(11) पोनन्त:

ये भूमध्यसागरीय क्षेत्र में विशेषकर कोर्सिक एवं भूमध्यसागरीय फ्रांस में चलने वाली ठंडी पश्चिमी हवाएँ हैं।

(12) वीरासेन:

ये पेरू तथा चिली के पश्चिमी तट पर चलने वाली समुद्री पवनें हैं।

(13) दक्षिणी बर्स्टर:

ये न्यू साउथ बेल्स (आस्ट्रेलिया) में चलने वाली तेज व शुष्क ठंडी पवनें हैं।

(14) बाईज:

यह फ़ांस में प्रभावी रहने वाली अत्यंत ठंडी शुष्क पवन है।

(15) लेबांटर:

यह दक्षिणी स्पेन में प्रभावी रहने वाली शक्तिशाली पूर्वी ठंडी पवनें हैं।

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वायुदाब

पवनें

वायुमण्डल

चट्टानें अथवा शैल

जलवायु

चक्रवात-प्रतिचक्रवात

वायुमण्डल – संघटन, संरचना और परतें

वायुमण्डल – संघटन, संरचना और परतें

वायुमण्डल का संघटन, वायुमण्डल की संरचना, वायुमण्डल की परतें, वायुमण्डल की गैसें एवं वायुमण्डल का रासायनिक संगठन आदि की पूरी जानकारी

वायु अनेक गैसों का मिश्रण है। वायु पृथ्वी को चारों ओर से घेरे हुए है। वायु के इस घेरे को ही वायुमण्डल कहते हैं। वायुमण्डल हमारी पृथ्वी का अभिन्न अंग है जो पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के कारण पृथ्वी से जुड़ा हुआ है।

 

वायुमण्डल का संघटन (वायुमण्डल – संघटन, संरचना और परतें)

वायुमण्डल विभिन्न प्रकार की गैसों, जलवाष्प और धूलकणों से बना है। वायुमण्डल का संघटन स्थिर नहीं है यह समय और स्थान के अनुसार बदलता रहता है।

(क) वायुमण्डल की गैसें

जलवाष्प एवं धूलकण सहित वायुमण्डल विभिन्न प्रकार की गैसों का मिश्रण है। नाइट्रोजन और ऑक्सीजन वायुमण्डल की दो प्रमुख गैसें हैं। 99% भाग इन्हीं दो गैसों से मिलकर बना है। 120 किमी की ऊँचाई पर ऑक्सीजन की मात्रा नगण्य हो जाती है। इसी प्रकार, कार्बन डाईऑक्साइड एवम् जलवाष्प पृथ्वी को सतह से 90 किमी की ऊँचाई तक ही पाये जाते हैं।

कार्बन डाईऑक्साइड मौसम विज्ञान की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण गैस है, क्योंकि यह सौर विकिरण के लिए पारदर्शी है, लेकिन पार्थिव विकिरण के लिए अपारदर्शी है। यह सौर विकिरण के एक अंश को सोख लेती है तथा इसके कुछ भाग को पृथ्वी की सतह की ओर प्रतिबिबित कर देती  हैं।

वायुमण्डल की शुष्क और शुद्ध वायु में गैसों की मात्रा

गैसें                                       मात्रा (प्रतिशत में)

नाइट्रोजन                                78.1

आक्सीजन                               20.9

आर्गन                                      0.9

कार्बन-डाई-आक्साइड             0.03

हाइड्रोजन                                0.01

नियॉन                                     0.0018

हीलियम                                  0.0005

ओजोन                                    0.00006

(ख) जलवाष्प

वायुमंडल में जलवाष्प की औसत मात्रा 2% है। ऊंचाई के साथ-साथ जलवाष्प की मात्रा में कमी आती है यह अधिकतम 4% तक हो सकती है। वायुमंडल के संपूर्ण जलवाष्प का 90% भाग 8 किलोमीटर की ऊंचाई तक सीमित है। जलवाष्प की सबसे अधिक मात्रा उष्ण-आर्द्र क्षेत्रों में पाई जाती है तथा शुष्क क्षेत्रों में यह सबसे कम मिलती है। सामान्यतः निम्न अक्षांशों से उच्च अक्षांशों की ओर इसकी मात्रा कम होती जाती है इसी प्रकार ऊँचाई के बढ़ने के साथ इसकी मात्रा कम होती जाती है।

वायुमण्डल संघटन संरचना परतें
वायुमण्डल संघटन संरचना परतें

(ग) धूल कण

धूलकण अधिकतर वायुमण्डल के निचले स्तर में मिलते हैं। ये कण धूल, धुआँ, समुद्री लवण, उल्काओं के कण आदि के रूप में पाये जाते हैं। धूलकणों का वायुमण्डल में विशेष महत्त्व है। ये धूलकण जलवाष्प के संघनन में सहायता करते हैं संघनन के समय जलवाष्प जलकणों के रूप में इन्हीं धूल कणों के चारों ओर संघनित हो जाती है, जिससे बादल बनते हैं | और वर्षण सम्भव हो पाता है।

वायुमण्डल की परतें- (वायुमण्डल – संघटन, संरचना और परतें)

क्षोभ मंडल या परिवर्तन मंडल या ट्रापास्फेयर –

इस परत की धरातल से औसत ऊंचाई पर 13 किलोमीटर है।

क्षोभमंडल की मोटाई भूमध्य रेखा/ विषुवत रेखा पर सबसे अधिक 18 किलोमीटर है, क्योंकि तेज वायुप्रवाह के कारण ताप का अधिक ऊँचाई तक संवहन किया जाता है।

ध्रुवों पर 8 से 10 किलोमीटर है।

इस मंडल में ऊंचाई निश्चित नहीं है।

तापमान कम हो तो नीचे आ जाती है और अधिक हो तो ऊपर चली जाती है।

ध्रुवों पर 8 किलोमीटर रहती है।

मौसम संबंधी परिवर्तन तथा सजीवों के निवास स्थान के रूप में यह परत विख्यात है।

इसी मंडल को परिवर्तन मंडल एवं संवहन मंडल भी कहते हैं।

बादलों का बनना, गर्जना, तडित चमकना, वर्षा होना, आंधी तूफान आना आदि सभी इसी मंडल अथवा परत में होते हैं।

इस संस्तर में प्रत्येक 165 मीटर की ऊंचाई पर 1 डिग्री सेल्सियस तापमान घटता है जिससे ताप की सामान्य ह्रास दर कहा जाता है।

*क्षोभ सीमा/ट्रांकोपास-

क्षोभमंडल और समतापमंडल को अलग करने वाले भाग को क्षोभसीमा कहते हैं। विषुवत् वृत्त के ऊपर क्षोभ सीमा में हवा का तापमान -80° से. और ध्रुव के ऊपर -45° से होता है। इसकी ऊंचाई डेढ़ से दो किलोमीटर तक होती है।

इस सीमांत पर तथा इसके ऊपर तापमान गिरना बंद हो जाता है।

इस सीमांत में संवहनीक धाराएं नहीं चलती है।

यहां पर तापमान स्थिर होने के कारण इसे क्षोभ सीमा कहते हैं।

समताप मंडल/स्ट्रेटोस्फयर –

इस परत में तापमान के परिवर्तन समाप्त हो जाते हैं तथा संपूर्ण परत की मोटाई में तापमान लगभग समान पाया जाता है।

क्षोभ सीमा से ऊपर 50 किलोमीटर तक फैले समताप मंडल में मौसम एकदम शांत रहता है अतः वायुयान उड़ाने के लिए उपयुक्त परत है।

समतापमंडल का एक महत्त्वपूर्ण लक्षण यह है कि इसमें ओजोन परत पायी जाती है। इस मंडल में 20 किलोमीटर से 35 किलोमीटर तक की ऊंचाई पर बनने वाली ओजोन परत हानिकारक पराबैंगनी किरणों से हमारी रक्षा करती है।

समताप मंडल की ऊपरी सीमा पर औसत तापमान 0 डिग्री सेल्सियस हो जाता है।

मध्य मंडल/ मैसोस्फेयर-

मध्यमंडल, समतापमंडल के ठीक ऊपर 80 कि मी. की ऊँचाई तक फैला होता है।

इस संस्तर में भी ऊँचाई के साथ-साथ तापमान कमी होने लगती है और 80 किलोमीटर की ऊँचाई तक पहुँचकर यह माइनस 100° से. हो जाता है।

जो पृथ्वी का न्यूनतम तापमान है इसके आगे तापमान पुनः बढ़ने लगता है।

आयन मंडल/आयनॉस्फेयर (वायुमण्डल – संघटन, संरचना और परतें)

यहां गैंसें आयनिक अर्थात बिखराव की अवस्था में पाई जाती है।

मध्य सीमा के ऊपर 80 से 400 किलोमीटर की ऊंचाई तक फैले आयन मंडल में विद्युत आवेशित कण पाए जाते हैं, जिन्हें आयन कहते हैं इसीलिए इस मंडल को आयनमंडल कहतज हैं।

इस मंडल द्वारा रेडियो तरंगे परावर्तित की जाती है।

इसी मंडल के कारण उत्तरी ध्रुवीय ज्योति तथा दक्षिणी ध्रुव या ज्योति निर्मित होती है।

रेडियो की लघु तरंगे आयन मंडल की F परत से मध्य तिरंगे E परत से तथा दीर्घ तरंगें D परत से परावर्तित होकर आती है।

इस परत के अस्तित्व का आभास सर्वप्रथम रेडियो तरंगों द्वारा हुआ।

इसकी ऊपरी सीमा का तापमान 1100 डिग्री सेंटीग्रेड हो जाता है।

इस मंडल को थर्मोस्फीयर फिर भी कहते हैं।

बहिर्मंडल/एसोस्फेयर/आयतन मंडल –

इस की ऊपरी सीमा नहीं है फिर भी कुछ वैज्ञानिकों ने इसकी ऊंचाई एक हजार किलोमीटर तक मानी है।

इस परत में कृत्रिम उपग्रह स्थापित किए जाते हैं।

वायुमण्डल का रासायनिक संगठन (वायुमण्डल – संघटन, संरचना और परतें)

इस आधार पर वायुमंडल को दो मंडलों में बांटा गया है।

सममंडल (होमोस्फेयर)

विषम मंडल (थर्मोस्फेयर)

क्षोभमंडल, समतापमंडल तथा मध्यमंडल को संयुक्त रूप से सममंडल या होमोस्फेयर कहते हैं।

आयन मंडल तथा बहिर्मंडल को संयुक्त रूप से विषममंडल या तापमंडल या थर्मोस्फेयर कहा जाता है।

क्षोभसीमा (ट्रोफोस्फेयर)

समताप सीमा (स्ट्रेटोपास)

मध्य सीमा (मेसोपास)

सीमा क्रमशः क्षोभ मंडल, समताप मंडल और मध्य मंडल की ऊपरी सीमा पर डेढ़ से ढाई किलोमीटर मोटा संक्रमण क्षेत्र है।

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वायुदाब

पवनें

वायुमण्डल

चट्टानें अथवा शैल

जलवायु

चक्रवात-प्रतिचक्रवात

वायुदाब Vayudab

वायुदाब

वायुदाब की परिभाषा, समदाब रेखा (ISOBAR), वायुदाब पेटियां, विषुवत रेखीय, भूमध्यरेखीय, उच्च एवं निम्न वायुदाब पेटियां, ध्रुवीय पेटियां आदि की पूर्ण जानकारी

पृथ्वी के चारों ओर फैला वायुमंडल अपने भार के कारण पृथ्वी के धरातल पर जो दबाव डालता है उसे वायुमंडलीय दाब या वायुदाब कहते हैं

सागर या स्थल के प्रति इकाई क्षेत्र में वायु जो भार डालती है उसे वायुदाब कहते हैं।

वायुदाब का अध्ययन सर्वप्रथम ऑटोफिन ग्युरिक ने किया।

बैरोमीटर/फोर्टिन बैरोमीटर/नीद्रव बैरोमीटर/साधारण वायुदाब मापी नामक यंत्र से वायुदाब को मापा जाता है।

वायुदाब मापने की इकाई मिलीबार/पास्कल/किलोपास्कल है।

समुद्र तल पर पृथ्वी का औसत वायुदाब 1013.25 मिलीबार/किलोपास्कल (KP) होता है।

धरातल से ऊपर जाने पर प्रत्येक 10 मीटर की ऊंचाई पर एक मिली बार की दर से वायु दाब घटता जाता है।

पवने उच्च वायुदाब से निम्न वायुदाब की ओर चलती है।

सूत्र = Pα1/T

P = दाब

T = तापमान

α = समानुपती

सबसे अधिक वायुदाब इर्किटस्क (साइबेरिया) 1075.2 मिलीबार है।

धरातल से प्रत्येक 165 मीटर की ऊंचाई पर 1 डिग्री सेंटीग्रेड की दर से तापमान घटता है इसे सामान्य ताप ह्रास ताप पतन की दर कहते हैं।

समदाब रेखा (ISOBAR) – वायुदाब, परिभाषा, पेटियां, ISOBAR

सागर तल पर समान वायुदाब वाले क्षेत्रों को मिलाने वाली रेखा समदाब रेखा कहलाती है।

वायुदाब पेटियां

ग्लोब पर सात वायुदाब पेटियां बनती हैं जिनके चार प्रकार होते हैं।

इनमें से उत्पत्ति की प्रक्रिया के आधार पर वायुदाब की पेटियों को दो वृत्त समूहों में विभाजित किया जाता है-

1 तापजन्य- यह दो प्रकार की हैं-

i विषुवत रेखीय/भूमध्य रेखीय निम्न वायुदाब पेटी

ii ध्रुवीय उच्च वायुदाब पेटी

2 गतिजन्य- भी दो प्रकार की होती हैं-

i उपोषण कटिबंधीय उच्च वायुदाब पेटी या घोड़े का अक्षांश (अश्व अक्षांश)

ii उपध्रुवीय निम्न वायुदाब पेटी

वायुदाब परिभाषा पेटियां ISOBAR
वायुदाब परिभाषा पेटियां ISOBAR

1- विषुवत रेखीय/भूमध्य रेखीय निम्न वायुदाब पेटी

इस पेटी का विस्तार भूमध्य रेखा के 5 डिग्री उत्तर से 5 डिग्री दक्षिण अक्षांशों तक विस्तृत है।
यहां वर्षभर सूर्य की किरणें सीधी पड़ती हैं।
अतः तापमान सदैव ऊँचा तथा वायुदाब कम रहता है।
भूमध्य रेखा पर पृथ्वी का घूर्णन वेग सर्वाधिक होता है।
जिससे यहां अपकेन्द्रीय बल सर्वाधिक होता है।
यहां जलवाष्प की अधिकता तथा वायु का घनत्व कम रहता है।

इस क्षेत्र में धरातल पर हवाओं में गति कम होने तथा क्षेतीजीय पवन प्रवाह के कारण शांत वातावरण रहता है, इसलिए इसे डोलड्रम या शांत पेटी या शांत कटिबंध कहते हैं।

कटिबंध में प्रतिदिन वर्षा होती है
अतः इसका भी प्रभाव वायुदाब पर पड़ता है अतः यहां उर्ध्वाधर पवने रहती हैं।

इस क्षेत्र में दोनों गोलार्द्धों में स्थित उपोषण कटिबंध से आने वाली व्यापारिक पवनों का मिलन या अभिसरण होता है अतः इस मेखला को अंतःउष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (ITCZ) भी कहते हैं।

2- उपोषण कटिबंधीय उच्च वायुदाब पेटी या घोड़े का अक्षांश (अश्व अक्षांश)-

विषुवत रेखा के दोनों ओर 30 डिग्री से 35 डिग्री अक्षांशों के मध्य यह पेटी स्थित है।
यहां प्रायः वर्ष भर उच्च तापमान, उच्च वायुदाब एवं मेघ रहित आकाश पाया जाता है।

इस पेटी की मुख्य विशेषता यह है कि विश्व के सभी उष्ण मरुस्थल इसी पेटी में महाद्वीपों के पश्चिमी किनारों पर स्थित हैं।

यह पेटी उच्च वायुदाब तथा तापमान से संबंधित ने होकर पृथ्वी की दैनिक गति से संबंधित है (वायुदाब के अवतलन से संबंधित) अधिकांश मरुस्थल इसी पेटी में आते हैं।

इस कटिबंध में नीचे उतरती हुई वायु काफी दबाव डालती है जिस कारण से इस क्षेत्र को घोड़े का अक्षांश या अश्व अक्षांश के नाम से भी जाना जाता है।

अधोध्रुवीय/उपध्रुवीय निम्न वायुदाब पेटी-वायुदाब, परिभाषा, पेटियां, ISOBAR

यह पेटी 60 डिग्री से 65 डिग्री उत्तरी व दक्षिणी अक्षांशों के मध्य स्थित है।
यहां निम्न तापमान तथा निम्न वायुदाब पाया जाता है। जिसका कारण पृथ्वी की घूर्णन गति है।

पृथ्वी के घूर्णन से उत्पन्न अपकेंद्रीय बल के कारण दोनों गोलार्द्धों में इस पेटी का निर्माण होता है, जो की गतिजन्य वायुदाब पेटी है।
चक्रवात और तूफानों का जन्म इसी पेटी में होता है।
उत्तरी और दक्षिणी गोलार्धों में इन्हें क्रमशः उत्तरी अधोध्रुवीय निम्नदाब पेटी और दक्षिणी अधोध्रुवीय निम्नदाब पेटी कहते हैं।
इन पेटियों में ध्रुवों और उपोष्ण उच्च दाब क्षेत्रों में पवनें आकर मिलती हैं और ऊपर उठती हैं।
इन आने वाली पवनों के तापमान और आर्द्रता में बहुत अन्तर होता है।
इस कारण यहाँ चक्रवात या निम्न वायुदाब की दशायें बनती हैं।
निम्न वायुदाब के इस अभिसरण क्षेत्र को ध्रुवीय वाताग्र भी कहते हैं।

ध्रुवीय उच्च वायुदाब पेटी-

ध्रुवीय प्रदेशों में तापमान की कमी के कारण इस पेटी का निर्माण होता है जो कि एक तापजन्य पेटी है। इस पेटी में गुरुत्वाकर्षण बल सर्वाधिक होता है।

स्थलीय भागों में दिन में न्यूनतम वायुदाब और सागरों में उच्च वायुदाब तथा रात्रि में इसके विपरीत स्थिति होती है।

ध्रुवीय क्षेत्रों में सूर्य कभी सिर के ऊपर नहीं होता।

यहाँ सूर्य की किरणों का आपतन कोण न्यूनतम होता है इस कारण यहां सबसे कम तापमान पाये जाते हैं।

निम्न तापमान होने के कारण वायु सिकुड़ती है और उसका घनत्व बढ़ जाता है, जिससे यहां उच्च वायुदाब का क्षेत्र बनता है उत्तरी गोलार्द्ध में इसे उत्तर ध्रुवीय उच्च वायुदाब पेटी और दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिण ध्रुवीय उच्च वायुदाब पेटी कहा जाता है।

इन पेटियों से पवनें अधोध्रुवीय निम्न वायुदाब पेटियों की ओर चलती हैं।

उपर्युक्त वायुदाब चित्र में वायुदाब पेटियां दिखाई गई है जिसका निर्माण सूर्य की दिन की आदर्श स्थिति अर्थात विषुवत रेखा पर होती है तो संपूर्ण पृथ्वी पर 21 मार्च और 23 सितंबर को यह स्थिति निर्मित होती है, जिसे वायुदाब की आदर्श स्थिति कहा जाता है।

अंततः – वायुदाब, परिभाषा, पेटियां, ISOBAR

वायुदाब पेटियों की प्रस्तुत व्यवस्था एक सामान्य तस्वीर प्रदर्शित करती है।
वास्तव में वायुदाब पेटियों की यह स्थिति स्थायी नहीं है।
सूर्य की आभासी गति कर्क वृत्त और मकर वृत्त की ओर होने के परिणाम स्वरूप ये पेटियाँ जुलाई में उत्तर की ओर, और जनवरी में दक्षिण की ओर खिसकती रहती हैं।
तापीय विषुवत रेखा जो सर्वाधिक तापमान की पेटी है, वह भी विषुवत वृत्त से उत्तर और दक्षिण की ओर खिसकती रहती है।
तापीय विषुवत रेखा के ग्रीष्म ऋतु में उत्तर की ओर और शीत ऋतु में दक्षिण की ओर खिसकने के परिणाम स्वरूप सभी वायुदाब पेटियां भी अपनी औसत स्थिति से थोड़ा उत्तर या थोड़ा दक्षिण की ओर खिसकती रहती हैं।

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जो सर्वाधिक तापमान की पेटी है, वह भी विषुवत वृत्त से उत्तर और दक्षिण की ओर खिसकती रहती है।
तापीय विषुवत रेखा के ग्रीष्म ऋतु में उत्तर की ओर और शीत ऋतु में दक्षिण की ओर खिसकने के परिणाम स्वरूप सभी वायुदाब पेटियां भी अपनी औसत स्थिति से थोड़ा उत्तर या थोड़ा दक्षिण की ओर खिसकती रहती हैं।

वायुदाब

पवनें

वायुमण्डल

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जलवायु

चक्रवात-प्रतिचक्रवात

भाषायी दक्षता

भाषायी दक्षता का विकास

इस आलेख में हम भाषायी दक्षता के बारे में जानेंगे, जिसमें भाषायी दक्षता की परिभाषा, विकास, भाषायी दक्षता के प्रकार, महत्त्व, घटक या तत्व एवं बिंब निर्माण आदि के बारे में बताया गया है। आशा है कि इस भाषायी दक्षता में व्याप्त व्याकरण एवं प्रतियोगी परीक्षाओं की संपूर्ण जानकारी आपके लिए उपयोगी सिद्ध होगी।

भाषायी दक्षता का महत्त्व

किसी भी भाषा में दक्षता प्राप्त करना एक सहज प्रक्रिया के अंतर्गत होता है और यह अपने आप में बहुत अधिक महत्वपूर्ण है।

भाषा में दक्षता प्राप्त होने पर ही मनुष्य अपने मनोभावों दूसरों के सामने प्रकट कर सकता है।

भाषा ही वह माध्यम है जिसके द्वारा मनुष्य अपनी आवश्यकताओं, अपने विचारों और अपने मनोभाव को संप्रेषित करता है।

बिना भाषा के वह यह सब कार्य नहीं कर सकता है, अतः मानव जीवन में भाषा में दक्षता प्राप्त करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

भाषायी दक्षता
भाषायी दक्षता

भाषायी दक्षता का अर्थ एवं परिभाषा

किसी भी भाषा को बोलने, समझने, लिखने, पढ़ने में प्रवीणता प्राप्त करना अथवा किसी भी भाषा को बोलने, समझने, लिखने, पढ़ने की शक्ति का विकास करना ही भाषायी दक्षता कहलाता है।

भाषायी दक्षता के विकास के मनोवैज्ञानिक घटक

जिज्ञासा- जब बालक किसी वस्तु या दृश्य को देखता है या ध्वनि को सुनता है तो उस वस्तु, दृश्य या ध्वनि के बारे में जानने की कोशिश करता है यही जिज्ञासा कहलाती है।

अनुकरण- अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए बालक अनेक क्रिया-प्रतिक्रिया करता है। वह परिवार के सदस्यों से अनेक ध्वनियाँ सुनता है। ध्वनियों को सुनकर वह बोलने की चेष्ठा करता है। धीरे-धीरे प्रयत्न से वह भी कुछ शब्द बोलने लग जाता है। यहाँ से ही उसकी भाषा सीखने की प्रवृति का विकास प्रारम्भ होने लगता है। अर्थात बोलना सीखने में अनुकरण का सर्वाधिक महत्त्व है।

अभ्यास- बार-बार के अनुकरण को ही अभ्यास कहा गया है। अभ्यास के द्वारा बालक के मस्तिष्क में बने बिंब पुष्ट हो जाते हैं और वह भाषा को सीखने की ओर अग्रसर होता है।

भाषायी दक्षता के तत्व/कारक या भाषायी दक्षता के तत्व/कारकों की विवेचना

बालक भाषा अर्जित करने की सहजशक्ति लेकर जन्म लेता है।

भाषा सीखने के लिए उसके मस्तिष्क में सारी व्यवस्थाएं प्राकृतिक रूप से होती है।

जब बालक किसी वस्तु या दृश्य को देखता है या ध्वनि को सुनता है तो मस्तिष्क की सहायता से प्रक्रिया करके नियमों की खोज करता है।

आयु बढ़ने के साथ-साथ बालक विभिन्न प्रकार की क्रिया-प्रतिक्रिया करता है।

जैसे जैसे वह नवीन वस्तुओं से परिचित होता जाता है वैसे वैसे वह उनके साथ अनेक क्रियाएं करता है।

जब वे क्रियाएं बार-बार होती हैं तो उन सभी का एक बिंब उसके मस्तिष्क में बनता चला जाता है।

भाषायी दक्षता के विकास में इन बिंबो का सर्वाधिक महत्त्व है

बिम्ब का निर्माण तथा उसकी भूमिका

भाषायी दक्षता में व्याप्त भाषायी दक्षता एवं इसके बिंदु जैसे इसकी परिभाषा, विकास, भाषायी दक्षता के प्रकार, भाषायी दक्षता के महत्त्व, घटक या तत्व एवं बिंब निर्माण-

दृश्य या चाक्षुक बिंब-

जब बालक किसी वस्तु या दृश्य को पहली बार देखता है तो उसका एक चित्र आंखों के माध्यम से बालक के मस्तिष्क में अंकित हो जाता है।

जब बालक पुनः उसी चित्र दृश्य को देखता है तो पहला चित्र अपने आप ही सक्रिय हो जाता है।

इस प्रक्रिया को बिंब बनाना कहा जाता है और इसे ही दृश्य बिंब कहा जाता है।

यह भाषा सीखने का पहला बिंब है।

श्रुति/श्रुत/श्रवण बिंब-

दृश्य बिंब बनाने के पश्चात जब परिवार के सदस्य उस वस्तु को दिखाकर उसका नाम लेते हैं तो बालक का मस्तिष्क उस वस्तु और उसके नाम की ध्वनि में साहचर्य स्थापित कर लेता है।

पुनः वही शब्द बालक के सामने दोहराया जाता है तो उसका चित्र बालक के मस्तिष्क में उभर आता है।

इस प्रकार दृश्य बिम्ब के साथ श्रव्य बिंब भी बालक के मस्तिष्क में सक्रिय हो जाता है।

यही श्रव्य बिंब है। यह भाषा सीखने का दूसरा महत्त्वपूर्ण बिंब है।

विचार बिंब-

दृश्य तथा श्रव्य बिंबों के माध्यम से बालक का भाषायी विकास शुरू हो जाता है।

धीरे-धीरे इन्हीं दोनों बिंबों के माध्यम से बालक के वैचारिक बिंब बनते हैं।

बालक दृश्य और वस्तुएं देखता है और ध्वनियां सुनता है, जिससे उसके विचारों को पुष्टि मिलती है।

विभिन्न आकार प्रकार या रंग रूप की एक ही वस्तु के लिए बालक जब एक ही नाम सुनता है तो उसके वैचारिक बिंबो को बल मिलता है।

निरीक्षण, तुलना सहसंबंध एवं अभ्यास की क्रियाओं के माध्यम से बालक सीख जाता है कि एक ही आकार प्रकार तथा रंग रूप की दो अलग-अलग वस्तुओं के नाम एक ही है।

यह सारी प्रक्रिया विचार बिंब है जो की भाषा सीखने का तीसरा प्रधान बिंब माना जाता है।

भाव बिंब-

आयु बढ़ने के साथ-साथ बालक के विचारों में परिपक्वता आती है।

विचार बिंब के सामंजस्य से बालक में भाव बिंब का निर्माण होता है।

उसमें विभिन्न तरह के भाव उत्पन्न होते हैं।

दृश्य, श्रव्य तथा विचार बिंबों के माध्यम से भावों का बनाना भाव बिंब में आता है।

यह भाषा अर्जन का अंतिम बिंब माना जाता है।

बालक को किसी के द्वारा से लाए जाने पर मुस्कुराना उसके पास जाना या किसी को देखकर रोना भाव बिंब के अंतर्गत आता है।

शिशु में वाक् विकास

क्रंदन-

5 माह की आयु का बालक क्रंदन करता है।

यह वाग्यंत्रों के विकास की पहली सीढ़ी है और भावाभिव्यक्ति की आदिम स्थिति भी।

किलकारी-

5 माह से 8 माह तक का बालक स्वतः निरर्थक ध्वनियां निकलता है, जिसे किलकारी कहा जाता है।

यह भावी भाषा एवं ध्वनि के विकास की आधारशिला बनती है।

बबलाना-

7 से 9 माह का बालक कुछ ध्वनिया बार-बार दोहराने लगता है। यह ध्वनिया ज्यादातर स्पष्ट होती हैं।

प्रारंभिक शब्द और वाक्य विन्यास-

एक वर्ष का होते-होते बालक प्रथम शब्द का उच्चारण करता है। यह एक शब्द के वाक्य बनते हैं।

यह बाल व्याकरण की स्थिति है।

उत्तर वाक्य विन्यास-

डेढ़ वर्ष का होने तक बालक 2 से 3 शब्दों वाले वाक्यों को सीख लेता है।

यह अवस्था टेलीग्राफिक भाषा की स्थिति है।

सामान्य बालक की भाषा में ध्वनि विकास सामान्य अवस्था से प्रारंभ होता है।

स्थूल से सूक्ष्म के क्रम में पहले औष्ठ्य, तालव्य, कंठ्य ध्वनियों का विकास होता है।

मूर्धन्य ध्वनियां बहुत बाद में आती है। सबसे अंत में लुंठित (र) ध्वनि उच्चारित होती है।

भाषा के विभिन्न अंग और उनका विकास

भाषा के पांच अंग माने गए हैं-

शब्द भंडार- स्मिथ के अनुसार 2 वर्ष तक का बालक 300 शब्द सीख जाता है।

वाक्य विन्यास- प्रारंभ में बालक 1-2 शब्दों के छोटे वाक्य बोलता है 5 वर्ष की आयु तक वह शब्द तथा पूरे वाक्य बोलने लगता है।

अभिव्यक्ति- 5 से 6 वर्ष की आयु में बालक स्पष्ट उच्चारण करने लगता है तथा अभिव्यक्ति में स्पष्ट का आ जाती है।

वाचन- 6 से 10 वर्ष की अवस्था में बालक चित्रों और अक्षरों को पहचानने और पढ़ने लगता है इस अवस्था में बालक बड़े-बड़े जटिल शब्द भी अभ्यास द्वारा पढ़ने लगता है।

लिपि- 5 वर्ष की आयु तक बालक की मांसपेशियां कोमल होती है और धीरे-धीरे मजबूत होती है।

अब बालक को लिखना आरंभ करता है। लेखन में दृश्य और श्रव्य बिंब बहुत सहायक होते हैं।

अंततः हमें आशा है कि आपको भाषायी दक्षता में व्याप्त भाषायी दक्षता एवं इसके बिंदु जैसे इसकी परिभाषा, विकास, भाषायी दक्षता के प्रकार, भाषायी दक्षता के महत्त्व, घटक या तत्व एवं बिंब निर्माण आदि आपके लिए उपयोगी सिद्ध हुए होंगे।

संस्मरण और रेखाचित्र- https://thehindipage.com/sansmaran-aur-rekhachitra/sansmaran-aur-rekhachitra/

तुलसीदास Tulsidas

तुलसीदास Tulsidas जी की जीवनी एवं साहित्य रचनाएं

इस पोस्ट में हम तुलसीदास Tulsidas जी की जीवनी, साहित्य, रचनाएं एवं विशेष कथन संबंधी पूरी जानकारी प्राप्त करेंगे।

पूरा नाम -गोस्वामी तुलसीदास

बचपन का नाम- रामबोला

जन्म- सन 1532 (संवत- 1589)

जन्म भूमि- राजापुर, उत्तर प्रदेश (आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार)

कुछ इतिहासकार इनका जन्म स्थान ‘सोरों’ क्षेत्र (उत्तर प्रदेश) को मानते हैं सर्वप्रथम श्री गौरी शंकर द्विवेदी ने स्वरचित ‘सुकवि सरोज’ (1927 ईस्वी) पुस्तक में इनका संबंध ‘सोरो’ क्षेत्र से स्थापित किया था|

पंडित रामनरेश त्रिपाठी ने भी इनका जन्म स्थान ‘सोरों’ स्वीकार किया है|

लाला सीताराम, गौरीशंकर द्विवेदी, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामनरेश त्रिपाठी, रामदत्त भारद्वाज, गणपतिचन्द्र गुप्त के अनुसार– तुलसीदास का जन्म स्थान – सूकर खेत (सोरों) (जिला एटा)

बेनीमाधव दास, महात्मा रघुवर दास, शिव सिंह सेंगर, रामगुलाम द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार तुलसीदास का जन्म स्थान– राजापुर (जिला बाँदा)

मृत्यु- सन 1623 (संवत- 1680)

मृत्यु स्थान- काशी

तथ्य:-
“संवत् सोरह सौ असी, असी गंग के तीर।
श्रवण शुक्ल सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर।”

अभिभावक – आत्माराम दुबे और हुलसी

पालन-पोषण- दासी चुनियां एवं बाबा नरहरिदास

भक्ति पद्धति- दास्य भाव

पत्नी – रत्नावली (दीनबंधु पाठक की पुत्री)

अपनी पत्नी की प्रेरणा से ही इन को ज्ञान की प्राप्ति हुई मानी जाती है पत्नी के दवारा बोले गए निम्न कथनों को सुनकर ही यह राम भक्ति की ओर उन्मुख हुए थे:-
“लाज न आवत आपको, दौरे आयहु साथ।
धिक-धिक एसे प्रेम को, कहा कहौं मैं नाथ।
अस्थि चर्म मय देह मम, तामैं एसी प्रीति।
तैसी जौं श्रीराम महँ, होती न तौ भवभीति ।।”

कर्म भूमि- बनारस

कर्म-क्षेत्र -कवि, समाज सुधारक

विषय – सगुण राम भक्ति

भाषा -अवधी, ब्रज

गुरु -नरहरिदास व शेष सनातन
नोट:- नरहरिदास ने ही इनका नाम रामबोला से बदलकर तुलसी रखा।

गोस्वामी तुलसीदास की गुरु परम्परा का क्रम

राघवानन्द
   ⇓

रामानन्द
   ⇓

अनन्तानन्द
   ⇓

नरहर्यानंद (नरहरिदास)
   ⇓

तुलसीदास

तुलसीदास जीवनी साहित्य रचनाएं
तुलसीदास जीवनी साहित्य रचनाएं

TULSIDAS के विषय में जानकारी के स्रोत

भक्तमाल- नाभा दास

भक्तमाल टीका- प्रियदास

दो सौ वैष्णव की वार्ता- गोकुलनाथ

गोसाई चरित्र और मूल गोसाई चरित्र- वेणी माधव दास

तुलसी चरित्र- बाबा रघुनाथ दास

घट रामायण- तुलसी साहिब हाथरस वाले

इनमें से वेणी माधव दास की रचना सबसे प्रामाणिक एवं महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।

तुलसीदास का साहित्य परिचय

गोस्वामी तुलसीकृत 12 ग्रन्थों को ही प्रामाणिक माना जाता है। इसमें 5 बड़े और 7 छोटे हैं।

तुलसी की पाँच लघु कृतियों – ’वैराग्य संदीपनी’, ’रामलला नहछू’, ’जानकी मंगल’, ’पार्वती मंगल’ और ’बरवै रामायण’ को ’पंचरत्न’ कहा जाता है।

कृष्णदत्त मिश्र ने अपनी पुस्तक ’गौतम चन्द्रिका’ में तुलसीदास की रचनाओं के ’अष्टांगयोग’ का उल्लेख किया है।
ये आठ अंग निम्न हैं –
(1) रामगीतावली,
(2) पदावली,
(3) कृष्ण गीतावली,
(4) बरवै,
(5) दोहावली,
(6) सुगुनमाला,
(7) कवितावली
(8) सोहिलोमंगल।

तुलसीदास की प्रथम रचना वैराग्य संदीपनी तथा अन्तिम रचना कवितावली को माना जाता है। कवितावली के परिशिष्ट में हनुमानबाहुक भी संलग्न है (इसकी रचना तुलसी ने बाहु रोग से मुक्ति के लिए की)। किन्तु अधिकांश विद्वान रामलला नहछू को प्रथम कृति मानते हैं।

सांगरूपक तुलसी जी का प्रिय अलंकार है।

Tulsidas

इन्होंने ‘हनुमान बाहुक’ की रचना अपने किसी अनिष्ट निवारण के लिए की थी वर्तमान में अधिकतर विद्वान इस रचना को ‘कवितावली’ रचना का ही एक भाग मानते हैं।

सर्वप्रथम पंडित राम गुलाम दिवेदी ने इसे ‘कवितावली’ रचना का भाग माना था।

पंडित राम गुलाब द्विवेदी में इनके द्वारा रचित 12 रचनाओं का उल्लेख किया है।

बाबा बेनी माधव दास ने स्वरचित ‘मूल गोसाई चरित’ रचना में इनके ग्रंथों की संख्या 13 मानी है तथा इन 13 में ‘कवितावली’ का नाम उल्लेख प्राप्त नहीं होता है।

ठाकुर शिवसिंह सेंगर ने स्वरचित ‘शिवसिंह सरोज’ रचना में तुलसी द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या 18 मानी है।

एनसाइक्लोपीडिया ऑव् रिलीजन एण्ड एथिक्स- 12 ग्रंथ (प्रमाणिक रूप से स्वीकृत) मानें है।

मिश्रबंधुओं ने स्व रचित ‘हिंदी नवरत्न’ रचना में तुलसी द्वारा रचित 25 ग्रंथों का उल्लेख किया है जिनमें 13 अप्रमाणिक एवं 12 प्रमाणिक माने गए हैं।

नागरी प्रचारणी सभा, काशी की खोज रिपोर्ट ‘तुलसी’ नामक कवि की 37 रचनाओं का उल्लेख किया गया है, परंतु 1923 ईस्वी में सभा ने तुलसीदास के केवल 12 ग्रंथों को प्रमाणिक मान कर उनका प्रकाशन ‘तुलसी ग्रंथावली’ (खंड 1 व 2) के रुप में किया है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल एवं लाला सीता राम नें भी तुलसीदास की 12 रचनाओं को प्रमाणिक माना है।

गोस्वमी तुलसीदास रामानुजाचार्य के ’श्री सम्प्रदाय’ और विशिष्टाद्वैतवाद से प्रभावित थे। इनकी भक्ति भावना ’दास्य भाव’ की थी।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ’रामचरितमानस’ को ’लोकमंगल की साधनावस्था’ का काव्य माना है।

जीवनी एवं साहित्य रचनाएं

इस पोस्ट में हम तुलसीदास जी की जीवनी, साहित्य, रचनाएं एवं विशेष कथन संबंधी पूरी जानकारी प्राप्त कर रहे हैं-

तुलसीदास की रचनाएं

गोस्वामी तुलसीदास की रचनाओं का संक्षिप्त परिचय निम्न हैं –
(जिन रचनाओं में राम व मंगल शब्द आते है वे अवधी में है शेष ब्रज भाषा में है।)

अवधी भाषा में रचित

1574 ई. रामचरित मानस (सात काण्ड)

1586 ई. पार्वती मंगल 164 हरिगीतिका छन्द

1586-ई. जानकी मंगल 216 छन्द

1586 ई. रामलला नहछु 20 सोहर छन्द

1612 ई. बरवै रामायण 69 बरवै छन्द

1612 ई. रामाज्ञा प्रश्नावली 49-49 दोहों के सात सर्ग

ब्रज भाषा में रचित

1578 ई गीतावली 330 छन्द

1583 ई. दोहावली 573 दोहे

1583 ई. विनय पत्रिका 276 पद

1589 ई. कृष्ण गीतावली 61 पद

1612 ई. कवितावली 335 छन्द

1612 ई. वैराग्य संदीपनी 62 छन्द

रामचरितमानस

रामचरितमानस की रचना संवत् 1631 (1574 ई.) में चैत्र शुक्ल रामनवमी (मंगलवार) को हुआ।

इसकी रचना में कुल 2 वर्ष 7 महीने 26 दिन लगे।

’रामचरितमानस’ पर सर्वाधिक प्रभाव ’अध्यात्म रामायण’ का पड़ा है।

तुलसीदास ने सर्वप्रथम ’मानस’ को रसखान को सुनाया था।

’रामचरितमानस’ की प्रथम टीका अयोध्या के बाबा रामचरणदास ने लिखी।

भाषा- अवधी

रचना शैली- चौपाई+दोहा/सोरठा शैली

प्रधान रस व अलंकार- शांत रस व अनुप्रास अंलकार

काव्य स्वरूप-प्रबंधात्मक काव्यांर्तगत ‘महाकाव्य’

कथा विभाजन

सात काण्डों में-

बाल कांड

अयोध्या कांड

अरण्य कांड

किष्किन्धा कांड

सुन्दर कांड

लंका कांड

उत्तर कांड

इस रचना को उत्तर भारत की बाइबिल कहा जाता है।

अयोध्याकाण्ड’ को रामचरितमानस का हृदयस्थल कहा जाता है। इस काण्ड की चित्रकूट सभा को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने एक आध्यात्मिक घटना की संज्ञा प्रदान की।

चित्रकूट सभा में वेदनीति, लोकनीति एवं राजनीति तीनों का समन्वय दिखाई देता है।

रामचरितमानस की रचना गोस्वामीजी ने ’वान्तः सुखाय के साथ-साथ लोकहित एवं लोकमंगल के लिए किया है।

’रामचरितमानस’ के मार्मिक स्थल निम्नलिखित हैं –

राम का अयोध्या त्याग और पथिक के रूप में वन गमन,

चित्रकूट में राम और भरत का मिलन,

शबरी का आतिथ्य,

लक्ष्मण को शक्ति लगने पर राम का विलाप,

भरत की प्रतीक्षा आदि।

तुलसी ने ’रामचरितमानस’ की कल्पना मानसरोवर के रूपक के रूप में की है। जिसमें 7 काण्ड के रूप में सात सोपान तथा चार वक्ता के रूप में चार घाट हैं।

सप्तसोपान मानस के चारों घाटों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है-

रामयश जल से परिपूर्ण रामचरितमानस

काकभुशुंडि-गरुड़-संवाद
उपासना घाट : पनघट

शिव-पार्वती-संवाद
ज्ञानघाट : राजघाट (प्रथम वक्ता : श्रोता)

तुलसी-संत-संवाद
प्रजापति घाट गायघाट

याज्ञवल्क्य-भरद्वाज-संवाद
कर्मघाट : पंचायती घाट

विनयपत्रिका

रचनाकाल- 1582 ई. (1639 वि.), मिथिला यात्रा प्रस्थान के समय

कुलपद- 279

भाषा- ब्रज

प्रधान रस- शांत

रचना शैली- गीति शैली

इस रचना में इनके स्वयं के जीवन के बारे में भी उल्लेख प्राप्त होता है अंत: कुछ इतिहासकार कहते हैं- “तुलसी के राम को जानने के लिए रामचरितमानस पढ़ना चाहिए तथा स्वयं तुलसी को जानने के लिए विनय पत्रिका”।

इस ग्रंथ की रचना तुलसी ने राम के दरबार में भेजने के लिए की थी, जिसका उद्देश्य ‘कली काल से मुक्ति प्राप्त करना’ था।

इसमें 21 रागों का प्रयोग हुआ है।

गीतावली रचनाएं

रचनाकाल- 1571 ई.

कुल पद- 328

विभाजन- सात कांडो में

रचना शैली- गीतिकाव्य शैली

प्रधान रस- श्रृंगार रस (वात्सल्य युक्त)

बाबा बेनी माधव दास द्वारा रचित मूल गोसाई चरित के अनुसार यह तुलसीदास की प्रथम रचना मानी जाती है।

इस ग्रंथ का आरंभ राम के जन्मोत्सव से होता है।

इस रचना के अनेक पदों में सूरसागर की समानता देखने को मिलती है।

इसमें 21 रागों का प्रयोग हुआ है।

कवितावली रचनाएं

रचनाकाल-1612 ई. लगभग

कुल पद- 325 छंद

भाषा- ब्रज

शैली- कवित, सवैया शैली

रचना स्थल- सीतावट के तट पर

काव्य विभाजन – सात कांड

प्रधान रस- वीर ,रौद्र व भयानक रस

कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह तुलसीदास की अंतिम रचना मानी जाती है।

इस रचना में लंका दहन का उत्कृष्टतम वर्णन किया गया है जिसको देखकर यह कहा जाता है कि उन्होंने अपने जीवन में कभी भयंकर आग अवश्य देखी थी।

कवितावली में बनारस (काशी) के तत्कालीन समय में फैले महामारी का वर्णन उत्तराकाण्ड में किया गया है।

रामलला नहछू

1582 ई

भाषा-अवधी

यह सोहर छंद में रचित रचना मानी जाती है।

कुल 20 छंद है।

इस रचना में राम का नहछु (विवाह के अवसर पर महिलाओं द्वारा गाया जाने वाले गीत) वर्णित हैं।

वैराग्य-संदीपनी

1612 ई.

भाषा-ब्रज

इस में कुल 62 छंद हैं जिनको 3 प्रकार के छंदों (दोहा, सोरठा व चौपाई) में लिखा गया है।

बरवै रामायण

1612 ई.

भाषा-अवधी

कुल छंद-69 (सभी ‘बरवै’छंद)

कांड-सात

इस रचना के प्रारंभ में तुलसीदास जी द्वारा रस एवं अलंकार निरूपण का प्रयास भी किया गया है।

यह रचना इनके परम मित्र ‘रहीमदास’ के आग्रह पर रची मानी जाती है।

पार्वती मंगल

1582 ई.

भाषा-अवधी

कुल छंद-164 ( इसमें 148 में अरुण या मंगल छंद का व 16 में हरिगीतिका छंद प्रयुक्त हुआ है।)

इसमें शिव पार्वती विवाह का वर्णन है।

जानकीमंगल

1582 ई.

भाषा:- अवधी

कुल छंद-216 ( इसमें 192 अरुण व शेष 24 में हरिगीतिका छंद प्रयुक्त हुआ है)

इसमें राम व सीता के विवाह का वर्णन किया गया है।

रामललानहछू, पार्वती मंगल, , जानकी-मंगल इन तीनों ग्रंथों की रचना इन्होंने मिथिला यात्रा में की थी।

रामज्ञा प्रश्नावली

1612 ई.

भाषा:-ब्रज व अवधी

’रामाज्ञा प्रश्न’ एक ज्योतिष ग्रन्थ है।

यह ग्रंथ 7 सर्गो में विभाजित है प्रत्येक सर्ग में सात सप्तक हैं और प्रत्येक सप्तक में 7 दोहे हैं इस प्रकार को 343 छंद है।

इसके प्रत्येक दोहे से शुभ अशुभ संकेत निकलता है जिसे प्रश्नकर्ता अपने प्रश्न का उत्तर पा लेता है।

यह रचना पंडित गंगाराम ज्योतिषी के आग्रह पर रची मानी जाती हैं।

दोहावली : तुलसीदास जीवनी साहित्य रचनाएं

1583 ई.

भाषा:-ब्रज

कुल दोहे- 573

इसमें जातक के माध्यम से प्रेम की अनन्यता का चित्रण किया गया है।

कृष्ण गीतावली

1571 ई.

भाषा- ब्रज

इस रचना में सूरदास की भ्रमरगीत परंपरा का निर्वहन हुआ है।

यह रचना राम गीतावली के समकालीन मानी जाती है।

इस में कुल 61 पद हैं।

तुलसीदास एवं इनके साहित्य संबंधी विद्वानों के कथन

इस पोस्ट में हम तुलसीदास जी की जीवनी, साहित्य, रचनाएं एवं विशेष कथन संबंधी पूरी जानकारी

हरिऔध- कविता कर के तुलसी न लसे, कविता लसी पा तुलसी की कला।

भिखारीदास- तुलसी गंग दुजौ भए सुकविन के सरदार, इनके काव्यन में मिली भाषा विविध प्रकार।

रहीम- रामचरितमानस विमल, सन्तन जीवन प्रान। हिन्दुवन को वेद सम, यवनहिं प्रकट कुरान।

“सुरतिय,नरतिय,नागतिय,सब चाहति अस कोय। गोद लिए हुलसी फिरै, तुलसी सो सुत होय ।” -इस पद में प्रथम पंक्ति ‘तुलसीदास’ जी द्वारा एवं द्वितीय पंक्ति उनके घनिष्ठ मित्र ‘रहीम दास’ जी द्वारा रचित है।

लाला भगवानदीन और बच्चन सिंह ने तुलसीदास को ‘‘रूपकों का बादशाह’’ कहा है।

नाभादास ने इन्हें ‘कलिकाल का वाल्मीकि’ एवं ‘भक्तिकाल का सुमेरु’ कहा है।

स्मिथ- ‘‘मुगलकाल का सबसे महान व्यक्ति’’ (अकबर से भी महान एवं अपने युग का महान पुरुष) कहा है।

ग्रियर्सन के अनुसार- ‘बुद्धदेव के बाद सबसे बड़ा लोक-नायक।’

रामविलास शर्मा के अनुसार – “तुलसीदास हिंदी के जातीय कवि है।”

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल-
“अनुप्रास का बादशाह” कहा है।
“तुलसीदास जी उत्तर भारत की समग्र जनता के हृदय में पूर्ण प्रेम-प्रतिष्ठा के साथ विराजमान है।”
“तुलसीदास को ‘स्मार्त वैष्णव’ मानते हैं।”

Tulsidas

“हिन्दी काव्य की प्रौढ़ता के युग का आरम्भ गोस्वामी तुलसीदास द्वारा हुआ।”
‘‘यह एक कवि ही हिंदी को प्रौढ़ साहित्यिक भाषा सिद्ध करने के लिए काफी है। इनकी वाणी की पहुँच मनुष्य के सारे भावों व्यवहारों तक है।’’
“एक ओर तो वह व्यक्तिगत साधना के मार्ग में विरागपूर्ण शुद्ध भगवद्भजन का उपदेश करती है दूसरी ओर लोक पक्ष में आकर पारिवारिक और सामाजिक कर्तव्यों का सौन्दर्य दिखाकर मुग्ध करती है।’’
तुलसी के साहित्य को “विरुद्धों का सांमजस्य” कहा है।
“तुलसीदास जी रामानंद सम्प्रदाय की वैरागी परम्परा में नही जान पड़ते। रामानंद की परम्परा में सम्मिलित करने के लिए उन्हें नरहरिदास का शिष्य बताकर जो परम्परा मिलाई गई है वह कल्पित प्रतीत होती है।”
“हिंदी काव्य गगन के सूर्य।”
“भारतीय जनता के प्रतिनिधि कवि।”
“उस युग में किसी को तुलसी के समान सूक्ष्मदर्शिनी और सारग्राहिणी दृष्टि नहीं मिली।”

उदयभानु सिंह ने – “उत्प्रेक्षाओ का बादशाह” कहा है।

मधुसूदन सरस्वती- ‘आनन्द कानन (आनंद वन का वृक्ष)।’

ग्रियर्सन ने – “बुद्धदेव के बाद सबसे बड़ा लोकनायक” कहा है।

अमृतलाल नागर- “मानस का हंस।”

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार-
“लोकनायक वही होता है,जो समन्वय का अपार धैर्य लेकर आया हो। तुलसी का संपूर्ण काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है। इनका काव्य जीवन दो कोटियों को मिलाने वाला काव्य है।”
“तुलसी का सम्पूर्ण काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है।’’
‘‘उस युग में किसी को तुलसी के समान सूक्ष्मदर्शिनी और सारग्राहिणी दृष्टि नहीं मिली।’’

बाबू गुलाबराय ने तुलसी को ‘सुमेरू कवि गोस्वामी तुलसीदास’ एवं ’विश्वविश्रुत’ कहा है।

इस पोस्ट में आज हमने तुलसीदास जी की जीवनी, साहित्य, रचनाएं एवं विशेष कथन संबंधी पूरी जानकारी प्राप्त की।

रसखान- https://thehindipage.com/bhaktikaal-ke-sahityakaar/raskhan/

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रसखान

रसखान जीवनी और साहित्य

रसखान के जीवन परिचय, जीवनी और संपूर्ण साहित्य, सवैया, कवित्त, सोरठे, दोहे एवं विशेष तथ्यों पर इस आलेख में प्रकाश डाला गया है।

आशा है कि आपको यह आलेख पसंद आएगा।

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जीवनी

पूरा नाम- सैय्यद इब्राहीम (रसखान)

जन्म- सन् 1533 से 1558 बीच (लगभग)

जन्म भूमि- पिहानी, हरदोई ज़िला, उत्तर प्रदेश

कर्म भूमि- महावन (मथुरा)

मृत्यु- सन् 1628 के आसपास

विषय- सगुण कृष्णभक्ति
नोट:- हिंदी कृष्ण भक्त मुस्लिम कवियों में रसखान का स्थान सबसे ऊपर है।

रसखान जीवनी और साहित्य
रसखान जीवनी और साहित्य

 

रसखान जीवनी और साहित्य

रचनाएं

रसखान जीवनी, संपूर्ण साहित्य, सवैया, कवित्त, सोरठे, दोहे एवं विशेष तथ्यों पर इस आलेख में प्रकाश डाला गया है।

सुजान रसखान- स्फुट पदो का संग्रह है, जिसमे 181 सवैये, 17 कवित्त, 12 दोहे तथा 4 सोरठे है|

प्रेमवाटिका- इसमें 53 दोहे है|

दानलीला- इसमे 11 दोहे है|

अष्टयाम

रसखान : जीवनी और साहित्य

विशेष तथ्य

शिवसिंह सरोज तथा हिंदी साहित्य के प्रथम इतिहास तथा ऐतिहासिक तथ्यों एवं अन्य पुष्ट प्रमाणों के आधार पर रसखान की जन्म-भूमि पिहानी ज़िला हरदोई माना जाए।

अब्राहम जार्ज ग्रियर्सन ने लिखा है सैयद इब्राहीम उपनाम रसखान कवि, हरदोई ज़िले के अंतर्गत पिहानी के रहने वाले, जन्म काल 1573 ई.।

यह पहले मुसलमान थे। बाद में वैष्णव होकर ब्रज में रहने लगे थे। इनका वर्णन ‘भक्तमाल’ में है।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने जिन मुस्लिम हरिभक्तों के लिये कहा था, “इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिन्दू वारिए” उनमें रसखान का नाम सर्वोपरि है।

जन्म- स्थान तथा जन्म काल की तरह रसखान के नाम एवं उपनाम के संबंध में भी अनेक मत प्रस्तुत किए गए हैं।

हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने अपनी पुस्तक में रसखान के दो नाम लिखे हैं:- सैय्यद इब्राहिम और सुजान रसखान, जबकि सुजान रसखान की एक रचना का नाम है। हालांकि रसखान का असली नाम सैयद इब्राहिम था और “खान’ उसकी उपाधि थी।

रसखान के जीवन परिचय, साहित्य, संपूर्ण साहित्य, सवैया, कवित्त, सोरठे, दोहे एवं विशेष तथ्यों पर इस आलेख में प्रकाश डाला गया है।

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हालावाद विशेष

हिन्दी शब्दकोश में हालावाद

हम पढ रहे हैं हालावाद, अर्थ, परिभाषा, प्रमुख हालावादी कवि, हालावाद का समय, विशेषताएं, हालावाद पर कथन, हालावादी काव्य पर विद्वानों के कथन।

गणपतिचन्द्र गुप्त ने उत्तर छायावाद/छायावादोत्तर काव्य को तीन काव्यधाराओं में व्यक्त किया है-

राष्ट्रीय चेतना प्रधान

व्यक्ति चेतना प्रधान

समष्टि चेतना प्रधान में बांटा है। इनमें से व्यक्ति चेतना प्रधान काव्य को ही हालवादी काव्य कहा गया है।

हालावाद का अर्थ/हालावाद की परिभाषा

हाला का शाब्दिक अर्थ है- ‘मदिरा’, ‘सोम’ शराब’ आदि। बच्चन जी ने अपनी हालावादी कविताओं में इसे गंगाजल, हिमजल, प्रियतम, सुख का अभिराम स्थल, जीवन के कठोर सत्य, क्षणभंगुरता आदि अनेक प्रतीकों के रूप में प्रयोग किया है।

हालावाद हिन्दी शब्दकोश के अनुसार— साहित्य, विशेषतः काव्य की वह प्रवृत्ति या धारा, जिसमें हाला या मदिरा को वर्ण्य विषय मानकर काव्यरचना हुई हो। साहित्य की इस धारा का आधार उमर खैयाम की रुबाइयाँ रही हैं।

हालावादी काव्य का संबंध ईरानी साहित्य से है जिस का भारत में आगमन अनूदित साहित्य के माध्यम से हुआ।

जब छायावादी काव्य की एक धारा स्वच्छंदत होकर व्यक्तिवादी-काव्य में विकसित हुआ। इस नवीन काव्य धारा में पूर्णतया वैयक्तिक चेतनाओं को ही काव्यमय स्वरों और भाषा में संजोया-संवारा गया है।

Halawad

डॉ.नगेन्द्र ने छायावाद के बाद और प्रगतिवाद के पूर्व की कविता को ‘वैयक्तिक कविता’ कहा है। डॉ. नगेन्द्र के अनुसार, “वैयक्तिक कविता छायावाद की अनुजा और प्रगतिवाद की अग्रजा है, जिसने प्रगतिवाद के लिए एक मार्ग प्रशस्त किया। यह वैयक्तिक कविता आदर्शवादी और भौतिकवादी,दक्षिण और वामपक्षीय विचारधाराओं के बीच का एक क्षेत्र है।”

इस नवीन काव्य धारा को ‘वैयक्तिक कविता’ या ‘हालावाद’ या ‘नव्य-स्वछंदतावाद’ या ‘उन्मुक्त प्रेमकाव्य’ या ‘प्रेम व मस्ती के काव्य’ आदि उपमाओं से अभिहित किया गया है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उत्तर छायावाद को छायावाद का दूसरा उन्मेष कहा है।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने उत्तर छायावाद/छायावादोत्तर काव्य को “स्वछन्द काव्य धारा” कहा है।

हालावाद परिभाषा कवि विशेषताएं
हालावाद परिभाषा कवि विशेषताएं

हालावाद के जनक

हरिवंश राय बच्चन हालावाद के प्रवर्तक माने जाते है। हिन्दी साहित्य में हालावाद का प्रचलन बच्चन की मधुशाला से माना जाता है। हालावाद नामकरण करने का श्रेय रामेश्वर शुक्ल अंचल को प्राप्त है।

हालावाद के प्रमुख कवि

हरिवंशराय बच्चन

भगवतीचरण वर्मा

रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’

नरेन्द्र शर्मा आदि।

हालावादी कवि और उनकी रचनाएं

हरिवंश राय बच्चन (1907-2003):

काव्य रचनाएं:

1.निशा निमंत्रण 2.एकांत-संगीत 3.आकुल-अंतर 4.दो चट्टाने 5.हलाहल 6.मधुबाला 7.मधुशाला 8.मधुकलश 9.मिलन-यामिनी 10.प्रणय-पत्रिका 11.आरती और अंगारे 12.धार के इधर-उधर 13.विकल विश्व 14.सतरंगिणी 15.बंगाल का अकाल 16.बुद्ध और नाचघर.17.कटती प्रतिमाओं की आवाज।

भगवती चरण वर्मा(1903-1980 )

काव्य रचनाएं:

1. मधुवन 2. प्रेम-संगीत 3.मानव 4.त्रिपथगा 5. विस्मृति के फूल।

रामेश्वर शुक्ल अंचल(1915-1996)

काव्य-रचनाएं

1.मधुकर 2.मधूलिका 3. अपराजिता 4.किरणबेला 5.लाल-चूनर 6. करील 7. वर्षान्त के बादल 8.इन आवाजों को ठहरा लो।

नरेंद्र शर्मा(1913-1989):

काव्य रचनाएं

1.प्रभातफेरी 2.प्रवासी के गीत 3.पलाश वन 4.मिट्टी और फूल 5.शूलफूल 6.कर्णफूल 7.कामिनी 8.हंसमाला 9.अग्निशस्य 10.रक्तचंदन 11.द्रोपदी 12.उत्तरजय।

हालावाद का समय

हालावाद का समय 1933 से 1936 तक माना जाता है।

छायावाद और हालावाद/छायावादोत्तर काव्य में अंतर

छायावादी तथा छायावादोत्तर काव्य की मूल प्रवृत्ति व्यक्ति निश्ड है फिर भी दोनों में अंतर है डॉ तारकनाथ बाली के अनुसार- “छायावादी व्यक्ति-चेतना शरीर से ऊपर उठकर मन और फिर आत्मा का स्पर्श करने लगती है जबकि इन कवियों में व्यक्तिनिष्ठ चेतना प्रधानरूप से शरीर और मन के धरातल पर ही व्यक्त होती रही है। इन्होंने प्रणय को ही साध्य के रूप में स्वीकार करने का प्रयास किया है । छायावादी काव्य जहाँ प्रणय को जीवन की यथार्थ-विषम व्यापकता से संजोने का प्रयास करता है वहाँ प्रेम और मस्ती का यह काव्य या तो यथार्थ से विमुख होकर प्रणय में तल्लीन दिखायी देता है, या फिर जीवन की व्यापकता को प्रणय की सीमाओं में ही खींच लाता है।” (हिंदी साहित्य का इतिहास सं. डॉ. नगेन्द्र)

छायावादी काव्य की प्रणयानुभूतियां आत्मा को स्पर्श करने वाली हैं। छायावादियों का प्रेम शनैः -शनैः सूक्ष्म से स्थूल की ओर, शरीर से अशरीर की ओर तथा लौकिक से अलौकिकता की ओर अग्रसर होता है, जबकि छायावादोत्तर (हालवादी) काल के कवियों के यहां प्रेम केंद्रीय शक्ति की तरह है।

हालावाद/छायावादोत्तर काव्य की प्रमुख विशेषताएं

जीवन के प्रति व्यापक दृष्टि का अभाव

आध्यात्मिक अमूर्तता तथा लौकिक संकीर्णता का विरोध

धर्मनिरपेक्षता

जीवन सापेक्ष दृष्टिकोण

द्विवेदी युगीन नैतिकता और छायावादी रहस्यात्मकता का परित्याग

स्वानुभूति और तीव्र भावावेग

उल्लास और उत्साह

जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण

जीवन का लक्ष्य स्पष्ट

भाषा एवं शिल्प

काव्य भाषा- छायावाद की भाषा में जो सूक्ष्मता और वक्रता है वह छायावादोत्तर काव्य में नहीं है।इसका कारण यह है कि इस काव्य में भावनाओं की वैसी जटिलता और गहनता नहीं है, जैसी छायावाद में थीं। लेकिन छायावाद की तरह यह काव्य भी मूलतः स्वच्छंदतावादी काव्य है, इसलिए इसकी भाषा में बौद्धिकता का अभाव है तथा मुख्य बल भाषा की सुकुमारता, माधुर्य और लालित्य पर है। छायावादोत्तर काव्य सीधी-सरल पदावली द्वारा जीवन की अनुभूतियों को व्यक्त करने का प्रयास करता है। छायावादोत्तर काल के कवियों का भाषा के क्षेत्र में सबसे बड़ा योगदान था- काव्य भाषा को बोलचाल की भाषा के नजदीक लाना। यह काम न तो द्विवेदी युग में हुआ था और न ही छायावाद में। यद्यपि इन कवियों ने भी आमतौर पर तत्सम प्रधान शब्दावली का ही प्रयोग किया परन्तु समास बहुलता, संस्कृतनिष्ठता से उन्होंने छुटकारा पा लिया। साथ ही जहाँ आवश्यक हुआ, वहाँ तद्भव, देशज और उर्दू शब्दों का भी प्रयोग किया।

Halawad

काव्य शिल्प – इस काव्यधारा ने भी मुख्यत: मुक्तक रचना की ओर ही अपना ध्यान केन्द्रित किया मुक्तक रचना में भी इन कवियों की प्रवृत्ति गीत रचना की और अधिक थी। इसका एक कारण तो इनका रोमानी प्रवृत्ति का होना था, दूसरा कारण संभवत: यह था कि इनमें से अधिकांश कवि अपनी रचनाओं को सभाओं, गोष्ठियों और कवि सम्मेलनों में पेश करते थे। इस काव्यधारा के गीतों में छायावाद जैसी रहस्यात्मकता और संकोच नहीं है बल्कि अपनी हृदयगत भावनाओं को कवियों ने बेबाक ढंग से प्रस्तुत किया है। यहाँ भी कवि का “मैं” उपस्थित है। इस दौर के गीतिकाव्य की विशेषता का उल्लेख करते हुए डॉ रामदरश मिश्र कहते हैं, “वैयक्तिक गीतिकविता की अभिव्यक्तिमूलक सादगी उसकी एक बहुत बड़ी देन है कवि सीधे-सादे शब्दों, परिचिंत चित्रों और सहज कथन भंगिमा के द्वारा अपनी बात बड़ी सफाई से कह देता है।” डॉ. रामदरश मिश्र

हालावादी काव्य पर विद्वानों के कथन

“व्यक्तिवादी कविता का प्रमुख स्वर निराशा का है, अवसाद का है, थकान का है, टूटन का है, चाहे किसी भी परिप्रेक्ष्य में हो।” -डॉ. रामदरश मिश्र

डॉ. हेतु भारद्वाज ने हालावादी काव्य को “क्षयी रोमांस और कुण्ठा का काव्य” कहा है।

डॉ. बच्चन सिंह ने हालावाद को “प्रगति प्रयोग का पूर्वाभास” कहा है।

“मधुशाला की मादकता अक्षय है”-सुमित्रानंदन पंत

” मधुशाला में हाला, प्याला, मधुबाला और मधुशाला के चार प्रतीकों के माध्यम से कवि ने अनेक क्रांतिकारी, मर्मस्पर्शी, रागात्मक एवं रहस्यपूर्ण भावों को वाणी दी है।” -सुमित्रानंदन पंत

हालावादी काव्य को हजारी प्रसाद द्विवेदी ने “मस्ती, उमंग और उल्लास की कविता” कहा है।

हालावादी कवियों ने “अशरीरी प्रेम के स्थान पर शरीरी प्रेम को तरजीह दी है।”

संदर्भ-

हिन्दी साहित्य का इतिहास – डॉ नगेन्द्र
हिन्दी साहित्य का इतिहास – आ. शुक्ल
इग्नू पाठ्यसामग्री

हालावाद | अर्थ | परिभाषा | प्रमुख हालावादी कवि | हालावाद का समय | विशेषताएं | हालावाद पर कथन | हालावादी काव्य पर विद्वानों के कथन |

हालावाद विशेष- https://thehindipage.com/halawad-hallucination/halawad/

‘रासो’ शब्द की व्युत्पत्ति – विभिन्न मत- https://thehindipage.com/raaso-sahitya/raaso-shabad-ki-jankari/

कामायनी के विषय में कथन- https://thehindipage.com/kamayani-mahakavya/kamayani-ke-vishay-me-kathan/

संस्मरण और रेखाचित्र- https://thehindipage.com/sansmaran-aur-rekhachitra/sansmaran-aur-rekhachitra/

आदिकाल के साहित्यकार
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‘रासो’ शब्द की व्युत्पत्ति – विभिन्न मत

‘रासो’ शब्द की जानकारी

‘रासो’ शब्द की व्युत्पत्ति, अर्थ, रासो साहित्य, विभिन्न प्रमुख मत, क्या है रासो साहित्य?, रासो शब्द का अर्थ एवं पूरी जानकारी।

‘रासो’ शब्द की व्युत्पति तथा ‘रासो-काव्य‘ के रचना-स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न प्रकार की धाराणाओं को व्यक्त किया है।

डॉ० गोवर्द्धन शर्मा ने अपने शोध- प्रबन्ध ‘डिंगल साहित्य में निम्नलिखित धारणाओं का उल्लेख किया है।

रास काव्य मूलतः रासक छंद का समुच्चय है।

रासो साहित्य की रचनाएँ एवं रचनाकार

अपभ्रंश में 29 मात्रओं का एक रासा या रास छंद प्रचलित था।

विद्वानों ने दो प्रकार के ‘रास’ काव्यों का उल्लेख किया है- कोमल और उद्धृत।

प्रेम के कोमल रूप और वीर के उद्धत रुप का सम्मिश्रण पृथ्वीराज रासो में है।

‘रासो’ साहित्य हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि है।

शब्द ‘रासो’ की व्युत्पत्ति के संबंध में विद्वानों में मतैक्य का अभाव है।

क्या है रासो साहित्य?

रासो शब्द का अर्थ बताइए?

‘रासो’ साहित्य अर्थ मत
‘रासो’ साहित्य अर्थ मत

विभिन्न विद्वानों ने इस संबंध में अनेक मत दिए हैं जिनमें से प्रमुख मत इस प्रकार से हैं-

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार बीसलदेव रासो में प्रयुक्त ‘रसायन’ शब्द ही कालान्तर में ‘रासो’ बना।

गार्सा द तासी के अनुसार ‘रासो’ की उत्पत्ति ‘राजसूय’ शब्द से है।

रामचन्द्र वर्मा के अनुसार इसकी उत्पत्ति ‘रहस्य’ से हुई है।

मुंशी देवीप्रसाद के अनुसार ‘रासो’ का अर्थ है कथा और उसका एकवचन ‘रासो’ तथा बहुवचन ‘रासा’ है।

ग्रियर्सन के अनुसार ‘रायसो’ की उत्पत्ति राजादेश से हुई है।

गौरीशंकर ओझा के अनुसार ‘रासा’ की उत्पत्ति संस्कत ‘रास’ से हुई है।

पं० मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या के अनुसार ‘रासो’ की उत्पत्ति संस्कत ‘रास’ अथवा ‘रासक’ से हुई है।

मोतीलाल मेनारिया के अनुसार जिस ग्रंथ में राजा की कीर्ति, विजय, युद्ध तथा तीरता आदि का विस्तत वर्णन हो, उसे ‘रासो’ कहते हैं।

विश्वनाथप्रसाद मिश्र के अनुसार ‘रासो’ की व्युत्पत्ति का आधार ‘रासक’ शब्द है।

कुछ विद्वानों के अनुसार राजयशपरक रचना को ‘रासो’ कहते हैं।

विभिन्न विद्वानों ने इस संबंध में अनेक मत दिए हैं जिनमें से प्रमुख मत इस प्रकार से हैं-

बैजनाथ खेतान के अनुसार ‘रासो या ‘रायसों’ का अर्थ है झगड़ा, पचड़ा या उद्यम और उसी ‘रासो’ की उत्पत्ति है।

के० का० शास्त्री तथा डोलरराय माकंड के अनुसार ‘रास’ या ‘रासक मूलतः नत्य के साथ गाई जाने वाली रचनाविशेष है।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार ‘रासो’ तथा ‘रासक’ पर्याय हैं और वह मिश्रित गेय-रूपक हैं।

कुछ विद्वानों के अनुसार गुजराती लोक-गीत-नत्य ‘गरबा’, ‘रास’ का ही उत्तराधिकारी है।

डॉ० माताप्रसाद गुप्त के अनुसार विविध प्रकार के रास, रासावलय, रासा और रासक छन्दों, रासक और नाट्य-रासक, उपनाटकों, रासक, रास तथा रासो-नृत्यों से भी रासो प्रबन्ध-परम्परा का सम्बन्ध रहा है. यह निश्चय रूप से नहीं कहा जा सकता। कदाचित् नहीं ही रहा है।

मं० र० मजूमदार के अनुसार रासाओं का मुख्य हेतु पहले धर्मोपदेश था और बाद में उनमें कथा-तत्त्व तथा चरित्र-संकीर्तन आदि का समावेश हुआ।

विजयराम वैद्य के अनुसार ‘रास’ या ‘रासो’ में छन्द, राग तथा धार्मिक कथा आदि विविध तत्व रहते हैं।

डॉ० दशरथ शर्मा के अनुसार रास के नृत्य, अभिनय तथा गेय-वस्तु-तीन अंगों से तीन प्रकार के रासो (रास, रासक-उपरूपक तथा श्रव्य-रास) की उत्पत्ति हुई।

विभिन्न विद्वानों ने इस संबंध में अनेक मत दिए हैं जिनमें से प्रमुख मत इस प्रकार से हैं-

हरिबल्लभ भायाणी ने सन्देश रासक में और विपिनबिहारी त्रिवेदी ने पृथ्वीराज रासो में ‘रासा’ या ‘रासो’ छन्द के प्रयुक्त होने की सूचना दी है।

कुछ विद्वानों के अनुसार रसपूर्ण होने के कारण ही रचनाएँ, ‘रास’ कहलाई।

‘भागवत’ में ‘रास’ शब्द का प्रयोग गीत नृत्य के लिए हुआ है।

‘रास’ अभिनीत होते थे, इसका उल्लेख अनेक स्थान पर हुआ है। (जैसे-भावप्रकाश, काव्यानुशासन तथा साहितय-दर्पण आदि।)

हिन्दी साहित्य कोश में ‘रासो’ के दो रूप की ओर संकेत किया गया है गीत-नत्यपरक (पश्चिमी राजस्थान तथा गुजरात में समद्ध होने वाला) और छंद-वैविध्यपरक (पूर्वी राजस्थान तथा शेष हिन्दी में प्रचलित रूप।)

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संस्मरण और रेखाचित्र

संस्मरण की परिभाषा अथवा संस्मरण किसे कहते हैं?

संस्मरण | रेखाचित्र | परिभाषा | प्रवर्तक | संस्मरण साहित्य के प्रवर्तक | हिन्दी संस्मरण एवं रेखाचित्र : कालक्रमानुसार | पूरी जानकारी |

स्मृति के आधार पर किसी विषय पर अथवा किसी व्यक्ति पर लिखित आलेख संस्मरण कहलाता है।

रेखाचित्र की परिभाषा अथवा रेखाचित्र किसे कहा जाता है?

जिस विधा में क्रमबद्धता का ध्यान न रखकर किसी व्यक्ति की आकृति उसकी चाल-ढाल या स्वभाव का, किन्हीं विशेषताएंओं का शब्दों द्वारा सजीव चित्रण किया है, रेखाचित्र कहलाती है।

संस्मरण रेखाचित्र परिभाषा प्रवर्तक
संस्मरण रेखाचित्र परिभाषा प्रवर्तक

हिंदी में संस्मरण एवं रेखाचित्र साहित्य विपुल मात्रा में रचा गया है।

संस्मरण साहित्य के प्रवर्तक

संस्मरण | रेखाचित्र | परिभाषा | प्रवर्तक | संस्मरण साहित्य के प्रवर्तक | हिन्दी संस्मरण एवं रेखाचित्र : कालक्रमानुसार | पूरी जानकारी |

इस कोश में प्रारम्भ से लेकर सन् 2013 तक प्रकाशित हुए मुख्य संस्मरण और रेखाचित्र कालक्रम के अनुसार दिए गए हैं।

संस्मरण साहित्य के प्रवर्तक पदम सिंह शर्मा को माना जाता है उससे पहले भी कुछ संस्मरण साहित्य प्रकाशित हुआ था। उन्हें भी इस सूची में शामिल किया गया है-

हिन्दी संस्मरण एवं रेखाचित्र : कालक्रमानुसार

1905-1909

1905 अनुमोदन का अन्त (महावीरप्रसाद द्विवेदी)

1907 इंग्लैंड के देहात में महाराज बनारस का कुआं (काशीप्रसाद जायसवाल)

1907 सभा की सभ्यता (महावीरप्रसाद द्विवेदी)

1908 लन्दन का फाग या कुहरा (प्यारेलाल मिश्र)

1909 मेरी नई दुनिया सम्बन्धिनी रामकहानी (भोलदत्त पांडेय)

1911-1930

1911 अमेरिका में आनेवाले विद्यार्थियों की सूचना (जगन्नाथ खन्ना)

1913 मेरी छुट्टियों का प्रथम सप्ताह (जगदीश बिहारी सेठ)

1913 वाशिंगटन महाविद्यालय का संस्थापन दिनोत्सव (पांडुरंग खानखोजे)

1918 इधर-उधर की बातें (रामकुमार खेमका)

1921 कुछ संस्मरण (वृन्दालाल वर्मा, सुधा 1921 में प्रकाशित)

1921 मेरे प्राथमिक जीवन की स्मृतियां (इलाचन्द्र जोशी, सुधा 1921 में प्रकाशित)

1929 पदम पराग (पदमसिंह शर्मा)

1930 रामा (महादेवी वर्मा)

1931-1940

1932 मदन मोहन के सम्बन्ध की कुछ पुरानी स्मृतियां (शिवराम पांडेय)

1934 बिन्दा (महादेवी वर्मा)

1935 घीसा (महादेवी वर्मा)

  ”  ”  बिट्टो (महादेवी वर्मा)

1935 सबिया (महादेवी वर्मा)

1936 शिकार (श्रीराम शर्मा)

1937 बोलती प्रतिमा (श्रीराम शर्मा, भाई जगन्नाथ इस संकलन का सर्वश्रेष्ठ संस्मरण)

  ”  ”  साहित्यिकों के संस्मरण (ज्योतिलाल भार्गव, हंस के प्रेमचन्द स्मृति अंक 1937 सं. पराड़कर)

1937 क्रान्तियुग के संस्मरण (मन्मथनाथ गुप्त)

1938 झलक (शिवनारायण टंडन)

1938 लाल तारा (रामवृक्ष बेनीपुरी)

1939 प्राणों का सौदा (श्रीराम शर्मा)

1940 रेखाचित्र (प्रकाशचन्द्र गुप्त)

1940 टूटा तारा (संस्मरण : मौलवी साहब, देवी बाबा, राजा राधिकारमण प्र. सिंह)

1941-1950

1941 अतीत के चलचित्र (महादेवी वर्मा)

1942 तीस दिन मालवीय जी के साथ (रामनरेश त्रिपाठी)

1942 गोर्की के संस्मरण (इलाचन्द्र जोशी)

1943 स्मृति की रेखाएं (महादेवी वर्मा)

1943 चरित्र रेखा (जनार्दन प्रसाद द्विज)

1946 माटी की मूरतें (रामवृक्ष बेनीपुरी)

  ”  ”  वे दिन वे लोग (शिवपूजन सहाय)

1946 पंच चिह्न (शांतिप्रसाद द्विवेदी)

1947 मिट्टी के पुतले (प्रकाशचन्द्र गुप्त)

  ”  ”  पुरानी स्मृतियां और नए स्केच (प्रकाशचन्द्र गुप्त)

1947 स्मृति की रेखाएं (महादेवी वर्मा)

1948 सन् बयालीस के संस्मरण (श्रीराम शर्मा)

1949 माटी हो गई सोना (कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’)

  ”  ”  एलबम (सत्यजीवन वर्मा ‘भारतीय’)

  ”  ”  रेखाएं बोल उठीं (देवेन्द्र सत्यार्थी)

  ”  ”  दीप जले शंख बजे (कन्हैयालाल मिश्र ‘प्रभाकर’)

  ”  ”  ज़्यादा अपनी, कम पराई (‘अश्क’)

1949 जंगल के जीव (श्रीराम शर्मा)

1950 गेहूं और गुलाब (रामवृक्ष बेनीपुरी)

  ”  ”  क्या गोरी क्या सांवरी (देवेन्द्र सत्यार्थी)

1950 लंका महाराजिन (ओंकार शरद)

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1951-1960

1951 अमिट रेखाएं (सत्यवती मल्लिक)

1952 हमारे आराध्य (बनारसीदास चतुर्वेदी)

  ”  ”  संस्मरण (बनारसीदास चतुर्वेदी)

  ”  ”  रेखाचित्र (बनारसीदास चतुर्वेदी)

1952 सेतुबन्ध (बनारसीदास चतुर्वेदी)

1953 संस्मरण (बनारसीदास चतुर्वेदी)

1954 ज़िन्दगी मुस्कायी (कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर)

  ”  ”  गांधी कुछ स्मृतियां (जैनेन्द्र)

1954 ये और वे (जैनेन्द्र)

1955 बचपन की स्मृतियां (राहुल सांकृत्यायन)

  ”  ”  मैं भूल नहीं सकता (कैलाशनाथ काटजू)

  ”  ”  रेखाएं और चित्र (उपेन्द्रनाथ अश्क)

1955 रेखा और रंग (विनय मोहन शर्मा)

1956 मंटो मेरा दुश्मन या मेरा दोस्त मेरा दुश्मन (उपेन्द्रनाथ अश्क)

1956 पथ के साथी (महादेवी)

1957 जिनका मैं कृतज्ञ (राहुल सांकृत्यायन)

  ”  ”  वे जीते कैसे हैं (श्रीराम शर्मा)

1957 माटी हो गई सोना (कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर)

1958 दीप जले, शंख बजे (कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर)

1958 बाजे पायलिया के घुंघरू (कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर)

1959 रेखाचित्र (प्रेमनारायण टंडन)

  ”  ”  स्मृति-कण (सेठ गोविन्ददास)

  ”  ”  ज़्यादा अपनी कम परायी (अश्क)

1959 मैं इनका ऋणी हूं (इन्द्र विद्यावाचस्पती)

1960 प्रसाद और उनके समकालीन (विनोद शंकर व्यास)

1961-1970

1962 जाने-अनजाने (विष्णु प्रभाकर)

  ”  ”  कुछ स्मृतियां और स्फुट विचार (डॉ॰ सम्पूर्णानन्द)

  ”  ”  समय के पांव (माखनलाल चतुर्वेदी)

  ”  ”  नए-पुराने झरोखे (हरिवंशराय बच्चन)

1962 अतीत की परछाइयां (अमृता प्रीतम)

1963 दस तस्वीरें (जगदीशचन्द्र माथुर)

  ”  ”  साठ वर्ष : एक रेखांकन (सुमित्रानन्दन पन्त)

1963 जैसा हमने देखा (क्षेमचन्द्र सुमन)

1965 कुछ शब्द : कुछ रेखाएं (विष्णु प्रभाकर)

  ”  ”  मेरे हृदय देव (हरिभाऊ उपाध्याय)

  ”  ”  वे दिन वे लोग (शिवपूजन सहाय)

  ”  ”  जवाहर भाई : उनकी आत्मीयता और सहृदयता (रायकृष्ण दास)

1965 लोकदेव नेहरू (रामधारीसिंह दिनकर)

1966 विकृत रेखाएं : धुंधले चित्र (महेन्द्र भटनागर)

  ”  ”  स्मृतियां और कृतियां (शान्तिप्रय द्विवेदी)

1966 चेहरे जाने-पहचाने (सेठ गोविन्ददास)

1967 कुछ रेखाएं : कुछ चित्र (कुन्तल गोयल)

1967 चेतना के बिम्ब (डॉ॰ नगेन्द्र)

1968 बच्चन निकट से (अजित कुमार एवं ओंकारनाथ श्रीवास्तव)

  ”  ”  संस्मरण और विचार (काका साहेब कालेलकर)

  ”  ”  स्मृति के वातायन (जानकीवल्लभ शास्त्री)

1968 घेरे के भीतर और बाहर (डाॅ॰ हरगुलाल)

1969 संस्मरण और श्रद्धांजलियां (रामधारी सिंह दिनकर)

1969 चांद (पद्मिनी मेनन)

1970 व्यक्तित्व की झांकियां (लक्ष्मीनारायण सुधांशु)

1971-1980

1971 जिन्होंने जीना जाना (जगदीशचन्द्र माथुर)

1971 स्मारिका (महादेवी वर्मा)

1972 मेरा परिवार (महादेवी वर्मा)

1972 अन्तिम अध्याय (पदुमलाल पुन्नालाल बख़्शी)

1973 जिनके साथ जिया (अमृतलाल नागर)

1974 स्मृति की त्रिवेणिका (लक्ष्मी शंकर व्यास)

1975 चन्द सतरें और (अनीता राकेश)

  ”  ”  मेरा हमदम मेरा दोस्त (कमलेश्वर)

1975 रेखाएं और संस्मरण (क्षेमचन्द्र सुमन)

1976 बीती बातें (परिपूर्णानन्द)

1976 मैंने स्मृति के दीप जलाए (रामनाथ सुमन)

1977 मेरे क्रान्तिकारी साथी (भगतसिंह)

1977 हम हशमत (कृष्णा सोबती)

1978 संस्मरण को पाथेय बनने दो (विष्णुकान्त शास्त्री)

1978 कुछ ख़्वाबों में कुछ ख़यालों में (शंकर दयाल सिंह)

1979 अतीत के गर्त से (भगवतीचरण वर्मा)

  ”  ”  श्रद्धांजलि संस्मरण (मैथिलीशरण गुप्त)

1979 पुनः (सुलोचना रांगेय राघव)

1980 यादों के झरोखे (कुंवर सुरेश सिंह)

1980 लीक-अलीक (भारतभूषण अग्रवाल)

1981-1990

1981 यादों की तीर्थयात्रा (विष्णु प्रभाकर)

  ”  ” औरों के बहाने (राजेन्द्र यादव)

  ”  ” जिनके साथ जिया (अमृतलाल नागर)

1981 सृजन का सुख-दुख (प्रतिभा अग्रवाल)

1982 संस्मरणों के सुमन (रामकुमार वर्मा)

  ”  ”  स्मृति-लेखा (अज्ञेय)

1082 आदमी से आदमी तक (भीमसेन त्यागी)

1983 मेरे अग्रज : मेरे मीत (विष्णु प्रभाकर)

  ”  ”  युगपुरुष (रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’)

1983 निराला जीवन और संघर्ष के मूर्तिमान रूप (डॉ॰ ये॰ पे॰ चेलीशेव)

1984 बन तुलसी की गन्ध (रेणु)

1984 दीवान ख़ाना (पद्मा सचदेव)

1986 रस गगन गुफा में (भगवतीशरण उपाध्याय)

1988 हज़ारीप्रसाद द्विवेदी : कुछ संस्मरण (कमल किशोर गोयनका)

1989 भारत भूषण अग्रवाल : कुछ यादें, कुछ चर्चाएं (बिन्दु अग्रवाल)

1990 सृजन के सेतु (विष्णु प्रभाकर)

1991-2000

1992 याद हो कि न याद हो (काशीनाथ सिंह)

  ”  ”  निकट मन में (अजित कुमार)

  ”  ”  जिनकी याद हमेशा रहेगी (अमृत राय)

1992 सुधियां उस चन्दन के वन की (विष्णुकान्त शास्त्री)

1994 लाहौर से लखनऊ तक (प्रकाशवती पाल)

1994 सप्तवर्णी (गिरिराज किशोर)

1995 लौट आ ओ धार (दूधनाथ सिंह)

  ”  ”  स्मृतियों के छंद (रामदरश मिश्र)

  ”  ”  मितवा घर (पदमा सचदेव)

1995 अग्निजीवी (प्रफुल्लचन्द्र ओझा)

  ”  ”  सृजन के सहयात्री (रवीन्द्र कालिया)

1996 अभिन्न (विष्णुचन्द्र शर्मा)

1998 यादें और बातें (बिन्दु अग्रवाल)

1998 हम हशमत (भाग-2, कृष्णा सोबती)

2000 अमराई (पदमा सचदेव)

  ”  ”  वे देवता नहीं हैं (राजेन्द्र यादव)

  ”  ”  यादों के काफिले (देवेन्द्र सत्यार्थी)

  ”  ”  नेपथ्य नायक लक्ष्मीचन्द्र जैन (मोहनकिशोर दीवान)

2000 याद आते हैं (रमानाथ अवस्थी)

2001

अपने-अपने रास्ते (रामदरश मिश्र)

अंतरंग संस्मरणों में प्रसाद (सं॰ पुरुषोंत्तमदास मोदी)

एक नाव के यात्री (विश्वनाथप्रसाद तिवारी)

प्रदक्षिणा अपने समय की (नरेश मेहता)

2002

चिडि़या रैन बसेरा (विद्यानिवास मिश्र)

लखनऊ मेरा लखनऊ (मनोहर श्याम जोशी)

काशी का अस्सी (काशीनाथ सिंह)

लौट कर आना नहीं होगा (कान्तिकुमार जैन)

नेह के नाते अनेक (कृष्णविहारी मिश्र)

स्मृतियों का शुक्ल पक्ष (डॉ॰ रामकमल राय)

2003

आंगन के वंदनवार (विवेकी राय)

रघुवीर सहाय : रचनाओं के बहाने एक संस्मरण (मनोहर श्याम जोशी)

2004

तुम्हारा परसाई (कान्तिकुमार जैन)

पर साथ-साथ चली रही याद विष्णुकान्त शास्त्री)

नंगा तलाई का गांव (डॉ॰ विश्वनाथ त्रिपाठी)

लाई हयात आए (लक्ष्मीधर मालवीय)

आछे दिन पाछे गए (काशीनाथ सिंह)

2005

सुमिरन को बहानो (केशवचन्द्र वर्मा)

मेरे सुहृद : मेरे श्रद्धेय (विवेकी राय)

2006

ये जो आईना है (मधुरेश)

जो कहूंगा सच कहूंगा (डाॅ॰ कान्ति कुमार जैन)

घर का जोगी जोगड़ा (काशीनाथ सिंह)

2007

एक दुनिया अपनी (डॉ॰ रामदरश मिश्र)

अब तो बात फैल गई (कान्तिकुमार जैन)

2009

कुछ यादें : कुछ बातें (अमरकान्त)

दिल्ली शहर दर शहर (डॉ॰ निर्मला जैन)

कालातीत (मुद्राराक्षस)

कितने शहरों में कितनी बार (ममता कालिया)

हाशिए की इबारतें (चन्द्रकान्ता)

मेरे भोजपत्र (चन्द्रकान्ता)

कविवर बच्चन के साथ (अजीत कुमार)

2010

जे॰ एन॰ यू॰ में नामवर सिंह (सं॰ सुमन केशरी)

अंधेरे में जुगनू (अजीत कुमार)

बैकुंठ में बचपन (कान्तिकुमार जैन)

अ से लेकर ह तक (यानी अज्ञेय से लेकर हृदयेश तक, डॉ॰ वीरेन्द्र सक्सेना)

2011

कल परसों बरसों (ममता कालिया)

स्मृति में रहेंगे वे (शेखर जोशी)

अतीत राग (नन्द चतुर्वेदी)

2012

स्मृतियों के गलियारे से (नरेन्द्र कोहली)

गंगा स्नान करने चलोगे (डॉ॰ विश्वनाथ त्रिपाठी)

आलोचक का आकाश (मधुरेश)

माफ़ करना यार (बलराम)

अपने-अपने अज्ञेय (दो खंड, ओम थानवी)

यादों का सफ़र (प्रकाश मनु)

हम हशमत (भाग-3, कृष्णा सोबती)

2013

मेरी यादों का पहाड़ (देवेंद्र मेवाड़ी)

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