रांगेय राघव (त्र्यंबक वीर राघवाचार्य)

रांगेय राघव (त्र्यंबक वीर राघवाचार्य) की जीवनी

आधुनिक काल के साहित्यकार रांगेय राघव के जीवन-परिचय के साथ-साथ हम इनके साहित्य, काव्य, उपन्यास, कहानी, भाषा शैली, पुरस्कार एवं अन्य तथ्य सहित पूरी जानकारी प्राप्त करेंगे।

पूरा नाम- तिरूमल्लै नंबकम् वीरराघव आचार्य (टी.एन.बी.आचार्य)

जन्म -17 जनवरी, 1923

जन्म भूमि- आगरा, उत्तर प्रदेश

मृत्यु -12 सितंबर, 1962

मृत्यु स्थान- मुंबई, महाराष्ट्र

अभिभावक -श्री रंगनाथ वीर राघवाचार्य श्रीमती वन-कम्मा

पत्नी – सुलोचना

कर्म-क्षेत्र -उपन्यासकार, कहानीकार, कवि, आलोचक, नाटककार और अनुवादक

भाषा -हिन्दी, अंग्रेज़ी, ब्रज और संस्कृत

विद्यालय -सेंट जॉन्स कॉलेज, आगरा विश्वविद्यालय

शिक्षा -स्नातकोत्तर, पी.एच.डी

काल- आधुनिक काल (प्रगतिवादी युग)

रांगेय राघव जीवन-परिचय साहित्य
रांगेय राघव जीवन-परिचय साहित्य

रांगेय राघव की रचनाएं

जीवन-परिचय एवं साहित्य : रांगेय राघव के काव्य

अजेय खंडहर-1944 ( किस रचना को निम्न तीन शीर्षकों में बांटा गया है – 1. झंकार 2. ललकार 3. हुँकार)

पिघलते पत्थर-1946 (मुक्तक काव्य)

मेधावी-1947

राह के दीपक-1947

पांचाली-1955

रूपछाया

जीवन-परिचय एवं साहित्य : रांगेय राघव के उपन्यास

घरौंदा-1946

विषाद मठ

मुरदों का टीला (मोहनजोदड़ो का गणतंत्र)-1948

सीधा साधा रास्ता

हुजूर

चीवर-1951

प्रतिदान

अँधेरे के जुगनू (आंचलिक श्रेणी का उपन्यास )-1953

काका

उबाल

पराया

आँधी की नावें

अँधेरे की भूख

बोलते खंडहर

कब तक पुकारूँ (ब्रज के नटों के जीवन का वर्णन)

पक्षी और आकाश

बौने और घायल फूल

राई और पर्वत

बंदूक और बीन

राह न रुकी

जब आवेगी काली घटा-1958

छोटी सी बात

पथ का पाप

धरती मेरा घर

आग की प्यास

कल्पना

प्रोफेसर

दायरे

पतझर

आखिरी आवाज

रांगेय राघव के जीवनी प्रधान उपन्यास

डॉ. रांगेय राघव जी ने 1950 ई. के पश्चात् कई जीवनी प्रधान उपन्यास लिखे हैं, इनका पहला उपन्यास सन् 1951-1953 ई. के बीच प्रकाशित हुआ।

भारती का सपूत -जो भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की जीवनी पर आधारित है।

लखिमा की आंखें -जो विद्यापति के जीवन पर आधारित है।

मेरी भव बाधा हरो -जो बिहारी के जीवन पर आधारित है।

रत्ना की बात- जो तुलसी के जीवन पर आधारित है।

लोई का ताना -जो कबीर- जीवन पर आधारित है।

धूनी का धुंआं -जो गोरखनाथ के जीवन पर कृति है।

यशोधरा जीत गई (1954)-जो गौतम बुद्ध पर लिखा गया है।

देवकी का बेटा’ -जो कृष्ण के जीवन पर आधारित है।

रांगेय राघव के कहानी संग्रह

साम्राज्य का वैभव

देवदासी

समुद्र के फेन

अधूरी मूरत

जीवन के दाने

अंगारे न बुझे

ऐयाश मुरदे

इन्सान पैदा हुआ

पाँच गधे

एक छोड़ एक

रांगेय राघव की कहानियाँ

गदल ( राजस्थानी परिवेश से प्रेम की निगूढ़ अभिव्यक्ति)

रांगेय राघव के नाटक

स्वर्णभूमि की यात्रा

रामानुज

विरूढ़क

रांगेय राघव के रिपोर्ताज

तूफ़ानों के बीच

रांगेय राघव की आलोचनाएं

भारतीय पुनर्जागरण की भूमिका

भारतीय संत परंपरा और समाज

संगम और संघर्ष

प्राचीन भारतीय परंपरा और इतिहास

प्रगतिशील साहित्य के मानदंड

समीक्षा और आदर्श

काव्य यथार्थ और प्रगति

काव्य कला और शास्त्र

महाकाव्य विवेचन

तुलसी का कला शिल्प

आधुनिक हिंदी कविता में प्रेम और शृंगार

आधुनिक हिंदी कविता में विषय और शैली

गोरखनाथ और उनका युग

रांगेय राघव के सम्मान एवं पुरस्कार

हिंदुस्तानी अकादमी पुरस्कार (1947)

डालमिया पुरस्कार (1954)

उत्तर प्रदेश शासन पुरस्कार (1957 तथा 1959)

राजस्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार (1961)

महात्मा गाँधी पुरस्कार (1966)

रांगेय राघव संबंधी विशेष तथ्य

इन्हे हिंदी का शेक्सपीयर कहा जाता है|

प्रसिद्ध लेखक राजेंद्र यादव ने कहा है – ‘‘उनकी लेखकीय प्रतिभा का ही कमाल था कि सुबह यदि वे आद्यैतिहासिक विषय पर लिख रहे होते थे तो शाम को आप उन्हें उसी प्रवाह से आधुनिक इतिहास पर टिप्पणी लिखते देख सकते थे।”

दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक विभास चन्द्र वर्मा ने कहा कि आगरा के तीन ‘र‘ का हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान है और ये हैं रांगेय राघव, रामविलास शर्मा और राजेंद्र यादव। वर्मा ने कहा कि रांगेय राघव हिंदी के बेहद लिक्खाड़ लेखकों में शुमार रहे हैं। उन्होंने क़रीब क़रीब हर विधा पर अपनी कलम चलाई और वह भी बेहद तीक्ष्ण दृष्टि के साथ।

उन्हें हिन्दी का पहला मसिजीवी क़लमकार भी कहा जाता है जिनकी जीविका का साधन सिर्फ़ लेखन था।

1942 में अकालग्रस्त बंगाल की यात्रा के बाद एक रिपोर्ताज लिखा- तूफ़ानों के बीच।

आधुनिक काल के साहित्यकार रांगेय राघव के जीवन-परिचय के साथ-साथ हम इनके साहित्य, काव्य, उपन्यास, कहानी, भाषा शैली, पुरस्कार एवं अन्य तथ्य सहित पूरी जानकारी प्राप्त की।

आदिकाल के साहित्यकार
आधुनिक काल के साहित्यकार

भारतेंदु हरिश्चंद्र

इसमें हम भारतेंदु हरिश्चंद्र की जीवनी और संपूर्ण साहित्य की जानकारी प्राप्त करेंगे जो प्रतियोगी परीक्षाओं एवं हिंदी साहित्य प्रेमियों हेतु ज्ञानवर्धक सिद्ध होने की आशा है।

भारतेंदु हरिश्चंद्र की जीवनी

पूरा नाम- बाबू भारतेन्दु हरिश्चंद्र

जन्म- 9 सितम्बर सन् 1850

जन्म भूमि- वाराणसी, उत्तर प्रदेश

मृत्यु- 6 जनवरी, सन् 1885

Note:- मात्र 35 वर्ष की अल्प आयु में ही इनका देहावसान हो गया था|

मृत्यु स्थान- वाराणसी, उत्तर प्रदेश

अभिभावक – बाबू गोपाल चन्द्र

कर्म भूमि वाराणसी

कर्म-क्षेत्र- पत्रकार, रचनाकार, साहित्यकार

उपाधी:- भारतेंदु

नोट:- डॉक्टर नगेंद्र के अनुसार उस समय के पत्रकारों एवं साहित्यकारों ने 1880 ईस्वी में इन्हें ‘भारतेंदु’ की उपाधि से सम्मानित किया|

Bhartendu Harishchandra
Bhartendu Harishchandra

भारतेंदु हरिश्चंद्र के सम्पादन कार्य

इनके द्वारा निम्नलिखित तीन पत्रिकाओं का संपादन किया गया:-

कवि वचन सुधा-1868 ई.– काशी से प्रकाशीत (मासिक,पाक्षिक,साप्ताहिक)

हरिश्चन्द्र चन्द्रिका- 1873 ई. (मासिक)- काशी से प्रकाशीत

आठ अंक तक यह ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’ नाम से तथा ‘नवें’ अंक से इसका नाम ‘हरिश्चन्द्र चन्द्रिका’ रखा गया|

हिंदी गद्य का ठीक परिष्कृत रूप इसी ‘चंद्रिका’ में प्रकट हुआ|

3. बाला-बोधिनी- 1874 ई. (मासिक)- काशी से प्रकाशीत – यह स्त्री शिक्षा सें संबंधित पत्रिका मानी जाती है|

भारतेंदु हरिश्चंद्र की रचनाएं

इनकी कुल रचनाओ की संख्या 175 के लगभग है-

नाट्य रचनाएं:-कुल 17 है जिनमे ‘आठ’ अनूदित एवं ‘नौ’ मौलिक नाटक है-

भारतेंदु हरिश्चंद्र के अनूदित नाटक

विद्यासुंदर- 1868 ई.- यह संस्कृत नाटक “चौर पंचाशिका” के बंगला संस्करण का हिन्दी अनुवाद है|

रत्नावली- 1868 ई.- यह संस्कृत नाटिका ‘रत्नावली’ का हिंदी अनुवाद है|

पाखंड-विडंबन- 1872 ई.- यह संस्कृत में ‘कृष्णमिश्र’ द्वारा रचित ‘प्रबोधचन्द्रोदय’ नाटक के तीसरे अंक का हिंदी अनुवाद है|

धनंजय विजय- 1873 ई.- यह संस्कृत के ‘कांचन’ कवि द्वारा रचित ‘धनंजय विजय’ नाटक का हिंदी अनुवाद है

कर्पुरमंजरी- 1875 ई.- यह ‘सट्टक’ श्रेणी का नाटक संस्कृत के ‘काचन’ कवि के नाटक का अनुवाद|

भारत जननी- 1877 ई.- इनका गीतिनाट्य है जो संस्कृत से हिंदी में अनुवादित

मुद्राराक्षस- 1878 ई.- विशाखादत्त के संस्कृत नाटक का अनुवाद है|

दुर्लभबंधु-1880 ई.- यह अग्रेजी नाटककार ‘शेक्सपियर’ के ‘मर्चेट ऑव् वेनिस’ का हिंदी अनुवाद है|

Trik :- विद्या रत्न पाकर धनंजय कपुर ने भारत मुद्रा दुर्लभ की|

मौलिक नाटक- नौ

वैदिक हिंसा हिंसा न भवति- 1873 ई.- प्रहसन – इसमे पशुबलि प्रथा का विरोध किया गया है|

सत्य हरिश्चन्द्र- 1875 ई.- असत्य पर सत्य की विजय का वर्णन|

श्री चन्द्रावली नाटिका- 1876 ई. – प्रेम भक्ति का आदर्श प्रस्तुत किया गया है|

विषस्य विषमौषधम्- 1876 ई.- भाण- यह देशी राजाओं की कुचक्रपूर्ण परिस्थिति दिखाने के लिए रचा गया था|

भारतदुर्दशा- 1880 ई.- नाट्यरासक

नीलदेवी- 1881 ई.- गीतिरूपक

अंधेर नगरी- 1881 ई.- प्रहसन (छ: दृश्य) भ्रष्ट शासन तंत्र पर व्यंग्य किया गया है|

प्रेम जोगिनी- 1875 ई.– तीर्थ स्थानों पर होनें वाले कुकृत्यों का चित्रण किया गया है|

सती प्रताप- 1883 ई.यह इनका अधुरा नाटक है बाद में ‘ राधाकृष्णदास’ ने पुरा किया|

भारतेंदु हरिश्चंद्र की काव्यात्मक रचनाएं

इनकी कुल काव्य रचना 70 मानी जाती है जिनमे कुछ प्रसिद्ध रचनाएं:-

प्रेममालिका- 1871

प्रेमसरोवर-1873

प्रेमपचासा

प्रेमफुलवारी-1875

प्रेममाधुरी-1875

प्रेमतरंग

प्रेम प्रलाप

विनय प्रेम पचासा

वर्षा- विनोद-1880

गीत गोविंदानंद

वेणु गीत -1884

मधु मुकुल

बकरी विलाप

दशरथ विलाप

फूलों का गुच्छा- 1882

प्रबोधिनी

सतसई सिंगार

उत्तरार्द्ध भक्तमाल-1877

रामलीला

दानलीला

तन्मय लीला

कार्तिक स्नान

वैशाख महात्म्य

प्रेमाश्रुवर्षण

होली

देवी छद्म लीला

रानी छद्म लीला

संस्कृत लावनी

मुंह में दिखावनी

उर्दू का स्यापा

श्री सर्वोतम स्तोत्र

नये जमाने की मुकरी

बंदरसभा

विजय-वल्लरी- 1881

रिपनाष्टक

भारत-भिक्षा- 1881

विजयिनी विजय वैजयंति- 1882

नोट- इनकी ‘प्रबोधनी’ रचना विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की प्रत्यक्ष प्रेरणा देने वाली रचना है|

‘दशरथ विलाप’ एवं ‘फूलों का गुच्छा’ रचनाओं में ब्रजभाषा के स्थान पर ‘खड़ी बोली हिंदी’ का प्रयोग हुआ है|

इनकी सभी काव्य रचनाओं को ‘भारतेंदु ग्रंथावली’ के प्रथम भाग में संकलित किया गया है|

‘देवी छद्म लीला’, ‘तन्मय लीला’ आदि में कृष्ण के विभिन्न रूपों को प्रस्तुत किया गया है|

भारतेंदु हरिश्चंद्र के उपन्यास

हम्मीर हठ

सुलोचना

रामलीला

सीलावती

सावित्री चरित्र

भारतेंदु हरिश्चंद्र के निबंध

कुछ आप बीती कुछ जग बीती

सबै जाति गोपाल की

मित्रता

सूर्योदय

जयदेव

बंग भाषा की कविता

भारतेंदु हरिश्चंद्र के इतिहास ग्रंथ

कश्मीर कुसुम

बादशाह

विकिपीडिया लिंक- भारतेंदु हरिश्चंद्र

अंततः हम आशा करते हैं कि यह भारतेंदु हरिश्चंद्र की जीवनी और संपूर्ण साहित्य की जानकारी प्रतियोगी परीक्षाओं एवं हिंदी साहित्य प्रेमियों के लिए ज्ञानवर्धक होगी।

आदिकाल के साहित्यकार
आधुनिक काल के साहित्यकार

दिल कहाँ रखा?

दिल कहाँ रखा?

दिल कहाँ रखा? रचनाकार अरुण स्वामी द्वारा रचित प्रसिद्ध कविता

फुरसत में करेंगे तुझसे हिसाब ऐ जिन्दगी,
अभी तो उलझे हैं खुद को सुलझाने में।
कभी इसका दिल रखा कभी उसका दिल रखा,
इसी कशमकश में भूल गए
खुद का दिल कहाँ रखा?????

दिल कहाँ रखा?
दिल कहाँ रखा?

नहीं है खबर मुझे

दिल कहाँ रखा?????

बेदाग जिन्दगी

भटूरे (Bhature)

विज्ञान तथा प्रकृति (Science and Nature)

अतः हमें आशा है कि आपको यह जानकारी बहुत अच्छी लगी होगी। इस प्रकार जी जानकारी प्राप्त करने के लिए आप https://thehindipage.com पर Visit करते रहें।

हिन्दी साहित्य काल विभाजन

हिन्दी साहित्य काल विभाजन एवं नामकरण

साहित्येतिहास की आवश्यकता

हिन्दी साहित्य काल विभाजन एवं कालखण्डों के नामकरण तथा हिंदी साहित्य में प्रचलित काल विभाजन और नामकरण की संपूर्ण जानकारी

“प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य-परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ‘साहित्य का इतिहास’ कहलाता है।” (आ.शुक्ल)

हिन्दी साहित्य काल विभाजन
हिन्दी साहित्य काल विभाजन

पूर्व काल में घटित घटनाओं, तथ्यों का विवेचन, विश्लेषण एवं मूल्यांकन इतिहास में किया जाता है, और साहित्य में मानव-मन एवं जातीय जीवन की सुखात्मक दुखात्मक ललित भावनाओं की अभिव्यक्ति इस प्रकार की जाती है कि वे भाव सर्वसामान्य के भाव बन जाते हैं।

इससे स्पष्ट होता है कि, विभिन्न परिस्थितियों अनुसार परिवर्तित होने वाली जनता की सहज चित्तवृत्तियों की अभिव्यक्ति साहित्य में की जाती है जिससे साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता रहता है।

विभिन्न परिस्थितियों के आलोक में साहित्य के इसी परिवर्तनशील प्रवृत्ति और साहित्य में अंतर्भूत भावाभिव्यक्ति को प्रस्तुत करना ही साहित्येतिहास कहलाता है।

हिन्दी साहित्य काल विभाजन

आज साहित्य का अध्ययन एवं विश्लेषण केवल साहित्य और साहित्यकार को केंद्र में रखकर नहीं किया जा सकता बल्कि साहित्य का भावपक्ष, कलापक्ष, युगीन परिवेश, युगीन चेतना, साहित्यकार की प्रतिभा, प्रवृत्ति आदि का भी विवेचन विश्लेषण किया जाना चाहिए।

अतः कहा जा सकता है कि साहित्येतिहास का उद्देश्य ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्में साहित्य को वस्तु, कला पक्ष, भावपक्ष, चेतना तथा लक्ष्य की दृष्टि से स्पष्ट करना है साहित्य का बहुविध विकास, साहित्य में अभिव्यक्त मानव जीवन की जटिलता, ऐतिहासिक तथ्यों की खोज, अनेक सम्यक अनुशीलन के लिए साहित्येतिहास की आवश्यकता होती है।

 

“किसी भाषा में उस साहित्य का इतिहास लिखा जाना उस साहित्य की समृद्धि का परिणाम है। साहित्य के इतिहास का लिखा जाना अपनी साहित्यिक निधि की चिंता करना एवं उन साहित्यिकों के प्रति न्याय एवं कृतज्ञता प्रकट करना है जिन्होंने हमारे जातीय एवं राष्ट्रीय जीवन को प्रभावित किया है साहित्य के इतिहास को वह भित्तिचित्र समझिए जिसमें साहित्यिकों के आकृति-चित्र ही नहीं होते, हृदयचित्र और मस्तिष्क-चित्र भी होते हैं। इसके लिए निपुण चित्रकार की आवश्यकता होती है।” (विश्वंभर मानव)

हिन्दी साहित्य का काल विभाजन

जॉर्ज ग्रियर्सन द्वारा किया गया काल – विभाजन :

चारणकाल (700 इ. से 1300 इ. तक)

19 शती का धार्मिक पुनर्जागरण

जयसी की प्रेम कविता

कृष्ण संप्रदाय

मुगल दरबार

तुलसीदास

प्रेमकाव्य

तुलसीदास के अन्य परवर्ती

18 वीं शताब्दी

कंपनी के शासन में हिंदुस्तान

विक्टोरिया के शासन में हिंदुस्तान

इस काल विभाजन में एकरूपता का अभाव है। यह काल विभाजन कहीं कवियों के नाम पर; कहीं शासकों के नाम पर; कहीं शासन तंत्र के नाम पर किया गया है।

इस काल विभाजन में साहित्यिक प्रवृत्तियों और साहित्यिक चेतना का सर्वथा अभाव है।

अनेकानेक त्रुटियां होने के बाद भी काल विभाजन का प्रथम प्रयास होने के कारण ग्रियर्सन का काल विभाजन सराहनीय एवं उपयोगी तथा परवर्ती साहित्येतिहासकारों के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हुआ है।

मिश्र बंधुओं द्वारा किया गया काल-विभाजन :

मिश्र बंधुओं ने अपने साहित्येतिहास ग्रंथ ‘मिश्र बंधु विनोद’ (1913) में नया काल विभाजन प्रस्तुत किया।

यह काल विभाजन भी सर्वथा दोष मुक्त नहीं है, इस काल विभाजन में वैज्ञानिकता का अभाव है परंतु यह काल विभाजन ग्रियर्सन के काल विभाजन से कहीं अधिक प्रौढ़ और विकसित है-

प्रारंभिक काल (सं. 700 से 1444 विक्रमी तक)

माध्यमिक काल (सं. 1445 से 1680 विक्रमी तक)

अलंकृत काल (सं. 1681 से 1889 विक्रमी तक)

परिवर्तन काल (सं. 1890 से 1925 विक्रमी तक)

वर्तमान काल (सं. 1926 से अब तक)

आ. रामचंद्र शुक्ल द्वारा किया गया काल विभाजन :

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ (1929) में हिंदी साहित्य के इतिहास का नवीन काल विभाजन प्रस्तुत किया, यह काल विभाजन पूर्ववर्ती काल विभाजन से अधिक सरल, सुबोध और श्रेष्ठ है।

आचार्य शुक्ल द्वारा किया गया काल विभाजन वर्तमान समय तक सर्वमान्य है-

आदिकाल (वीरगाथा काल, सं. 1050 से 1375 विक्रमी तक)

पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल, सं. 1375 से 1700 विक्रमी तक)

उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल, सं. 1700 से 1900 विक्रमी तक)

आधुनिक काल (गद्य काल, सं. 1900 से आज तक)

डॉ. रामकुमार वर्मा द्वारा किया गया काल-विभाजन :

डॉ रामकुमार वर्मा ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ में काल विभाजन हेतु आचार्य शुक्ल का अनुसरण करते हुए अपना काल विभाजन प्रस्तुत किया है

कालविभाजन के अंतिम चार खंड तो आ. शुक्ल के समान ही है, लेकिन वीरगाथा काल को चारण काल नाम देकर इसके पूर्व एक संधिकाल और जोडकर हिंदी साहित्य का आरंभ सं. 700 से मानते हुए काल-विभाजन प्रस्तुत किया है।

संधिकाल (सं. 750 ते 1000 वि. तक)

चारण काल (सं. 1000 से 1375 वि. तक)

भक्तिकाल (सं. 1375 से 1700 वि. तक)

रीतिकाल (सं. 1700 से 1900 वि. तक)

आधुनिक काल (सं. 1900 से अबतक)

आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा किया गया काल-विभाजन:

आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आ. शुक्ल जी के काल-विभाजन को ही स्वीकार कर केवल संवत् के स्थान पर ईस्वी सन् का प्रयोग किया है।

द्विवेदीजी ने पूरी शताब्दी को काल विभाजन का आधार बनाकर वीरगाथा की अपेक्षा आदिकाल नाम दिया है।

आदिकाल (सन् 1000 ई. से 1400 ई. तक)

पूर्व मध्यकाल (सन् 1400 ई. से 1700 ई. तक)

उत्तर मध्यकाल (सन् 1700 ई. से 1900 ई. तक)

आधुनिक काल (सन् 1900 ई. से अब तक)

बाबू श्यामसुन्दर दास द्वारा किया गया काल-विभाजन:

बाबू श्यामसुन्दर दास द्वारा किया गया काल-विभाजन आ. शुक्ल के काल-विभाजन से साम्य रखता है।

दोनों के काल विभाजन में कोई अधिक भिन्नता नहीं है का काल-विभाजन इस प्रकार है-

आदिकाल (वीरगाथा का युग संवत् 1000 से संवत् 1400 तक)

पूर्व मध्य युग (भक्ति काल युग, संवत् 1400 से संवत् 1700 तक)

उत्तर मध्ययुग (रीति ग्रन्थों का युग, संवत् 1700 से, संवत् 1900 तक)

आधुनिक युग (नवीन विकास का युग, संवत् 1900 से अब तक)

डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त द्वारा किया गया काल-विभाजन:

डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने अपने ग्रन्थ ‘हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास’ में शुक्ल जी के काल विभाजन का ही समर्थन किया है। उनका काल-विभाजन इस प्रकार है-

प्रारम्भिक काल (1184 – 1350 ई.)

पूर्व मध्यकाल (1350 – 1600 ई.)

उत्तर मध्यकाल (1600 – 1857 ई.)

धुनिक काल (1857 ई. अब तक)

डॉ. नगेंद्र द्वारा किया गया काल-विभाजन :

आदिकाल (7 वी सदी के मध्य से 14 वीं शती के मध्यतक)

भक्तिकाल (14 वीं सदी के मध्य से 17 वीं सदी के मध्यतक)

रीतिकाल (17 वीं सदी के मध्य से 19 वीं शती के मध्यतक)

आधुनिक काल (19वीं सदी के मध्य से अब तक)

आधुनिक काल का उप विभाजन

(अ) पुनर्जागरण काल (भारतेन्दु काल) 1877 – 1900 ई.

(ब) जागरण-सुधार काल (द्विवेदी काल) 1900 – 1918 ई.

(स) छायावाद काल 1918 – 1938 ई.

(द) छायावादोत्तर काल –

प्रगति-प्रयोग काल- 1938 – 1953 ई.

नवलेखन काल 1953 ई. से अब तक।

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मैथिल कोकिल विद्यापति Maithil Kokil Vidyapati

मैथिल कोकिल विद्यापति Maithil Kokil Vidyapati

मैथिल कोकिल विद्यापति Maithil Kokil Vidyapati जीवन-परिचय, उपाधियाँ, रचनाएँ, विद्यापति श्रृंगारिक या भक्त कवि, प्रमुख पंक्तियां, प्रमुख कथन

जीवन-परिचयमैथिल कोकिल विद्यापति Maithil Kokil Vidyapati

विद्यापति के जीवन के संबंध में विद्वानों में पर्याप्त मत भेद है। विद्वानों ने शोध और खोजों से जो रूप रेखा बताई है, वह उनकी रचनाओं में प्राप्त अन्तःसाक्ष्यों और अन्य साक्ष्यों या किंवदंतियों पर आधारित है। रचनाओं में प्राप्त इन्हीं संकेतों और बहि:साक्ष्य के आधार पर विद्यापति का जीवन चरित्र इस प्रकार था-

मैथिल कोकिल विद्यापति जीवन-परिचय
मैथिल कोकिल विद्यापति जीवन-परिचय

जन्म आदि

कवि शेखर, विद्यापति को बिहार और बंगाल में ही नहीं, संपूर्ण हिंदी-क्षेत्र में असाधारण लोकप्रियता प्राप्त हुई, किंतु दुर्भाग्यवश उनके जीवन-मरण-काल के संबंध में विद्वज्जन एकमत नहीं हैं-

डॉ जयकांत मिश्र ने उनका जन्म 1350 ई. में,

डॉ. सुभद्र झा ने 1352 में,

महामहोपाध्याय पं. हरप्रसाद शास्त्री ने 1357 ई. में,

डॉ.नागेन्द्र नाथ गुप्त ने 1358 ई. में,

डॉ.बाबूराम सक्सेना ने अनुमानतः 1360 ई. में,

डॉ.उमेश मिश्र ने 1368 ई. में और

डॉ.विमानबिहारी मजूमदार ने 1380 ई. में माना है।

मृत्यु

डॉ.सुभद्र झा ने उनका मरणकाल 1448 ई.,

डॉ.जयकांत मिश्र ने 1450 ई.,

डॉ.विमानबिहारी मजूमदार ने 1460 ई. के लगभग और

डॉ. उमेश मिश्र ने 1475 ई. माना है। अतः यह कहा जा सकता है कि विद्यापति 1350 ई. से 1460 ई. के मध्य विद्यमान थे।

वंश परम्परा

विद्यापति के पूर्वजों का परिचय तत्कालीन शिलालेखों, ताम्रपत्रों और पंजी प्रबन्धों से प्राप्त होता है। इनका समस्त कुल पूर्वज विद्वता से परिपूर्ण था, तथा सभी ने किसी न किसी ग्रंथ का प्रणयन किया था।

डा. सुभद्र झा ने लिखा है- “विद्वानों के ऐसे यशस्वी परिवार में कवि विद्यापति का जन्म हुआ जो अपने परम्परागत विद्या ज्ञान के लिए प्रसिद्ध था।”

कवि कुल शेखर विद्यापति के पूर्वज मैथिल ब्राह्मण थे। इनके मूल वंश का नाम विसईबार था। इनके पूर्वज अपने आश्रयदाताओं के यहां उच्च पदों पर आसीन रहे हैं, अतः इनके पूर्वजों को ठाकुर की उपाधि प्राप्त हुई।

विद्यापति के वंश के आदि पुरुष विश्व प्रसिद्ध कथा पंचतंत्र के लेखक पंडित विष्णु शर्मा थे। कवि की वंशावली इस प्रकार से है-

राज्याश्रय

विद्यापति के पूर्वजों का मिथिला के राजाओं से अच्छा संबंध था।

विद्यापति का अधिकांश जीवन मिथिला के राजाओं के आश्रय में बीता।

सभी राजाओं और रानियों ने विद्यापति का खूब आदर किया। परंतु राजा शिवसिंह से विद्यापति का घनिष्ठ संबंध रहा। विद्यापति शिवसिंह को साक्षात नारायण और रानी लक्ष्मी देवी (लखिमा देवी) को लक्ष्मी मानते थे।

शिवसिंह ने विद्यापति को विपसी ग्राम दिया। इसके अतिरिक्त विद्यापति ओइनवार वंशीय राजा देवी सिंह, कीर्ति सिंह तथा भैरवसिंह के राजाश्रय में रहे।

विद्यापति की उपाधियाँ: मैथिल कोकिल विद्यापति Maithil Kokil Vidyapati

कवि विद्यापति में अद्भुत कवित्व शक्ति थी, जिससे मुग्ध होकर लोगों ने उन पर उपाधियों की वर्षा की।

कीर्ति सिंह के शासनकाल में वे अल्पवयस्क होने के कारण ‘खेलन कवि’ के नाम से प्रसिद्ध रहे।

राजा शिवसिंह ने उन्हे “अभिनवजयदेव’ और “महाराज पंडित” की उपाधियाँ प्रदान की।

इन उपाधियों के अतिरिक्त उन्हे “सुकवि कंठहार, राजपंडित, सरस कवि, कवि रत्न, कवि शेखर, नवकविशेखर, कवि कंठहार, सुकवि, नवजयदेव आदि उपाधियाँ भी प्राप्त हुई।

काव्य प्रतिभा एवं सरस वर्णन से ओत प्रोत होकर बादशाह नसरत शाह ने विद्यापति को “कवि शेखर’ की उपाधि प्रदान की।

रचनाएँ

विद्यापति संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, मैथिली, ब्रजबुलि, बंगला और हिंदी के महापंडित थे। उन्होंने संस्कृत में कई ग्रंथ लिखे। इनकी रचनाएँ संस्कृत, अवहट्ट और मैथिली भाषाओं में प्राप्त होती है। रचनाओं का विवरण इस प्रकार है-

संस्कृत की रचनाएँ

भूपरिक्रमा

पुरुषपरीक्षा

लिखनावली

शैव सर्वस्वसार

शैवसर्वस्वसार-प्रमाणभूत पुराणसंग्रह

गंगावाक्यावली

विभागसार

दानवाक्यावली

दुर्गाभक्तितरंगिणी

गया पत्तलक

वर्षकृत्य

मफिमंजरी

अवहट्ट की रचनाएँ

कीर्तिलता

कीर्तिपताका

मैथिली की रचनाएँ

पदावली

गोरक्ष विजय (नाटक)

विद्यापति श्रृंगारिक या भक्त कवि

भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में श्रृंगारिक काव्य पदावली की रचना करने के कारण कुछ विद्वान इन्हें श्रृंगारिक कवि समझते हैं तो कुछ विद्वान इन्हें भक्त कवि समझते हैं। विद्यापति के श्रृंगारिक या भक्त कवि होने पर विद्वानों में पर्याप्त मतभेद विद्यमान है यह मतभेद इस प्रकार हैं-

श्रृंगारिक कवि मानने वाले विद्वान

महामहोपाध्याय पंडित हरप्रसाद शास्त्री

आचार्य रामचंद्र शुक्ल

सुभद्र झा

डॉ रामकुमार वर्मा

रामवृक्ष बेनीपुरी

भक्त कवि मानने वाले विद्वान

बाबू बृज नंदन सहाय

बाबू श्याम सुंदर दास

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

रहस्यवादी कवि मानने वाले विद्वान

जॉर्ज ग्रियर्सन

डॉ नागेंद्र नाथ गुप्त

जनार्दन मिश्र

विद्यापति की प्रमुख पंक्तियां

“देसिल बअना सब जन मिट्ठा। तें तैं सन जंपओ अवहट्ठा।”

“रज्ज लुद्ध असलान बुद्धि बिक्कम बले हारल। पास बइसि बिसवासि राय गयनेसर मारल ॥”

“मारत राणरोल पडु, मेइरि हा हा सद्द हुअ।सुरराय नयर नरअर-रमणी बाम नयन पप्फुरिअ धुअ॥”

“कतहुँ तुरुक बरकर। बार जाए ते बेगार धर॥धरि आनय बाभन बरुआ। मथा चढाव इ गाय का चरुआ।हिन्दू बोले दूरहि निकार। छोटउ तुरुका भभकी मार।”

“जइ सुरसा होसइ मम भाषा।जो जो बन्झिहिसो करिहि पसंसा॥”

“जाति अजाति विवाह अधम उत्तम का पारक।”

“पुरुष कहाणी हौं कहौं जसु पंत्थावै पुन्नु।”

“बालचंद विज्जावहू भाषा।दुहु नहि लग्गइ दुज्जन हासा॥”

“खने खने नयन कोन अनुसरई।खने खने वसंत धूलि तनु भरई।”

” सुधामुख के विहि निरमल बाला।अपरूप रूप मनोभव-मंगल, त्रिभुवन विजयी माला॥

“सरस वसंत समय भला पावलि दछिन पवन वह धीरे, सपनहु रूप बचन इक भाषिय मुख से दूरि करु चीरे॥”

विद्यापति के लिए प्रमुख कथन

‘जातीय कवि’ -डॉ बच्चन सिंह

‘श्रृंगार रस के सिद्ध वाक् कवि’ -आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

‘आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने गीत गोविंद को अध्यात्मिक संकेत बताया है वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी’ -आचार्य शुक्ल

अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य

महामहोपाध्याय पंडित हरप्रसाद शास्त्री ने विद्यापति को पंचदेव उपासक माना है।

हिंदी में सर्वप्रथम विशुद्ध गेयपद लिखने का श्रेय विद्यापति को है।

विद्यापति हिंदी के प्रथम कृष्ण भक्त कवि हैं तथा कृष्ण गीति परंपरा का प्रवर्तक माना जाता है।

यह शैव मतानुयायी थे।

सर्वप्रथम जाॅर्ज ग्रियर्सन ने अपनी पुस्तक मैथिली क्रिस्टोपैथी में पदावली को भक्ति परक रचना माना है।

डॉ रामकुमार वर्मा ने पदावली की श्रृगारिक्ता की तुलना खजुराहो के मंदिर से की है।

निराला ने पदावली के श्रृंगारिक पदों की मादकता को नागिन की लहर कहा है।

कीर्ति लता की रचना भृंग-भृंगी संवाद के रूप में हुई है।

स्रोत

  1. विद्यापति-शिव प्रसादसिंह
  2. विद्यापति-विमानबिहारी मजूमदार
  3. विद्यापति के सुभाषित–कमल नारायण झा ‘कमलेश’
  4. विद्यापति पदावली डॉ. नागेंद्र नाथ गुप्त
  5. हिंदी साहित्य का इतिहास – डॉ नगेंद्र
  6. हिंदी साहित्य का इतिहास – आचार्य शुक्ल

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प्रथम महाकवि चंदबरदाई | Mahakavi Chandbardai

चंदबरदाई का जीवन परिचय

प्रथम महाकवि चंदबरदाई | Mahakavi Chandbardai का जीवन परिचय, Chandbardai के अन्य नाम, पृथ्वीराज रासो के संस्करण, प्रमुख पंक्तियाँ, तथ्य, कथन

आचार्य शुक्ल के अनुसार उनका जन्म लाहोर में हुआ था। कहा जाता है कि पृथ्वीराज और चंदवरदाई का जन्म एक दिन हुआ था। परंतु मिश्र बंधुओं के अनुसार पृथ्वीराज चौहान और चंदबरदाई की आयु में अंतर था। इनकी जन्म तिथि एक ही थी या नहीं थी इस संबंध में मिश्र बंधु कुछ नहीं लिखते हैं लेकिन आयु गणना उन्होंने अवश्य की है जिसके आधार पर उनका अनुमान है कि चंद पृथ्वीराज से कुछ बड़े थे। चंद ने अपने जन्म के बारे में रासों में कोई वर्णन नहीं किया है, परंतु उन्होंने पृथ्वीराज का जन्म संवत् 1205 विक्रमी में बताया है।

प्रथम महाकवि चंदबरदाई | Mahakavi Chandbardai : अन्य नाम

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के मतानुसार कवि चंदवरदाई हिंदी साहित्य के प्रथम महाकवि है, उनका महान ग्रंथ पृथ्वीराजरासोहिंदी का प्रथम महाकाव्य है। आदिकाल के उल्लेखनीय कवि चंदबरदाई ने पृथ्वीराज रासो में अपना जीवन दिया है, रासो अनुसार चंद भट्ट जाति के जगात नामक गोत्र के थे। मुनि जिनविजय द्वारा खोज निकाले गए जैन प्रबंधों में उनका नाम चंदवरदिया दिया है और उन्हें खारभट्ट कहा गया है।

चंद, पृथ्वीराज चौहान के न केवल राजकवि थे, वरन् उनके सखा और सामंत भी थे और जीवन भर दोनों साथ रहे। चंद षड्भाषा, व्याकरण, काव्य, साहित्य, छंद शास्त्र, ज्योतिष, पुराण आदि अनेक विधाओं के जानकार विद्वान थे। उन पर जालंधरी देवी का इष्ट था। चंदवरदाई की जीवनी के संबंध में सूर की “साहित्यलहरी” में सुरक्षित सामग्री है।

सूर की वंशावली

‘सूरदास’ की साहित्य लहरी की टीका मे एक पद ऐसा आया है जिसमे सूर की वंशावली दी है। वह पद यह है-

प्रथम ही प्रथु यज्ञ ते भे प्रगट अद्भुत रूप।

ब्रह्म राव विचारि ब्रह्मा राखु नाम अनूप॥

पान पय देवी दियो सिव आदि सुर सुखपाय।

कह्यो दुर्गा पुत्र तेरो भयो अति अधिकाय॥

पारि पायॅन सुरन के सुर सहित अस्तुति कीन।

तासु बंस प्रसंस में भौ चंद चारु नवीन॥

भूप पृथ्वीराज दीन्हों तिन्हें ज्वाला देस।

तनय ताके चार, कीनो प्रथम आप नरेस॥

दूसरे गुनचंद ता सुत सीलचंद सरूप।

वीरचंद प्रताप पूरन भयो अद्भुत रूप॥

रंथभौर हमीर भूपति सँगत खेलत जाय।

तासु बंस अनूप भो हरिचंद अति विख्याय॥

आगरे रहि गोपचल में रह्यो ता सुत वीर।

पुत्र जनमे सात ताके महा भट गंभीर॥

कृष्णचंद उदारचंद जु रूपचंद सुभाइ।

बुद्धिचंद प्रकाश चौथे चंद भै सुखदाइ॥

देवचंद प्रबोध संसृतचंद ताको नाम।

भयो सप्तो दाम सूरज चंद मंद निकाम॥

महामहोपाध्याय पंडित हरप्रसाद शास्त्री के अनुसार नागौर राजस्थान में अब भी चंद के वंशज रहते हैं। अपनी राजस्थान यात्रा के दौरान नागौर से चंद के वंशज श्री नानूराम भाट से शास्त्री जी को एक वंश वृक्ष प्राप्त हुआ है जिसका उल्लेख आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी अपने हिंदी साहित्य का इतिहास नामक ग्रंथ में किया है जो इस प्रकार है-

इन दोनो वंशावलियो के मिलाने पर मुख्य भेद यह प्रकट होता है कि नानूगम ने जिनको जल्लचंद की वंश-परंपरा मे बताया है, उक्त पद मे उन्हे गुणचंद की परंपरा में कहा है। बाकी नाम प्रायः मिलते हैं। (उद्धृत-हिंदी साहित्य का – आचार्य रामचंद्र शुक्ल)

प्रथम महाकवि चंदबरदाई | Mahakavi Chandbardai : पृथ्वीराज रासो के संस्करण

प्रथम संस्करण-वृहत् संस्करण– 69 समय 16306 छंद (नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित तथा हस्तलिखित प्रतियां उदयपुर संग्रहालय में सुरक्षित हैं)

द्वितीय संस्करण– मध्य संस्करण7000 छंद (अबोहर और बीकानेर में प्रतियाँ सुरक्षित है।)

तृतीय संस्करण-लघु संस्करण– 19 समय 3500 छंद (हस्तलिखित प्रतियाँ बीकानेर में सुरक्षित है।)

चतुर्थ संस्करणलघूत्तम संस्करण – 1300 छंद (डॉ. माता प्रसाद गुप्ता तथा डॉ दशरथ ओझा इसे ही मूल रासो ग्रंथ मानते हैं।)

‘पृथ्वीराज रासो’ की प्रामाणिकता-अप्रामाणिकता में विद्वानों के बीच मतभेद है जो निम्नलिखित है-

1- प्रामाणिक मानने वाले विद्वान- जेम्सटॉड, मिश्रबंधु, श्यामसुन्दर दास, मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या , डॉ दशरथ शर्मा

2- अप्रामाणिक मानने वाले विद्वान- आचार्य रामचंद्र शुक्ल, मुंशी देवी प्रसाद, कविराज श्यामल दास, गौरीशंकर हीराचंद ओझा, डॉ वूल्लर, कविवर मुरारिदान

3- अर्द्ध-प्रामाणिक मानने वाले विद्वान- मुनि जिनविजय, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ सुनीति कुमार चटर्जी, डॉ दशरथ ओझा

4- चौथा मत डॉ. नरोत्तम दास स्वामी का है। उन्होंने सबसे अलग यह बात कही है कि चंद ने पृथ्वीराज के दरबार में रहकर मुक्तक रूप में रासो की रचना की थी। उनके इस मत से कोई विद्वान सहमत नहीं है।

प्रमुख पंक्तियाँ

(1) “राजनीति पाइये। ज्ञान पाइये सुजानिए॥

उकति जुगति पाइयै। अरथ घटि बढ़ि उन मानिया॥”

(2) “उक्ति धर्म विशालस्य। राजनीति नवरसं॥

खट भाषा पुराणं च। कुरानं कथितं मया॥”

(3) “कुट्टिल केस सुदेस पोह परिचिटात पिक्क सद।

कामगंध बटासंध हंसगति चलति मंद मंद॥”

(4) “रघुनाथ चरित हनुमंत कृत, भूप भोज उद्धरिय जिमि।

पृथ्वीराज सुजस कवि चंद कृत, चंद नंद उद्धरिय तिमि॥”

(5) “मनहुँ कला ससिमान कला सोलह सो बनिय”

(6) “पुस्तक जल्हण हत्थ दे, चलि गज्जन नृप काज।”

चंदबरदाई का जीवन परिचय : चंदबरदाई के लिए महत्त्वपूर्ण कथन

“चन्दबरदाई हिन्दी के प्रथम महाकवि माने जाते हैं और इनका ‘पृथ्वीराज रासो’ हिन्दी का प्रथम महाकाव्य है।” -आचार्य रामचन्द्र शुक्ल

“हिन्दी का वास्तविक प्रथम महाकवि चन्दबरदाई को ही कहा जा सकता है।” –मिश्रबंधु

“यह ग्रन्थ मानो वर्तमान काल का ऋग्वेद है। जैसे ऋग्वेद अपने समय का बड़ा मनोहर ऐसा इतिहास बताता है जो अन्यत्र अप्राप्य है उसी प्रकार रासो भी अपने समय का परम दुष्प्राप्य इतिहास विस्तार-पूर्वक बताता है।” –मिश्रबंधु

“यह (पृथ्वीराज रासो) एक राजनीतिक महाकाव्य है, दूसरे शब्दों में राजनीति की महाकाव्यात्मक त्रासदी है।” –डॉ. बच्चन सिंह

‘पृथ्वीराज रासो’ की रचना शुक-शकी संवाद के रूप में हुई है। –हजारी प्रसाद द्विवेदी

चंदबरदाई से संबंधित महत्त्वपूर्ण तथ्य

1. रासो’ में 68 प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया गया है। मुख्य छंद -कवित्त, छप्पय, दूहा, तोमर, त्रोटक, गाहा और आर्या हैं। (राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी के अनुसार 72 प्रकार के छंदों का प्रयोग हुआ है)

2. चन्दबरदाई को ‘छप्पय छंद‘ का विशेषज्ञ माना जाता है।

3. डॉ. वूलर ने सर्वप्रथम कश्मीरी कवि जयानक कृत ‘पृथ्वीराजविजय’ (संस्कृत) के आधार पर सन् 1875 में ‘पृथ्वीराज रासो’ को अप्रामाणिक घोषित किया।

4. पृथ्वीराज रासो’ को चंदबरदाई के पुत्र जल्हण ने पूर्ण किया।

5. मोहनलाल विष्णु लाल पंड्या ने अनंद संवत की कल्पना के आधार पर हर पृथ्वीराज रासो को प्रामाणिक माना है।

6. रासो की तिथियों में इतिहास से लगभग 90 से 100 वर्षों का अंतर है।

7. इसका प्रकाशन नागरी प्रचारिणी सभा काशी तथा रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल से हुआ।

8. कयमास वध पृथ्वीराज रासो का एक महत्वपूर्ण समय है।

9. कनवज्ज युद्ध सबसे बड़ा समय है।

10. पृथ्वीराज रासो की शैली पिंगल है।

11. कर्नल जेम्स टॉड ने इसके लगभग 30,000 छंदों का अंग्रेजी में अनुवाद किया था।

12. इस ग्रंथ में चौहानों को अग्निवंशी बताया गया है।

13. इस ग्रंथ में पृथ्वीराज चौहान के 14 विवाहों का उल्लेख है।

चंदबरदाई का जीवन परिचय, चंदबरदाई के अन्य नाम, पृथ्वीराज रासो के संस्करण, प्रमुख पंक्तियाँ, महत्त्वपूर्ण तथ्य, महत्त्वपूर्ण कथन

स्रोत

पृथ्वीराज रासो, हिन्दी नवरत्न –मिश्रबंधु, हिन्दी साहित्य का इतिहास – आ. शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास –डॉ नगेन्द्र

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महाकवि पुष्पदंत Mahakavi Pushpdant

महाकवि पुष्पदंत

महाकवि पुष्पदंत Mahakavi Pushpdant का परिचय, पुष्पदंत की रचनाएँ, पुष्पदंत के उपनाम और उपाधियाँ, महाकवि पुष्पदंत | Mahakavi Pushpdant | के लिए प्रमुख कथन आदि की जानकारी

परिचय

अपभ्रंश भाषा में अनेक नामचीन कवि हुए हैं; जिनमें से पुष्पदंत एक प्रमुख नाम है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने पुष्पदंत को अपभ्रंश के श्रेष्ठ कवियों में स्वयम्भू के बाद दूसरे स्थान पर रखा है।

पुष्पदंत ने स्वयं अपने विषय में अपनी रचनाओं में जानकारी दी है। उनके ग्रंथों में उनके माता-पिता, आश्रयदाता, वास-स्थान, स्वभाव, कुल-गोत्र आदि की जानकारी प्राप्त हो जाती है। इनके परवर्ती कवियों ने भी इनका नाम बड़े आदर और सम्मान से लिया है। आधुनिक शोध एवं खोजों से भी पुष्पदंत के विषय में पर्याप्त जानकारी मिलती है।

महाकवि पुष्पदंत का परिचय एवं रचनाएँ
महाकवि पुष्पदंत का परिचय एवं रचनाएँ

मातापिता एवं कुलगोत्र

पुष्पदंत के पिता का नाम केशव भट्ट और माता का नाम मुग्धादेवी था।आप काश्यप गोत्र के ब्राह्मण थे और पहले शैव मतावलम्बी थे तथा किसी भैरव नामक राजा (शैव मतावलम्बी) की प्रशंसा में काव्य का प्रणयन भी किया था।अंतः साक्ष्य के आधार पर कह सकते हैं कि पुष्पदंत 10 वीं शताब्दी में वर्तमान थे।

निवास स्थान

कवि पुष्पदंत का निवास मान्यखेट (दक्षिण भारत) में राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय के प्रधानमंत्री भरत तथा उसके पश्चात गृह मंत्री नन्न के आश्रय में था। भरत के अनुरोध पर ही पुष्पदंत जिन भक्ति की ओर प्रवृत्त हो काव्य सृजन में रत हुए। पुष्पदंत ने संन्यास विधि से शरीर त्यागा।

महाकवि पुष्पदंत के उपनाम और उपाधियां (महाकवि पुष्पदंत का परिचय एवं रचनाएँ)

पुष्पदंत का घरेलू नाम खंडू अथवा खंड था। इनकी अनेक उपाधियाँ थी जो उनके ग्रंथों उसे हमें प्राप्त होती –

महापुराण में प्राप्त उपाधियां

महाकवि, कविवर, सकल कलाकार, सर्वजीव निष्कारण मित्र, सिद्धि विलासिनी, मनहरदूत, काव्य पिंड, गुण-मणि निधान, काव्य रत्नरत्नाकर, शशि लिखित नाम, वर-वाच विलास, काव्यकार,सरस्वती निलय, तिमिरौन्सारण।

ण्यकुमार चरिउ से-

विशाल चित्त, गुण गण महंत, वागेश्वरी देवानिकेत, भवय जीव-पंकरुह भानु।

जसहर चरिउ से- सरस्वती निलय।

महाकवि पुष्पदंत की रचनाएँ (महाकवि पुष्पदंत का परिचय एवं रचनाएँ)

निम्नलिखित तीन ग्रंथों को पुष्पदंत की प्रामाणिक रचनाएं माना जाता है-

तिसट्ठि महापुरिस गुणालंकार (महापुराण)

ण्यकुमार चरिउ (नागकुमार चरित्र)

जसहर चरिउ (यशोधर चरित्र)

महापुराण

यह पुष्पदंत की प्रथम रचना मानी जाती है, जिसे उन्होंने राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीया के मंत्री भरत के आश्रय में उन्हीं की प्रेरणा से मान्य खेत में लिखा था। अंतः साक्ष्यों के अनुसार पुष्पदंत ने 959 ईस्वी में इसे लिखना आरंभ किया तथा 965 ईस्वी में यह ग्रंथ पूर्ण हुआ। संपूर्ण ग्रंथ में 102 संधियाँ 1960 कड़वक तथा 27107 पद हैं। महापुराण में तिरसठ महापुरुषों का जीवन चरित्र वर्णित है।

ण्यकुमार चरिउ

यह नौ संधियों का खंडकाव्य है, जिसकी रचना महापुराण के बाद हुई है। अंतः साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि पुष्पदंत ने इसकी रचना मंत्री नन्न के आश्रय में की थी। इस ग्रंथ में नाग कुमार के चरित्र द्वारा श्री पंचमी के उपवास का फल बताया गया है।

जसहर चरिउ

जसहरचरिउ पुष्पदंत की अंतिम रचना मानी जाती है। जिसे उन्होंने नन्न के आश्रय में लिखा था। यह चार संधियों की लघु रचना है, जिसमें यशोधर का चरित्र वर्णित किया गया है।

महाकवि पुष्पदंत के लिए प्रमुख कथन (महाकवि पुष्पदंत का परिचय एवं रचनाएँ)

पुष्पदंत मनुष्य थोड़े ही है, सरस्वती उनका पीछा नहीं छोड़ती” –हरिषेण।

“अपभ्रंश का भवभूति”- डॉ हरिवल्लभ चुन्नीलाल भयाणी।

“बाण के बाद राजनीति का इतना उग्र आलोचक दूसरा लेखक नहीं हुआ। सचमुच मेलपाटी के उस उद्यान में हुई अमात्य भरत और पुष्पदन्त की भेंट भारतीय साहित्य की बहुत बड़ी घटना है। यह अनुभूति और कल्पना की अक्षय धारा है, जिससे अपभ्रंश साहित्य का उपवन हरा-भरा हो उठा। मंत्री भरत माली थे और कृष्ण वर्ण कुरूप पुष्पदन्त कवि-मनीषी, के स्नेह के आलवाल में कवि श्री का काव्य-कुसुम मुकुलित हुआ।” –डॉ. देवेंद्र कुमार जैन।

स्रोत

1 महापुराण

2 ण्यकुमार चरिउ

3 जसहर चरित

4 महाकवि पुष्पदन्त–राजनारायण पाण्डेय

5 जैन साहित्य और इतिहास – नाथूराम प्रेमी

6 अपभ्रंशभाषा और साहित्य – डॉ. देवेंद्र कुमार जैन

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स्वयम्भू

गोरखनाथ

सिद्ध सरहपा

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कवि स्वयम्भू | Kavi Svayambhu

अपभ्रंश का कवि स्वयम्भू | Kavi Svayambhu

कवि स्वयम्भू | Kavi Svayambhu अपभ्रंश के प्रथम कवि का जीवन-परिचय, रचनाएं, उपाधियाँ, स्वयंभू का काल निर्धारण, स्वयम्भू का अर्थ आदि

स्वयम्भू : काल निर्धारण – अपभ्रंश के प्रथम कवि स्वयम्भू का जीवन-परिचय एवं रचनाएं

कवि स्वयंभू की जन्मतिथि के विषय में निश्चित ज्ञान नहीं है और नही अभी तक उनके जन्म स्थान, कुल परंपरा, कार्यस्थान, कार्य विधि तथा अन्य घटनाओं के बारे में कोई विशेष जानकारी प्राप्त हो पायी है।

स्वयंभू कृत पउमचरिउ में एक स्थान पर तथा रिट्ठणेमिचरिउ में दो स्थानों पर कुछ तिथियों, महीनों, नक्षत्रों का उल्लेख अवश्य मिलता है, परंतु कहीं भी वर्ष का उल्लेख नहीं होता है, अतः काल निर्णय करना अत्यंत कठिन है। पउमचरिउ तथा रिट्ठणेमिचरिउ में स्वयंभू ने भरत, व्यास, पिंगलाचार्य, इंद्राचार्य, भामह, दंडी, श्रीहर्ष, बाण, चतुर्मुख, रविषेण आदि पूर्वगामी कवियों की प्रशंसा की है, जिनमें से रविषेण सबसे अंतिम थे। रविषेण की कृति पद्म चरित्र का रचनाकाल ईस्वी सन् 676 से 677 में माना जाता है और स्वयम्भू ने स्वीकार किया है कि उन्होंने रविसेणारिय पसाएँ  अर्थात रविषेणाचार्य के प्रसाद से रामकथा रूपी नदी का अवगाहन किया है। इससे स्वयम्भू का समय 676 से 677 के बाद का ही निश्चित होता है। यह स्वयम्भू के काल की पूर्व सीमा ठहरती है।

इस तरह स्वयंभू के परवर्ती कवियों ने स्वयंभू के प्रति कृतज्ञता प्रकट की है। ऐसे कवियों में पुष्पदंत कालक्रम में सबसे पहले हैं। उन्होंने अपने महापुराण में दो स्थानों पर स्वयंभू को बड़े आदर के साथ स्मरण किया है। पुष्पदंत के महापुराण की रचना 959- 60 ईसवी में प्रारंभ हुई, अतः स्वयंभू इस समय से पूर्व हो चुके थे, इसलिए स्वयंभू की उत्तर सीमा 959- 60 के आसपास ठहरती है। स्वयम्भू की पूर्व सीमा 676- 77 तथा उत्तर सीमा 959- 60 तक के 300 वर्षों के सुदीर्घ कालखंड में एक निश्चित समय निर्धारित करना अत्यंत दुष्कर कार्य है। एक अन्य मत के अनुसार स्वयंभू 783 ईसवी के आसपास वर्तमान थे।

कवि स्वयम्भू | Kavi Svayambhu का जीवन-परिचय

स्वयम्भू जैन मतावलम्बी थे।

इनके पिता का नाम मारुतदेव तथा माता का नाम पद्मिनी था

काव्य कला का ज्ञान इन्होंने अपने पिता से ही लिया था।

स्वयम्भू ने अपने किसी पुत्र का उल्लेख नहीं किया है, किंतु त्रिभुवन को निर्विवाद रूप से उनका पुत्र माना जाता है।

जन्म स्थान के संबंध में कोई पुष्ट प्रमाण तो नहीं मिलता परंतु अंतः साक्ष्य के आधार पर कहा जा सकता है, कि स्वयंभू कर्नाटक प्रदेश के निवासी रहे होंगे। लेकिन उनकी भाषा से यह अनुमान लगाया जाता है, कि स्वयंभू का जन्म उत्तर भारत या मध्य भारत में हुआ होगा और बाद में वे दक्षिण गए होंगे। यह अनुमान महापंडित राहुल सांकृत्यायन के मत पर आधारित है।

कवि स्वयम्भू | Kavi Svayambhu की उपाधियाँ

त्रिभुवन ने उन्हें स्वयंभूदेव, कविराज, कविराज चक्रवर्तिन विद्वान और छंदस् चूड़ामणि आदि उपाधियों से अलंकृत किया है।

पउमचरिउ में स्वयंभू ने अपने आप को कविराज कहकर संबोधित किया है।

डॉ हरिवल्लभ चुन्नीलाल भयाणी ने इन्हें अपभ्रंश का कालिदास और डॉ राहुल सांकृत्यायन ने इन्हें अपभ्रंश का वाल्मीकि कहा है।

स्वयम्भू कवि की रचनाएं – अपभ्रंश के प्रथम कवि स्वयम्भू का जीवन-परिचय एवं रचनाएं

स्वयंभू की तीन कृतियां निर्विवाद रूप से स्वीकार की जाती हैं- पउमचरिउ (पद्मचरित्र), रिट्ठणेमिचरिउ तथा स्वयम्भू छंद।

पउमचरिउ

पउमचरिउ में राम कथा है।

राम का एक पर्याय पद्म भी है, अतः स्वयंभू ने पद्मचरित्र नाम दिया।

कथा के अंत में राम को मुनींद्र से उपदेश ग्रहण कर निर्वाण प्राप्त करते हुए दिखाया गया है।

ऐसा करके कवि ने जैन धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करनी चाही है।

पउमचरिउ पांच कांड और 90 संधियों में विभाजित महाकाव्य है-

(1) विद्याधर कांड में 20,

(2) अयोध्या कांड में 22,

(3) सुंदरकांड में 14,

(4) युद्ध कांड में 21,

(5) उत्तरकांड में 13 संधियाँ हैं।

संधियाँ कडवकों में विभाजित है।

ग्रंथ में कुल 1269 कडवक है।

पउमचरिउ की 23वी और 46 वी में संधि के प्रारंभ में कवि ने पुनः मंगलाचरण लिखे हैं।

पउमचरिउ को स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवनस्वयंभू ने पूर्णता प्रदान की। इसकी 84 से 90 संधियाँ त्रिभुवन की रचना है।

रिट्ठणेमिचरिउ

आकार की दृष्टि से यह ग्रंथ स्वयंभू के अन्य सभी ग्रंथों से विशाल है इसमें 18000 श्लोक तथा चार कांड और 120 संधियाँ हैं।

इसमें आयी कृष्ण तथा कौरव पांडव की कथा के कारण इसके रिट्ठणेमिचरिउ, हरिवंश पुराण, भारत पुराण आदि कई नाम मिलते हैं।

रिट्ठणेमिचरिउ को भी स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन ने पूर्ण किया।

स्वयंभू छंद

इसमें 8 अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय के अंत में स्वयंभू छंद शब्द मिलता है।

ग्रंथ के प्रथम तीन अध्याय में प्राकृत छंदों तथा अंतिम पांच अध्यायों में अपभ्रंश के छंदों का विवेचन किया गया है।

इसके अतिरिक्त कुछ प्रमाणों के आधार पर सिरिपंचमी चरिउ तथा सुद्धयचरिय इनकी दो अन्य रचनाएं स्वीकार की जाती है।

दो अलग-अलग मतों के अनुसार स्वयंभू को एक व्याकरण ग्रंथ तथा एक अलंकार और कोश ग्रंथ का रचयिता भी कहा जाता है।

स्वयंभू के लिए प्रमुख कथन

“हमारे इसी युग में नहीं, हिन्दी कविता के पांचो युगों (1-सिद्ध-सामन्त युग, 2-सूफी-युग, 3-भक्त-युग, 4-दरबारी-युग, 5-नव जागरण-युग) के जितने कवियों को हमने यहाँ संग्रहीत किया है, उनमें यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि स्वयंभू सबसे बड़ा कवि था। वस्तुतः वह भारत के एक दर्जन अमर कवियों में से एक था।” –डॉ. राहुल सांकृत्यायन

अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य – अपभ्रंश के प्रथम कवि स्वयम्भू का जीवन-परिचय एवं रचनाएं

डॉ रामकुमार वर्मा ने स्वयंभू को हिंदी का प्रथम कवि माना है।

स्वयम्भू ने अपनी भाषा को देसी भाषा कहां है।

स्वयम्भू ने चतुर्मुख को पद्धड़िया बंध का प्रवर्तक तथा श्रेष्ठ कवि कहा है।

पद्धरी 16 मात्रा का मात्रिक छंद है। इस छंद के नाम पर इस पद्धति पर लिखे जाने वाले काव्यों को पद्धड़िया बंध कहा गया है।

स्रोत

महाकवि स्वयंभू- डॉ संकटा प्रसाद उपाध्याय

हिंदी काव्य धारा –डॉ राहुल सांकृत्यायन

पउमचरिउ (प्रस्तावना)- डॉ हरिवल्लभ चुन्नीलाल भयाणी

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गोरखनाथ Gorakhnath

गोरखनाथ Gorakhnath जीवन परिचय एवं रचनाएं

गोरखनाथ Gorakhnath का जीवन परिचय, रचनाएं, जन्म के बारे में विभिन्न मत, गोरखनाथ के बारे में साहित्यकारों के विभिन्न मत एवं गोरखनाथ जी की उक्तियाँ आदि की जानकारी।

परिचय

सिद्ध संप्रदाय का विकसित और परिवर्तित रूप ही नाथ संप्रदाय है। ‘नाथ’  शब्द के अनेक अर्थ है, शैव मत के विकास के बाद ‘नाथ’ शब्द शिव के लिए प्रयुक्त होने लगा। नाथ संप्रदाय में इस शब्द की जो व्याख्या की गई है उसके अनुसार ‘ना’ का अर्थ है ‘अनादिरूप’ तथा ‘थ’ का अर्थ है ‘स्थापित होना’। एक अन्य मत के अनुसार नाथ शब्द की व्याख्या की गई है, जिसमें ‘नाथ’ शब्द ‘मुक्तिदान’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।

गोरखनाथ जीवन परिचय रचनाएं
गोरखनाथ जीवन परिचय रचनाएं

ना- नाथ ब्रह्म (जो मोक्ष देता है)

थ – स्थापित करना (अज्ञान के सामर्थ्य को स्थापित करना)

नाथ – जो ज्ञान को दूर कर मुक्त दिलाता है।

नाथपंथी शिवोपासक हैं, और अपनी साधना में तंत्र मंत्र एवं योग को महत्त्व देते हैं, इसलिए इन्हें योगी भी कहा जाता है। माना जाता है कि नाथ पंथ सहजयान का विकसित रूप है। विकास परंपरा में भी नाथों का स्थान सिद्धों के बाद ही आता है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार नाथों का समय नौवीं शताब्दी का मध्य है। उनके मत से अधिकतर विद्वान सहमत भी हैं।

नाथ साहित्य के बारे में विस्तार से जानने के लिए यहाँ क्लिक कीजिए – नाथ साहित्य एक परिचय

गोरखनाथ का समय

विद्वानों ने मत्स्येंद्रनाथ का काल नौवीं शती का अंतिम चरण तथा गोरखनाथ का समय है।

दसवीं शती स्वीकार किया है, जबकि अन्य नाथों की प्रवृत्ति सीमा 12वीं 13वीं शताब्दी मानी जाती है।

नाथों की संख्या नौ मानी जाती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार अभी लोग नवनाथ और चौरासी सिद्ध कहते सुने जाते हैं।

नौ नाथो में आदिनाथ (शिव), मत्स्येंद्रनाथ (मच्छिंद्रनाथ), गोरखनाथ, चर्पटनाथ, चौरंगीनाथ आदि प्रमुख है।

नाथ एक विशेष वेशभूषा धारण करते थे जिसमें मेखला, शृंगी, गूदड़ी, खप्पर, कर्णमुद्रा, झोला आदि होते थे।

यह कान चीरकर कुंडल पहनते थे, इसलिए कनफटा योगी कहलाते थे।

नाथ पंथ के प्रवर्तक आदिनाथ या स्वयं शिव माने जाते हैं।

उनके शिष्य मत्स्येंद्रनाथ और इनके शिष्य गोरखनाथ थे।

यह पहले बौद्ध थे, बाद में नाथपंथी हो गए और योग मार्ग चलाया।जिसे हठयोग के नाम से जाना जाता है।

हठयोगियों के सिद्ध सिद्धांत पद्धति ग्रंथ के अनुसार-

ह- सूर्य

ठ – चंद्रमा

हठयोग – सूर्य और चंद्रमा का संयोग।

हठयोग की साधना शरीर पर आधारित है। कुंडलिनी को जगाने के लिए आसन, मुद्रा, प्राणायाम और समाधि का सहारा लिया जाता है।

गोरखनाथ का जीवन परिचय (गोरखनाथ जीवन परिचय एवं रचनाएं)

व्यक्तित्व एवं कृतित्व

जन्म एवं जन्म स्थान

गोरक्षनाथ की उत्पत्ति के दो रुप में मिलते हैं। व्यक्तित्व के रुप में गोरक्षनाथ शिवावतार है।

महाकाल योग शास्त्र में शिव ने स्वयं स्वीकार किया है कि मै ‘योगमार्ग का प्रचारक गोरक्ष हूँ।

हठयोग प्रदीपिका में उल्लेख है कि स्वयं आदिनाथ शिव ने योग-मार्ग के प्रचार हेतु गोरक्ष का रुप लिया था।

‘गोरक्ष सिद्धान्त संग्रह मे गोरखनाथ को ईश्वर की संतान के रूप में संबोधित किया गया है।

बंगीय काव्य ‘गोरक्ष-विजय’ के अनुसार गोरखनाथ आदिनाथ शिव की जटाओं से प्रकट हुए थे।

नेपाल दरबार ग्रंथालय से प्राप्त गोरक्ष सहस्रनाम के अनुसार गोरखनाथ दक्षिण मे बड़ब नामक देश में महामन्त्र के प्रसाद से उत्पन्न हुए थे।

तहकीकाक चिश्ती नामक पुस्तक से प्राप्त वर्णन के अनुसार शिव के एक भक्त ने सन्तानोत्पत्ति की इच्छा से शिव-धूनी से भस्म प्राप्त कर अपनी पत्नी को ग्रहण करने के लिए दिया पर लोक-लज्जा के भय से उस स्त्री ने उस भस्म को फेंक दिया। चामत्कारिक रूप से उसी स्थान पर एक हष्ट-पुष्ट बालक उत्पन्न हुआ। शिव ने उसका नाम गोरक्ष रखा। वर्तमान समय में भी गोरक्षनाथ को नाथ योगी लोग शिव-गोरक्ष के रुप में ही मान्यता देते है।

‘योग सम्प्रदाय विष्कृति’ के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ ने एक सच्चरित्र धर्मनिष्ट निस्संतान ब्राह्मण दंपत्ति को पुत्र प्राप्ति की इच्छा से भस्म प्रदान की, इसी भस्म से गोरखनाथ उत्पन्न हुए। गोरखनाथ के जन्म स्थान के सम्बन्ध में पर्याप्त मतभेद है।

महार्थमंजरी के त्रिवेन्द्रम संस्करण से ज्ञात होता है कि वे चोल देश के निवासी थे उनके पिता का नाम माधव और गुरु का नाम महाप्रकाश था।

अवध की परम्परा में गोरक्षनाथ जायस नगर के एक पवित्र ब्राह्मण कुल में उत्पन्न माने जाते हैं।

विभिन्न मतानुसार

ब्रिग्स ने गोरक्ष को पंजाब का मूल निवासी बताया है।

ग्रियर्सन ने उनका पश्चिमी हिमालय का निवासी होना स्वीकार किया है

डॉ० मोहन सिंह पेशावर के निकट रावलपिंडी जिले के एक ग्राम ‘गोरखपुर’ को उनकी मातृभूमि बताते है।

डा० रांगेय राघव का मत है कि गोरखनाथ का जन्मस्थान पेशावर का उत्तर-पश्चिमी पंजाब है।

पं० परशुराम चतुर्वेदी का अनुमान है कि गोरख का जन्म पश्चिमी भारत अथवा पंजाब प्रांत के किसी स्थान में हुआ था और उनका कार्य-क्षेत्र नेपाल, उत्तरी भारत आसाम, महाराष्ट्र एवं सिन्ध तक फैला हुआ था।

नेपाल पुस्तकालय से उपलब्ध ग्रन्थ योग सम्प्रदाय विष्कृति के अनुसार गोरक्ष की जन्मभूमि गोदावरी नदी के तट पर स्थित ‘चन्द्रगिरि’ नामक स्थान है।

डॉ० अशोक प्रभाकर का मत है कि महाराष्ट्र मे त्रियादेश की स्थापना बताकर तथा नाथ पंथ की कुछ गुफाओं व प्रतीकों को आधार बनाकर गोरखनाथ की जन्मभूमि महाराष्ट्र में स्थित ‘चन्द्रगिरि’ को बताते है।

अक्षय कुमार बनर्जी का मत है कि मत्स्येन्द्र गोरक्ष आदि ने सर्वप्रथम हिमालय प्रदेश-नेपाल, तिब्बत आदि देशों में अपनी योग साधना आरम्भ की और सम्भवतः इन्हीं स्थानो में वे प्रथम देव सदृश पूजे गये उनका स्थान देवाधिदेव पशुपतिनाथ शिव को छोड़कर अन्य सभी देवताओं से ऊँचा था।

तिब्बत व नेपाल के क्षेत्र से ही योग साधना का आन्दोलन पूर्व में कामरूप (आसाम) बंगाल, मनीपुर तथा निकटवर्ती क्षेत्रों में फैला। पश्चिम में कश्मीर, पंजाब पश्चिमोत्तर प्रदेश, यहाँ तक कि काबुल और फारस तक पहुँचा उत्तर प्रदेश हिमालय के समीप होने के कारण अधिक प्रभावित हुआ। दक्षिण पश्चिम और दक्षिण पूर्व में भी गोरखनाथ तथा अन्यान्न नाथ योगियों की शिक्षाएं तथा उनके चमत्कार की कथाएँ पुष्प की सुगंध की तरह चहूँ ओर बिखर गयीं।

गोरखनाथ के जन्म के समय के बारे में निश्चित नहीं कहा जा सकता है-

गोरखनाथ का समय डॉ राहुल सांकृत्यायन ने 845 ईस्वी माना है।

डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी उन्हें नवी शताब्दी का मानते हैं।

डॉ पीतांबरदत्त बड़थ्वाल ने 11वीं शताब्दी का स्वीकार करते हैं।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल तथा डॉ रामकुमार वर्मा इन्हें 13वीं शताब्दी का मानते हैं।

आधुनिक खोजों के अनुसार गोरखनाथ ने ईसा की तेरहवीं सदी के आरंभ में अपना साहित्य लिखा था।

गोरखनाथ की रचनाएं (गोरखनाथ जीवन परिचय एवं रचनाएं)

इनके ग्रंथों की संख्या 40 मानी जाती है, परंतु डॉ पीतांबर दत्त बड़थ्वाल ने इनकी 14 रचनाओं को प्रमाणिक मानकर गोरखवाणी नाम से उनका संपादन किया है। डॉ बड़थ्वाल द्वारा संपादित पुस्तकों की सूची इस प्रकार है– (1) शब्द, (2) पद, (3) शिष्या दर्शन. (4) प्राणसंकली. (5) नरवैबोध, (6) आत्मबोध, (7) अभयमुद्रा योग, (8) पंद्रह तिथि, (9) सप्तवार, (10) मछिन्द्र गोरखबोध, (11) रोमावली, (12) ज्ञान तिलक, (13) ज्ञान चौतीसा, (14) पंचमात्रा।

मिश्र बंधु

डॉ बड़थ्वाल के अतिरिक्त मिश्र बंधुओं ने गोरखनाथ के 9 संस्कृत ग्रंथों का परिचय दिया है– (1) गोरक्षशतक, (2) चतुरशीत्यासन, (3) ज्ञानामृत, (4) योगचिन्तामणि, (5) योग महिला, (6) योग मार्तण्ड, (7) योग सिद्धांत पद्धति, (8) विवेक मार्तण्ड (9) सिद्ध-सिद्धान्त पद्धति

योगनाथ स्वामी

ने गोरखनाथ की 20 संस्कृत ग्रन्थों की सूची दी है- (1) अमनस्क योग (2) अमरौधा शासनम्, (3)सिद्ध-सिद्धान्त पद्धति,(4) गोरक्षसिद्धान्त संग्रह, (5) सिद्ध-सिद्धान्त संग्रह, (6) महार्थ मंजरी, (7) विवेक मार्तण्ड, (8) गोरक्ष पद्धति, (9) गोरक्ष संहिता, (10) योगबीज, (11) योग चिन्तामणि, (12) हठयोग संहिता, (13) श्रीनाथ-सूत्र, (14) योगशास्त्र (15)चतुश्षीत्यासन, (16) गोरक्ष चिकित्सा, (17) गोरक्ष पंच, (18)गोरक्ष गीता, (19) गोरक्ष कौमुदी, (20) गोरक्ष कल्प।

डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी

ने गोरखनाथ 28 ग्रंथों की का उल्लेख किया है, द्विवेदी जी ने लिखा है कि उन पुस्तकों में अधिकांश के रचयिता गोरखनाथ नहीं थे–1.अमनस्कयोग 2. अमरौधशासनम् 3. अवधूत गीता 4. गोरक्ष कल्प 5. गोरक्षकौमुदी 6. गोरक्ष गीता 7. गोरक्ष चिकित्सा 8. गोरक्षपंचय 9. गोरक्षपद्धति 10. गोरक्षशतक 11. गोरक्ष शास्त्र 12.गोरक्ष संहिता 13. चतुरशीत्यासन 14. ज्ञान प्रकाश 15. ज्ञान शतक  16. ज्ञानामृत योग 17. नाड़ीज्ञान प्रदीपिका 18. महार्थ मंजरी 19. योगचिन्तामणि 20. योग मार्तण्ड 21.योगबीज 22. योगशास्त्र 23. योगसिद्धांत पद्धति 24. विवेक मार्तण्ड 25. श्रीनाथ-सूत्र 26. सिद्ध-सिद्धान्तपद्धति 27. हठयोग 28. हठ संहिता।

डॉ० नागेन्द्रनाथ उपाध्याय

ने गोरखनाथ के 15 ग्रंथो की सूची प्रस्तुत की है लेकिन इनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है- 1. अमरौधशासनम् 2. अवधूत गीता 3. गोरक्ष गीता 4.गोरक्षशतक 5. विवेक मार्तण्ड 6. महार्थमंजरी 7. सिद्ध-सिद्धान्त पद्धति 8.  चतुरशीत्यासन्  9. ज्ञानामृत 10. योग महिमा 11. योग-सिद्धान्त पद्धति 12. गोरक्ष कथा 13. गोरक्ष सहस्रनाम 14. गोरक्षपिष्टिका 15. योगबीज

गोरखनाथ मंदिर की जानकारी के लिए क्लिक कीजिए- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%B0%E0%A4%96%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%A5_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%B0

गोरखनाथ की प्रसिद्ध उक्तियाँ

(1) “नौ लख पातरि आगे नाचें, पीछे सहज अखाड़ा।

ऐसे मन लौ जोगी खेले, तब अंतरि बसै भंडारा ॥”

(2) “अंजन माहि निरंजन भेट्या, तिल मुख भेट्या तेल।

मूरति मांहि अमूरति परस्या भया निरंतरि खेल ॥”

(3) “नाथ बोल अमृतवाणी । बरसेगी कवाली पाणी॥

गाड़ी पडरवा बांधिले खूँटा। चलै दमामा वजिले काँटा॥”

(4) “गुर कोमहिला निगुरा न रहिला, गुरु बिन ज्ञान न पायला रे भाईला।”

(5) “अवधू रहिया हाटे बाटे रूप विरस की छाया।

तजिवा काम क्रोध लोभ मोह संसार की माया॥”

(6) “स्वामी तुम्हई गुरु गोसाई। अम्हे जो सिव सबद एक बुझिबा।।

निरारंवे चेला कूण विधि रहै। सतगुरु होइ स पुछया कहै ॥”

(7) “अभि-अन्तर को त्याग माया”

(8) “दुबध्या मेटि सहज में रहैं”

(9) “जोइ-जोइ पिण्डे सोई-ब्रह्माण्डे”

प्रमुख कथन (गोरखनाथ जीवन परिचय एवं रचनाएं)

शंकराचार्य के बाद इतना प्रभावशाली और इतना महिमान्वित भारतवर्ष में दूसरा नहीं हुआ। भारतवर्ष के कोने-कोने में उनके अनुयायो आज भी पाये जाते हैं। भक्ति आन्दोलन के पूर्व सबसे शक्तिशाली धार्मिक आन्दोलन गोरखनाथ का भक्ति मार्ग हो था। गोरखनाथ अपने युग के सबसे बड़े नेता थेआचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

“गोरख जगायो जोग भक्ति भगाए लोग” – तुलसीदास

अन्य महत्वपूर्ण तथ्य

1 नाथ साहित्य के प्रारंभ करता गोरखनाथ थे।

2 गोरखनाथ के गुरु का नाम मत्स्येंद्रनाथ था।

3 हिंदी साहित्य में षट्चक्र वाला योग मार्ग गोरखनाथ ने चलाया।

4 मिश्रबंधुओं ने गोरखनाथ को हिंदी का प्रथम गद्य लेखक माना है।

स्रोत

  • इग्नू स्नातकोत्तर (हिंदी) पाठ्य सामग्री
  • हिंदी साहित्य का इतिहास – डॉ नगेंद्र
  • नाथ संप्रदाय – डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी
  • गोरक्षनाथ और उनका युग – डॉ रांगेय राघव
  • अमनस्क योग –  श्री योगीनाथ स्वामी
  • नाथ संप्रदाय का इतिहास दर्शन एवं साधना प्रणाली – डॉ कल्याणी मलिक
  • गोरक्षनाथ एंड कनफटा योगीज –  ब्रिग्स
  • योगवाणी फरवरी 1977
  • नाथ और संत साहित्य तुलनात्मक अध्ययन – डॉ नागेंद्रनाथ उपाध्याय

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सिद्ध सरहपा Siddh Sarhapa – प्रथम हिन्दी कवि

सिद्ध सरहपा Siddh Sarhapa : व्यक्तित्व एवं कृतित्व

सिद्ध सरहपा Siddh Sarhapa प्रथम हिन्दी कवि के व्यक्तित्व एवं कृतित्व, जीवन परिचय, रचनाएं, भाषा शैली, 84 सिद्धों के नाम एवं प्रमुख कथन

हिंदी साहित्य का आरंभिक कवि सरहपा को माना जाता है।

यह 84 सिद्धों में प्रथम माने जाते हैं।

सरहपा के बारे में चर्चा करने से पहले सिद्ध संप्रदाय की संक्षिप्त जानकारी आवश्यक है।

सामान्य रूप से जब कोई साधक साधना में प्रवीण हो जाता है और विलक्षण सिद्धियां प्राप्त कर लेता है तथा उन सिद्धियों से चमत्कार दिखाता है, उसे सिद्ध कहते हैं।

प्रथम हिन्दी कवि-सिद्ध सरहपा
प्रथम हिन्दी कवि-सिद्ध सरहपा

लगभग आठवीं शताब्दी में बौद्ध धर्म से सिद्ध संप्रदाय का विकास हुआ था।

बहुत संप्रदाय विघटित होकर दो शाखाओं- हीनयान तथा महायान में बँट गया।

कालांतर में महायान पुनः दो उपशाखाओं में विभाजित हुआ-

(क) वज्रयान

(ख) सहजयान

इन्हीं शाखाओं के अनुयाई साधकों को सिद्ध कहा गया है।

वज्रयानियों का केंद्र श्री पर्वत रहा है।

सिद्धों के समय को लेकर विद्वानों में मतभेद है।

महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने सिद्धों का समय सातवीं शताब्दी स्वीकार किया है।

डॉ रामकुमार वर्मा ने इनका समय संवत् 797 से 1257 तक माना है।

जबकि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इनका समय दसवीं शताब्दी स्वीकार किया है।

सिद्धों की संख्या

संख्या 84 मानी जाती है।

तंत्र साधना में 84 का गूढ़ तांत्रिक अर्थ तथा विशेष महत्व होता है।

योग तथा तंत्र में आसन भी 84 माने गए हैं।

84 सिद्धों का संबंध 84 लाख योनियों से भी माना जाता है।

काम शास्त्र में 84 आसन भी स्वीकार किए गए हैं।

हिंदी साहित्य कोश के अनुसार 12 राशियों तथा 7 नक्षत्रों का गुणनफल भी 84 होता है।

उस समय प्रत्येक संप्रदाय 84 की संख्या को महत्व देता था।

सिद्धों का 84 ही होने का कोई पुष्ट प्रमाण नहीं मिलता है।

डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा उपलब्ध करवाई गई 84 सिद्धों की सूची इस प्रकार है-

संख्या

(1) लुइपा – कायस्थ, (2) लीलापा, (3) विरूपा, (4) डोम्बिपा – क्षत्रिय, (5) शबरपा- क्षत्रिय, (6) सरहपा – ब्राह्मण, (7) कंकालीपा – शूद्र, (8) मीनपा- मछुआ, (9) गोरक्षपा, (10) चोरंगिपा – राजकुमार, (11) वीणापा – राजकुमार, (12) शान्तिपा – ब्राह्मण, (13) तंतिपा तँतवा, (14) चमारिपा – चर्मकार, (15) खड्गपा – शूद्र, (16) नागार्जुन – ब्राह्मण, (17) कण्हपा – कायस्थ, (18) कर्णरिपा, (19) थगनपा – शूद्र, (20) नारोपा – ब्राह्मण,

(21) शलिपा – शूद्र, (22) तिलोपा-ब्राह्मण, (23) छत्रपा-शूद्र, (24) भद्रपा- ब्राह्मण, (25) दोखंधिपा, (26) अजोगिपा – गृहपति, (27) कालपा, (28) धम्मिपा –  धोबी, (29) कंकणपा –  राजकुमार, (30) कमरिपा, (31) डेंगिपा – ब्राह्मण, (32) भदेपा, (33) तंधेपा – शूद्र, (34) कुक्कुरिपा – ब्राह्मण, (35) कुचिपा – शूद्र, (36) धर्मपा – ब्राह्मण, (37) महीपा – शूद्र, (38) अचितपा – लकड़हारा, (39) भलहपा क्षत्रिय, (40) नलिनपा, (41) भुसुकिपा – राजकुमार,

(42) इन्द्रभूति – राजा, (43) मेकोपा – वणिक्, (44) कुठालिपा, (45) कमरिपा – लोहार, (46) जालंधरपा – ब्राह्मण, (47) राहुलपा- शूद्र(48) मेदनीपा(49) धर्वरिपा, (50) धोकरिपा – शूद्र, (51) पंकजपा – ब्राह्मण, (52) घंटापा – क्षत्रिय, (53) जोगीपा डोम, (54) चेकुलपा-  शूद्र, (55) गुंडरिपा – चिड़मार, (56) लुचिकपा – ब्राह्मण, (57) निर्गुणपा – शूद्र, (58) जयानन्त – ब्राह्मण, (59) चर्पटीपा – कहार, (60) चम्पकपा, (61) भिखनपा – शूद्र, (62) भलिपा – कृष्ण घृत वणिक्, (63) कुमरिपा, (64) चवरिपा, (65) मणिभद्रा – (योगिनी) गृहदासी, (66) मेखलापा (योगिनी) गृहपति कन्या, (67) कनपलापा (योगिनी) गृहपति कन्या, (68) कलकलपा – शूद्र, (69) कंतालीपा – दर्जी, (70) धहुलिपा – शूद्र, (71) उधलिपा – वैश्य, (72) कपालपा – शूद्र, (73) किलपा – राजकुमार,(74) सागरपा–राजा(75) सर्वभक्षपा – शूद्र, (76) नागबोधिपा- ब्राह्मण,(77) दारिकपा- राजा, (78) पुतुलिपा- शूद्र, (79) पनहपा- चमार, (80) कोकालिपा – राजकुमार, (81) अनंगपा -शूद्र, (82) लक्ष्मीकरा – (योगिनी) राजकुमारी, (83) समुदपा, (84) भलिपा – ब्राह्मण । सिद्धों के नाम के साथ आदर सूचक शब्द ‘पा’ जुड़ता है।

डॉ रामकुमार वर्मा सरहपा को हिंदी का प्रथम कवि स्वीकार करते हुए, उनकी कविता में हिंदी कविता के आदि रूप का अस्तित्व स्वीकार किया है। उनके मत से अन्य प्रमुख साहित्यकार भी सहमत नजर आते हैं।

प्रथम हिन्दी कवि-सिद्ध सरहपा व्यक्तित्व एवं कृतित्व

सरहपा सिद्धों में प्रथम सिद्ध माने जाते हैं। इन्होंने ही सिद्ध संप्रदाय का प्रवर्तन किया।

कतिपय विद्वान मानते हैं कि सरहपा ने ही महामुद्रा साधना का प्रथम अभ्यास किया तथा इसमें सिद्धि प्राप्त की।

सरहपा के जन्म तथा मृत्यु के विषय में पर्याप्त जानकारी का अभाव है लेकिन कुछ साक्ष्यों के आधार पर उनके समय का अनुमान लगाया जाता है।

डॉ राहुल सांकृत्यायन के मतानुसार सरहपा आठवीं शताब्दी (769) के लगभग वर्तमान थे।

डॉ ग्रियर्सन, शिव सिंह सेंगर, मिश्र बंधु,चंद्रधर शर्मा गुलेरी, हजारी प्रसाद द्विवेदी तथा डॉ रामकुमार वर्मा राहुल जी से दूर तक सहमत हैं।

सरहपा के कई नाम सरोरुह, वज्र, सरोवज्र, पद्म, पद्मवज्र तथा राहुलभद्र आदि मिलते हैं।

सिद्धि प्राप्त करने से पूर्व इनका नाम राहुल भद्रथा, बाद में सरहपा हुआ।

तिब्बत में प्रचलित के किंवदंती के अनुसार सरहपा का जन्म उड़ीसा में हुआ था।

डॉ राहुल सांकृत्यायन ‘दोहाकोश’ की भूमिका में सरहपा का जन्म स्थान राज्ञी नामक गांव को माना है, परंतु वर्तमान में इस नाम का कोई गांव नहीं है।

विद्वानों का मत है कि यह गांव शायद बिहार के भागलपुर के आस-पास रहा होगा।

इन्हे वेद वेदांगों में बचपन से ही विशेष रुचि थी।

मध्यप्रदेश में इन्होंने  त्रिपिटकों का अध्ययन किया और बौद्ध धर्म में दीक्षित होकर नालंदा आ गए, वहां से महाराष्ट्र पहुंचे और महामुद्रा योग में सिद्धि प्राप्त कर सिद्ध कहलाए।

सरहपा  और उनके  समकालीन साहित्य पर अनेक विद्वानों ने शोध कार्य किया है जिनमें मिशेल, हरमन याकोबी, चन्द्रमोहन घोष, महामहोपाध्याय पण्डित विधुशेखर शास्त्री, महामहोपाध्याय पं. हरप्रसाद शास्त्री, डॉ. प्रबोधचन्द्र बागची, मुनि जिनविजय, डॉ शहीदुल्ला, महापण्डित राहुल सांकृत्यायन आदि मुख्य हैं।

इनके प्रयासों से ही आज इस काल का साहित्य थोड़ा बहुत हमें उपलब्ध है।

सिद्ध सरहपा Siddh Sarhapa की रचनाएं

सरहपा ने लगभग 32 ग्रंथों की रचना कीजिनमें से दोहाकोश इनकी श्रेष्ठ रचना मानी जाती है।

दोहाकोश की भूमिका में राहुल सांकृत्यायन ने 7 कृतियों की एक सूची दी है, जिन्हें सरहपा की रचनाएं कहा जा सकता है।

इसके अतिरिक्त दोहाकोश की भूमिका में ही राहुल जी ने सरहपा की संभावित 16 अन्य कविताओं की सूची भी दी है।

सिद्ध सरहपा Siddh Sarhapa के लिए प्रमुख कथन

“आज की भाषा में अबनार्मल प्रतिभा के धनी थे मूड आने पर वह कुछ गुनगुनाने लगते। शायद उन्होंने स्वयं इन पदों को लेखबद्ध नहीं किया। यह काम उनके साथ रहने वाले सरह के भक्तों ने किया। यही कारण है, जो ‘दोहा-कोश के छन्दों के क्रम और संख्या में इतना अन्तर मिलता है। सरह जैसे पुरुष से यह आशा नहीं रखनी चाहिए कि वह अपनी धर्म की दूकान चलाएगा, पर, आगे वह चली और खूब चली, इसे कहने की आवश्यकता नहीं।”महापंडित राहुल सांकृत्यायन

“जब उन्हें वहाँ का जीवन दमघोंटू लगने लगा, तो उन्होंने सब कुछ को लात मारी, भिक्षुओं का बाना छोड़ा, अपनी नहीं, किसी दूसरी छोटी जाति की तरुणी को लेकर खुल्लमखुल्ला सहजयान का रास्ता पकड़ा।”महापंडित राहुल सांकृत्यायन

“सिद्ध-सामंत युग की कविताओं की सृष्टि आकाश में नहीं हुई है वे हमारे देश की ठोस धरती की उपज हैं। इन कवियों ने जो खास-खास शैली भाव को लेकर कविताएँ की, वे देश की तत्कालीन परिस्थितियों के कारण ही।”  –महापंडित राहुल सांकृत्यायन

“आक्रोश की भाषा का पहला प्रयोग सरहपा में ही दिखाई देता है।“डॉ. बच्चन सिंह

सरहपा की प्रमुख पंक्तियाँ

  1. पंडिअ सअल सत्त बक्खाणइ। देहहि रुद्ध बसंत न जाणइ।

अमणागमण ण तेन विखंडिअ। तो विणिलज्जइ भणइ हउँ पंडिय।।

  1. जहि मन पवन संचरइ, रवि ससि नाहि पवेश।

तहि वत चित्त विसाम करु, सरेहे कहिअ उवेश।।

  1. घोर अधारे चंदमणि जिमि उज्जोअ करेइ।

परम महासुह एषु कणे दुरिअ अशेष हरेइ।।

प्रथम हिन्दी कवि-सिद्ध सरहपा के व्यक्तित्व एवं कृतित्व, जीवन परिचय, रचनाएं, भाषा शैली, 84 सिद्धों के नाम एवं प्रमुख कथन के बारे में जानकारी

स्रोत पुस्तकें

दोहकोश

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय स्नातकोत्तर (हिंदी)की पाठ्य सामग्री

हिंदी साहित्य का इतिहास- डॉ नगेंद्र

हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास – डॉ बच्चन सिंह

हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली (खंड 3)

इन्हें भी अवश्य पढें-

महाकवि पुष्पदंत

स्वयम्भू

गोरखनाथ

सिद्ध सरहपा

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