भाषायी दक्षता का विकास
इस आलेख में हम भाषायी दक्षता के बारे में जानेंगे, जिसमें भाषायी दक्षता की परिभाषा, विकास, भाषायी दक्षता के प्रकार, महत्त्व, घटक या तत्व एवं बिंब निर्माण आदि के बारे में बताया गया है। आशा है कि इस भाषायी दक्षता में व्याप्त व्याकरण एवं प्रतियोगी परीक्षाओं की संपूर्ण जानकारी आपके लिए उपयोगी सिद्ध होगी।
भाषायी दक्षता का महत्त्व
किसी भी भाषा में दक्षता प्राप्त करना एक सहज प्रक्रिया के अंतर्गत होता है और यह अपने आप में बहुत अधिक महत्वपूर्ण है।
भाषा में दक्षता प्राप्त होने पर ही मनुष्य अपने मनोभावों दूसरों के सामने प्रकट कर सकता है।
भाषा ही वह माध्यम है जिसके द्वारा मनुष्य अपनी आवश्यकताओं, अपने विचारों और अपने मनोभाव को संप्रेषित करता है।
बिना भाषा के वह यह सब कार्य नहीं कर सकता है, अतः मानव जीवन में भाषा में दक्षता प्राप्त करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
भाषायी दक्षता का अर्थ एवं परिभाषा
किसी भी भाषा को बोलने, समझने, लिखने, पढ़ने में प्रवीणता प्राप्त करना अथवा किसी भी भाषा को बोलने, समझने, लिखने, पढ़ने की शक्ति का विकास करना ही भाषायी दक्षता कहलाता है।
भाषायी दक्षता के विकास के मनोवैज्ञानिक घटक
जिज्ञासा- जब बालक किसी वस्तु या दृश्य को देखता है या ध्वनि को सुनता है तो उस वस्तु, दृश्य या ध्वनि के बारे में जानने की कोशिश करता है यही जिज्ञासा कहलाती है।
अनुकरण- अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए बालक अनेक क्रिया-प्रतिक्रिया करता है। वह परिवार के सदस्यों से अनेक ध्वनियाँ सुनता है। ध्वनियों को सुनकर वह बोलने की चेष्ठा करता है। धीरे-धीरे प्रयत्न से वह भी कुछ शब्द बोलने लग जाता है। यहाँ से ही उसकी भाषा सीखने की प्रवृति का विकास प्रारम्भ होने लगता है। अर्थात बोलना सीखने में अनुकरण का सर्वाधिक महत्त्व है।
अभ्यास- बार-बार के अनुकरण को ही अभ्यास कहा गया है। अभ्यास के द्वारा बालक के मस्तिष्क में बने बिंब पुष्ट हो जाते हैं और वह भाषा को सीखने की ओर अग्रसर होता है।
भाषायी दक्षता के तत्व/कारक या भाषायी दक्षता के तत्व/कारकों की विवेचना
बालक भाषा अर्जित करने की सहजशक्ति लेकर जन्म लेता है।
भाषा सीखने के लिए उसके मस्तिष्क में सारी व्यवस्थाएं प्राकृतिक रूप से होती है।
जब बालक किसी वस्तु या दृश्य को देखता है या ध्वनि को सुनता है तो मस्तिष्क की सहायता से प्रक्रिया करके नियमों की खोज करता है।
आयु बढ़ने के साथ-साथ बालक विभिन्न प्रकार की क्रिया-प्रतिक्रिया करता है।
जैसे जैसे वह नवीन वस्तुओं से परिचित होता जाता है वैसे वैसे वह उनके साथ अनेक क्रियाएं करता है।
जब वे क्रियाएं बार-बार होती हैं तो उन सभी का एक बिंब उसके मस्तिष्क में बनता चला जाता है।
भाषायी दक्षता के विकास में इन बिंबो का सर्वाधिक महत्त्व है
बिम्ब का निर्माण तथा उसकी भूमिका
भाषायी दक्षता में व्याप्त भाषायी दक्षता एवं इसके बिंदु जैसे इसकी परिभाषा, विकास, भाषायी दक्षता के प्रकार, भाषायी दक्षता के महत्त्व, घटक या तत्व एवं बिंब निर्माण-
दृश्य या चाक्षुक बिंब-
जब बालक किसी वस्तु या दृश्य को पहली बार देखता है तो उसका एक चित्र आंखों के माध्यम से बालक के मस्तिष्क में अंकित हो जाता है।
जब बालक पुनः उसी चित्र दृश्य को देखता है तो पहला चित्र अपने आप ही सक्रिय हो जाता है।
इस प्रक्रिया को बिंब बनाना कहा जाता है और इसे ही दृश्य बिंब कहा जाता है।
यह भाषा सीखने का पहला बिंब है।
श्रुति/श्रुत/श्रवण बिंब-
दृश्य बिंब बनाने के पश्चात जब परिवार के सदस्य उस वस्तु को दिखाकर उसका नाम लेते हैं तो बालक का मस्तिष्क उस वस्तु और उसके नाम की ध्वनि में साहचर्य स्थापित कर लेता है।
पुनः वही शब्द बालक के सामने दोहराया जाता है तो उसका चित्र बालक के मस्तिष्क में उभर आता है।
इस प्रकार दृश्य बिम्ब के साथ श्रव्य बिंब भी बालक के मस्तिष्क में सक्रिय हो जाता है।
यही श्रव्य बिंब है। यह भाषा सीखने का दूसरा महत्त्वपूर्ण बिंब है।
विचार बिंब-
दृश्य तथा श्रव्य बिंबों के माध्यम से बालक का भाषायी विकास शुरू हो जाता है।
धीरे-धीरे इन्हीं दोनों बिंबों के माध्यम से बालक के वैचारिक बिंब बनते हैं।
बालक दृश्य और वस्तुएं देखता है और ध्वनियां सुनता है, जिससे उसके विचारों को पुष्टि मिलती है।
विभिन्न आकार प्रकार या रंग रूप की एक ही वस्तु के लिए बालक जब एक ही नाम सुनता है तो उसके वैचारिक बिंबो को बल मिलता है।
निरीक्षण, तुलना सहसंबंध एवं अभ्यास की क्रियाओं के माध्यम से बालक सीख जाता है कि एक ही आकार प्रकार तथा रंग रूप की दो अलग-अलग वस्तुओं के नाम एक ही है।
यह सारी प्रक्रिया विचार बिंब है जो की भाषा सीखने का तीसरा प्रधान बिंब माना जाता है।
भाव बिंब-
आयु बढ़ने के साथ-साथ बालक के विचारों में परिपक्वता आती है।
विचार बिंब के सामंजस्य से बालक में भाव बिंब का निर्माण होता है।
उसमें विभिन्न तरह के भाव उत्पन्न होते हैं।
दृश्य, श्रव्य तथा विचार बिंबों के माध्यम से भावों का बनाना भाव बिंब में आता है।
यह भाषा अर्जन का अंतिम बिंब माना जाता है।
बालक को किसी के द्वारा से लाए जाने पर मुस्कुराना उसके पास जाना या किसी को देखकर रोना भाव बिंब के अंतर्गत आता है।
शिशु में वाक् विकास
क्रंदन-
5 माह की आयु का बालक क्रंदन करता है।
यह वाग्यंत्रों के विकास की पहली सीढ़ी है और भावाभिव्यक्ति की आदिम स्थिति भी।
किलकारी-
5 माह से 8 माह तक का बालक स्वतः निरर्थक ध्वनियां निकलता है, जिसे किलकारी कहा जाता है।
यह भावी भाषा एवं ध्वनि के विकास की आधारशिला बनती है।
बबलाना-
7 से 9 माह का बालक कुछ ध्वनिया बार-बार दोहराने लगता है। यह ध्वनिया ज्यादातर स्पष्ट होती हैं।
प्रारंभिक शब्द और वाक्य विन्यास-
एक वर्ष का होते-होते बालक प्रथम शब्द का उच्चारण करता है। यह एक शब्द के वाक्य बनते हैं।
यह बाल व्याकरण की स्थिति है।
उत्तर वाक्य विन्यास-
डेढ़ वर्ष का होने तक बालक 2 से 3 शब्दों वाले वाक्यों को सीख लेता है।
यह अवस्था टेलीग्राफिक भाषा की स्थिति है।
सामान्य बालक की भाषा में ध्वनि विकास सामान्य अवस्था से प्रारंभ होता है।
स्थूल से सूक्ष्म के क्रम में पहले औष्ठ्य, तालव्य, कंठ्य ध्वनियों का विकास होता है।
मूर्धन्य ध्वनियां बहुत बाद में आती है। सबसे अंत में लुंठित (र) ध्वनि उच्चारित होती है।
भाषा के विभिन्न अंग और उनका विकास
भाषा के पांच अंग माने गए हैं-
शब्द भंडार- स्मिथ के अनुसार 2 वर्ष तक का बालक 300 शब्द सीख जाता है।
वाक्य विन्यास- प्रारंभ में बालक 1-2 शब्दों के छोटे वाक्य बोलता है 5 वर्ष की आयु तक वह शब्द तथा पूरे वाक्य बोलने लगता है।
अभिव्यक्ति- 5 से 6 वर्ष की आयु में बालक स्पष्ट उच्चारण करने लगता है तथा अभिव्यक्ति में स्पष्ट का आ जाती है।
वाचन- 6 से 10 वर्ष की अवस्था में बालक चित्रों और अक्षरों को पहचानने और पढ़ने लगता है इस अवस्था में बालक बड़े-बड़े जटिल शब्द भी अभ्यास द्वारा पढ़ने लगता है।
लिपि- 5 वर्ष की आयु तक बालक की मांसपेशियां कोमल होती है और धीरे-धीरे मजबूत होती है।
अब बालक को लिखना आरंभ करता है। लेखन में दृश्य और श्रव्य बिंब बहुत सहायक होते हैं।
अंततः हमें आशा है कि आपको भाषायी दक्षता में व्याप्त भाषायी दक्षता एवं इसके बिंदु जैसे इसकी परिभाषा, विकास, भाषायी दक्षता के प्रकार, भाषायी दक्षता के महत्त्व, घटक या तत्व एवं बिंब निर्माण आदि आपके लिए उपयोगी सिद्ध हुए होंगे।
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