मीराबाई का जीवन परिचय
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जन्म – 1498
जन्म भूमि – कुडकी, पाली, राजस्थान,
बचपन का नाम पेमल
मृत्यु – 1547 (मीरा में भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति में समा गयी।)
अभिभावक- रत्नसिंह
पति- कुंवर- भोजराज ( उदयपुर के महाराणा सांगा के पुत्र)
गुरु/शिक्षक संत रविदास (माना जाता है कि इन्होंने जीव गोस्वामी से दीक्षा ली थी)
डॉ नगेंद्र ने इन्हें संप्रदाय निरपेक्ष भक्त कवयित्री कहा है।
कर्म भूमि- वृन्दावन
काल- भक्तिकाल
विषय – कृष्णभक्ति
मीराबाई की प्रमुख रचनाएं
मीराबाई ने चार ग्रन्थों की भी रचना की थी-
‘बरसी का मायरा’
‘गीत गोविंद टीका’
‘राग गोविंद’
‘राग सोरठ’
मीराबाई की पदावली : मीराबाई का जीवन परिचय
मीराबाई के गीतों का संकलन “मीराबाई की पदावली” नामक ग्रन्थ में किया गया है, जिसमें निम्नलिखित खंड प्रमुख हैं-
नरसी जी का मायरा
मीराबाई का मलार या मलार राग
गर्बा गीता या मीराँ की गरबी
फुटकर पद
सतभामानु रूसण या सत्यभामा जी नुं रूसणं
रुक्मणी मंगल
नरसिंह मेहता की हुंडी
चरित
विशेष तथ्य
प्रियादास ने संवत् 1769 वि. में भक्तमाल की टीका ‘भक्तिरस बोधिनी’ में लिखा है कि मीरा की जन्म भूमि मेड़ता थी।
नागरीदास ने लिखा है कि मेड़ता की मीराबाई का विवाह राणा के अनुज से हुआ था।
कर्नल टॉड ने ‘एनलस एण्ड एंटिक्वटीज ऑफ़ राजस्थान’ में मीरा का विवाह राणा कुम्भा से लिखा है।
पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने अपने उदयपुर राज्य के इतिहास में लिखा है कि महाराणा साँगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज का विवाह मेड़ता के राव वीरमदेव के छोटे भाई रत्नसिंह की पुत्री मीराबाई के साथ संवत् 1573 वि. में हुआ था।
स्मरण रहे कि कर्नल टॉड अथवा उन्हीं के आधार पर जिन विद्वानों ने मीरा को कुम्भा की पत्नी माना है, वे दन्त कथाओं के आधार पर गलती कर गए हैं।
सर्वप्रथम विलियम क्रुक ने बताया कि वास्तव में मीराबाई राणा कुम्भा की पत्नी नहीं थीं, वरन् साँगा के पुत्र भोजराज की पत्नी थीं।
पण्डित रामचन्द्र शुक्ल ने अपने इतिहास में लिखा है कि- ‘इनका जन्म संवत् 1573 वि. में चौकड़ी नाम के एक गाँव में हुआ था और विवाह उदयपुर के कुमार भोजराज के साथ हुआ था।’
डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने इनका जन्म सन् 1498 ई. (संवत् 1555 वि.) के लगभग माना है।
मीरा की भक्ति माधुर्य- भाव की भक्ति है।
वह अपने इष्टदेव कृष्ण की भावना प्रियतम या पति के रुप में करती थी।
उनका मानना था कि इस संसार में कृष्ण के अलावा कोई पुरुष है ही नहीं।
कृष्ण के रुप की दीवानी थी।
“मीराबाई रैदास को अपना गुरु मानते हुए कहती हैं-
‘गुरु मिलिया रैदास दीन्ही ज्ञान की गुटकी।’
मीराबाई और तुलसीदास का पत्र-व्यवहार
मीरा ने तुलसीदास को पत्र लिखा था-
“स्वस्ति श्री तुलसी कुलभूषण दूषन- हरन गोसाई।
बारहिं बार प्रनाम करहूँ अब हरहूँ सोक- समुदाई।।
घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई।
साधु- सग अरु भजन करत माहिं देत कलेस महाई।।
मेरे माता- पिता के समहौ, हरिभक्तन्ह सुखदाई।
हमको कहा उचित करिबो है, सो लिखिए समझाई।।”
मीराबाई के पत्र का जबाव तुलसी दास ने इस प्रकार दिया-
“जाके प्रिय न राम बैदेही।
सो नर तजिए कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेहा।।
नाते सबै राम के मनियत सुह्मद सुसंख्य जहाँ लौ।
अंजन कहा आँखि जो फूटे, बहुतक कहो कहां लौ।।”
मीराबाई की काव्य शैली एवं भाषा शैली : मीराबाई का जीवन परिचय
मीरा के काव्य की भाषा सामान्यतः राजस्थानी मिश्रित ब्रिज है।
उनके पदों पर गुजराती का विशेष पुट है।
खड़ी बोली और पंजाबी का भी उनकी कविता पर पर्याप्त प्रभाव दिखाई देता है।
संगीत और छंद विधान की दृष्टि से मीरा का काव्य उच्च कोटि का है उनके पद विभिन्न राग रागिनियों में बद्ध है।
भावना प्रधान होने के कारण मीरा के काव्य में अलंकारों की सायास योजना कहीं दिखाई नहीं देती है।