भगवती चरण वर्मा

भगवती चरण वर्मा का जीवन परिचय

भगवती चरण वर्मा जीवन-परिचय, भगवती चरण वर्मा का साहित्य परिचय, कविताएं, रचनाएं, उपन्यास, पुरस्कार सम्मान, विशेष तथ्य

जन्म -30 अगस्त, 1903

जन्म भूमि- उन्नाव ज़िला, उत्तर प्रदेश

मृत्यु -5 अक्टूबर, 1981

विषय- उपन्यास, कहानी, कविता, संस्मरण, साहित्य आलोचना, नाटक, पत्रकार।

विद्यालय -इलाहाबाद विश्वविद्यालय

शिक्षा – बी.ए., एल.एल.बी.

प्रसिद्धि – उपन्यासकार

काल- आधुनिककाल

काव्यधारा- व्यक्ति चेतना प्रधान काव्यधारा या हालावाद

भगवती चरण वर्मा का साहित्य परिचय

भगवती चरण वर्मा की रचनाएं

उपन्यास

पतन (1928),

चित्रलेखा (1934),

तीन वर्ष,

टेढे़-मेढे रास्ते (1946)

अपने खिलौने (1957),

भूले-बिसरे चित्र (1959),

वह फिर नहीं आई,

सामर्थ्य और सीमा (1962),

थके पाँव,

रेखा,

सीधी सच्ची बातें,

युवराज चूण्डा,

सबहिं नचावत राम गोसाईं, (1970)

प्रश्न और मरीचिका, (1973)

धुप्पल,

चाणक्य

कहानी-संग्रह

मोर्चाबंदी

कविता-संग्रह

मधुकण (1932)

‘प्रेम-संगीत'(1937)

‘मानव’ (1940)

नाटक

वसीहत

रुपया तुम्हें खा गया

संस्मरण

अतीत के गर्भ से

विशेष तथ्य

‘मस्ती, आवेश एवं अहं ‘ उनकी कविताओं के केंद्र बिंदु माने जाते हैं|

उनकी रचनाएं 1917 ईस्वी से ही ‘प्रताप’ पत्र में प्रकाशित होने लगी थी|

इन्होने प्रताप पत्र का संपादन भी किया|

चित्रलेखा उपन्यास की कथा पाप और पुण्य की समस्या पर आधारित है-पाप क्या है? उसका निवास कहाँ है ? इन प्रश्नों का उत्तर खोजने के लिए महाप्रभु रत्नांबर के दो शिष्य, श्वेतांक और विशालदेव, क्रमश: सामंत बीजगुप्त और योगी कुमारगिरि की शरण में जाते हैं। और उनके निष्कर्षों पर महाप्रभु रत्नांबर की टिप्पणी है, ‘‘संसार में पाप कुछ भी नहीं है, यह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है। हम न पाप करते हैं और न पुण्य करते हैं, हम केवल वह करते हैं जो हमें करना पड़ता है।

पुरस्कार सम्मान : भगवती चरण वर्मा जीवन-परिचय

1961 में ‘भूले बिसरे चित्र’ उपन्यास के लिए साहित्य अकादमी पुरूस्कार से पुरूस्कृत किया गया।

वर्ष 1969 में इन्हें ‘साहित्य वाचस्पति’ की उपाधि से अलंकृत किया गया।

आदरणीय वर्मा जी वर्ष 1978 में भारतीय संसद के उच्च सदन राज्य सभा के लिये चुने गये।

इन्हे पद्मभूषण से सम्मानित किया गया।

प्रसिद्ध पंक्तियां

“मैं मुख्य रूप से उपन्यासकार हूँ, कवि नहीं-आज मेरा उपन्यासकार ही सजग रह गया है, कविता से लगाव छूट गया है।”
“किस तरह भुला दूँ, आज हाय,
कल की ही तो बात प्रिये!
जब श्वासों का सौरभ पीकर,
मदमाती साँसें लहर उठीं,
जब उर के स्पन्दन से पुलकित
उर की तनमयता सिरह उठी,
मैं दीवाना तो ढूँढ रहा
हूँ वह सपने की रात प्रिये!
किस तरह भुला दूँ आज हाय
कल की ही तो है बात प्रिये!”

आदिकाल के प्रमुख साहित्यकार

भक्तिकाल के प्रमुख साहित्यकार

आधुनिक-काल के साहित्यकार

हरिवंश राय बच्चन Harivansh Rai Bachchan

हरिवंश राय बच्चन Harivansh Rai Bachchan

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Harivansh Rai Bachchan
Harivansh Rai Bachchan

जीवन परिचय

जन्म- 27 नवम्बर 1907 इलाहाबाद, आगरा, ब्रितानी भारत (अब उत्तर प्रदेश, भारत)

मृत्यु -18 जनवरी 2003 (उम्र 95) मुम्बई, महाराष्ट्र,

अभिभावक – प्रताप नारायण श्रीवास्तव, सरस्वती देवी

पति/पत्नी – श्यामा बच्चन, तेजी सूरी

संतान- अमिताभ बच्चन, अजिताभ बच्चन

उपजीविका- कवि, लेखक, प्राध्यापक

भाषा- अवधी, हिन्दी

काल- आधुनिक काल, छायावादी युग (व्यक्ति चेतना प्रधान काव्यधारा या हालावाद )

हालावाद के प्रवर्तक

हरिवंश राय बच्चन का साहित्यिक योगदान

इस विषय में कोई दो राय नहीं है कि छायावादोत्तर गीति काव्य में बच्चन का श्रेष्ठ स्थान है।

बच्चन को इस पंक्ति का अग्रिम सूत्रधार माना जायेगा। बच्चन की कविता की सबसे बड़ी पूंजी है ‘अनुभूति’ उसके क्षीण होते उनकी कविता नंगी हो जाती है। क्योंकि अनुभूति की रिक्तता को कल्पना के फूलों और चिन्तन की छूपछांही की जाली से ढकने की कला से वह अनभिज्ञ हैं। यही कारण है कि उनकी रचनाएं शुद्ध गीतों में लक्षित की जा सकती है।

शुद्धता के सभी तत्व, व्यैक्तिकता, भावान्विति , संगीतात्मकता टेक, छन्द – विधान लय गीत सा उतार – चढ़ाव इत्यादि आलोच्य कवि के गीतों में गठित है।

अपने सर्वश्रेष्ठ गीतों के आधार पर ही बच्चन का स्थान हमारी पीढ़ी के कवियों में बहुत ऊँचा है।

छायावाद के कल्पनावैभव और अलंकृत बिम्ब – विधान से बच्चन के गीत बहुत दूर रहे हैं।

बच्चन की कल्पना का स्वर्ण – महल अनुभूति की दृढ़ – नींव पर स्थित है। कवि के अप्रस्तुत – किसान , बिम्ब , प्रतीक आदि का मुख्य कारण अनुभूति और कल्पना का अमूल्य सहयोग है।

बच्चन जी के गीतों में प्रत्येक प्राणी के हृदय का सागर – मन्थन ही स्वर पा है। उनके गीत जीवन संघर्ष की कुंभीपाल ज्वाला से तपकर एक दम खरे गीतों में अवश्यकतानुसार गया निकले है, कि उनका प्रभाव हिन्दी जगत पर अभूतपूर्व है।

परम्परागत और नवीन दोनों प्रकार के उपमानों का भी बड़ा सुन्दर समायोजन प्रस्तुत किया गया है। इसी कारण बच्चन की प्रतिभा का परिणाम इतना अधिक है कि समय के पन्नों से वह मिट नहीं सकेगें, इतिहास की कूर यवनिका उसकी ज्योति को मलिन करने में असमर्थ रहेगी।

हरिवंश राय बच्चन की रचनाएं

कविता संग्रह : हरिवंश राय बच्चन Harivansh Rai Bachchan

तेरा हार (1929),(प्रथम)

मधुशाला (1935),

मधुबाला (1936),

मधुकलश (1937),

निशा निमंत्रण (1938),

एकांत संगीत (1939),

आकुल अंतर (1943),

सतरंगिनी (1945),

हलाहल (1946),

बंगाल का अकाल (1946),

खादी के फूल (1948),

सूत की माला (1948),

मिलन यामिनी (1950),

प्रणय पत्रिका (1955),

धार के इधर उधर (1957),

आरती और अंगारे (1958),

बुद्ध और नाचघर (1958),

त्रिभंगिमा (1961),

चार खेमे चौंसठ खूंटे (1962),

दो चट्टानें (1965),

बहुत दिन बीते (1967),

कटती प्रतिमाओं की आवाज़ (1968),

उभरते प्रतिमानों के रूप (1969),

जाल समेटा (1973)

आत्मकथाएं

क्या भूलूँ क्या याद करूँ (1969),

नीड़ का निर्माण फिर (1970),

बसेरे से दूर (1977),

दशद्वार से सोपान तक (1985)

विविध रचनाएं

बचपन के साथ क्षण भर (1934),

खय्याम की मधुशाला (1938),(अग्रजी के प्रसिद्ध कवि ‘ फिट्जेराल्ड’ कृत अंग्रेजी अनुवाद के आधार पर अनुवाद किया है)

सोपान (1953),

मैकबेथ (1957),

जनगीता (1958),

ओथेलो (1959),

उमर खय्याम की रुबाइयाँ (1959),

कवियों के सौम्य संत: पंत (1960),

आज के लोकप्रिय हिन्दी कवि: सुमित्रानंदन पंत (1960),

आधुनिक कवि (1961),

नेहरू: राजनीतिक जीवनचित्र (1961),

नये पुराने झरोखे (1962),

अभिनव सोपान (1964)

चौसठ रूसी कविताएँ (1964)

नागर गीत (1966),

बचपन के लोकप्रिय गीत (1967)

डब्लू बी यीट्स एंड औकल्टिज़्म (1968)

मरकट द्वीप का स्वर (1968)

हैमलेट (1969)

भाषा अपनी भाव पराये (1970)

पंत के सौ पत्र (1970)

प्रवास की डायरी (1971)

किंग लियर (1972)

टूटी छूटी कड़ियाँ (1973)

मेरी कविताई की आधी सदी (1981)

सोहं हंस (1981)

आठवें दशक की प्रतिनिधी श्रेष्ठ कवितायें (1982)

मेरी श्रेष्ठ कविताएँ (1984)

आ रही रवि की सवारी

बच्चन रचनावली के नौ खण्ड (1983)

पुरस्कार एवं सम्मान : हरिवंश राय बच्चन Harivansh Rai Bachchan

इनकी कृति ‘दो चट्टाने’ को 1968 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मनित किया गया था।

इन्हे 1968 में ही सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार तथा एफ्रो एशियाई सम्मेलन के कमल पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।

बिड़ला फाउण्डेशन ने उनकी आत्मकथा के लिये उन्हें सरस्वती सम्मान दिया था।

बच्चन को भारत सरकार द्वारा 1976 में साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था।

हरिवंश राय बच्चन संबंधी विशेष तथ्य

यह मूलतः आत्मानुभूति के कवि माने जाते हैं|

इनको ‘क्षयी रोमांस का कवि’ भी कहा जाता है|

इनको 1966 ई. में राज्यसभा सदस्य मनोनीत किया गया था|

सन 1932 ई. में इन्होंने अपना प्रारंभिक साहित्यिक जीवन ‘पायोनियर’ के संवाददाता के रूप में प्रारंभ किया था।

हरिवंश राय बच्चन Harivansh Rai Bachchan की भाषा शैली व काव्य शैली

“बच्चन जी की लोकप्रियता और सफलता का बहुत कुछ श्रेय उनकी सहज सीधी भाषा और शैली को है जो अनेक जटिल संवेदनाओं को भी बिलकुल सीधे और साफ रूप से अत्यन्त ही प्रभावशाली ढंग से व्यक्त करने में समर्थ हैं।”

मूर्धन्य आलोचक आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी और राष्ट्रकवि दिनकर आदि हिन्दी साहित्य के निर्विवाद विद्वानों ने बच्चन की भाषा के विषय में ऐसे ही विचार व्यक्त किये हैं।

छायावादी कवि ने लाक्षणिक वक्ता से भाषा को दुरूह बना दिया था, बच्चन जी ने ही उसे इस वक्र भंगिमा से बचाया।

छायावादी गीतों की अपेक्षा बच्चन की भाषा अधिक संयोगावस्था में है और छायावादोत्तर गीतों की भाषा वियोगावस्था और जनसाधारण के अत्यन्त निकट है।

भाव की दृष्टि से भी हिन्दी साहित्य को बच्चन की देन अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त शैली की सरलता और माधुर्य की दृष्टि से भी हिन्दी कविता को बच्चन ने सबल बनाया है।

छायावादोत्तर गीतों की भाषा में शब्द-समाहार शक्ति अद्भुत है।

भाषा शैली व काव्य शैली

छायावादोत्तर काव्य में पर्यायों का प्रयोग बहुत कम हुआ है।

सच तो यह है कि “बच्चन ” ने ही “भाषा” का अपना स्कूल चलाया, कवि के अनुसार – “शब्दों के सबसे बड़े पारखी कान हैं आँख तो शब्दों के चिन्ह भर देखती है, पर शब्द और चिन्हों में उतना ही अंतर है, जितना की लिपि (नोटेशन) और संगीत में” वैसे कवि की भाषा में ओज, प्रसाद, माधुर्य तीनों प्रकार के गुणों के शब्द शामिल हैं परन्तु प्राधानता प्रसाद गुण की रही है उन्होंने भावाभिव्यक्ति के आधार पर नूतन शब्द-समाहार शक्ति का आदर्श पथ निर्मित किया है।

प्रतीकों की भाँति बच्चन जी ने अपने काव्य में बिम्बों का भी सफल प्रयोग किया है।

जिनका संवेदन तत्व पाठक के मन पर तत्काल प्रभाव छोड़ता है।

कवि बच्चन निराशा, अपराजेय, जिजीविषा के बीच, नियति के विरूद्ध, समाज के विरुद्ध अग्निपथ के ओजस्वी कवि के रूप में प्रतिपल आगे ही बढ़ने की शपथ खा, शाश्वत मानव के सफल- विफल महासंघर्ष को सांस्कृतिक, सामाजिक राजनीतिक एवं आर्थिक आवरण से मुक्त कर, उसके मूल रूप को बिम्बात्मक रूप में सफलतापूर्वक व्यक्त करते हैं।

काव्य गीतों में प्रतीकों के प्रयोग के बारे में कवि बच्चन की धारणा है -“कि जब कवि की तीव्रतम भावनाएं अभिव्यक्त होने के लिए व्यग होती हैं। तब एक अर्थी अथवा दो अर्थी भी शब्द उसका साथ देने को तैयार नहीं होते, उसे प्रतीकों का सहारा लेना ही पड़ता है।”

प्रमुख पंक्तिया

“जो बसे हैं, वे उजड़ते हैं, प्रकृति के जड़ नियम से, पर किसी उजड़े हुए को फिर से बसाना कब मना है?”
“है चिता की राख कर में, माँगती सिन्दूर दुनियाँ”- व्यक्तिगत दुनिया का इतना सफल, सहज साधारणीकरण दुर्लभ है।”

“मृदु भावों के अंगूरों की
आज बना लाया हाला,
प्रियतम, अपने ही हाथों से
आज पिलाऊँगा प्याला,
पहले भोग लगा लूँ तेरा,
फिर प्रसाद जग पाएगा,
सबसे पहले तेरा स्वागत
करती मेरी मधुशाला।।”

“मौन रात इस भांति कि जैसे, कोई गत वीणा पर बज कर,
अभी-अभी सोई खोई-सी, सपनों में तारों पर सिर धर
और दिशाओं से प्रतिध्वनियाँ, जाग्रत सुधियों-सी आती हैं,”

“हो जाय न पथ में रात कहीं,
मंज़िल भी तो है दूर नहीं –
यह सोच थका दिन का पंथी भी जल्दी-जल्दी चलता है!
दिन जल्दी-जल्दी ढलता है!”

“इन जंजीरों की चर्चा में कितनों ने निज हाथ बँधाए,
कितनों ने इनको छूने के कारण कारागार बसाए,”

आदिकाल के प्रमुख साहित्यकार

भक्तिकाल के प्रमुख साहित्यकार

आधुनिक-काल के साहित्यकार

नागार्जुन

नागार्जुन का जीवन परिचय

नागार्जुन का जीवन परिचय, नागार्जुन का साहित्यिक परिचय, नागार्जुन की रचनाएं, नागार्जुन की काव्य संवेदना और काव्य प्रवृत्तियां

मूल (वास्तविक) नाम- वैद्यनाथ मिश्र

अन्य नाम – नागार्जुन, यात्री

नोट:- 1936 ईस्वी में श्रीलंका में बौद्ध धर्म की दीक्षा लेने एवं बौद्ध भिक्षु बन जाने पर इनका नाम नागार्जुन पड़ा| ये श्रीलंका में बौद्ध धर्म के ‘विद्यालंकार परिवेण’ में तीन वर्ष तक रहे थे|

जन्म- 30 जून, 1911

जन्म भूमि- मधुबनी ज़िला, बिहार

मृत्यु -5 नवंबर, 1998

मृत्यु स्थान- दरभंगा ज़िला, बिहार

पिता- गोकुल मिश्र

पत्नी – अपराजिता देवी

कर्म-क्षेत्र -कवि, लेखक, उपन्यासकार

युग- प्रगतिवादी युग

नागार्जुन का साहित्यिक परिचय

नागार्जुन की रचनाएं

युगधारा 1953

सतरंगे पंखों वाली 1959

प्यासी पथराई आंखे 1962

तालाब की मछलियां

तुमने कहा था 1980

खिचड़ी विप्लव देखा हमने 1980

हजार-हजार बाहों वाली 1981

भस्मांकुर (खंडकाव्य)

एसे भी हम क्या-ऐसी भी तुम क्या

पुरानी जूतियों का कोरस 1983

रत्नगर्भ

काली माई

रवींद्र के प्रति

बादल को घिरते देखा है (कविता)

प्रेत का बयान

आओ रानी हम ढोएं पालकी

वे और तुम

आकाल और उसके बाद

सिंदूर तिलांकित भाल (कविता)

आखिर ऐसा क्या कह दिया मैंने

मैं मिलिट्री का बूढ़ा घोड़ा

तुम्हारी दंतुरित मुस्कान (कविता)

इस गुब्बारे की छाया में-1989

ओम मंत्र

भुल जाओ पुराने सपनें

उपन्यास

‘रतिनाथ की चाची’ (1948 ई.)

‘बलचनमा’ (1952 ई.)

‘नयी पौध’ (1953 ई.)

‘बाबा बटेसरनाथ’ (1954 ई.)

‘दुखमोचन’ (1957 ई.)

‘वरुण के बेटे’ (1957 ई.)

उग्रतारा

कुंभीपाक

पारो

आसमान में चाँद तारे

मैथिली रचनाएं

हीरक जयंती (उपन्यास)

पत्रहीन नग्न गाछ (कविता-संग्रह)

बाल साहित्य

कथा मंजरी भाग-1

कथा मंजरी भाग-2

मर्यादा पुरुषोत्तम

विद्यापति की कहानियाँ

व्यंग्य

अभिनंदन

निबंध संग्रह

अन्न हीनम क्रियानाम

बांग्ला रचनाएँ

मैं मिलिट्री का पुराना घोड़ा (हिन्दी अनुवाद)

सम्मान और पुरस्कार

नागार्जुन को साहित्य अकादमी पुरस्कार से, उनकी ऐतिहासिक मैथिली रचना ‘पत्रहीन नग्न गाछ’ के लिए 1969 में सम्मानित गया था।

उन्हें साहित्य अकादमी ने 1994 में साहित्य अकादमी फेलो के रूप में भी नामांकित कर सम्मानित किया था।

विशेष तथ्य : नागार्जुन का जीवन परिचय

नागार्जुन मैथिली भाषा में ‘यात्री’ के नाम से कविता लिखते थे|

किसी अंधविश्वास के कारण बचपन में इनका नाम ‘ढ़क्कन’ रखा गया था|

लोग इन्हें प्यार से ‘बाबा’ भी कहते थे|

उन्होंने इंदिरा गांधी की राजनीति को केंद्र बनाकर एवम् उन पर अनेक आरोप लगाकर कविताएं लिखी थी|

यह व्यंग्य में माहिर है इसलिए इन्हें ‘आधुनिक कबीर’ भी कहा जाता है|

इन्होंने प्रगतिवादी काव्यधारा को जन-जन के अभाव व आकांक्षाओं से जोड़कर उसे जन जागरण की कविता बना दिया था|

इनके द्वारा ‘दीपक’ नामक पत्रिका का संपादन कार्य किया गया था

यह जन्म से कवि, प्रकृति से घुमक्कड़ एवं विचारों से मूलतः मार्कसवादी माने जाते हैं|

नागार्जुन ने अपनी भाषा में ‘ठेठ ग्रामीण शैली के मुहावरो’ का प्रयोग किया है|

इनकी मृत्यु के बाद ‘सोमदेव’ तथा ‘शोभाकांत’ के संपादन में इनकी एक लंबी कविता ‘भूमिजा’ प्रकाशित हुई थी|

इनका संपूर्ण कृतित्व ‘नागार्जुन रचनावली’ के ‘सात’ खंडों में प्रकाशित है|

कवि आलोक धन्‍वा ने नागार्जुन की रचनाओं को संदर्भित करते हुए कहा कि उनकी कविताओं में आज़ादी की लड़ाई की अंतर्वस्‍तु शामिल है।

नागार्जुन ने कविताओं के जरिए कई लड़ाईयाँ लडीं।

वे एक कवि के रूप में ही महत्‍वपूर्ण नहीं है अपितु नए भारत के निर्माता के रूप में दिखाई देते हैं।

“नागार्जुन जैसा प्रयोगधर्मा कवि कम ही देखने को मिलता है, चाहे वे प्रयोग लय के हों, छंद के हों, विषयवस्तु के हों।”- नामवर सिंह

प्रसिद्ध पंक्तियां : नागार्जुन का जीवन परिचय

“खिचड़ी विप्लव देखा हमने
भोगा हमने क्रांति विलास
अब भी खत्म नहीं होगा क्या
पूर्णक्रांति का भ्रांति विलास।”

” काम नहीं है, दाम नहीं है
तरुणों को उठाने दो बंदूक
फिर करवा लेना आत्मसमर्पण”

“पांच पूत भारतमाता के, दुश्मन था खूंखार
गोली खाकर एक मर गया, बाकी बच गए चार
चार पूत भारतमाता के, चारों चतुर-प्रवीन
देश निकाला मिला एक को, बाकी बच गए तीन
तीन पूत भारतमाता के, लड़ने लग गए वो
अलग हो गया उधर एक, अब बाकी बच गए दो
दो बेटे भारतमाता के, छोड़ पुरानी टेक
चिपक गया एक गद्दी से, बाकी बच गया एक
एक पूत भारतमाता का, कंधे पर था झंडा
पुलिस पकड़ कर जेल ले गई, बाकी बच गया अंडा !”

“कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास
कई दिनों तक काली कुत्तिया, सोई उसके पास ||”

” बदला सत्य, अहिंसा बदली, लाठी-गोली डंडे है कानूनों की सड़ी लाश पर प्रजातंत्र के झंडे हैं|”

आदिकाल के प्रमुख साहित्यकार

भक्तिकाल के प्रमुख साहित्यकार

आधुनिक-काल के साहित्यकार

मोहन राकेश जीवन परिचय

मोहन राकेश जीवन परिचय

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जन्म -8 जनवरी 1925

निधन -3 जनवरी 1972

जन्म स्थान- अमृतसर, पंजाब, भारत

कर्म-क्षेत्र- नाटककार व उपन्यासकार (प्रयोगवादी या आधुनिकबोधवादी उपन्यासकार)

मोहन राकेश साहित्य परिचय अथवा रचनाएं

मोहन राकेश जीवन परिचय
मोहन राकेश जीवन परिचय

कहानियां

मिस पाल

सीमाएँ

आर्द्रा

फ़ौलाद का आकाश(संग्रह)

सुहागिनें

मलबे का मालिक (1947 भारत विभाजन पर, इसमें मलबा उन्माद व वहशीपन का प्रतीक)

उसकी रोटी

एक और ज़िंदगी ( इनकी सर्वप्रसिद्ध एवं प्रतिनिधि कहानी मानी जाती है यह कहानी आज के मानसिक /ट्रैजिक तनाव को अभिव्यक्त करती है)(संग्रह)

परमात्मा का कुत्ता

जानवर और जानवर (संग्रह)

मवाली

मंदी

ज़ख़्म

अपरिचित

जीनियस

इंसान के खंडहर (संग्रह)

नये बादल (संग्रह)

आज के साये (संग्रह)

डॉक्टर (संग्रह)

ठहरा हुआ चाकू

वासना की छाया में

नाटक

आषाढ़ का दिन-1958 ( संस्कृत के महाकवि कालिदास के जीवन का अंतः संघर्ष चित्रित किया गया है इस नाटक को 1959 में संगीत नाटक अकादमी का प्रथम पुरस्कार भी मिला था)

लहरों के राजहंस-1963 ( इसमें नंद का अंतर्द्वंद चित्रित किया गया है इसमें नायक नंद आधुनिक भाव बोध का प्रतिनिधित्व करता है)

आधे-अधूरे-1969 ( इसमें मध्यवर्गीय परिवार की समस्याओं का चित्रण किया गया है)

पैरों तले की जमीन (अधूरा नाटक) (ये इनका अधूरा नाटक है जिसे कमलेश्वर द्वारा पूरा किया गया था)

अंडे के छिलके (एंकाकी)

सिपाही की माँ

जीवनी

आखिरी चट्टान तक- 1953

निबन्ध

हिंदी कथा-साहित्य : नवीन प्रवृत्तियाँ-1

हिंदी कथा-साहित्य : नवीन प्रवृत्तियाँ-2

आज की कहानी के प्रेरणास्रोत

कहानी क्यों लिखता हूँ

समकालीन हिंदी कहानी : एक परिचर्चा

डॉ. कार्लो कपोल और मोहन राकेश

नाटककार और रंगमंच

रंगमंच और शब्द

हिंदी रंगमंच

उपन्यास

अँधेरे बन्द कमरे ,1961 (चार भाग)

न आनेवाला कल (1. डर 2. सहयोगी 3. दरवाजे)

अन्तराल ,1972

नीली रोशनी की बाहें

कांपता दरिया

संपादन

सारिका

नई कहानी

विशेष तथ्य

मोहन राकेश नई कहानी आंदोलन के प्रमुख नायकों में रहे।

उनकी अनेक कहानियों पर फिल्में भी बनीं।

कहानी के अतिरिक्त उन्हें नाटक के क्षेत्र में अपरिमित सफलता मिली।

हिंदी प्रदेश का शायद ही कोई ऐसा इलाका हो जहाँ उनके नाटकों का मंचन न हुआ हो।

खासकर ‘आषाढ़ का एक दिन’ और ‘आधे अधूरे’ को तो क्लासिक का दर्जा हासिल है।

आदिकाल के प्रमुख साहित्यकार

भक्तिकाल के प्रमुख साहित्यकार

आधुनिक-काल के साहित्यकार

हिमांशु जोशी जीवन परिचय

हिमांशु जोशी जीवन परिचय

हिमांशु जोशी जीवन परिचय, हिमांशु जोशी का साहित्य, हिमांशु जोशी की रचनाएं, कहानी संग्रह, कविता संग्रह, यात्रा वृत्तांत आदि की जानकारी ……

जन्म:-4 मई, 1935
उत्तराँचल, भारत
मृत्यु:-22 नवम्बर 2018 हिंदी के प्रख्यात साहित्यकार हिमांशु जोशी का लंबी बीमारी के बाद 83 वर्ष की उम्र में निधन हो गया. गुरुवार रात उन्होंने आखिरी सांस ली. उनके निधन से साहित्य जगत में शोक है. उनका जन्म उत्तराखंड के खेतीखान में हुआ था.
काल:-आधुनिक काल

हिमांशु जोशी का साहित्य

हिमांशु जोशी की रचनाएं

उपन्यास

अरण्य,

महासागर

छाया मत छूना मन,

कगार की आग,

समय साक्षी है,

तुम्हारे लिए ,

सु-राज

कहानी संग्रह

अंततः तथा अन्य कहानियां

मनुष्य-चिह्न तथा अन्य कहानियां

जलते हुए डैने तथा अन्य कहानियां

रथ-चक्र

हिमांशु जोशी की चुनी हुई कहानियां

तपस्या तथा अन्य कहानियां

गन्धर्व-गाथा

चर्चित कहानियां

आंचलिक कहानियां

श्रेष्ठ प्रेम कहानियां

इस बार फिर बर्फ गिरी तो

नंगे पांवों के निशान

दस कहानियां

प्रतिनिधि लोकप्रिय कहानियां

इकहत्तर कहानियां

सागर तट के शहर

स्मृतियाँ

परिणति तथा अन्य कहानियां

कविता संग्रह

अग्नि-सम्भव

नील नदी का वृक्ष

एक आँख की कविता

जीवनी तथा खोज-अमर शहीद अशफाक उल्ला खां,

यात्रा वृतांत

यातना-शिविर में (अंडमान की अनकही कहानी), रेडियो-नाटक-सु-राज तथा अन्य एकांकी, कागज की आग तथा अन्य एकांकी, समय की शिला पर, बाल साहित्य-अग्नि संतान आदि।

वैचारिक संस्मरण

उत्तर-पर्व

आठवां सर्ग

विशेष तथ्य

हिमांशु जोशी ने वर्ष 1956 से पत्रकारिता में कदम रखा.वे ‘कादम्बिनी’,‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान’.दूरदर्शन व आकाशवाणी से भी जुड़े रहे थे.

कोलकत्ता से प्रकाशित साहित्यिक मासिक पत्रिका ‘वागार्थ’ के संपादक भी रहे थे.

उन्होंने हिंदी फिल्मों के लिए भी लेखन कार्य किया था.

सम्मान एवं पुरस्कार

‘छाया मत छूना मन’, ‘अरण्य’, ‘मनुष्य चिह्न’ ‘श्रेष्ठ आंचलिक कहानियां’ तथा ‘गन्धर्व कथा’ को ‘उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान’ से पुरस्कार.

‘हिमांशु जोशी की कहानियां’ तथा ‘भारत रत्न : पं. गोविन्द बल्लभ पन्त’ को ‘हिंदी अकादमी’ दिल्ली का सम्मान.

‘तीन तारे’ राजभाषा विभाग बिहार सरकार द्वारा पुरस्कृत.

पत्रकारिता के लिए ‘केंद्रीय हिंदी संसथान’ (मानव संसाधन मंत्रालय) द्वारा ‘स्व. गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार’ से सम्मानित.

आदिकाल के प्रमुख साहित्यकार

भक्तिकाल के प्रमुख साहित्यकार

आधुनिक-काल के साहित्यकार

लेखिका सुनीता जैन – व्यक्तित्व

लेखिका सुनीता जैन – व्यक्तित्व

लेखिका सुनीता जैन – व्यक्तित्व, सुनीता जैन का साहित्य, सुनीता जैन की रचनाएं, सुनीता जैन की कविताएं, सुनीता जैन के उपन्यास

जन्म -13 जुलाई, 1941

जन्म भूमि- अम्बाला, पंजाब

विधाएँ :- उपन्यास, कहानी, कविता, बाल साहित्य, आत्मकथा, अनुवाद

भाषा -हिन्दी और अंग्रेज़ी

विद्यालय -स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ़ न्यूयार्क, यूनिवर्सिटी ऑफ़ नेब्रास्का

शिक्षा -एम. ए. (अंग्रेज़ी साहित्य), पीएच. डी.

लेखिका सुनीता जैन
लेखिका सुनीता जैन

सुनीता जैन का साहित्य अथवा रचनाएं

उपन्यास

बोज्यू,

सफर के साथी,

बिंदू,

मरणातीत,

अनुगूँज,

तितिक्षा-2000 ( पूर्व प्रकाशित पांचो उपन्यासों का संग्रह)

कहानी संग्रह

हम मोहरे दिन रात के,

इतने बरसों बाद,

पालना-2000

पाँच दिन-2003

कविता संग्रह

हो जाने दो मुक्त, 1978(प्रथम)

कौन सा आकाश,

एक और दिन,

रंग-रति,

कितना जल,

सूत्रधार सोते हैं,

सच कहती हूँ,

कहाँ मिलोगी कविता,

पौ फटे का पहला पक्षी,

युग क्या होते और नहीं,

सुनो मधु किश्वर,

धूप हठीले मन की,

इस अकेले तार पर,

मूकमं करोति वाचालं,

जाने लड़की पगली,

सीधी कलम सधे न,

जी करता है,

लेकिन अब,

बोलो तुम ही,

इतना भर समय,

हथकड़ी में चाँद,

गंगातट देखा,

सुनो कहानी,

माधवी : (खंड : 8),

तरूतरू की डाल पे,

तीसरी चिट्ठी,

जो मैं जानती,

दूसरे दिन,

चौखट पर व उठो माधवी,

प्रेम में स्त्री, 2006

बारिश में दिल्ली,

इस बार,

खाली घर में,

लाल रिब्बन का फुलवा,

किस्सा तोता मैना,

फैंटसी, 2007

क्षमा, 2008

गांधर्व पर्व,

कुरबक,

लूओं के बेहाल दिनों में,

ओक भर जल,

हेरवा,

रसोई की खिड़की में,

सूरज छुपने से पहले,

हुई साँझ की बेर,

अगर कभी लौटी तो,

राग और आग,

टेशन सारे

आत्मकथा

शब्दकाया

सम्मान

व्यास सम्मान-2015 (क्षमा काव्य संग्रह के लिए)

निराला नामित,

साहित्य भूषण,

साहित्यकार सम्मान,

महादेवी वर्मा,

हरियाणा गौरव,

पद्मश्री,

विश्व हिंदी सम्मान (8वें विश्व हिंदी सम्मेलन, न्यूयॉर्क में)

विशेष तथ्य

सुनीता जैन 8वें ‘विश्व हिन्दी सम्मेलन’, न्यूयॉर्क, 2007 में ‘विश्व हिन्दी सम्मान’ से सम्मानित हिन्दी की पहली कवयित्री हैं।

अमेरिका में अपने अंग्रेज़ी उपन्यास व कहानियों के लिए कई पुरस्कारों से भी उन्हें पुरस्कृत किया जा चुका है।

अमेरिका में प्रवासी हिन्दी लेखक।

आदिकाल के प्रमुख साहित्यकार

भक्तिकाल के प्रमुख साहित्यकार

आधुनिक-काल के साहित्यकार

डॉ. नगेन्द्र की जीवनी

डॉ. नगेन्द्र की जीवनी

डॉ. नगेन्द्र की जीवनी, साहित्य, डॉ. नगेन्द्र की भाषा शैली, डॉ. नगेन्द्र की आलोचना दृष्टि, डॉ. नगेन्द्र ग्रंथावली, डॉ. नगेन्द्र का काल विभाजन

जन्म- 9 मार्च, 1915

जन्म भूमि- अलीगढ़, उत्तर प्रदेश

मृत्यु- 27 अक्टूबर, 1999

मृत्यु स्थान- नई दिल्ली

कर्म-क्षेत्र -लेखक, कवि, निबन्धकार, आलोचक, प्राध्यापक

पुरस्कार- साहित्य अकादमी पुरस्कार (‘रस-सिद्धांत’ के लिए 1965 में)

इन्होंने 1948 ईस्वी में रीतिकाव्य की भूमिका और महाकवि देव विषय पर शोध उपाधि प्राप्त की थी|

डॉ. नगेन्द्र की जीवनी
डॉ. नगेन्द्र की जीवनी

डॉ. नगेन्द्र का साहित्य

निबंध/आलोचना

1938 सुमित्रानंदन पंत (पहली आलोचनात्मक पुस्तक)

1939 साकेत: एक अध्ययन

1944 विचार और विवेचन(निबंध)

1949 आधुनिक हिंदी नाटक

1949-विचार और अनुभूति(निबंध)

1949 रीति काव्य की भूमिका

हिंदी साहित्य का इतिहास

1951 आधुनिक हिन्दी कविता की मुख्य प्रवृत्तियाँ

1955 विचार और विश्लेषण (निबंध)

1957 अरस्तू का काव्यशास्त्र

1961 अनुसंधान और आलोचना

1962 कामायनी के अध्ययन की समस्याएं

1964 रस-सिद्धांत

1966 आलोचक की आस्था (निबंध)

1969 आस्था के चरण (निबंध संग्रह)

1970 नयी समीक्षाः नये संदर्भ

1971 समस्या और समाधान

1973 हिन्दी साहित्य का बृहत इतिहास (दस भाग)

1979 मिथक और साहित्य

1982 साहित्य का समाज शास्त्र

1985 भारतीय समीक्षा और आचार्य शुक्ल की काव्य दृष्टि

1987 मैथलीशरण गुप्त : पुनर्मूल्यांकन

1990 प्रसाद और कामायिनी

1993 राम की शक्तिपूजा

अभिनव भारती

नाट्य दर्पण

काव्य में उदात्त तत्व

काव्य कला

भारतीय काव्यशास्त्र की परंपरा

पाश्चात्य काव्यशास्त्र की परंपरा

चेतना के बिंब (निबंध)

वीणापाणि के कम्पाउण्ड में (निबंध)

हिंदी उपन्यास (निबंध)

अर्द्धकथा-1988 (आत्मकथा)

डॉ. नगेन्द्र का काल विभाजन

इनके द्वारा भी सम्पूर्ण हिंदी साहित्योतिहास को चार प्रधान कालखंडों में बांटा गया है आधुनिक काल को भी चार उप भागों में बांटा गया है:-
1. आदिकाल- सातवीं शताब्दी के मध्य से 14वीं शताब्दी के मध्य तक
2.भक्तिकाल- 14 वी शताब्दी के मध्य से 17वीं शताब्दी के मध्य तक
3. रीतिकाल- 17वीं शताब्दी के मध्य से 19वीं शताब्दी के मध्य तक
4. आधुनिक काल- 19 वीं शताब्दी के मध्य से अब तक
(|)पुनर्जागरण काल (भारतेंदु काल) -1857 ई. से 1900 ई. तक
(2) जागरणसुधारकाल (द्विवेदी काल)- 1900-1918 ई. तक
(3) छायावादकाल-1918-1938 ई. तक
(4) छायावादोत्तर काल:-
(क) प्रगति-प्रयोग काल- 1938-1953 ई. तक
(ख) नवलेखनकाल- 1953 ई. से अब तक

विशेष तथ्य

ये रसवादी आलोचक माने जाते हैं|

इनका साहित्यिक जीवन कवि के रूप में आरंभ होता है। सन 1937 ई. में उनका पहला काव्य संग्रह ‘वनबाला’ प्रकाशित हुआ

इन्होंने फ्रायड के मनोविश्लेषण शास्त्र के आधार पर नाटक और नाटककारों की आलोचनाएँ लिखीं।

डॉ. नगेन्द्र के निबन्धों की भाषा शुद्ध, परिष्कृत, परिमार्जित, व्याकरण सम्मत तथा साहित्यिक खड़ी बोली है।

नगेन्द्र जी ‘दिल्ली विश्वविद्यालय’ से प्रोफ़ेसर तथा हिन्दी विभागाध्यक्ष के पद पर से सेवानिवृत्त होने के उपरान्त स्वतन्त्र रूप से साहित्य की साधना में संलग्न हो गये थे।

ये ‘आगरा विश्वविद्यालय’, आगरा से “रीतिकाल के संदर्भ में देव का अध्ययन” शीर्षक शोध प्रबन्ध पर शोध उपाधि से अलंकृत हुए थे।

डॉ. नगेन्द्र का यह मानना था कि “अध्यापक वृत्तितः व्याख्याता और विवेकशील होता है। ऊँची श्रेणी के विद्यार्थियों और अनुसन्धाताओं को काव्य का मर्म समझाना उसका व्यावसायिक कर्तव्य व कर्म है।” उन्होंने यह भी लिखा है कि “अध्यापन का, विशेषकर उच्च स्तर के अध्यापन का, साहित्य के अन्य अंगों के सृजन से सहज सम्बन्ध न हो, परन्तु आलोचना से उसका प्रत्यक्ष सम्बन्ध है।”

शैली

‘निबन्ध साहित्य’ में निम्नलिखित शैलियों का व्यवहार सम्यक रूपेण लक्षित होता है-

विवेचनात्मक शैली

नगेन्द्र जी मूलतः आलोचनात्मक एवं विचारात्मक निबन्धकार के रूप में समादृत रहे थे। इस शैली में लेखक तर्कों द्वारा युक्तियों को सुलझाता हुआ चलता है। वह अत्यन्त गम्भीर एवं बौद्धिक विषय को अपनी कुशल विवेचना पद्धति के द्वारा सरल रूप में स्पष्ट कर देता है तथा विवादास्पद विषयों को अत्यन्त बोधगम्य रीति से समझाने की चेष्टा करता है। उनका ‘आस्था के चरण’ शीर्षक निबन्ध संकलन इस शैली का अच्छा उदाहरण है।

प्रसादात्मक शैली

इस शैली का प्रयोग डॉ. नगेन्द्र के निबन्ध साहित्य में सर्वत्र देखा जा सकता है। इस शैली के द्वारा लेखक ने विषय को सरल तथा बोधगम्य रीति से प्रस्तुत करने का कार्य किया है। यह भी एक तथ्य है कि कि डॉ. नगेन्द्र का मन सम्पूर्णतः प्राध्यापन व्यवसाय में ही रमण करता रहा। इसीलिए लिखते समय वह इस बात का ध्यान रखते थे कि जो बात वह कह रहे हैं, उसमें कहीं किसी प्रकार की अस्पष्टता न रह जाए।

गोष्ठी शैली

‘हिन्दी उपन्यास’ नामक निबन्ध में नगेन्द्र जी ने “गोष्ठी शैली” का व्यवहार किया है। सही अर्थों में वे अपनी प्रतिभा के बल पर ही निबन्ध साहित्य में ‘गोष्ठी शैली’ की सृष्टि करने में सफल रहे थे।

सम्वादात्मक शैली

‘हिन्दी साहित्य में हास्य की कमी’ शीर्षक रचना में इस शैली का प्रयोग देखा जा सकता है। इस शैली में जागरुक अध्येताओं को स्पष्टता एवं विवेचना दोनों ही बातें लक्षित हो जाएंगी।

पत्रात्मक शैली

‘केशव का आचार्यत्व’ नामक रचना में डॉ. नगेन्द्र ने पत्रात्मक शैली का प्रयोग किया गया है। उल्लेखनीय बात तो यह है कि डॉ. विजयेन्द्र स्नातक कृत ‘अनुभूति के क्षण’ नामक रचना भी सम्पूर्णतः पत्रात्मक शैली की ही निबन्ध रचना है।

प्रश्नोत्तर शैली

डॉ. नगेन्द्र के लेखन में ‘प्रश्नोत्तर शैली’ का सौन्दर्य भी लक्षित हो जाता है। इस शैली में निबन्धकार स्वयं ही प्रश्न करता है तथा उसका उत्तर भी स्वयं ही देता है। डॉ. नगेन्द्र कृत ‘साहित्य की समीक्षा’ शीर्षक निबन्ध को इस शैली का अन्यतम उदाहरण माना जा सकता है।

संस्मरणात्मक शैली

‘अप्रवासी की यात्राएँ’ नामक कृति ‘यात्रावृत्त’ की विधा की एक प्रमुख कृति है। यह रचना डॉ. नगेन्द्र की संस्मरणात्मक शैली के सौन्दर्य का उदाहरण प्रस्तुत करती है। ‘दद्दा- एक महान व्यक्तित्व’ शीर्षक संस्मरणात्मक निबन्ध में इस शैली का व्यवहार लक्षित होता है।

आत्मसाक्षात्कार की शैली

‘आलोचक का आत्म विश्लेषण’ नामक रचना में डॉ. नगेन्द्र का लेख इस शैली का प्रयोग करता हुआ लक्षित होता है। वस्तुतः निबन्ध की विधा में वे ऐसे शैलीकार के रूप में सामने आते हैं, जो रचना में आद्योपान्त अपनी रचना प्रक्रिया पर प्रकाश डालते हुए चलता है।

आदिकाल के प्रमुख साहित्यकार

भक्तिकाल के प्रमुख साहित्यकार

आधुनिक-काल के साहित्यकार

सुमित्रानंदन पंत

सुमित्रानंदन पंत का जीवन परिचय

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Sumitranandan Pant
Sumitranandan Pant

मूल नाम – गुसाईं दत्त

जन्म- 20 मई 1900

जन्म भूमि- कौसानी, उत्तराखण्ड, भारत

मृत्यु -28 दिसंबर, 1977

मृत्यु स्थान -इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत

कर्म भूमि- इलाहाबाद

कर्म-क्षेत्र – अध्यापक, लेखक, कवि

विषय- गीत, कविताएँ

भाषा -हिन्दी

विद्यालय -जयनारायण हाईस्कूल, म्योर सेंट्रल कॉलेज

काल- आधनिक काल (छायवादी युग)

आंदोलन- रहस्यवाद व प्रगतिवाद

सुमित्रानंदन पंत का साहित्यिक परिचय

कविता संग्रह / खंडकाव्य:- पंत जी द्वारा रचित काव्य को मुख्यतः निम्न चार श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है:-

1. छायावादी रचनाएं(1918-1943)

उच्छ्वास (1920)

ग्रन्थि (1920)

पल्लव (1926)

वीणा (1927, 1918-1919 की कविताएँ संकलित)

गुंजन (1932)

2. प्रगतिवादी रचनाएं(1935-1945)

युगांत (1936)
युगवाणी (1938)
ग्राम्‍या (1940)

3. अरविंद दर्शन से प्रभावित रचनाएं (1946-1948)[अंतश्चेतनावादी युग]

स्वर्णकिरण (1947)
स्वर्णधूलि (1947)
उत्तरा (1949)
युगपथ (1949)

4.मानवतावादी (अाध्यात्मिक) रचनाएं (1949 ई. के बाद) [नव मानवता वादी युग]

अतिमा (1955)

वाणी (1957)

चिदंबरा (1958)

पतझड़ (1959)

कला और बूढ़ा चाँद (1959)

लोकायतन (1964, महाकाव्य)(दो खंड एवं सात अध्यायों मे विभक्त)

गीतहंस (1969)

सत्यकाम (1975, महाकाव्य)

पल्लविनी

स्वच्छंद (2000)

मुक्ति यज्ञ

युगांतर

तारापथ

मानसी

सौवर्ण

अवगुंठित

मेघनाद वध

चुनी हुई रचनाओं के संग्रह

युगपथ (1949)

चिदंबरा (1958)

पल्लविनी

स्वच्छंद (2000)

काव्य-नाटक/काव्य-रूपक

ज्योत्ना (1934)

रजत-शिखर (1951)

शिल्पी (1952)

आत्मकथात्मक संस्मरण

साठ वर्ष : एक रेखांकन (1963)

आलोचना

गद्यपथ (1953)

शिल्प और दर्शन (1961)

छायावाद : एक पुनर्मूल्यांकन (1965)

कहानियाँ

पाँच कहानिय़ाँ (1938)

उपन्यास

हार (1960)

अनूदित रचनाओं के संग्रह

मधुज्वाल (उमर ख़ैयाम की रुबाइयों का फारसी से हिन्दी में अनुवाद)

संयुक्त संग्रह

खादी के फूल / सुमित्रानंदन पंत और बच्चन का संयुक्त काव्य-संग्रह

पत्र-संग्रह

पंत के सौ पत्र (1970, सं. बच्चन)

पत्रकारिता

1938 में उन्होंने ‘रूपाभ’ नामक प्रगतिशील मासिक पत्र निकाला।

पुरस्कार व सम्मान

1960 ‘कला और बूढ़ा चांद’ पर ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’

1961 ‘पद्मभूषण’ हिंदी साहित्य की इस अनवरत सेवा के लिए

1968 ‘चिदम्बरा’ नामक रचना पर ‘भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार’

‘लोकायतन’ पर ‘सोवियत लैंड नेहरु पुरस्कार’

विशेष तथ्य

पंत जी की सर्वप्रथम कविता- गिरजे का घंटा 1916

छायावाद का ‘घोषणा पत्र ‘(मेनिफेस्टो) पंत द्वारा रचित ‘पल्लव’ रचना की भूमिका को कहा जाता है|

पंत की सर्वप्रथम छायावादी रचना -उच्छ्वास 1920

युगांत रचना पंत जी के छायावादी दृष्टिकोण की अंतिम रचना मानी जाती है|

युगवाणी रचना में पंत जी ने प्रगतिवाद को ‘युग की वीणा’ बतलाया है|

पंत को छायावाद का विष्णु कहा जाता है|

आचार्य नंददुलारे वाजपेयी इनको छायावाद का प्रवर्तक मानते हैं|

रामचंद्र शुक्ल इनको छायावाद का प्रतिनिधि कवि मानते हैं|

रोला इनका सर्वप्रिय प्रिय छंद माना जाता है|

प्रकृति के कोमल पक्ष अत्यधिक वर्णन करने के कारण इन को प्रकृति का सुकुमार कवि भी कहा जाता है|

महर्षि अरविंद दवारा रचित ‘भागवत जीवन’ से यह इतने प्रभावित हुए थे कि उनकी जीवन दशा ही बदल गई|

इन्हे ‘रावणार्यनुज’ भी कहा जाता है|

यह अपनी सूक्ष्म कोमल कल्पना के लिए अधिक प्रसिद्ध है मूर्त पदार्थों के लिए अमूर्त उपमान देने की परंपरा पंत जी के द्वारा ही प्रारंभ की हुई मानी जाती है|

पंतजी भाषा के प्रति बहुत सचेत थे उनकी रचनाओं में प्रकृति की जादूगरी जिस भाषा में अभिव्यक्त हुई है उसे समय पंत ‘चित्र भाषा(बिबात्मक भाषा)’ की संज्ञा देते हैं|

प्रसिद्ध पंक्तियां

– “मुझे छोड़ अनगढ़ जग में तुम हुई अगोचर,
भाव-देह धर लौटीं माँ की ममता से भर !
वीणा ले कर में, शोभित प्रेरणा-हंस पर,
साध चेतना-तंत्रि रसौ वै सः झंकृत कर
खोल हृदय में भावी के सौन्दर्य दिगंतर !”

– “सुन्दर है विहग सुमन सुन्दर, मानव तुम सबसे सुन्दरतम।
वह चाहते हैं कि देश, जाति और वर्गों में विभाजित मनुष्य की केवल एक ही पहचान हो – मानव।”

-छोडो़ द्रुमों की मृदु छाया, तोडो प्रकृति की भी माया|
बाले तेरे बाल-जाल में, कैसे उलझा दूँ लोचन||”

आदिकाल के प्रमुख साहित्यकार

भक्तिकाल के प्रमुख साहित्यकार

आधुनिक-काल के साहित्यकार

मृदुला गर्ग

मृदुला गर्ग जीवन परिचय

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जन्म -25 अक्तूबर, 1938

जन्म भूमि- कोलकाता, पश्चिम बंगाल

शिक्षा – एम.ए. (अर्थशास्त्र)

मृदुला गर्ग की रचनाएं

उपन्यास

‘उसके हिस्से की धूप’1975 (पहला उपन्यास)

‘वंशज’

‘चितकोबरा'( मृदुला गर्ग का उपन्यास ’चित्रकोबरा’ बहुत विवादास्पद है और लोकप्रिय भी। उसमें भी नायिका के विवाहेत्तर संबंध होते है। उस उपन्यास के कारण मृदुला गर्ग पर मुकदमा भी चला था।)

‘अनित्या’

‘मैं और मैं’1984

‘कठगुलाब’1996

मिलजुल मन

मृदुला गर्ग जीवन परिचय
मृदुला गर्ग जीवन परिचय

निबंध संग्रह

‘रंग ढंग’

‘चुकते नहीं सवाल’

कविता संग्रह

‘कितनी कैदें’

‘टुकड़ा टुकड़ा आदमी’

‘डैफोडिल जल रहे हैं’

‘ग्लेशियर से’

‘शहर के नाम’

यात्रा संस्मरण

कुछ अटके कुछ भटके

व्यंग्य संग्रह

‘कर लेंगे सब हजम’

कहानियां

‘रूकावट’1972 ( सारिका पत्रिका में, इनकी पहली कहानी)

‘दुनिया का कायदा’

‘उसका विद्रोह’

‘उर्फ सेम’1986

‘शहर के नाम’ 1990

‘समागम’1996

‘मेरे देश की मिट्टी अहा’2001

‘संगति विसंगति’2004 (दो खण्ड)

‘जूते का जोड़ गोभी का तोड़’

‘कितनी कैदें’

‘टुकड़ा-टुकड़ा आदमी’

‘डेफोडिल जल रहें हैं’

नाटक

‘एक और अजनबी’1978

‘जादू का कालीन’1993

‘तीन कैदें’1996 ( इस नाट्य संग्रह में तीन नाटक संगृहीत है- कितनी कैदें, दूसरा संस्करण, दुलहिन एक पहाड़ की)

‘साम दाम दंड भेद’

सम्मान और पुरस्कार

मृदुला गर्ग को हिंदी अकादमी द्वारा 1988 में साहित्यकार सम्मान|

उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा साहित्य भूषण सम्मान|

2003 में सूरीनाम में आयोजित विश्व हिन्दी सम्मेलन में आजीवन साहित्य सेवा सम्मान|

2004 में ‘कठगुलाब’ के लिए व्यास सम्मान|

2003 में ‘कठगुलाब’ के लिए ही ज्ञानपीठ का वाग्देवी पुरस्कार

वर्ष 2013 का साहित्य अकादमी पुरस्कार हिन्दी उनकी कृति ‘मिलजुल मन’ उपन्यास के लिए प्रदान किया गया है।

‘उसके हिस्से की धूप’ उपन्यास को 1975 में तथा ‘जादू का कालीन’ को 1993 में मध्य प्रदेश सरकार द्वारा पुरस्कृत किया गया है।

विशेष तथ्य

इन्होंने इंडिया टुडे के हिन्दी संस्करण में लगभग तीन साल तक कटाक्ष नामक स्तंभ लिखा है जो अपने तीखे व्यंग्य के कारण खूब चर्चा में रहा।

ये संयुक्त राज्य अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय में 1990 में आयोजित एक सम्मेलन में हिंदी साहित्य में महिलाओं के प्रति भेदभाव विषय पर व्याख्यान भी दे चुकी हैं।

इनकी रचनाओं के अनुवाद जर्मन, चेक, जापानी और अँग्रेज़ी सहित अनेक भारतीय भाषाओं में हो चुके हैं।

आदिकाल के प्रमुख साहित्यकार

भक्तिकाल के प्रमुख साहित्यकार

आधुनिक-काल के साहित्यकार

रामधारी सिंह दिनकर

रामधारी सिंह दिनकर जीवन-परिचय

रामधारी सिंह दिनकर जीवन-परिचय, रामधारी सिंह दिनकर का साहित्यिक परिचय, कविताएं, भाषा शैली, प्रमुख कृतियाँ, Ramdhari Singh Dinkar Biography

उपनाम- दिनकर

जन्म- 23 सितंबर, 1908

जन्म भूमि- सिमरिया, मुंगेर, बिहार

मृत्यु- 24 अप्रैल, 1974

मृत्यु स्थान- चेन्नई, तमिलनाडु

अभिभावक – श्री रवि सिंह और श्रीमती मनरूप देवी

पत्नी-श्यामवती

संतान- एक पुत्र

कर्म भूमि- पटना

कर्म-क्षेत्र – कवि, लेखक

प्रसिद्धि- द्वितीय राष्ट्रकवि

काल- आधुनिक काल (राष्ट्रीय चेतना प्रधान काव्य धारा के कवि)

पुरस्कार-उपाधि-
भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार, 1972
साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1959
पद्म भूषण-1959 (भारत के प्रथम राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद द्वारा प्रदान)

रामधारी सिंह दिनकर का साहित्यिक परिचय

रचनाएं

रेणुका-1935

हुँकार- 1938

रसवंती-1940

द्वन्द्व गीत-1940

कुरुक्षेत्र-1946 (महाकाव्य/प्रबंधकाव्य)

सामधेनी-1947

धूप और धुआँ- 1951

नीम के पत्ते

हारे को हरिनाम

इतिहास के आँसू-1951

नील-कुसुम-1954

रश्मिरथी-1952 (प्रबंधकाव्य)

उर्वशी-1961 (खण्डकाव्य)

हाहाकार

परशुराम की प्रतिक्षा-1963

आत्मा की आंखें-1964

दिल्ली

सीपी और शंख

वट पीपल-1961

संसकृति के चार अध्याय (गद्य काव्य)

मगध महिमा (काव्यात्मक एकांकी)

व्यंग्य एवं लघु कविताओं का संग्रह – नाम के पत्ते।

अनूदित और मुक्त कविताओं का संग्रह – मृत्ति तिलक।

बाल-काव्य विषयक उनकी दो पुस्तिकाएँ प्रकाशित हुई हैं —‘मिर्च का मजा’ और ‘सूरज का ब्याह’।

रामधारी सिंह दिनकर जीवन-परिचय
रामधारी सिंह दिनकर जीवन-परिचय

आलोचना

काव्य की भूमिका-1957

पंत-प्रसाद-मैथलीशरण गुप्त-1958

शुद्ध कविता की खोज-1966

निबंध

मिट्टी की ओर-1946

अर्धनारीश्वर-1952

रेत के फूल-1954

हमारी सांस्कृतिक एकता-1954

उजली आग-1956

राष्ट्रभाषा और राष्ट्रीय साहित्य-1958

वेणुवन-1958

नैतिकता और विज्ञान-1959

साहित्यमुखी-1968

संस्मरण एवं रेखाचित्र विधा

लोकदेव नेहरु-1965

संस्मरण और श्रद्धांजलियाँ- 1969

यात्रा विधा

देश-विदेश-1957

मेरी यात्राएँ- 1970

डायरी विधा

दिनकर की डायरी-1972

विशेष तथ्य

दिनकर को ‘द्वितीय राष्ट्रकवि’ भी कहा जाता है|

राष्ट्र कवि की पदवी से विभूषित दिनकर ने मैथिलीशरण गुप्त के समक्ष स्वयं को महज डिप्टी राष्ट्रकवि ही स्वीकार किया है|

हिंदी साहित्य जगत में दिनकर को ‘अनल कवि व अधैर्य का कवि’ उपनाम से भी जाना जाता है|

इनको ‘उर्वशी’ काव्य रचना के लिए 1972 ईस्वी में ‘भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार’ प्राप्त हुआ था|

‘संस्कृति के चार अध्याय’ रचना के लिए इनको 1959 ईस्वी में ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ प्राप्त हुआ था|

इन्हें राष्ट्रीय जागरण तथा भारतीय संस्कृति का कवि माना जाता है|

रेणुका की कविता ” तांडव” में शंकर से प्रलय की याचना की।

रेणुका की कविता “पुकार” में किसान की विवशता का चित्रण।

वट पीपल इनका प्रमुख रेखाचित्र है।

“संस्कृति के चार अध्याय” की भूमिका पं० जवाहर लाल नेहरू ने लिखी थी।

इनका ‘कुरुक्षेत्र’ महाकाव्य द्वितीय विश्व युद्ध की विभीषिका से प्रेरित होकर रचा गया था यह काव्य मूलतः महाभारत के भीष्म युधिष्ठिर संवाद पर आधारित है|

बोस्टल जेल के शहीद को श्रद्धांजलि के रूप में लिखा कविता – बागी।

सामधेनी की कविता ‘हे मेरे स्वदेश’ में हिन्दी मुस्लिम दंगों की भर्त्सना की।

सामधेनी की कविता’अंतिम मनुष्य’ में युद्ध प्रलय का चित्रण है।

कुरूक्षेत्र में मिथकीय पद्धति है।

परशुराम की प्रतीक्षा में भारती पर चीनी आक्रमण के बारे में प्रतिक्रिया है।

दीपदान के अंग्रेजी पत्र ‘orient West’s में दिनकर की कलिंग विजय का अनुवाद किसी गया था।

संस्कृति के चार अध्याय के प्राचीन खण्ड का जापानी भाषा में अनुवाद किया गया था।

1955 में दिनकर ने वारसा (पोलैंड) के अन्तर्राष्ट्रीय काव्य समारोह में भारतीय शिखर मंडल के नेता के रूप में भाग लिया।

विद्यार्थी जीवन में आर्थिक तंगी होते हुए भी दिनकर ने मैट्रिक की परीक्षा में हिंदी विषय में सर्वाधिक अंक प्राप्त कर ‘भूदेव’ सवर्ण पदक प्राप्त किया था|

दिनकर भागलपुर वि.वि., बिहार के कुलपति भी रहे थे|(1964-65 में)

दिनकर को भारतीय संसद में ‘राज्यसभा’ का सदस्य भी मनोनीत किया गया था| (1952 प्रथम संसद के सदस्या, 12 वर्षो तक रहे)

1999 में उनके नाम से भारत सरकार ने डाक टिकट जारी किया।

दिनकर के बारे में अन्य लेखकों के कथन

“वे अहिन्दीभाषी जनता में भी बहुत लोकप्रिय थे क्योंकि उनका हिन्दी प्रेम दूसरों की अपनी मातृभाषा के प्रति श्रद्धा और प्रेम का विरोधी नहीं, बल्कि प्रेरक था।” -हज़ारी प्रसाद द्विवेदी

-“दिनकर जी ने श्रमसाध्य जीवन जिया। उनकी साहित्य साधना अपूर्व थी। कुछ समय पहले मुझे एक सज्जन ने कलकत्ता से पत्र लिखा कि दिनकर को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलना कितना उपयुक्त है ? मैंने उन्हें उत्तर में लिखा था कि यदि चार ज्ञानपीठ पुरस्कार उन्हें मिलते, तो उनका सम्मान होता- गद्य, पद्य, भाषणों और हिन्दी प्रचार के लिए।” -हरिवंशराय बच्चन

“उनकी राष्ट्रीयता चेतना और व्यापकता सांस्कृतिक दृष्टि, उनकी वाणी का ओज और काव्यभाषा के तत्त्वों पर बल, उनका सात्त्विक मूल्यों का आग्रह उन्हें पारम्परिक रीति से जोड़े रखता है।” -अज्ञेय

“हमारे क्रान्ति-युग का सम्पूर्ण प्रतिनिधित्व कविता में इस समय दिनकर कर रहा है। क्रान्तिवादी को जिन-जिन हृदय-मंथनों से गुजरना होता है, दिनकर की कविता उनकी सच्ची तस्वीर रखती है।” -रामवृक्ष बेनीपुरी

“दिनकर जी सचमुच ही अपने समय के सूर्य की तरह तपे। मैंने स्वयं उस सूर्य का मध्याह्न भी देखा है और अस्ताचल भी। वे सौन्दर्य के उपासक और प्रेम के पुजारी भी थे। उन्होंने ‘संस्कृति के चार अध्याय’ नामक विशाल ग्रन्थ लिखा है, जिसे पं. जवाहर लाल नेहरू ने उसकी भूमिका लिखकर गौरवन्वित किया था। दिनकर बीसवीं शताब्दी के मध्य की एक तेजस्वी विभूति थे।” -नामवर सिंह

दिनकर की प्रसिद्ध पंक्तियां

-रोक युधिष्ठर को न यहाँ,
जाने दे उनको स्वर्ग धीर पर फिरा हमें गांडीव गदा,
लौटा दे अर्जुन भीम वीर – (हिमालय से)

-क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो,
उसको क्या जो दंतहीन विषहीन विनीत सरल हो – (कुरुक्षेत्र से)

-मैत्री की राह बताने को, सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को, भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान हस्तिनापुर आये, पांडव का संदेशा लाये। – (रश्मिरथी से)

– धन है तन का मैल, पसीने का जैसे हो पानी,
एक आन को ही जीते हैं इज्जत के अभिमानी।

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