रीतिकाल में काव्यशास्त्र से संबंधित अनेक ग्रंथों की रचना हुई। यह ग्रंथ काव्यशास्त्र के विभिन्न अंगों को लेकर लिखे गए। इनमें से कुछ ग्रंथ सर्वांग निरूपक ग्रंथ थे जबकि कुछ विशेषांग निरूपक थे। इस आलेख में रीतिकालीन छंदशास्त्र संबंधी ग्रंथ की जानकारी।
विशेषांग निरूपक ग्रंथों में ध्वनि संबंधी ग्रंथ, रस संबंधी ग्रंथ, अलंकार संबंधी ग्रंथ, छंद शास्त्र संबंधी ग्रंथ, इत्यादि ग्रंथों का प्रणयन हुआ।
छंद ― छंदशास्त्र की व्यवस्थित परंपरा का सूत्रपात छंदशास्त्र के प्रवर्त्तक पिगलाचार्य के छंद सूत्र’ (ई. पू. 200 के लगभग) से माना जाता है।
रीतिकालीन हिन्दी के छंदशास्त्र संबंधी ग्रंथ
1. छंदमाला – केशवदास (हिंदी में छंदशास्त्र की प्रथम रचना)
रीतिकाल में काव्यशास्त्र से संबंधित अनेक ग्रंथों की रचना हुई। यह ग्रंथ काव्यशास्त्र के विभिन्न अंगों को लेकर लिखे गए। इनमें से कुछ ग्रंथ सर्वांग निरूपक ग्रंथ थे जबकि कुछ विशेषांग निरूपक थे। इस आलेख में अलंकार निरूपक रीतिकालीन ग्रंथ की पूरी जानकारी प्राप्त करेंगे।
विशेषांग निरूपक ग्रंथों में ध्वनि संबंधी ग्रंथ, रस संबंधी ग्रंथ, अलंकार संबंधी ग्रंथ, छंद शास्त्र संबंधी ग्रंथ, इत्यादि ग्रंथों का प्रणयन हुआ।
1. कविप्रिया और रसिकप्रिया ― केशवदास ―
‘कविप्रिया’ में अलंकारों का वर्गीकरण प्रमुख रूप से हुआ है। इसका उद्देश्य काव्य-संबंधी ज्ञान प्रदान करना था अलंकारवादी कवि केशव ने अलंकार का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहा था कि भूषण बिनु न विराजई कविता, वनिता मित्त।
2. भाषाभूषण ― जसवंत सिंह ―
इसमें अलंकारों का लक्षण और उदाहरण 212 दोहों में वर्णित हुआ है। भाषाभूषण की शैली चंद्रालोक की शैली है।
3. अलंकार पंचाशिका (1690 ई.), ललितललाम ― मतिराम ―
अलंकार पंचाशिका कुमायूँ-नरेश उदोतचंद्र के पुत्र ज्ञानचंद्र के लिए लिखी गई थी जबकि ललितललाम बूँदी नरेश भावसिंह की प्रशंसा में सं. 1716 से 45 के बीच लिखा गया। जिसके क्रम व लक्षण को शिवराज भूषण में अक्षरश: अपनाया गया है।
अलंकार निरूपक रीतिकालीन ग्रंथ
4. शिवराज-भूषण ―
भूषण आलंकारिक कवि कहे जाते हैं। इसके पीछे ‘शिवराज-भूषण’ (1653 ई.) रचना है, जो आलंकारिक है।
5. रामालंकार, रामचंद्रभूषण, रामचंद्रामरण (1716 ई. के आसपास) ― गोप ―
गोप विरचित तीनों रचनाएँ चंद्रालोक की पद्धति पर विरचित हैं।
6. अलंकार चंद्रोदय (1729 ई. रचनाकाल) रसिक सुमति ―
इसका आधार ग्रंथ कुवलयानंद है।
7. कर्णाभरण (1740 ई. रचनाकाल) ― गोविन्द ―
इसकी रचना भाषाभूषण की शैली पर हुई है।
8. कविकुलकण्ठाभरण ― दुलह ―
‘कविकुलकण्ठाभरण’ का आधार ग्रंथ चंद्रलोक एवं कुवलयानंद है।
9. भाषाभरण (रचनाकाल 1768 ई) ― बैरीसाल ―
इस ग्रंथ का आधार कुवलयानंद एवं इसकी वर्णन-पद्धति भाषाभूषण के समान है।
10. चेतचंद्रिका (स. 1840-1870 शुक्लजी के अनुसार) ― गोकुलनाथ
11. पद्माभरण ― पद्माकर ―
पद्माकर द्वारा रचित ‘पद्माभरण’ के आधार चंद्रालोक, भाषाभूषण, कविकुलकण्ठाभरण और भाषाभरण इत्यादि रचनाएँ है।
12. याकूब खां का रसभूषण 1718 ई. एवं शिवप्रसाद का रसभूषण 1822 ई ―
अलंकार और रस दोनों के लक्षण और उदाहरण प्रस्तुत किये गए हैं।
13. काव्यरसायन ― देव का ‘काव्यरसायन’ ग्रंथ एक प्रसिद्ध आलंकारिक ग्रंथ है।
रीतिकाल में काव्यशास्त्र से संबंधित अनेक ग्रंथों की रचना हुई। यह ग्रंथ काव्यशास्त्र के विभिन्न अंगों को लेकर लिखे गए। इनमें से कुछ ग्रंथ सर्वांग निरूपक ग्रंथ थे जबकि कुछ विशेषांग निरूपक थे। इस आलेख में जानेंगे रीतिकाल के रस ग्रंथ की पूरी जानकारी।
विशेषांग निरूपक ग्रंथों में ध्वनि संबंधी ग्रंथ, रस संबंधी ग्रंथ, अलंकार संबंधी ग्रंथ, छंद शास्त्र संबंधी ग्रंथ, इत्यादि ग्रंथों का प्रणयन हुआ।
1. रसिकप्रिया ―केशवदास प्रथम रसवादी आचार्य है।
इनकी ‘रसिकप्रिया’ एक प्रसिद्ध रस ग्रंथ है।
2. सुंदर श्रृंगार , 1631 ई. ― सुंदर कवि ―
शाहजहाँ के दरबारी कवि सुंदर ने श्रृंगार रस और नायिका भेद का वर्णन इसमें किया है।
3. श्रृंगार मंजरी ― चिंतामणि ―
हिंदी नायिका-भेद के ग्रंथों में ‘श्रृंगार मंजरी’ का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। ‘कविकुलकल्पतरु’ इनकी रसविषयक रचना है। इस ग्रंथ में उन्होंने अपना उपनाम मनि (श्रीमनि) का प्रयोग 60 बार किया है।
4. सुधानिधि 1634 ई. ― तोष ―
रसवादी आचार्य तोष निधि ने 560 छंदों में रस का निरूपण (सुधानिधि 1634 ई.) सरस उदाहरणों के साथ किया है।
5. रसराज ― मतिराम ―
इस ग्रंथ में नायक-नायिका भेद रूप में श्रृंगार का बड़ा सुंदर वर्णन हुआ है।
6. भावविलास, भवानीविलास, काव्यरसायन― देव ―
देव ने केवल श्रृंगार रस को सब रसों का मूल माना है, जो सबका मूल है। इन्होंने सुख का रस शृंगार को माना। काव्य रसायन में 9 रसों का विवेचन भरतमुनि के नाट्यशास्त्र पर हुआ है।
7. रसिक रसाल 1719 ई. ― कुमारमणि भट्ट
8. रस प्रबोध 1798 सं. (1741 ई.) रसलीन ―
इनकी रसनिरूपण संबंधित रचना ‘रसप्रबोध’ में 1115 दोहो में रस का वर्णन है। रसलीन का मूल नाम सैयद गुलाब नबी था।
15. पद्माकर – ‘जगद्विनोद’ काव्यरसिकों और अभ्यासियों के लिए कंठहार है।
इसकी रचना इन्होंने महाराज प्रतापसिंह के पुत्र जगतसिंह के नाम पर की थी।
16. रसिकगोविन्दानन्दघन ― रसिक गोविंद – काव्यशास्त्र विषयक इनका एकमात्र ग्रंथ है।
17. नवरस तरंग ― बेनी प्रवीन ―
इनका ‘नवरस तरंग’ सबसे प्रसिद्ध श्रृंगार-ग्रंथ है, जिसे शुक्ल ने मनोहर ग्रंथ कहा है। श्रृंगारभूषण, नानाराव प्रकाश-बेनी की अन्य कृतियाँ है।
18. रसिकनंद, रसरंग ― ग्वाल ―
शुक्लर्जी ने लिखा है कि – ‘रीतिकाल की सनक इनमें इतनी अधिक थी कि इन्हे ‘यमुनालहरी’ नामक देवस्तुति में भी नवरस और षड्ऋतु सुझाई पड़ी है।’
19. महेश्वरविलास ― लछिराम ―
महेश्वरविलास नवरस और नायिका-भेद पर आधारित रचना है।
20. रसकुसुमाकर (1894 ई.) ― प्रतापनारायण सिंह –
अयोध्या के महाराज प्रतापनारायण सिंह की ‘रसकुसुमाकर में श्रृंगार रस का सुंदर विवेचन मिलता है।
21. रसकलस (1931 ई.) ― अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ―
हरिऔध की ‘रसकलस’ रचना रीति-परंपरा पर रस-संबंधी एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। हरिऔधजी ने अदभुत रस के अंतर्गत रहस्यवाद की गणना की है। यह इस ग्रंथ की नवीनता है।