जगदीश चंद्र बोस की जीवनी – Jagdish Chandra Bose Biography in Hindi
सामान्य परिचय एवं जन्म
जगदीश चंद्र बसु का जन्म 30 नवंबर 1818 में मोमिन से नमक स्थान पर हुआ यह जगह वर्तमान बांग्लादेश में है इनकी पिता भगवान चंद्र बसु उप मजिस्ट्रेट इसके साथ साथ ही वे ब्रह्म समाज से भी जुड़े हुए थे। मूलतः इनका परिवार रारीखाल गांव विक्रमपुर से आया था। तो अब जानते हैं जगदीश चंद्र बोस की जीवनी – Jagdish Chandra Bose Biography in Hindi
शिक्षा दीक्षा
बालक जगदीश चंद्र की प्रारंभिक शिक्षा गांव के ही एक बंगाली विद्यालय में हुई।
इनके पिता चाहते थे कि उनका बेटा अंग्रेजी जानने से पहले अपनी मातृभाषा सीखे।
एक जगह स्वयं जगदीश चंद्र बसु ने कहा है कि
”अंग्रेजी स्कूल में भेजना हैसिहत की निशानी माना जाता था। मैं जिस बंग्ला विद्यालय में जाता था, वहां पर मेरे दाएं तरफ मेरे पिता के मुस्लिम नौकर का बेटा बैठता था, मेरी बाई तरफ एक मछुआरे का बेटा। उनकी पक्षियों, जानवरों और जलीय जीवो की कहानियों को मैं कान लगाकर सुनता था शायद इन्हीं कहानियों ने मेरे मस्तिष्क में प्रकृति की संरचना पर अनुसंधान करने की गहरी रुचि जगाई।”
महा विद्यालय शिक्षा एवं विदेश गमन
विद्यालय स्तर की पढ़ाई के बाद बसु ने कोलकाता के प्रसिद्ध सेंट जेवियर महाविद्यालय से 1880 में स्नातक की उपाधि प्राप्त की अब जगदीश चंद्र बसु चिकित्सा शास्त्र की पढ़ाई करना चाहते थे, इसके लिए उन्हें लंदन जाना था।
सन् 1880 में ही उन्होंने लंदन विश्वविद्यालय में चिकित्सा के पाठ्यक्रम में प्रवेश ले लिया,
परंतु कुछ ही समय में वहां बसु का स्वास्थ्य खराब रहने लगा जिसके कारण उन्हें चिकित्सा की पढ़ाई बीच में ही छोड़ देनी पड़ी और 1881 में कैंब्रिज विश्वविद्यालय के क्राइस्ट कॉलेज में विज्ञान के पाठ्यक्रम में प्रवेश लिया
इसी कॉलेज में बसु प्रोफेसर लाफोंट से मिले जिन्होने उन्हें भौतिक शास्त्र के अध्ययन के लिए प्रेरित किया।
1884 में बोस इंग्लैंड से बीएससी की उपाधि प्राप्त कर भारत लौट आये।
भारतीयों के साथ होने वाले भेदभाव के विरुद्ध सत्याग्रह
1885 में बसु की नियुक्ति कोलकाता के प्रतिष्ठित प्रेसिडेंसी कॉलेज में भौतिक विज्ञान के प्राध्यापक के रूप में हुई।
लेकिन यहां अंग्रेजों की भेदभाव की नीति काम कर रही थी। अंग्रेजी अधिकारियों ने पहले तो बसु की नियुक्ति में ही कई अड़ँगे लगाए।
जब श्री बसु ने बंगाल के शिक्षा संचालक को उनके नाम लिखा वाइसराय का पत्र दिखाया तो शिक्षा संचालक एल्फ्रेड क्राफ्ट ने बसु का अपमान करते हुए कहा कि
“एक काला आदमी विज्ञान सिखाने लायक नहीं होता।”
जब वायसराय को बसु की नियुक्ति की सूचना नहीं मिली तो उन्होंने क्राफ्ट से पूछताछ की इस तरह वायसराय द्वारा पूछताछ करने पर डर के कारण क्राफ्ट ने तत्काल बसु की नियुक्ति प्रेसिडेंसी कॉलेज में की।
बसु के साथ दूसरा भेदभाव यह किया गया जो कि प्रत्येक भारतीय के साथ किया जाता था भारतीयों को अंग्रेज अधिकारियों की तुलना में आधा वेतन दिया जाता था क्योंकि बसु की नियुक्ति तत्काल हुई थी इसलिए उन्हें अंग्रेज प्राध्यापकों की तुलना में एक तिहाई ही वेतन दिया जाता था।
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जिसके विरोधस्वरूप बसु ने वेतन लेने से मना कर दिया।
बसु ने सत्याग्रह के मार्ग को अपनाया, उन्होंने अपना अध्यापन कार्य जारी रखा किंतु वेतन स्वीकार नहीं किया।
बसु अब बिना वेतन के ही कॉलेज में काम करते रहे।
यह सिलसिला तीन साल तक चलता रहा। इस दौरान उनके परिवार पर कर्ज का बोझ बढ़ता गया घर की आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गई और इसी अवधि में बसु का विवाह भी हो गया।
ऐसी परिस्थितियों में भी परिवार और पत्नी ने उनका भरपूर सहयोग किया।
बसु अपना काम पूरी मेहनत और लगन से करते रहे और तीन साल बाद प्राचार्य टॉने तथा शिक्षा संचालक क्रॉफ्ट को अपनी गलती का एहसास हुआ और उन्होंने बसु को अंग्रेज प्राध्यापकों के समान नियुक्ति तिथि से ही पूरा वेतन देना स्वीकार किया।
इसी वेतन से उन्होंने अपने परिवार का ऋण चुकाया।
विवाह
जगदीश चंद्र बसु का विवाह उनके पिता के एक सहयोगी दुर्गा मोहन दास की द्वितीय पुत्री अबला से 1887 ईस्वी में हुआ।
जगदीश चंद्र बसु और अबला का जिस समय विवाह हुआ उस समय अब अबला मद्रास में चिकित्सा शास्त्र के तृतीय वर्ष की पढ़ाई कर रही थी।
विज्ञान की पृष्ठभूमि से आने के कारण अबला जी अपने पति को उनके क्षेत्र में अत्यधिक सहयोग कर पाई। यह सहयोग आजीवन चलता रहा।
अध्यापन और अनुसंधान
अध्यापन की तरह ही अनुसंधान कार्य भी बसु के लिए आसान नहीं रहा। महाविद्यालय में उन्हें ऐसी कोई सुविधा प्राप्त नहीं थी जिससे अनुसंधान में सहायता मिल सके।
इस समय की प्रसिद्ध रॉयल सोसाइटी का मानना था कि “विज्ञान के क्षेत्र में मौलिक अनुसंधान ब्रिटिशों के ऊपर छोड़ दिया जाए और भारतीय वैज्ञानिक प्रायोगिक विषयों पर अनुसंधान करें।”
ऐसी विकट परिस्थिति में भी बसु ने हार नहीं मानी और महाविद्यालय के मात्र 20 वर्ग फीट के कमरे में उन्होंने एक प्रयोगशाला बनाई।
बसु के साथी प्राध्यापक भी उन पर तंज कसते उन्हें हतोत्साहित करने का पूरा प्रयास करते। उनकी बातें सुनकर बसु दुगने उत्साह से अपने काम में लग जाते।
छत्तीसवां जन्मदिन और संकल्प
अपने छत्तीसवें जन्मदिन पर जगदीश चंद्र बसु ने यह दृढ़ संकल्प लिया कि “इससे आगे की अपनी आयु अनुसंधान कार्य में ही बताऊंगा” और इस संकल्प का उन्होंने जीवन भर पालन किया।
बसु का आकर्षण अब विद्युत चुंबकीय तरंगों की तरफ हुआ बसु उसे पहले 1863 में मैक्सवेल नामक ब्रितानी वैज्ञानिक ने विद्युत चुंबकीय तरंग के अस्तित्व को गणितीय आधार पर सिद्ध किया।
मैक्सवेल के बाद ओलिवर लॉग नामक ब्रिटिश वैज्ञानिक ने मैक्सवेल के अनुसंधान को आगे बढ़ाया।
जर्मन वैज्ञानिक हॉट्स ने यह सिद्ध किया की तरंग को बिना तार के भी भेजा जा सकता है।
1894 में हॉट्स की मृत्यु के बाद लॉज ने उनके अनुसंधान कार्य पर एक भाषण दिया।
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यह भाषण ‘वर्क ऑफ हार्ट्स एंड सम ऑफ हिस सक्सेस’ नाम से प्रकाशित हुआ।
लॉज के इसी भाषण रूपी पुस्तक को पढ़कर बसु भी इस विषय की ओर आकृष्ट हुए और उसे अनुसंधान के विषय के रूप में चुना।
बसु दा का अनुसंधान कार्य सतत् चलता रहा। इस दौरान उन्होंने कई उपकरण भी बनाए।
जब उन्होंने अपने प्रयोग पाश्चात्य देशों में प्रस्तुत किए तो पश्चिमी वैज्ञानिकों ने इनकी खोज और उपकरण देखकर आश्चर्य से दांतो तले उंगली दबा ली।
1894 में बसु ने सूक्ष्म तरंगों की सहायता से दूर स्थित गन पाउडर को प्रज्वलित किया और एक घंटी भी बजाई।
बसु ने अपने किसी भी आविष्कार का कभी भी पेटेंट नहीं करवाया एक अमेरिकी मित्र के आग्रह पर 1901 में उन्होंने अपना पहला पेटेंट करवाया जो किसी भी भारतीय का पहला पेटेंट था जो उन्हें 1904 में प्राप्त हुआ।
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बसु ने तरंगों पर अनुसंधान करते हुए कई अभिनव प्रयोग किए।
1895 में उन्होंने कोलकाता के टाउन हॉल में सबके सामने एक प्रयोग किया इस संबंध में स्वयं बसु लिखते हैं
“इस प्रयोग के समय लेफ्टिनेंट गवर्नर विलियम मैकेंजी मुख्य अतिथि थे। सभागृह में निर्माण किए गए तरंग उनके मोटे शरीर तथा तीन दीवारों से गुजरकर 75 फीट की दूरी पर स्थित एक कक्ष में पहुंचे और वहां उन्होंने तीन प्रकार के कार्य किए एक पिस्तौल से गोली उड़ी दूसरा तोप से गोला फेंका गया और तीसरा बारूद के ढेर में चिंगारी को स्पर्श कर उसमें विस्फोट हुआ।”
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दुनिया के संभवत इस पहले प्रयोग को देखकर लेफ्टिनेंट मैकेंजी बहुत खुश हुए और बसों के लिए ₹1000 का पारितोषिक घोषित किया
1896 में बसु इंग्लैंड गये जहां लिवरपूल में ब्रिटिश एसोसिएशन की परिषद् में बसु ने अपने अनुसंधान निबंध पढ़े।
उनकी प्रस्तुति और प्रयोग इतने प्रभावशाली थे कि सभी ने उनकी प्रशंसा की।
ब्रिटिश समाचारपत्र जो उस समय भारतीयों के लिए दोयम दर्जे की भाषा का प्रयोग करते थे, उन्होंने भी बसु के लिए गौरवपूर्ण शब्दों का प्रयोग किया।
ब्रिटेन में दिए गए अपनी इन्हीं व्याख्यानो के कारण महान वैज्ञानिक लॉर्ड केल्विन ने भारत मंत्री लॉर्ड हेमिल्टन को एक पत्र लिखा जिसमें भारत में अनुसंधान के लिए प्रयोगशाला स्थापित करने का सुझाव और मांग थी।
इसी तरह का एक पत्र रॉयल इंस्टीट्यूशन ने भी भारत मंत्री के लिए लिखा, भारत मंत्री ने भारत सरकार को पत्र लिखकर भारत में प्रयोगशाला स्थापित करने हेतु आगे की कार्रवाई करने के लिए कहा।
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भारत सरकार ने तत्कालिक बंगाल की प्रांतीय सरकार को पत्र लिखा लेकिन यह कार्रवाई कागजों में ही दब कर रह गयी अंततः केंद्र सरकार ने बसु को वार्षिक ₹2000 अनुदान अनुसंधान कार्य के लिए मंजूर किया।
सन 1900 में जिन दिनों बसु इंग्लैंड में थे उनके प्रयोगों और व्याख्यान की चारों ओर धूम मची हुई थी। चारों तरफ से उन्हें बधाई मिल रही थी।
तभी प्रोफेसर लॉज तथा प्रोफेसर बैरट ने बसु के सामने एक प्रस्ताव रखा कि वे भारत छोड़कर इंग्लैंड में आ जाएं यहां एक विश्वविद्यालय में एक प्राध्यापक का स्थान खाली है लेकिन राष्ट्रभक्त बसु ने वह स्वर्णिम प्रस्ताव ठुकरा दिया।
इस संबंध में उन्होंने अपने परम मित्र रवींद्र नाथ टैगोर से भी विचार विमर्श किया।
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बसु द्वारा इंग्लैंड में प्राध्यापक पद ठुकरा देने के बाद घटनाक्रम कुछ ऐसा हुआ कि उन्हें काफी समय तक इंग्लैंड में ही रहना पड़ा।
इसी प्रवास में बसु रवींद्रनाथ टैगोर की कथाओं का अंग्रेजी अनुवाद करते तथा अपने अनुसंधान में भी लगे रहते हैं।
लेकिन मित्रों एक बात बार-बार उन्हें कचोट रही थी कि वह क्या करें?
क्या अभी इंग्लैंड में ही रही?
क्या वे भारत लौट जाएं?
नौकरी जारी रखें या
अवकाश ले ले यदि नौकरी छोड़ दें तो पैसे कहां से आएंगे?
ऐसी गंभीर विषय पर वह किससे बात करें किससे अपने मन की बात बताएं यह भी एक उलझन थी
अंततः उन्होंने अपने अंतरंग मित्र रवींद्र नाथ ठाकुर से बात की रवींद्र नाथ ठाकुर यह चाहते थे कि बसु इंग्लैंड में रहकर ही अनुसंधान कार्य करें और उनको वेतन नहीं मिलने की स्थिति में रवींद्र नाथ ठाकुर स्वयं धन की व्यवस्था कर देंगे।
बसु अपनी आर्थिक तंगी को मिटाने के लिए अपने अनुसंधान एवं लेखों के कॉपीराइट भी बेच सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया।
जीव-अजीव पर अनुसंधान और विवाद
बसु ने जीव और अजीव दोनों चीजों पर अनुसंधान किया।
उन्होंने सिद्ध किया कि जीव-अजीव सभी में वेदना का अनुभव होता है।
सभी वस्तुएँ जहर के प्रति प्रतिक्रिया देती है, चाहे वे जीव हो या अजीव।
उनके बनाए उपकरण से अजीव पदार्थों की धड़कन भी समझी जा सकती थी।
इन प्रयोगों और व्याख्यानो पर उन्हें पाश्चात्य वैज्ञानिकों से प्रतिकार भी झेलना पड़ा। लेकिन भी अडिग रहें और अपना काम करते रहे।
पश्चिमी वैज्ञानिक यह मानने को तैयार ही नहीं थे की वनस्पतियों से विद्युतीय प्रतिसाद प्राप्त हो सकता है या अधातु भी प्रतिक्रिया दे सकते लेकिन जगदीश चंद्र बसु इसे सिद्ध करने पर अडिग थे।
ऐसी परिस्थितियों में पश्चिमी वैज्ञानिक चाह रहे थे कि बसु भारत लौट जाए।
उसी समय त्रिपुरा के राजा ने उन्हें दस हजार रुपए आर्थिक सहायता देना स्वीकार कर लिया और यह भी वचन दिया कि वह इसी वर्ष में दस हजार रुपए की और उन्हें सहायतार्थ दे सकते हैं। अब बसु के लिए 1 वर्ष और इंग्लैंड में रहने की व्यवस्था हो गई थी।
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21 मार्च 1902 को वह दिन भी आया जब बसु ने शरीर विज्ञान, जीव विज्ञान तथा अन्य शास्त्रों के विद्वानों के सामने रॉयल सोसाइटी के समक्ष किए गए प्रयोग पुनः प्रस्तुत किए और सब लोगों ने उनकी प्रशंसा की 1 जनवरी 1903 में जगदीश चंद्र बसु ने CIE (कमांडर ऑफ द इंडियन एंपायर) की उपाधि से सम्मानित किया गया।
इसके बाद जगदीश चंद्र बसु उत्तरोत्तर अनुसंधान करते रहे उन्हें अपार सफलताएं मिली।
पुस्तकें
(क) अंग्रेजी पुस्तकें
1. रिस्पॉन्स इन द लिविंग एंड नॉन-लिविंग। (1902)
2. फॉर रिस्पॉन्स इज अ मीन्स ऑफ फिजियोलॉजिकल इन्वेस्टिगेशन। (1906)
3. कॉपरेटिव इलेक्ट्रो फिजियोलॉजी (1907)
4. रिसर्चेस ऑन इरिटॉबिलिटी ऑफ प्लांट्स (1912)
5. द फिजियोलॉजी ऑफ फोटोसिंथेसिस (1924)
6. नर्वस मेकेनिज्म ऑफ प्लांट्स (1926)
7. कलेक्टेड फिजिकल पेपर्स (1927)
8. फॉर ऑटोग्राफ्स एंड देअर रिवीलेशंस (1927)
9. द मोटर मेकेनिज्म ऑफ प्लांट्स (1928)
10. ग्रोथ एंड ट्रॉपिक मूवमेंट्स ऑफ प्लांट्स। (1929)
(ख) संपादित पुस्तकें
1. खंड 1 : 1918
2. खंड 2 : 1919
3. खंड 3 : 1920 ‘लाइफ मूवमेंट्स इन प्लांट्स’ शीर्षक से
4. खंड 4 : 1921 एक साथ प्रकाशित
5. खंड 5: 1923; ‘द फिजियोलॉजी ऑफ दि एसेंट ऑफ सैप शीर्षक से।
6. खंड 6 : 1932; ‘लाइफ मूवमेंट्स इन प्लांट्स’ शीर्षक से।
7. खंड 7 : 1933
8. खंड 8 : 1934
9. खंड 9 : 1935
10. खंड 10 : 1936
11. खंड 11 : 1937
(ग) बंग्ला ग्रंथ
अव्यक्त (1921) बँगला लेखों एवं भाषणों का संग्रह।
जगदीश चंद्र बसु की जीवन यात्रा कालक्रम अनुसार
1858 ― 30 नवंबर को मैमनसिंह (वर्तमान बांग्लादेश में) में जन्म
1863 ― बांग्ला विद्यालय में प्रवेश।
1869 ― कोलकाता के प्रसिद्ध सेंट जेवियर स्कूल में प्रवेश।
1875 ― मैट्रिक की परीक्षा पास।
1880 ― बी.ए. उत्तीर्ण।
चिकित्सा स्वास्थ्य की पढ़ाई के लिए लंदन विश्वविद्यालय में प्रवेश।
1881 ― चिकित्सा शास्त्र में काम आने वाले रसायनों से एलर्जी के कारण पाठ्यक्रम बीच में छोड़कर लंदन विश्वविद्यालय के क्राइस्ट कॉलेज में विज्ञान पाठ्यक्रम में प्रवेश लिया।
1884 ― बी.एस-सी. उपाधि प्राप्त और भारत वापसी।
1885: कलकत्ता के प्रसिद्ध ‘प्रेसीडेंसी कॉलेज’ में भौतिक विज्ञान के प्राध्यापक के रूप में नियुक्ती कम वेतन के विरोध में वेतन न स्वीकारने का सत्याग्रह किया।
1887: अबला दास के साथ विवाह ।
1888 ― तीन वर्ष तक सत्याग्रह किया और विजय प्राप्त की। पिता के ऋण को चुकाया।
1890 ― पिता का निधन।
1891― माता भामासुंदरी का निधन ।
1894 ― 36वीं वर्षगांठ जीवन भर अनुसंधान कार्य करने का संकल्प लिया ‘विद्युत्-चुंबकीय तरंग एवं बेतार संदेशों का आदान-प्रदान’ विषय में अनुसंधान आरंभ। अनेक नवीनता-युक्त उपकरणों का निर्माण।
1895 ― कलकत्ता के टाउन हॉल में आम लोगों के सामने बेतार संदेश का अभिनव प्रयोग।
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1896 ― वैज्ञानिकों से चर्चा हेतु पहले विदेशी दौरे हेतु प्रस्थान।
1897 ― ब्रिटेन से फ्रांस और जर्मनी का दौरा। भारत सरकार द्वारा अनुसंधान कार्य के लिए वार्षिक ₹2000 का अनुदान स्वीकृत।
1900 ― पेरिस में हुई पदार्थ-वैज्ञानिकों की परिषद् में भारत का प्रतिनिधित्व।
1901: रॉयल इंस्टीट्यूशन में व्याख्यान पाश्चात्य वैज्ञानिकों द्वारा इसका विरोध किया गया तथा उस निबंध को प्रकाशित न करने का सोसाइटी का निर्णय लिया।
1902 ― ‘लिनियन सोसायटी में व्याख्यान दिया।
प्रतिपादित सिद्धांत का बिना किसी विरोध के स्वीकृत।
वनस्पतियों पर अनुसंधान तेज कर दिया।
इसी वर्ष पहली पुस्तक प्रकाशित तथा भारत वापसी भी इसी वर्ष हुई।
1906 ― दूसरी पुस्तक प्रकाशित।
1907 ― तीसरी पुस्तक प्रकाशित।
इसी वर्ष यूरोप के दौरे पर तीसरी बार प्रस्थान
1908 ― अमेरिका यात्रा।
सुखद अनुभव।
1909 ― भारत वापसी।
1911 ― 14 अप्रैल से मैमनसिंह में ‘बंगीय साहित्य सम्मेलन’ की अध्यक्षता।
1912 ― कलकत्ता विश्वविद्यालय द्वारा सम्माननीय डी.एस-सी. की उपाधि।
1913 ― चौथी पुस्तक प्रकाशित। अवकाश ग्रहण से पूर्व दो वर्ष का सेवाकाल बढ़ाया गया।
1914 ― ब्रिटेन, जर्मनी, ऑस्ट्रिया, अमेरिका तथा जापान में व्याख्यान के लिए चौथी बार विदेश यात्रा।
1915 ― अवकाश ग्रहण पर एमिरेटस प्रोफेसर का सम्मान।
1916 ― ‘बंगीय साहित्य परिषद्’ के निर्विरोध अध्यक्ष।
1917 ― सर की उपाधि से सम्मानित।
बोस इंस्टिट्यूशन का उद्घाटन दोनों (30 नवंबर को)।
1919 ― नवंबर में पांचवी बार यूरोप यात्रा पर।
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1920 ― रॉयल सोसाइटी द्वारा फेलो स्वीकृत (पहले भारतीय) फ्रांस, जर्मनी, स्वीडन तथा ऑस्ट्रिया की यात्रा।
1921― कोलकात्ता में नागरिक सम्मान।
1923 छठी यूरोपीय यात्रा पर।
1924 ― पाँचवी पुस्तक प्रकाशित।
1925 ― एक-एक ग्रंथ का फ्रेंच तथा जर्मन में अनुवाद प्रकाशित।
1926 ― ‘लीग ऑफ नेशंस’ का ‘कमेटी ऑन इंटेलेक्चुअल को-ऑपरेशन के सदस्य मनोनयन। छठी पुस्तक प्रकाशित।
1927 ― लाहौर में आयोजित ‘इंडियन साइंस कांग्रेस’ के अध्यक्ष बनाये गये। यूरोप की आठवीं यात्रा।
कुछ निबंधों का संकलन सातवें ग्रंथ में प्रकाशित।
आठवाँ ग्रंथ भी प्रकाशित ‘बोस इंस्टीट्यूट’ की दसवीं वर्षगाँठ।
1928 ― नौवीं विदेश यात्रा।
ऑस्ट्रिया आठवें ग्रंथ का जर्मन अनुवाद। 30 नवंबर को सप्ततिपूर्ति के उपलक्ष्य में सम्मान
नौवीं पुस्तक प्रकाशित।
1929 ― दसवीं विदेश यात्रा
दसवी पुस्तक प्रकाशित।
1931 ― श्री सयाजीराव गायकवाड़ पुरस्कार’ से सम्मानित।
14 अप्रैल को कलकत्ता महानगर पालिका की ओर से प्रकट सम्मान।
रवींद्रनाथ के सप्ततिपूर्ति समारोह समिति के अध्यक्ष।
1934 ― अखिल भारतीय ग्रामोद्योग समिति’ की परामर्श समिति में चयन।
1935 ― ‘प्रेसीडेंसी कॉलेज’ से संबंधों के 50 वर्ष के उपलक्ष्य में छात्रों की ओर से सम्मानित।
1937 ― 23 नवंबर को गिरिडीह में अंतिम सांस। कलकत्ता में अंतिम संस्कार।
मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या-आधुनिक भारत के निर्माता
सरदार वल्लभ भाई पटेल : भारतीय लौहपुरूष