हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की प्रमुख पद्धतियाँ

हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की प्रमुख पद्धतियाँ

हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की प्रमुख पद्धतियाँ चार रही हैं। साहित्य, समाज, विज्ञान, संस्कृति, भूगोल, मानव विकास आदि सभी क्षेत्रों इतिहास और विकास को समझने के लिए उसका विश्लेषण करना आवश्यक है।

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हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की प्रमुख पद्धतियाँ

विश्लेषण करने वाले विद्वानों का पृथक-पृथक दृष्टिकोण होता है। साहित्येतिहास लेखन में भी साहित्येतिहासकारों का अपना दृष्टिकोण रहा है। यह दृष्टिकोण मुख्य रूप से चार प्रकार के हैं, जिन्हें साहित्येतिहास लेखन की पद्धति या प्रणाली कहा जाता है।

यह पद्धति या प्रणाली वर्णानुक्रम प्रणाली, कालानुक्रमी प्रणाली, वैज्ञानिक प्रणाली और विधेयवादी प्रणाली हो सकती है इसके अतिरिक्त विद्वानों ने कुछ गौण प्रणालियों का भी जिक्र किया है।

हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की चार पद्धतियाँ

1 वर्णानुक्रम पद्धति

इस पद्धति में रचनाकारों का विवरण उनके नाम के प्रथम वर्ण के क्रम से दिया जाता है। उदाहरण के लियेए सूरदासए भिखारीदास और जयशंकर प्रसाद का समय भले ही भिन्न हो किंतु उनका क्रम इस प्रकार होगा जयशंकर प्रसादए भिखारीदासए सूरदास। यह पद्धति शब्दकोश लेखन की तरह होती है। अतः इसे ऐतिहासिक दृष्टि से असंगत माना जाता है क्योंकि यह इतिहास लेखन नहीं, बल्कि शब्दकोश लेखन है।

गार्सा द तासी ने इस्तवार द ला लितरेत्यूर ऐन्दुई ए ऐन्दुस्तानी और शिवसिंह सेंगर शिवसिंह सरोज ने अपने ग्रंथों में इसका प्रयोग किया है।

2 कालानुक्रमी पद्धति

इसमें रचनाकारों का विवरण उनके काल; समयद्ध के क्रम से दिया जाता है। रचनाकार की जन्मतिथि को आधार बनाया जाता है। सभी रचनाकारों की जन्मतिथि या जन्मवर्ष का सटीक पता लगाना भी एक दुष्कर कार्य है। ऐसी स्थिति में एक मोटा-मोटा अनुमान भर लगाया जाता है, इस स्थिति में यह पद्धति उपयोगी नहीं है।

साहित्येतिहासकार का उद्देश्य केवल कवियों का परिचय कराना नहीं होता वरन् तात्कालिक परिस्थितियों को सामने लाना भी होता है, जिसके कारण वह विशिष्ट साहित्य रचा गया। इस दृष्टिकोण से भी यह पद्धति उपयोगी नहीं है।

इस पद्धति से लिखे ग्रंथ भी वर्णानुक्रम पद्धति की तरह कवि वृत्त-संग्रह मात्र होते हैं।

जॉर्ज ग्रियर्सन ने अपने इतिहास ग्रंथ द मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ नॉर्दन हिंदुस्तान और मिश्रबंधुओं ने अपने इतिहास ग्रंथ मिश्र इंदु विनोद में इस पद्धति का प्रयोग किया है।

ग्रियर्सन के साहित्येतिहास ग्रन्थ में विधेयवादी पद्धति के कुछ आरंभिक सूत्र भी मिलने लगते हैं। इस संबंध में डॉ नलिन विलोचन शर्मा का निम्नलिखित मत महत्त्वपूर्ण है― हिंदी के विधेयवादी साहित्येतिहास के आदम प्रवर्तक शुक्ल जी नहीं प्रत्युत ग्रियर्सन हैं।

3 वैज्ञानिक पद्धति

यह पद्धति के मुख्यतः शोध पर आधारित है। इसमें साहित्येतिहासकार निरपेक्ष एवं तटस्थ रहकर वैज्ञानिक तरीके से तथ्य संकलन कर उसे क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत करता है।

हिंदी साहित्य में डॉ गणपति चंद्रगुप्त ने अपना साहित्येतिहास ग्रंथ हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास इसी पद्धति के आधार पर लिखा है।

इतिहास लेखन में सिर्फ तथ्य संकलन की ही नहीं, बल्कि उनकी व्याख्या एवं विश्लेषण की भी आवश्यकता होती है। जो कि इस पद्धति में नहीं हो पाता है अतः इस पद्धति को भी अनुपयुक्त माना जाता है।

4 विधेयवादी पद्धति

इस पद्धति में साहित्य की व्याख्या कार्य-कारण सिद्धांत के आधार पर होती है। इस पद्धति के जनक फ्रेंच विद्वान इपालित अडोल्फ़ तेन (Taine) ने इसे सुव्यवस्थित सिद्धांत के रूप में स्थापित किया।

तेन ने इस पद्धति को तीन शब्दों के माध्यम से स्पष्ट किया- जाति (Race), वातावरण (Milieu) आरक्षण विशेष (Moment)।

इस पद्धति के अनुसार, “किसी भी साहित्य के इतिहास को समझने के लिये उससे संबंधित जातीय परंपराओं, राष्ट्रीय और सामाजिक वातावरण एवं सामयिक परिस्थितियों का अध्ययन विश्लेषण आवश्यक है।

इस पद्धति में साहित्य इतिहास की प्रवृत्तियों का विश्लेषण युगीन परिस्थितियों के संदर्भ में किया जाता है।

इसे इतिहास-लेखन की व्यापक, स्पष्ट एवं विकसित पद्धति माना गया है, क्योंकि इसके द्वारा साहित्य की विकास प्रक्रिया को बहुत कुछ स्पष्ट किया जा सकता है।

हिंदी में सर्वप्रथम रामचंद्र शुक्ल ने इस पद्धति का सूत्रपात किया।

हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की प्रमुख पद्धतियाँ

इस संदर्भ में आचार्य शुक्ल लिखते हैं― “प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्तियों का संचित प्रतिबिंब होता है। …… आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य परंपरा के साथ उसका सामंजस्य बिठाना ही साहित्य कहलाता है।”

उनके बाद रामस्वरूप चतुर्वेदी, बच्चन सिंह आदि विख्यात साहित्येतिहासकारों ने इस प्रणाली को आगे बढ़ाया।

रामस्वरूप चतुर्वेदी का कथन यहां स्मरणीय है- “कवि का काम यदि ‘दुनिया में ईश्वर के कामों को न्यायोचित ठहराना है’ तो साहित्य के इतिहासकार का काम है कवि के कामों को साहित्येतिहास की विकास प्रक्रिया में न्यायोचित दिखा सकना।” –(संदर्भ: ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ सं. डॉ. नगेंद्र, डॉ. हरदयाल)

कतिपय अन्य प्रणालियां

कुछ अन्य विद्वानों ने साहित्येतिहास लेखन की कुछ अन्य प्रणालियों का भी जिक्र किया है जो निम्नलिखित हैं―

नारीवादी पद्धति

हिन्दी साहित्य में सुमन राजे ने श्हिन्दी साहित्य का आधा इतिहासश् नारीवादी पद्धति के आधार पर लिखा है।

समाजशास्त्रीय पद्धति

समाजशास्त्रीय पद्धति कार्ल मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत पर आधारित है।

इन पद्धतियों के अतिरिक्त साहित्य के इतिहास लेखन की कई और आधुनिक पद्धतियाँ हैं जिनमें रूपवादी, संरचनावादी, उत्तर संरचनावादी और उत्तर आधुनिकतावादी प्रमुख है।

उक्त सभी पद्धतियों में प्रथम चार पद्धतियां विशेष महत्वपूर्ण हैं जिन के आधार पर हिंदी साहित्य में विशेष काम हुआ है।

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