कवि स्वयम्भू | Kavi Svayambhu अपभ्रंश के प्रथम कवि का जीवन-परिचय, रचनाएं, उपाधियाँ, स्वयंभू का काल निर्धारण, स्वयम्भू का अर्थ आदि
स्वयम्भू : काल निर्धारण – अपभ्रंश के प्रथम कवि स्वयम्भू का जीवन-परिचय एवं रचनाएं
कवि स्वयंभू की जन्मतिथि के विषय में निश्चित ज्ञान नहीं है और नही अभी तक उनके जन्म स्थान, कुल परंपरा, कार्यस्थान, कार्य विधि तथा अन्य घटनाओं के बारे में कोई विशेष जानकारी प्राप्त हो पायी है।
स्वयंभू कृत पउमचरिउ में एक स्थान पर तथा रिट्ठणेमिचरिउ में दो स्थानों पर कुछ तिथियों, महीनों, नक्षत्रों का उल्लेख अवश्य मिलता है, परंतु कहीं भी वर्ष का उल्लेख नहीं होता है, अतः काल निर्णय करना अत्यंत कठिन है। पउमचरिउ तथा रिट्ठणेमिचरिउ में स्वयंभू ने भरत, व्यास, पिंगलाचार्य, इंद्राचार्य, भामह, दंडी, श्रीहर्ष, बाण, चतुर्मुख, रविषेण आदि पूर्वगामी कवियों की प्रशंसा की है, जिनमें से रविषेण सबसे अंतिम थे। रविषेण की कृति पद्म चरित्र का रचनाकाल ईस्वी सन् 676 से 677 में माना जाता है और स्वयम्भू ने स्वीकार किया है कि उन्होंने रविसेणारिय पसाएँ अर्थात रविषेणाचार्य के प्रसाद से रामकथा रूपी नदी का अवगाहन किया है। इससे स्वयम्भू का समय 676 से 677 के बाद का ही निश्चित होता है। यह स्वयम्भू के काल की पूर्व सीमा ठहरती है।
इस तरह स्वयंभू के परवर्ती कवियों ने स्वयंभू के प्रति कृतज्ञता प्रकट की है। ऐसे कवियों में पुष्पदंत कालक्रम में सबसे पहले हैं। उन्होंने अपने महापुराण में दो स्थानों पर स्वयंभू को बड़े आदर के साथ स्मरण किया है। पुष्पदंत के महापुराण की रचना 959- 60 ईसवी में प्रारंभ हुई, अतः स्वयंभू इस समय से पूर्व हो चुके थे, इसलिए स्वयंभू की उत्तर सीमा 959- 60 के आसपास ठहरती है। स्वयम्भू की पूर्व सीमा 676- 77 तथा उत्तर सीमा 959- 60 तक के 300 वर्षों के सुदीर्घ कालखंड में एक निश्चित समय निर्धारित करना अत्यंत दुष्कर कार्य है। एक अन्य मत के अनुसार स्वयंभू 783 ईसवी के आसपास वर्तमान थे।
कवि स्वयम्भू | Kavi Svayambhu का जीवन-परिचय
स्वयम्भू जैन मतावलम्बी थे।
इनके पिता का नाम मारुतदेव तथा माता का नाम पद्मिनी था।
काव्य कला का ज्ञान इन्होंने अपने पिता से ही लिया था।
स्वयम्भू ने अपने किसी पुत्र का उल्लेख नहीं किया है, किंतु त्रिभुवन को निर्विवाद रूप से उनका पुत्र माना जाता है।
जन्म स्थान के संबंध में कोई पुष्ट प्रमाण तो नहीं मिलता परंतु अंतः साक्ष्य के आधार पर कहा जा सकता है, कि स्वयंभू कर्नाटक प्रदेश के निवासी रहे होंगे। लेकिन उनकी भाषा से यह अनुमान लगाया जाता है, कि स्वयंभू का जन्म उत्तर भारत या मध्य भारत में हुआ होगा और बाद में वे दक्षिण गए होंगे। यह अनुमान महापंडित राहुल सांकृत्यायन के मत पर आधारित है।
कवि स्वयम्भू | Kavi Svayambhu की उपाधियाँ
त्रिभुवन ने उन्हें स्वयंभूदेव, कविराज, कविराज चक्रवर्तिन विद्वान और छंदस् चूड़ामणि आदि उपाधियों से अलंकृत किया है।
पउमचरिउ में स्वयंभू ने अपने आप को कविराज कहकर संबोधित किया है।
डॉ हरिवल्लभ चुन्नीलाल भयाणी ने इन्हें अपभ्रंश का कालिदास और डॉ राहुल सांकृत्यायन ने इन्हें अपभ्रंश का वाल्मीकि कहा है।
स्वयम्भू कवि की रचनाएं – अपभ्रंश के प्रथम कवि स्वयम्भू का जीवन-परिचय एवं रचनाएं
स्वयंभू की तीन कृतियां निर्विवाद रूप से स्वीकार की जाती हैं- पउमचरिउ (पद्मचरित्र), रिट्ठणेमिचरिउ तथा स्वयम्भू छंद।
पउमचरिउ–
पउमचरिउ में राम कथा है।
राम का एक पर्याय पद्म भी है, अतः स्वयंभू ने पद्मचरित्र नाम दिया।
कथा के अंत में राम को मुनींद्र से उपदेश ग्रहण कर निर्वाण प्राप्त करते हुए दिखाया गया है।
ऐसा करके कवि ने जैन धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करनी चाही है।
पउमचरिउ पांच कांड और 90 संधियों में विभाजित महाकाव्य है-
(1) विद्याधर कांड में 20,
(2) अयोध्या कांड में 22,
(3) सुंदरकांड में 14,
(4) युद्ध कांड में 21,
(5) उत्तरकांड में 13 संधियाँ हैं।
संधियाँ कडवकों में विभाजित है।
ग्रंथ में कुल 1269 कडवक है।
पउमचरिउ की 23वी और 46 वी में संधि के प्रारंभ में कवि ने पुनः मंगलाचरण लिखे हैं।
पउमचरिउ को स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवनस्वयंभू ने पूर्णता प्रदान की। इसकी 84 से 90 संधियाँ त्रिभुवन की रचना है।
रिट्ठणेमिचरिउ–
आकार की दृष्टि से यह ग्रंथ स्वयंभू के अन्य सभी ग्रंथों से विशाल है इसमें 18000 श्लोक तथा चार कांड और 120 संधियाँ हैं।
इसमें आयी कृष्ण तथा कौरव पांडव की कथा के कारण इसके रिट्ठणेमिचरिउ, हरिवंश पुराण, भारत पुराण आदि कई नाम मिलते हैं।
रिट्ठणेमिचरिउ को भी स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन ने पूर्ण किया।
स्वयंभू छंद–
इसमें 8 अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय के अंत में स्वयंभू छंद शब्द मिलता है।
ग्रंथ के प्रथम तीन अध्याय में प्राकृत छंदों तथा अंतिम पांच अध्यायों में अपभ्रंश के छंदों का विवेचन किया गया है।
इसके अतिरिक्त कुछ प्रमाणों के आधार पर सिरिपंचमी चरिउ तथा सुद्धयचरिय इनकी दो अन्य रचनाएं स्वीकार की जाती है।
दो अलग-अलग मतों के अनुसार स्वयंभू को एक व्याकरण ग्रंथ तथा एक अलंकार और कोश ग्रंथ का रचयिता भी कहा जाता है।
स्वयंभू के लिए प्रमुख कथन –
“हमारे इसी युग में नहीं, हिन्दी कविता के पांचो युगों (1-सिद्ध-सामन्त युग, 2-सूफी-युग, 3-भक्त-युग, 4-दरबारी-युग, 5-नव जागरण-युग) के जितने कवियों को हमने यहाँ संग्रहीत किया है, उनमें यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि स्वयंभू सबसे बड़ा कवि था। वस्तुतः वह भारत के एक दर्जन अमर कवियों में से एक था।” –डॉ.राहुल सांकृत्यायन
अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य – अपभ्रंश के प्रथम कवि स्वयम्भू का जीवन-परिचय एवं रचनाएं
डॉ रामकुमार वर्मा ने स्वयंभू को हिंदी का प्रथम कवि माना है।
स्वयम्भू ने अपनी भाषा को देसी भाषा कहां है।
स्वयम्भू ने चतुर्मुख को पद्धड़िया बंध का प्रवर्तक तथा श्रेष्ठ कवि कहा है।
पद्धरी 16 मात्रा का मात्रिक छंद है। इस छंद के नाम पर इस पद्धति पर लिखे जाने वाले काव्यों को पद्धड़िया बंध कहा गया है।
स्रोत–
महाकवि स्वयंभू- डॉ संकटा प्रसाद उपाध्याय
हिंदी काव्य धारा –डॉ राहुल सांकृत्यायन
पउमचरिउ (प्रस्तावना)- डॉ हरिवल्लभ चुन्नीलाल भयाणी
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मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem
मुस्लिम कवियों में कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem में आसक्त रसखान, रहीम, ताज बीवी, बेगम शीरी, शेख आलम, मौलाना आजाद अजीमाबादी, हजरत नफीस, मिया वाहिद अली, अहमद खां राणा, रशीद, मिया नजीर एवं जफर अली आदि हैं। आज हम जानेंगे मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम के बारे में।
कृष्ण के उदार, चंचल, माखनचोर, छलिया रूप का वर्णन अनगिनत कवियों ने किया है मध्यकालीन सगुण भक्ति के आराध्य देवताओं में भगवान श्री कृष्ण का स्थान सर्वोपरि है।
कन्हैया भारतीय पुराण और इतिहास दोनों में सर्वाधिक वर्णित भी हुए है जो विद्वान महाभारत को इतिहास की घटना मानते है, वे भारतीय इतिहास का सर्वाधिक प्रभावशाली व्यक्ति कृष्ण को ही ठहराते है।(1)
कान्हा के इसी रसिया, छलिया, प्रेमी तथा प्रभावशाली व्यक्तित्व ने ना केवल हिन्दु जाति को अपने मोहपाश में बंद किया वरन् मुस्लिम कवियों ने भी उनकी ‘लाम’ पर मुग्ध हो कर इस्लाम खोया है।
माखनचोर पर अपना सब कुछ वारने वाले ऐसे एक नहीं अनेक कवि हुए है।
कृष्ण के रूप सौन्दर्य का जादू केवल राधा रानी या गोपियों के सिर चढ़ कर बोला हो ऐसा नहीं है।
रूप सौन्दर्य और प्रेम पाश तो वो मय है जिसने मुस्लिम देवियों को भी प्रेम रस से सराबोर करके मदमस्त कर दिया है।
कृष्ण की ‘लाम’(2) पर अनेक कवियों ने अपने हृदय हारे है, तो अनेक कवियों ने अपना तन-मन दोनों न्यौछावर किया है।
‘लाम’ ने उनके अनुपम सौन्दर्य में चार चाँद लगाये है तो उनकी इस ‘लाम’ ने मुसलमान कवियों का इस्लाम ही छीन लिया है भूपाल की बेगम शीरी जिन्हें कृष्ण की इस ‘लाम’ ने काफिर बना दिया।
मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem : काफिर बनने की कहानी सुनते है उन्हीं की जुबानी
‘‘काफिर किया मुझको तिरी इस जुल्फ ने काफिर इस ‘लाम’ ने खोया तिरे, इस्लाम हमारा’’(3)
कृष्ण का रूप माधुर्य शीरी को ऐसा रास आया की वो उसके लिए काफिर हो गई।
ऐसी ही कृष्ण के प्रेम में पगी एक कवयित्री है ताज बेगम।
ताज बेगम के बारे में परस्पर अलग-अलग मत प्राप्त होते है आपके 1595(4) में वर्तमान होने का अनुमान है।
इनकी कविताओं में पंजाबी पुट तथा पंजाबी शब्दों की बाहुल्यता को देखते हुए मिश्रबन्धु उन्हें पंजाब अथवा आसपास की स्वीकृत करते हैं।
मिश्र बंधु विनोद में ताज के कई पद भी संकलित है।
एक जनश्रुति के अनुसार ताज दिल्ली की रहने वाली मुगल शहजादी थी।(5)
स्वामी पारसनाथ सरस्वती के आलेख के अनुसार ताज का पूरा नाम ‘ताज बीवी’ था और वे बादशाह शाहजहां की अत्यंत प्रिय बेगम थी लेकिन जितना प्रेम शाहजहाँ ताज से करते थे।
उससे कहीं ज्यादा प्रेम ताज से करती थी उन्होंने लिखा है-
सुनो दिजानी मांडे दिल की कहानी तुम दस्त ही बिकानी बदनामी भी सहूँगी मैं
देव पूजा ठानी हौ निवाज हूँ भूलानी, तजे कलमा कुरान सारे गुननि गहूँगी मै।
नंद के फरजंद! कुरबान ‘ताज’ सूरत पै हौ तो तुरकानी हिन्दुआनी है रहूँगी मै(6)
स्वामी पारसनाथ सरस्वती के ‘कल्याण’ में प्रकाशित आलेख में उक्त पद पंजाबी बाहुल्य शब्दावली युक्त प्राप्त होता है।
ताज
श्री बलदेव प्रसाद अग्रवाल के अनुसार ‘ताज’ करौली निवासी थी।
श्री अग्रवाल के अनुसार ताज नहा धोकर मंदिर में भगवान के नित्य दर्शन के पश्चात ही भोजन ग्रहण करती थी।
एक दिन वैष्णवों ने उन्हें मुसलमान होने के कारण विधर्मी मान, मंदिर में दर्शन करने से रोक दिया इससे ताज उस दिन निराहार रह मंदिर के आंगन में ही बैठी रही और कृष्ण के नाम का जाप करती रही।
जब रात हो गई तब ठाकुर जी स्वयं मनुष्य के रूप में, भोजन का थाल लेकर पधारे और कहने लगे तुझे आज थोड़ा सा भी प्रसाद नहीं मिला, ले अब खा।
कल प्रातः काल जब वैष्णव आवें तो उनसे कहना कि तुम लोगों ने मुझे कल ठाकुर जी के दर्शन और प्रसाद का सौभाग्य नहीं दिया।
इससे रात को ठाकुर जी स्वयं मुझे प्रसाद दे गये है और तुम लोगों के लिए संदेश भी दे गये हैं कि ताज को परम वैष्णव समझो।
इसके दर्शन और प्रसाद ग्रहण करने में रुकावट मत डालो।
प्रातःकाल जब वैष्णव आये तब ताज ने सारी घटना कह सुनाई ताज के सामने भोजन का थाल देखकर अत्यन्त चकित हुए वे सभी वैष्णव ताज के पैरों पर गिरकर क्षमा प्रार्थना करने लगे।
तब से ताज मंदिर में पहले दर्शन करती तथा सारे वैष्णव उसके बाद में दर्शन करते।(7)
‘दस्त की बिकानी, बदनामी भी सहूंगी मैं’
‘दस्त की बिकानी, बदनामी भी सहूंगी मैं’ कि घोषणा करने वाली ताज की तुलना मीरा से सहज ही की जा सकती है।
मीरा ने भी ‘लोक-लाज खोई’ कह कर तात्कालिक समाज की मानसिकता को उजागर किया है।
मीरां और ताज दोनों की कन्हैया की प्रेम दीवानी है।
एक ने लोक लाज खोई है तो दुसरी बदनामी सहने को तैयार है परन्तु मीरा को जहां अपनो से प्रताड़ित होना पड़ा है वहीं ताज को पीड़ा देने वाला सारा समाज है।
इसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों शामिल है।
मीरा की पीड़ा शायद इस कारण अधिक है क्योंकि उनको पीड़ा पहुँचाने का काम करने वाले उनके परिवार के ही लोग है।
इसलिए ये कष्ट उनके लिए भारी मानसिक आघात लिये हुए है।
मीरां को केवल परिजनों से ही संघर्ष करना पड़ा परन्तु ताज का संघर्ष मीरां से व्यापक है।
क्योंकि उसे तो घर और बाहर दोनों से संघर्ष करना पड़ा है।
तात्कालिक समाज में जब हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य अपनी चरम सीमा पर था उस समय इस तरह से किसी अन्य धर्म की उपासना करना वास्तव में अंगारों पर चलना था।
परिवार में परिजनों का विरोध और ताने सहना बाहर समाज के कटाक्ष और उपेक्षा का शिकार होना एक स्त्री के लिए कितना भयावह हो सकता है।
उसे तो केवल उसे भोगने वाली वो औरत ही बता सकती है।
कन्हैया के छैल छबीले रूप
ताज के पदों को पढ़ कहीं भी ऐसा आभाष नहीं होता कि उस सामाजिक, धार्मिक, मानसिक प्रताड़ता का रजकणांश भी विपरीत प्रभाव हुआ है।
हाँ ये जरुर कहा जा सकता है कि इस प्रताड़ना से उनका कान्हा के प्रति अनुराग और बढ़ता गया तथा काव्य में निखार आता गया है।
कन्हैया के छैल छबीले रूप पर अपना सब कुछ कुरबान करने वाली ताज उन्हें ही अपना साहब मानती है- छैल जो छबीला सब रंग में रंगीला बड़ा चित का अड़ीला सब देवताओं में न्यारा है। माल गले सोहै, नाक मोती सेत सो है, कान कुण्डल मनमोहे, मुकुट सीस धारा है।। दुष्ट जन मारे, संत जन रखवारे ‘ताज’ चित हितवारे प्रेम प्रीतिकार वारा है। नंन्दजू को प्यारा, जिन कंस को पछारा वृन्दावन वारा कृष्ण साहेब हमारा है।।
ताज के हृदय मे अपने बांके छैल छबीले कृष्ण कन्हैया के लिए कितनी आस्था है।
ये उनके पदो से सहज ही सामने आत है।
अपने प्राण प्यारे नंद दुलारे कृष्ण कन्हैया के प्रेम में बुत परस्ती भी करने को तैयार है।
चित का अड़ीला उनका गोपाल सब देवताओं में न्यारा है जिसके लिए ये मुगलानी हिन्दुआनी हो गई थी।
‘बदनामी भी सहूंगी मैं’ कि घोषणा करने वाली ताज ने वास्तव में कितने कष्ट सहे होंगे इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता है।
मुस्लिम कवियों के राधा-कृष्ण, सीता राम आदि के प्रति प्रेम से उन्हें किन कष्टों को सहन करना पड़ा होता।
इस बात का अनुमान आधुनिक रसखान (जिनका वास्तविक नाम ‘रशीद’ लुप्त हो गया जिनके नाम पर रायबरेली में मार्ग है) के कवि एवं लेखक पुत्र इफ्तिखार अहमद खां ‘राना’ से लेखक आलोचक डाॅ. रामप्रसाद मिश्र की बातचीत से लगाया जा सकता है।
‘राजा’ के अनुसार- उन्हें राम तुलसी प्रेमी होने के कारण कठिनाई होती है। फिर भी रहीम, रसखान, ताज बेगम, नजीर अकबराबादी इत्यादी की परम्परा जीवंत है।(8)
राधा के वल्लभ
जगत के खेवनहार श्रीहरि ने पापी से पापी पर भी अपनी कृपा की है और उन्हें इस संसार सागर से उबारा राधा के वल्लभ ताज के भी वल्लभ प्राण प्यारे प्रियतम हो गये है जो उनको इस संसार की मझधार से पार लगाने वाले है-
ध्रुव से, प्रहलाद, गज, ग्राह से अहिल्या देखि, सौरी और गीध थौ विभीषन जिन तारे हैं।
पापी अजामील, सूर तुलसी रैदास कहूँ, नानक, मलूक, ‘ताज’ हरिही के प्यारे हैं।
जगत की जीवन जहान बीच नाम सुन्यौ, राधा के वल्लभ, कृष्ण, वल्लभ हमारे हैं।(9)
शेख की कविताओं में भावों की उत्कृष्टता
ताज कृष्ण प्रेम में काफिर होने वाली पहली या आखिरी मुस्लिम औरत नहीं इनके अलावा शेख नामक रंगरेजिन भी है जो कृष्ण की भक्त थी।
ये आलम की पत्नी थी और कपड़े रंगने का काम किया करती थी।
आलम पहले ब्रह्मण थे परन्तु बाद में शेख से प्रेम होने के कारण मुस्लिम हो गये।
हुआ यूं की एक बार आलम ने अपनी पगड़ी शेख को रंगने के लिए दी तो उस पगड़ी के एक छोर मंे एक कागज का टुकड़ा बंधा हुआ था।
जिसमें दोहे का एक चरण लिखा हुआ था शेख ने उसी कागज पर दोहे को पूरा कर दिया और कागज वैसी ही वापिस बांध दिया और रंगी हुई पगड़ी आलम को दे दी।
अपने दोहे की पूर्ति देखकर आलम रंगरेजिन शेख की कला पर मोहित हो गया और दोनों में प्रेम हो गया फलस्वरूप आलम ने इस्लाम कबूल कर लिया शेख और आलम दोनों मिलकर कविताएं करते थे।
शेख की कविताओं में भावों की उत्कृष्टता विद्यमान है।
राधारानी जो सौन्दर्य वर्णन शेख ने किया है, उस उत्कृष्टता तक पहुंचने में बड़े बड़े कवि पीछे छूट गये है।
शेख उस अलौकिक अनुपम और शब्दातीत सौन्दर्य का जो शब्द चित्र रचा है वह कदाचित किसी साधारण कवि के वश कि बात नहीं है-
सनिचित चाहे जाकी किंकिनी की झंकार करत कलासी सोई गति जु विदेह की
शेख भनि आजू है सुफेरि नही काल्ह जैसी निकसी है राधे की निकाई निधि नेह की
फूल की सी आभा सब सोभा ले सकेलि धरी फलि ऐहै लाल भूलि जैसे सुधि गेह की
कोटि कवि पचै तऊ बारनिन पावै कवि बेसरि उतारे छवि बेसरि बेह की(10)
श्रीहरि से सहायता की गुहार
ताज कि तरह ही शेख को भी अपने बंशी बजैया, रास रचैया पार लगैया-कृष्ण कन्हैया पर अटूट विश्वास है कवयित्री श्रीहरि से सहायता की गुहार करती है-
‘सीता सत रखवारे तारा हूँ के गुनतारे तेरे हित गौतम के तिरियाऊ तरी है
हौ हूं दीनानाथ हौ अनाथ पति साथ बिनु सुनत अनाधिनि के नाथ सुधि करी है
डोले सुर आसन दुसासन की ओर देखि। अंचल के ऐंचत उधारी और धरी है।
एक तै अनेक अंग धाई संत सारी संग तरल तरंग भरी गंग सी है ढरी है।’(11)
सनातन धर्म के प्रति समर्पण : मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem
इस्लाम में अवतारवाद में विश्वास नहीं किया जाता है।
लेकिन उक्त पद में शेख ने कृष्ण को अनेक रूप स्वीकार किये है।
यहां ईश्वर के अनेक रूपों को स्वीकार करने यह सिद्ध हो जाता है कि शेख भले ही मुस्लिम हो लेकिन पूरी तरह से अपने आप को भारतीय मान्यताओं तथा सनातन धर्म के प्रति समर्पित कर लिया है।
चूंकि आलम और शेख रीतिकालीन कवि है इसलिए उनके काव्य पर रीतिकालीन छाप स्पष्ट देखी जा सकती है शेख के मुक्तकों में राधाकृष्ण के प्रेम और विरह के चित्र अधिक प्राप्त होते है।
इन्होंने स्थान-स्थान पर राधा के सौन्दर्य, उनके नाज-नखरे तथा वियोग की स्थिति को चित्रित किया है।
शेख का वर्णन बड़ा ही उम्दा किस्म का है।
काव्य के स्थान के अनुसार देखे तो निश्चित रूप से उन्हें उच्च स्थान दिया जा सकता है।
जो कदाचित् कुछ भक्तिकालीन कवियों को भी दुर्लभ है।
ऋतु वर्णन में भी शेख का काव्य उच्च कोटी का है-
‘‘घोर घटा उमड़ी चहूं ओर ते ऐसे में मान न की जे अजानी तू तो विलम्बति है बिन काज बड़े बूंदन आवत पानी
सेख कहै उठि मोहन पै चलि को सब रात कहोगी कहानी देखुरी ये ललिता सुलता अब तेऊ तमालन सो लपटानी’’(12)
उच्च कोटी के कवि शेख
शेख की तरह आलम भी उच्च कोटी के कवि थे कविताओं में प्रायः कृष्ण के हर रूप का वर्णन बड़ा ही हृदयहारी बन पड़ा है।
कृष्ण को साधने वाले अनेक कवियों में मौलाना आजाद आजीमाबादी का नाम बड़े आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है।
कृष्ण भक्ति से सराबोर इस कवि को कृष्ण से आगे कृष्ण से अलग कुछ सूझता ही नहीं।
इन्हें कृष्ण की बांसुरी में वो आग नजर आती है जो सारे जहां को रोशन किये हुए है।
ये प्रेम की ठण्डी आग है जिसमें कवि भी जल रहा है।
कन्हैया तो उनके हृदय में बसा हुआ है उसे खोजने के लिए काशी मथुरा जाने की दरकार नहीं है-
‘बजाने वाले के है करिश्में जो आप है महज बेखुदी में
न राग में है न रंग में है जो आग है उसकी बांसुरी में है
हुआ न गाफिल रही तलासी गया न मथुरा गया न काशी
मै क्यों कही की खाक उड़ता मेरा कन्हैया तो है मुझी में’(13)
रसखान : मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem
कृष्ण की जैसी भक्ति और काव्य रचना रसखान ने की है वह ऊँचाई विरले कवि ही प्राप्त कर सके हैं।
‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ के अनुसार रसखान दिल्ली में निवास करते थे।
उनकी प्रीति एक साहुकार के पुत्र से थी।
उनकी यह आसक्ति वैष्णव भक्तों के प्रोत्साहन से कृष्ण भक्ति में परिवर्तित हो गई।
वैष्णवों द्वारा प्रदत कृष्ण चित्र लिये ये दिल्ली से ब्रज प्रदेश पहुंचे।
कृष्ण दर्शन की लालसा में अनेक मंदिरों की खाक छानते रहे।
अंततः गोविन्द कुण्ड में श्री नाथ जी के मंदिर में भक्त वत्सल भगवान कृष्ण ने इन्हें दर्शन दिये।
तदुपरान्त स्वामी विट्ठलनाथ जी ने अपने मंदिर में रसखान को बुलाया और वहीं वे कृष्ण लीला गान करते हुऐ कृष्ण भक्ति में निष्णात हुए।
इनके जन्म और मृत्यु के बारे में पर्याप्त मतभेद विद्यमान है।
रसखान उस ‘अनिवार’ प्रेम पंथ के यात्री है जो कमल तन्तु से भी कोमल और तलवार की धार से भी तेज जितना ही सीधा उतना ही टेढ़ा है।
‘‘कमल तन्तु सौ क्षीणहर कठिन खड़ग को धार अति सूधो टेढो बहुर प्रेम पंथ अनिवार’’(15)
रसखान प्रेम का सुन्दर विस्तृत चित्रण करते हुए कहते है कि प्रेम वह नहीं है।
जिसमें दो मन मिलते है प्रेम वह है जिसमें दो शरीर एक हो जाए अर्थात् अपना शरीर अपना न होकर कृष्ण का हो जाये और कृष्ण का शरीर अपना हो जाये।
यही प्रेम की परिभाषा रसखान ने दी है-
‘‘दो मन इक होते सुन्यो पै वह प्रेम न आहि होई जबै इै तन इक सोई प्रेम कहाइ।’’(16)
रसखान का अद्वैत प्रेम
इस प्रकार रसखान ने प्रेम अद्वैत को स्वीकारा है।
जिसमें दो का कोई स्थान नहीं है। आपका कृष्ण प्रेम जगत विख्यात है कृष्ण के प्रेम में रसखान वो सब कुछ बनना चाहते है जिसका संबंध किसी ना किसी रूप में कृष्ण से रहा है।
रसखान का प्रेम निश्छल है निर्विकार है।
जिसमें केवल विशुद्ध अपनापा है लाग लपेट के लिए कोई स्थान नहीं है।
‘‘मानुष हौ तो वही रसखानि, बसौ ब्रज गोकुल गांव के ग्वारन।’’लिखकर रसखान ने अपनी इच्छाओं को जग जाहिर किया है।
जीवन के प्रत्येक रूप में वे श्रीकृष्ण का सामीप्य ही चाहते है।
गोपी बनकर गायों को वन-वन चराना चाहते है।
कृष्ण की मोरपंख का मुकुट और गुंज की माला धारण करना चाहते है।
वो श्री कृष्ण का हर स्वांग कर लेना चाहते है-
‘‘मोर पंख सिर उपर राखिहौ, गुंज की माला गरे पहिरौंगी ओढि पीताम्बर ले लकुटी बन गोधन ग्वारिन संग फिरोगी
भाव तो ओहि मेरो रसखानि, सो तेरे किये स्वांग करोंगी या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरान धरौंगी।’’(17)
मौलाना आजाद अजीमाबादी
कृष्ण की जिस बांसुरी में मौलाना आजाद अजीमाबादी को आग नजर आ रही थी।
वही बांसुरी रसखान की गोपियों के लिए सब कामों में बाधा पहुंचाती है।
कही वह सौतन की तरह जी सांसत में लाती है तो गोपिका जल का मटका तक नहीं भर पाती है।
उनके मन में यही होता है कि सारे बांस कट जाये ना रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी
‘‘जल की न घट गरै मग की न पग धरें घर की न कछु करै बैठी भरै साँसुरी एकै सुनि लौट गई एकै लोट पोट भई एक निके दृगन निकसि आये आँसुरी कहै रसनायक सो ब्रज वनितानि विधि बधिक कहाये हाय हुई कुल होंसुरी करिये उपाय बांस डारिये कटाय’’(18)
रसखान का साहित्यिक पक्ष
नहि उपजैगो बाँस नाहि बाजै फेरि बाँसुरी।
रसखान का साहित्यिक पक्ष बहुत ऊँचा है तो इनकी भक्ति भी उच्च कोटि की है।
यकीनन हिन्दी साहित्य का कृष्ण भक्ति काव्य रसखान के बिना अधूरा है।
कृष्ण की बाल लीला वर्णन की तुलना सूर के बाललीला वर्णन से सहज ही की जा सकती है-
धूरी भरे अति सोहत स्याम जू तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी
खेलत खात फिरे अंगना पग पैंजनियां कटि पीरी कछौटी
बा छवि को ‘रसखानि’ विलोकति बारत काम कला निज कोटी
काग के भाग बड़े सजनी हरि हाथ सौ ले गयो माखन रोटी(19)
धूल से भरे रसखान के बालकृष्ण किसी भी तरह से सूर के बाल गोपाल से कम नहीं है।
सिर पर बनी सुन्दर चोटी बताती है कि सूर के कृष्ण चोटी बढाने के लिए बार-बार दूध पीते है।
अपनी मैया से बार-बार पूछते है- ‘मैया कबहूं बढेगी चोटी पर अजहूं है छोटी’।
यह चोटी रसखान तक आते-आते बड़ी हो चुकी है।
उनके सुन्दर रूप पर वे रसखान कामदेव की करोड़ो कलाएं न्यौछावर करने को तैयार है।
रहीम की भाषाशैली : मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem
‘रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून पानी गये ना ऊबरे मोती मानस चून’’
ऐसा अमर काव्य रचने वाले अब्र्दुरहीम खानखाना बाबर के विश्वस्त साथी और अकबर के संरक्षक बैरम खां के पुत्र थे।
रहीम बहुभाषाविद् थे।
अरबी, फारसी, तुर्की, संस्कृत आदि भाषाओं पर रहीम का अच्छा अधिकार था।
रहीम को साहित्य का जितना ज्ञान था उतने ही कुशल वे सेनानायक भी थे।
उन्होंने कई युद्धों में भाग लिया और विजय प्राप्त की।
हिन्दी साहित्य की अमर निधि माने जाने वाले रहीम के दोहे आम जन में लोकोक्ति की तरह काम में लिये जाते है।
भक्ति और नीति का अमर काव्य रचने वाले रहीम ने युद्धों से समय निकाल कर साहित्य साधना की है।
कहा जाता है कि इनके पास अपार धन था दानी प्रवृत्ति होने के कारण सारा धन समाप्त हो गया।
फलस्वरूप इनका अंतिम समय बड़े कष्ट में बीता अमीरी में साथ देने वाले मित्रों ने मुँह मोड़ लिया लेकिन रहीम को इसका कोई दुःख नहीं था।
उन्हें तो बस अपने कृष्ण कन्हैा पर भरोसा था-
‘रहीम को ऊ का करै, ज्वारी चोर लबार जा के राखनहार है माखन चाखन हार।’(20)
रहीम को जुआरी चोर से कोई भय नहीं है।
उनके रखवाले तो स्वयं माखन चोर कृष्ण है।
रहीम को चकोर रूपी मन रात दिन कृष्ण रूपी चंद्रमा को निहारता है।
उनका मन ठीक उसी तरह से कृष्ण में रम चुका है।
जैसे चकोर का मन चाँद में लगता है-
‘‘तै रहीम मन अपनो कीनो चारो चकोर निसि बासर लाग्यो रहे कृष्ण चंद की ओर’’(21)
हजरत नफीस
हजरत नफीस को तो कन्हाई की आँखे और मुखड़ा इतना पसंद है कि बस उसे ही देखना चाहते है-
‘कन्हैया की आँखें, हिरण सी नसीली कन्हैया की शोखी, कली-सी रसीली’’
मिया वाहिद अली
मिया वाहिद अली को नंदलाल की ऐसी लगन लगी है कि वे दुनिया छोडने को उतारू है।
कृष्ण की मुस्कान, मुरली की तान, उनकी चाल कंचन की भाल धनुष जैसे सुन्दर नयनों पर वाहिद अपनी लगन लगाये रखना चाहता है-
‘‘सुन्दर सुजान पर मंद मुस्कान पर बांसुरी की तान पर ठौरन ठगी रहे
मूरति बिसाल पर कंचन की माल पर खजन सी चाल पर खौरन सजी रहे
भौंहे धनु मैनपर लोने जुग नैन पर प्रेम भरे बैन पर ‘वाहिद’ पगी रहे
चंचल से तन पर साँवरे बदन पर नंद के ललन पर लगन लगी रहे।’’(22)
मिया नजीर
आगरा के प्रसिद्ध कवि मिया नजीर का कृष्ण प्रेम बड़ा ही बेनजीर है।
मुरली की धुन ने उनको बेसुध किया।
कान्हा की बाँसुरी की धुन ऐसी है नर-नारी रिसी मुनी सब यह जयहरि जय हरि कह उठे है-
‘‘कितने तो मुरली धुन से हो गये धुनी कितनों की खुधि बिसर गयी, जिस जिसने धुन सुनी क्या नर से लेकर नारिया, क्यारिसी और मुनी
तब कहने वाले कह उठे, जय जय हरि हरि ऐसी बजाई कृष्ण कन्हाइया ने बांसुरी’’(23)
मौलाना जफर अली साहब
सच्चिदानंद स्वरूप श्रीकृष्ण की महिमा, उदारता तथा रूपमाधुरी के वर्णन अगणित मुस्लमान कवियों ने भी किया है।
आधुनिक मुस्लिम कवियों ने भी अनेक ऐसे कवि हुये हैं जिनको श्रीकृष्ण के प्रति अथाह प्रेम है।
अनेक मुसलमान गायक वादक और अभिनेता बिना किसी भेदभाव के कृष्ण के पुजारी है।
पंजाब के मौलाना जफर अली साहब की आरजू भी अब सुन ले-
‘‘अगर कृष्ण की तालीम आम हो जाये तो काम फितनगारो का तमाम हो जाये
मिट जाये ब्राह्मण और शेख का झगड़ा जमाना दोनो घरों का गुलाम हो जाये
विदेशी की लड़ाई की छज्जी उड़ जाए जहाँ पर तेग दुदुम का तमाम हो जाये
वतन की खाक से जर्रा बन जाए चांद बुलंद इस कदर उसका मुकाम हो जाये
है इस तराने में बांसुरी की गूंज खुदा करे वह मकबूल आम हो जाए’’(24)
अंततः
कृष्ण भक्ति में रमने वाले ये कवि तो कुछ उदाहरण मात्र है।
इनके अलावा ऐसे सैकड़ों कवि और कवयित्रियां है जिन्होंने कृष्ण से प्रेम किया है।
हिन्दी साहित्य के खजाने में अपना हिस्सा दान किया है।
ऐसे लेखक और कवि वर्तमान संकीर्ण और धार्मिक उन्माद के वातावरण में समन्वय स्थापित करने का काम करते है।
इन कवियों ने बिना किसी लाग लपेट के कृष्ण को अपना आराध्य माना है।
उन्मुक्त भाव से कृष्ण भक्ति करके धार्मिक सहिष्णुता का परिचय दिया है।
आधुनिक हिन्दी साहित्य के जनक भारतेन्दु हरिश्चंद्र का यह कथन उचित प्रतीत होता है कि- ‘‘इन मुस्लमान हरिजजन पै कोटिक हिन्दु वारियै’’
संदर्भ ग्रंथ-
(1)हिन्दी साहित्य का इतिहास, संपादक- डाॅ. नगेन्द्र, प्रकाशक-मयूर पेपर बेक्स, नोएडा (2)‘लाम’ (ل ) उर्दू का एक अक्षर होता है। जिसकी शक्ल इस प्रकार होती है की पहले एक सीधी खड़ी लकीर खींचकर उसके नीचे के सीरे को बांये तरफ गोलाई के साथ उपर थोड़ा ले जाकर छोड़ दिया जाता है। उसकी शक्ल लगभग बालों की लटों (ل ) की जैसी हो जाती है। (3)मुस्लिम कवियों का कृष्ण काव्य, बलदेव प्रसाद अग्रवाल, प्रकाशक- बलदेव प्रसाद अग्रवाल एंड संस अजमेर (4)शिव सिंह सरोज के अनुसार 1652 वि., मिश्र बंधु विनोद के देवीप्रसाद द्वारा अनुमानित 1700 वि. (1643 ई.) का उल्लेख मिलता है। (5)सानुबंध- मासिक उन्नाव, दिस. 1987 ई. के अंक में बनवारीलाल वैश्य कृत लेख ‘ताज का कृष्णानुराग’
(6)गीताप्रेस-गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण’पत्रिका का अंक भाग संख्या 28 (www.ramkumarsingh.com से प्राप्त आलेख के अनुसार) (7)मुस्लिम कवियों का कृष्णकाव्य- बलदेव प्रसाद अग्रवाल एंड संस, अजमेर (8)हिन्दी साहित्य का वस्तुनिष्ठ इतिहास- डाॅ. रामप्रसाद मिश्र, प्रकाशक- सतसाहित्य भंडार, नई दिल्ली। (9)मुस्लिम कवियों का कृष्णकाव्य- बलदेव प्रसाद अग्रवाल, प्रकाशक- बलदेव प्रसाद अग्रवाल एण्ड संस, अजमेर। (10)वही (11)वही (12)वही (13)मुस्लिम कवियों की कृष्ण भक्ति- स्वामी पारसनाथ तिवाड़ी, कल्याण पत्रिका, गीताप्रेस गोरखपुर (14)दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता (15)रसखान रचनावली- विद्यानिवास मिश्र, प्रकाशक- वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली (16)वही (17)वही (18)वही (19)वही (20)हिन्दी साहित्य का वस्तुनिष्ठ इतिहास- डाॅ. रामप्रसाद मिश्र, सतसाहित्य भंडार, नई दिल्ली। (21)वही (22)स्वामी पारसनाथ सरस्वती- कल्याण पत्रिका, गीताप्रेस गोरखपुर (23)वही (24)वही