आचार्य रामचन्द्र शुक्ल Aachrya Ramchandra Shukla
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल Aachrya Ramchandra Shukla जीवन-परिचय साहित्य परिचय निबंध संग्रह आलोचना ग्रंथ भाषा शैली हिंदी साहित्य काल विभाजन
जीवन-परिचय
जन्म- 4 अक्टूबर, 1884
जन्म भूमि – अगोना, बस्ती ज़िला, उत्तर प्रदेश
मृत्यु -1941 ई.
अभिभावक- पं. चंद्रबली शुक्ल
कर्म भूमि- वाराणसी
कर्म क्षेत्र- साहित्यकार, निबंध सम्राट, आलोचक, लेखक
साहित्य परिचय
रचनाएं
कहानी
ग्याहर वर्ष का समय,1903 ई (सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित)
आलोचना ग्रंथ
जायसी ग्रंथावली 1925
भ्रमरगीतसार 1926
हिंदी साहित्य का इतिहास,1929
काव्य में रहस्यवाद-1929
रस मीमांसा (सैद्धान्तिक समीक्षा)
महाकवि सूरदास (व्यावहारिक समीक्षा)
विश्व प्रपंच (दर्शन)
गोस्वामी तुलसीदास,1933
साधारणीकरण और व्यक्ति वैचित्र्यवाद
रसात्मक बोध के विविध रूप
निबंध
चिंतामणि (चार खण्ड)
इनके समस्त निबंधों को चिंतामणि के दो भागों में संकलित किया गया था चिंतामणि का प्रथम भाग 1939 वह द्वितीय भाग 1945 ईसवी में प्रकाशित हुआ था। वर्तमान में इसके चार खंड उपलब्ध हैं।
चिंतामणि के प्रथम भाग में संकलित निबंध (सत्रह)
भाव या मनोविकार
उत्साह
श्रद्धा- भक्ति
करुणा
लज्जा और ग्लानि
लोभ और प्रीति
घृणा
ईर्ष्या
भय
क्रोध
कविता क्या है
भारतेंदु हरिश्चंद्र
तुलसी का भक्ति मार्ग
‘मानस’ की धर्म भूमि
काव्य में लोकमंगल की साधनावस्था
साधारणीकरण और व्यक्ति वैचित्र्यवाद (आलोचना विद्या)
रसात्मक बोध के विविध रूप (आलोचना विद्या)
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भाग दो में
प्राकृतिक दृश्य
काव्य में रहस्यवाद
काव्य में अभिव्यंजनावाद
चिंतामणि को पहले ‘विचार-विथि’ नाम से प्रकाशित करवाया गया था।
चिंतामणि रचना के लिए इनको ‘देव पुरस्कार’ प्राप्त हुआ था।
ये हिंदी में ‘कलात्मक निबंधों’ के जनम दाता माने जाते हैं।
इनको ‘निबंध सम्राट’ के नाम से जाना जाता है।
चिंतामणि भाग-3 (1983 ई.)
इसके संपादक डॉ. नामवरसिंह हैं। इस कृति में कुल 21 निबंध है।
चिंतामणि भाग-4 (2002 ई.)
इसके संपादक डॉ. कुसुम चतुर्वेदी और डॉ. ओमप्रकाश सिंह है। इस रचना में कुल 47 निबंध है।
इतिहास ग्रंथ
हिंदी साहित्य का इतिहास
(सच्चे अर्थों में हिंदी साहित्य का सर्वप्रथम परंपरागत इतिहास)
रचनाकाल- 1929 ई.
प्रकाशक- नागरी प्रचारणी सभा, काशी
जनवरी, 1929 में यह पुस्तक ‘नागरी प्रचारणी सभा, काशी’ द्वारा प्रकाशित ग्रंथ ‘हिंदी शब्दसागर की भूमिका’ (‘हिंदी साहित्य का विकास’ नाम से) के रूप में प्रकाशित हुई थी।
इसी वर्ष के मध्य में उस भूमिका के आरंभ एवं अंत में बहुत सी बातें बढ़ाकर आचार्य शुक्ल ने इसे स्वतंत्र पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया।
1940 ईस्वी में इसका परिवर्तित एवं संशोधित संस्करण प्रकाशित करवाया गया।
(हिंदी शब्द सागर के निर्माण में निम्न तीन विद्वानों का योगदान महत्त्वपूर्ण माना जाता है- बाबू श्यामसुंदर दास, रामचंद्र शुक्ल, रामचंद्र वर्मा)
‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ ग्रंथ की प्रमुख विशेषताएं : आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जीवन-परिचय
सच्चे अर्थों में हिंदी साहित्य का इतिहास लेखन की परंपरा का विकास आचार्य रामचंद्र शुक्ल के द्वारा ही किया गया।
इस पुस्तक में लगभग 1000 कवियों के जीवन चरित्र का विवेचन किया गया है|
कवियों की संख्या की अपेक्षा उनके साहित्यिक मूल्यांकन को महत्व प्रदान किया गया है अर्थात हिंदी साहित्य के विकास में विशेष योगदान देने वाले कवियों को ही इसमें शामिल किया गया है कम महत्व वाले कवियों को इसमें जगह नहीं मिली है।
इसमें प्रत्येक काल या शाखा की सामान्य प्रवृत्तियों का वर्णन कर लेने के बाद उससे संबंध प्रमुख कवियों का वर्णन किया गया है।
कवियों के काव्य निरुपण में आधुनिक समालोचनात्मक दृष्टिकोण को अपनाया गया है।
कवियों एवं लेखकों की रचना शैली का वैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है।
उस युग में आने वाले अन्य कवियों का विवरण उसके बाद फुटकल खाते में दिया गया है।
केदारनाथ पाठक ने इस रचना के लेखन में शुक्ल जी को अपूर्व सहयोग प्रदान किया था।
इस रचना के लेखन में शुक्ल जी ने निम्न रचनाओं से विशेष साहित्य सामग्री ग्रहण की थी-
मिश्रबंधु विनोद- मिश्रबंधु
हिंदी कोविद् रत्नमाला- श्यामसुंदरदास
कविता कौमुदी- रामनरेश त्रिपाठी
ब्रजमाधुरी सार- वियोगी हरी
काल विभाजन : आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जीवन-परिचय
आचार्य शुक्ल ने हिंदी साहित्य के 900 वर्षों के इतिहास को निम्न चार सुस्पष्ट काल खंडों में वर्गीकृत किया है, जो आज तक भी लगभग सभी इतिहासकारों द्वारा मान्य किया जा रहा है, यथा-
वीरगाथाकाल (आदिकाल)- वि.स. 1050 से वि.स. 1375 तक ( 993-1318 ई.)
वीरगाथाकाल के दो भाग-
(I) अपभ्रंस काल या प्राकृताभाषा हिंदी काल (1050-1200 वि.)
(II) वीरगाथाकाल (1200-1375 वि.)
पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल)- वि.स. 1375 से वि.स. 1700 (1318-1643 ई)
उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल)- वि.स. 1700 से वि.स. 1900 तक (1643-1843 ई.)
गद्य काल (आधुनिक काल)-वि.स. 1900 सें वि.स 1984 (1843-1927 ई.)
रामचंद्र शुक्ल ने वीरगाथा काल के नामकरण के लिए निम्न 12 ग्रंथों का आधार लिया था-
विजयपाल रासो
हम्मीर रासो
पृथ्वीराज रासो
परमाल रासो
बिसलदेव रासो
खुमान रासो
कीर्ति लता
कीर्तिपताका
विद्यापति की पदावली
जयचंदप्रकाश
जयमयंकजसचंद्रिका
खुसरो की पहेलियां
विशेष तथ्य : आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जीवन-परिचय
सन् 1909 से 1910 ई. के लगभग वे ‘हिन्दी शब्द सागर’ के सम्पादन में सहायक के रूप में काशी आ गये, यहीं पर काशी नागरी प्रचारिणी सभा के विभिन्न कार्यों को करते हुए उनकी प्रतिभा चमकी।
‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ का सम्पादन भी उन्होंने कुछ दिनों तक किया था।
सन् 1937 ई. में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष नियुक्त हुए एवं इस पद पर रहते हुए ही सन् 1941 ई. में उनकी श्वास के दौरे में हृदय गति बन्द हो जाने से मृत्यु हो गई।
शुक्ल जी ने हिंदी साहित्य का पहला क्रमबद्ध इतिहास तैयार किया और साहित्यक आलोचना की पद्धति विकसित की।
चिंतन और विश्लेषण परक निबंधकार के रूप में भी उनका स्थान शीर्ष पर है।
कविता, नाटक, कहानी आदि सर्जनात्मक विद्याओं में भी उनका उल्लेखनीय योगदान है।
गोस्वामी तुलसीदास, जायसी ग्रंथावली एवं भ्रमरगीत सार इन तीनों ग्रंथों की भूमिका त्रिवेणी में संकलित है।
त्रिवेणी में तीन महाकवियों सूरदास तुलसीदास और जायसी की समीक्षाएँ प्रस्तुत की हैं।
‘काव्य में रहस्यवाद’ इनकी सर्वप्रथम सैद्धांतिक आलोचना मानी जाती है।
‘रस मीमांसा’ रचना में इन्होंने सिद्धांत के विभिन्न पक्षों की नई व्याख्या प्रस्तुत की है।
जिन्होंने आलोचना के तीनों रूपों सैद्धांतिक, व्यावहारिक एवं ऐतिहासिक पर अपनी लेखनी चलाई है।
शुक्ल ने भूषण की भाषा की आलोचना की है।
“काव्य में रहस्यवाद” निबंध पर इन्हें हिंदुस्तानी एकेडमी से 500 रुपये का पुरस्कार।
‘चिंतामणि’ पर हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा 1200 रुपये का मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ था।
“काव्य में रहस्यवाद” निबंध पर इन्हें हिन्दुस्तानी अकादमी से 500 रुपये का तथा चिंतामणि पर हिन्दी साहित्य सम्मलेन, प्रयाग द्वारा 1200 रुपये का मंगला प्रशाद पारितोषिक प्राप्त हुआ था।
शुक्ल ने जोसेफ़ एडिसन के ‘प्लेजर्स ऑफ़ इमेजिनेशन’ का ‘कल्पना का आनन्द’ नाम से एवं राखलदास वन्द्योपाध्याय के ‘शशांक’ उपन्यास का भी हिन्दी में रोचक अनुवाद किया।
विशेष तथ्य
रामचन्द्र शुक्ल ने ‘जायसी ग्रन्थावली’ तथा ‘बुद्धचरित’ की भूमिका में क्रमश: अवधी तथा ब्रजभाषा का भाषा-शास्त्रीय विवेचन करते हुए उनका स्वरूप भी स्पष्ट किया है।
उन्होंने सैद्धान्तिक समीक्षा पर लिखा, जो उनकी मृत्यु के पश्चात् संकलित होकर ‘रस मीमांसा’ नाम की पुस्तक में विद्यमान है तथा तुलसी, जायसी की ग्रन्थावलियों एवं ‘भ्रमर गीतसार’ की भूमिका में लम्बी व्यावहारिक समीक्षाएँ लिखीं, जिनमें से दो ‘गोस्वामी तुलसीदास ‘ तथा ‘महाकवि सूरदास ‘ अलग से पुस्तक रूप में भी प्रकाशित हैं।
दर्शन के क्षेत्र में भी उनकी ‘विश्व प्रपंच’ पुस्तक उपलब्ध है। यह पुस्तक ‘रिडल ऑफ़ दि युनिवर्स’ का अनुवाद है, पर उसकी लम्बी भूमिका शुक्ल जी के द्वारा किया गया मौलिक प्रयास है।
उन्होंने ‘आलम्बनत्व धर्म का साधारणीकरण’ माना।
काव्य शैली के क्षेत्र में उनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थापना ‘बिम्ब ग्रहण’ को श्रेष्ठ मानने सम्बन्धी है।
शुक्ल ने काव्य को कर्मयोग एवं ज्ञानयोग के समकक्ष रखते हुए ‘भावयोग’ कहा, जो मनुष्य के हृदय को मुक्तावस्था में पहुँचाता है।
वे कविताएँ भी लिखते थे। उनका एक काव्य संग्रह ‘मधुस्रोत’ है।
शुक्ल जी ‘हिंदी शब्दसागर’ के सहायक संपादक नियुक्त किए गए। ‘हिंदी शब्दसागर’ के प्रधान संपादक श्यामसुंदर दास थे। ‘हिंदी शब्दसागर’ का प्रकाशन 11 खंडों में हुआ।
शुक्ल जी ने ‘शब्दसागर की भूमिका’ के लिए ‘हिंदी साहित्य का विकास’ लिखा उसी तरह श्यामसुंदर दास ने ‘हिंदी भाषा का विकास’ लिखा। श्यामसुंदर दास की यह इच्छा थी कि दोनों भूमिकाएँ संयुक्त रूप से प्रकाशित हों और लेखक के रूप में दोनों का नाम छपे। शुक्ल जी ने इसका घोर विरोध किया। यह कहा जाता है कि सभा में लाठी के बल पर रात में अयोध्यासिंह उपाध्याय ने जाकर इतिहास पर शुक्ल जी का नाम छपवाया।