भक्तिकाल के उदय संबंधी मत
विभिन्न विद्वानों की दृष्टिकोण से भक्तिकाल के उदय संबंधी मत
1. ईसाईयत की देन – जॉर्ज ग्रियर्सन
2. अरबों की देन – डॉ. ताराचंद
3. बाह्य आक्रमण की प्रतिक्रिया का परिणाम – रामचंद्र शुक्ल
कथन ― “देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिंदू जनता के हृदय में… पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शरणागति में जाने के अलावा दूसरा मार्ग ही क्या था?” ― हिंदी साहित्य का इतिहास
शुक्ल जी की भक्ति डॉ रामकुमार वर्मा ने भी भक्ति आंदोलन को बाह्य आक्रमण की प्रतिक्रिया का परिणाम माना है। उन्होंने लिखा है कि ―
“हिंदुओं में मुसलमानों से लोहा लेने की शक्ति नहीं थी……… इस असहाय अवस्था में उनके पास ईश्वर से प्रार्थना करने के अतिरिक्त कोई साधन नहीं था।“
4. भारतीय परंपरा का स्वतःस्फूर्त विकास – हजारी प्रसाद द्विवेदी
कथन ― “अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है। बौद्ध तत्त्ववाद बौद्ध धर्म लोकधर्म का रूप ग्रहण कर रहा था, जिसका निश्चित चिह्न हम हिंदी-साहित्य में पाते हैं।”
5. भक्तिकाव्य पराजय की क्षति का पूरक-बाबू गुलाबराय
कथन ― “पराजय की मनोवृत्ति मनुष्य को या तो विषय-विलास में लीन करती है या अपनी आध्यात्मिक श्रेष्ठता के प्रदर्शन में क्षतिपूर्ति ढूँढ़ने की प्रेरणा देती है।”
राष्ट्रव्यापी स्वरूप : भक्तिकाल – उदय संबंधी मत
भक्ति आंदोलन का स्वरूप राष्ट्रव्यापी था दक्षिण में अलवार (ये वैष्णव संत थे इनकी कुल संख्या 12 थी, इनमें आंडाल/आंदाल नाम की एक महिला संत भी थी) नयनार (ये शैव संत थे और भगवान शिव को अपना आराध्य मानते थे। इनकी कुल संख्या 63 थी)
आचार्यों द्वारा,
महाराष्ट्र में वारकरी संप्रदाय (ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम),
उत्तर भारत में रामानंद, वल्लभाचार्य,
बंगाल में चैतन्य,
असम में शंकरदेव,
उड़ीसा में पंचसखा (बलराम, अनंददास, यशोवंतदास, जगन्नाथदास, अच्युतानंद) के द्वारा भक्ति आंदोलन को स्थापित किया तथा आगे बढ़ाया गया।
भक्ति-साहित्य का उद्गम स्थान –
द्रविड़ (दक्षिण भारत) ― ‘भक्ति द्राविड उपजी लाए रामानंद।’
दक्षिण भारत से भक्ति को उत्तर भारत लाने का श्रेय रामानंद को है।
भक्ति काल को हिंदी साहित्य का स्वर्णकाल कहने वाले विद्वान ― जॉर्ज ग्रियर्सन।
भक्ति काल को हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग कहने वाले विद्वान ― बाबू श्यामसुन्दरदास
कथन ― “जिस युग में कबीर, जायसी, सूर और तुलसी जैसे सुप्रसिद्ध कवियों और महात्माओं की दिव्य वाणी उनके अन्तःकरण से निकलकर देश के कोने-कोने में फैली थी, उसे साहित्य के इतिहास में सामान्यतया भक्तियुग कहते हैं। निश्चय ही यह हिन्दी साहित्य का स्वर्णयुग है।”
इस संदर्भ में डॉ. गंगाप्रसाद पाण्डेय का यह मत भी द्रष्टव्य है –
“यदि भक्तिकाव्य को ही साहित्य मान लिया जाये तो यह काल हिन्दी साहित्य का तथा सारे विश्व साहित्य का निश्चय ही स्वर्णयुग है ।”