दिविक रमेश

दिविक रमेश : आधुनिक काल के साहित्यकार

आधुनिक काल के साहित्यकार दिविक रमेश की जीवनी, संपूर्ण साहित्य, भाषा शैली, कविताएं, आलोचना, संपादन, सम्मान एवं पुरस्कार आदि की पूरी जानकारी

दिविक रमेश की जीवनी

दिविक रमेश जी का वास्तविक नाम रमेश शर्मा है।

आपका जन्म 28 अगस्त, 1946 को किराड़ी, दिल्ली में हुआ था।

विधाएँ : कविता, बाल-साहित्य, शोध एवं आलोचना

दिविक रमेश का साहित्य

दिविक रमेश की कविताएं

गेहूँ घर आया है

खुली आँखों में आकाश

रास्ते के बीच

छोटा-सा हस्तक्षेप

हल्दी-चावल और अन्य कविताएँ

बाँचो लिखी इबारत

वह भी आदमी तो होता है

फूल तब भी खिला होता

दिविक रमेश के काव्य नाटक

खण्ड-खण्ड अग्नि

दिविक रमेश द्वारा आलोचना

नए कवियों के काव्य-शिल्प सिद्धांत

संवाद भी विवाद भी

कविता के बीच से

साक्षात त्रिलोचन

दिविक रमेश के बाल साहित्य

101 बाल कविताएँ

समझदार हाथी : समझदार चींटी (136 कविताएँ)

हँसे जानवर हो हो हो

कबूतरों की रेल

बोलती डिबिया

देशभक्त डाकू

बादलों के दरवाजे

शेर की पीठ पर

ओह पापा

गोपाल भांड के किस्से

त से तेनालीराम

ब से बीरबल

बल्लूहाथी का बालघर (बाल-नाटक)

दिविक रमेश द्वारा संपादन

निषेध के बाद

हिन्दी कहानी का समकालीन परिवेश

बालकृष्ण भट्ट

प्रतापनारायण मिश्र

आंसांबल

दिशाबोध

दूसरा दिविक

दिविक रमेश के सम्मान एवं पुरस्कार

गिरिजाकुमार माथुर स्मृति पुरस्कार

सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार, दिल्ली

हिंदी अकादमी का साहित्यिक कृति पुरस्कार

साहित्यकार सम्मान बाल तथा साहित्य पुरस्कार

एन.सी.ई.आर.टी. का राष्ट्रीय बाल साहित्य पुरस्कार

बालकनजी बारी इंटरनेशनल का राष्ट्रीय नेहरू बाल साहित्य अवार्ड

इंडो-रशियन लिटरेरी क्लब, नई दिल्ली का सम्मान

अनुवाद के लिए भारतीय अनुवाद परिषद, दिल्ली का द्विवागीश पुरस्कार

श्रीमती रतन शर्मा बाल-साहित्य पुरस्कार

दिविक रमेश जी की सबसे प्रसिद्ध कविता ‘माँ गाँव में है’

माँ गाँव में है (काव्य)

चाहता था
आ बसे माँ भी
यहाँ, इस शहर में।
पर माँ चाहती थी
आए गाँव भी थोड़ा साथ में
जो न शहर को मंजूर था न मुझे ही।

न आ सका गाँव
न आ सकी माँ ही
शहर में।
और गाँव
मैं क्या करता जाकर!
पर देखता हूँ
कुछ गाँव तो आज भी ज़रूर है
देह के किसी भीतरी भाग में
इधर उधर छिटका, थोड़ा थोड़ा चिपका।

माँ आती
बिना किए घोषणा
तो थोड़ा बहुत ही सही
गाँव तो आता ही न
शहर में।
पर कैसे आता वह खुला खुला दालान, आंगन
जहाँ बैठ चारपाई पर
माँ बतियाती है
भीत के उस ओर खड़ी चाची से, बहुओं से।
करवाती है मालिश
पड़ोस की रामवती से।

सुस्ता लेती हैं जहाँ
धूप का सबसे खूबसूरत रूप ओढ़कर
किसी लोक गीत की ओट में।
आने को तो
कहाँ आ पाती हैं वे चर्चाएँ भी
जिनमें आज भी मौजूद हैं खेत, पैर, कुएँ और धान्ने।
बावजूद कट जाने के कॉलोनियाँ
खड़ी हैं जो कतार में अगले चुनाव की
नियमित होने को।
और वे तमाम पेड़ भी
जिनके पास
आज भी इतिहास है
अपनी छायाओं के।

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