हिन्दी साहित्य विभिन्न कालखंडों के नामकरण

हिन्दी साहित्य कालखंड नामकरण

कालखंड नामकरण एवं हिन्दी साहित्य काल विभाजन तथा हिंदी साहित्य में प्रचलित काल विभाजन और नामकरण की संपूर्ण जानकारी | हिन्दी साहित्य काल विभाजन एवं कालखंड नामकरण | काल विभाजन और नामकरण की जानकारी | Hindi Sahitya | Kaalkhand | Kaal Vibhajan | Naamkaran

Hindi Sahitya | Kaalkhand | Kaal Vibhajan | Naamkaran

हिन्दी साहित्य के काल-विभाजन को लेकर विद्वानों में मतभेद है,

लेकिन यह मतभेद अधिक गहरा नहीं है मतभेद केवल हिन्दी साहित्य के आरम्भ को लेकर है।

जिसमें मुख्य रुप से दो वर्ग सामने आते हैं पहला वर्ग वह है जो हिंदी साहित्य का प्रारंभ सातवीं शताब्दी ईस्वी से मानता है

दूसरा वर्ग वह है जो हिंदी साहित्य का प्रारंभ दसवीं शताब्दी ईस्वी से स्वीकार करता है।

सातवीं शताब्दी ईस्वी से दसवीं शताब्दी ईस्वी तक का साहित्य अपभ्रंश भाषा में है और अपभ्रंश से ही हिन्दी भाषा का विकास हुआ है।

इसलिए यदि इस कालखंड के भाषा साहित्य एवं साहित्यिक चेतना को यदि समझ लिया जाए तो हिंदी साहित्य की मूल चेतना को समझने में आसानी रहेगी

हिन्दी भाषा एवं साहित्य की मूल चेतना को जानने के लिए इस कालखण्ड की भाषा के स्वरुप एवं साहित्य-धारा को समझना अति आवश्यक है।

इसीलिए पति पर विद्वानों ने अपनी सरकार को भी हिंदी में शामिल कर लिया है और वे हिंदी साहित्य का प्रारंभ सातवीं शताब्दी ईस्वी से मानते हैं जिस प्रकार हिंदी साहित्य के काल विभाजन में न्यूनाधिक मतभेद है

हिन्दी साहित्य काल विभाजन एवं कालखंड नामकरण | काल विभाजन और नामकरण की जानकारी | Hindi Sahitya | Kaalkhand | Kaal Vibhajan | Naamkaran
हिन्दी साहित्य कालखंड नामकरण

उसी प्रकार इसके नामकरण में भी मतभेद है यह मतभेद मुख्यत: दसवीं शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी तक के

आरम्भिक कालखंड (आदिकाल) और सत्रहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी तक के कालखण्ड (रीतिकाल) के नामकरण को लेकर ही अधिक मतभेद है।
हिंदी साहित्य के विभिन्न काल खंडों का नामकरण विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने तर्कानुसार किया है जो निम्नलिखित प्रकार से है।

(अ) दसवी शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी तक के हिन्दी साहित्य कालखंड नामकरण

 ग्रियर्सन – चारण काल

मिश्रबंधु – प्रारंभिक काल

रामचंद्र शुक्ल – वीरगाथा काल

विश्वनाथ प्रसाद मिश्र – वीर काल

महावीर प्रसाद दिवेदी – बीजवपन काल

हजारी प्रसाद द्विवेदी – आदिकाल

राहुल संकृत्यायन – सिद्ध-सामन्त काल

रामकुमार वर्मा – संधि काल और चारण काल

श्यामसुंदर दास – अपभ्रंस काल/वीरकाल

चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ – अपभ्रंस काल

धीरेंद्र वर्मा – अपभ्रंस काल

हरीश – उत्तर अपभ्रंस काल

बच्चन सिंह – अपभ्रंस काल: जातिय साहित्य का उदय

गणपति चंद्र गुप्त – प्रारंभिक काल/शुन्य काल

पृथ्वीनाथ कमल ‘कुलश्रेष्ठ’ – अंधकार काल

रामशंकर शुक्ल – जयकाव्य काल

रामखिलावन पाण्डेय – संक्रमण काल

हरिश्चंद्र वर्मा – संक्रमण काल

मोहन अवस्थी – आधार काल

शम्भुनाथ सिंह – प्राचीन काल

वासुदेव सिंह – उद्भव काल

रामप्रसाद मिश्र – संक्रांति काल

शैलेष जैदी – आविर्भाव काल

चारण काल-

सर्वप्रथम ग्रियर्सन ने हिन्दी साहित्येतिहास का काल विभाजन प्रस्तुत किया

और हिंदी साहित्येतिहास के आरम्भिक काल का नामकरण ‘चारणकाल’ किया है,

परंतु इस नामकरण के पीछे वह कोई ठोस प्रमाण नही दे पाये।

ग्रियर्सन ने चारण काल का प्रारंभ 643 ईसवी से स्वीकार किया है

जबकि विद्वानों के अनुसार 1000 ईसवी तक चारणों की कोई रचना उपलब्ध नहीं होती है

चारणों की जो रचनाएं उपलब्ध होती है वह 1000 ईसवी के बाद की है।

अतः यह नामकरण उपयुक्त नहीं है।

प्रारम्भिक काल-हिन्दी साहित्य कालखंड नामकरण

मिश्रबन्धुओं ने 643 ईसवी से 1387 ईसवी तक के काल को ‘प्रारम्भिक काल’ नाम से अभिहित किया है।

यह नाम किसी साहित्यिक प्रवृत्ति का द्योतक नही है।

यह एक सामान्य संज्ञा है जो हिन्दी भाषा के प्रारम्भ को बताती है।

अत: यह नाम भी तर्कसंगत नही है।

वीरगाथाकाल : हिन्दी साहित्य कालखंड नामकरण

आ. रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास का काल विभाजन करते हुए संवत् 1050 से 1375 विक्रमी तक के कालखंड को हिंदी साहित्य का पहला कालखंड स्वीकार करते हुए हिंदी साहित्य का प्रारंभ संवत् 1000 विक्रमी में स्वीकार किया है

तथा इस कालखंड को ‘वीरगाथा काल’ नाम दिया है।

अपने मत के समर्थन में उन्होंने कहा है-

“आदिकाल की दीर्घ परम्परा के बीच प्रथम डेढ़-दो सौ वर्षों के भीतर तो रचना की किसी विशेष प्रवृत्ति का निश्चय नहीं हो पाता है – धर्म, नीति, श्रृन्गार, वीर सब प्रकार की रचनाएँ दोहों में मिलती है। इस अनिर्दिष्ट लोक-प्रवृत्ति के उपरान्त जब से मुसलमानों की चढ़ाइयाँ आरंभ होती है तब से हम हिन्दी साहित्य की प्रवृत्ति विशेष रूप में बँधती हुई पाते है। राजाश्रित कवि और चारण जिस प्रकार रीति, श्रृन्गार आदि के फुटकल दोहे राजसभा में सुनाया करते थे, उसी प्रकार अपने आश्रयदाता राजाओं के पराक्रम पूर्ण चरितों या गाथाओं का भी वर्णन किया करते थे। यह प्रबन्ध परम्परा ‘रासो’ के नाम से पाई जाती है, जिसे लक्ष्य करके इस काल को हमने ‘वीरगाथा काल’ कहा है।”

शुक्लजी ने इस युग का नामकरण करने के लिए निम्नलिखित बारह ग्रन्थों को आधार बनाया है-
1. विजयपाल रासो
2. हम्मीर रासो
3. कीर्तिलता
4. कीर्तिपताका
5. खुमान रासो
6. बीसलदेव रासो
7. पृथ्वीराज रासो
8. जयचंद प्रकाश
9. जयमयंक जसचन्द्रिका
10. परमाल रासो
11. खुसरो की पहेलियाँ
12. विद्यापति की पदावली

हिन्दी साहित्य : कालखंड नामकरण

जिन बारह रचनाओं के आधार पर शुक्ल जी ने नामकरण किया है उनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है।

हम्मीर रासो, जयचंद्र प्रकाश और जयमयंक जसचन्द्रिका तो नोटिस मात्र ही है।

खुसरो की पहेलियाँ और विद्यापति की पदावली भी वीरगाथात्मक नही है।

परमाल रासो या आल्हाखंड के मूल का आज कही पता नही लगा है।

बीसलदेव रासो और खुमाण रासो भी नये शोधों के आधार पर सोलहवीं शताब्दी में रचित माने गए हैं इसी प्रकार प्रसिद्ध महाकाव्य पृथ्वीराज रासो को भी अर्द्धप्रामाणिक मान लिया गया है।

इसके अतिरिक्त इस काल में केवल वीर काव्य ही नही बल्कि धार्मिक, श्रृंगारिक और लौकिक साहित्य भी प्रचूर मात्रा में रचा गया।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने उन रचनाओं को अप्रामाणिक सिद्ध करते हुए ‘वीरगाथाकाल’ नामकरण को निरर्थक सिद्ध किया है।

सिद्ध सामंत काल

सामाजिक जीवन पर सिद्धों के तथा राजनीतिक जीवन पर सामंतों के वर्चस्व के कारण राहुल सांकृत्यायन ने इस काल का नामकरण ‘सिद्ध सामन्त काल’ किया है।

इस कालखंड के कवियों ने अपने आश्रयदाता सामंतों को प्रसन्न करने के लिए उनका यशोगान किया है तथा सामाजिक जीवन पर दृष्टि डालें तो समाज सिद्ध मत से प्रभावित है।

इस नामकरण पर विद्वानों का मतैक्य नहीं है।

नामकरण से तत्कालीन राजनीतिक वातावरण का ज्ञान होता है, परंतु किसी साहित्यिक प्रवृत्ति का पता नहीं चलता है।
इसके साथ ही नाथ पंथियों का हठयोगिक साहित्य, खुसरो का लौकिक साहित्य विद्यापति की पदावली तथा अन्य साहित्यिक प्रवृत्तियों का इसमें समावेश नहीं होता है अतः यह नाम भी उपयुक्त नहीं है।

बीजवपन काल

भाषा की प्रारंभिक दृष्टि को देखते हुए आ. महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने इस काल का नामकरण ‘बीजवपन काल’ किया है।

परंतु यह नाम भी उपयुक्त नहीं है।

इस नाम से यह आभास होता है कि उस समय साहित्यिक प्रवृत्तियाँ शैशव में थी,

जबकि ऐसा नही है साहित्य उस युग में भी प्रौढ़ता को प्राप्त या अंत: यह नाम उचित नहीं है।

वीरकाल

आ. रामचन्द्र शुक्ल से प्रभावित होकर आ. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र जी ने इस काल का नाम ‘वीरकाल’ किया है।

वास्तव में मिश्रा जी ने इसमें किसी नवीन तथ्य का उद्घाटन नहीं किया है बल्कि यह नाम आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा सुझाए गए वीरगाथा काल नाम का ही परिवर्तित रूप है, अंत: यह नाम भी समीचीन नही है।

सन्धि एवं चारण काल

डॉ. रामकुमार वर्मा ने हिंदी साहित्य के प्रथम कालखंड को दो खण्डों मे विभाजित कर ‘सन्धिकाल’ एवं ‘चारण काल’ नाम दिया है।

इस नामकरण को दो भागों में बाँटने के पीछ कारण था।

संधि काल दो भाषाओं की संधि का काल था

तथा चारणकाल चारण जाति के कवियों द्वारा राजाओं की यशोगाथा को प्रकट करता है

उसमें तत्काीन राजाओ के शौर्य, वीरता एवं साहस का वर्णन है।

उनके जीवन प्रसंगों को अतिशयोक्तिपूर्ण बनाकर वर्णन करना है।

किसी जाति विशेष के नाम पर साहित्य में उस काल का नामकरण उचित नहीं अत: यह नामकरण भी ठीक नहीं है।

अपभ्रंश काल

चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’, श्यामसुंदर दास, धीरेंद्र वर्मा, हरीश, बच्चन सिंह आदि ने हिन्दी साहित्य के प्रथम काल को अपभ्रंश काल के नाम से सम्बोधित किया है।

उन्होंने बताया कि हिन्दी की प्रारम्भिक स्थिति अपभ्रंश भाषा के साहित्य से शुरू होती है,

इसलिए अपभ्रंश काल कहना उचित है ।

आदिकाल

आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने इस काल के साहित्य को अधिकांशतः संदिग्ध और अप्रामाणिक मानते हुए भी उसमें दो विशेषताओं को रेखांकित किया।

नवीन ताजगी और अपूर्व तेजस्विता।

इन दोनों विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए इस काल का नाम उन्होंने ‘आदिकाल’ रखा।

अपने इस मत को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है कि- “वस्तुत: हिन्दी का आदिकाल शब्द एक प्रकार की भ्रामक धारणा की सृष्टि करता है और श्रोता के चित्त में यह भाव पैदा करता है कि यह काल के आदिम मनोभावापन परम्पराविनिर्मुक्त काव्य रूढ़ियों से अछूते साहित्य का काल है। यह ठीक नहीं है यह काल बहुत अधिक परम्परा प्रेमी, रूढ़िग्रस्त और सचेत कवियों का काल है।”

अतः आदिकाल ना किसी एक परंपरा का सूचक ना होकर परंपरा के विकास का सूचक है तथा अपने अंदर सिद्ध, नाथ, रसों, जैन तथा लौकिक एवं फुटकर साहित्य को भी समाहित कर लेता है। यह नाम भाषा और काव्य रूपों के आदि स्वरूप को भी प्रकट करने वाला है अतः हिंदी साहित्य के प्रथम कालखंड के लिए ‘आदिकाल’ नाम ही सर्वाधिक उपयुक्त एवं सर्वमान्य है

(ब) चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक के कालखंड नामकरण

चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक के कालखण्ड में भक्ति की प्रवृत्ति को देखते हुए आ. रामचन्द्र शुक्ल जी ने सं. 1375 से लेकर 1700 वि. तक के कालखण्ड को पूर्व मध्यकाल की संज्ञा से अभिहित किया है।

आलोच्य युग के साहित्य में भक्ति की मुख्य प्रवृत्ति को देखते हुए आ. शुक्ल ने इस कालावधि का नामकरण ‘भक्तिकाल’ भी किया है।

‘भक्तिकाल’ नाम को परवर्ती सभी विद्वानों ने स्वीकार किया है और आज भी भक्तिकाल’ नामकरण सर्वमान्य है।

(स) सत्रहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी तक के कालखण्ड (रीतिकाल) के नामकरण :-

आलोच्य काल के नामकरण को लेकर भी विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है विभिन्न विद्वानों ने अपने अपने तर्कों के आधार पर उक्त कालखंड के विभिन्न नामकरण किए हैं जो निम्नलिखित प्रकार से हैं-

अलंकृतकाल – मिश्रबन्धु

रीतिकाल – आ. रामचन्द्र शुक्ल

कलाकाल – रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल

श्रृंगार काल – पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र

अलंकृतकाल

इस काल की कविता में अलंकारों की प्रधानता को देखते हुए मिश्र बंधुओं ने इसे अलंकृत काल कहा है।

मिश्रबन्धुओं ने इस युग का नामकरण करते हुए कहा है कि – “रीतिकालीन कवियों” ने जितने आग्रह के साथ रचना शैली को अलंकृत करने का प्रयास किया है. उतना अन्य किसी भी काल के कवियों ने नहीं।

इस प्रवृत्ति के कारण यह अलंकृतकाल है।

इस काल को अलंकृतकाल कहने का दूसरा कारण यह है कि इस काल के कवियों ने अलंकार निरूपक ग्रन्थों के लेखन में विशेष रूचि प्रदर्शित की।

परंतु इस काल को ‘अलंकृतकाल’ नाम देना उचित नहीं है क्योंकि यह कविता केवल अलंकृत ही नहीं है इतर काव्यांगों को भी इसमें यथोचित स्थान प्राप्त रहा है। अलंकरण की प्रवृत्ति इस काल की विशेष प्रवृत्ति नहीं है। यह प्रवृत्ति तो हिन्दी के आदिकाल से लेकर आज तक चली आ रही है। दूसरे यह नामकरण कविता के केवल बहिरंग पक्ष का सूचक है। इससे कविता के अंतरंग पक्ष, भाव एवं रस की अवहेलना होती है। आलोच्य काल के कवियों ने अलंकारों की अपेक्षा रस पर अधिक बल दिया है। इसके अतिरिक्त अलंकृतकाल नाम को स्वीकार कर लेने से इस काल की विशेष प्रवृत्ति श्रृंगार और शास्त्रीयता की पूर्ण उपेक्षा हो जाती है।

कलाकाल

रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल’ ने इस काल में सामाजिक सांस्कृतिक तथा साहित्यिक पक्ष में कला वैशिष्ट्य को ध्यान में रखते हुए आलोच्य काल को ‘कलाकाल’ नाम दिया है।

उनका कहना है कि “मुगल सम्राट शाहजहाँ का सम्पूर्ण शासन काल कला वेष्टित था। इस युग में एक ओर स्थापत्य कला का चरम बिन्दु ताजमहल के रूप में ‘काल के गाल का अश्रू’ बनकर प्रकट हुआ तो दूसरी ओर हिन्दी कविता भी कलात्मकता से संयुक्त हुई। इस काल के कवियों ने विषय की अपेक्षा शैली की ओर अधिक ध्यान दिया। उनकी कविता में चित्रकला का भी योग हुए बिना न रह सका। अत:एवं यह कलाकाल है।”

डॉ रमा शंकर शुक्ल ‘रसाल’ द्वारा सुझाए गए कलाकाल नाम से भी मिश्र बंधुओं द्वारा सुझाए गए अलंकृत काल नाम की तरह ही कविता के बाह्य पक्ष की विशेषता का ही बोध होता है और कविता का आंतरिक पक्ष उपेक्षित रह जाता है तथा इस युग की व्यापक श्रृंगारिक चेतना और शास्त्रीयता की पूर्ण अवहेलना हो जाती है।

श्रृंगारकाल

पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इस काल मे श्रृंगार रस की प्रधानता को ध्यान में रखकर इस काल को को ‘श्रृंगारकाल’ की उपमा दी है।

परंतु यह नाम भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि रीतिकालीन कवियों ने श्रृंगार के अतिरिक्त अन्य रसों की कविता भी लिखी है।

श्रृगारिकता के साथ-साथ आलंकारिकता और शास्त्रीयता इस काल की कविता के विशेष गुण हैं भक्तिपरक, नीतिपरक रचनाएँ भी इस युग में लिखी गई है।

इस युग के कवियों का उद्देश्य तो अपने आश्रयदाताओं को प्रसन्न कर अर्थोपार्जन करना था अत: यह नामकरण उचित नहीं है।

रीतिकाल

मूर्धन्य विद्वान आ. रामचन्द्र शुक्ल जी ने एक परम्परा की प्रवृति के आधार पर इस युग का नामकरण ‘रीतिकाल’ किया है।

उनका मत है कि- “इन रीतिग्रन्थों” के कर्ता भावुक, सहृदय और निपुण कवि थे।

उनका उद्देश्य कविता करना था, न कि काव्यांगो का शास्त्रीय पद्धति पर निरुपण करना।

अत: उनके द्वारा बड़ा भारी कार्य यह हुआ कि रसों (विशेषतः श्रृंगार रस) और अलंकारों के बहुत ही सरस और हृदयग्राही उदाहरण अत्यन्त प्रचूर परिमाण में प्राप्त हुए।”

अलंकृत काल

शुक्लजी के इस नामकरण का आधार इस काल में रीतिग्रन्थों और रीति ग्रन्थकारों की सुदीर्घ परम्परा है।

इस नाम को सभी परवर्ती सभी विद्वानों ने लगभग एकमत से स्वीकार किया है।

‘रीतिकाल’ नाम की सार्थकता को स्पष्ट करते हुए डॉ० भगीरथ मिश्र ने ‘रीतिकाल’ नामकरण का अनुमोदन करते हुए कहा है-

“इस युग के नाम के सम्बन्ध में मतभेद मिलता है।

मिश्रबन्धु इसको ‘अलंकृत काल’ कहते हैं।

आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र इसे श्रृंगार काल’ नाम से अभिहित करते हैं तथा डॉ नगेन्द्र इसे रीतियुग कहने के पक्ष में हैं।

प्रत्येक विद्वान के अपने-अपने तर्क हैं और उस आधार पर इन नामों का औचित्य भी ठहरता है।

अलंकार की प्रधान प्रवृत्ति के कारण इसका अलंकृत काल नाम जहाँ औचित्य रखत है, वहीं श्रृंगारिक रचना की प्रधानता के कारण इसे शृंगार-काल कहा जा सकता है।

 

परन्तु उस युग के समग्र काव्य ध्यानपूर्वक देखने पर हमें लगता है कि न तो अलंकरण ही स्वच्छंद है और न श्रृंगार वर्णन ही।

पर ये दोनों एक ही परिपाटी पर चलते हैं रीति में बँधे हैं।

अलंकार के विपरीत उस युग में निरलंकृत भक्ति व रस काव्य भी कम नहीं है और श्रृंगार के विपरीत बीर, नीति और भक्ति काव्य बहुत प्रचुर मात्रा में मिलता है।

पर यह समग्र काव्य अपनी-अपनी परिपाटी का पालन करते हुए लिखा गया है।

चाहे वह भक्ति, बीर, नीति, शृंगार कोई भी काव्य क्यों न हों, एक रीतिबद्धता इस युग में देखने को मिलती है।

बीर काव्य युद्ध वर्णन की पद्धति को अपनाकर चलता अथवा काव्यशास्त्रीय लक्षणों का आधार ग्रहण किए है।

रीतिकाल

इसी प्रकार निर्गुण भक्ति-काव्य विभिन्न अंगों में विभाजित है।

कृष्ण-भक्ति-काव्य रागों या अष्टायाम-पूजा या लीला-पद्धति में ढलकर आया है,

इतना ही नहीं इस युग के काव्य की प्रमुख विशेषता रीतिबद्धता है

ऐसी दशा में इस युग का नाम रीति-युग ही स्वीकार करना अधिक उपयुक्त होगा।

इस नाम से उस युग के समग्र काव्य का स्वरूप स्पश्ट हो जाता है

और यह रीतिबद्धता की विशेषता चेतन या अचेतन रूप में उस युग की समस्त-काव्य-धाराओं पर लागू होती है।

इसलिए मेरे विचार से रीतियुग नाम देना ही उचित है।

“इस प्रकार ‘रीतिकाल’ नामकरण अधिक युक्तियुक्त, सार्थक एवंम् समीचीन है।

(द) 19वीं शताब्दी से अब तक के कालखंड नामकरण

यद्यपि प्रत्येक काल अपने पूर्व काल से अधिक आधुनिक होता है तथापि गद्य का आविर्भाव ही इस आलोच्य काल की सबसे बड़ी विशेषता है।

संवत् 1900 से आरम्भ हुए आधुनिक काल में गद्य का विकास इस काल की सबसे महत्वपूर्ण घटना और आधुनिकता का सूचक है।

यद्यपि इस काल में कविता के क्षेत्र में भी विविध नवीन प्रवृत्तियों का विकास हुआ है,

किंतु जैसा विकास गद्य के विभिन्न अंगों का हुआ है, वैसा कविता का नहीं हो सका है।

को आ. रामचन्द्र शुक्लजी ने गद्य के पूर्ण विकास एवं प्रधानता को देखते हुए ‘गद्य काल’ नाम दिया है।

आ. हजारीप्रसाद द्विवेदी प्रेस के उद्भव को ही आधुनिकता का वाहक मानते है।

श्यामसुन्दर दास इसे ‘नवीन विकास का युग’ कहते है।

हिन्दी साहित्य : कालखंड नामकरण

‘आधुनिक काल’ को आ. शुक्ल जी ने तीन चरणों में विभक्त किया है और इन्हें प्रथम उत्थान, द्वितीय उत्थान तथा तृतीय उत्थान कहा है।

अधिकांश आधुनिक विद्वानो ने इस काल के प्रमुख साहित्यकारों के अवदान के आधार पर इसके उपभागों के नामकरण ‘भारतेन्दु युग’ अथवा ‘पुनर्जागरण काल’, ‘द्विवेदी युग अथवा ‘जागरण-सुधार काल’ आदि किये हैं।

इसके बाद के कालखण्डों को भी विद्वानों ने ‘छायावादी युग’ तथा ‘छायावादोत्तर युग’ में प्रगति, प्रयोग काल, नवलेखन काल नाम दिये हैं।

आधुनिक काल की प्रगति इतनी विशाल और बहुमुखी है कि उसे किसी विशिष्ट वाद या प्रवृत्ति की संकुचित सीमा में नहीं बाँधा जा सकता।

सर्वमान्य मत के अनुसार आलोच्य काल का नाम आधुनिक काल ही उपयुक्त है।

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हिन्दी साहित्य काल विभाजन

हिन्दी साहित्य काल विभाजन एवं नामकरण

साहित्येतिहास की आवश्यकता

हिन्दी साहित्य काल विभाजन एवं कालखण्डों के नामकरण तथा हिंदी साहित्य में प्रचलित काल विभाजन और नामकरण की संपूर्ण जानकारी

“प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य-परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ‘साहित्य का इतिहास’ कहलाता है।” (आ.शुक्ल)

हिन्दी साहित्य काल विभाजन
हिन्दी साहित्य काल विभाजन

पूर्व काल में घटित घटनाओं, तथ्यों का विवेचन, विश्लेषण एवं मूल्यांकन इतिहास में किया जाता है, और साहित्य में मानव-मन एवं जातीय जीवन की सुखात्मक दुखात्मक ललित भावनाओं की अभिव्यक्ति इस प्रकार की जाती है कि वे भाव सर्वसामान्य के भाव बन जाते हैं।

इससे स्पष्ट होता है कि, विभिन्न परिस्थितियों अनुसार परिवर्तित होने वाली जनता की सहज चित्तवृत्तियों की अभिव्यक्ति साहित्य में की जाती है जिससे साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता रहता है।

विभिन्न परिस्थितियों के आलोक में साहित्य के इसी परिवर्तनशील प्रवृत्ति और साहित्य में अंतर्भूत भावाभिव्यक्ति को प्रस्तुत करना ही साहित्येतिहास कहलाता है।

हिन्दी साहित्य काल विभाजन

आज साहित्य का अध्ययन एवं विश्लेषण केवल साहित्य और साहित्यकार को केंद्र में रखकर नहीं किया जा सकता बल्कि साहित्य का भावपक्ष, कलापक्ष, युगीन परिवेश, युगीन चेतना, साहित्यकार की प्रतिभा, प्रवृत्ति आदि का भी विवेचन विश्लेषण किया जाना चाहिए।

अतः कहा जा सकता है कि साहित्येतिहास का उद्देश्य ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्में साहित्य को वस्तु, कला पक्ष, भावपक्ष, चेतना तथा लक्ष्य की दृष्टि से स्पष्ट करना है साहित्य का बहुविध विकास, साहित्य में अभिव्यक्त मानव जीवन की जटिलता, ऐतिहासिक तथ्यों की खोज, अनेक सम्यक अनुशीलन के लिए साहित्येतिहास की आवश्यकता होती है।

 

“किसी भाषा में उस साहित्य का इतिहास लिखा जाना उस साहित्य की समृद्धि का परिणाम है। साहित्य के इतिहास का लिखा जाना अपनी साहित्यिक निधि की चिंता करना एवं उन साहित्यिकों के प्रति न्याय एवं कृतज्ञता प्रकट करना है जिन्होंने हमारे जातीय एवं राष्ट्रीय जीवन को प्रभावित किया है साहित्य के इतिहास को वह भित्तिचित्र समझिए जिसमें साहित्यिकों के आकृति-चित्र ही नहीं होते, हृदयचित्र और मस्तिष्क-चित्र भी होते हैं। इसके लिए निपुण चित्रकार की आवश्यकता होती है।” (विश्वंभर मानव)

हिन्दी साहित्य का काल विभाजन

जॉर्ज ग्रियर्सन द्वारा किया गया काल – विभाजन :

चारणकाल (700 इ. से 1300 इ. तक)

19 शती का धार्मिक पुनर्जागरण

जयसी की प्रेम कविता

कृष्ण संप्रदाय

मुगल दरबार

तुलसीदास

प्रेमकाव्य

तुलसीदास के अन्य परवर्ती

18 वीं शताब्दी

कंपनी के शासन में हिंदुस्तान

विक्टोरिया के शासन में हिंदुस्तान

इस काल विभाजन में एकरूपता का अभाव है। यह काल विभाजन कहीं कवियों के नाम पर; कहीं शासकों के नाम पर; कहीं शासन तंत्र के नाम पर किया गया है।

इस काल विभाजन में साहित्यिक प्रवृत्तियों और साहित्यिक चेतना का सर्वथा अभाव है।

अनेकानेक त्रुटियां होने के बाद भी काल विभाजन का प्रथम प्रयास होने के कारण ग्रियर्सन का काल विभाजन सराहनीय एवं उपयोगी तथा परवर्ती साहित्येतिहासकारों के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हुआ है।

मिश्र बंधुओं द्वारा किया गया काल-विभाजन :

मिश्र बंधुओं ने अपने साहित्येतिहास ग्रंथ ‘मिश्र बंधु विनोद’ (1913) में नया काल विभाजन प्रस्तुत किया।

यह काल विभाजन भी सर्वथा दोष मुक्त नहीं है, इस काल विभाजन में वैज्ञानिकता का अभाव है परंतु यह काल विभाजन ग्रियर्सन के काल विभाजन से कहीं अधिक प्रौढ़ और विकसित है-

प्रारंभिक काल (सं. 700 से 1444 विक्रमी तक)

माध्यमिक काल (सं. 1445 से 1680 विक्रमी तक)

अलंकृत काल (सं. 1681 से 1889 विक्रमी तक)

परिवर्तन काल (सं. 1890 से 1925 विक्रमी तक)

वर्तमान काल (सं. 1926 से अब तक)

आ. रामचंद्र शुक्ल द्वारा किया गया काल विभाजन :

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ (1929) में हिंदी साहित्य के इतिहास का नवीन काल विभाजन प्रस्तुत किया, यह काल विभाजन पूर्ववर्ती काल विभाजन से अधिक सरल, सुबोध और श्रेष्ठ है।

आचार्य शुक्ल द्वारा किया गया काल विभाजन वर्तमान समय तक सर्वमान्य है-

आदिकाल (वीरगाथा काल, सं. 1050 से 1375 विक्रमी तक)

पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल, सं. 1375 से 1700 विक्रमी तक)

उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल, सं. 1700 से 1900 विक्रमी तक)

आधुनिक काल (गद्य काल, सं. 1900 से आज तक)

डॉ. रामकुमार वर्मा द्वारा किया गया काल-विभाजन :

डॉ रामकुमार वर्मा ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ में काल विभाजन हेतु आचार्य शुक्ल का अनुसरण करते हुए अपना काल विभाजन प्रस्तुत किया है

कालविभाजन के अंतिम चार खंड तो आ. शुक्ल के समान ही है, लेकिन वीरगाथा काल को चारण काल नाम देकर इसके पूर्व एक संधिकाल और जोडकर हिंदी साहित्य का आरंभ सं. 700 से मानते हुए काल-विभाजन प्रस्तुत किया है।

संधिकाल (सं. 750 ते 1000 वि. तक)

चारण काल (सं. 1000 से 1375 वि. तक)

भक्तिकाल (सं. 1375 से 1700 वि. तक)

रीतिकाल (सं. 1700 से 1900 वि. तक)

आधुनिक काल (सं. 1900 से अबतक)

आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा किया गया काल-विभाजन:

आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आ. शुक्ल जी के काल-विभाजन को ही स्वीकार कर केवल संवत् के स्थान पर ईस्वी सन् का प्रयोग किया है।

द्विवेदीजी ने पूरी शताब्दी को काल विभाजन का आधार बनाकर वीरगाथा की अपेक्षा आदिकाल नाम दिया है।

आदिकाल (सन् 1000 ई. से 1400 ई. तक)

पूर्व मध्यकाल (सन् 1400 ई. से 1700 ई. तक)

उत्तर मध्यकाल (सन् 1700 ई. से 1900 ई. तक)

आधुनिक काल (सन् 1900 ई. से अब तक)

बाबू श्यामसुन्दर दास द्वारा किया गया काल-विभाजन:

बाबू श्यामसुन्दर दास द्वारा किया गया काल-विभाजन आ. शुक्ल के काल-विभाजन से साम्य रखता है।

दोनों के काल विभाजन में कोई अधिक भिन्नता नहीं है का काल-विभाजन इस प्रकार है-

आदिकाल (वीरगाथा का युग संवत् 1000 से संवत् 1400 तक)

पूर्व मध्य युग (भक्ति काल युग, संवत् 1400 से संवत् 1700 तक)

उत्तर मध्ययुग (रीति ग्रन्थों का युग, संवत् 1700 से, संवत् 1900 तक)

आधुनिक युग (नवीन विकास का युग, संवत् 1900 से अब तक)

डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त द्वारा किया गया काल-विभाजन:

डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने अपने ग्रन्थ ‘हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास’ में शुक्ल जी के काल विभाजन का ही समर्थन किया है। उनका काल-विभाजन इस प्रकार है-

प्रारम्भिक काल (1184 – 1350 ई.)

पूर्व मध्यकाल (1350 – 1600 ई.)

उत्तर मध्यकाल (1600 – 1857 ई.)

धुनिक काल (1857 ई. अब तक)

डॉ. नगेंद्र द्वारा किया गया काल-विभाजन :

आदिकाल (7 वी सदी के मध्य से 14 वीं शती के मध्यतक)

भक्तिकाल (14 वीं सदी के मध्य से 17 वीं सदी के मध्यतक)

रीतिकाल (17 वीं सदी के मध्य से 19 वीं शती के मध्यतक)

आधुनिक काल (19वीं सदी के मध्य से अब तक)

आधुनिक काल का उप विभाजन

(अ) पुनर्जागरण काल (भारतेन्दु काल) 1877 – 1900 ई.

(ब) जागरण-सुधार काल (द्विवेदी काल) 1900 – 1918 ई.

(स) छायावाद काल 1918 – 1938 ई.

(द) छायावादोत्तर काल –

प्रगति-प्रयोग काल- 1938 – 1953 ई.

नवलेखन काल 1953 ई. से अब तक।

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