आदिकाल में गद्य साहित्य aadikal ka gadya sahitya
काव्य रचना के साथ-साथ आदिकाल में गद्य साहित्य रचना के भी प्रयास लक्षित होते हैं जिनमें कुवलयमाला, राउलवेल, उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण, वर्ण रत्नाकर उल्लेखनीय रचनाएं हैं।
कुवलयमाला — उद्योतनसूरि (9 वीं सदी)
“कुवलयमाला कथा में ऐसे प्रसंग हैं, जिनमें बोलचाल की तात्कालिक भाषा के नमूने मिलते हैं।”— आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
राउलवेल — रोड कवि 10 वीं शती
राउलवेल का अर्थ — राजकुल का विलास
वेल/ वेलि का अर्थ = श्रृंगार व कीर्ति के सहारे ऊपर की ओर उठने वाली काव्य रूपी लता।
संपादन:- डाॅ• हरिबल्लभ चुन्नीलाल भयाणी
प्रकाशन ‘भारतीय विद्या पत्रिका’ से
यह एक शिलांकित कृति है।
मध्यप्रदेश के (मालवा क्षेत्र) धार जिले से प्राप्त हुई है और वर्तमान में मुम्बई के ‘प्रिन्स ऑफ वेल्स संग्रहालय’ में सुरक्षित है।
यह हिन्दी की प्राचीनतम (प्रथम) चम्पू काव्य (गद्य-पद्य मिश्रित) की कृति है।
हिन्दी में नख-शिख सौन्दर्य वर्णन का आरम्भ इसी ग्रंथ से होता है।
यह वेल/वेलि/ बेलि काव्य परम्परा की प्राचीनतम कृति है।
इसमें हिन्दी की सात बोलियों ( भाषाओं ) के शब्द मिलते हैं जिसमें राजस्थानी की प्रधानता है ।
इसमें नायिका सात नायिकाओं के नख-शिख सौन्दर्य का वर्णन मिलता है।
आदिकाल में गद्य साहित्य
“इस शिलालेख (राउलवेल) का विषय कलचरि राजवंश के किसी सामंत की सात नायिकाओं का नखशिख वर्णन है। प्रथम नखशिख की नायिका का ठीक पता नहीं चलता। दूसरे नखशिख की नायिका महाराष्ट्र की और तीसरे नखशिख की नायिका पश्चिमी राजस्थान अथवा गुजरात की है। चौथे नखशिख में किसी टक्किणी का वर्णन है । पाँचवें नखशिख का सम्बन्ध किसी गौड़ीया से है और छठे नखशिख का सम्बन्ध दो मालवीयाओं से है। ये सारी नायिकायें इस सामंत की नव विवाहितायें हैं ।”― डाॅ• माता प्रसाद गुप्त
डाॅ• माता प्रसाद गुप्त के सम्पादन इसका एक संस्करण प्रकाशित हुआ। इन्होंने ‘इसका’ समय 10-11 वीं शताब्दी तथा इसकी भाषा को सामान्यतः दक्षिणी कौशली माना है।
बच्चन सिंह ने इसका रचयिता ‘ रोउ/ रोड’ कवि को माना है।
उक्तिव्यक्ति प्रकरण — दामोदर शर्मा (बारहवीं शती)
यह बनारस के महाराजा गोविंद चंद्र के सभा पंडित दामोदर शर्मा की रचनाएं है।
यह पाँच भागों में विभाजित व्याकरण ग्रंथ है।
रचनाकार ने इसकी भाषा अपभ्रंश बताई है।
डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने इसकी भाषा पुरानी कौशली माना है।
रचना का उद्देश्य राजकुमारों को कान्यकुब्
ज और काशी प्रदेश में प्रचलित तात्कालिक भाषा ‘संस्कृत’ सिखाना था।
वर्ण रत्नाकर — ज्योतिश्वर ठाकुर (14वी शताब्दी)
रचना 8 केलों (सर्ग) में विभाजित है।
इसे मैथिली का शब्दकोश भी कहा जाता है।
इसका ढांचा विश्वकोशात्मक है।
डॉ सुनीति कुमार चटर्जी तथा पंडित बबुआ मिश्र द्वारा संपादित कर रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल से प्रकाशित करवाई गई।
विविध तथ्य
पृथ्वीचंद्र की ‘मातृकाप्रथमाक्षरादोहरा’ को प्रथम बावनी काव्य माना जाता है।
‘डिंगल’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग जोधपुर के कविराजा बाँकीदास की ‘कुकवि बत्तीसी’ (सं. 1817 वि.) में हुआ है।
‘जगत्सुंदरी प्रयोगमाला’ एक वैद्यक ग्रंथ है। इसके रचयिता अज्ञात हैं।
दोहा-चौपाई छंद में ‘भगवद्गीता’ का अनुवाद करने वाला हिंदी का प्रथम कवि भुवाल (10वीं शती) हैं।
नायक-नायिका भेद संबंधी रीतिकालीन काव्य-ग्रंथ
रीतिकालीन छंदशास्त्र संबंधी ग्रंथ