रीतिकाल के राष्ट्रकवि भूषण का जीवन परिचय एवं साहित्य परिचय

रीतिकाल के राष्ट्रकवि भूषण

इस आलेख में रीतिकाल के राष्ट्रकवि भूषण का जीवन परिचय, कवि भूषण का साहित्यिक परिचय, रचनाएं, भाषा शैली, मूल नाम, शिवा बावनी, छत्रसाल दशक एवं विशेष तथ्यों के बारे में पढेंगे।

रीतिकाल के राष्ट्रकवि भूषण Rashtra Kavi Bhushan
रीतिकाल के राष्ट्रकवि भूषण

कवि भूषण का जीवन परिचय

आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के अनुसार इनका मूल नाम ‘घनश्याम’ था।

अन्य नाम – किवदंतियों के अनुसार इनके अन्य नाम- पतिराम, मनिराम भी माने जाते हैं।

जन्म – 1613 ई( 1670 वि.) (लगभग) जन्म भूमि- तिकवांपुर, कानपुर

जन्म संबंधी मतभेद-
मिश्रबन्धुओं तथा रामचन्द्र शुक्ल ने भूषण का समय 1613-1715 ई. माना है।
शिवसिंह संगर ने भूषण का जन्म 1681 ई. माना जाता है।
ग्रियर्सन के अनुसार 1603 ई. इनका जन्म माना जाता है।

मृत्यु 1715 ई. (वि.स. 1772) (लगभग)

पिता- रत्ननाकर (कान्यकुब्ज ब्राह्मण)

भाई- चिन्तामणि, भूषण, मतिराम और नीलकण्ठ माने जाते हैं। (विद्वानों में मतभेद है)

आश्रयदाता- छत्रसाल बुन्देला व शिवाजी

काल- रीतिकाल (रीतिबद्ध कवि)

विषय- वीर रस कविता

भाषा- ब्रज, अरबी, फारसी, तुर्की

शैली – वीर रस की ओजपूर्ण शैली

छंद – कवित्त, सवैया

रस – प्रधानता वीर, भयानक, वीभत्स, रौद्र और श्रृंगार भी है

अलंकार – लगभग सभी अलंकार

उपाधि – भूषण (यह की उपाधि उन्हें चित्रकूट के राजा ‘रूद्रशाह सौलंकी’ ने दी)

प्रसिद्धि- वीर-काव्य तथा वीर रस

कवि भूषण का साहित्यिक परिचय

रचनाएं

विद्वानों ने इनके छह ग्रंथ माने हैं-

शिवराजभूषण

शिवाबावनी

छत्रसालदशक

भूषण उल्लास

भूषण हजारा

दूषनोल्लासा

शिवराज भूषण-1673 ई.

यह इनका अलंकार लक्षण ग्रंथ है।

इसमें कुल 105 अलंकारों का विवेचन किया गया है इनके उदाहरण के लिए कुल 385 पद रखे गए हैं।

इस ग्रंथ में अलंकारों के लक्षण ‘दोहा’ छंद में एवं उदाहरण ‘सवैया’ छंद में रखे गए हैं।

इसके अलंकारों के लक्षण आचार्य पीयूषवर्ष जयदेव द्वारा रचित ‘चंद्रालोक’ एवं मतिराम द्वारा रचित ‘ललित ललाम’ ग्रंथों पर आधारित माने जाते हैं।

यह रचना शिवाजी के आश्चर्य में रची गई।

इनकी सम्पूर्ण कविता वीर रस और ओज गुण से ओतप्रोत है जिसके नायक शिवाजी हैं और खलनायक औरंगजेब।

औरंगजेब के प्रति उनका जातीय वैमनस्य न होकर शासक के रूप में उसकी अनीतियों के विरुद्ध है।

शिवा बावनी

शिवा बावनी में 52 कवितों में शिवाजी के शौर्य, पराक्रम आदि का ओजपूर्ण वर्णन है।

छत्रसाल दशक

छत्रशाल दशक में केवल दस कवितों के अन्दर बुन्देला वीर छत्रसाल के शौर्य का वर्णन किया गया है।

नोट- भूषण उल्लास, भूषण हजारा, दूषनोल्लासा तीनों रचना वर्तमान में उपलब्ध नहीं है।

रीतिकाल के राष्ट्रकवि भूषण संबंधी विशेष तथ्य

हिंदी साहित्य जगत में इनको ‘रीतिकाल का राष्ट्रकवि’ कहा जाता है।

नगेंद्र ने इनको रीतिकाल का विलक्षण कवि माना है, क्योंकि इन्होंने रीतिकाल की श्रंगार एवं प्रेम परंपरा से हटकर ‘वीररस’ में काव्य रचना की है।

ऐसा माना जाता है कि राजा छत्रसाल ने इनकी पालकी को कंधा लगाया था इस पर इन्होंने लिखा था-
शिवा को बखानाँ कि बखानाँ छत्रसाल को।
इन्द्र जिमि जंभ पर, वाडव सुअंभ पर।
रावन सदंभ पर , रघुकुल राज है ॥१॥

यह कविता भूषण ने शिवाजी को 52 बार सुनाई थी जिस पर प्रसन्न होकर शिवाजी ने इनको 52 लाख रूपये, 52 हाथी तथा 52 गांव दान में देकर सम्मानित किया था।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इनकी भाषा की आलोचना की है|

रीति युग था पर भूषण ने वीर रस में कविता रची।

उनके काव्य की मूल संवेदना वीर-प्रशस्ति, जातीय गौरव तथा शौर्य वर्णन है।

निरीह हिन्दू जनता अत्याचारों से पीड़ित थी।

भूषण ने इस अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाई तथा निराश हिन्दू जन समुदाय को आशा का संबल प्रदान कर उसे संघर्ष के लिए उत्साहित किया। इन्होंने अपने काव्य नायक शिवाजी व छत्रसाल को चुना।

शिवाजी की वीरता के विषय में भूषण लिखते हैं
“भूषण भनत महावरि बलकन लाग्यो सारी पातसाही के उड़ाय गये जियरे।
तमके के लाल मुख सिवा को निरखि भये स्याह मुख नौरंग सिपाह मुख पियरे॥”

रीतिकाल के राष्ट्रकवि भूषण की काव्य विशेषताएं और भाषा शैली

वीर रस की ओजपूर्ण शैली।

भूषण ने मुक्तक शैली में काव्य की रचना की।

इन्होंने अलंकारों का सुन्दर प्रयोग किया है।

कवित्त व सवैया, छंद का प्रमुखतया प्रयोग किया है।

वे कवि व आचार्य थे।

भूषण ने विवेचनात्मक एवं संश्लिष्ट शैली को अपनाया।

इनकी रचनाएं ओजपूर्ण हैं।

इन्होंने अपने लेखन में अरबी, फारसी एवं तुर्की भाषा का भरपूर प्रयोग किया है।

रीतिकाल के राष्ट्रकवि भूषण की प्रसिद्ध पंक्तियां

“ऊंचे घोर मंदर के अंदर रहन वारी, ऊंचे घोर मंदर के अंदर रहाती हैं।
कंद मूल भोग करें कंद मूल भोग करें, तीन बेर खातीं, ते वे तीन बेर खाती हैं।”

 

“वेद राखे विदित पुराने राखे सारयुत, राम नाम राख्यों अति रसना सुधार मैं,
हिंदुन की चोटी रोटी राखी है सिपहिन की, कांधे में जनेऊ राख्यो माला राखी गर मैं॥”- शिवा बावनी

 

“साजि चतुरंग बीररंग में तुरंग चढ़ि। सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत है॥
भूषन भनत नाद विहद नगारन के। नदी नद मद गैबरन के रलत हैं॥
ऐल फैल खैल भैल खलक में गैल गैल, गाजन की ठेल-पेल सैल उसलत हैं।
तारा सों तरनि घूरि धरा में लगत जिम, धारा पर पारा पारावार ज्यों हलत हैं॥” – (शिवा बावनी)

 

“घूटत कमान अरू तीर गोली बानन के मुसकिल होति मुरचान हू की ओट में ।
ताहि समै सिवराज हुकम के हल्ल कियो दावा बांधि पर हल्ला वीर भट जोट में॥”

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