आदिकाल Aadikal का सामान्य परिचय

आदिकाल Aadikal का सामान्य परिचय

इस पोस्ट में आदिकाल Aadikal का सामान्य परिचय, हिंदी का प्रथम कवि, हिंदी का प्रथम ग्रंथ, आदिकाल से संबंधित विभिन्न विद्वानों के प्रमुख कथन एवं महत्त्वपूर्ण कथन शामिल हैं।

aadikal ka parichay
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आदिकाल का नामकरण — प्रस्तोता

चारण काल — जॉर्ज ग्रियर्सन

प्रारंभिक काल — मिश्रबंधु, डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त

बीजवपन काल — आ. महावीरप्रसाद द्विवेदी

वीरगाथाकाल — आ. रामचंद्र शुक्ल

सिद्ध-सामत काल — महापंडित राहुल सांकृत्यायन

वीरकाल — आ. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र

संधिकाल एवं चारण काल — डॉ. रामकुमार वर्मा

आदिकाल — आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी

जय काल — डॉ. रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल’

आधार काल — सुमन राजे

अपभ्रंश काल — डॉ. धीरेंद्र वर्मा, डॉ. चंद्रधर शर्मा गुलेरी

अपभ्रंश काल (जातीय साहित्य का उदय) — डॉ. बच्चन सिंह

उद्भव काल — डॉ. वासुदेव सिंह

सर्वमान्य मत के अनुसार आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा सुझाए गए नाम ‘आदिकाल’ को स्वीकार किया गया है।

हिंदी का प्रथम कवि

महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने ‘सरहपा/ सरहपाद’ को हिंदी का प्रथम कवि स्वीकार किया है। सामान्यतया उक्त मत को स्वीकार किया जाता है।

हिंदी का प्रथम कवि कौन हो सकता है, इस संबंध में अन्य विद्वानों के मत इस प्रकार हैं—

1. स्वयंभू (8वीं सदी) ― डॉ. रामकुमार वर्मा।

2. सरहपा (769 ई.) ― राहुल सांकृत्यायन व डॉ. नगेन्द्र

3. पुष्य या पुण्ड (613 ई./सं. 670) ― शिवसिंह सेंगर

4. राजा मुंज (993 ई/ सं. 1050)- चंद्रधर शर्मा गुलेरी

5. अब्दुर्रहमान (11वीं सदी) ― डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी

6. शालिभद्र सूरि (1184 ई.) ― डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त

7. विद्यापति (15वीं सदी) ― डॉ. बच्चन सिंह

हिंदी का प्रथम ग्रंथ

जैन श्रावक देवसेन कृत ‘श्रावकाचार’ को हिंदी का प्रथम ग्रंथ माना जाता है। इसमें 250 दोहों में श्रावक धर्म (गृहस्थ धर्म) का वर्णन है। इसकी रचना 933 ई. में स्वीकार की जाती है।

आदिकालीन साहित्य की विशेषताएं/प्रवृतियां—

1. वीरता की प्रवृत्ति

2. श्रृंगारिकता

3. युद्धों का सजीव वर्णन

4. आश्रय दाताओं की प्रशंसा

5. राष्ट्रीयता का अभाव

6. वीर एवं श्रृंगार रस की प्रधानता

7. ऐतिहासिक चरित काव्यों की प्रधानता

8. जन जीवन के चित्रण का अभाव

9. प्रकृति का आलंबन रूप

10. डिंगल और पिंगल दो काव्य शैलियां

11. संदिग्ध प्रामाणिकता

12. ‘रासो’ शीर्षक की प्रधानता

13. प्रबंध एवं मुक्तक काव्य रूप

14. छंद वैविध्य

15. भाषा ― अपभ्रंश डिंगल खड़ी बोली तथा मैथिली का प्रयोग

16. विविध अलंकारों का समावेश

अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य

आदिकाल में भाषाई आधार पर मुख्यतः दो प्रकार की रचनाएं प्राप्त होती हैं, जिन्हें अपभ्रंश की और देशभाषा अर्थात बोलचाल की भाषा इन दो भागों में वर्गीकृत किया जाता है। इसी आधार पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने आदिकाल का विभाजन किया है।

इसके अंतर्गत केवल 12 ग्रंथों को ही साहित्यिक मानते हुए उसका वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार से किया है―

अपभ्रंश काव्य― विजयपाल रासो, हम्मीर रासो, कीर्तिलता, कीर्तिपताका।

देश भाषा काव्य― खुमानरासो, बीसलदेव रासो, पृथ्वीराज रासो, जय चंद्रप्रकाश, जय मयंक जस चंद्रिका, परमाल रासो, खुसरो की पहेलियां और विद्यापति पदावली।

उपयुक्त 12 पुस्तकों के आधार पर ही ‘आदिकाल’ का नामकरण ‘वीरगाथा काल’ करते हुए आचार्य शुक्ल लिखते हैं- “इनमें से अंतिम दो तथा बीसलदेव रासो को छोड़कर सब ग्रंथ वीरगाथात्मक ही हैं, अतः ‘आदिकाल’ का नाम ‘वीरगाथा काल’ ही रखा जा सकता है।”

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने अपभ्रंश के लिए ‘प्राकृतभाषा हिंदी’, ‘प्राकृतिक की अंतिम अवस्था’ और ‘पुरानी हिंदी’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया है।

आदिकाल Aadikal का सामान्य परिचय

तात्कालिक बोलचाल की भाषा को विद्यापति ने ‘देशभाषा’ कहा है। विद्यापति की प्रेरणा से ही आचार्य शुक्ल ने ‘देशभाषा’ शब्द का प्रयोग किया है।

आचार्य शुक्ल ने आदिकाल को ‘अनिर्दिष्ट लोक प्रवृत्ति का युग’ की संज्ञा दी है।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने आदिकाल को ‘अत्यधिक विरोधी और व्याघातों’ का युग कहा है।

हजारीप्रसाद द्विवेदी, गणपतिचंद्र गुप्त इत्यादि प्रबुद्ध विद्वान स्वीकार करते हैं कि अपभ्रंश और हिंदी के मध्य निर्णायक रेखा खींचना अत्यंत दुष्कर कार्य है अतः हिंदी साहित्य की शुरुआत भक्तिकाल से ही माननी चाहिए।

आदिकाल से संबंधित विभिन्न विद्वानों के प्रमुख कथन

“जब तक भाषा बोलचाल में थी तब तक वह भाषा या देशभाषा ही कहलाती रही, जब वह भी साहित्य की भाषा हो गयी तब उसके लिये ‘अपभ्रंश’ शब्द का व्यवहार होने लगा।”― आ. शुक्ल।

“अपभ्रंश नाम पहले पहल बलभी के राजा धारसेन द्वितीय के शिलालेख में मिलता है, जिसमें उसने अपने पिता गुहसेन (वि.सं. 650 के पहले) को संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों का कवि कहा है।”― आ. शुक्ल।

“अपभ्रंश की पुस्तकों में कई तो जैनों के धर्म-तत्त्व निरूपण ग्रंथ हैं जो साहित्य की कोटि में नहीं आतीं और जिनका उल्लेख केवल यह दिखाने के लिये ही किया गया है कि अपभ्रंश भाषा का व्यवहार कब से हो रहा था। “― आ. शुक्ल।

“उनकी रचनाएँ (सिद्धों व नाथों की) तांत्रिक विधान, योगसाधना, आत्मनिग्रह, श्वास-निरोध, भीतरी चक्रों और नाड़ियों की स्थिति, अंतर्मुख साधना के महत्त्व इत्यादि की सांप्रदायिक शिक्षा मात्र हैं, जीवन की स्वाभाविक अनुभूतियों और दशाओं से उनका कोई संबंध नहीं। अतः वे शुद्ध साहित्य के अंतर्गत नहीं आतीं। उनको उसी रूप में ग्रहण करना चाहिये जिस रूप में ज्योतिष, आयुर्वेद आदि के ग्रंथ “― आ. शुक्ल।

आदिकाल से संबंधित विभिन्न विद्वानों के प्रमुख कथन

सिद्धों व नाथों की रचनाओं का वर्णन दो कारणों से किया है- भाषा और सांप्रदायिक प्रवृत्ति और उसके संस्कार की परंपरा। “कबीर आदि संतों को नाथपंथियों से जिस प्रकार ‘साखी’ और ‘बानी’ शब्द मिले उसी प्रकार ‘साखी’ और ‘बानी’ के लिये बहुत कुछ सामग्री और ‘सधुक्कड़ी’ भाषा भी।”― आ. शुक्ल।

“चरित्रकाव्य या आख्यान काव्य के लिये अधिकतर चौपाई, दोहे की पद्धति ग्रहण की गई है।… चौपाई-दोहे की यह परंपरा हम आगे चलकर सूफियों की प्रेम कहानियों में तुलसी के ‘रामचरितमानस’ में तथा ‘छत्रप्रकाश’, ‘ब्रजविलास’, सबलसिंह चौहान के ‘महाभारत’ इत्यादि अनेक अख्यान काव्यों में पाते हैं।”― आ. शुक्ल।

“इसी से सिद्धों ने ‘महासुखवाद’ का प्रवर्तन किया। ‘महासुह’ (महासुख) वह दशा बताई गई जिसमें साधक शून्य में इस प्रकार विलीन हो जाता है जिस प्रकार नमक पानी में। इस दशा का प्रतीक खड़ा करने के लिये ‘युगनद्ध’ (स्त्री-पुरुष का आलिंगनबद्ध जोड़ा) की भावना की गई।”― आ. शुक्ल।

आदिकाल से संबंधित विभिन्न विद्वानों के प्रमुख कथन

“प्रज्ञा और उपाय के योग से महासुख दशा की प्राप्ति मानी गई। इसे आनंद-स्वरूप ईश्वरत्व ही समझिये। निर्माण के तीन अवयव ठहराए गए- शून्य, विज्ञान और महासुख।… निर्वाण के सुख का स्वरूप ही सहवाससुख के समान बताया गया।”― आ. शुक्ल।

‘अपने मत का संस्कार जनता पर डालने के लिये वे (सिद्ध) संस्कृत रचनाओं के अतिरिक्त अपनी बानी (रचनाएँ) अपभ्रंश मिश्रित देशभाग में भी बराबर सुनाते रहे।’― आ. शुक्ल।

“सिद्ध सरहपा की उपदेश की भाषा तो पुरानी टकसाली हिंदी हैं, पर गीत की भाषा पुरानी बिहारी या पूरबी बोली मिली है। कबीर की ‘साखी’ की भाषा तो खड़ी बोली राजस्थानी मिश्रित सामान्य भाषा ‘सधुक्कड़ी’ है, पर रमैनी के पदों में काव्य की ब्रजभाषा और कहीं-कहीं पूरबी बोली भी है।” ― आ. शुक्ल।

सिद्धों ने ‘संधा’ भाषा-शैली का प्रयोग किया है। यह अंत:साधनात्मक अनुभूतियों का संकेत करने वाली प्रतीकात्मक भाषा शैली है।― आ. शुक्ल।

“गोररखनाथ का नाथपंथ बौद्धों की वज्रयान शाखा से ही निकला है। नाथों ने वज्रयानी सिद्धों के विरुद्ध मद्य, माँस व मैथुन के त्याग पर बल देते हुए ब्रह्मचर्य पर जोर दिया। साथ ही शारीरिक-मानसिक शुचिता अपनाने का संदेश दिया।”― आ. शुक्ल।

आदिकाल का सामान्य परिचय

“सब बातों पर विचार करने से हमें ऐसा प्रतीत होता है कि जलंधर ने ही सिद्धों से अपनी परंपरा अलग की और पंजाब की ओर चले गए। वहाँ काँगड़े की पहाड़ियों तथा स्थानों में रमते रहे। पंजाब का जलंधर शहर उन्हीं का स्मारक जान पड़ता है।”― आ. शुक्ल।

“राजा भोज की सभा में खड़े होकर राजा की दानशीलता का लंबा-चौड़ा वर्णन करके लाखों रुपये पाने वाले कवियों का समय बीत चुका था। राजदरबारों में शास्त्रार्थों की वह धूम नहीं रह गई थी। पांडित्य के चमत्कार पर पुरस्कार का विधान भी ढीला पड़ गया था। उस समय तो जो भाट या चारण किसी राजा के पराक्रम, विजय, शत्रुकन्या-हरण आदि का अत्युक्तिपूर्ण आलाप करता या रणक्षेत्रों में जाकर वीरों के हृदय में उत्साह की उमंगें भरा करता था, वही सम्मान पाता था।”― आ. शुक्ल।

“उस समय जैसे ‘गाथा’ कहने से प्राकृत का बोध होता था वैसे ही ‘दोहा’ या ‘दूहा’ कहने से अपभ्रंश का पद्य समझा जाता था।”―आ. शुक्ल।

“दोहा या दूहा अपभ्रंश का अपना छंद है। उसी प्रकार जिस प्रकार गाथा प्राकृत का अपना छंद है।”― हजारीप्रसाद द्विवेदी

आदिकाल का सामान्य परिचय

“इस प्रकार दसवीं से चौदहवीं शताब्दी का काल, जिसे हिंदी का आदिकाल कहते हैं, भाषा की दृष्टि से अपभ्रंश का ही बढ़ाव है।”― हजारीप्रसाद द्विवेदी (‘हिंदी साहित्य का आदिकाल’)

“डिंगल कवियों की वीर-गाथाएँ, निर्गुणिया संतों की वाणियाँ, कृष्ण भक्त या रागानुगा भक्तिमार्ग के साधकों के पद, राम-भक्त या वैधी भक्तिमार्ग के उपासकों की कविताएँ, सूफी साधना से पुष्ट मुसलमान कवियों के तथा ऐतिहासिक हिंदी कवियों के रोमांस और रीति काव्य- ये छहों धाराएँ अपभ्रंश कविता का स्वाभाविक विकास है।”― हजारीप्रसाद द्विवेदी

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कवि स्वयम्भू | Kavi Svayambhu

अपभ्रंश का कवि स्वयम्भू | Kavi Svayambhu

कवि स्वयम्भू | Kavi Svayambhu अपभ्रंश के प्रथम कवि का जीवन-परिचय, रचनाएं, उपाधियाँ, स्वयंभू का काल निर्धारण, स्वयम्भू का अर्थ आदि

स्वयम्भू : काल निर्धारण – अपभ्रंश के प्रथम कवि स्वयम्भू का जीवन-परिचय एवं रचनाएं

कवि स्वयंभू की जन्मतिथि के विषय में निश्चित ज्ञान नहीं है और नही अभी तक उनके जन्म स्थान, कुल परंपरा, कार्यस्थान, कार्य विधि तथा अन्य घटनाओं के बारे में कोई विशेष जानकारी प्राप्त हो पायी है।

स्वयंभू कृत पउमचरिउ में एक स्थान पर तथा रिट्ठणेमिचरिउ में दो स्थानों पर कुछ तिथियों, महीनों, नक्षत्रों का उल्लेख अवश्य मिलता है, परंतु कहीं भी वर्ष का उल्लेख नहीं होता है, अतः काल निर्णय करना अत्यंत कठिन है। पउमचरिउ तथा रिट्ठणेमिचरिउ में स्वयंभू ने भरत, व्यास, पिंगलाचार्य, इंद्राचार्य, भामह, दंडी, श्रीहर्ष, बाण, चतुर्मुख, रविषेण आदि पूर्वगामी कवियों की प्रशंसा की है, जिनमें से रविषेण सबसे अंतिम थे। रविषेण की कृति पद्म चरित्र का रचनाकाल ईस्वी सन् 676 से 677 में माना जाता है और स्वयम्भू ने स्वीकार किया है कि उन्होंने रविसेणारिय पसाएँ  अर्थात रविषेणाचार्य के प्रसाद से रामकथा रूपी नदी का अवगाहन किया है। इससे स्वयम्भू का समय 676 से 677 के बाद का ही निश्चित होता है। यह स्वयम्भू के काल की पूर्व सीमा ठहरती है।

इस तरह स्वयंभू के परवर्ती कवियों ने स्वयंभू के प्रति कृतज्ञता प्रकट की है। ऐसे कवियों में पुष्पदंत कालक्रम में सबसे पहले हैं। उन्होंने अपने महापुराण में दो स्थानों पर स्वयंभू को बड़े आदर के साथ स्मरण किया है। पुष्पदंत के महापुराण की रचना 959- 60 ईसवी में प्रारंभ हुई, अतः स्वयंभू इस समय से पूर्व हो चुके थे, इसलिए स्वयंभू की उत्तर सीमा 959- 60 के आसपास ठहरती है। स्वयम्भू की पूर्व सीमा 676- 77 तथा उत्तर सीमा 959- 60 तक के 300 वर्षों के सुदीर्घ कालखंड में एक निश्चित समय निर्धारित करना अत्यंत दुष्कर कार्य है। एक अन्य मत के अनुसार स्वयंभू 783 ईसवी के आसपास वर्तमान थे।

कवि स्वयम्भू | Kavi Svayambhu का जीवन-परिचय

स्वयम्भू जैन मतावलम्बी थे।

इनके पिता का नाम मारुतदेव तथा माता का नाम पद्मिनी था

काव्य कला का ज्ञान इन्होंने अपने पिता से ही लिया था।

स्वयम्भू ने अपने किसी पुत्र का उल्लेख नहीं किया है, किंतु त्रिभुवन को निर्विवाद रूप से उनका पुत्र माना जाता है।

जन्म स्थान के संबंध में कोई पुष्ट प्रमाण तो नहीं मिलता परंतु अंतः साक्ष्य के आधार पर कहा जा सकता है, कि स्वयंभू कर्नाटक प्रदेश के निवासी रहे होंगे। लेकिन उनकी भाषा से यह अनुमान लगाया जाता है, कि स्वयंभू का जन्म उत्तर भारत या मध्य भारत में हुआ होगा और बाद में वे दक्षिण गए होंगे। यह अनुमान महापंडित राहुल सांकृत्यायन के मत पर आधारित है।

कवि स्वयम्भू | Kavi Svayambhu की उपाधियाँ

त्रिभुवन ने उन्हें स्वयंभूदेव, कविराज, कविराज चक्रवर्तिन विद्वान और छंदस् चूड़ामणि आदि उपाधियों से अलंकृत किया है।

पउमचरिउ में स्वयंभू ने अपने आप को कविराज कहकर संबोधित किया है।

डॉ हरिवल्लभ चुन्नीलाल भयाणी ने इन्हें अपभ्रंश का कालिदास और डॉ राहुल सांकृत्यायन ने इन्हें अपभ्रंश का वाल्मीकि कहा है।

स्वयम्भू कवि की रचनाएं – अपभ्रंश के प्रथम कवि स्वयम्भू का जीवन-परिचय एवं रचनाएं

स्वयंभू की तीन कृतियां निर्विवाद रूप से स्वीकार की जाती हैं- पउमचरिउ (पद्मचरित्र), रिट्ठणेमिचरिउ तथा स्वयम्भू छंद।

पउमचरिउ

पउमचरिउ में राम कथा है।

राम का एक पर्याय पद्म भी है, अतः स्वयंभू ने पद्मचरित्र नाम दिया।

कथा के अंत में राम को मुनींद्र से उपदेश ग्रहण कर निर्वाण प्राप्त करते हुए दिखाया गया है।

ऐसा करके कवि ने जैन धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करनी चाही है।

पउमचरिउ पांच कांड और 90 संधियों में विभाजित महाकाव्य है-

(1) विद्याधर कांड में 20,

(2) अयोध्या कांड में 22,

(3) सुंदरकांड में 14,

(4) युद्ध कांड में 21,

(5) उत्तरकांड में 13 संधियाँ हैं।

संधियाँ कडवकों में विभाजित है।

ग्रंथ में कुल 1269 कडवक है।

पउमचरिउ की 23वी और 46 वी में संधि के प्रारंभ में कवि ने पुनः मंगलाचरण लिखे हैं।

पउमचरिउ को स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवनस्वयंभू ने पूर्णता प्रदान की। इसकी 84 से 90 संधियाँ त्रिभुवन की रचना है।

रिट्ठणेमिचरिउ

आकार की दृष्टि से यह ग्रंथ स्वयंभू के अन्य सभी ग्रंथों से विशाल है इसमें 18000 श्लोक तथा चार कांड और 120 संधियाँ हैं।

इसमें आयी कृष्ण तथा कौरव पांडव की कथा के कारण इसके रिट्ठणेमिचरिउ, हरिवंश पुराण, भारत पुराण आदि कई नाम मिलते हैं।

रिट्ठणेमिचरिउ को भी स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन ने पूर्ण किया।

स्वयंभू छंद

इसमें 8 अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय के अंत में स्वयंभू छंद शब्द मिलता है।

ग्रंथ के प्रथम तीन अध्याय में प्राकृत छंदों तथा अंतिम पांच अध्यायों में अपभ्रंश के छंदों का विवेचन किया गया है।

इसके अतिरिक्त कुछ प्रमाणों के आधार पर सिरिपंचमी चरिउ तथा सुद्धयचरिय इनकी दो अन्य रचनाएं स्वीकार की जाती है।

दो अलग-अलग मतों के अनुसार स्वयंभू को एक व्याकरण ग्रंथ तथा एक अलंकार और कोश ग्रंथ का रचयिता भी कहा जाता है।

स्वयंभू के लिए प्रमुख कथन

“हमारे इसी युग में नहीं, हिन्दी कविता के पांचो युगों (1-सिद्ध-सामन्त युग, 2-सूफी-युग, 3-भक्त-युग, 4-दरबारी-युग, 5-नव जागरण-युग) के जितने कवियों को हमने यहाँ संग्रहीत किया है, उनमें यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि स्वयंभू सबसे बड़ा कवि था। वस्तुतः वह भारत के एक दर्जन अमर कवियों में से एक था।” –डॉ. राहुल सांकृत्यायन

अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य – अपभ्रंश के प्रथम कवि स्वयम्भू का जीवन-परिचय एवं रचनाएं

डॉ रामकुमार वर्मा ने स्वयंभू को हिंदी का प्रथम कवि माना है।

स्वयम्भू ने अपनी भाषा को देसी भाषा कहां है।

स्वयम्भू ने चतुर्मुख को पद्धड़िया बंध का प्रवर्तक तथा श्रेष्ठ कवि कहा है।

पद्धरी 16 मात्रा का मात्रिक छंद है। इस छंद के नाम पर इस पद्धति पर लिखे जाने वाले काव्यों को पद्धड़िया बंध कहा गया है।

स्रोत

महाकवि स्वयंभू- डॉ संकटा प्रसाद उपाध्याय

हिंदी काव्य धारा –डॉ राहुल सांकृत्यायन

पउमचरिउ (प्रस्तावना)- डॉ हरिवल्लभ चुन्नीलाल भयाणी

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गोरखनाथ Gorakhnath

गोरखनाथ Gorakhnath जीवन परिचय एवं रचनाएं

गोरखनाथ Gorakhnath का जीवन परिचय, रचनाएं, जन्म के बारे में विभिन्न मत, गोरखनाथ के बारे में साहित्यकारों के विभिन्न मत एवं गोरखनाथ जी की उक्तियाँ आदि की जानकारी।

परिचय

सिद्ध संप्रदाय का विकसित और परिवर्तित रूप ही नाथ संप्रदाय है। ‘नाथ’  शब्द के अनेक अर्थ है, शैव मत के विकास के बाद ‘नाथ’ शब्द शिव के लिए प्रयुक्त होने लगा। नाथ संप्रदाय में इस शब्द की जो व्याख्या की गई है उसके अनुसार ‘ना’ का अर्थ है ‘अनादिरूप’ तथा ‘थ’ का अर्थ है ‘स्थापित होना’। एक अन्य मत के अनुसार नाथ शब्द की व्याख्या की गई है, जिसमें ‘नाथ’ शब्द ‘मुक्तिदान’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।

गोरखनाथ जीवन परिचय रचनाएं
गोरखनाथ जीवन परिचय रचनाएं

ना- नाथ ब्रह्म (जो मोक्ष देता है)

थ – स्थापित करना (अज्ञान के सामर्थ्य को स्थापित करना)

नाथ – जो ज्ञान को दूर कर मुक्त दिलाता है।

नाथपंथी शिवोपासक हैं, और अपनी साधना में तंत्र मंत्र एवं योग को महत्त्व देते हैं, इसलिए इन्हें योगी भी कहा जाता है। माना जाता है कि नाथ पंथ सहजयान का विकसित रूप है। विकास परंपरा में भी नाथों का स्थान सिद्धों के बाद ही आता है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार नाथों का समय नौवीं शताब्दी का मध्य है। उनके मत से अधिकतर विद्वान सहमत भी हैं।

नाथ साहित्य के बारे में विस्तार से जानने के लिए यहाँ क्लिक कीजिए – नाथ साहित्य एक परिचय

गोरखनाथ का समय

विद्वानों ने मत्स्येंद्रनाथ का काल नौवीं शती का अंतिम चरण तथा गोरखनाथ का समय है।

दसवीं शती स्वीकार किया है, जबकि अन्य नाथों की प्रवृत्ति सीमा 12वीं 13वीं शताब्दी मानी जाती है।

नाथों की संख्या नौ मानी जाती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार अभी लोग नवनाथ और चौरासी सिद्ध कहते सुने जाते हैं।

नौ नाथो में आदिनाथ (शिव), मत्स्येंद्रनाथ (मच्छिंद्रनाथ), गोरखनाथ, चर्पटनाथ, चौरंगीनाथ आदि प्रमुख है।

नाथ एक विशेष वेशभूषा धारण करते थे जिसमें मेखला, शृंगी, गूदड़ी, खप्पर, कर्णमुद्रा, झोला आदि होते थे।

यह कान चीरकर कुंडल पहनते थे, इसलिए कनफटा योगी कहलाते थे।

नाथ पंथ के प्रवर्तक आदिनाथ या स्वयं शिव माने जाते हैं।

उनके शिष्य मत्स्येंद्रनाथ और इनके शिष्य गोरखनाथ थे।

यह पहले बौद्ध थे, बाद में नाथपंथी हो गए और योग मार्ग चलाया।जिसे हठयोग के नाम से जाना जाता है।

हठयोगियों के सिद्ध सिद्धांत पद्धति ग्रंथ के अनुसार-

ह- सूर्य

ठ – चंद्रमा

हठयोग – सूर्य और चंद्रमा का संयोग।

हठयोग की साधना शरीर पर आधारित है। कुंडलिनी को जगाने के लिए आसन, मुद्रा, प्राणायाम और समाधि का सहारा लिया जाता है।

गोरखनाथ का जीवन परिचय (गोरखनाथ जीवन परिचय एवं रचनाएं)

व्यक्तित्व एवं कृतित्व

जन्म एवं जन्म स्थान

गोरक्षनाथ की उत्पत्ति के दो रुप में मिलते हैं। व्यक्तित्व के रुप में गोरक्षनाथ शिवावतार है।

महाकाल योग शास्त्र में शिव ने स्वयं स्वीकार किया है कि मै ‘योगमार्ग का प्रचारक गोरक्ष हूँ।

हठयोग प्रदीपिका में उल्लेख है कि स्वयं आदिनाथ शिव ने योग-मार्ग के प्रचार हेतु गोरक्ष का रुप लिया था।

‘गोरक्ष सिद्धान्त संग्रह मे गोरखनाथ को ईश्वर की संतान के रूप में संबोधित किया गया है।

बंगीय काव्य ‘गोरक्ष-विजय’ के अनुसार गोरखनाथ आदिनाथ शिव की जटाओं से प्रकट हुए थे।

नेपाल दरबार ग्रंथालय से प्राप्त गोरक्ष सहस्रनाम के अनुसार गोरखनाथ दक्षिण मे बड़ब नामक देश में महामन्त्र के प्रसाद से उत्पन्न हुए थे।

तहकीकाक चिश्ती नामक पुस्तक से प्राप्त वर्णन के अनुसार शिव के एक भक्त ने सन्तानोत्पत्ति की इच्छा से शिव-धूनी से भस्म प्राप्त कर अपनी पत्नी को ग्रहण करने के लिए दिया पर लोक-लज्जा के भय से उस स्त्री ने उस भस्म को फेंक दिया। चामत्कारिक रूप से उसी स्थान पर एक हष्ट-पुष्ट बालक उत्पन्न हुआ। शिव ने उसका नाम गोरक्ष रखा। वर्तमान समय में भी गोरक्षनाथ को नाथ योगी लोग शिव-गोरक्ष के रुप में ही मान्यता देते है।

‘योग सम्प्रदाय विष्कृति’ के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ ने एक सच्चरित्र धर्मनिष्ट निस्संतान ब्राह्मण दंपत्ति को पुत्र प्राप्ति की इच्छा से भस्म प्रदान की, इसी भस्म से गोरखनाथ उत्पन्न हुए। गोरखनाथ के जन्म स्थान के सम्बन्ध में पर्याप्त मतभेद है।

महार्थमंजरी के त्रिवेन्द्रम संस्करण से ज्ञात होता है कि वे चोल देश के निवासी थे उनके पिता का नाम माधव और गुरु का नाम महाप्रकाश था।

अवध की परम्परा में गोरक्षनाथ जायस नगर के एक पवित्र ब्राह्मण कुल में उत्पन्न माने जाते हैं।

विभिन्न मतानुसार

ब्रिग्स ने गोरक्ष को पंजाब का मूल निवासी बताया है।

ग्रियर्सन ने उनका पश्चिमी हिमालय का निवासी होना स्वीकार किया है

डॉ० मोहन सिंह पेशावर के निकट रावलपिंडी जिले के एक ग्राम ‘गोरखपुर’ को उनकी मातृभूमि बताते है।

डा० रांगेय राघव का मत है कि गोरखनाथ का जन्मस्थान पेशावर का उत्तर-पश्चिमी पंजाब है।

पं० परशुराम चतुर्वेदी का अनुमान है कि गोरख का जन्म पश्चिमी भारत अथवा पंजाब प्रांत के किसी स्थान में हुआ था और उनका कार्य-क्षेत्र नेपाल, उत्तरी भारत आसाम, महाराष्ट्र एवं सिन्ध तक फैला हुआ था।

नेपाल पुस्तकालय से उपलब्ध ग्रन्थ योग सम्प्रदाय विष्कृति के अनुसार गोरक्ष की जन्मभूमि गोदावरी नदी के तट पर स्थित ‘चन्द्रगिरि’ नामक स्थान है।

डॉ० अशोक प्रभाकर का मत है कि महाराष्ट्र मे त्रियादेश की स्थापना बताकर तथा नाथ पंथ की कुछ गुफाओं व प्रतीकों को आधार बनाकर गोरखनाथ की जन्मभूमि महाराष्ट्र में स्थित ‘चन्द्रगिरि’ को बताते है।

अक्षय कुमार बनर्जी का मत है कि मत्स्येन्द्र गोरक्ष आदि ने सर्वप्रथम हिमालय प्रदेश-नेपाल, तिब्बत आदि देशों में अपनी योग साधना आरम्भ की और सम्भवतः इन्हीं स्थानो में वे प्रथम देव सदृश पूजे गये उनका स्थान देवाधिदेव पशुपतिनाथ शिव को छोड़कर अन्य सभी देवताओं से ऊँचा था।

तिब्बत व नेपाल के क्षेत्र से ही योग साधना का आन्दोलन पूर्व में कामरूप (आसाम) बंगाल, मनीपुर तथा निकटवर्ती क्षेत्रों में फैला। पश्चिम में कश्मीर, पंजाब पश्चिमोत्तर प्रदेश, यहाँ तक कि काबुल और फारस तक पहुँचा उत्तर प्रदेश हिमालय के समीप होने के कारण अधिक प्रभावित हुआ। दक्षिण पश्चिम और दक्षिण पूर्व में भी गोरखनाथ तथा अन्यान्न नाथ योगियों की शिक्षाएं तथा उनके चमत्कार की कथाएँ पुष्प की सुगंध की तरह चहूँ ओर बिखर गयीं।

गोरखनाथ के जन्म के समय के बारे में निश्चित नहीं कहा जा सकता है-

गोरखनाथ का समय डॉ राहुल सांकृत्यायन ने 845 ईस्वी माना है।

डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी उन्हें नवी शताब्दी का मानते हैं।

डॉ पीतांबरदत्त बड़थ्वाल ने 11वीं शताब्दी का स्वीकार करते हैं।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल तथा डॉ रामकुमार वर्मा इन्हें 13वीं शताब्दी का मानते हैं।

आधुनिक खोजों के अनुसार गोरखनाथ ने ईसा की तेरहवीं सदी के आरंभ में अपना साहित्य लिखा था।

गोरखनाथ की रचनाएं (गोरखनाथ जीवन परिचय एवं रचनाएं)

इनके ग्रंथों की संख्या 40 मानी जाती है, परंतु डॉ पीतांबर दत्त बड़थ्वाल ने इनकी 14 रचनाओं को प्रमाणिक मानकर गोरखवाणी नाम से उनका संपादन किया है। डॉ बड़थ्वाल द्वारा संपादित पुस्तकों की सूची इस प्रकार है– (1) शब्द, (2) पद, (3) शिष्या दर्शन. (4) प्राणसंकली. (5) नरवैबोध, (6) आत्मबोध, (7) अभयमुद्रा योग, (8) पंद्रह तिथि, (9) सप्तवार, (10) मछिन्द्र गोरखबोध, (11) रोमावली, (12) ज्ञान तिलक, (13) ज्ञान चौतीसा, (14) पंचमात्रा।

मिश्र बंधु

डॉ बड़थ्वाल के अतिरिक्त मिश्र बंधुओं ने गोरखनाथ के 9 संस्कृत ग्रंथों का परिचय दिया है– (1) गोरक्षशतक, (2) चतुरशीत्यासन, (3) ज्ञानामृत, (4) योगचिन्तामणि, (5) योग महिला, (6) योग मार्तण्ड, (7) योग सिद्धांत पद्धति, (8) विवेक मार्तण्ड (9) सिद्ध-सिद्धान्त पद्धति

योगनाथ स्वामी

ने गोरखनाथ की 20 संस्कृत ग्रन्थों की सूची दी है- (1) अमनस्क योग (2) अमरौधा शासनम्, (3)सिद्ध-सिद्धान्त पद्धति,(4) गोरक्षसिद्धान्त संग्रह, (5) सिद्ध-सिद्धान्त संग्रह, (6) महार्थ मंजरी, (7) विवेक मार्तण्ड, (8) गोरक्ष पद्धति, (9) गोरक्ष संहिता, (10) योगबीज, (11) योग चिन्तामणि, (12) हठयोग संहिता, (13) श्रीनाथ-सूत्र, (14) योगशास्त्र (15)चतुश्षीत्यासन, (16) गोरक्ष चिकित्सा, (17) गोरक्ष पंच, (18)गोरक्ष गीता, (19) गोरक्ष कौमुदी, (20) गोरक्ष कल्प।

डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी

ने गोरखनाथ 28 ग्रंथों की का उल्लेख किया है, द्विवेदी जी ने लिखा है कि उन पुस्तकों में अधिकांश के रचयिता गोरखनाथ नहीं थे–1.अमनस्कयोग 2. अमरौधशासनम् 3. अवधूत गीता 4. गोरक्ष कल्प 5. गोरक्षकौमुदी 6. गोरक्ष गीता 7. गोरक्ष चिकित्सा 8. गोरक्षपंचय 9. गोरक्षपद्धति 10. गोरक्षशतक 11. गोरक्ष शास्त्र 12.गोरक्ष संहिता 13. चतुरशीत्यासन 14. ज्ञान प्रकाश 15. ज्ञान शतक  16. ज्ञानामृत योग 17. नाड़ीज्ञान प्रदीपिका 18. महार्थ मंजरी 19. योगचिन्तामणि 20. योग मार्तण्ड 21.योगबीज 22. योगशास्त्र 23. योगसिद्धांत पद्धति 24. विवेक मार्तण्ड 25. श्रीनाथ-सूत्र 26. सिद्ध-सिद्धान्तपद्धति 27. हठयोग 28. हठ संहिता।

डॉ० नागेन्द्रनाथ उपाध्याय

ने गोरखनाथ के 15 ग्रंथो की सूची प्रस्तुत की है लेकिन इनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है- 1. अमरौधशासनम् 2. अवधूत गीता 3. गोरक्ष गीता 4.गोरक्षशतक 5. विवेक मार्तण्ड 6. महार्थमंजरी 7. सिद्ध-सिद्धान्त पद्धति 8.  चतुरशीत्यासन्  9. ज्ञानामृत 10. योग महिमा 11. योग-सिद्धान्त पद्धति 12. गोरक्ष कथा 13. गोरक्ष सहस्रनाम 14. गोरक्षपिष्टिका 15. योगबीज

गोरखनाथ मंदिर की जानकारी के लिए क्लिक कीजिए- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%B0%E0%A4%96%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%A5_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%B0

गोरखनाथ की प्रसिद्ध उक्तियाँ

(1) “नौ लख पातरि आगे नाचें, पीछे सहज अखाड़ा।

ऐसे मन लौ जोगी खेले, तब अंतरि बसै भंडारा ॥”

(2) “अंजन माहि निरंजन भेट्या, तिल मुख भेट्या तेल।

मूरति मांहि अमूरति परस्या भया निरंतरि खेल ॥”

(3) “नाथ बोल अमृतवाणी । बरसेगी कवाली पाणी॥

गाड़ी पडरवा बांधिले खूँटा। चलै दमामा वजिले काँटा॥”

(4) “गुर कोमहिला निगुरा न रहिला, गुरु बिन ज्ञान न पायला रे भाईला।”

(5) “अवधू रहिया हाटे बाटे रूप विरस की छाया।

तजिवा काम क्रोध लोभ मोह संसार की माया॥”

(6) “स्वामी तुम्हई गुरु गोसाई। अम्हे जो सिव सबद एक बुझिबा।।

निरारंवे चेला कूण विधि रहै। सतगुरु होइ स पुछया कहै ॥”

(7) “अभि-अन्तर को त्याग माया”

(8) “दुबध्या मेटि सहज में रहैं”

(9) “जोइ-जोइ पिण्डे सोई-ब्रह्माण्डे”

प्रमुख कथन (गोरखनाथ जीवन परिचय एवं रचनाएं)

शंकराचार्य के बाद इतना प्रभावशाली और इतना महिमान्वित भारतवर्ष में दूसरा नहीं हुआ। भारतवर्ष के कोने-कोने में उनके अनुयायो आज भी पाये जाते हैं। भक्ति आन्दोलन के पूर्व सबसे शक्तिशाली धार्मिक आन्दोलन गोरखनाथ का भक्ति मार्ग हो था। गोरखनाथ अपने युग के सबसे बड़े नेता थेआचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

“गोरख जगायो जोग भक्ति भगाए लोग” – तुलसीदास

अन्य महत्वपूर्ण तथ्य

1 नाथ साहित्य के प्रारंभ करता गोरखनाथ थे।

2 गोरखनाथ के गुरु का नाम मत्स्येंद्रनाथ था।

3 हिंदी साहित्य में षट्चक्र वाला योग मार्ग गोरखनाथ ने चलाया।

4 मिश्रबंधुओं ने गोरखनाथ को हिंदी का प्रथम गद्य लेखक माना है।

स्रोत

  • इग्नू स्नातकोत्तर (हिंदी) पाठ्य सामग्री
  • हिंदी साहित्य का इतिहास – डॉ नगेंद्र
  • नाथ संप्रदाय – डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी
  • गोरक्षनाथ और उनका युग – डॉ रांगेय राघव
  • अमनस्क योग –  श्री योगीनाथ स्वामी
  • नाथ संप्रदाय का इतिहास दर्शन एवं साधना प्रणाली – डॉ कल्याणी मलिक
  • गोरक्षनाथ एंड कनफटा योगीज –  ब्रिग्स
  • योगवाणी फरवरी 1977
  • नाथ और संत साहित्य तुलनात्मक अध्ययन – डॉ नागेंद्रनाथ उपाध्याय

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