आदिकाल Aadikal का सामान्य परिचय

आदिकाल Aadikal का सामान्य परिचय

इस पोस्ट में आदिकाल Aadikal का सामान्य परिचय, हिंदी का प्रथम कवि, हिंदी का प्रथम ग्रंथ, आदिकाल से संबंधित विभिन्न विद्वानों के प्रमुख कथन एवं महत्त्वपूर्ण कथन शामिल हैं।

aadikal ka parichay
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आदिकाल का नामकरण — प्रस्तोता

चारण काल — जॉर्ज ग्रियर्सन

प्रारंभिक काल — मिश्रबंधु, डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त

बीजवपन काल — आ. महावीरप्रसाद द्विवेदी

वीरगाथाकाल — आ. रामचंद्र शुक्ल

सिद्ध-सामत काल — महापंडित राहुल सांकृत्यायन

वीरकाल — आ. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र

संधिकाल एवं चारण काल — डॉ. रामकुमार वर्मा

आदिकाल — आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी

जय काल — डॉ. रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल’

आधार काल — सुमन राजे

अपभ्रंश काल — डॉ. धीरेंद्र वर्मा, डॉ. चंद्रधर शर्मा गुलेरी

अपभ्रंश काल (जातीय साहित्य का उदय) — डॉ. बच्चन सिंह

उद्भव काल — डॉ. वासुदेव सिंह

सर्वमान्य मत के अनुसार आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा सुझाए गए नाम ‘आदिकाल’ को स्वीकार किया गया है।

हिंदी का प्रथम कवि

महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने ‘सरहपा/ सरहपाद’ को हिंदी का प्रथम कवि स्वीकार किया है। सामान्यतया उक्त मत को स्वीकार किया जाता है।

हिंदी का प्रथम कवि कौन हो सकता है, इस संबंध में अन्य विद्वानों के मत इस प्रकार हैं—

1. स्वयंभू (8वीं सदी) ― डॉ. रामकुमार वर्मा।

2. सरहपा (769 ई.) ― राहुल सांकृत्यायन व डॉ. नगेन्द्र

3. पुष्य या पुण्ड (613 ई./सं. 670) ― शिवसिंह सेंगर

4. राजा मुंज (993 ई/ सं. 1050)- चंद्रधर शर्मा गुलेरी

5. अब्दुर्रहमान (11वीं सदी) ― डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी

6. शालिभद्र सूरि (1184 ई.) ― डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त

7. विद्यापति (15वीं सदी) ― डॉ. बच्चन सिंह

हिंदी का प्रथम ग्रंथ

जैन श्रावक देवसेन कृत ‘श्रावकाचार’ को हिंदी का प्रथम ग्रंथ माना जाता है। इसमें 250 दोहों में श्रावक धर्म (गृहस्थ धर्म) का वर्णन है। इसकी रचना 933 ई. में स्वीकार की जाती है।

आदिकालीन साहित्य की विशेषताएं/प्रवृतियां—

1. वीरता की प्रवृत्ति

2. श्रृंगारिकता

3. युद्धों का सजीव वर्णन

4. आश्रय दाताओं की प्रशंसा

5. राष्ट्रीयता का अभाव

6. वीर एवं श्रृंगार रस की प्रधानता

7. ऐतिहासिक चरित काव्यों की प्रधानता

8. जन जीवन के चित्रण का अभाव

9. प्रकृति का आलंबन रूप

10. डिंगल और पिंगल दो काव्य शैलियां

11. संदिग्ध प्रामाणिकता

12. ‘रासो’ शीर्षक की प्रधानता

13. प्रबंध एवं मुक्तक काव्य रूप

14. छंद वैविध्य

15. भाषा ― अपभ्रंश डिंगल खड़ी बोली तथा मैथिली का प्रयोग

16. विविध अलंकारों का समावेश

अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य

आदिकाल में भाषाई आधार पर मुख्यतः दो प्रकार की रचनाएं प्राप्त होती हैं, जिन्हें अपभ्रंश की और देशभाषा अर्थात बोलचाल की भाषा इन दो भागों में वर्गीकृत किया जाता है। इसी आधार पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने आदिकाल का विभाजन किया है।

इसके अंतर्गत केवल 12 ग्रंथों को ही साहित्यिक मानते हुए उसका वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार से किया है―

अपभ्रंश काव्य― विजयपाल रासो, हम्मीर रासो, कीर्तिलता, कीर्तिपताका।

देश भाषा काव्य― खुमानरासो, बीसलदेव रासो, पृथ्वीराज रासो, जय चंद्रप्रकाश, जय मयंक जस चंद्रिका, परमाल रासो, खुसरो की पहेलियां और विद्यापति पदावली।

उपयुक्त 12 पुस्तकों के आधार पर ही ‘आदिकाल’ का नामकरण ‘वीरगाथा काल’ करते हुए आचार्य शुक्ल लिखते हैं- “इनमें से अंतिम दो तथा बीसलदेव रासो को छोड़कर सब ग्रंथ वीरगाथात्मक ही हैं, अतः ‘आदिकाल’ का नाम ‘वीरगाथा काल’ ही रखा जा सकता है।”

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने अपभ्रंश के लिए ‘प्राकृतभाषा हिंदी’, ‘प्राकृतिक की अंतिम अवस्था’ और ‘पुरानी हिंदी’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया है।

आदिकाल Aadikal का सामान्य परिचय

तात्कालिक बोलचाल की भाषा को विद्यापति ने ‘देशभाषा’ कहा है। विद्यापति की प्रेरणा से ही आचार्य शुक्ल ने ‘देशभाषा’ शब्द का प्रयोग किया है।

आचार्य शुक्ल ने आदिकाल को ‘अनिर्दिष्ट लोक प्रवृत्ति का युग’ की संज्ञा दी है।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने आदिकाल को ‘अत्यधिक विरोधी और व्याघातों’ का युग कहा है।

हजारीप्रसाद द्विवेदी, गणपतिचंद्र गुप्त इत्यादि प्रबुद्ध विद्वान स्वीकार करते हैं कि अपभ्रंश और हिंदी के मध्य निर्णायक रेखा खींचना अत्यंत दुष्कर कार्य है अतः हिंदी साहित्य की शुरुआत भक्तिकाल से ही माननी चाहिए।

आदिकाल से संबंधित विभिन्न विद्वानों के प्रमुख कथन

“जब तक भाषा बोलचाल में थी तब तक वह भाषा या देशभाषा ही कहलाती रही, जब वह भी साहित्य की भाषा हो गयी तब उसके लिये ‘अपभ्रंश’ शब्द का व्यवहार होने लगा।”― आ. शुक्ल।

“अपभ्रंश नाम पहले पहल बलभी के राजा धारसेन द्वितीय के शिलालेख में मिलता है, जिसमें उसने अपने पिता गुहसेन (वि.सं. 650 के पहले) को संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों का कवि कहा है।”― आ. शुक्ल।

“अपभ्रंश की पुस्तकों में कई तो जैनों के धर्म-तत्त्व निरूपण ग्रंथ हैं जो साहित्य की कोटि में नहीं आतीं और जिनका उल्लेख केवल यह दिखाने के लिये ही किया गया है कि अपभ्रंश भाषा का व्यवहार कब से हो रहा था। “― आ. शुक्ल।

“उनकी रचनाएँ (सिद्धों व नाथों की) तांत्रिक विधान, योगसाधना, आत्मनिग्रह, श्वास-निरोध, भीतरी चक्रों और नाड़ियों की स्थिति, अंतर्मुख साधना के महत्त्व इत्यादि की सांप्रदायिक शिक्षा मात्र हैं, जीवन की स्वाभाविक अनुभूतियों और दशाओं से उनका कोई संबंध नहीं। अतः वे शुद्ध साहित्य के अंतर्गत नहीं आतीं। उनको उसी रूप में ग्रहण करना चाहिये जिस रूप में ज्योतिष, आयुर्वेद आदि के ग्रंथ “― आ. शुक्ल।

आदिकाल से संबंधित विभिन्न विद्वानों के प्रमुख कथन

सिद्धों व नाथों की रचनाओं का वर्णन दो कारणों से किया है- भाषा और सांप्रदायिक प्रवृत्ति और उसके संस्कार की परंपरा। “कबीर आदि संतों को नाथपंथियों से जिस प्रकार ‘साखी’ और ‘बानी’ शब्द मिले उसी प्रकार ‘साखी’ और ‘बानी’ के लिये बहुत कुछ सामग्री और ‘सधुक्कड़ी’ भाषा भी।”― आ. शुक्ल।

“चरित्रकाव्य या आख्यान काव्य के लिये अधिकतर चौपाई, दोहे की पद्धति ग्रहण की गई है।… चौपाई-दोहे की यह परंपरा हम आगे चलकर सूफियों की प्रेम कहानियों में तुलसी के ‘रामचरितमानस’ में तथा ‘छत्रप्रकाश’, ‘ब्रजविलास’, सबलसिंह चौहान के ‘महाभारत’ इत्यादि अनेक अख्यान काव्यों में पाते हैं।”― आ. शुक्ल।

“इसी से सिद्धों ने ‘महासुखवाद’ का प्रवर्तन किया। ‘महासुह’ (महासुख) वह दशा बताई गई जिसमें साधक शून्य में इस प्रकार विलीन हो जाता है जिस प्रकार नमक पानी में। इस दशा का प्रतीक खड़ा करने के लिये ‘युगनद्ध’ (स्त्री-पुरुष का आलिंगनबद्ध जोड़ा) की भावना की गई।”― आ. शुक्ल।

आदिकाल से संबंधित विभिन्न विद्वानों के प्रमुख कथन

“प्रज्ञा और उपाय के योग से महासुख दशा की प्राप्ति मानी गई। इसे आनंद-स्वरूप ईश्वरत्व ही समझिये। निर्माण के तीन अवयव ठहराए गए- शून्य, विज्ञान और महासुख।… निर्वाण के सुख का स्वरूप ही सहवाससुख के समान बताया गया।”― आ. शुक्ल।

‘अपने मत का संस्कार जनता पर डालने के लिये वे (सिद्ध) संस्कृत रचनाओं के अतिरिक्त अपनी बानी (रचनाएँ) अपभ्रंश मिश्रित देशभाग में भी बराबर सुनाते रहे।’― आ. शुक्ल।

“सिद्ध सरहपा की उपदेश की भाषा तो पुरानी टकसाली हिंदी हैं, पर गीत की भाषा पुरानी बिहारी या पूरबी बोली मिली है। कबीर की ‘साखी’ की भाषा तो खड़ी बोली राजस्थानी मिश्रित सामान्य भाषा ‘सधुक्कड़ी’ है, पर रमैनी के पदों में काव्य की ब्रजभाषा और कहीं-कहीं पूरबी बोली भी है।” ― आ. शुक्ल।

सिद्धों ने ‘संधा’ भाषा-शैली का प्रयोग किया है। यह अंत:साधनात्मक अनुभूतियों का संकेत करने वाली प्रतीकात्मक भाषा शैली है।― आ. शुक्ल।

“गोररखनाथ का नाथपंथ बौद्धों की वज्रयान शाखा से ही निकला है। नाथों ने वज्रयानी सिद्धों के विरुद्ध मद्य, माँस व मैथुन के त्याग पर बल देते हुए ब्रह्मचर्य पर जोर दिया। साथ ही शारीरिक-मानसिक शुचिता अपनाने का संदेश दिया।”― आ. शुक्ल।

आदिकाल का सामान्य परिचय

“सब बातों पर विचार करने से हमें ऐसा प्रतीत होता है कि जलंधर ने ही सिद्धों से अपनी परंपरा अलग की और पंजाब की ओर चले गए। वहाँ काँगड़े की पहाड़ियों तथा स्थानों में रमते रहे। पंजाब का जलंधर शहर उन्हीं का स्मारक जान पड़ता है।”― आ. शुक्ल।

“राजा भोज की सभा में खड़े होकर राजा की दानशीलता का लंबा-चौड़ा वर्णन करके लाखों रुपये पाने वाले कवियों का समय बीत चुका था। राजदरबारों में शास्त्रार्थों की वह धूम नहीं रह गई थी। पांडित्य के चमत्कार पर पुरस्कार का विधान भी ढीला पड़ गया था। उस समय तो जो भाट या चारण किसी राजा के पराक्रम, विजय, शत्रुकन्या-हरण आदि का अत्युक्तिपूर्ण आलाप करता या रणक्षेत्रों में जाकर वीरों के हृदय में उत्साह की उमंगें भरा करता था, वही सम्मान पाता था।”― आ. शुक्ल।

“उस समय जैसे ‘गाथा’ कहने से प्राकृत का बोध होता था वैसे ही ‘दोहा’ या ‘दूहा’ कहने से अपभ्रंश का पद्य समझा जाता था।”―आ. शुक्ल।

“दोहा या दूहा अपभ्रंश का अपना छंद है। उसी प्रकार जिस प्रकार गाथा प्राकृत का अपना छंद है।”― हजारीप्रसाद द्विवेदी

आदिकाल का सामान्य परिचय

“इस प्रकार दसवीं से चौदहवीं शताब्दी का काल, जिसे हिंदी का आदिकाल कहते हैं, भाषा की दृष्टि से अपभ्रंश का ही बढ़ाव है।”― हजारीप्रसाद द्विवेदी (‘हिंदी साहित्य का आदिकाल’)

“डिंगल कवियों की वीर-गाथाएँ, निर्गुणिया संतों की वाणियाँ, कृष्ण भक्त या रागानुगा भक्तिमार्ग के साधकों के पद, राम-भक्त या वैधी भक्तिमार्ग के उपासकों की कविताएँ, सूफी साधना से पुष्ट मुसलमान कवियों के तथा ऐतिहासिक हिंदी कवियों के रोमांस और रीति काव्य- ये छहों धाराएँ अपभ्रंश कविता का स्वाभाविक विकास है।”― हजारीप्रसाद द्विवेदी

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