आदिकालीन अपभ्रंश साहित्य

आदिकालीन अपभ्रंश साहित्य

आदिकालीन अपभ्रंश साहित्य के अंतर्गत आदिकालीन अपभ्रंश के प्रमुख कवि और उनकी रचनाएं पढने के साथ-साथ आदिकालीन अपभ्रंश साहित्य की विशेषताएं एवं प्रमुख प्रवृत्तियां आदि भी जानेंगे।

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डॉ. हरदेव बाहरी ने सातवीं शती से ग्यारहवीं शती के अंत तक के काल को ‘अपभ्रंश का स्वर्णकाल’ माना है।

अपभ्रंश में तीन प्रकार के बंध मिलते हैं-

1. दोहा बंध 2. पद्धड़िया बंध 3. गेय पद बंध।

पद्धरी एक छंद विशेष है, जिसमें 16 मात्राएँ होती है। इसमें लिखे जाने वाले काव्यों को पद्धड़िया बंद कहा गया है।

अपभ्रंश का चरित काव्य पद्धड़िया बंध में लिखा गया है।

चरित काव्यों में पद्धड़िया छंद की आठ-आठ पंक्तियों के बाद धत्ता दिया रहता है, जिसे ‘कड़वक‘ कहते हैं।

जोइन्दु (योगेन्दु) छठी शती

रचनाएँ 1. परमात्म प्रकाश तथा 2. योगसार।

उक्त रचनाओं से ही अपभ्रंश से दोहे की शुरुआत मिलती है।

जोइन्दु से दोहा छंद का आरंभ माना गया है।

स्वयंभू (783 ई.)

स्वयंभू को जैन परंपरा का प्रथम कवि माना जाता है।

इनके तीन ग्रंथ माने जाते हैं-

1. पउम चरिउ (अपूर्ण)― 5 कांड तथा 83 संधियों वाला विशाल महाकाव्य है। यह अपभ्रंश का आदिकाव्य माना जाता है।
‘पउम चरिउ’ के अंत में राम को मुनीन्द्र से उपदेश के बाद निर्वाण प्राप्त करते दिखाया गया है।

2. रिट्ठेमणि चरिउ (कृष्ण काव्य)

3. स्वयंभू छंद।

उपाधि― कविराज – स्वयं द्वारा

छंदस् चूड़ामणि – त्रिभुवन

अपभ्रंश का वाल्मीकि – डॉ राहुल सांकृत्यायन

अपभ्रंश का कालिदास – डॉ हरिवल्लभ चुन्नीलाल भयाणी

‘पउम चरिउ’ को स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन ने पूरा किया।

अपभ्रंश में कृष्ण काव्य के आरंभ का श्रेय भी स्वयंभू को ही दिया जाता है।

स्वयंभू ने चतुर्मुख को पद्धड़िया छंद का प्रवर्तक और श्रेष्ठ कवि कहा है।

स्वयंभू ने अपनी भाषा को ‘देशीभाषा’ कहा है।

पुष्यदंत

यह राम काव्य के दूसरे प्रसिद्ध कवि थे।

ये मूलतः शैव थे, परंतु बाद में अपने आश्रयदाता के अनुरोध से जैन हो गए थे।

इनके समय को लेकर विवाद है। शिवसिंह सेंगर ने सातवीं शताब्दी और हजारीप्रसाद द्विवेदी ने नौवीं शताब्दी माना। अंतः साक्ष्य के आधार पर

सामान्यतः 972 ई. (10वीं शती) इनका समय माना जाता है।

रचनाएँ-

1. तिरसठी महापुरिस गुणालंकार (महापुराण) – इसमें में 63 महापुरुषों का जीवन चरित है।

2. णयकुमारचरिउ (नागकुमार चरित्र)

3. जसहर-चरिउ (यशधर चरित्र)।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इनके दो और ग्रंथों का उल्लेख किया है—

1. आदि पुराण

2. उत्तर पुराण

इन दोनों को चौपाइयों में रचित बताया है।

चरित काव्यों में चौपाई छंद का प्रयोग किया है।

अपभ्रंश में यह 15 मात्राओं का छंद था।

उपाधियाँ—

अभिमान मेरु/सुमेरु – स्वयं द्वारा

काव्य रत्नाकार – स्वयं द्वारा

कविकुल तिलक – स्वयं द्वारा

अपभ्रंश का भवभूति – डॉ. हरिवल्लभ चुन्नीलाल भयाणी।

इन्हें अपभ्रंश का व्यास/वेदव्यास कहा जाता है।

इन्हें ‘सरस्वती निलय’ भी कहा जाता है।

यह स्वभाव से अक्खड़ थे तथा इनमें सांप्रदायिकता के प्रति जबरदस्त आग्रह था।‌

शिवसिंह सेंगर ने इन्हें ‘भाखा की जड़‘ कहा है।

धनपाल

दसवीं शती (933ई.) में ‘भविसयत्तकहा‘ की रचना की।

इन्हें मुंज ने ‘सरस्वती‘ की उपाधि दी थी।

‘भविसयत्तकहा’ का संपादन डॉ. याकोबी ने किया था।

जिनदत्त सूरि

इन्होंने अपने ग्रंथ ‘उपदेशरसायनरास’ (1114 ई.) से रास काव्य परंपरा का प्रवर्तन किया।

यह 80 पद्यों का नृत्य गीत रासलीला काव्य है।

अब्दुल रहमान (अद्दहमाण)

रचना- ‘संदेशरासक’ — देशी भाषा में किसी मुसलमान कवि द्वारा रचित प्रथम ग्रंथ था।

‘संदेशरासक’ में विक्रमपुर की एक वियोगिनी की व्यथा वर्णित हुई है।

इस खंडकाव्य का समय 12वीं शती उत्तरार्द्ध या 13वीं शती पूर्वार्द्ध माना गया है।

यह प्रथम जनकाव्य है।

विश्वनाथ त्रिपाठी ने इसकी भाषा को ‘संक्रातिकालीन भाषा’ कहा है।

मुनि रामसिंह

इन्हे अपभ्रंश का सर्वश्रेष्ठ रहस्यवादी कवि माना जाता है।

रचना- ‘पाहुड़ दोहा’

हेमचंद्र

इनका वास्तविक नाम चंगदेव था।

प्राकृत का पाणिनि कहा जाता है।

इन्होंने गुजरात के सोलंकी शासक सिद्धराज जयसिंह के आग्रह पर ‘हेमचंद्र शब्दानुशासन’ शीर्षक से व्याकरण ग्रंथ लिखा।

इस ग्रंथ में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तीनों भाषाओं का समावेश है।

अन्य रचनाएं – कुमारपाल चरित्र (प्राकृत) पुरुष चरित्र

देशीनाम माला।

आदिकालीन अपभ्रंश साहित्य

सोमप्रभ सूरि

रचना – ‘कुमारपालप्रतिबोध’ (1184 ई.) गद्यपद्यमय संस्कृत प्राकृत काव्य है।

मेरुतुंग

रचना – ‘प्रबंध चिंतामणि’ (1304 ई.)

संस्कृत भाषा का ग्रंथ है, किंतु इसमें ‘दूहा विद्या’ विवाद-प्रसंग मिलता है।

प्राकृत पैंगलम

इसमें विद्याधर, शारंगधर, जज्जल, बब्बर आदि कवियों की रचनाएँ मिलती हैं।

इसका संग्रह 14वीं शती के अंत लक्ष्मीधर ने किया था।

‘प्राकृत पैंगलम‘ में वर्णित 8 छंदों के आधार पर आचार्य शुक्ल ने ‘हम्मीर रासो‘ की कल्पना की व इसके रचयिता शारंगधर को माना है।

डॉ राहुल सांकृत्यायन ने ‘हम्मीर रासो’ के रचयिता जज्जल नमक कवि को माना है।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार ‘हम्मीर’ शब्द किसी पात्र का नाम ना होकर विशेषण है जो अमीर का विकृत रूप है।

डॉक्टर बच्चन सिंह ने शारंगधर को अनुमानतः ‘कुंडलिया छंद’ का प्रथम प्रयोक्ता माना है।

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