आदिकाल की उपलब्ध सामग्री
आदिकालीन हिंदी साहित्य की उपलब्ध सामग्री के दो रूप हैं- प्रथम वर्ग में वे रचनाएं आती हैं, जिनकी भाषा तो हिंदी है, परंतु वह अपभ्रंश के प्रभाव से पूर्णत: मुक्त नहीं हैं, और द्वितीय प्रकार की रचनाएं वे हैं, जिनको अपभ्रंश के प्रभाव से मुक्त हिंदी की रचनाएं कहा जा सकता है। आदिकाल की उपलब्ध सामग्री इस प्रकार है-
अपभ्रंश प्रभावित हिंदी रचनाएं इस प्रकार हैं-
(1) सिद्ध साहित्य
(2) श्रावकाचार
(3) नाथ साहित्य
(4) राउलवेल (गद्य-पद्य)
(5) उक्तिव्यक्तिप्रकरण (गद्य)
(6) भरतेश्वर-बाहुबलीरास
(7) हम्मीररासो
(8) वर्णरत्नाकर (गद्य)।
निम्नांकित रचनाएं अपभ्रंश के प्रभाव से मुक्त हिंदी की रचनाएं मानी जा सकती हैं-
(1) खुमाणरासो
(2) ढोलामारू रा दूहा
(3) बीसलदेवरासो
(4) पृथ्वीराजरासो
(5) परमालरासो
(6) जयचंद्रप्रकाश
(7) जयमयंक-जसचंद्रिका
(8) चंदनबालारास
(9) स्थूलिभद्ररास
(10) रेवंतगिरिरास
(11) नेमिनाथरास
(12) वसंत विलास
(13) खुसरो की पहेलियां।
आदिकाल की उक्त सामग्री को अध्ययन की सुविधा के लिए निम्नांकित वर्गों में विभाजित किया जा सकता हैं-
(1) सिद्ध-साहित्य
(2) जैन-साहित्य
(3) नाथ-साहित्य
(4) रासो-साहित्य
(5) लौकिक साहित्य
(6) गद्यरचनाएं।
(1) सिद्ध-साहित्य
सिद्धों ने बौद्ध धर्म के वज्रयान तत्वों का प्रचार करने के लिए जो साहित्य जन भाषा में लिखा है, हिंदी के सिद्ध साहित्य की सीमा में आता है। महापंडित राहुल और प्रबोध चंद्र बागची सांकृत्यायन ने 84 सिद्धों के नामों का उल्लेख किया है। जिसमें सिद्ध सरहपा से यह साहित्य आरंभ होता है।
सिद्धों के नाम के अंत में आदर्शसूचक ‘पा’ जुड़ता है।
हिंदी में ‘संधा/संध्या’ भाषा का प्रयोग सिद्धों द्वारा शुरू किया गया।
हिंदी में ‘प्रतीकात्मक शैली’ का प्रयोग सिद्धों द्वारा शुरू किया गया।
प्रथम बौद्ध सिद्ध तथा सिद्धों में प्रथम सरहपा (सातवीं-आठवीं शताब्दी) थे।
सिद्धों में विवाह प्रथा के प्रति अनास्था तथा गृहस्थ जीवन में आस्था का विरोधाभास मिलता है।
सिद्ध कवियों में महामुद्रा या शक्ति योगिनी का अर्थ स्त्री सेवन से है।
इनकी साधना पंच मकार (मांस, मैथुन, मत्स्य, मद्य, मुद्रा) की है।
उन्होंने बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा का प्रचार किया तथा तांत्रिक विधियों को अपनाया।
बंगाल, उड़ीसा, असम और बिहार इनके प्रमुख क्षेत्र थे।
नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय इनकी साधना के केंद्र थे।
वज्रयान का केंद्र ‘श्री पर्वत’ रहा है।
मैथिली ग्रंथ ‘वर्ण रत्नाकर’ में 84 सिद्धों के नाम मिलते हैं।
सिद्धों की भाषा ‘संधा/संध्या’ भाषा नाम मुनिदत्त और अद्वयवज्र नें दिया।
सिद्ध साहित्य ‘दोहाकोश’ और ‘चर्यापद’ दो रूपों में मिलता है।
‘दोहों’ में खंडन-मंडन का भाव है जबकि ‘चर्यापदों’ में सिद्धों की अनुभूति तथा रहस्य भावनाएं हैं।
चर्चाएं संधा भाषा की दृष्टिकूटों में रचित है, जिनके अधूरे अर्थ हैं।
‘दोहाकोश’ का संपादन प्रबोध चंद्र बागची ने किया है।
महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ने सिद्धों की रचनाओं का संग्रह बँगला अक्षरों में ‘बौद्धगान ओ दूहा’ के नाम से निकाला था।
वज्रयान में ‘वज्र’ शब्द हिंदू विचार पद्धति से लिया गया है। यह अमृत्व का साधन था।
‘दोहा’ और ‘चर्यापद’ संत साहित्य में क्रमशः ‘साखी’ और ‘शब्द’ में रूपांतरित हुए।
संत साहित्य का बीज सिद्ध साहित्य में विद्यमान है।
इनके चर्यागीत विद्यापति, सूर के गीतिकाव्य का आधार है।
डॉ राहुल सांकृत्यायन ने 84 सिद्धों में 4 महिला सिद्धों का भी उल्लेख किया है।
सिद्धों की संध्या भाषा नाथों की वाणी से पुष्ट होकर कबीर की के साथ-साथ नानक मलूकदास में प्रवाहित हुई।
सिद्ध साहित्य की विशेषताएं-
(1) सहजता जीवन पर बल
(2) गुरू महिमा
(3) बाह्याडम्बरों और पाखण्ड विरोध
(4) वैदिक कर्मकांडों की आलोचना
(5) रहस्यात्मक अनुभूति
(6) शांत और श्रृंगार रसों की प्रधानता
(7) जनभाषा का प्रयोग
(8) छन्द प्रयोग
(9) साहित्य के आदि रूप की प्रामाणिक सामग्री
(10) तंत्र साधना पर बल
(11) जाति व वर्ण व्यवस्था का विरोध
(12) पंच मकार (मांस, मदिरा मछ्ली, मुद्रा, मैथुन) की साधना
प्रमुख सिद्ध कवि
1. सरहपा (आठवीं शताब्दी)
राहुल सांकृत्यायन के अनुसार सरहपा सबसे प्राचीन और प्रथम बौद्ध सिद्ध हैं।
सरहपाद, सरोजवज्र, राहुलभद्र, सरोरुह, सरोवज्र, पद्म, पद्मवज्र इत्यादि कई नामों से प्रसिद्ध थे।
ये नालंदा विश्वविद्यालय में छात्र और अध्यापक थे।
इन्होंने ‘कड़वकबद्ध शैली’ (दोहा-चौपाई शैली) की शुरुआत की।
इनके 32 ग्रंथ माने जाते हैं, जिनमें से ‘दोहाकोश’ अत्यंत प्रसिद्ध है।
इनकी आक्रामकता, उग्रता और तीखापन कालांतर में कबीर में दिखाई देता है।
डॉ वी. भट्टाचार्य ने सरहपा को बंगला का प्रथम कवि माना है।
इनकी भाषा अपभ्रंश से प्रभावित हिंदी है।
पाखंड विरोध, गुरु सेवा का महत्त्व, सहज मार्ग पर बल इन के काव्य की विशेषता है।
“आक्रोश की भाषा का सबसे पहला प्रयोग सरहपा में दिखाई पड़ता है।”— डॉ. बच्चन सिंह
2. शबरपा
इनका जन्म 780 ई. में माना जाता है।
शबरों का सा जीवन व्यतीत करने के कारण शबरपा कहलाए।
इन्होंने सरहपा से ज्ञान दीक्षा ली।
‘चर्यापद’ इन की प्रसिद्ध रचना है।
क्रियापद एक और कार का गीत है जो प्रायः अनुष्ठानों के समय गाया जाता है।
माया-मोह का विरोध, सहज जीवन पर बल और इसे ही महासुख की प्राप्ति का पंथ बताया है।
3. लूइपा (8वी सदी)
यह शबरपा के शिष्य थे
84 सिद्धों में इनका स्थान सबसे ऊंचा माना जाता है।
यह राजा धर्मपाल के समकालीन थे।
रहस्य भावना इन के काव्य की विशेषता है।
उड़ीसा के राजा दरिकपा और मंत्री इनके शिष्य बन गए।
4. डोम्भिपा (840 ई.)
यह विरूपा के शिष्य थे।
इनके 21 ग्रंथ बताए जाते हैं, जिनमें ‘डोंबी गीतिका’, ‘योगचर्या’, ‘अक्षरद्वीकोपदेश’ प्रसिद्ध है।
5. कण्हपा (9वी शताब्दी)
कर्नाटक के ब्राह्मण परिवार में 820 ई. में जन्म हुआ।
यह जलंधरपा के शिष्य थे।
इन्होंने 74 ग्रंथों की रचना की जिनमें अधिकांश दार्शनिक विचारों के हैं।
रहस्यात्मक गीतों के कारण जाने जाते हैं।
“यह पांडित्य एवं कवित्व में बेजोड़ थे।”— डॉ राहुल सांकृत्यायन
“कण्हपा की रचनाओं में उपदेश की भाषा तो पुरानी टकसाली हिंदी है, पर गीत की भाषा पुरानी बिहारी या पूरबी बोली मिली है। यही भेद हम आगे चलकर कबीर की ‘साखी’, रमैनी’ (गीत) की भाषा में पाते हैं। साखी की भाषा तो खड़ी बोली राजस्थानी मिश्रित सामान्य भाषा ‘सधुक्कड़ी’ है पर रमैनी के पदों की भाषा में काव्य की ब्रजभाषा और कहीं-कहीं पूरबी बोली भी है। “— आ. शुक्ल।
6. कुक्कुरीपा
यह चर्पटिया के शिष्य थे।
उन्होंने 16 ग्रंथों की रचना की।
‘योगभवनोंपदेश’ प्रमुख रचना है।
नायक-नायिका भेद संबंधी रीतिकालीन काव्य-ग्रंथ
रीतिकालीन छंदशास्त्र संबंधी ग्रंथ
बहुत ही उपयोगी जानकारी है जी