पारिस्थितिकी Ecology
पारिस्थितिकी Ecology एवं पारिस्थितिकी तंत्र (Ecology System) का अर्थ, परिभाषा, प्रकार, स्तूप या पिरामिड, घटक अथवा अवयव, जनक आदि की जानकारी
‘इकोलोजी’ (ecology) शब्द ग्रीक भाषा के दो शब्दों (Oikos) ‘ ओइकोस’ और (logy) ‘लोजी’ से मिलकर बना है। ओइकोस का शाब्दिक अर्थ ‘घर तथा ‘लोजी’ का अर्थ विज्ञान या अध्ययन से है।
शाब्दिक अर्थानुसार इकोलोजी-पृथ्वी पर पौधों, मनुष्यों, जतुओं व सूक्ष्म जीवाणुओं के घर- के रूप में अध्ययन है।
जर्मन प्राणीशास्त्री अर्नस्ट हैक्कल (Ernst Haeckel), ने सर्वप्रथम सन् 1869 में ओइकोलोजी (Oekologie) शब्द का प्रयोग किया।
जैविक व अजैविक घटकों के पारस्परिक संपर्क के अध्ययन को ही पारिस्थितिकी विज्ञान कहते हैं, अतः जीवधारियों का आपस में व उनका भौतिक पर्यावरण से अंतर्संबंधों का वैज्ञानिक अध्ययन ही पारिस्थितिकी है।
परिस्थितिकी विज्ञान का जनक के रीटर को माना जाता है।
भारतीय पारिस्थितिकी विज्ञान का जनक आर. मिश्रा को माना जाता है।
पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem) :
पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem) का संक्षिप्त रूप पारितंत्र है।
Ecosystem शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 1935 में टॉसले/टेनस्ले द्वारा किया गया।
परिस्थितिकी तंत्र वह तंत्र है जो पर्यावरण के संपूर्ण सजीव एवं निर्जीव कारकों के पारस्परिक संबंधों तथा प्रक्रियाओं द्वारा प्रकट होता है।
ओडम के अनुसार : “परिस्थितिकी तंत्र ऐसे जीवो और उनके पर्यावरण की आधारभूत क्रियात्मक इकाई है जो दूसरे पारिस्थितिकी तंत्र ओर से तथा अपने अवयवों के मध्य निरंतर अंतर क्रिया करते हैं।”
टॉसले/टेनस्ले के अनुसार : “वातावरण के सभी जैविक तथा अजैविक कारकों के एकीकरण के फलस्वरूप निर्मित तंत्र को पारिस्थितिकी तंत्र कहते हैं।”
पारिस्थितिकी तंत्र के प्रकार (types of ecosystem)
पारितंत्र को मुख्यतः दो भागों में बांटा जा सकता है :
प्राकृतिक पारितंत्र
कृत्रिम या मनुष्य द्वारा निर्मित पारितंत्र- खेत, बांध, उद्यान।
प्राकृतिक पारितंत्र को पुनः दो भागों में बांटा जाता है : पारिस्थितिकी तंत्र घटक पिरामिड
स्थलीय पारितंत्र- वन, पर्वत, मरुस्थल, मैदान, पठार।
जलीय पारितंत्र
जलीय पारितंत्र के पुनः दो भाग होते हैं :
ताजा जल-
लवणीय जल- महासागर समुद्र इत्यादि
ताजा जल के पुनः दो भेद हैं:
प्रवाहित जल जैसे नदी
स्थिर जल जैसे तालाब
पारिस्थितिकी तंत्र के अवयव या घटक
जैविक घटक
उत्पादक : यह अपना भोजन स्वयं बनाते हैं, अतः स्वपोषी कहलाते हैं। जैसे पेड़ पौधे।
उपभोक्ता : इन्हें परपोषी भी कहा जाता है। यह तीन प्रकार के होते हैं- प्राथमिक उपभोक्ता, द्वितीयक उपभोक्ता और तृतीयक उपभोक्ता।
प्राथमिक उपभोक्ता : यह शाकाहारी होते हैं जो प्रत्यक्ष रुप से पादपों पर निर्भर होते हैं। पादपों से ही अपना भोजन प्राप्त करते हैं। जैसे- बकरी, चूहा, गाय, हिरण, खरगोश, तोता इत्यादि।
द्वितीयक उपभोक्ता : यह प्राथमिक उपभोक्ताओं को अपना भोजन बनाते हैं। जैसे- मेंढक, छिपकली, लोमड़ी, भेड़िया आदि।
iii. तृतीयक उपभोक्ता : ये प्राथमिक तथा द्वितीयक उपभोक्ताओं को अपना भोजन बनाते हैं। जैसे- बाज, नेवला, चीता, मगरमच्छ, शेर, मानव आदि।
मगरमच्छ और शेर को गुरु उपभोक्ता की संज्ञा दी जाती है।
* सर्वाहारी : जो जीव शाकाहारी या मांसाहारी दोनों श्रेणियों में रखा जाता है, उसे सर्वाहारी कहते हैं।
अपघटक : वह सजीव जो उत्पादक एवं उपभोक्ताओं के मृत शरीर को जटिल कार्बनिक पदार्थों से सरल कार्बनिक पदार्थों में तोड़ देते हैं, अपघटक या लघु उपभोक्ता या सूक्ष्म उपभोक्ता कहलाते हैं।
जैसे- बैक्टीरिया, कौवा, गिद्ध एवं कवक (फंगस)।
अपघटकों को परिस्थितिकी तंत्र का मित्र भी कहा जाता है।
इन्हें सफाई कर्मचारी की संज्ञा दी जाती है, तथा मृतजीवी भी कहा जाता है।
अजैविक घटक –
वायु
जल
खनिज
चारण/ग्रेजिंग श्रृंखला :
खाद्य श्रृंखला हरे पौधों से प्रारंभ होकर शाकाहारी या मांसाहारी तक जाती है। इसे ही ग्रेजिंग श्रृंखला कहते हैं।
चारण/ग्रेजिंग खाद्य श्रृंखला :
इसमें उत्पादक शीर्ष की ओर जाने पर जीवो की संख्या में कमी हो जाती है, लेकिन पोषण स्तर के आकार में वृद्धि होती है। जैसे पादप – कीट – छोटी मछली – बड़ी मछली
परजीवी खाद्य श्रृंखला :
इस प्रकार के खाद्य श्रृंखला में उत्पादक से शीर्ष की ओर जाने पर संख्या में वृद्धि होती है, जबकि जीव के आकार में कमी होती है। जैसे- पेड़ – चिड़िया – जूं/पिसू – बैक्टीरिया
अपघटक खाद्य श्रृंखला-
यह सबसे छोटी खाद्य श्रृंखला होती है, क्योंकि यह सड़ी गली एवं मृत्त पदार्थों से प्रारंभ होकर अपघटकों पर समाप्त होती है। जैसे – मृत कार्बन पदार्थ – अपघटक।
खाद्य श्रृंखला (फूड चैन) :
वह श्रृंखला जिसमें खाने व खाए जाने का क्रम चलता है। जिसमें ऊर्जा का प्रवाह होता है। जैसे: हरे पादप – टिड्डा – पक्षी – सांप – बाज।
पोषण स्तर या ऊर्जा स्तर : खाद्य श्रृंखला के प्रत्येक स्तर को पोषण स्तर कहा जाता है। पोषण स्तर में ऊर्जा का प्रवाह एक दिशीय होता है, अतः ऊर्जा अपने निचले स्तर में नहीं आती है।
एक पोषण स्तर से दूसरे पोषण स्तर में 10% शुद्ध ऊर्जा जाती है। 90% ऊर्जा का ह्रास हो जाता है।
खाद्य जाल :
किसी भी परिस्थितिकी तंत्र में विभिन्न खाद्य श्रृंखलाएं किसी एक पोषण स्तर से जुड़ कर जटिल जाल बना देती हैं, जिसे खाद्य जाल कहा जाता है।
पारिस्थितिकी स्तूप या पिरामिड
सर्वप्रथम परिस्थितिकी स्तूप की अवधारणा ब्रिटेन के वैज्ञानिक चार्ल्स एल्टन ने दी इसलिए इसे अल्टोनियम पिरामिड भी कहते हैं।
यदि उत्पादक में उपभोक्ताओं को खाद्य श्रृंखला में उनके क्रमानुसार आलेखी रूप में निरूपित किया जाए तो बनने वाली संरचना पारिस्थितिकी पिरामिड या स्तूप कहलाती है।
यह पिरामिड तीन प्रकार के होते हैं-
संख्या के आधार पर पिरामिड :
न, घास स्थल, तालाब के पिरामिड सीधे बनते हैं।
एक वृक्ष का पिरामिड संख्या के आधार पर उल्टा बनता है।
जैव भार के आधार पर पिरामिड :
वृक्ष घास स्थल के पिरामिड सीधा
तालाब का पिरामिड उल्टा
ऊर्जा के पिरामिड :
ऊर्जा के पिरामिड सदैव सीधे बनते हैं।
यह उत्पादक उपभोक्ता में संचित ऊर्जा को दर्शाने वाले होते हैं।
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ecology ke bare ,e apne bhut ache se samjaya hai sir thanks a lot