हालावाद विशेष

हिन्दी शब्दकोश में हालावाद

हम पढ रहे हैं हालावाद, अर्थ, परिभाषा, प्रमुख हालावादी कवि, हालावाद का समय, विशेषताएं, हालावाद पर कथन, हालावादी काव्य पर विद्वानों के कथन।

गणपतिचन्द्र गुप्त ने उत्तर छायावाद/छायावादोत्तर काव्य को तीन काव्यधाराओं में व्यक्त किया है-

राष्ट्रीय चेतना प्रधान

व्यक्ति चेतना प्रधान

समष्टि चेतना प्रधान में बांटा है। इनमें से व्यक्ति चेतना प्रधान काव्य को ही हालवादी काव्य कहा गया है।

हालावाद का अर्थ/हालावाद की परिभाषा

हाला का शाब्दिक अर्थ है- ‘मदिरा’, ‘सोम’ शराब’ आदि। बच्चन जी ने अपनी हालावादी कविताओं में इसे गंगाजल, हिमजल, प्रियतम, सुख का अभिराम स्थल, जीवन के कठोर सत्य, क्षणभंगुरता आदि अनेक प्रतीकों के रूप में प्रयोग किया है।

हालावाद हिन्दी शब्दकोश के अनुसार— साहित्य, विशेषतः काव्य की वह प्रवृत्ति या धारा, जिसमें हाला या मदिरा को वर्ण्य विषय मानकर काव्यरचना हुई हो। साहित्य की इस धारा का आधार उमर खैयाम की रुबाइयाँ रही हैं।

हालावादी काव्य का संबंध ईरानी साहित्य से है जिस का भारत में आगमन अनूदित साहित्य के माध्यम से हुआ।

जब छायावादी काव्य की एक धारा स्वच्छंदत होकर व्यक्तिवादी-काव्य में विकसित हुआ। इस नवीन काव्य धारा में पूर्णतया वैयक्तिक चेतनाओं को ही काव्यमय स्वरों और भाषा में संजोया-संवारा गया है।

Halawad

डॉ.नगेन्द्र ने छायावाद के बाद और प्रगतिवाद के पूर्व की कविता को ‘वैयक्तिक कविता’ कहा है। डॉ. नगेन्द्र के अनुसार, “वैयक्तिक कविता छायावाद की अनुजा और प्रगतिवाद की अग्रजा है, जिसने प्रगतिवाद के लिए एक मार्ग प्रशस्त किया। यह वैयक्तिक कविता आदर्शवादी और भौतिकवादी,दक्षिण और वामपक्षीय विचारधाराओं के बीच का एक क्षेत्र है।”

इस नवीन काव्य धारा को ‘वैयक्तिक कविता’ या ‘हालावाद’ या ‘नव्य-स्वछंदतावाद’ या ‘उन्मुक्त प्रेमकाव्य’ या ‘प्रेम व मस्ती के काव्य’ आदि उपमाओं से अभिहित किया गया है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उत्तर छायावाद को छायावाद का दूसरा उन्मेष कहा है।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने उत्तर छायावाद/छायावादोत्तर काव्य को “स्वछन्द काव्य धारा” कहा है।

हालावाद परिभाषा कवि विशेषताएं
हालावाद परिभाषा कवि विशेषताएं

हालावाद के जनक

हरिवंश राय बच्चन हालावाद के प्रवर्तक माने जाते है। हिन्दी साहित्य में हालावाद का प्रचलन बच्चन की मधुशाला से माना जाता है। हालावाद नामकरण करने का श्रेय रामेश्वर शुक्ल अंचल को प्राप्त है।

हालावाद के प्रमुख कवि

हरिवंशराय बच्चन

भगवतीचरण वर्मा

रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’

नरेन्द्र शर्मा आदि।

हालावादी कवि और उनकी रचनाएं

हरिवंश राय बच्चन (1907-2003):

काव्य रचनाएं:

1.निशा निमंत्रण 2.एकांत-संगीत 3.आकुल-अंतर 4.दो चट्टाने 5.हलाहल 6.मधुबाला 7.मधुशाला 8.मधुकलश 9.मिलन-यामिनी 10.प्रणय-पत्रिका 11.आरती और अंगारे 12.धार के इधर-उधर 13.विकल विश्व 14.सतरंगिणी 15.बंगाल का अकाल 16.बुद्ध और नाचघर.17.कटती प्रतिमाओं की आवाज।

भगवती चरण वर्मा(1903-1980 )

काव्य रचनाएं:

1. मधुवन 2. प्रेम-संगीत 3.मानव 4.त्रिपथगा 5. विस्मृति के फूल।

रामेश्वर शुक्ल अंचल(1915-1996)

काव्य-रचनाएं

1.मधुकर 2.मधूलिका 3. अपराजिता 4.किरणबेला 5.लाल-चूनर 6. करील 7. वर्षान्त के बादल 8.इन आवाजों को ठहरा लो।

नरेंद्र शर्मा(1913-1989):

काव्य रचनाएं

1.प्रभातफेरी 2.प्रवासी के गीत 3.पलाश वन 4.मिट्टी और फूल 5.शूलफूल 6.कर्णफूल 7.कामिनी 8.हंसमाला 9.अग्निशस्य 10.रक्तचंदन 11.द्रोपदी 12.उत्तरजय।

हालावाद का समय

हालावाद का समय 1933 से 1936 तक माना जाता है।

छायावाद और हालावाद/छायावादोत्तर काव्य में अंतर

छायावादी तथा छायावादोत्तर काव्य की मूल प्रवृत्ति व्यक्ति निश्ड है फिर भी दोनों में अंतर है डॉ तारकनाथ बाली के अनुसार- “छायावादी व्यक्ति-चेतना शरीर से ऊपर उठकर मन और फिर आत्मा का स्पर्श करने लगती है जबकि इन कवियों में व्यक्तिनिष्ठ चेतना प्रधानरूप से शरीर और मन के धरातल पर ही व्यक्त होती रही है। इन्होंने प्रणय को ही साध्य के रूप में स्वीकार करने का प्रयास किया है । छायावादी काव्य जहाँ प्रणय को जीवन की यथार्थ-विषम व्यापकता से संजोने का प्रयास करता है वहाँ प्रेम और मस्ती का यह काव्य या तो यथार्थ से विमुख होकर प्रणय में तल्लीन दिखायी देता है, या फिर जीवन की व्यापकता को प्रणय की सीमाओं में ही खींच लाता है।” (हिंदी साहित्य का इतिहास सं. डॉ. नगेन्द्र)

छायावादी काव्य की प्रणयानुभूतियां आत्मा को स्पर्श करने वाली हैं। छायावादियों का प्रेम शनैः -शनैः सूक्ष्म से स्थूल की ओर, शरीर से अशरीर की ओर तथा लौकिक से अलौकिकता की ओर अग्रसर होता है, जबकि छायावादोत्तर (हालवादी) काल के कवियों के यहां प्रेम केंद्रीय शक्ति की तरह है।

हालावाद/छायावादोत्तर काव्य की प्रमुख विशेषताएं

जीवन के प्रति व्यापक दृष्टि का अभाव

आध्यात्मिक अमूर्तता तथा लौकिक संकीर्णता का विरोध

धर्मनिरपेक्षता

जीवन सापेक्ष दृष्टिकोण

द्विवेदी युगीन नैतिकता और छायावादी रहस्यात्मकता का परित्याग

स्वानुभूति और तीव्र भावावेग

उल्लास और उत्साह

जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण

जीवन का लक्ष्य स्पष्ट

भाषा एवं शिल्प

काव्य भाषा- छायावाद की भाषा में जो सूक्ष्मता और वक्रता है वह छायावादोत्तर काव्य में नहीं है।इसका कारण यह है कि इस काव्य में भावनाओं की वैसी जटिलता और गहनता नहीं है, जैसी छायावाद में थीं। लेकिन छायावाद की तरह यह काव्य भी मूलतः स्वच्छंदतावादी काव्य है, इसलिए इसकी भाषा में बौद्धिकता का अभाव है तथा मुख्य बल भाषा की सुकुमारता, माधुर्य और लालित्य पर है। छायावादोत्तर काव्य सीधी-सरल पदावली द्वारा जीवन की अनुभूतियों को व्यक्त करने का प्रयास करता है। छायावादोत्तर काल के कवियों का भाषा के क्षेत्र में सबसे बड़ा योगदान था- काव्य भाषा को बोलचाल की भाषा के नजदीक लाना। यह काम न तो द्विवेदी युग में हुआ था और न ही छायावाद में। यद्यपि इन कवियों ने भी आमतौर पर तत्सम प्रधान शब्दावली का ही प्रयोग किया परन्तु समास बहुलता, संस्कृतनिष्ठता से उन्होंने छुटकारा पा लिया। साथ ही जहाँ आवश्यक हुआ, वहाँ तद्भव, देशज और उर्दू शब्दों का भी प्रयोग किया।

Halawad

काव्य शिल्प – इस काव्यधारा ने भी मुख्यत: मुक्तक रचना की ओर ही अपना ध्यान केन्द्रित किया मुक्तक रचना में भी इन कवियों की प्रवृत्ति गीत रचना की और अधिक थी। इसका एक कारण तो इनका रोमानी प्रवृत्ति का होना था, दूसरा कारण संभवत: यह था कि इनमें से अधिकांश कवि अपनी रचनाओं को सभाओं, गोष्ठियों और कवि सम्मेलनों में पेश करते थे। इस काव्यधारा के गीतों में छायावाद जैसी रहस्यात्मकता और संकोच नहीं है बल्कि अपनी हृदयगत भावनाओं को कवियों ने बेबाक ढंग से प्रस्तुत किया है। यहाँ भी कवि का “मैं” उपस्थित है। इस दौर के गीतिकाव्य की विशेषता का उल्लेख करते हुए डॉ रामदरश मिश्र कहते हैं, “वैयक्तिक गीतिकविता की अभिव्यक्तिमूलक सादगी उसकी एक बहुत बड़ी देन है कवि सीधे-सादे शब्दों, परिचिंत चित्रों और सहज कथन भंगिमा के द्वारा अपनी बात बड़ी सफाई से कह देता है।” डॉ. रामदरश मिश्र

हालावादी काव्य पर विद्वानों के कथन

“व्यक्तिवादी कविता का प्रमुख स्वर निराशा का है, अवसाद का है, थकान का है, टूटन का है, चाहे किसी भी परिप्रेक्ष्य में हो।” -डॉ. रामदरश मिश्र

डॉ. हेतु भारद्वाज ने हालावादी काव्य को “क्षयी रोमांस और कुण्ठा का काव्य” कहा है।

डॉ. बच्चन सिंह ने हालावाद को “प्रगति प्रयोग का पूर्वाभास” कहा है।

“मधुशाला की मादकता अक्षय है”-सुमित्रानंदन पंत

” मधुशाला में हाला, प्याला, मधुबाला और मधुशाला के चार प्रतीकों के माध्यम से कवि ने अनेक क्रांतिकारी, मर्मस्पर्शी, रागात्मक एवं रहस्यपूर्ण भावों को वाणी दी है।” -सुमित्रानंदन पंत

हालावादी काव्य को हजारी प्रसाद द्विवेदी ने “मस्ती, उमंग और उल्लास की कविता” कहा है।

हालावादी कवियों ने “अशरीरी प्रेम के स्थान पर शरीरी प्रेम को तरजीह दी है।”

संदर्भ-

हिन्दी साहित्य का इतिहास – डॉ नगेन्द्र
हिन्दी साहित्य का इतिहास – आ. शुक्ल
इग्नू पाठ्यसामग्री

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‘रासो’ शब्द की व्युत्पत्ति – विभिन्न मत- https://thehindipage.com/raaso-sahitya/raaso-shabad-ki-jankari/

कामायनी के विषय में कथन- https://thehindipage.com/kamayani-mahakavya/kamayani-ke-vishay-me-kathan/

संस्मरण और रेखाचित्र- https://thehindipage.com/sansmaran-aur-rekhachitra/sansmaran-aur-rekhachitra/

आदिकाल के साहित्यकार
आधुनिक काल के साहित्यकार

‘रासो’ शब्द की व्युत्पत्ति – विभिन्न मत

‘रासो’ शब्द की जानकारी

‘रासो’ शब्द की व्युत्पत्ति, अर्थ, रासो साहित्य, विभिन्न प्रमुख मत, क्या है रासो साहित्य?, रासो शब्द का अर्थ एवं पूरी जानकारी।

‘रासो’ शब्द की व्युत्पति तथा ‘रासो-काव्य‘ के रचना-स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न प्रकार की धाराणाओं को व्यक्त किया है।

डॉ० गोवर्द्धन शर्मा ने अपने शोध- प्रबन्ध ‘डिंगल साहित्य में निम्नलिखित धारणाओं का उल्लेख किया है।

रास काव्य मूलतः रासक छंद का समुच्चय है।

रासो साहित्य की रचनाएँ एवं रचनाकार

अपभ्रंश में 29 मात्रओं का एक रासा या रास छंद प्रचलित था।

विद्वानों ने दो प्रकार के ‘रास’ काव्यों का उल्लेख किया है- कोमल और उद्धृत।

प्रेम के कोमल रूप और वीर के उद्धत रुप का सम्मिश्रण पृथ्वीराज रासो में है।

‘रासो’ साहित्य हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि है।

शब्द ‘रासो’ की व्युत्पत्ति के संबंध में विद्वानों में मतैक्य का अभाव है।

क्या है रासो साहित्य?

रासो शब्द का अर्थ बताइए?

‘रासो’ साहित्य अर्थ मत
‘रासो’ साहित्य अर्थ मत

विभिन्न विद्वानों ने इस संबंध में अनेक मत दिए हैं जिनमें से प्रमुख मत इस प्रकार से हैं-

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार बीसलदेव रासो में प्रयुक्त ‘रसायन’ शब्द ही कालान्तर में ‘रासो’ बना।

गार्सा द तासी के अनुसार ‘रासो’ की उत्पत्ति ‘राजसूय’ शब्द से है।

रामचन्द्र वर्मा के अनुसार इसकी उत्पत्ति ‘रहस्य’ से हुई है।

मुंशी देवीप्रसाद के अनुसार ‘रासो’ का अर्थ है कथा और उसका एकवचन ‘रासो’ तथा बहुवचन ‘रासा’ है।

ग्रियर्सन के अनुसार ‘रायसो’ की उत्पत्ति राजादेश से हुई है।

गौरीशंकर ओझा के अनुसार ‘रासा’ की उत्पत्ति संस्कत ‘रास’ से हुई है।

पं० मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या के अनुसार ‘रासो’ की उत्पत्ति संस्कत ‘रास’ अथवा ‘रासक’ से हुई है।

मोतीलाल मेनारिया के अनुसार जिस ग्रंथ में राजा की कीर्ति, विजय, युद्ध तथा तीरता आदि का विस्तत वर्णन हो, उसे ‘रासो’ कहते हैं।

विश्वनाथप्रसाद मिश्र के अनुसार ‘रासो’ की व्युत्पत्ति का आधार ‘रासक’ शब्द है।

कुछ विद्वानों के अनुसार राजयशपरक रचना को ‘रासो’ कहते हैं।

विभिन्न विद्वानों ने इस संबंध में अनेक मत दिए हैं जिनमें से प्रमुख मत इस प्रकार से हैं-

बैजनाथ खेतान के अनुसार ‘रासो या ‘रायसों’ का अर्थ है झगड़ा, पचड़ा या उद्यम और उसी ‘रासो’ की उत्पत्ति है।

के० का० शास्त्री तथा डोलरराय माकंड के अनुसार ‘रास’ या ‘रासक मूलतः नत्य के साथ गाई जाने वाली रचनाविशेष है।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार ‘रासो’ तथा ‘रासक’ पर्याय हैं और वह मिश्रित गेय-रूपक हैं।

कुछ विद्वानों के अनुसार गुजराती लोक-गीत-नत्य ‘गरबा’, ‘रास’ का ही उत्तराधिकारी है।

डॉ० माताप्रसाद गुप्त के अनुसार विविध प्रकार के रास, रासावलय, रासा और रासक छन्दों, रासक और नाट्य-रासक, उपनाटकों, रासक, रास तथा रासो-नृत्यों से भी रासो प्रबन्ध-परम्परा का सम्बन्ध रहा है. यह निश्चय रूप से नहीं कहा जा सकता। कदाचित् नहीं ही रहा है।

मं० र० मजूमदार के अनुसार रासाओं का मुख्य हेतु पहले धर्मोपदेश था और बाद में उनमें कथा-तत्त्व तथा चरित्र-संकीर्तन आदि का समावेश हुआ।

विजयराम वैद्य के अनुसार ‘रास’ या ‘रासो’ में छन्द, राग तथा धार्मिक कथा आदि विविध तत्व रहते हैं।

डॉ० दशरथ शर्मा के अनुसार रास के नृत्य, अभिनय तथा गेय-वस्तु-तीन अंगों से तीन प्रकार के रासो (रास, रासक-उपरूपक तथा श्रव्य-रास) की उत्पत्ति हुई।

विभिन्न विद्वानों ने इस संबंध में अनेक मत दिए हैं जिनमें से प्रमुख मत इस प्रकार से हैं-

हरिबल्लभ भायाणी ने सन्देश रासक में और विपिनबिहारी त्रिवेदी ने पृथ्वीराज रासो में ‘रासा’ या ‘रासो’ छन्द के प्रयुक्त होने की सूचना दी है।

कुछ विद्वानों के अनुसार रसपूर्ण होने के कारण ही रचनाएँ, ‘रास’ कहलाई।

‘भागवत’ में ‘रास’ शब्द का प्रयोग गीत नृत्य के लिए हुआ है।

‘रास’ अभिनीत होते थे, इसका उल्लेख अनेक स्थान पर हुआ है। (जैसे-भावप्रकाश, काव्यानुशासन तथा साहितय-दर्पण आदि।)

हिन्दी साहित्य कोश में ‘रासो’ के दो रूप की ओर संकेत किया गया है गीत-नत्यपरक (पश्चिमी राजस्थान तथा गुजरात में समद्ध होने वाला) और छंद-वैविध्यपरक (पूर्वी राजस्थान तथा शेष हिन्दी में प्रचलित रूप।)

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हिन्दी साहित्य विभिन्न कालखंडों के नामकरण

हिन्दी साहित्य कालखंड नामकरण

कालखंड नामकरण एवं हिन्दी साहित्य काल विभाजन तथा हिंदी साहित्य में प्रचलित काल विभाजन और नामकरण की संपूर्ण जानकारी | हिन्दी साहित्य काल विभाजन एवं कालखंड नामकरण | काल विभाजन और नामकरण की जानकारी | Hindi Sahitya | Kaalkhand | Kaal Vibhajan | Naamkaran

Hindi Sahitya | Kaalkhand | Kaal Vibhajan | Naamkaran

हिन्दी साहित्य के काल-विभाजन को लेकर विद्वानों में मतभेद है,

लेकिन यह मतभेद अधिक गहरा नहीं है मतभेद केवल हिन्दी साहित्य के आरम्भ को लेकर है।

जिसमें मुख्य रुप से दो वर्ग सामने आते हैं पहला वर्ग वह है जो हिंदी साहित्य का प्रारंभ सातवीं शताब्दी ईस्वी से मानता है

दूसरा वर्ग वह है जो हिंदी साहित्य का प्रारंभ दसवीं शताब्दी ईस्वी से स्वीकार करता है।

सातवीं शताब्दी ईस्वी से दसवीं शताब्दी ईस्वी तक का साहित्य अपभ्रंश भाषा में है और अपभ्रंश से ही हिन्दी भाषा का विकास हुआ है।

इसलिए यदि इस कालखंड के भाषा साहित्य एवं साहित्यिक चेतना को यदि समझ लिया जाए तो हिंदी साहित्य की मूल चेतना को समझने में आसानी रहेगी

हिन्दी भाषा एवं साहित्य की मूल चेतना को जानने के लिए इस कालखण्ड की भाषा के स्वरुप एवं साहित्य-धारा को समझना अति आवश्यक है।

इसीलिए पति पर विद्वानों ने अपनी सरकार को भी हिंदी में शामिल कर लिया है और वे हिंदी साहित्य का प्रारंभ सातवीं शताब्दी ईस्वी से मानते हैं जिस प्रकार हिंदी साहित्य के काल विभाजन में न्यूनाधिक मतभेद है

हिन्दी साहित्य काल विभाजन एवं कालखंड नामकरण | काल विभाजन और नामकरण की जानकारी | Hindi Sahitya | Kaalkhand | Kaal Vibhajan | Naamkaran
हिन्दी साहित्य कालखंड नामकरण

उसी प्रकार इसके नामकरण में भी मतभेद है यह मतभेद मुख्यत: दसवीं शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी तक के

आरम्भिक कालखंड (आदिकाल) और सत्रहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी तक के कालखण्ड (रीतिकाल) के नामकरण को लेकर ही अधिक मतभेद है।
हिंदी साहित्य के विभिन्न काल खंडों का नामकरण विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने तर्कानुसार किया है जो निम्नलिखित प्रकार से है।

(अ) दसवी शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी तक के हिन्दी साहित्य कालखंड नामकरण

 ग्रियर्सन – चारण काल

मिश्रबंधु – प्रारंभिक काल

रामचंद्र शुक्ल – वीरगाथा काल

विश्वनाथ प्रसाद मिश्र – वीर काल

महावीर प्रसाद दिवेदी – बीजवपन काल

हजारी प्रसाद द्विवेदी – आदिकाल

राहुल संकृत्यायन – सिद्ध-सामन्त काल

रामकुमार वर्मा – संधि काल और चारण काल

श्यामसुंदर दास – अपभ्रंस काल/वीरकाल

चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ – अपभ्रंस काल

धीरेंद्र वर्मा – अपभ्रंस काल

हरीश – उत्तर अपभ्रंस काल

बच्चन सिंह – अपभ्रंस काल: जातिय साहित्य का उदय

गणपति चंद्र गुप्त – प्रारंभिक काल/शुन्य काल

पृथ्वीनाथ कमल ‘कुलश्रेष्ठ’ – अंधकार काल

रामशंकर शुक्ल – जयकाव्य काल

रामखिलावन पाण्डेय – संक्रमण काल

हरिश्चंद्र वर्मा – संक्रमण काल

मोहन अवस्थी – आधार काल

शम्भुनाथ सिंह – प्राचीन काल

वासुदेव सिंह – उद्भव काल

रामप्रसाद मिश्र – संक्रांति काल

शैलेष जैदी – आविर्भाव काल

चारण काल-

सर्वप्रथम ग्रियर्सन ने हिन्दी साहित्येतिहास का काल विभाजन प्रस्तुत किया

और हिंदी साहित्येतिहास के आरम्भिक काल का नामकरण ‘चारणकाल’ किया है,

परंतु इस नामकरण के पीछे वह कोई ठोस प्रमाण नही दे पाये।

ग्रियर्सन ने चारण काल का प्रारंभ 643 ईसवी से स्वीकार किया है

जबकि विद्वानों के अनुसार 1000 ईसवी तक चारणों की कोई रचना उपलब्ध नहीं होती है

चारणों की जो रचनाएं उपलब्ध होती है वह 1000 ईसवी के बाद की है।

अतः यह नामकरण उपयुक्त नहीं है।

प्रारम्भिक काल-हिन्दी साहित्य कालखंड नामकरण

मिश्रबन्धुओं ने 643 ईसवी से 1387 ईसवी तक के काल को ‘प्रारम्भिक काल’ नाम से अभिहित किया है।

यह नाम किसी साहित्यिक प्रवृत्ति का द्योतक नही है।

यह एक सामान्य संज्ञा है जो हिन्दी भाषा के प्रारम्भ को बताती है।

अत: यह नाम भी तर्कसंगत नही है।

वीरगाथाकाल : हिन्दी साहित्य कालखंड नामकरण

आ. रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास का काल विभाजन करते हुए संवत् 1050 से 1375 विक्रमी तक के कालखंड को हिंदी साहित्य का पहला कालखंड स्वीकार करते हुए हिंदी साहित्य का प्रारंभ संवत् 1000 विक्रमी में स्वीकार किया है

तथा इस कालखंड को ‘वीरगाथा काल’ नाम दिया है।

अपने मत के समर्थन में उन्होंने कहा है-

“आदिकाल की दीर्घ परम्परा के बीच प्रथम डेढ़-दो सौ वर्षों के भीतर तो रचना की किसी विशेष प्रवृत्ति का निश्चय नहीं हो पाता है – धर्म, नीति, श्रृन्गार, वीर सब प्रकार की रचनाएँ दोहों में मिलती है। इस अनिर्दिष्ट लोक-प्रवृत्ति के उपरान्त जब से मुसलमानों की चढ़ाइयाँ आरंभ होती है तब से हम हिन्दी साहित्य की प्रवृत्ति विशेष रूप में बँधती हुई पाते है। राजाश्रित कवि और चारण जिस प्रकार रीति, श्रृन्गार आदि के फुटकल दोहे राजसभा में सुनाया करते थे, उसी प्रकार अपने आश्रयदाता राजाओं के पराक्रम पूर्ण चरितों या गाथाओं का भी वर्णन किया करते थे। यह प्रबन्ध परम्परा ‘रासो’ के नाम से पाई जाती है, जिसे लक्ष्य करके इस काल को हमने ‘वीरगाथा काल’ कहा है।”

शुक्लजी ने इस युग का नामकरण करने के लिए निम्नलिखित बारह ग्रन्थों को आधार बनाया है-
1. विजयपाल रासो
2. हम्मीर रासो
3. कीर्तिलता
4. कीर्तिपताका
5. खुमान रासो
6. बीसलदेव रासो
7. पृथ्वीराज रासो
8. जयचंद प्रकाश
9. जयमयंक जसचन्द्रिका
10. परमाल रासो
11. खुसरो की पहेलियाँ
12. विद्यापति की पदावली

हिन्दी साहित्य : कालखंड नामकरण

जिन बारह रचनाओं के आधार पर शुक्ल जी ने नामकरण किया है उनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है।

हम्मीर रासो, जयचंद्र प्रकाश और जयमयंक जसचन्द्रिका तो नोटिस मात्र ही है।

खुसरो की पहेलियाँ और विद्यापति की पदावली भी वीरगाथात्मक नही है।

परमाल रासो या आल्हाखंड के मूल का आज कही पता नही लगा है।

बीसलदेव रासो और खुमाण रासो भी नये शोधों के आधार पर सोलहवीं शताब्दी में रचित माने गए हैं इसी प्रकार प्रसिद्ध महाकाव्य पृथ्वीराज रासो को भी अर्द्धप्रामाणिक मान लिया गया है।

इसके अतिरिक्त इस काल में केवल वीर काव्य ही नही बल्कि धार्मिक, श्रृंगारिक और लौकिक साहित्य भी प्रचूर मात्रा में रचा गया।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने उन रचनाओं को अप्रामाणिक सिद्ध करते हुए ‘वीरगाथाकाल’ नामकरण को निरर्थक सिद्ध किया है।

सिद्ध सामंत काल

सामाजिक जीवन पर सिद्धों के तथा राजनीतिक जीवन पर सामंतों के वर्चस्व के कारण राहुल सांकृत्यायन ने इस काल का नामकरण ‘सिद्ध सामन्त काल’ किया है।

इस कालखंड के कवियों ने अपने आश्रयदाता सामंतों को प्रसन्न करने के लिए उनका यशोगान किया है तथा सामाजिक जीवन पर दृष्टि डालें तो समाज सिद्ध मत से प्रभावित है।

इस नामकरण पर विद्वानों का मतैक्य नहीं है।

नामकरण से तत्कालीन राजनीतिक वातावरण का ज्ञान होता है, परंतु किसी साहित्यिक प्रवृत्ति का पता नहीं चलता है।
इसके साथ ही नाथ पंथियों का हठयोगिक साहित्य, खुसरो का लौकिक साहित्य विद्यापति की पदावली तथा अन्य साहित्यिक प्रवृत्तियों का इसमें समावेश नहीं होता है अतः यह नाम भी उपयुक्त नहीं है।

बीजवपन काल

भाषा की प्रारंभिक दृष्टि को देखते हुए आ. महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने इस काल का नामकरण ‘बीजवपन काल’ किया है।

परंतु यह नाम भी उपयुक्त नहीं है।

इस नाम से यह आभास होता है कि उस समय साहित्यिक प्रवृत्तियाँ शैशव में थी,

जबकि ऐसा नही है साहित्य उस युग में भी प्रौढ़ता को प्राप्त या अंत: यह नाम उचित नहीं है।

वीरकाल

आ. रामचन्द्र शुक्ल से प्रभावित होकर आ. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र जी ने इस काल का नाम ‘वीरकाल’ किया है।

वास्तव में मिश्रा जी ने इसमें किसी नवीन तथ्य का उद्घाटन नहीं किया है बल्कि यह नाम आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा सुझाए गए वीरगाथा काल नाम का ही परिवर्तित रूप है, अंत: यह नाम भी समीचीन नही है।

सन्धि एवं चारण काल

डॉ. रामकुमार वर्मा ने हिंदी साहित्य के प्रथम कालखंड को दो खण्डों मे विभाजित कर ‘सन्धिकाल’ एवं ‘चारण काल’ नाम दिया है।

इस नामकरण को दो भागों में बाँटने के पीछ कारण था।

संधि काल दो भाषाओं की संधि का काल था

तथा चारणकाल चारण जाति के कवियों द्वारा राजाओं की यशोगाथा को प्रकट करता है

उसमें तत्काीन राजाओ के शौर्य, वीरता एवं साहस का वर्णन है।

उनके जीवन प्रसंगों को अतिशयोक्तिपूर्ण बनाकर वर्णन करना है।

किसी जाति विशेष के नाम पर साहित्य में उस काल का नामकरण उचित नहीं अत: यह नामकरण भी ठीक नहीं है।

अपभ्रंश काल

चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’, श्यामसुंदर दास, धीरेंद्र वर्मा, हरीश, बच्चन सिंह आदि ने हिन्दी साहित्य के प्रथम काल को अपभ्रंश काल के नाम से सम्बोधित किया है।

उन्होंने बताया कि हिन्दी की प्रारम्भिक स्थिति अपभ्रंश भाषा के साहित्य से शुरू होती है,

इसलिए अपभ्रंश काल कहना उचित है ।

आदिकाल

आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने इस काल के साहित्य को अधिकांशतः संदिग्ध और अप्रामाणिक मानते हुए भी उसमें दो विशेषताओं को रेखांकित किया।

नवीन ताजगी और अपूर्व तेजस्विता।

इन दोनों विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए इस काल का नाम उन्होंने ‘आदिकाल’ रखा।

अपने इस मत को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है कि- “वस्तुत: हिन्दी का आदिकाल शब्द एक प्रकार की भ्रामक धारणा की सृष्टि करता है और श्रोता के चित्त में यह भाव पैदा करता है कि यह काल के आदिम मनोभावापन परम्पराविनिर्मुक्त काव्य रूढ़ियों से अछूते साहित्य का काल है। यह ठीक नहीं है यह काल बहुत अधिक परम्परा प्रेमी, रूढ़िग्रस्त और सचेत कवियों का काल है।”

अतः आदिकाल ना किसी एक परंपरा का सूचक ना होकर परंपरा के विकास का सूचक है तथा अपने अंदर सिद्ध, नाथ, रसों, जैन तथा लौकिक एवं फुटकर साहित्य को भी समाहित कर लेता है। यह नाम भाषा और काव्य रूपों के आदि स्वरूप को भी प्रकट करने वाला है अतः हिंदी साहित्य के प्रथम कालखंड के लिए ‘आदिकाल’ नाम ही सर्वाधिक उपयुक्त एवं सर्वमान्य है

(ब) चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक के कालखंड नामकरण

चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक के कालखण्ड में भक्ति की प्रवृत्ति को देखते हुए आ. रामचन्द्र शुक्ल जी ने सं. 1375 से लेकर 1700 वि. तक के कालखण्ड को पूर्व मध्यकाल की संज्ञा से अभिहित किया है।

आलोच्य युग के साहित्य में भक्ति की मुख्य प्रवृत्ति को देखते हुए आ. शुक्ल ने इस कालावधि का नामकरण ‘भक्तिकाल’ भी किया है।

‘भक्तिकाल’ नाम को परवर्ती सभी विद्वानों ने स्वीकार किया है और आज भी भक्तिकाल’ नामकरण सर्वमान्य है।

(स) सत्रहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी तक के कालखण्ड (रीतिकाल) के नामकरण :-

आलोच्य काल के नामकरण को लेकर भी विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है विभिन्न विद्वानों ने अपने अपने तर्कों के आधार पर उक्त कालखंड के विभिन्न नामकरण किए हैं जो निम्नलिखित प्रकार से हैं-

अलंकृतकाल – मिश्रबन्धु

रीतिकाल – आ. रामचन्द्र शुक्ल

कलाकाल – रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल

श्रृंगार काल – पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र

अलंकृतकाल

इस काल की कविता में अलंकारों की प्रधानता को देखते हुए मिश्र बंधुओं ने इसे अलंकृत काल कहा है।

मिश्रबन्धुओं ने इस युग का नामकरण करते हुए कहा है कि – “रीतिकालीन कवियों” ने जितने आग्रह के साथ रचना शैली को अलंकृत करने का प्रयास किया है. उतना अन्य किसी भी काल के कवियों ने नहीं।

इस प्रवृत्ति के कारण यह अलंकृतकाल है।

इस काल को अलंकृतकाल कहने का दूसरा कारण यह है कि इस काल के कवियों ने अलंकार निरूपक ग्रन्थों के लेखन में विशेष रूचि प्रदर्शित की।

परंतु इस काल को ‘अलंकृतकाल’ नाम देना उचित नहीं है क्योंकि यह कविता केवल अलंकृत ही नहीं है इतर काव्यांगों को भी इसमें यथोचित स्थान प्राप्त रहा है। अलंकरण की प्रवृत्ति इस काल की विशेष प्रवृत्ति नहीं है। यह प्रवृत्ति तो हिन्दी के आदिकाल से लेकर आज तक चली आ रही है। दूसरे यह नामकरण कविता के केवल बहिरंग पक्ष का सूचक है। इससे कविता के अंतरंग पक्ष, भाव एवं रस की अवहेलना होती है। आलोच्य काल के कवियों ने अलंकारों की अपेक्षा रस पर अधिक बल दिया है। इसके अतिरिक्त अलंकृतकाल नाम को स्वीकार कर लेने से इस काल की विशेष प्रवृत्ति श्रृंगार और शास्त्रीयता की पूर्ण उपेक्षा हो जाती है।

कलाकाल

रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल’ ने इस काल में सामाजिक सांस्कृतिक तथा साहित्यिक पक्ष में कला वैशिष्ट्य को ध्यान में रखते हुए आलोच्य काल को ‘कलाकाल’ नाम दिया है।

उनका कहना है कि “मुगल सम्राट शाहजहाँ का सम्पूर्ण शासन काल कला वेष्टित था। इस युग में एक ओर स्थापत्य कला का चरम बिन्दु ताजमहल के रूप में ‘काल के गाल का अश्रू’ बनकर प्रकट हुआ तो दूसरी ओर हिन्दी कविता भी कलात्मकता से संयुक्त हुई। इस काल के कवियों ने विषय की अपेक्षा शैली की ओर अधिक ध्यान दिया। उनकी कविता में चित्रकला का भी योग हुए बिना न रह सका। अत:एवं यह कलाकाल है।”

डॉ रमा शंकर शुक्ल ‘रसाल’ द्वारा सुझाए गए कलाकाल नाम से भी मिश्र बंधुओं द्वारा सुझाए गए अलंकृत काल नाम की तरह ही कविता के बाह्य पक्ष की विशेषता का ही बोध होता है और कविता का आंतरिक पक्ष उपेक्षित रह जाता है तथा इस युग की व्यापक श्रृंगारिक चेतना और शास्त्रीयता की पूर्ण अवहेलना हो जाती है।

श्रृंगारकाल

पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इस काल मे श्रृंगार रस की प्रधानता को ध्यान में रखकर इस काल को को ‘श्रृंगारकाल’ की उपमा दी है।

परंतु यह नाम भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि रीतिकालीन कवियों ने श्रृंगार के अतिरिक्त अन्य रसों की कविता भी लिखी है।

श्रृगारिकता के साथ-साथ आलंकारिकता और शास्त्रीयता इस काल की कविता के विशेष गुण हैं भक्तिपरक, नीतिपरक रचनाएँ भी इस युग में लिखी गई है।

इस युग के कवियों का उद्देश्य तो अपने आश्रयदाताओं को प्रसन्न कर अर्थोपार्जन करना था अत: यह नामकरण उचित नहीं है।

रीतिकाल

मूर्धन्य विद्वान आ. रामचन्द्र शुक्ल जी ने एक परम्परा की प्रवृति के आधार पर इस युग का नामकरण ‘रीतिकाल’ किया है।

उनका मत है कि- “इन रीतिग्रन्थों” के कर्ता भावुक, सहृदय और निपुण कवि थे।

उनका उद्देश्य कविता करना था, न कि काव्यांगो का शास्त्रीय पद्धति पर निरुपण करना।

अत: उनके द्वारा बड़ा भारी कार्य यह हुआ कि रसों (विशेषतः श्रृंगार रस) और अलंकारों के बहुत ही सरस और हृदयग्राही उदाहरण अत्यन्त प्रचूर परिमाण में प्राप्त हुए।”

अलंकृत काल

शुक्लजी के इस नामकरण का आधार इस काल में रीतिग्रन्थों और रीति ग्रन्थकारों की सुदीर्घ परम्परा है।

इस नाम को सभी परवर्ती सभी विद्वानों ने लगभग एकमत से स्वीकार किया है।

‘रीतिकाल’ नाम की सार्थकता को स्पष्ट करते हुए डॉ० भगीरथ मिश्र ने ‘रीतिकाल’ नामकरण का अनुमोदन करते हुए कहा है-

“इस युग के नाम के सम्बन्ध में मतभेद मिलता है।

मिश्रबन्धु इसको ‘अलंकृत काल’ कहते हैं।

आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र इसे श्रृंगार काल’ नाम से अभिहित करते हैं तथा डॉ नगेन्द्र इसे रीतियुग कहने के पक्ष में हैं।

प्रत्येक विद्वान के अपने-अपने तर्क हैं और उस आधार पर इन नामों का औचित्य भी ठहरता है।

अलंकार की प्रधान प्रवृत्ति के कारण इसका अलंकृत काल नाम जहाँ औचित्य रखत है, वहीं श्रृंगारिक रचना की प्रधानता के कारण इसे शृंगार-काल कहा जा सकता है।

 

परन्तु उस युग के समग्र काव्य ध्यानपूर्वक देखने पर हमें लगता है कि न तो अलंकरण ही स्वच्छंद है और न श्रृंगार वर्णन ही।

पर ये दोनों एक ही परिपाटी पर चलते हैं रीति में बँधे हैं।

अलंकार के विपरीत उस युग में निरलंकृत भक्ति व रस काव्य भी कम नहीं है और श्रृंगार के विपरीत बीर, नीति और भक्ति काव्य बहुत प्रचुर मात्रा में मिलता है।

पर यह समग्र काव्य अपनी-अपनी परिपाटी का पालन करते हुए लिखा गया है।

चाहे वह भक्ति, बीर, नीति, शृंगार कोई भी काव्य क्यों न हों, एक रीतिबद्धता इस युग में देखने को मिलती है।

बीर काव्य युद्ध वर्णन की पद्धति को अपनाकर चलता अथवा काव्यशास्त्रीय लक्षणों का आधार ग्रहण किए है।

रीतिकाल

इसी प्रकार निर्गुण भक्ति-काव्य विभिन्न अंगों में विभाजित है।

कृष्ण-भक्ति-काव्य रागों या अष्टायाम-पूजा या लीला-पद्धति में ढलकर आया है,

इतना ही नहीं इस युग के काव्य की प्रमुख विशेषता रीतिबद्धता है

ऐसी दशा में इस युग का नाम रीति-युग ही स्वीकार करना अधिक उपयुक्त होगा।

इस नाम से उस युग के समग्र काव्य का स्वरूप स्पश्ट हो जाता है

और यह रीतिबद्धता की विशेषता चेतन या अचेतन रूप में उस युग की समस्त-काव्य-धाराओं पर लागू होती है।

इसलिए मेरे विचार से रीतियुग नाम देना ही उचित है।

“इस प्रकार ‘रीतिकाल’ नामकरण अधिक युक्तियुक्त, सार्थक एवंम् समीचीन है।

(द) 19वीं शताब्दी से अब तक के कालखंड नामकरण

यद्यपि प्रत्येक काल अपने पूर्व काल से अधिक आधुनिक होता है तथापि गद्य का आविर्भाव ही इस आलोच्य काल की सबसे बड़ी विशेषता है।

संवत् 1900 से आरम्भ हुए आधुनिक काल में गद्य का विकास इस काल की सबसे महत्वपूर्ण घटना और आधुनिकता का सूचक है।

यद्यपि इस काल में कविता के क्षेत्र में भी विविध नवीन प्रवृत्तियों का विकास हुआ है,

किंतु जैसा विकास गद्य के विभिन्न अंगों का हुआ है, वैसा कविता का नहीं हो सका है।

को आ. रामचन्द्र शुक्लजी ने गद्य के पूर्ण विकास एवं प्रधानता को देखते हुए ‘गद्य काल’ नाम दिया है।

आ. हजारीप्रसाद द्विवेदी प्रेस के उद्भव को ही आधुनिकता का वाहक मानते है।

श्यामसुन्दर दास इसे ‘नवीन विकास का युग’ कहते है।

हिन्दी साहित्य : कालखंड नामकरण

‘आधुनिक काल’ को आ. शुक्ल जी ने तीन चरणों में विभक्त किया है और इन्हें प्रथम उत्थान, द्वितीय उत्थान तथा तृतीय उत्थान कहा है।

अधिकांश आधुनिक विद्वानो ने इस काल के प्रमुख साहित्यकारों के अवदान के आधार पर इसके उपभागों के नामकरण ‘भारतेन्दु युग’ अथवा ‘पुनर्जागरण काल’, ‘द्विवेदी युग अथवा ‘जागरण-सुधार काल’ आदि किये हैं।

इसके बाद के कालखण्डों को भी विद्वानों ने ‘छायावादी युग’ तथा ‘छायावादोत्तर युग’ में प्रगति, प्रयोग काल, नवलेखन काल नाम दिये हैं।

आधुनिक काल की प्रगति इतनी विशाल और बहुमुखी है कि उसे किसी विशिष्ट वाद या प्रवृत्ति की संकुचित सीमा में नहीं बाँधा जा सकता।

सर्वमान्य मत के अनुसार आलोच्य काल का नाम आधुनिक काल ही उपयुक्त है।

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महाकवि पुष्पदंत Mahakavi Pushpdant

महाकवि पुष्पदंत

महाकवि पुष्पदंत Mahakavi Pushpdant का परिचय, पुष्पदंत की रचनाएँ, पुष्पदंत के उपनाम और उपाधियाँ, महाकवि पुष्पदंत | Mahakavi Pushpdant | के लिए प्रमुख कथन आदि की जानकारी

परिचय

अपभ्रंश भाषा में अनेक नामचीन कवि हुए हैं; जिनमें से पुष्पदंत एक प्रमुख नाम है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने पुष्पदंत को अपभ्रंश के श्रेष्ठ कवियों में स्वयम्भू के बाद दूसरे स्थान पर रखा है।

पुष्पदंत ने स्वयं अपने विषय में अपनी रचनाओं में जानकारी दी है। उनके ग्रंथों में उनके माता-पिता, आश्रयदाता, वास-स्थान, स्वभाव, कुल-गोत्र आदि की जानकारी प्राप्त हो जाती है। इनके परवर्ती कवियों ने भी इनका नाम बड़े आदर और सम्मान से लिया है। आधुनिक शोध एवं खोजों से भी पुष्पदंत के विषय में पर्याप्त जानकारी मिलती है।

महाकवि पुष्पदंत का परिचय एवं रचनाएँ
महाकवि पुष्पदंत का परिचय एवं रचनाएँ

मातापिता एवं कुलगोत्र

पुष्पदंत के पिता का नाम केशव भट्ट और माता का नाम मुग्धादेवी था।आप काश्यप गोत्र के ब्राह्मण थे और पहले शैव मतावलम्बी थे तथा किसी भैरव नामक राजा (शैव मतावलम्बी) की प्रशंसा में काव्य का प्रणयन भी किया था।अंतः साक्ष्य के आधार पर कह सकते हैं कि पुष्पदंत 10 वीं शताब्दी में वर्तमान थे।

निवास स्थान

कवि पुष्पदंत का निवास मान्यखेट (दक्षिण भारत) में राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय के प्रधानमंत्री भरत तथा उसके पश्चात गृह मंत्री नन्न के आश्रय में था। भरत के अनुरोध पर ही पुष्पदंत जिन भक्ति की ओर प्रवृत्त हो काव्य सृजन में रत हुए। पुष्पदंत ने संन्यास विधि से शरीर त्यागा।

महाकवि पुष्पदंत के उपनाम और उपाधियां (महाकवि पुष्पदंत का परिचय एवं रचनाएँ)

पुष्पदंत का घरेलू नाम खंडू अथवा खंड था। इनकी अनेक उपाधियाँ थी जो उनके ग्रंथों उसे हमें प्राप्त होती –

महापुराण में प्राप्त उपाधियां

महाकवि, कविवर, सकल कलाकार, सर्वजीव निष्कारण मित्र, सिद्धि विलासिनी, मनहरदूत, काव्य पिंड, गुण-मणि निधान, काव्य रत्नरत्नाकर, शशि लिखित नाम, वर-वाच विलास, काव्यकार,सरस्वती निलय, तिमिरौन्सारण।

ण्यकुमार चरिउ से-

विशाल चित्त, गुण गण महंत, वागेश्वरी देवानिकेत, भवय जीव-पंकरुह भानु।

जसहर चरिउ से- सरस्वती निलय।

महाकवि पुष्पदंत की रचनाएँ (महाकवि पुष्पदंत का परिचय एवं रचनाएँ)

निम्नलिखित तीन ग्रंथों को पुष्पदंत की प्रामाणिक रचनाएं माना जाता है-

तिसट्ठि महापुरिस गुणालंकार (महापुराण)

ण्यकुमार चरिउ (नागकुमार चरित्र)

जसहर चरिउ (यशोधर चरित्र)

महापुराण

यह पुष्पदंत की प्रथम रचना मानी जाती है, जिसे उन्होंने राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीया के मंत्री भरत के आश्रय में उन्हीं की प्रेरणा से मान्य खेत में लिखा था। अंतः साक्ष्यों के अनुसार पुष्पदंत ने 959 ईस्वी में इसे लिखना आरंभ किया तथा 965 ईस्वी में यह ग्रंथ पूर्ण हुआ। संपूर्ण ग्रंथ में 102 संधियाँ 1960 कड़वक तथा 27107 पद हैं। महापुराण में तिरसठ महापुरुषों का जीवन चरित्र वर्णित है।

ण्यकुमार चरिउ

यह नौ संधियों का खंडकाव्य है, जिसकी रचना महापुराण के बाद हुई है। अंतः साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि पुष्पदंत ने इसकी रचना मंत्री नन्न के आश्रय में की थी। इस ग्रंथ में नाग कुमार के चरित्र द्वारा श्री पंचमी के उपवास का फल बताया गया है।

जसहर चरिउ

जसहरचरिउ पुष्पदंत की अंतिम रचना मानी जाती है। जिसे उन्होंने नन्न के आश्रय में लिखा था। यह चार संधियों की लघु रचना है, जिसमें यशोधर का चरित्र वर्णित किया गया है।

महाकवि पुष्पदंत के लिए प्रमुख कथन (महाकवि पुष्पदंत का परिचय एवं रचनाएँ)

पुष्पदंत मनुष्य थोड़े ही है, सरस्वती उनका पीछा नहीं छोड़ती” –हरिषेण।

“अपभ्रंश का भवभूति”- डॉ हरिवल्लभ चुन्नीलाल भयाणी।

“बाण के बाद राजनीति का इतना उग्र आलोचक दूसरा लेखक नहीं हुआ। सचमुच मेलपाटी के उस उद्यान में हुई अमात्य भरत और पुष्पदन्त की भेंट भारतीय साहित्य की बहुत बड़ी घटना है। यह अनुभूति और कल्पना की अक्षय धारा है, जिससे अपभ्रंश साहित्य का उपवन हरा-भरा हो उठा। मंत्री भरत माली थे और कृष्ण वर्ण कुरूप पुष्पदन्त कवि-मनीषी, के स्नेह के आलवाल में कवि श्री का काव्य-कुसुम मुकुलित हुआ।” –डॉ. देवेंद्र कुमार जैन।

स्रोत

1 महापुराण

2 ण्यकुमार चरिउ

3 जसहर चरित

4 महाकवि पुष्पदन्त–राजनारायण पाण्डेय

5 जैन साहित्य और इतिहास – नाथूराम प्रेमी

6 अपभ्रंशभाषा और साहित्य – डॉ. देवेंद्र कुमार जैन

इन्हें भी अवश्य पढें-

स्वयम्भू

गोरखनाथ

सिद्ध सरहपा

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सिद्ध सरहपा Siddh Sarhapa – प्रथम हिन्दी कवि

सिद्ध सरहपा Siddh Sarhapa : व्यक्तित्व एवं कृतित्व

सिद्ध सरहपा Siddh Sarhapa प्रथम हिन्दी कवि के व्यक्तित्व एवं कृतित्व, जीवन परिचय, रचनाएं, भाषा शैली, 84 सिद्धों के नाम एवं प्रमुख कथन

हिंदी साहित्य का आरंभिक कवि सरहपा को माना जाता है।

यह 84 सिद्धों में प्रथम माने जाते हैं।

सरहपा के बारे में चर्चा करने से पहले सिद्ध संप्रदाय की संक्षिप्त जानकारी आवश्यक है।

सामान्य रूप से जब कोई साधक साधना में प्रवीण हो जाता है और विलक्षण सिद्धियां प्राप्त कर लेता है तथा उन सिद्धियों से चमत्कार दिखाता है, उसे सिद्ध कहते हैं।

प्रथम हिन्दी कवि-सिद्ध सरहपा
प्रथम हिन्दी कवि-सिद्ध सरहपा

लगभग आठवीं शताब्दी में बौद्ध धर्म से सिद्ध संप्रदाय का विकास हुआ था।

बहुत संप्रदाय विघटित होकर दो शाखाओं- हीनयान तथा महायान में बँट गया।

कालांतर में महायान पुनः दो उपशाखाओं में विभाजित हुआ-

(क) वज्रयान

(ख) सहजयान

इन्हीं शाखाओं के अनुयाई साधकों को सिद्ध कहा गया है।

वज्रयानियों का केंद्र श्री पर्वत रहा है।

सिद्धों के समय को लेकर विद्वानों में मतभेद है।

महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने सिद्धों का समय सातवीं शताब्दी स्वीकार किया है।

डॉ रामकुमार वर्मा ने इनका समय संवत् 797 से 1257 तक माना है।

जबकि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इनका समय दसवीं शताब्दी स्वीकार किया है।

सिद्धों की संख्या

संख्या 84 मानी जाती है।

तंत्र साधना में 84 का गूढ़ तांत्रिक अर्थ तथा विशेष महत्व होता है।

योग तथा तंत्र में आसन भी 84 माने गए हैं।

84 सिद्धों का संबंध 84 लाख योनियों से भी माना जाता है।

काम शास्त्र में 84 आसन भी स्वीकार किए गए हैं।

हिंदी साहित्य कोश के अनुसार 12 राशियों तथा 7 नक्षत्रों का गुणनफल भी 84 होता है।

उस समय प्रत्येक संप्रदाय 84 की संख्या को महत्व देता था।

सिद्धों का 84 ही होने का कोई पुष्ट प्रमाण नहीं मिलता है।

डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा उपलब्ध करवाई गई 84 सिद्धों की सूची इस प्रकार है-

संख्या

(1) लुइपा – कायस्थ, (2) लीलापा, (3) विरूपा, (4) डोम्बिपा – क्षत्रिय, (5) शबरपा- क्षत्रिय, (6) सरहपा – ब्राह्मण, (7) कंकालीपा – शूद्र, (8) मीनपा- मछुआ, (9) गोरक्षपा, (10) चोरंगिपा – राजकुमार, (11) वीणापा – राजकुमार, (12) शान्तिपा – ब्राह्मण, (13) तंतिपा तँतवा, (14) चमारिपा – चर्मकार, (15) खड्गपा – शूद्र, (16) नागार्जुन – ब्राह्मण, (17) कण्हपा – कायस्थ, (18) कर्णरिपा, (19) थगनपा – शूद्र, (20) नारोपा – ब्राह्मण,

(21) शलिपा – शूद्र, (22) तिलोपा-ब्राह्मण, (23) छत्रपा-शूद्र, (24) भद्रपा- ब्राह्मण, (25) दोखंधिपा, (26) अजोगिपा – गृहपति, (27) कालपा, (28) धम्मिपा –  धोबी, (29) कंकणपा –  राजकुमार, (30) कमरिपा, (31) डेंगिपा – ब्राह्मण, (32) भदेपा, (33) तंधेपा – शूद्र, (34) कुक्कुरिपा – ब्राह्मण, (35) कुचिपा – शूद्र, (36) धर्मपा – ब्राह्मण, (37) महीपा – शूद्र, (38) अचितपा – लकड़हारा, (39) भलहपा क्षत्रिय, (40) नलिनपा, (41) भुसुकिपा – राजकुमार,

(42) इन्द्रभूति – राजा, (43) मेकोपा – वणिक्, (44) कुठालिपा, (45) कमरिपा – लोहार, (46) जालंधरपा – ब्राह्मण, (47) राहुलपा- शूद्र(48) मेदनीपा(49) धर्वरिपा, (50) धोकरिपा – शूद्र, (51) पंकजपा – ब्राह्मण, (52) घंटापा – क्षत्रिय, (53) जोगीपा डोम, (54) चेकुलपा-  शूद्र, (55) गुंडरिपा – चिड़मार, (56) लुचिकपा – ब्राह्मण, (57) निर्गुणपा – शूद्र, (58) जयानन्त – ब्राह्मण, (59) चर्पटीपा – कहार, (60) चम्पकपा, (61) भिखनपा – शूद्र, (62) भलिपा – कृष्ण घृत वणिक्, (63) कुमरिपा, (64) चवरिपा, (65) मणिभद्रा – (योगिनी) गृहदासी, (66) मेखलापा (योगिनी) गृहपति कन्या, (67) कनपलापा (योगिनी) गृहपति कन्या, (68) कलकलपा – शूद्र, (69) कंतालीपा – दर्जी, (70) धहुलिपा – शूद्र, (71) उधलिपा – वैश्य, (72) कपालपा – शूद्र, (73) किलपा – राजकुमार,(74) सागरपा–राजा(75) सर्वभक्षपा – शूद्र, (76) नागबोधिपा- ब्राह्मण,(77) दारिकपा- राजा, (78) पुतुलिपा- शूद्र, (79) पनहपा- चमार, (80) कोकालिपा – राजकुमार, (81) अनंगपा -शूद्र, (82) लक्ष्मीकरा – (योगिनी) राजकुमारी, (83) समुदपा, (84) भलिपा – ब्राह्मण । सिद्धों के नाम के साथ आदर सूचक शब्द ‘पा’ जुड़ता है।

डॉ रामकुमार वर्मा सरहपा को हिंदी का प्रथम कवि स्वीकार करते हुए, उनकी कविता में हिंदी कविता के आदि रूप का अस्तित्व स्वीकार किया है। उनके मत से अन्य प्रमुख साहित्यकार भी सहमत नजर आते हैं।

प्रथम हिन्दी कवि-सिद्ध सरहपा व्यक्तित्व एवं कृतित्व

सरहपा सिद्धों में प्रथम सिद्ध माने जाते हैं। इन्होंने ही सिद्ध संप्रदाय का प्रवर्तन किया।

कतिपय विद्वान मानते हैं कि सरहपा ने ही महामुद्रा साधना का प्रथम अभ्यास किया तथा इसमें सिद्धि प्राप्त की।

सरहपा के जन्म तथा मृत्यु के विषय में पर्याप्त जानकारी का अभाव है लेकिन कुछ साक्ष्यों के आधार पर उनके समय का अनुमान लगाया जाता है।

डॉ राहुल सांकृत्यायन के मतानुसार सरहपा आठवीं शताब्दी (769) के लगभग वर्तमान थे।

डॉ ग्रियर्सन, शिव सिंह सेंगर, मिश्र बंधु,चंद्रधर शर्मा गुलेरी, हजारी प्रसाद द्विवेदी तथा डॉ रामकुमार वर्मा राहुल जी से दूर तक सहमत हैं।

सरहपा के कई नाम सरोरुह, वज्र, सरोवज्र, पद्म, पद्मवज्र तथा राहुलभद्र आदि मिलते हैं।

सिद्धि प्राप्त करने से पूर्व इनका नाम राहुल भद्रथा, बाद में सरहपा हुआ।

तिब्बत में प्रचलित के किंवदंती के अनुसार सरहपा का जन्म उड़ीसा में हुआ था।

डॉ राहुल सांकृत्यायन ‘दोहाकोश’ की भूमिका में सरहपा का जन्म स्थान राज्ञी नामक गांव को माना है, परंतु वर्तमान में इस नाम का कोई गांव नहीं है।

विद्वानों का मत है कि यह गांव शायद बिहार के भागलपुर के आस-पास रहा होगा।

इन्हे वेद वेदांगों में बचपन से ही विशेष रुचि थी।

मध्यप्रदेश में इन्होंने  त्रिपिटकों का अध्ययन किया और बौद्ध धर्म में दीक्षित होकर नालंदा आ गए, वहां से महाराष्ट्र पहुंचे और महामुद्रा योग में सिद्धि प्राप्त कर सिद्ध कहलाए।

सरहपा  और उनके  समकालीन साहित्य पर अनेक विद्वानों ने शोध कार्य किया है जिनमें मिशेल, हरमन याकोबी, चन्द्रमोहन घोष, महामहोपाध्याय पण्डित विधुशेखर शास्त्री, महामहोपाध्याय पं. हरप्रसाद शास्त्री, डॉ. प्रबोधचन्द्र बागची, मुनि जिनविजय, डॉ शहीदुल्ला, महापण्डित राहुल सांकृत्यायन आदि मुख्य हैं।

इनके प्रयासों से ही आज इस काल का साहित्य थोड़ा बहुत हमें उपलब्ध है।

सिद्ध सरहपा Siddh Sarhapa की रचनाएं

सरहपा ने लगभग 32 ग्रंथों की रचना कीजिनमें से दोहाकोश इनकी श्रेष्ठ रचना मानी जाती है।

दोहाकोश की भूमिका में राहुल सांकृत्यायन ने 7 कृतियों की एक सूची दी है, जिन्हें सरहपा की रचनाएं कहा जा सकता है।

इसके अतिरिक्त दोहाकोश की भूमिका में ही राहुल जी ने सरहपा की संभावित 16 अन्य कविताओं की सूची भी दी है।

सिद्ध सरहपा Siddh Sarhapa के लिए प्रमुख कथन

“आज की भाषा में अबनार्मल प्रतिभा के धनी थे मूड आने पर वह कुछ गुनगुनाने लगते। शायद उन्होंने स्वयं इन पदों को लेखबद्ध नहीं किया। यह काम उनके साथ रहने वाले सरह के भक्तों ने किया। यही कारण है, जो ‘दोहा-कोश के छन्दों के क्रम और संख्या में इतना अन्तर मिलता है। सरह जैसे पुरुष से यह आशा नहीं रखनी चाहिए कि वह अपनी धर्म की दूकान चलाएगा, पर, आगे वह चली और खूब चली, इसे कहने की आवश्यकता नहीं।”महापंडित राहुल सांकृत्यायन

“जब उन्हें वहाँ का जीवन दमघोंटू लगने लगा, तो उन्होंने सब कुछ को लात मारी, भिक्षुओं का बाना छोड़ा, अपनी नहीं, किसी दूसरी छोटी जाति की तरुणी को लेकर खुल्लमखुल्ला सहजयान का रास्ता पकड़ा।”महापंडित राहुल सांकृत्यायन

“सिद्ध-सामंत युग की कविताओं की सृष्टि आकाश में नहीं हुई है वे हमारे देश की ठोस धरती की उपज हैं। इन कवियों ने जो खास-खास शैली भाव को लेकर कविताएँ की, वे देश की तत्कालीन परिस्थितियों के कारण ही।”  –महापंडित राहुल सांकृत्यायन

“आक्रोश की भाषा का पहला प्रयोग सरहपा में ही दिखाई देता है।“डॉ. बच्चन सिंह

सरहपा की प्रमुख पंक्तियाँ

  1. पंडिअ सअल सत्त बक्खाणइ। देहहि रुद्ध बसंत न जाणइ।

अमणागमण ण तेन विखंडिअ। तो विणिलज्जइ भणइ हउँ पंडिय।।

  1. जहि मन पवन संचरइ, रवि ससि नाहि पवेश।

तहि वत चित्त विसाम करु, सरेहे कहिअ उवेश।।

  1. घोर अधारे चंदमणि जिमि उज्जोअ करेइ।

परम महासुह एषु कणे दुरिअ अशेष हरेइ।।

प्रथम हिन्दी कवि-सिद्ध सरहपा के व्यक्तित्व एवं कृतित्व, जीवन परिचय, रचनाएं, भाषा शैली, 84 सिद्धों के नाम एवं प्रमुख कथन के बारे में जानकारी

स्रोत पुस्तकें

दोहकोश

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय स्नातकोत्तर (हिंदी)की पाठ्य सामग्री

हिंदी साहित्य का इतिहास- डॉ नगेंद्र

हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास – डॉ बच्चन सिंह

हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली (खंड 3)

इन्हें भी अवश्य पढें-

महाकवि पुष्पदंत

स्वयम्भू

गोरखनाथ

सिद्ध सरहपा

अतः हमें आशा है कि आपको यह जानकारी बहुत अच्छी लगी होगी। इस प्रकार जी जानकारी प्राप्त करने के लिए आप https://thehindipage.com पर Visit करते रहें।

हाइकु कविता (Haiku)

हाइकु कविता (Haiku)

हायकु काव्य छंद का इतिहास, अर्थ, हायकु विधा, हायकु कविता कोश, हायकु काव्य शैली, क्षेत्र, भारतीय और जापानी हायकु सहित अन्य पूरी जानकारी

कविता का कैनवास विश्वव्यापी है।

ब्रह्मांड की प्रत्येक वस्तु कविता का क्षेत्र है।

विश्व की अलग-अलग भाषाओं में कविता रचना की अलग-अलग शैलियां और छंद हैं,

परंतु बहुत कम शैलियां या छंद ऐसे हैं जो विश्वव्यापी हुए हैं।

किसी छंद के वैश्वीकरण के लिए उस छंद में विश्व की अन्य भाषाओं में ढलने की क्षमता और प्रभावोत्पादकता होनी चाहिए।

हाइकु जापानी भाषा का एक ऐसा ही छंद है, जिसका प्रसार विश्व की अनेक भाषाओं में हुआ है।

हाइकु के संबंध में कतिपय विद्वानों के मत इस प्रकार हैं-

हायकु काव्य छंद इतिहास
हायकु काव्य छंद इतिहास

(धर्मयुग, 16 अक्टूबर 1966) उद्धृत हाइकु दर्पण के अनुसार

“हाइकु का जन्म जापानी संस्कृति की परम्परा, जापानी जनमानस और सौन्दर्य चेतना में हुआ और वहीं पला है। हाइकु में अनेक विचार-धाराएँ मिलती हैं- जैसे बौद्ध-धर्म (आदि रूप, उसका चीनी और जापानी परिवर्तित रूप, विशेष रूप से जेन सम्प्रदाय) चीनी दर्शन और प्राच्य-संस्कृति। यह भी कहा जा सकता है कि एक “हाइकु” में इन सब विचार-धाराओं की झाँकी मिल जाती है या “हाइकु” इन सबका दर्पण है।”

प्रो० नामवर सिंह[ हाइकु पत्र, 1 फरवरी 1978, उद्धृत हाइकु दर्पण के अनुसार

“Haiku एक संस्कृति है, एक जीवन-पद्धति है।

तीन पंक्तियों के लघु गीत अपनी सरलता, सहजता, संक्षिप्तता के लिए जापानी-साहित्य में विशेष स्थान रखते हैं।

इसमें एक भाव-चित्र बिना किसी टिप्पणी के, बिना किसी अलंकार के प्रस्तुत किया जाता है, और यह भाव-चित्र अपने आप में पूर्ण होता है।”

हाइकु की पहचान

हाइकु मूलतः जापानी छन्द है।

जापानी हाइकु में वर्ण-संख्या और विषय दोनों के बंधन रहे हैं।

हाइकु की मोटी पहचान 5-7-5 के वर्णक्रम की तीन पक्तियों की सत्रह-वर्णी कविता के रूप में है और इसी रूप में वह विश्व की अन्य भाषाओं में भी स्वीकारा गया है।

महत्त्व वर्ण-गणना का इतना नहीं जितना आकार की लघुता का है। यही लघुता इसका गुण भी बनती है और यही इसकी सीमा भी।

जापानी में वर्ण स्वरान्त होते हैं, हृस्व “अ” होता नहीं।

5-7-5 के क्रम में एक विशिष्ट संगीतात्मकता या लय कविता में स्वयं आ जाती है।

तुक का आग्रह नहीं है।

अनुभूति के क्षण की वास्तविक अवधि एक निमिष, एक पल अथवा एक प्रश्वास भी हो सकती है, अतः अभिव्यक्ति की सीमा उतने ही शब्दों तक है जो उस क्षण को उतार पाने के लिए आवश्यक है।

यह भी कहा गया है कि एक साधारण नियमित साँस की लम्बाई उतनी ही होती है, जितनी में सत्रह वर्ण सहज ही बोले जा सकते हैं।

कविता की लम्बाई को एक साँस के साथ जोड़ने की बात के पीछे उस बौद्ध-चिन्तन का भी प्रभाव हो सकता है, जिसमें क्षणभंगुरता पर बल है। -प्रोफेसर सत्यभूषण वर्मा (“हाइकु”भारतीय हाइकु क्लब का लघु पत्र), अगस्त- 1978, सम्पादक- डा० सत्यभूषण वर्मा, से साभार) उद्धृत हाइकु दर्पण

भारत में हायकु

पिछले कुछ वर्षों में हाइकु ने हिंदी में भी अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज करवाई है।

पहले पहल हाइकु कविता अनुवाद के माध्यम से हिंदी पाठकों के सामने आयी।

रवींद्रनाथ टैगोर तथा सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय ने अपनी जापान यात्रा से लौटकर जापानी हाइकु कविता का अनुवाद किया।

कविवर रवींद्रनाथ टैगोर तथा अज्ञेय से प्रभावित होकर हिंदी के अनेक कवियों ने जापानी हाइकु कविता पर अपने हाथ आजमाएं।

हाइकु कविता को भारत में लाने का श्रेय महाकवि रवींद्रनाथ टैगोर को जाता है।

“भारतीय भाषाओं में रवींद्र नाथ ठाकुर ने जापान यात्रा से लौटने के पश्चात 1919 ईस्वी में जापान यात्री में हाइकु की चर्चा करते हुए बांग्ला में दो कविताओं के अनुवाद प्रस्तुत किए यह कविताएं थी-

     पुरोनो पुकुर

     ब्यांगेर लाफ

     जलेर शब्द

तथा

     पचा डाल

     एकटा को

     शरत्काल

दोनों अनुवाद शब्दिक हैं और बाशो की प्रसिद्ध कविताओं के हैं।”(प्रो. सत्यभूषण वर्मा, जापानी कविताएँ, पृष्ठ-29)

हाइकु कविता का इतिहास

हाइकु कविता का इतिहास अत्यंत पुराना है।

यदि जापानी साहित्येतिहास के अध्ययनमें हम पाते हैं कि हाइकु कविता की रचना सैकड़ों वर्ष पूर्व जापान में हो रही थी।

इसके प्रारंभिक कवि यामजाकी सोकान (1465-1553) और आराकीदा मोरिताके (1472-1549) थे 17 वीं शताब्दी में मृतप्राय हो चुकी हाइकु कविता को मात्सूनागा तोईतोकु (1570-1653) ने नवजीवन प्रदान किया।

उन्होंने हाइकु कि तोईतोकु धारा का प्रवर्तन किया।

बाशो और उनका युग

जापानी हाइकु की प्रतिष्ठा को चरमोत्कर्ष पर पहुंचाने और उसका सर्वांगीण विकास करने का श्रेय प्रसिद्ध कवि मात्सुओ बाशो (1644-1694) को जाता है।

लगभग चालीस वर्ष के छोटे से जीवन काल में ही उन्होंने जापानी साहित्य की इतनी सेवा कर दी कि 17वीं शताब्दी के मध्य से 18 वीं शताब्दी के मध्य के जापानी साहित्येतिहास के कालखंड को बाशो युग कहा जाता है।

बाशो ने हाइकु कविता के लिए अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है कि “जिसने जीवन में तीन से पांच हाइकु रच डालें वह हाइकु कवि है जिसने दस हाइकु की रचना कर डाली वह महाकवि है।” (प्रो. सत्यभूषण वर्मा, जापानी कविताएँ, पृष्ठ-22)

जापानी काव्यशास्त्र के अनुसार बाशो के काव्य मैं मुख्यतः तीन प्रवृत्तियां मिलती है-

अकेलेपन की स्थिति अर्थात वाबि।

अकेलेपन की स्थिति से उत्पन्न संवेदना परक अनुभूति अर्थात साबि।

सहज अभिव्यक्ति अर्थात करीमि।

1686 ईस्वी में बाशो ने अपने सबसे प्रसिद्ध हाइकु की रचना की-

ताल पुराना

कूदा दादुर

पानी का स्वर

(अनुवाद प्रो. सत्यभूषण वर्मा, जापानी हाइकु और आधुनिक हाइकु कविता पृष्ठ-15)

बुसोन और बुसोन का युग

इस युग के श्रेष्ठ हाइकुकार बुसोन हुए हैं, जो कि प्रख्यात चित्रकार भी थे।

डॉ सत्यभूषण वर्मा ने बाशो और बुसोन को जापानी काव्य गगन के सूर्य और चंद्रमा कहा है

इस्सा

बुसोन के बाद जापानी हाइकु साहित्य में प्रमुख का नाम कोबायाशी इस्सा का आता है। इनकी कविताएं जीवन के अधिक निकट है।

शिकि

शिकि पर बुसोन का अधिक प्रभाव था।

इसने बाशो की आलोचना की तथा मित्रों के सहयोग से ‘हाइकाइ’ नामक हाइकु पत्रिका निकाली।

शिकि ने  नयी कविता और उपन्यासों की भी रचना की।

इनकी एक अन्य हाइकु पत्रिका होतोतोगिसु ने जापानी हाइकु कविता को नया आधार और नयी दिशा दी।

इसके बाद बदलते परिवेश और विचारधाराओं के साथ-साथ हाइकु में भी परिवर्तन आए।

नित नए प्रयोग इस कविता में होने लगे।

डॉ. सत्य भूषण वर्मा के अनुसार 1957 ईस्वी में जापान में लगभग 50 मासिक हाइकु पत्रिका में प्रकाशित हो रही थी।……… प्रत्येक पत्रिका के हर अंक में कम से कम 1500 हाइकु रचनाएं थी।(प्रो. सत्यभूषण वर्मा, जापानी हाइकु और आधुनिक हाइकु कविता पृष्ठ-28)

डॉ. शैल रस्तोगी के कथनानुसार

“….छठे दशक के आसपास चुपचाप प्रविष्ट होने वाली इस जापानी काव्य-विधा ने हिंदी कविता में अपना प्रमुख स्थान बना लिया है और कविता के क्षेत्र में एक युगांतर प्रस्तुत किया। अकविता, विचार कविता, बीट कविता, ताजी कविता, ठोस कविता आदि अनेक काव्यांदोलनों के बीच पल्लवित और पुष्पित होती इस काव्य-शैली ने हिंदी कवियों को बड़ी शिद्दत से विमोहित किया; जिससे साहित्य में हाइकु-लेखन को एक सुदृढ़ परंपरा पड़ी और हिंदी कविता जापान से आने वाले रचना प्रभाव से खिल उठी।”

हाइकु कविता के विकास में अमूल्य योगदान

1956 से 1959 ईस्वी के कालखंड में अज्ञेय द्वारा रचित एवं अनूदित व कविताओं के संग्रह ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’ से हिंदी में हाइकु कविता का श्रीगणेश माना जाता है।

अज्ञेय के इस संग्रह में 27 अनूदित और कुछ मौलिक हाइकु संकलित है।

डॉ. प्रभा शर्मा के अनुसार “सन् 1967 ईस्वी में प्रकाशित श्रीकांत वर्मा के कविता संग्रह  ‘माया दर्पण’ में शब्द संयम और मिताक्षरता, बिम्बात्मकता और चित्रात्मकता से युक्त कविताएं संग्रहित हैं, जो हाइकु की पूर्वपीठिका स्वीकार की जानी चाहिए।”

‘आधुनिक हिंदी कविता और विदेशी काव्य रूप’ में डॉ एस नारायण ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक लिखा है कि “डॉ प्रभाकर माचवे ने भी जापान में अपने प्रवास काल में लगभग 250  हाइकुओं के अनुवाद किये।”

डॉ सत्यभूषण वर्मा का मत है कि “हाइकु को एक आंदोलन के रूप में उठाने का प्रयत्न रीवा के आदित्य प्रताप सिंह ने किया।उन्होंने हाइकु और सेनर्यु (व्यंग्य प्रधान हाइकु) के नाम से ढेरों कविताएं लिखी और लिखवायी है।”

इसके साथ-साथ अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने भी हाइकु कविता के विकास में अपना अमूल्य योगदान दिया है।

हाइकु कविता का शिल्प सौंदर्य

प्रत्येक भाषा की अपनी रचना शैली होती है, जो दूसरी भाषाओं से पृथक होती है।

सभी भाषाएं ध्वनि विधान, शब्द विधान, स्वर-व्यंजन, उच्चारण, पद क्रम, काल, लिंग, वचन, कारक, क्रिया आदि सभी दृष्टियों में एक दूसरे से सर्वथा भिन्न-भिन्न और विशिष्ट होती हैं।

इन विशेषताओं के कारण ही सभी भाषाओं में काव्य शैलियों भी अलग-अलग होती है।

जापानी और हिंदी दोनों ही भाषाओं में हाइकु कविता का काव्य रूप मुक्तक ही रहा है

यह सर्वविदित है कि हाइकु कविता जापानी भाषा से हिंदी में आई है।

हिंदी में जिस प्रकार इसे एक छंद के रूप में अपनाया गया है, उसी प्रकार इसके शिल्प को भी अपना लिया गया है

हाइकु के शिल्प पर हिंदी में कई प्रश्न हैं, उन प्रश्नों के उत्तर जाने से पहले जापानी तथा हिंदी में हाइकु के शिल्प को समझ लेना आवश्यक है।

प्राचीन काल से ही जापानी मुक्तक काव्य में तीन शैलियां प्रचलित रही है-

ताँका (5 पंक्तियाँ तथा 5,7,5,7,7 वर्णक्रम)

सेदोका (6 पंक्तियाँ तथा 5,7,7,5,7,7 वर्णक्रम)

चोका (पंक्तियाँ अनिश्चित तथा 5,7,5,7 वर्णक्रम)

यह तीनों शैलियां 5-7 संख्या की ओंजि (लघ्वोच्चारणकाल घटक) पर आधारित है।

डॉ. सत्यभूषण वर्मा ने हाइकु भारती पत्रिका में ओंजि को लेकर अपना मत इस प्रकार दिया है- “जापानी लिपि मूलतः चीन की भावाक्षर लिपि से विकसित हुई है; जिसे हिन्दी में सामान्यतः चित्रलिपि कहा जाता है।

अंग्रेजी में इन भावाक्षरों को ‘इडियोग्राफ’ कहा गया है | भावाक्षर किसी ध्वनि को नहीं, एक पूरे शब्द के भाव या अर्थ को व्यक्त करता है|

भारतीय लिपियाँ ध्वनि मूलक हैं जिनमें शब्द को लिखित ध्वनि-चिह्नों में बदलकर उससे अर्थ ग्रहण किया जाता है|

चीनी और जापानी लिपियाँ अर्थमूलक हैं, जिनमें शब्द के लिखित रूप सीधे अर्थ को व्यक्त कर देते हैं।

एक ही भावाक्षर प्रसंग और अन्य भावाक्षर के संयोग से अनेक प्रकार से पढ़ा या उच्चरित किया जा सकता है|

जापानी भावाक्षर को ‘कांजि’ कहा जाता है।

कालांतर में जापान ने चीनी भावाक्षर लिपि को जापानी भाषा की प्रकृति के अनुरूप ढालने के प्रयत्न में इन्हीं भावाक्षरों में अपनी ध्वनि मूलक लिपियों का विकास किया जो ‘हीरागाना और ‘काताकाना’ कहलायीं|

आज की जापानी में ‘कांजि’, ‘हीरागाना’ और ‘काताकाना’ तीनों लिपियों का एक साथ मिश्रित प्रयोग होता है|

रोमन अक्षरों में लिखी गयी जापानी के लिये ‘रोमाजि’ शब्द का प्रयोग होता है|

किसी भी लिखित प्रतीक चिह्न को जापानी में ‘जि’ कहा जाता है|

वह कोई भावाक्षर भी हो सकता है, कानाक्षर भी अथवा कोई अंक भी|

‘ओन’ का अर्थ है ध्वनि, इस प्रकार ‘ओं’ का सीधा सा अर्थ हुआ ध्वनि-चिन्ह जो वर्णया अक्षर का ही पर्याय हो सकता है|” -(उद्धृत डॉ भगवतशरण अग्रवाल हाइकु काव्य विश्वकोश पृष्ठ 19)

ओन, ओंजि एवं सिलेबल्स (Syllables) तथा हायकु कविता का अनुवाद

चूंकि हिंदी में प्रारंभिक हाइकु कविता अनुवाद के माध्यम से आई है।

अनुवाद दो तरह से हुआ पहला- जापानी से सीधे हिंदी में अनुवाद।

दूसरा- जापानी से अंग्रेजी में अनुवाद और पुनः अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद।

इसलिए यह समझना होगा कि जापानी भाषा में जो ओन है,

वह अंग्रेजी और हिंदी में क्या होगा या अंग्रेजी और हिंदी में उसका समानार्थी क्या होगा।

जापानी में जिसे ओन कहा जाता है उसे अंग्रेजी में सिलेबल्स (Syllables) तथा हिंदी में अक्षर कहा जाता है

लेकिन प्रख्यात हाइकुकार डॉ भगवतशरण अग्रवाल उक्त मत से कुछ कम ही सहमत हैं।

इस संबंध में वे लिखते हैं “अनेक समीक्षकों ने ओंजि का अंग्रेजी पर्याय सिलेबल्स माना है जो गलत है।

वास्तव में इसका अंग्रेजी पर्याय मोरा है फिर भी इस संदर्भ में मोरा के स्थान पर सिलेबल्स ही अधिक प्रचलित है।

हिंदी के भाषा वैज्ञानिकों ने सिलेबल्स का पर्याय अक्षर को माना है।”

भले ही विद्वतजन और आलोचक ओन या ओंजि  का अंग्रेजी पर्याय सिलेबल्स और हिंदी पर्याय अक्षर करें;

परंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रत्येक भाषा की बनावट अलग अलग होती है,

इसलिए यह कहना संगत नहीं होगा कि जापानी में लिखे हाइकु में जितने ओन या ओंजि होंगे,

अंग्रेजी में उतने ही सिलेबल्स और हिंदी में उतने ही अक्षर होंगे।

जापानी हाइकु कविता में 17 ओन या ओंजि होते हैं, लेकिन यह देखने में आया है,

कि अंग्रेजी के 12 सिलेबल्स में जापानी के लगभग 17 ओन या ओंजि पूरे हो जाते हैं

लेकिन अंग्रेजी हाइकुकार 17 सिलेबल्स का प्रयोग करते हैं।

हाइकु के शिल्प

हाइकु के शिल्प के संबंध में डॉ भगवतीशरण अग्रवाल लिखते हैं ”हाइकु के शिल्प के संबंध में एक दो और बातें मुझे कहनी है-

प्रथम तो यह कि जापानी काव्य में अक्षरों को नहीं  ओन या ओंजि अर्थात अंग्रेजी में मोरा जिसका हिंदी पर्याय लघ्वोच्चारणकाल है को मान्यता मिली है”

रामेश्वर कम्बोज ‘हिमांशु’ ने जापानी हाइकु और हिन्दी में हाइकु की संरचना में वर्ण या अक्षर गणना को लेकर निम्नलिखित वर्णन किया है

“इस तकनीकी शब्दावली के बाद हाइकु के लिए अक्षर, वर्ण या जापानी भाषा का शब्द ग्रहण करें तो परस्पर पर्याय की समानता तलाशना मुश्किल है|

अक्षर के लिए निकटतम शब्द syllable है लेकिन जापानी में इसके लिए कुछ समतुल्य ‘on’ है,

पूरी तरह पर्याय नहीं; क्योंकि जापानी में ‘on’ का अर्थ syllable से थोड़ा कम है|

जैसे – haibun अंग्रेज़ी में दो अक्षर हैं- हाइ-बन परन्तु जापानी में चार अक्षर या चार ‘on’ हैं -(ha-i-bu-n)-हा-इ-ब-न |”

रामेश्वर कम्बोज ‘हिमांशु ने हिंदी में हाइकु की गणना को स्पष्ट करते हुए कहा है कि”हिन्दी की भाषा वैज्ञानिक शब्दावली में इसे 5-7-5 वर्ण का छन्द कहा जाना चाहिए, न कि 5-7-5 अक्षर का छन्द|

इसका कारण है कि हिन्दी में अक्षर का अर्थ है – वह वाग्ध्वनि जो एक ही स्फोट में उच्चरित हो|

उदहारण के लिए कमला= कम-ला=२, धरती=धर-ती=२, मखमल= मख- मल=२, करवट= कर-वट=२,पानी=पा-नी=२, अपनाना = अप – ना – ना = ३, चल= १, सामाजिक= सा-मा-जिक=३ (ये अक्षर=गणना दी गई है) आ,न , ओ हिन्दी मे वर्ण भी हैं, एक ही स्फोट में बोले जाते हैं -अक्षर भी हैं और सार्थक भी हैं (आ-आना क्रिया का रूप , न निषेध के अर्थ में, ओ-पुकारने के अर्थ में , जैसे ओ भाई! इसी तरह गाना आदि भी हैं।]

हिन्दी हाइकु के सन्दर्भ में

हिन्दी हाइकु के सन्दर्भ में कमला-क-म-ला-3, धरती-ध-र-ती-3, मखमल-म-ख-म-ल-4, करवट- क-र-ब-ट-4 पानी=पा-नी=2, अपनाना=अ-प-ना-ना=4, चल=च-ल=2 सामाजिक= सा-मा-जि-क=4 वर्ण गिने जाएँगेहाइकु के बारे में सीधा और सरल शास्त्रीय नियम है – 5-7-5 = 17 वर्ण (स्वर या स्वरयुक्तवर्ण) न कि अक्षर जैसा कि असावधानीवश लिख दिया जाता है।“

इस मत पर आधारित अनेक उदाहरण हैं;

जिनसे यह मत पुष्ट होता है कि हिंदी हाइकु में 5,7,5 के क्रम में 17 वर्णों का छंद विधान हाइकु है न कि अक्षर क्रम का जैसे-

दीपोत्सव-सा

हम सबका

रिश्ता जगमगाए

 

शीत के दिनों

सर्प-सी फुफकारें

चलें हवाएँ

 

घास-सी बढ़ी

गुलाब-सी खिलती

बेटी डराती

हाइकु तुकांत और अतुकांत दोनों ही हो सकते हैं, हिंदी में दोनों प्रकार के हाइकु लिखे गए हैं।

शिल्प के अंतर्गत छंद यति,  गति, तुक के अतिरिक्त

अलंकार, शब्द-शक्ति, बिंब विधान, प्रतीक विधान, मिथक आदि सभी शिल्प गत विशेषताओं से युक्त होता है हाइकु।

हाइकु (Haiku) कविता

संख्यात्मक गूढार्थक शब्द

मुसलिम कवियों का कृष्णानुराग

श्री सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या के मतानुसार प्रांतीय भाषाओं और बोलियों का महत्व

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