इस आलेख में हम भाषायी दक्षता के बारे में जानेंगे, जिसमें भाषायी दक्षता की परिभाषा, विकास, भाषायी दक्षता के प्रकार, महत्त्व, घटक या तत्व एवं बिंब निर्माण आदि के बारे में बताया गया है। आशा है कि इस भाषायी दक्षता में व्याप्त व्याकरण एवं प्रतियोगी परीक्षाओं की संपूर्ण जानकारी आपके लिए उपयोगी सिद्ध होगी।
भाषायी दक्षता का महत्त्व
किसी भी भाषा में दक्षता प्राप्त करना एक सहज प्रक्रिया के अंतर्गत होता है और यह अपने आप में बहुत अधिक महत्वपूर्ण है।
भाषा में दक्षता प्राप्त होने पर ही मनुष्य अपने मनोभावों दूसरों के सामने प्रकट कर सकता है।
भाषा ही वह माध्यम है जिसके द्वारा मनुष्य अपनी आवश्यकताओं, अपने विचारों और अपने मनोभाव को संप्रेषित करता है।
बिना भाषा के वह यह सब कार्य नहीं कर सकता है, अतः मानव जीवन में भाषा में दक्षता प्राप्त करना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
भाषायी दक्षता का अर्थ एवं परिभाषा
किसी भी भाषा को बोलने, समझने, लिखने, पढ़ने में प्रवीणता प्राप्त करना अथवा किसी भी भाषा को बोलने, समझने, लिखने, पढ़ने की शक्ति का विकास करना ही भाषायी दक्षता कहलाता है।
भाषायी दक्षता के विकास के मनोवैज्ञानिक घटक
जिज्ञासा- जब बालक किसी वस्तु या दृश्य को देखता है या ध्वनि को सुनता है तो उस वस्तु, दृश्य या ध्वनि के बारे में जानने की कोशिश करता है यही जिज्ञासा कहलाती है।
अनुकरण- अपनी जिज्ञासाओं को शांत करने के लिए बालक अनेक क्रिया-प्रतिक्रिया करता है। वह परिवार के सदस्यों से अनेक ध्वनियाँ सुनता है। ध्वनियों को सुनकर वह बोलने की चेष्ठा करता है। धीरे-धीरे प्रयत्न से वह भी कुछ शब्द बोलने लग जाता है। यहाँ से ही उसकी भाषा सीखने की प्रवृति का विकास प्रारम्भ होने लगता है। अर्थात बोलना सीखने में अनुकरण का सर्वाधिक महत्त्व है।
अभ्यास- बार-बार के अनुकरण को ही अभ्यास कहा गया है। अभ्यास के द्वारा बालक के मस्तिष्क में बने बिंब पुष्ट हो जाते हैं और वह भाषा को सीखने की ओर अग्रसर होता है।
भाषायी दक्षता के तत्व/कारक या भाषायी दक्षता के तत्व/कारकों की विवेचना
बालक भाषा अर्जित करने की सहजशक्ति लेकर जन्म लेता है।
भाषा सीखने के लिए उसके मस्तिष्क में सारी व्यवस्थाएं प्राकृतिक रूप से होती है।
जब बालक किसी वस्तु या दृश्य को देखता है या ध्वनि को सुनता है तो मस्तिष्क की सहायता से प्रक्रिया करके नियमों की खोज करता है।
आयु बढ़ने के साथ-साथ बालक विभिन्न प्रकार की क्रिया-प्रतिक्रिया करता है।
जैसे जैसे वह नवीन वस्तुओं से परिचित होता जाता है वैसे वैसे वह उनके साथ अनेक क्रियाएं करता है।
जब वे क्रियाएं बार-बार होती हैं तो उन सभी का एक बिंब उसके मस्तिष्क में बनता चला जाता है।
भाषायी दक्षता के विकास में इन बिंबो का सर्वाधिक महत्त्व है
बिम्ब का निर्माण तथा उसकी भूमिका
भाषायी दक्षता में व्याप्त भाषायी दक्षता एवं इसके बिंदु जैसे इसकी परिभाषा, विकास, भाषायी दक्षता के प्रकार, भाषायी दक्षता के महत्त्व, घटक या तत्व एवं बिंब निर्माण-
दृश्य या चाक्षुक बिंब-
जब बालक किसी वस्तु या दृश्य को पहली बार देखता है तो उसका एक चित्र आंखों के माध्यम से बालक के मस्तिष्क में अंकित हो जाता है।
जब बालक पुनः उसी चित्र दृश्य को देखता है तो पहला चित्र अपने आप ही सक्रिय हो जाता है।
इस प्रक्रिया को बिंब बनाना कहा जाता है और इसे ही दृश्य बिंब कहा जाता है।
यह भाषा सीखने का पहला बिंब है।
श्रुति/श्रुत/श्रवण बिंब-
दृश्य बिंब बनाने के पश्चात जब परिवार के सदस्य उस वस्तु को दिखाकर उसका नाम लेते हैं तो बालक का मस्तिष्क उस वस्तु और उसके नाम की ध्वनि में साहचर्य स्थापित कर लेता है।
पुनः वही शब्द बालक के सामने दोहराया जाता है तो उसका चित्र बालक के मस्तिष्क में उभर आता है।
इस प्रकार दृश्य बिम्ब के साथ श्रव्य बिंब भी बालक के मस्तिष्क में सक्रिय हो जाता है।
यही श्रव्य बिंब है। यह भाषा सीखने का दूसरा महत्त्वपूर्ण बिंब है।
विचार बिंब-
दृश्य तथा श्रव्य बिंबों के माध्यम से बालक का भाषायी विकास शुरू हो जाता है।
धीरे-धीरे इन्हीं दोनों बिंबों के माध्यम से बालक के वैचारिक बिंब बनते हैं।
बालक दृश्य और वस्तुएं देखता है और ध्वनियां सुनता है, जिससे उसके विचारों को पुष्टि मिलती है।
विभिन्न आकार प्रकार या रंग रूप की एक ही वस्तु के लिए बालक जब एक ही नाम सुनता है तो उसके वैचारिक बिंबो को बल मिलता है।
निरीक्षण, तुलना सहसंबंध एवं अभ्यास की क्रियाओं के माध्यम से बालक सीख जाता है कि एक ही आकार प्रकार तथा रंग रूप की दो अलग-अलग वस्तुओं के नाम एक ही है।
यह सारी प्रक्रिया विचार बिंब है जो की भाषा सीखने का तीसरा प्रधान बिंब माना जाता है।
भाव बिंब-
आयु बढ़ने के साथ-साथ बालक के विचारों में परिपक्वता आती है।
विचार बिंब के सामंजस्य से बालक में भाव बिंब का निर्माण होता है।
उसमें विभिन्न तरह के भाव उत्पन्न होते हैं।
दृश्य, श्रव्य तथा विचार बिंबों के माध्यम से भावों का बनाना भाव बिंब में आता है।
यह भाषा अर्जन का अंतिम बिंब माना जाता है।
बालक को किसी के द्वारा से लाए जाने पर मुस्कुराना उसके पास जाना या किसी को देखकर रोना भाव बिंब के अंतर्गत आता है।
शिशु में वाक् विकास
क्रंदन-
5 माह की आयु का बालक क्रंदन करता है।
यह वाग्यंत्रों के विकास की पहली सीढ़ी है और भावाभिव्यक्ति की आदिम स्थिति भी।
किलकारी-
5 माह से 8 माह तक का बालक स्वतः निरर्थक ध्वनियां निकलता है, जिसे किलकारी कहा जाता है।
यह भावी भाषा एवं ध्वनि के विकास की आधारशिला बनती है।
बबलाना-
7 से 9 माह का बालक कुछ ध्वनिया बार-बार दोहराने लगता है। यह ध्वनिया ज्यादातर स्पष्ट होती हैं।
प्रारंभिक शब्द और वाक्य विन्यास-
एक वर्ष का होते-होते बालक प्रथम शब्द का उच्चारण करता है। यह एक शब्द के वाक्य बनते हैं।
यह बाल व्याकरण की स्थिति है।
उत्तर वाक्य विन्यास-
डेढ़ वर्ष का होने तक बालक 2 से 3 शब्दों वाले वाक्यों को सीख लेता है।
यह अवस्था टेलीग्राफिक भाषा की स्थिति है।
सामान्य बालक की भाषा में ध्वनि विकास सामान्य अवस्था से प्रारंभ होता है।
स्थूल से सूक्ष्म के क्रम में पहले औष्ठ्य, तालव्य, कंठ्य ध्वनियों का विकास होता है।
मूर्धन्य ध्वनियां बहुत बाद में आती है। सबसे अंत में लुंठित (र) ध्वनि उच्चारित होती है।
भाषा के विभिन्न अंग और उनका विकास
भाषा के पांच अंग माने गए हैं-
शब्द भंडार- स्मिथ के अनुसार 2 वर्ष तक का बालक 300 शब्द सीख जाता है।
वाक्य विन्यास- प्रारंभ में बालक 1-2 शब्दों के छोटे वाक्य बोलता है 5 वर्ष की आयु तक वह शब्द तथा पूरे वाक्य बोलने लगता है।
अभिव्यक्ति- 5 से 6 वर्ष की आयु में बालक स्पष्ट उच्चारण करने लगता है तथा अभिव्यक्ति में स्पष्ट का आ जाती है।
वाचन- 6 से 10 वर्ष की अवस्था में बालक चित्रों और अक्षरों को पहचानने और पढ़ने लगता है इस अवस्था में बालक बड़े-बड़े जटिल शब्द भी अभ्यास द्वारा पढ़ने लगता है।
लिपि- 5 वर्ष की आयु तक बालक की मांसपेशियां कोमल होती है और धीरे-धीरे मजबूत होती है।
अब बालक को लिखना आरंभ करता है। लेखन में दृश्य और श्रव्य बिंब बहुत सहायक होते हैं।
अंततः हमें आशा है कि आपको भाषायी दक्षता में व्याप्त भाषायी दक्षता एवं इसके बिंदु जैसे इसकी परिभाषा, विकास, भाषायी दक्षता के प्रकार, भाषायी दक्षता के महत्त्व, घटक या तत्व एवं बिंब निर्माण आदि आपके लिए उपयोगी सिद्ध हुए होंगे।
इन्क्रेडिबल इंडिया: सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय जैसी सांस्कृतिक विरासत का महत्त्व एवं ऐतिहासिक योगदान के बारे में जानकारी
असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय।।
बृहदारण्यकोपनिषद् का उक्त वाक्य भारतीय ज्ञान और ज्ञान प्राप्ति की तीव्र उत्कंठा को दर्शाता है।
विश्व के ज्ञात इतिहास को परखे तो पता चलता है कि विश्व में केवल भारत ही वह पुण्य भूमि है जहां ज्ञान की उत्पत्ति हुई और ज्ञान को सर्वोपरि महत्त्व दिया गया प्राचीन भारत में अनेक विश्वविद्यालय थे,
जो ज्ञान का केंद्र बिंदु थे अनेक ज्ञात विश्वविद्यालयों की सूची में तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय का नाम एक स्वर्णिम अध्याय के रूप में जुड़ चुका है।
तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय की उपस्थिति भारत को जगद्गुरु और ज्ञान का केंद्र बिंदु सिद्ध करने में एक और अध्याय जोड़ता है।
इस विश्वविद्यालय के भग्नावशेषों से यह सिद्ध हो जाता है कि प्राचीन भारत में शिक्षा की एक सुदीर्घ और सुव्यवस्थित प्रणाली विकसित हो चुकी थी, जिसकी कीर्ति भारत ही नहीं वरन् उसके बाहर भी दूर-दूर तक थी।
यह विश्वविद्यालय नालंदा विश्वविद्यालय और विक्रमशिला विश्वविद्यालय से लगभग 300 से 400 वर्ष प्राचीन है
जिसके अवशेष 2014 में बिहार के नालंदा जिले में एकंगरसराय उपखण्ड के तेल्हाड़ा ग्राम में उत्खनन के दौरान प्राप्त हुए हैं।
काल निर्धारण : तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय सांस्कृतिक विरासत इन्क्रेडिबल इंडिया
बिहार पुरातत्व विभाग के अनुसार इस स्थल की सर्वप्रथम खोज वर्ष 1872 में एस. ब्रोडले ने की थी।
ब्रोडले ने इस स्थल के लिए तिलास-अकिया शब्द का प्रयोग किया है।
इसकी पुष्टि यहां से प्राप्त तीन प्रकार की ईंटों से भी हो जाती है।
सबसे बड़े आकार की ईंटें कुषाण कालीन है जिनका आकार 42*32*6 सेमी. है, जो इस महाविहार में सबसे नीचे प्राप्त हुई है।
इसके ऊपर गुप्तकालीन ईंटें हैं जिनका आकार 36*28*5 सेमी. है।
इसके ऊपर पालकालीन ईंटों की चिनाई है जिनका आकार 32*28*5 सेमी. है ईंटों के आकार और चिनाई से ज्ञात होता है कि इस महाविहार का जीर्णोद्धार विभिन्न राजवंशों ने करवाया था।
कुषाण कालीन इंटों का सबसे नीचे मिलने का अर्थ है महाविहार का प्रारंभिक निर्माण कुषाण शासकों द्वारा करवाया गया था,
जबकि नालंदा विश्वविद्यालय गुप्तकालीन (चौथी शताब्दी ईस्वी) है और विक्रमशिला विश्वविद्यालय (सातवीं शताब्दी ईस्वी) पाल शासकों की देन है,
अतः कालक्रम की दृष्टि से देखें तो तेल्हाड़ा महाविहार (विश्वविद्यालय) नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय से प्राचीन सिद्ध होता है।
उत्खनन में प्राप्त सामग्री : तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय सांस्कृतिक विरासत इन्क्रेडिबल इंडिया
उत्खनन में महाविहार के भग्नावशेषों के साथ-साथ अनेक सील और सीलिंग (मुहरें) घंटियां, कांस्य प्रतिमाएँ, आंगन, बरामदा, साधना कक्ष, कुएं और नाले के साक्ष्य मिले हैं।
तप में लीन बुद्ध की अस्थिकाय दुर्लभ मूर्ति भी प्राप्त हुयी है जो एक सील (मुहर) पर उत्कीर्ण है।
यहां से प्राप्त अधिकतर सीलें (मुहरें) टेराकोटा (एक विशेष प्रकार की मिट्टी) की बनी हुई हैं।
उत्खनन में प्राप्त एक मोहर पर पालि में लिखे लेख को पढ़ने में कोलकाता विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. एस. सान्याल ने सफलता प्राप्त की है।
उनके अनुसार मुहर पर उत्कीर्ण लेख में वर्णित जानकारी के अनुसार इस महाविहार का वास्तविक नाम तिलाधक, तेलाधक्य या तेल्हाड़ा नहीं वरन श्री प्रथम शिवपुर महाविहार है।
चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा इत्सिंग ने भी अपने वृतांतों में इस महाविहार का उल्लेख किया है।
ह्वेनसांग और इत्सिंग ने इसका उल्लेख तीलाधक नाम से किया है।
ह्वेनसांग और इत्सिंग के अनुसार यह महाविहार अपने समय का उच्च कोटि का सुंदर, विशिष्ट और श्रेष्ठ महाविहार था।
महाविहार में तीन मंजिला मंडप के साथ-साथ तीन मंदिर, अनेक तोरणद्वार, मीनार और घंटिया होती थीं।
चीनी यात्रियों के कथन की पुष्टि उत्खनन में प्राप्त अवशेषों से होती है।
चरमोत्कर्ष एवं पतन : तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय सांस्कृतिक विरासत इन्क्रेडिबल इंडिया
प्राचीन भारत ज्ञान विज्ञान अध्यात्म धर्म दर्शन आदि सभी विधाओं में अत्यंत समृद्ध था।
वैदिक वांग्मय उक्त कथन का पुष्ट प्रमाण है।
बौद्धकाल आते-आते भारतीय ज्ञान-विज्ञान की ख्याति सुदूर देशों तक फैल गई, जिसका प्रमाण प्राचीन भारत के शिक्षा केंद्र के रूप में स्थापित महाविहार (विश्वविद्यालय), उन में पढ़ने वाले असंख्य देशी-विदेशी छात्र और शिक्षक हैं।
तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय अपनी स्थापना (प्रथम शताब्दी ईस्वी) के कुछ वर्षों बाद ही प्रसिद्धि को प्राप्त करने लगा था।
ह्वेनसांग के वृतांत के अनुसार सातवीं शताब्दी तक तेल्हाड़ा महाविहार में सात मठ तथा शिक्षकों के लिए अलग-अलग कक्ष थे।
इस महाविहार में लगभग 1000 बौद्ध भिक्षु महायान संप्रदाय की शिक्षा ग्रहण करते थे।
ह्वेनसांग और इत्सिंग के वृत्तांतों से सिद्ध होता है कि यह महाविहार बौद्ध शिक्षा का प्रसिद्ध केंद्र था
जो कि मुख्यतः बौद्ध धर्म की हीनयान शाखा को समर्पित था।
11 वीं शताब्दी ईस्वी तक तेल्हाड़ा महाविहार की प्रसिद्धि चरमोत्कर्ष पर थी।
कभी-कभी किसी स्थान की समृद्धि ही उसके पतन का कारण बन जाती है।
ऐसा ही भारत और उसके ज्ञान विज्ञान के साथ हुआ है।
मुस्लिम आक्रांताओं के आक्रमण सातवीं शताब्दी से ही शुरू हो गए थे परंतु 10 वीं शताब्दी तक भारतीय शासकों ने उनसे कड़ा संघर्ष किया 11वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारतीय शक्ति क्षीण होने लगी इस्लामी के आक्रांताओं ने साम-दाम-दंड-भेद की नीति का अनुसरण किया और एक के बाद एक प्रदेशों को जीते चले गये।
तेल्हाड़ा के उत्खनन में महाविहार की दीवारों पर अग्नि के साक्ष्य और राख की एक फुट मोटी परत मिली है।
इसी के आधार पर विशेषज्ञों का मानना है कि-
1192 में तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने ओदंतपुरी की विजय के दौरान मनेर से दक्षिण की ओर तेल्हाड़ा की ओर प्रस्थान किया था।
उसने नालंदा विहार की तरह यहां भी बहुत आतंक मचाया और यहां के शिक्षकों और शिक्षार्थियों का वध कर महाविहार में आग लगा दी जिसके कारण इसका पतन हो गया।
विशेषज्ञों का मत –
बिहार के कला संस्कृति और युवा विभाग के सचिव आनंद किशोर का दावा है, ”तेल्हाड़ा में 100 से ज्यादा ऐसी चीजें मिली हैं, जो साबित करती हैं कि तेल्हाड़ा में प्राचीन विश्वविद्यालय के अवशेष हैं. यहां कुषाणकालीन ईंट और मुहरें मिली हैं, जिनके पहली शताब्दी में बने होने का प्रमाण मिलता है. ध्यान देने वाली बात है कि नालंदा को चौथी और विक्रमशिला को आठवीं शताब्दी का विश्वविद्यालय माना जाता है।”
बिहार पुरातत्व विभाग के निदेशक डॉ. अतुल कुमार वर्मा की माने तो संभवतः तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय बिहार का प्रथम विश्वविद्यालय था।
प्राचीन भारत के अन्य विश्वविद्यालयों की तरह तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय कि सभी व्यवस्थाएं भी शासकों द्वारा प्राप्त दान अथवा उनके द्वारा दान में दिए ग्रामों से प्राप्त आय के द्वारा ही होती थी।
विद्यार्थियों की शिक्षा, आवास, भोजन, चिकित्सा इत्यादि सभी नि:शुल्क थे।
बिहार विरासत समिति के सचिव डॉ. विजय कुमार चौधरी कहते हैं, ”बिहार में ऐसे पुरातात्विक साक्ष्य भरे पड़े हैं. राज्य में पुरातात्विक स्थलों के सर्वेक्षण में 6,500 साइटें मिली हैं.
उनमें कई महत्वपूर्ण महाविहार हैं. तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय का अवशेष उसी कड़ी का हिस्सा है।
भविष्य की योजना-
तेल्हाड़ा को विश्व पटल पर लाने के लिए बिहार सरकार ने 28 करोड़ की लागत से तेल्हाड़ा मैं एक म्यूजियम की योजना तैयार की है।
म्यूजियम के साथ-साथ तेल्हारा विद्यालय के लिए एक मास्टर प्लान भी तैयार करने की योजना है
जिसमें तेल्हाड़ा की खुदाई के साथ ही उसे यूनेस्को की वर्ल्ड हेरिटेज साइट में शामिल कराने के लिए आवश्यक प्रपत्र तैयार करने से संबंधित विषय भी शामिल किये जाएंगे।
इन्क्रेडिबल इंडिया: सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय जैसी सांस्कृतिक विरासत का महत्त्व एवं ऐतिहासिक योगदान के बारे में जानकारी
नीति आयोग के उपाध्यक्ष डॉ० अरविंद पनगढिय़ा
प्राचीन तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय के खंडहर का अवलोकन कर इसे इन्क्रेडिबल इंडिया – अतुल्य भारत में शामिल करने कि बात की है।
अतः निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि प्राचीन भारत वास्तव में जगद्गुरु था।
भारत ने ही विश्व को ज्ञान की प्रथम किरण दिखाई थी और हमारे पूर्वजों ने ही संपूर्ण विश्व में ज्ञान का प्रकाश फैलाया था।
हमें गर्व है अपने गौरवशाली स्वर्णिम अतीत तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय पर।
आइए भारतीय होने पर स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करें और अपनी सांस्कृतिक विरासत पर गर्व करें।
कालखंड नामकरण एवं हिन्दी साहित्य काल विभाजन तथा हिंदी साहित्य में प्रचलित काल विभाजन और नामकरण की संपूर्ण जानकारी | हिन्दी साहित्य काल विभाजन एवं कालखंड नामकरण | काल विभाजन और नामकरण की जानकारी | Hindi Sahitya | Kaalkhand | Kaal Vibhajan | Naamkaran
Hindi Sahitya | Kaalkhand | Kaal Vibhajan | Naamkaran
हिन्दी साहित्य के काल-विभाजन को लेकर विद्वानों में मतभेद है,
लेकिन यह मतभेद अधिक गहरा नहीं है मतभेद केवल हिन्दी साहित्य के आरम्भ को लेकर है।
जिसमें मुख्य रुप से दो वर्ग सामने आते हैं पहला वर्ग वह है जो हिंदी साहित्य का प्रारंभ सातवीं शताब्दी ईस्वी से मानता है
दूसरा वर्ग वह है जो हिंदी साहित्य का प्रारंभ दसवीं शताब्दी ईस्वी से स्वीकार करता है।
सातवीं शताब्दी ईस्वी से दसवीं शताब्दी ईस्वी तक का साहित्य अपभ्रंश भाषा में है और अपभ्रंश से ही हिन्दी भाषा का विकास हुआ है।
इसलिए यदि इस कालखंड के भाषा साहित्य एवं साहित्यिक चेतना को यदि समझ लिया जाए तो हिंदी साहित्य की मूल चेतना को समझने में आसानी रहेगी
हिन्दी भाषा एवं साहित्य की मूल चेतना को जानने के लिए इस कालखण्ड की भाषा के स्वरुप एवं साहित्य-धारा को समझना अति आवश्यक है।
इसीलिए पति पर विद्वानों ने अपनी सरकार को भी हिंदी में शामिल कर लिया है और वे हिंदी साहित्य का प्रारंभ सातवीं शताब्दी ईस्वी से मानते हैं जिस प्रकार हिंदी साहित्य के काल विभाजन में न्यूनाधिक मतभेद है
उसी प्रकार इसके नामकरण में भी मतभेद है यह मतभेद मुख्यत: दसवीं शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी तक के
आरम्भिक कालखंड (आदिकाल) और सत्रहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी तक के कालखण्ड (रीतिकाल) के नामकरण को लेकर ही अधिक मतभेद है। हिंदी साहित्य के विभिन्न काल खंडों का नामकरण विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने तर्कानुसार किया है जो निम्नलिखित प्रकार से है।
(अ) दसवी शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी तक के हिन्दी साहित्य कालखंड नामकरण
ग्रियर्सन – चारण काल
मिश्रबंधु – प्रारंभिक काल
रामचंद्र शुक्ल – वीरगाथा काल
विश्वनाथ प्रसाद मिश्र – वीर काल
महावीर प्रसाद दिवेदी – बीजवपन काल
हजारी प्रसाद द्विवेदी – आदिकाल
राहुल संकृत्यायन – सिद्ध-सामन्त काल
रामकुमार वर्मा – संधि काल और चारण काल
श्यामसुंदर दास – अपभ्रंस काल/वीरकाल
चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ – अपभ्रंस काल
धीरेंद्र वर्मा – अपभ्रंस काल
हरीश – उत्तर अपभ्रंस काल
बच्चन सिंह – अपभ्रंस काल: जातिय साहित्य का उदय
गणपति चंद्र गुप्त – प्रारंभिक काल/शुन्य काल
पृथ्वीनाथ कमल ‘कुलश्रेष्ठ’ – अंधकार काल
रामशंकर शुक्ल – जयकाव्य काल
रामखिलावन पाण्डेय – संक्रमण काल
हरिश्चंद्र वर्मा – संक्रमण काल
मोहन अवस्थी – आधार काल
शम्भुनाथ सिंह – प्राचीन काल
वासुदेव सिंह – उद्भव काल
रामप्रसाद मिश्र – संक्रांति काल
शैलेष जैदी – आविर्भाव काल
चारण काल-
सर्वप्रथम ग्रियर्सन ने हिन्दी साहित्येतिहास का काल विभाजन प्रस्तुत किया
और हिंदी साहित्येतिहास के आरम्भिक काल का नामकरण ‘चारणकाल’ किया है,
परंतु इस नामकरण के पीछे वह कोई ठोस प्रमाण नही दे पाये।
ग्रियर्सन ने चारण काल का प्रारंभ 643 ईसवी से स्वीकार किया है
जबकि विद्वानों के अनुसार 1000 ईसवी तक चारणों की कोई रचना उपलब्ध नहीं होती है
चारणों की जो रचनाएं उपलब्ध होती है वह 1000 ईसवी के बाद की है।
अतः यह नामकरण उपयुक्त नहीं है।
प्रारम्भिक काल-हिन्दी साहित्य कालखंड नामकरण
मिश्रबन्धुओं ने 643 ईसवी से 1387 ईसवी तक के काल को ‘प्रारम्भिक काल’ नाम से अभिहित किया है।
यह नाम किसी साहित्यिक प्रवृत्ति का द्योतक नही है।
यह एक सामान्य संज्ञा है जो हिन्दी भाषा के प्रारम्भ को बताती है।
अत: यह नाम भी तर्कसंगत नही है।
वीरगाथाकाल : हिन्दी साहित्य कालखंड नामकरण
आ. रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास का काल विभाजन करते हुए संवत् 1050 से 1375 विक्रमी तक के कालखंड को हिंदी साहित्य का पहला कालखंड स्वीकार करते हुए हिंदी साहित्य का प्रारंभ संवत् 1000 विक्रमी में स्वीकार किया है
तथा इस कालखंड को ‘वीरगाथा काल’ नाम दिया है।
अपने मत के समर्थन में उन्होंने कहा है-
“आदिकाल की दीर्घ परम्परा के बीच प्रथम डेढ़-दो सौ वर्षों के भीतर तो रचना की किसी विशेष प्रवृत्ति का निश्चय नहीं हो पाता है – धर्म, नीति, श्रृन्गार, वीर सब प्रकार की रचनाएँ दोहों में मिलती है। इस अनिर्दिष्ट लोक-प्रवृत्ति के उपरान्त जब से मुसलमानों की चढ़ाइयाँ आरंभ होती है तब से हम हिन्दी साहित्य की प्रवृत्ति विशेष रूप में बँधती हुई पाते है। राजाश्रित कवि और चारण जिस प्रकार रीति, श्रृन्गार आदि के फुटकल दोहे राजसभा में सुनाया करते थे, उसी प्रकार अपने आश्रयदाता राजाओं के पराक्रम पूर्ण चरितों या गाथाओं का भी वर्णन किया करते थे। यह प्रबन्ध परम्परा ‘रासो’ के नाम से पाई जाती है, जिसे लक्ष्य करके इस काल को हमने ‘वीरगाथा काल’ कहा है।”
शुक्लजी ने इस युग का नामकरण करने के लिए निम्नलिखित बारह ग्रन्थों को आधार बनाया है- 1. विजयपाल रासो 2. हम्मीर रासो 3. कीर्तिलता 4. कीर्तिपताका 5. खुमान रासो 6. बीसलदेव रासो 7. पृथ्वीराज रासो 8. जयचंद प्रकाश 9. जयमयंक जसचन्द्रिका 10. परमाल रासो 11. खुसरो की पहेलियाँ 12. विद्यापति की पदावली
हिन्दी साहित्य : कालखंड नामकरण
जिन बारह रचनाओं के आधार पर शुक्ल जी ने नामकरण किया है उनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है।
हम्मीर रासो, जयचंद्र प्रकाश और जयमयंक जसचन्द्रिका तो नोटिस मात्र ही है।
खुसरो की पहेलियाँ और विद्यापति की पदावली भी वीरगाथात्मक नही है।
परमाल रासो या आल्हाखंड के मूल का आज कही पता नही लगा है।
बीसलदेव रासो और खुमाण रासो भी नये शोधों के आधार पर सोलहवीं शताब्दी में रचित माने गए हैं इसी प्रकार प्रसिद्ध महाकाव्य पृथ्वीराज रासो को भी अर्द्धप्रामाणिक मान लिया गया है।
इसके अतिरिक्त इस काल में केवल वीर काव्य ही नही बल्कि धार्मिक, श्रृंगारिक और लौकिक साहित्य भी प्रचूर मात्रा में रचा गया।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने उन रचनाओं को अप्रामाणिक सिद्ध करते हुए ‘वीरगाथाकाल’ नामकरण को निरर्थक सिद्ध किया है।
सिद्ध सामंत काल
सामाजिक जीवन पर सिद्धों के तथा राजनीतिक जीवन पर सामंतों के वर्चस्व के कारण राहुल सांकृत्यायन ने इस काल का नामकरण ‘सिद्ध सामन्त काल’ किया है।
इस कालखंड के कवियों ने अपने आश्रयदाता सामंतों को प्रसन्न करने के लिए उनका यशोगान किया है तथा सामाजिक जीवन पर दृष्टि डालें तो समाज सिद्ध मत से प्रभावित है।
इस नामकरण पर विद्वानों का मतैक्य नहीं है।
नामकरण से तत्कालीन राजनीतिक वातावरण का ज्ञान होता है, परंतु किसी साहित्यिक प्रवृत्ति का पता नहीं चलता है। इसके साथ ही नाथ पंथियों का हठयोगिक साहित्य, खुसरो का लौकिक साहित्य विद्यापति की पदावली तथा अन्य साहित्यिक प्रवृत्तियों का इसमें समावेश नहीं होता है अतः यह नाम भी उपयुक्त नहीं है।
बीजवपन काल
भाषा की प्रारंभिक दृष्टि को देखते हुए आ. महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने इस काल का नामकरण ‘बीजवपन काल’ किया है।
परंतु यह नाम भी उपयुक्त नहीं है।
इस नाम से यह आभास होता है कि उस समय साहित्यिक प्रवृत्तियाँ शैशव में थी,
जबकि ऐसा नही है साहित्य उस युग में भी प्रौढ़ता को प्राप्त या अंत: यह नाम उचित नहीं है।
वीरकाल
आ. रामचन्द्र शुक्ल से प्रभावित होकर आ. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र जी ने इस काल का नाम ‘वीरकाल’ किया है।
वास्तव में मिश्रा जी ने इसमें किसी नवीन तथ्य का उद्घाटन नहीं किया है बल्कि यह नाम आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा सुझाए गए वीरगाथा काल नाम का ही परिवर्तित रूप है, अंत: यह नाम भी समीचीन नही है।
सन्धि एवं चारण काल
डॉ. रामकुमार वर्मा ने हिंदी साहित्य के प्रथम कालखंड को दो खण्डों मे विभाजित कर ‘सन्धिकाल’ एवं ‘चारण काल’ नाम दिया है।
इस नामकरण को दो भागों में बाँटने के पीछ कारण था।
संधि काल दो भाषाओं की संधि का काल था
तथा चारणकाल चारण जाति के कवियों द्वारा राजाओं की यशोगाथा को प्रकट करता है
उसमें तत्काीन राजाओ के शौर्य, वीरता एवं साहस का वर्णन है।
उनके जीवन प्रसंगों को अतिशयोक्तिपूर्ण बनाकर वर्णन करना है।
किसी जाति विशेष के नाम पर साहित्य में उस काल का नामकरण उचित नहीं अत: यह नामकरण भी ठीक नहीं है।
अपभ्रंश काल
चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’, श्यामसुंदर दास, धीरेंद्र वर्मा, हरीश, बच्चन सिंह आदि ने हिन्दी साहित्य के प्रथम काल को अपभ्रंश काल के नाम से सम्बोधित किया है।
उन्होंने बताया कि हिन्दी की प्रारम्भिक स्थिति अपभ्रंश भाषा के साहित्य से शुरू होती है,
इसलिए अपभ्रंश काल कहना उचित है ।
आदिकाल
आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने इस काल के साहित्य को अधिकांशतः संदिग्ध और अप्रामाणिक मानते हुए भी उसमें दो विशेषताओं को रेखांकित किया।
नवीन ताजगी और अपूर्व तेजस्विता।
इन दोनों विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए इस काल का नाम उन्होंने ‘आदिकाल’ रखा।
अपने इस मत को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है कि- “वस्तुत: हिन्दी का आदिकाल शब्द एक प्रकार की भ्रामक धारणा की सृष्टि करता है और श्रोता के चित्त में यह भाव पैदा करता है कि यह काल के आदिम मनोभावापन परम्पराविनिर्मुक्त काव्य रूढ़ियों से अछूते साहित्य का काल है। यह ठीक नहीं है यह काल बहुत अधिक परम्परा प्रेमी, रूढ़िग्रस्त और सचेत कवियों का काल है।”
अतः आदिकाल ना किसी एक परंपरा का सूचक ना होकर परंपरा के विकास का सूचक है तथा अपने अंदर सिद्ध, नाथ, रसों, जैन तथा लौकिक एवं फुटकर साहित्य को भी समाहित कर लेता है। यह नाम भाषा और काव्य रूपों के आदि स्वरूप को भी प्रकट करने वाला है अतः हिंदी साहित्य के प्रथम कालखंड के लिए ‘आदिकाल’ नाम ही सर्वाधिक उपयुक्त एवं सर्वमान्य है
(ब) चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक के कालखंड नामकरण
चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक के कालखण्ड में भक्ति की प्रवृत्ति को देखते हुए आ. रामचन्द्र शुक्ल जी ने सं. 1375 से लेकर 1700 वि. तक के कालखण्ड को पूर्व मध्यकाल की संज्ञा से अभिहित किया है।
आलोच्य युग के साहित्य में भक्ति की मुख्य प्रवृत्ति को देखते हुए आ. शुक्ल ने इस कालावधि का नामकरण ‘भक्तिकाल’ भी किया है।
‘भक्तिकाल’ नाम को परवर्ती सभी विद्वानों ने स्वीकार किया है और आज भी भक्तिकाल’ नामकरण सर्वमान्य है।
(स) सत्रहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी तक के कालखण्ड (रीतिकाल) के नामकरण :-
आलोच्य काल के नामकरण को लेकर भी विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है विभिन्न विद्वानों ने अपने अपने तर्कों के आधार पर उक्त कालखंड के विभिन्न नामकरण किए हैं जो निम्नलिखित प्रकार से हैं-
अलंकृतकाल – मिश्रबन्धु
रीतिकाल – आ. रामचन्द्र शुक्ल
कलाकाल – रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल
श्रृंगार काल – पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र
अलंकृतकाल
इस काल की कविता में अलंकारों की प्रधानता को देखते हुए मिश्र बंधुओं ने इसे अलंकृत काल कहा है।
मिश्रबन्धुओं ने इस युग का नामकरण करते हुए कहा है कि – “रीतिकालीन कवियों” ने जितने आग्रह के साथ रचना शैली को अलंकृत करने का प्रयास किया है. उतना अन्य किसी भी काल के कवियों ने नहीं।
इस प्रवृत्ति के कारण यह अलंकृतकाल है।
इस काल को अलंकृतकाल कहने का दूसरा कारण यह है कि इस काल के कवियों ने अलंकार निरूपक ग्रन्थों के लेखन में विशेष रूचि प्रदर्शित की।
परंतु इस काल को ‘अलंकृतकाल’ नाम देना उचित नहीं है क्योंकि यह कविता केवल अलंकृत ही नहीं है इतर काव्यांगों को भी इसमें यथोचित स्थान प्राप्त रहा है। अलंकरण की प्रवृत्ति इस काल की विशेष प्रवृत्ति नहीं है। यह प्रवृत्ति तो हिन्दी के आदिकाल से लेकर आज तक चली आ रही है। दूसरे यह नामकरण कविता के केवल बहिरंग पक्ष का सूचक है। इससे कविता के अंतरंग पक्ष, भाव एवं रस की अवहेलना होती है। आलोच्य काल के कवियों ने अलंकारों की अपेक्षा रस पर अधिक बल दिया है। इसके अतिरिक्त अलंकृतकाल नाम को स्वीकार कर लेने से इस काल की विशेष प्रवृत्ति श्रृंगार और शास्त्रीयता की पूर्ण उपेक्षा हो जाती है।
कलाकाल
रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल’ ने इस काल में सामाजिक सांस्कृतिक तथा साहित्यिक पक्ष में कला वैशिष्ट्य को ध्यान में रखते हुए आलोच्य काल को ‘कलाकाल’ नाम दिया है।
उनका कहना है कि “मुगल सम्राट शाहजहाँ का सम्पूर्ण शासन काल कला वेष्टित था। इस युग में एक ओर स्थापत्य कला का चरम बिन्दु ताजमहल के रूप में ‘काल के गाल का अश्रू’ बनकर प्रकट हुआ तो दूसरी ओर हिन्दी कविता भी कलात्मकता से संयुक्त हुई। इस काल के कवियों ने विषय की अपेक्षा शैली की ओर अधिक ध्यान दिया। उनकी कविता में चित्रकला का भी योग हुए बिना न रह सका। अत:एवं यह कलाकाल है।”
डॉ रमा शंकर शुक्ल ‘रसाल’ द्वारा सुझाए गए कलाकाल नाम से भी मिश्र बंधुओं द्वारा सुझाए गए अलंकृत काल नाम की तरह ही कविता के बाह्य पक्ष की विशेषता का ही बोध होता है और कविता का आंतरिक पक्ष उपेक्षित रह जाता है तथा इस युग की व्यापक श्रृंगारिक चेतना और शास्त्रीयता की पूर्ण अवहेलना हो जाती है।
श्रृंगारकाल
पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इस काल मे श्रृंगार रस की प्रधानता को ध्यान में रखकर इस काल को को ‘श्रृंगारकाल’ की उपमा दी है।
परंतु यह नाम भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि रीतिकालीन कवियों ने श्रृंगार के अतिरिक्त अन्य रसों की कविता भी लिखी है।
श्रृगारिकता के साथ-साथ आलंकारिकता और शास्त्रीयता इस काल की कविता के विशेष गुण हैं भक्तिपरक, नीतिपरक रचनाएँ भी इस युग में लिखी गई है।
इस युग के कवियों का उद्देश्य तो अपने आश्रयदाताओं को प्रसन्न कर अर्थोपार्जन करना था अत: यह नामकरण उचित नहीं है।
रीतिकाल
मूर्धन्य विद्वान आ. रामचन्द्र शुक्ल जी ने एक परम्परा की प्रवृति के आधार पर इस युग का नामकरण ‘रीतिकाल’ किया है।
उनका मत है कि- “इन रीतिग्रन्थों” के कर्ता भावुक, सहृदय और निपुण कवि थे।
उनका उद्देश्य कविता करना था, न कि काव्यांगो का शास्त्रीय पद्धति पर निरुपण करना।
अत: उनके द्वारा बड़ा भारी कार्य यह हुआ कि रसों (विशेषतः श्रृंगार रस) और अलंकारों के बहुत ही सरस और हृदयग्राही उदाहरण अत्यन्त प्रचूर परिमाण में प्राप्त हुए।”
अलंकृत काल
शुक्लजी के इस नामकरण का आधार इस काल में रीतिग्रन्थों और रीति ग्रन्थकारों की सुदीर्घ परम्परा है।
इस नाम को सभी परवर्ती सभी विद्वानों ने लगभग एकमत से स्वीकार किया है।
‘रीतिकाल’ नाम की सार्थकता को स्पष्ट करते हुए डॉ० भगीरथ मिश्र ने ‘रीतिकाल’ नामकरण का अनुमोदन करते हुए कहा है-
“इस युग के नाम के सम्बन्ध में मतभेद मिलता है।
मिश्रबन्धु इसको ‘अलंकृत काल’ कहते हैं।
आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र इसे श्रृंगार काल’ नाम से अभिहित करते हैं तथा डॉ नगेन्द्र इसे रीतियुग कहने के पक्ष में हैं।
प्रत्येक विद्वान के अपने-अपने तर्क हैं और उस आधार पर इन नामों का औचित्य भी ठहरता है।
अलंकार की प्रधान प्रवृत्ति के कारण इसका अलंकृत काल नाम जहाँ औचित्य रखत है, वहीं श्रृंगारिक रचना की प्रधानता के कारण इसे शृंगार-काल कहा जा सकता है।
परन्तु उस युग के समग्र काव्य ध्यानपूर्वक देखने पर हमें लगता है कि न तो अलंकरण ही स्वच्छंद है और न श्रृंगार वर्णन ही।
पर ये दोनों एक ही परिपाटी पर चलते हैं रीति में बँधे हैं।
अलंकार के विपरीत उस युग में निरलंकृत भक्ति व रस काव्य भी कम नहीं है और श्रृंगार के विपरीत बीर, नीति और भक्ति काव्य बहुत प्रचुर मात्रा में मिलता है।
पर यह समग्र काव्य अपनी-अपनी परिपाटी का पालन करते हुए लिखा गया है।
चाहे वह भक्ति, बीर, नीति, शृंगार कोई भी काव्य क्यों न हों, एक रीतिबद्धता इस युग में देखने को मिलती है।
बीर काव्य युद्ध वर्णन की पद्धति को अपनाकर चलता अथवा काव्यशास्त्रीय लक्षणों का आधार ग्रहण किए है।
रीतिकाल
इसी प्रकार निर्गुण भक्ति-काव्य विभिन्न अंगों में विभाजित है।
कृष्ण-भक्ति-काव्य रागों या अष्टायाम-पूजा या लीला-पद्धति में ढलकर आया है,
इतना ही नहीं इस युग के काव्य की प्रमुख विशेषता रीतिबद्धता है
ऐसी दशा में इस युग का नाम रीति-युग ही स्वीकार करना अधिक उपयुक्त होगा।
इस नाम से उस युग के समग्र काव्य का स्वरूप स्पश्ट हो जाता है
और यह रीतिबद्धता की विशेषता चेतन या अचेतन रूप में उस युग की समस्त-काव्य-धाराओं पर लागू होती है।
इसलिए मेरे विचार से रीतियुग नाम देना ही उचित है।
“इस प्रकार ‘रीतिकाल’ नामकरण अधिक युक्तियुक्त, सार्थक एवंम् समीचीन है।
(द) 19वीं शताब्दी से अब तक के कालखंड नामकरण
यद्यपि प्रत्येक काल अपने पूर्व काल से अधिक आधुनिक होता है तथापि गद्य का आविर्भाव ही इस आलोच्य काल की सबसे बड़ी विशेषता है।
संवत् 1900 से आरम्भ हुए आधुनिक काल में गद्य का विकास इस काल की सबसे महत्वपूर्ण घटना और आधुनिकता का सूचक है।
यद्यपि इस काल में कविता के क्षेत्र में भी विविध नवीन प्रवृत्तियों का विकास हुआ है,
किंतु जैसा विकास गद्य के विभिन्न अंगों का हुआ है, वैसा कविता का नहीं हो सका है।
को आ. रामचन्द्र शुक्लजी ने गद्य के पूर्ण विकास एवं प्रधानता को देखते हुए ‘गद्य काल’ नाम दिया है।
आ. हजारीप्रसाद द्विवेदी प्रेस के उद्भव को ही आधुनिकता का वाहक मानते है।
‘आधुनिक काल’ को आ. शुक्ल जी ने तीन चरणों में विभक्त किया है और इन्हें प्रथम उत्थान, द्वितीय उत्थान तथा तृतीय उत्थान कहा है।
अधिकांश आधुनिक विद्वानो ने इस काल के प्रमुख साहित्यकारों के अवदान के आधार पर इसके उपभागों के नामकरण ‘भारतेन्दु युग’ अथवा ‘पुनर्जागरण काल’, ‘द्विवेदी युग अथवा ‘जागरण-सुधार काल’ आदि किये हैं।
इसके बाद के कालखण्डों को भी विद्वानों ने ‘छायावादी युग’ तथा ‘छायावादोत्तर युग’ में प्रगति, प्रयोग काल, नवलेखन काल नाम दिये हैं।
आधुनिक काल की प्रगति इतनी विशाल और बहुमुखी है कि उसे किसी विशिष्ट वाद या प्रवृत्ति की संकुचित सीमा में नहीं बाँधा जा सकता।
सर्वमान्य मत के अनुसार आलोच्य काल का नाम आधुनिक काल ही उपयुक्त है।
हिन्दी साहित्य काल विभाजन एवं कालखण्डों के नामकरण तथा हिंदी साहित्य में प्रचलित काल विभाजन और नामकरण की संपूर्ण जानकारी
“प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य-परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ‘साहित्य का इतिहास’ कहलाता है।” (आ.शुक्ल)
पूर्व काल में घटित घटनाओं, तथ्यों का विवेचन, विश्लेषण एवं मूल्यांकन इतिहास में किया जाता है, और साहित्य में मानव-मन एवं जातीय जीवन की सुखात्मक दुखात्मक ललित भावनाओं की अभिव्यक्ति इस प्रकार की जाती है कि वे भाव सर्वसामान्य के भाव बन जाते हैं।
इससे स्पष्ट होता है कि, विभिन्न परिस्थितियों अनुसार परिवर्तित होने वाली जनता की सहज चित्तवृत्तियों की अभिव्यक्ति साहित्य में की जाती है जिससे साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता रहता है।
विभिन्न परिस्थितियों के आलोक में साहित्य के इसी परिवर्तनशील प्रवृत्ति और साहित्य में अंतर्भूत भावाभिव्यक्ति को प्रस्तुत करना ही साहित्येतिहास कहलाता है।
हिन्दी साहित्य काल विभाजन
आज साहित्य का अध्ययन एवं विश्लेषण केवल साहित्य और साहित्यकार को केंद्र में रखकर नहीं किया जा सकता बल्कि साहित्य का भावपक्ष, कलापक्ष, युगीन परिवेश, युगीन चेतना, साहित्यकार की प्रतिभा, प्रवृत्ति आदि का भी विवेचन विश्लेषण किया जाना चाहिए।
अतः कहा जा सकता है कि साहित्येतिहास का उद्देश्य ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्में साहित्य को वस्तु, कला पक्ष, भावपक्ष, चेतना तथा लक्ष्य की दृष्टि से स्पष्ट करना है साहित्य का बहुविध विकास, साहित्य में अभिव्यक्त मानव जीवन की जटिलता, ऐतिहासिक तथ्यों की खोज, अनेक सम्यक अनुशीलन के लिए साहित्येतिहास की आवश्यकता होती है।
“किसी भाषा में उस साहित्य का इतिहास लिखा जाना उस साहित्य की समृद्धि का परिणाम है। साहित्य के इतिहास का लिखा जाना अपनी साहित्यिक निधि की चिंता करना एवं उन साहित्यिकों के प्रति न्याय एवं कृतज्ञता प्रकट करना है जिन्होंने हमारे जातीय एवं राष्ट्रीय जीवन को प्रभावित किया है साहित्य के इतिहास को वह भित्तिचित्र समझिए जिसमें साहित्यिकों के आकृति-चित्र ही नहीं होते, हृदयचित्र और मस्तिष्क-चित्र भी होते हैं। इसके लिए निपुण चित्रकार की आवश्यकता होती है।” (विश्वंभर मानव)
हिन्दी साहित्य का काल विभाजन
जॉर्ज ग्रियर्सन द्वारा किया गया काल – विभाजन :
चारणकाल (700 इ. से 1300 इ. तक)
19 शती का धार्मिक पुनर्जागरण
जयसी की प्रेम कविता
कृष्ण संप्रदाय
मुगल दरबार
तुलसीदास
प्रेमकाव्य
तुलसीदास के अन्य परवर्ती
18 वीं शताब्दी
कंपनी के शासन में हिंदुस्तान
विक्टोरिया के शासन में हिंदुस्तान
इस काल विभाजन में एकरूपता का अभाव है। यह काल विभाजन कहीं कवियों के नाम पर; कहीं शासकों के नाम पर; कहीं शासन तंत्र के नाम पर किया गया है।
इस काल विभाजन में साहित्यिक प्रवृत्तियों और साहित्यिक चेतना का सर्वथा अभाव है।
अनेकानेक त्रुटियां होने के बाद भी काल विभाजन का प्रथम प्रयास होने के कारण ग्रियर्सन का काल विभाजन सराहनीय एवं उपयोगी तथा परवर्ती साहित्येतिहासकारों के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हुआ है।
मिश्र बंधुओं द्वारा किया गया काल-विभाजन :
मिश्र बंधुओं ने अपने साहित्येतिहास ग्रंथ ‘मिश्र बंधु विनोद’ (1913) में नया काल विभाजन प्रस्तुत किया।
यह काल विभाजन भी सर्वथा दोष मुक्त नहीं है, इस काल विभाजन में वैज्ञानिकता का अभाव है परंतु यह काल विभाजन ग्रियर्सन के काल विभाजन से कहीं अधिक प्रौढ़ और विकसित है-
प्रारंभिक काल (सं. 700 से 1444 विक्रमी तक)
माध्यमिक काल (सं. 1445 से 1680 विक्रमी तक)
अलंकृत काल (सं. 1681 से 1889 विक्रमी तक)
परिवर्तन काल (सं. 1890 से 1925 विक्रमी तक)
वर्तमान काल (सं. 1926 से अब तक)
आ. रामचंद्र शुक्ल द्वारा किया गया काल विभाजन :
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ (1929) में हिंदी साहित्य के इतिहास का नवीन काल विभाजन प्रस्तुत किया, यह काल विभाजन पूर्ववर्ती काल विभाजन से अधिक सरल, सुबोध और श्रेष्ठ है।
आचार्य शुक्ल द्वारा किया गया काल विभाजन वर्तमान समय तक सर्वमान्य है-
आदिकाल (वीरगाथा काल, सं. 1050 से 1375 विक्रमी तक)
पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल, सं. 1375 से 1700 विक्रमी तक)
उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल, सं. 1700 से 1900 विक्रमी तक)
आधुनिक काल (गद्य काल, सं. 1900 से आज तक)
डॉ. रामकुमार वर्मा द्वारा किया गया काल-विभाजन :
डॉ रामकुमार वर्मा ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ में काल विभाजन हेतु आचार्य शुक्ल का अनुसरण करते हुए अपना काल विभाजन प्रस्तुत किया है
कालविभाजन के अंतिम चार खंड तो आ. शुक्ल के समान ही है, लेकिन वीरगाथा काल को चारण काल नाम देकर इसके पूर्व एक संधिकाल और जोडकर हिंदी साहित्य का आरंभ सं. 700 से मानते हुए काल-विभाजन प्रस्तुत किया है।
आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आ. शुक्ल जी के काल-विभाजन को ही स्वीकार कर केवल संवत् के स्थान पर ईस्वी सन् का प्रयोग किया है।
द्विवेदीजी ने पूरी शताब्दी को काल विभाजन का आधार बनाकर वीरगाथा की अपेक्षा आदिकाल नाम दिया है।
आदिकाल (सन् 1000 ई. से 1400 ई. तक)
पूर्व मध्यकाल (सन् 1400 ई. से 1700 ई. तक)
उत्तर मध्यकाल (सन् 1700 ई. से 1900 ई. तक)
आधुनिक काल (सन् 1900 ई. से अब तक)
बाबू श्यामसुन्दर दास द्वारा किया गया काल-विभाजन:
बाबू श्यामसुन्दर दास द्वारा किया गया काल-विभाजन आ. शुक्ल के काल-विभाजन से साम्य रखता है।
दोनों के काल विभाजन में कोई अधिक भिन्नता नहीं है का काल-विभाजन इस प्रकार है-
आदिकाल (वीरगाथा का युग संवत् 1000 से संवत् 1400 तक)
पूर्व मध्य युग (भक्ति काल युग, संवत् 1400 से संवत् 1700 तक)
उत्तर मध्ययुग (रीति ग्रन्थों का युग, संवत् 1700 से, संवत् 1900 तक)
आधुनिक युग (नवीन विकास का युग, संवत् 1900 से अब तक)
डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त द्वारा किया गया काल-विभाजन:
डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने अपने ग्रन्थ ‘हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास’ में शुक्ल जी के काल विभाजन का ही समर्थन किया है। उनका काल-विभाजन इस प्रकार है-
प्रारम्भिक काल (1184 – 1350 ई.)
पूर्व मध्यकाल (1350 – 1600 ई.)
उत्तर मध्यकाल (1600 – 1857 ई.)
धुनिक काल (1857 ई. अब तक)
डॉ. नगेंद्र द्वारा किया गया काल-विभाजन :
आदिकाल (7 वी सदी के मध्य से 14 वीं शती के मध्यतक)
भक्तिकाल (14 वीं सदी के मध्य से 17 वीं सदी के मध्यतक)
रीतिकाल (17 वीं सदी के मध्य से 19 वीं शती के मध्यतक)
“घर बालक की प्रथम पाठशाला और माता-पिता उसके प्रथम शिक्षक होते हैं।”
उक्त कथन पूर्ण सत्य है बालक अपना पहला ज्ञान अपने परिवार और परिजनों से ही लेता है और उसके बाद ही वह समाज में प्रवेश करता है।
समाज में प्रवेश करके वह समाज के बारे में प्रयोगात्मक ज्ञान प्राप्त करता है
लेकिन इसके बाद भी उसे ज्ञान प्राप्ति के लिए विद्यालय और उसके पश्चात महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय की आवश्यकता होती है।
वर्तमान समय में हमें शिक्षा की कितनी आवश्यकता है उस शिक्षा से हम क्या क्या कर सकते हैं,
किस तरह से हम अपने तथा दूसरों के जीवन में परिवर्तन ला सकते हैं।
इसके लिए नेल्सन मंडेला का यह कथन पूर्णतया सार्थक है
“शिक्षा सबसे शक्तिशाली हथियार है जिसका उपयोग आप विश्व को बदलने के लिए कर सकते हैं”।
भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान
विश्व की सबसे प्राचीन और विकसित सभ्यता भारतीय सभ्यता है विश्व के सबसे प्राचीन ग्रंथ वेद है, जो कि ज्ञान का अथाह भंडार है।
प्राचीन काल से ही भारत में शिक्षा का प्रचार प्रसार अत्यंत व्यापक था।
वेदो के अध्ययन से हमें पता चलता है कि प्राचीन काल में भारत में सभी वर्गों को शिक्षा प्राप्ति का अधिकार था
प्राचीन समय में भारत में गुरुकुल पद्धति से शिक्षा दी जाती थी।
विद्यार्थी अपने गुरु के पास जाकर शिक्षा ग्रहण करते थे और शिक्षा पूर्ण होने पर ही अपने घर लौटते थे।
यह पद्धति अत्यंत कठिन थी परंतु इससे प्राप्त ज्ञान जीवन को बदलने वाला था
प्राचीन भारतीय शिक्षा का उद्देश्य केवल परीक्षाएं पास करवाकर डिग्रियां बांटना नहीं था बल्कि सीखे हुए ज्ञान को जीवन में धारण करना तथा यथा समय उसका प्रयोग किया जा सके शिष्य को इस योग्य बनाया जाना था।
भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान
आज से लगभग 2700 वर्ष पूर्व भारत में विश्व का पहला विश्वविद्यालय स्थापित किया गया।
यह विश्वविद्यालय तक्षशिला नामक स्थान पर स्थापित किया गया था।
इसके बाद लगभग 2300 वर्ष पूर्व नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना की गई।
यह दोनों ही विश्वविद्यालय वेद वेदांग के अतिरिक्त ज्ञान-विज्ञान, तकनीकी, गणित खगोल, भौतिकी, राजनीति शास्त्र, अर्थशास्त्र, नीति शास्त्र, व्याकरण आदि अनेक विषयों के लिए प्रसिद्ध थे।
इन्ही विश्वविद्यालयों में प्रसिद्ध भारतीय विद्वानों, जैसे- चरक, सुश्रुत, आर्यभट्ट, चाणक्य, पतंजलि आदि ने ज्ञान प्राप्त किया और ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों, जैसे- गणित, खगोल विज्ञान, भौतिकी, रसायन शास्त्र, चिकित्सा विज्ञान और शल्य चिकित्सा इत्यादि में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
सभी प्रकार के स्वास्थ्य और विज्ञान में भारतीयों का स्थान प्रथम है
यथा- आचार्य कणाद परमाणु संरचना पर सर्वप्रथम प्रकाश डालने वाले महापुरूष थे।
कणाद का कहना था– “यदि किसी पदार्थ को बार-बार विभाजित किया जाए और उसका उस समय तक विभाजन होता रहे, जब तक वह आगे विभाजित न हो सके, तो इस सूक्ष्म कण को परमाणु कहते हैं। परमाणु स्वतंत्र रूप से नहीं रह सकतेI परमाणु का विनाश कर पाना भी सम्भव नहीं हैं।”
प्राचीन वैज्ञानिकों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त
बौधायन भारत के प्राचीन गणितज्ञ और शुल्ब सूत्र तथा श्रौतसूत्र के रचयिता थे। उस समय भारत में रेखागणित या ज्यामिति को शुल्व शास्त्र भी कहा जाता था।
सुश्रुत प्राचीन भारत के महान चिकित्साशास्त्री एवं शल्यचिकित्सक थे। उनको शल्य चिकित्सा का जनक कहा जाता है।
चरक एक महर्षि एवं आयुर्वेद विशारद के रूप में विख्यात हैं। वे कुषाण राज्य के राजवैद्य थे। इनके द्वारा रचित चरक संहिता एक प्रसिद्ध आयुर्वेद ग्रन्थ है।
जीवक कौमारभच्च प्राचीन भारत के प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्यथे। अनेक बौद्ध ग्रन्थों में उनके चिकित्सा-ज्ञान की व्यापक प्रशंसा मिलती है। वे बालरोग विशेषज्ञ थे।
आर्यभट प्राचीन भारत के एक महान ज्योतिषविद् और गणितज्ञ थे। इन्होंने आर्यभटीय ग्रंथ की रचना की जिसमें ज्योतिषशास्त्र के अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन है।
वराहमिहिर (वरःमिहिर) ईसा की पाँचवीं-छठी शताब्दी के भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ थे। वाराहमिहिर ने ही अपने पंचसिद्धान्तिका में सबसे पहले बताया कि अयनांश का मान 50.32 सेकेण्ड के बराबर है।
ब्रह्मगुप्त (५९८-६६८) प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ थे। वे तत्कालीन गुर्जर प्रदेश (भीनमाल) के अन्तर्गत आने वाले प्रख्यात शहर उज्जैन (वर्तमान मध्य प्रदेश) की अन्तरिक्ष प्रयोगशाला के प्रमुख थे और इस दौरान उन्होने दो विशेष ग्रन्थ लिखे: ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त (सन ६२८ में) और खण्डखाद्यक या खण्डखाद्यपद्धति (सन् ६६५ ई में)। ये अच्छे वेधकर्ता थे और इन्होंने वेधों के अनुकूल भगणों की कल्पना की है। प्रसिद्ध गणितज्ञ ज्योतिषी, भास्कराचार्य, ने अपने सिद्धांत को आधार माना है और बहुत स्थानों पर इनकी विद्वत्ता की प्रशंसा की है। मध्यकालीन यात्री अलबरूनी ने भी ब्रह्मगुप्त का उल्लेख किया है।
भास्कराचार्य या भास्कर द्वितीय (1114 – 1185) प्राचीन भारत के एक प्रसिद्ध गणितज्ञ एवं ज्योतिषी थे। इनके द्वारा रचित मुख्य ग्रन्थ सिद्धान्त शिरोमणि है जिसमें लीलावती, बीजगणित, ग्रहगणित तथा गोलाध्याय नामक चार भाग हैं। ये चार भाग क्रमशः अंकगणित, बीजगणित, ग्रहों की गति से सम्बन्धित गणित तथा गोले से सम्बन्धित हैं।
भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान
विदेशी आक्रमणों के साथ ही भारतीय शिक्षा पद्धति का प्रभाव भी शुरू हो गया विदेशी आक्रांता ओं ने न सिर्फ भारतीय शिक्षा पद्धति का नाश किया बल्कि अनेक अनेक ग्रंथों विश्वविद्यालयों पुस्तकालय आदि को भी नष्ट कर दिया। अंग्रेजी शासनकाल में मैकाले द्वारा शुरू की गई शिक्षा पद्धति ने भारतीय शिक्षा की रीड की हड्डी ही तोड़ दी।
अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार से भारतीय शिक्षा और ज्ञान विज्ञान अपना प्रभुत्व खोने लगे और उस पर एक नया स्वरूप छाने लगा जिसे पाश्चात्य शिक्षा कहा गया।
कालांतर में भारतीय विद्वानों ने भी इसी पाश्चात्य शिक्षा का अनुसरण किया स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अनेक आयोग तथा समितियां गठित किए गए लेकिन उनमें से किसी ने भी भारतीय शिक्षा पद्धति की तरफ ध्यान नहीं दिया सभी ने पाश्चात्य शिक्षा पद्धति से ही शिक्षा देने का समर्थन किया जो शायद समय की मांग भी थी।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत में शिक्षा से संबंधित आयोग और समितियां (Commissions and Committees related with Education over the years)
विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग या राधा कृष्ण आयोग (1948):
स्वतंत्र भारत का यह पहला शिक्षा आयोग था जो पूर्व राष्ट्रपति शिक्षाविद एवं दार्शनिक डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्ण की अध्यक्षता में गठित हुआ इसके द्वारा क्षेत्र, जाति, लैंगिक विषमता का भेदभाव किए बिना समाज के सभी वर्गों के लिए उच्च शिक्षा को उपलब्ध कराने की अनुशंसा की गई।
मुदालियर आयोग या माध्यमिक शिक्षा आयोग:
डॉ. ए. लक्ष्मण स्वामी मुदलियार की अध्यक्षता में गठित माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952):
समिति ने सम्पूर्ण भारत में एक समान प्रारूप लागू करने,
आउटकम की दक्षता में वृद्धि,
मैट्रिक पाठ्यक्रमों का विविधीकरण,
बहुउद्देशीय मैट्रिक विद्यालयों तथा तकनीकी विद्यालयों की स्थापना की सिफारिश की।
भारतीय शिक्षा आयोग या कोठारी आयोग (1964-66)
डॉ. दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में गठित भारतीय शिक्षा आयोग का गठन 1964 में किया गया
इस आयोग द्वारा – a आंतरिक परिवर्तन b गुणात्मक सुधार और c शैक्षिक सुविधाओं का विस्तार, के आधार पर एक व्यापक पुनर्निर्माण के तीन मुख्य बिंदुओं कि अनुशंसा की गयी।
1968 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति:
कोठारी आयोग की अनुशंसा के आधार पर 1968 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति का निर्माण किया गया।
इसने माध्यमिक विद्यालयों में क्षेत्रीय भाषाओं पर बल देने; संविधान में प्रस्तावित 6-14 वर्ष की आयु वर्गों के बालकों के लिए अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान करने;
अंग्रेजी को विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम बनाने,
हिंदी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्वीकार करने एवं
संस्कृत के विकास को बढ़ावा देने तथा राष्ट्रीय आय का 6 प्रतिशत शिक्षा पर व्यय करने जैसी कई महत्त्वपूर्ण अनुशंसाएं की।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986):
(अद्यतन1992) इसके प्रमुख प्रावधानों में शामिल हैं-
समाज के सभी वर्गों विशेष रूप से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और महिलाओं को शिक्षा की पहुँच सुनिश्चित करना;
निर्धनों के लिए छात्रवृत्ति का प्रावधान,
प्रौढ़ शिक्षा प्रदान करना,
वंचित/पिछड़े वर्गों से शिक्षकों की भर्ती करना और नए विद्यालयों एवं महाविद्यालयों का विकास करना;
छात्रों को प्राथमिक शिक्षा प्रदान करना;
गांधीवादी दर्शन के साथ ग्रामीण लोगों को शिक्षा प्रदान करना;
मुक्त विश्वविद्यालयों की स्थापना करना;
शिक्षा में IT का प्रचार करना;
तकनीकी शिक्षा क्षेत्र को प्रारम्भ करने के अतिरिक्त वृहद स्तर पर निजी उद्यम को बढ़ावा देना।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1992):
भारत सरकार द्वारा 1990 में आचार्य राममूर्ति की अध्यक्षता में 1986 की राष्ट्रीय नीति के परिणामों की समीक्षा करने के लिए एक आयोग का गठन किया गया।
इसकी प्रमुख अनुशंसाओं में शामिल थीं-
केंद्र और राज्य सरकारों को सलाह देने के लिए उच्चतम सलाहकार निकाय के रूप में केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड का गठन;
शिक्षा की गुणवत्ता में वृद्धि पर ध्यान केंद्रित करना;
छात्रों में नैतिक मूल्यों को विकसित करना तथा
जीवन में शिक्षा को आत्मसात करने पर बल देना।
टी एस आर सुब्रमण्यम समिति की प्रमुख सिफारिशें:भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान
फेल नहीं करने की नीति पांचवी कक्षा तक ही लागू होनी चाहिए।। उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को बेहतर बनाने के लिए विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत आने की अनुमति दी जानी चाहिए।
मानव संसाधन के अधीन एक ’भारतीय शिक्षा सेवा’ का गठन किया जाए, (Indian Education Service: IES) का गठन किया जाना चाहिए; शिक्षा पर व्यय GDP का कम से कम 6% तक बढ़ाया जाना चाहिए; मौजूदा B.Ed पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए स्नातक स्तर पर 50% अंकों के साथ न्यूनतम पात्रता शर्त होनी चाहिए; सभी शिक्षकों की भर्ती के लिए शिक्षक पात्रता परीक्षा (Teacher Eligibility Test: TET) अनिवार्य किया जाना चाहिए; सरकार और निजी स्कूलों में शिक्षकों के लिए लाइसेंसिंग या प्रमाणीकरण को अनिवार्य बनाना चाहिए; 4 से 5 वर्ष की आयु वर्ग के बच्चों के लिए पूर्व-विद्यालय शिक्षा को अधिकार के रूप में घोषित किया जाना चाहिए; मिड-डे-मील योजना का विस्तार माध्यमिक विद्यालय तक किया जाए ; भारत में कैंपस खोलने के लिए शीर्ष 200 विदेशी विश्वविद्यालयों को अनुमति दी जानी चाहिए।
नई शिक्षा नीति तैयार करने हेतु कस्तूरीरंगन आयोग (2017) का गठन : भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान
केंद्र सरकार द्वारा एक नई शिक्षा नीति तैयार करने हेतु कस्तूरीरंगन आयोग (2017) का गठन किया गया है।
नई शिक्षा नीति में ध्यान केंद्रित किए जाने वाले प्रमुख बिंदु हैं:
आंगनबाड़ी को प्री-प्राइमरी स्कूल में बदला जायेगा।
राज्य एक साल के भीतर कोर्स बनायेंगे तथा शिक्षकों का अलग कैडर बनायेंगे।
सभी प्राइमरी स्कूल प्री-प्राइमरी स्कूल से सुसज्जित होंगे। आगनबाड़ी केंद्रों को स्कूल कैम्पस में स्थापित किया जायेगा।
नो डिटेंशन अब कक्षा 05 तक होगा।
RTE को 12 वीं तक ले जाया जायेगा।
विज्ञान, गणित तथा अंग्रेजी का समान राष्ट्रीय पाठ्यक्रम होगा।
सामाजिक विज्ञान का एक हिस्सा समान होगा, शेष का निर्माण राज्य करेंगे।
कक्षा 6 से ICT आरंभ होगी।
कक्षा 6 से विज्ञान सीखने के लिए प्रयोगशाला की सहायता ली जायेगी।
गणित, विज्ञान तथा अंग्रेजी के कक्षा 10 हेतु दो लेवल होंगे-A तथा B
ICT का शिक्षण तथा अधिगम सुनिश्चित करने हेतु प्रयोग।
विद्यालय के कार्यों का कम्प्यूटीकरण तथा शिक्षकों-छात्रों की उपस्थिति की ऑनलाइन मॉनिटरिंग।
राज्यों में शिक्षकों की नियुक्ति के लिये अलग से ‘शिक्षक भर्ती आयोग’।
नियुक्ति पारदर्शी तथा मैरिट के आधार पर होगी।
सभी रिक्त पद भरे जाएं। प्रधानाचार्यों के लिये लीडरशिप ट्रेनिंग अनिवार्य।
राष्ट्रीय स्तर पर ‘टीचर एजुकेशन विश्वविद्यालय’ की स्थापना।
हर पांच साल में शिक्षकों को एक परीक्षा देनी होगी। इसे उनके प्रमोशन तथा इन्क्रीमेंट से जोड़ा जायेगा।
GDP का 6% शिक्षा पर खर्च करने के लक्ष्य को पूरा करने की कोशिश हो।
नयी संस्थाओं को खोलने के बजाय मौजूदा शिक्षण संस्थाओं को मजबूत किया जाये।
मिड डे मील का दायित्व शिक्षकों के ऊपर से हटाकर महिला स्वयं सहायता समूहों को दिया जायेगा।
भोजन बनाने की केंद्रिकत प्रणाली विकसित की जायेगी।
निष्कर्ष
आधुनिक शिक्षा आज की आवश्यकता है परंतु केवल भौतिक उन्नति ही जीवन का सार नहीं है इसके साथ आध्यात्मिक उन्नति भी आवश्यक है स्वतंत्र भारत में जितने भी आयोग और समितियां शिक्षा की उन्नति के लिए गठित किए गए।
उन सभी का विश्लेषण करने के बाद यह प्रतीत होता है कि किसी ने भी प्राचीन भारतीय ज्ञान और विज्ञान के बारे में ऐसा कोई विचार नहीं दिया जिससे कि प्राचीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान का सदुपयोग आज की भौतिकवादी सभ्यता में किया जा सके।
बिना आध्यात्मिक मुक्ति के गौरी भौतिकता सर्वनाश की ओर ले जाती है।
प्राचीन भारतीय ज्ञान विज्ञान में भौतिक उन्नति के स्थान पर आध्यात्मिक व्यक्ति को महत्व दिया गया था
इसीलिए उनका जीवन शांतिपूर्ण और सात्विक था।
प्राचीन भारतीय मनीषियों ने वर्तमान समय से कहीं अधिक उन्नति कर ली थी।
ज्ञान विज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में वह आज से कहीं आगे थे
अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि आधुनिकता को अपनाया तो जाएं लेकिन अपने प्राचीन गौरव को ना छोड़ा जाए।
प्रथम महाकवि चंदबरदाई | Mahakavi Chandbardai का जीवन परिचय, Chandbardai के अन्य नाम, पृथ्वीराज रासो के संस्करण, प्रमुख पंक्तियाँ, तथ्य, कथन
आचार्य शुक्ल के अनुसार उनका जन्म लाहोर में हुआ था। कहा जाता है कि पृथ्वीराज और चंदवरदाई का जन्म एक दिन हुआ था। परंतु मिश्र बंधुओं के अनुसार पृथ्वीराज चौहान और चंदबरदाई की आयु में अंतर था। इनकी जन्म तिथि एक ही थी या नहीं थी इस संबंध में मिश्र बंधु कुछ नहीं लिखते हैं लेकिन आयु गणना उन्होंने अवश्य की है जिसके आधार पर उनका अनुमान है कि चंद पृथ्वीराज से कुछ बड़े थे। चंद ने अपने जन्म के बारे में रासों में कोई वर्णन नहीं किया है, परंतु उन्होंने पृथ्वीराज का जन्म संवत् 1205 विक्रमी में बताया है।
प्रथम महाकवि चंदबरदाई | Mahakavi Chandbardai : अन्य नाम
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के मतानुसार कवि चंदवरदाई हिंदी साहित्य के प्रथम महाकवि है, उनका महान ग्रंथ ‘पृथ्वीराजरासो‘ हिंदी का प्रथम महाकाव्य है। आदिकाल के उल्लेखनीय कवि चंदबरदाई ने पृथ्वीराज रासो में अपना जीवन दिया है, रासो अनुसार चंद भट्ट जाति के जगात नामक गोत्र के थे। मुनि जिनविजय द्वारा खोज निकाले गए जैन प्रबंधों में उनका नाम चंदवरदिया दिया है और उन्हें खारभट्ट कहा गया है।
चंद, पृथ्वीराज चौहान के न केवल राजकवि थे, वरन् उनके सखा और सामंत भी थे और जीवन भर दोनों साथ रहे। चंद षड्भाषा, व्याकरण, काव्य, साहित्य, छंद शास्त्र, ज्योतिष, पुराण आदि अनेक विधाओं के जानकार विद्वान थे। उन पर जालंधरी देवी का इष्ट था। चंदवरदाई की जीवनी के संबंध में सूर की “साहित्यलहरी” में सुरक्षित सामग्री है।
सूर की वंशावली
‘सूरदास’ की साहित्य लहरी की टीका मे एक पद ऐसा आया है जिसमे सूर की वंशावली दी है। वह पद यह है-
प्रथम ही प्रथु यज्ञ ते भे प्रगट अद्भुत रूप।
ब्रह्म राव विचारि ब्रह्मा राखु नाम अनूप॥
पान पय देवी दियो सिव आदि सुर सुखपाय।
कह्यो दुर्गा पुत्र तेरो भयो अति अधिकाय॥
पारि पायॅन सुरन के सुर सहित अस्तुति कीन।
तासु बंस प्रसंस में भौ चंद चारु नवीन॥
भूप पृथ्वीराज दीन्हों तिन्हें ज्वाला देस।
तनय ताके चार, कीनो प्रथम आप नरेस॥
दूसरे गुनचंद ता सुत सीलचंद सरूप।
वीरचंद प्रताप पूरन भयो अद्भुत रूप॥
रंथभौर हमीर भूपति सँगत खेलत जाय।
तासु बंस अनूप भो हरिचंद अति विख्याय॥
आगरे रहि गोपचल में रह्यो ता सुत वीर।
पुत्र जनमे सात ताके महा भट गंभीर॥
कृष्णचंद उदारचंद जु रूपचंद सुभाइ।
बुद्धिचंद प्रकाश चौथे चंद भै सुखदाइ॥
देवचंद प्रबोध संसृतचंद ताको नाम।
भयो सप्तो दाम सूरज चंद मंद निकाम॥
महामहोपाध्याय पंडित हरप्रसाद शास्त्री के अनुसार नागौर राजस्थान में अब भी चंद के वंशज रहते हैं। अपनी राजस्थान यात्रा के दौरान नागौर से चंद के वंशज श्री नानूराम भाट से शास्त्री जी को एक वंश वृक्ष प्राप्त हुआ है जिसका उल्लेख आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी अपने हिंदी साहित्य का इतिहास नामक ग्रंथ में किया है जो इस प्रकार है-
इन दोनो वंशावलियो के मिलाने पर मुख्य भेद यह प्रकट होता है कि नानूगम ने जिनको जल्लचंद की वंश-परंपरा मे बताया है, उक्त पद मे उन्हे गुणचंद की परंपरा में कहा है। बाकी नाम प्रायः मिलते हैं। (उद्धृत-हिंदी साहित्य का – आचार्य रामचंद्र शुक्ल)
प्रथम महाकवि चंदबरदाई | Mahakavi Chandbardai : पृथ्वीराज रासो के संस्करण
प्रथम संस्करण-वृहत् संस्करण– 69 समय 16306 छंद (नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित तथा हस्तलिखित प्रतियां उदयपुर संग्रहालय में सुरक्षित हैं)
द्वितीय संस्करण– मध्य संस्करण– 7000 छंद (अबोहर और बीकानेर में प्रतियाँ सुरक्षित है।)
तृतीय संस्करण-लघु संस्करण– 19 समय 3500 छंद (हस्तलिखित प्रतियाँ बीकानेर में सुरक्षित है।)
चतुर्थ संस्करण–लघूत्तम संस्करण – 1300 छंद (डॉ. माता प्रसाद गुप्ता तथा डॉ दशरथ ओझा इसे ही मूल रासो ग्रंथ मानते हैं।)
‘पृथ्वीराज रासो’ की प्रामाणिकता-अप्रामाणिकता में विद्वानों के बीच मतभेद है जो निम्नलिखित है-
1- प्रामाणिक मानने वाले विद्वान- जेम्सटॉड, मिश्रबंधु, श्यामसुन्दर दास, मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या , डॉ दशरथ शर्मा
2- अप्रामाणिक मानने वाले विद्वान- आचार्य रामचंद्र शुक्ल, मुंशी देवी प्रसाद, कविराज श्यामल दास, गौरीशंकर हीराचंद ओझा, डॉ वूल्लर, कविवर मुरारिदान
3- अर्द्ध-प्रामाणिक मानने वाले विद्वान- मुनि जिनविजय, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ सुनीति कुमार चटर्जी, डॉ दशरथ ओझा
4- चौथा मत डॉ. नरोत्तम दास स्वामी का है। उन्होंने सबसे अलग यह बात कही है कि चंद ने पृथ्वीराज के दरबार में रहकर मुक्तक रूप में ‘रासो’ की रचना की थी। उनके इस मत से कोई विद्वान सहमत नहीं है।
पृथ्वीराज सुजस कवि चंद कृत, चंद नंद उद्धरिय तिमि॥”
(5) “मनहुँ कला ससिमान कला सोलह सो बनिय”
(6) “पुस्तक जल्हण हत्थ दे, चलि गज्जन नृप काज।”
चंदबरदाई का जीवन परिचय : चंदबरदाई के लिए महत्त्वपूर्ण कथन
“चन्दबरदाई हिन्दी के प्रथम महाकवि माने जाते हैं और इनका ‘पृथ्वीराज रासो’ हिन्दी का प्रथम महाकाव्य है।” -आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
“हिन्दी का वास्तविक प्रथम महाकवि चन्दबरदाई को ही कहा जा सकता है।” –मिश्रबंधु
“यह ग्रन्थ मानो वर्तमान काल का ऋग्वेद है। जैसे ऋग्वेद अपने समय का बड़ा मनोहर ऐसा इतिहास बताता है जो अन्यत्र अप्राप्य है उसी प्रकार रासो भी अपने समय का परम दुष्प्राप्य इतिहास विस्तार-पूर्वक बताता है।” –मिश्रबंधु
“यह (पृथ्वीराज रासो) एक राजनीतिक महाकाव्य है, दूसरे शब्दों में राजनीति की महाकाव्यात्मक त्रासदी है।” –डॉ. बच्चन सिंह
‘पृथ्वीराज रासो’ की रचना शुक-शकी संवाद के रूप में हुई है। –हजारी प्रसाद द्विवेदी
चंदबरदाई से संबंधित महत्त्वपूर्ण तथ्य
1. रासो’ में 68 प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया गया है। मुख्य छंद -कवित्त, छप्पय, दूहा, तोमर, त्रोटक, गाहा और आर्या हैं। (राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी के अनुसार 72 प्रकार के छंदों का प्रयोग हुआ है)
2. चन्दबरदाई को ‘छप्पय छंद‘ का विशेषज्ञ माना जाता है।
3. डॉ. वूलर ने सर्वप्रथम कश्मीरी कवि जयानक कृत ‘पृथ्वीराजविजय’ (संस्कृत) के आधार पर सन् 1875 में ‘पृथ्वीराज रासो’ को अप्रामाणिक घोषित किया।
4. पृथ्वीराज रासो’ को चंदबरदाई के पुत्र जल्हण ने पूर्ण किया।
5. मोहनलाल विष्णु लाल पंड्या ने अनंद संवत की कल्पना के आधार पर हर पृथ्वीराज रासो को प्रामाणिक माना है।
6. रासो की तिथियों में इतिहास से लगभग 90 से 100 वर्षों का अंतर है।
7. इसका प्रकाशन नागरी प्रचारिणी सभा काशी तथा रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल से हुआ।
8. कयमास वध पृथ्वीराज रासो का एक महत्वपूर्ण समय है।
9. कनवज्ज युद्ध सबसे बड़ा समय है।
10. पृथ्वीराज रासो की शैली पिंगल है।
11. कर्नल जेम्स टॉड ने इसके लगभग 30,000 छंदों का अंग्रेजी में अनुवाद किया था।
12. इस ग्रंथ में चौहानों को अग्निवंशी बताया गया है।
13. इस ग्रंथ में पृथ्वीराज चौहान के 14 विवाहों का उल्लेख है।
चंदबरदाई का जीवन परिचय, चंदबरदाई के अन्य नाम, पृथ्वीराज रासो के संस्करण, प्रमुख पंक्तियाँ, महत्त्वपूर्ण तथ्य, महत्त्वपूर्ण कथन
स्रोत–
पृथ्वीराज रासो, हिन्दी नवरत्न –मिश्रबंधु, हिन्दी साहित्य का इतिहास – आ. शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास –डॉ नगेन्द्र
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कवि स्वयम्भू | Kavi Svayambhu अपभ्रंश के प्रथम कवि का जीवन-परिचय, रचनाएं, उपाधियाँ, स्वयंभू का काल निर्धारण, स्वयम्भू का अर्थ आदि
स्वयम्भू : काल निर्धारण – अपभ्रंश के प्रथम कवि स्वयम्भू का जीवन-परिचय एवं रचनाएं
कवि स्वयंभू की जन्मतिथि के विषय में निश्चित ज्ञान नहीं है और नही अभी तक उनके जन्म स्थान, कुल परंपरा, कार्यस्थान, कार्य विधि तथा अन्य घटनाओं के बारे में कोई विशेष जानकारी प्राप्त हो पायी है।
स्वयंभू कृत पउमचरिउ में एक स्थान पर तथा रिट्ठणेमिचरिउ में दो स्थानों पर कुछ तिथियों, महीनों, नक्षत्रों का उल्लेख अवश्य मिलता है, परंतु कहीं भी वर्ष का उल्लेख नहीं होता है, अतः काल निर्णय करना अत्यंत कठिन है। पउमचरिउ तथा रिट्ठणेमिचरिउ में स्वयंभू ने भरत, व्यास, पिंगलाचार्य, इंद्राचार्य, भामह, दंडी, श्रीहर्ष, बाण, चतुर्मुख, रविषेण आदि पूर्वगामी कवियों की प्रशंसा की है, जिनमें से रविषेण सबसे अंतिम थे। रविषेण की कृति पद्म चरित्र का रचनाकाल ईस्वी सन् 676 से 677 में माना जाता है और स्वयम्भू ने स्वीकार किया है कि उन्होंने रविसेणारिय पसाएँ अर्थात रविषेणाचार्य के प्रसाद से रामकथा रूपी नदी का अवगाहन किया है। इससे स्वयम्भू का समय 676 से 677 के बाद का ही निश्चित होता है। यह स्वयम्भू के काल की पूर्व सीमा ठहरती है।
इस तरह स्वयंभू के परवर्ती कवियों ने स्वयंभू के प्रति कृतज्ञता प्रकट की है। ऐसे कवियों में पुष्पदंत कालक्रम में सबसे पहले हैं। उन्होंने अपने महापुराण में दो स्थानों पर स्वयंभू को बड़े आदर के साथ स्मरण किया है। पुष्पदंत के महापुराण की रचना 959- 60 ईसवी में प्रारंभ हुई, अतः स्वयंभू इस समय से पूर्व हो चुके थे, इसलिए स्वयंभू की उत्तर सीमा 959- 60 के आसपास ठहरती है। स्वयम्भू की पूर्व सीमा 676- 77 तथा उत्तर सीमा 959- 60 तक के 300 वर्षों के सुदीर्घ कालखंड में एक निश्चित समय निर्धारित करना अत्यंत दुष्कर कार्य है। एक अन्य मत के अनुसार स्वयंभू 783 ईसवी के आसपास वर्तमान थे।
कवि स्वयम्भू | Kavi Svayambhu का जीवन-परिचय
स्वयम्भू जैन मतावलम्बी थे।
इनके पिता का नाम मारुतदेव तथा माता का नाम पद्मिनी था।
काव्य कला का ज्ञान इन्होंने अपने पिता से ही लिया था।
स्वयम्भू ने अपने किसी पुत्र का उल्लेख नहीं किया है, किंतु त्रिभुवन को निर्विवाद रूप से उनका पुत्र माना जाता है।
जन्म स्थान के संबंध में कोई पुष्ट प्रमाण तो नहीं मिलता परंतु अंतः साक्ष्य के आधार पर कहा जा सकता है, कि स्वयंभू कर्नाटक प्रदेश के निवासी रहे होंगे। लेकिन उनकी भाषा से यह अनुमान लगाया जाता है, कि स्वयंभू का जन्म उत्तर भारत या मध्य भारत में हुआ होगा और बाद में वे दक्षिण गए होंगे। यह अनुमान महापंडित राहुल सांकृत्यायन के मत पर आधारित है।
कवि स्वयम्भू | Kavi Svayambhu की उपाधियाँ
त्रिभुवन ने उन्हें स्वयंभूदेव, कविराज, कविराज चक्रवर्तिन विद्वान और छंदस् चूड़ामणि आदि उपाधियों से अलंकृत किया है।
पउमचरिउ में स्वयंभू ने अपने आप को कविराज कहकर संबोधित किया है।
डॉ हरिवल्लभ चुन्नीलाल भयाणी ने इन्हें अपभ्रंश का कालिदास और डॉ राहुल सांकृत्यायन ने इन्हें अपभ्रंश का वाल्मीकि कहा है।
स्वयम्भू कवि की रचनाएं – अपभ्रंश के प्रथम कवि स्वयम्भू का जीवन-परिचय एवं रचनाएं
स्वयंभू की तीन कृतियां निर्विवाद रूप से स्वीकार की जाती हैं- पउमचरिउ (पद्मचरित्र), रिट्ठणेमिचरिउ तथा स्वयम्भू छंद।
पउमचरिउ–
पउमचरिउ में राम कथा है।
राम का एक पर्याय पद्म भी है, अतः स्वयंभू ने पद्मचरित्र नाम दिया।
कथा के अंत में राम को मुनींद्र से उपदेश ग्रहण कर निर्वाण प्राप्त करते हुए दिखाया गया है।
ऐसा करके कवि ने जैन धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करनी चाही है।
पउमचरिउ पांच कांड और 90 संधियों में विभाजित महाकाव्य है-
(1) विद्याधर कांड में 20,
(2) अयोध्या कांड में 22,
(3) सुंदरकांड में 14,
(4) युद्ध कांड में 21,
(5) उत्तरकांड में 13 संधियाँ हैं।
संधियाँ कडवकों में विभाजित है।
ग्रंथ में कुल 1269 कडवक है।
पउमचरिउ की 23वी और 46 वी में संधि के प्रारंभ में कवि ने पुनः मंगलाचरण लिखे हैं।
पउमचरिउ को स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवनस्वयंभू ने पूर्णता प्रदान की। इसकी 84 से 90 संधियाँ त्रिभुवन की रचना है।
रिट्ठणेमिचरिउ–
आकार की दृष्टि से यह ग्रंथ स्वयंभू के अन्य सभी ग्रंथों से विशाल है इसमें 18000 श्लोक तथा चार कांड और 120 संधियाँ हैं।
इसमें आयी कृष्ण तथा कौरव पांडव की कथा के कारण इसके रिट्ठणेमिचरिउ, हरिवंश पुराण, भारत पुराण आदि कई नाम मिलते हैं।
रिट्ठणेमिचरिउ को भी स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन ने पूर्ण किया।
स्वयंभू छंद–
इसमें 8 अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय के अंत में स्वयंभू छंद शब्द मिलता है।
ग्रंथ के प्रथम तीन अध्याय में प्राकृत छंदों तथा अंतिम पांच अध्यायों में अपभ्रंश के छंदों का विवेचन किया गया है।
इसके अतिरिक्त कुछ प्रमाणों के आधार पर सिरिपंचमी चरिउ तथा सुद्धयचरिय इनकी दो अन्य रचनाएं स्वीकार की जाती है।
दो अलग-अलग मतों के अनुसार स्वयंभू को एक व्याकरण ग्रंथ तथा एक अलंकार और कोश ग्रंथ का रचयिता भी कहा जाता है।
स्वयंभू के लिए प्रमुख कथन –
“हमारे इसी युग में नहीं, हिन्दी कविता के पांचो युगों (1-सिद्ध-सामन्त युग, 2-सूफी-युग, 3-भक्त-युग, 4-दरबारी-युग, 5-नव जागरण-युग) के जितने कवियों को हमने यहाँ संग्रहीत किया है, उनमें यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि स्वयंभू सबसे बड़ा कवि था। वस्तुतः वह भारत के एक दर्जन अमर कवियों में से एक था।” –डॉ.राहुल सांकृत्यायन
अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य – अपभ्रंश के प्रथम कवि स्वयम्भू का जीवन-परिचय एवं रचनाएं
डॉ रामकुमार वर्मा ने स्वयंभू को हिंदी का प्रथम कवि माना है।
स्वयम्भू ने अपनी भाषा को देसी भाषा कहां है।
स्वयम्भू ने चतुर्मुख को पद्धड़िया बंध का प्रवर्तक तथा श्रेष्ठ कवि कहा है।
पद्धरी 16 मात्रा का मात्रिक छंद है। इस छंद के नाम पर इस पद्धति पर लिखे जाने वाले काव्यों को पद्धड़िया बंध कहा गया है।
स्रोत–
महाकवि स्वयंभू- डॉ संकटा प्रसाद उपाध्याय
हिंदी काव्य धारा –डॉ राहुल सांकृत्यायन
पउमचरिउ (प्रस्तावना)- डॉ हरिवल्लभ चुन्नीलाल भयाणी
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गोरखनाथ Gorakhnath का जीवन परिचय, रचनाएं, जन्म के बारे में विभिन्न मत, गोरखनाथ के बारे में साहित्यकारों के विभिन्न मत एवं गोरखनाथ जी की उक्तियाँ आदि की जानकारी।
परिचय
सिद्ध संप्रदाय का विकसित और परिवर्तित रूप ही नाथ संप्रदाय है। ‘नाथ’ शब्द के अनेक अर्थ है, शैव मत के विकास के बाद ‘नाथ’ शब्द शिव के लिए प्रयुक्त होने लगा। नाथ संप्रदाय में इस शब्द की जो व्याख्या की गई है उसके अनुसार ‘ना’ का अर्थ है ‘अनादिरूप’ तथा ‘थ’ का अर्थ है ‘स्थापित होना’। एक अन्य मत के अनुसार नाथ शब्द की व्याख्या की गई है, जिसमें ‘नाथ’ शब्द ‘मुक्तिदान’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
ना- नाथ ब्रह्म (जो मोक्ष देता है)
थ – स्थापित करना (अज्ञान के सामर्थ्य को स्थापित करना)
नाथ – जो ज्ञान को दूर कर मुक्त दिलाता है।
नाथपंथी शिवोपासक हैं, और अपनी साधना में तंत्र मंत्र एवं योग को महत्त्व देते हैं, इसलिए इन्हें योगी भी कहा जाता है। माना जाता है कि नाथ पंथ सहजयान का विकसित रूप है। विकास परंपरा में भी नाथों का स्थान सिद्धों के बाद ही आता है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार नाथों का समय नौवीं शताब्दी का मध्य है। उनके मत से अधिकतर विद्वान सहमत भी हैं।
विद्वानों ने मत्स्येंद्रनाथ का काल नौवीं शती का अंतिम चरण तथा गोरखनाथ का समय है।
दसवीं शती स्वीकार किया है, जबकि अन्य नाथों की प्रवृत्ति सीमा 12वीं 13वीं शताब्दी मानी जाती है।
नाथों की संख्या नौ मानी जाती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार अभी लोग नवनाथ और चौरासी सिद्ध कहते सुने जाते हैं।
नौ नाथो में आदिनाथ (शिव), मत्स्येंद्रनाथ (मच्छिंद्रनाथ), गोरखनाथ, चर्पटनाथ, चौरंगीनाथ आदि प्रमुख है।
नाथ एक विशेष वेशभूषा धारण करते थे जिसमें मेखला, शृंगी, गूदड़ी, खप्पर, कर्णमुद्रा, झोला आदि होते थे।
यह कान चीरकर कुंडल पहनते थे, इसलिए कनफटा योगी कहलाते थे।
नाथ पंथ के प्रवर्तक आदिनाथ या स्वयं शिव माने जाते हैं।
उनके शिष्य मत्स्येंद्रनाथ और इनके शिष्य गोरखनाथ थे।
यह पहले बौद्ध थे, बाद में नाथपंथी हो गए और योग मार्ग चलाया।जिसे हठयोग के नाम से जाना जाता है।
हठयोगियों के सिद्ध सिद्धांत पद्धति ग्रंथ के अनुसार-
ह- सूर्य
ठ – चंद्रमा
हठयोग – सूर्य और चंद्रमा का संयोग।
हठयोग की साधना शरीर पर आधारित है। कुंडलिनी को जगाने के लिए आसन, मुद्रा, प्राणायाम और समाधि का सहारा लिया जाता है।
गोरखनाथ का जीवन परिचय (गोरखनाथ जीवन परिचय एवं रचनाएं)
व्यक्तित्व एवं कृतित्व
जन्म एवं जन्म स्थान
गोरक्षनाथ की उत्पत्ति के दो रुप में मिलते हैं। व्यक्तित्व के रुप में गोरक्षनाथ शिवावतार है।
महाकाल योग शास्त्र में शिव ने स्वयं स्वीकार किया है कि मै ‘योगमार्ग का प्रचारक गोरक्ष हूँ।
हठयोग प्रदीपिका में उल्लेख है कि स्वयं आदिनाथ शिव ने योग-मार्ग के प्रचार हेतु गोरक्ष का रुप लिया था।
‘गोरक्ष सिद्धान्त संग्रह मे गोरखनाथ को ईश्वर की संतान के रूप में संबोधित किया गया है।
बंगीय काव्य ‘गोरक्ष-विजय’ के अनुसार गोरखनाथ आदिनाथ शिव की जटाओं से प्रकट हुए थे।
नेपाल दरबार ग्रंथालय से प्राप्त गोरक्ष सहस्रनाम के अनुसार गोरखनाथ दक्षिण मे बड़ब नामक देश में महामन्त्र के प्रसाद से उत्पन्न हुए थे।
तहकीकाक चिश्ती नामक पुस्तक से प्राप्त वर्णन के अनुसार शिव के एक भक्त ने सन्तानोत्पत्ति की इच्छा से शिव-धूनी से भस्म प्राप्त कर अपनी पत्नी को ग्रहण करने के लिए दिया पर लोक-लज्जा के भय से उस स्त्री ने उस भस्म को फेंक दिया। चामत्कारिक रूप से उसी स्थान पर एक हष्ट-पुष्ट बालक उत्पन्न हुआ। शिव ने उसका नाम गोरक्ष रखा। वर्तमान समय में भी गोरक्षनाथ को नाथ योगी लोग शिव-गोरक्ष के रुप में ही मान्यता देते है।
‘योग सम्प्रदाय विष्कृति’ के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ ने एक सच्चरित्र धर्मनिष्ट निस्संतान ब्राह्मण दंपत्ति को पुत्र प्राप्ति की इच्छा से भस्म प्रदान की, इसी भस्म से गोरखनाथ उत्पन्न हुए। गोरखनाथ के जन्म स्थान के सम्बन्ध में पर्याप्त मतभेद है।
महार्थमंजरी के त्रिवेन्द्रम संस्करण से ज्ञात होता है कि वे चोल देश के निवासी थे उनके पिता का नाम माधव और गुरु का नाम महाप्रकाश था।
अवध की परम्परा में गोरक्षनाथ जायस नगर के एक पवित्र ब्राह्मण कुल में उत्पन्न माने जाते हैं।
विभिन्न मतानुसार
ब्रिग्स ने गोरक्ष को पंजाब का मूल निवासी बताया है।
ग्रियर्सन ने उनका पश्चिमी हिमालय का निवासी होना स्वीकार किया है
डॉ० मोहन सिंह पेशावर के निकट रावलपिंडी जिले के एक ग्राम ‘गोरखपुर’ को उनकी मातृभूमि बताते है।
डा० रांगेय राघव का मत है कि गोरखनाथ का जन्मस्थान पेशावर का उत्तर-पश्चिमी पंजाब है।
पं० परशुराम चतुर्वेदी का अनुमान है कि गोरख का जन्म पश्चिमी भारत अथवा पंजाब प्रांत के किसी स्थान में हुआ था और उनका कार्य-क्षेत्र नेपाल, उत्तरी भारत आसाम, महाराष्ट्र एवं सिन्ध तक फैला हुआ था।
नेपाल पुस्तकालय से उपलब्ध ग्रन्थ योग सम्प्रदाय विष्कृति के अनुसार गोरक्ष की जन्मभूमि गोदावरी नदी के तट पर स्थित ‘चन्द्रगिरि’ नामक स्थान है।
डॉ० अशोक प्रभाकर का मत है कि महाराष्ट्र मे त्रियादेश की स्थापना बताकर तथा नाथ पंथ की कुछ गुफाओं व प्रतीकों को आधार बनाकर गोरखनाथ की जन्मभूमि महाराष्ट्र में स्थित ‘चन्द्रगिरि’ को बताते है।
अक्षय कुमार बनर्जी का मत है कि मत्स्येन्द्र गोरक्ष आदि ने सर्वप्रथम हिमालय प्रदेश-नेपाल, तिब्बत आदि देशों में अपनी योग साधना आरम्भ की और सम्भवतः इन्हीं स्थानो में वे प्रथम देव सदृश पूजे गये उनका स्थान देवाधिदेव पशुपतिनाथ शिव को छोड़कर अन्य सभी देवताओं से ऊँचा था।
तिब्बत व नेपाल के क्षेत्र से ही योग साधना का आन्दोलन पूर्व में कामरूप (आसाम) बंगाल, मनीपुर तथा निकटवर्ती क्षेत्रों में फैला। पश्चिम में कश्मीर, पंजाब पश्चिमोत्तर प्रदेश, यहाँ तक कि काबुल और फारस तक पहुँचा उत्तर प्रदेश हिमालय के समीप होने के कारण अधिक प्रभावित हुआ। दक्षिण पश्चिम और दक्षिण पूर्व में भी गोरखनाथ तथा अन्यान्न नाथ योगियों की शिक्षाएं तथा उनके चमत्कार की कथाएँ पुष्प की सुगंध की तरह चहूँ ओर बिखर गयीं।
गोरखनाथ के जन्म के समय के बारे में निश्चित नहीं कहा जा सकता है-
गोरखनाथ का समय डॉ राहुल सांकृत्यायन ने 845 ईस्वी माना है।
डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी उन्हें नवी शताब्दी का मानते हैं।
डॉ पीतांबरदत्त बड़थ्वाल ने 11वीं शताब्दी का स्वीकार करते हैं।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल तथा डॉ रामकुमार वर्मा इन्हें 13वीं शताब्दी का मानते हैं।
आधुनिक खोजों के अनुसार गोरखनाथ ने ईसा की तेरहवीं सदी के आरंभ में अपना साहित्य लिखा था।
गोरखनाथ की रचनाएं (गोरखनाथ जीवन परिचय एवं रचनाएं)
इनके ग्रंथों की संख्या 40 मानी जाती है, परंतु डॉ पीतांबर दत्त बड़थ्वाल ने इनकी 14 रचनाओं को प्रमाणिक मानकर गोरखवाणी नाम से उनका संपादन किया है। डॉ बड़थ्वाल द्वारा संपादित पुस्तकों की सूची इस प्रकार है– (1) शब्द, (2) पद, (3) शिष्या दर्शन. (4) प्राणसंकली. (5) नरवैबोध, (6) आत्मबोध, (7) अभयमुद्रा योग, (8) पंद्रह तिथि, (9) सप्तवार, (10) मछिन्द्र गोरखबोध, (11) रोमावली, (12) ज्ञान तिलक, (13) ज्ञान चौतीसा, (14) पंचमात्रा।
मिश्र बंधु
डॉ बड़थ्वाल के अतिरिक्त मिश्र बंधुओं ने गोरखनाथ के 9 संस्कृत ग्रंथों का परिचय दिया है– (1) गोरक्षशतक, (2) चतुरशीत्यासन, (3) ज्ञानामृत, (4) योगचिन्तामणि, (5) योग महिला, (6) योग मार्तण्ड, (7) योग सिद्धांत पद्धति, (8) विवेक मार्तण्ड (9) सिद्ध-सिद्धान्त पद्धति
ने गोरखनाथ 28 ग्रंथों की का उल्लेख किया है, द्विवेदी जी ने लिखा है कि उन पुस्तकों में अधिकांश के रचयिता गोरखनाथ नहीं थे–1.अमनस्कयोग 2. अमरौधशासनम् 3. अवधूत गीता 4. गोरक्ष कल्प 5. गोरक्षकौमुदी 6. गोरक्ष गीता 7. गोरक्ष चिकित्सा 8. गोरक्षपंचय 9. गोरक्षपद्धति 10. गोरक्षशतक 11. गोरक्ष शास्त्र 12.गोरक्ष संहिता 13. चतुरशीत्यासन 14. ज्ञान प्रकाश 15. ज्ञान शतक 16. ज्ञानामृत योग 17. नाड़ीज्ञान प्रदीपिका 18. महार्थ मंजरी 19. योगचिन्तामणि 20. योग मार्तण्ड 21.योगबीज 22. योगशास्त्र 23. योगसिद्धांत पद्धति 24. विवेक मार्तण्ड 25. श्रीनाथ-सूत्र 26. सिद्ध-सिद्धान्तपद्धति 27. हठयोग 28. हठ संहिता।
डॉ० नागेन्द्रनाथ उपाध्याय
ने गोरखनाथ के 15 ग्रंथो की सूची प्रस्तुत की है लेकिन इनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है- 1. अमरौधशासनम् 2. अवधूत गीता 3. गोरक्ष गीता 4.गोरक्षशतक 5. विवेक मार्तण्ड 6. महार्थमंजरी 7. सिद्ध-सिद्धान्त पद्धति 8. चतुरशीत्यासन् 9. ज्ञानामृत 10. योग महिमा 11. योग-सिद्धान्त पद्धति 12. गोरक्ष कथा 13. गोरक्ष सहस्रनाम 14. गोरक्षपिष्टिका 15. योगबीज
“शंकराचार्य के बाद इतना प्रभावशाली और इतना महिमान्वित भारतवर्ष में दूसरा नहीं हुआ। भारतवर्ष के कोने-कोने में उनके अनुयायो आज भी पाये जाते हैं। भक्ति आन्दोलन के पूर्व सबसे शक्तिशाली धार्मिक आन्दोलन गोरखनाथ का भक्ति मार्ग हो था। गोरखनाथ अपने युग के सबसे बड़े नेता थे” – आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
“गोरख जगायो जोग भक्ति भगाए लोग” – तुलसीदास
अन्य महत्वपूर्ण तथ्य
1 नाथ साहित्य के प्रारंभ करता गोरखनाथ थे।
2 गोरखनाथ के गुरु का नाम मत्स्येंद्रनाथ था।
3 हिंदी साहित्य में षट्चक्र वाला योग मार्ग गोरखनाथ ने चलाया।
4 मिश्रबंधुओं ने गोरखनाथ को हिंदी का प्रथम गद्य लेखक माना है।
स्रोत –
इग्नू स्नातकोत्तर (हिंदी) पाठ्य सामग्री
हिंदी साहित्य का इतिहास – डॉ नगेंद्र
नाथ संप्रदाय – डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी
गोरक्षनाथ और उनका युग – डॉ रांगेय राघव
अमनस्क योग – श्री योगीनाथ स्वामी
नाथ संप्रदाय का इतिहास दर्शन एवं साधना प्रणाली – डॉ कल्याणी मलिक
गोरक्षनाथ एंड कनफटा योगीज – ब्रिग्स
योगवाणी फरवरी 1977
नाथ और संत साहित्य तुलनात्मक अध्ययन – डॉ नागेंद्रनाथ उपाध्याय
गोरखनाथ का जीवन परिचय, रचनाएं, जन्म के बारे में विभिन्न मत, गोरखनाथ के बारे में साहित्यकारों के विभिन्न मत एवं गोरखनाथ जी की उक्तियाँ आदि की जानकारी।
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सिद्ध सरहपा Siddh Sarhapa : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सिद्ध सरहपा Siddh Sarhapa प्रथम हिन्दी कवि के व्यक्तित्व एवं कृतित्व, जीवन परिचय, रचनाएं, भाषा शैली, 84 सिद्धों के नाम एवं प्रमुख कथन
हिंदी साहित्य का आरंभिक कवि सरहपा को माना जाता है।
यह 84 सिद्धों में प्रथम माने जाते हैं।
सरहपा के बारे में चर्चा करने से पहले सिद्ध संप्रदाय की संक्षिप्त जानकारी आवश्यक है।
सामान्य रूप से जब कोई साधक साधना में प्रवीण हो जाता है और विलक्षण सिद्धियां प्राप्त कर लेता है तथा उन सिद्धियों से चमत्कार दिखाता है, उसे सिद्ध कहते हैं।
लगभग आठवीं शताब्दी में बौद्ध धर्म से सिद्ध संप्रदाय का विकास हुआ था।
बहुत संप्रदाय विघटित होकर दो शाखाओं- हीनयान तथा महायान में बँट गया।
कालांतर में महायान पुनः दो उपशाखाओं में विभाजित हुआ-
(क) वज्रयान
(ख) सहजयान
इन्हीं शाखाओं के अनुयाई साधकों को सिद्ध कहा गया है।
वज्रयानियों का केंद्र श्री पर्वत रहा है।
सिद्धों के समय को लेकर विद्वानों में मतभेद है।
महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने सिद्धों का समय सातवीं शताब्दी स्वीकार किया है।
डॉ रामकुमार वर्मा ने इनका समय संवत् 797 से 1257 तक माना है।
जबकि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इनका समय दसवीं शताब्दी स्वीकार किया है।
सिद्धों की संख्या
संख्या 84 मानी जाती है।
तंत्र साधना में 84 का गूढ़ तांत्रिक अर्थ तथा विशेष महत्व होता है।
योग तथा तंत्र में आसन भी 84 माने गए हैं।
84 सिद्धों का संबंध 84 लाख योनियों से भी माना जाता है।
काम शास्त्र में 84 आसन भी स्वीकार किए गए हैं।
हिंदी साहित्य कोश के अनुसार 12 राशियों तथा 7 नक्षत्रों का गुणनफल भी 84 होता है।
उस समय प्रत्येक संप्रदाय 84 की संख्या को महत्व देता था।
सिद्धों का 84 ही होने का कोई पुष्ट प्रमाण नहीं मिलता है।
डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा उपलब्ध करवाई गई 84 सिद्धों की सूची इस प्रकार है-
डॉ रामकुमार वर्मा सरहपा को हिंदी का प्रथम कवि स्वीकार करते हुए, उनकी कविता में हिंदी कविता के आदि रूप का अस्तित्व स्वीकार किया है। उनके मत से अन्य प्रमुख साहित्यकार भी सहमत नजर आते हैं।
प्रथम हिन्दी कवि-सिद्ध सरहपा व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सरहपा सिद्धों में प्रथम सिद्ध माने जाते हैं। इन्होंने ही सिद्ध संप्रदाय का प्रवर्तन किया।
कतिपय विद्वान मानते हैं कि सरहपा ने ही महामुद्रा साधना का प्रथम अभ्यास किया तथा इसमें सिद्धि प्राप्त की।
सरहपा के जन्म तथा मृत्यु के विषय में पर्याप्त जानकारी का अभाव है लेकिन कुछ साक्ष्यों के आधार पर उनके समय का अनुमान लगाया जाता है।
डॉ राहुल सांकृत्यायन के मतानुसार सरहपा आठवीं शताब्दी (769) के लगभग वर्तमान थे।
डॉ ग्रियर्सन, शिव सिंह सेंगर, मिश्र बंधु,चंद्रधर शर्मा गुलेरी, हजारी प्रसाद द्विवेदी तथा डॉ रामकुमार वर्मा राहुल जी से दूर तक सहमत हैं।
सरहपा के कई नाम सरोरुह, वज्र, सरोवज्र, पद्म, पद्मवज्र तथा राहुलभद्र आदि मिलते हैं।
सिद्धि प्राप्त करने से पूर्व इनका नाम राहुल भद्रथा, बाद में सरहपा हुआ।
तिब्बत में प्रचलित के किंवदंती के अनुसार सरहपा का जन्म उड़ीसा में हुआ था।
डॉ राहुल सांकृत्यायन ‘दोहाकोश’ की भूमिका में सरहपा का जन्म स्थान राज्ञी नामक गांव को माना है, परंतु वर्तमान में इस नाम का कोई गांव नहीं है।
विद्वानों का मत है कि यह गांव शायद बिहार के भागलपुर के आस-पास रहा होगा।
इन्हे वेद वेदांगों में बचपन से ही विशेष रुचि थी।
मध्यप्रदेश में इन्होंने त्रिपिटकों का अध्ययन किया और बौद्ध धर्म में दीक्षित होकर नालंदा आ गए, वहां से महाराष्ट्र पहुंचे और महामुद्रा योग में सिद्धि प्राप्त कर सिद्ध कहलाए।
सरहपा और उनके समकालीन साहित्य पर अनेक विद्वानों ने शोध कार्य किया है जिनमें मिशेल, हरमन याकोबी, चन्द्रमोहन घोष, महामहोपाध्याय पण्डित विधुशेखर शास्त्री, महामहोपाध्याय पं. हरप्रसाद शास्त्री, डॉ. प्रबोधचन्द्र बागची, मुनि जिनविजय, डॉ शहीदुल्ला, महापण्डित राहुल सांकृत्यायन आदि मुख्य हैं।
इनके प्रयासों से ही आज इस काल का साहित्य थोड़ा बहुत हमें उपलब्ध है।
सिद्ध सरहपा Siddh Sarhapa की रचनाएं
सरहपा ने लगभग 32 ग्रंथों की रचना कीजिनमें से दोहाकोश इनकी श्रेष्ठ रचना मानी जाती है।
दोहाकोश की भूमिका में राहुल सांकृत्यायन ने 7 कृतियों की एक सूची दी है, जिन्हें सरहपा की रचनाएं कहा जा सकता है।
इसके अतिरिक्त दोहाकोश की भूमिका में ही राहुल जी ने सरहपा की संभावित 16 अन्य कविताओं की सूची भी दी है।
सिद्ध सरहपा Siddh Sarhapa के लिए प्रमुख कथन
“आज की भाषा में अबनार्मल प्रतिभा के धनी थे मूड आने पर वह कुछ गुनगुनाने लगते। शायद उन्होंने स्वयं इन पदों को लेखबद्ध नहीं किया। यह काम उनके साथ रहने वाले सरह के भक्तों ने किया। यही कारण है, जो ‘दोहा-कोश के छन्दों के क्रम और संख्या में इतना अन्तर मिलता है। सरह जैसे पुरुष से यह आशा नहीं रखनी चाहिए कि वह अपनी धर्म की दूकान चलाएगा, पर, आगे वह चली और खूब चली, इसे कहने की आवश्यकता नहीं।” –महापंडित राहुल सांकृत्यायन
“जब उन्हें वहाँ का जीवन दमघोंटू लगने लगा, तो उन्होंने सब कुछ को लात मारी, भिक्षुओं का बाना छोड़ा, अपनी नहीं, किसी दूसरी छोटी जाति की तरुणी को लेकर खुल्लमखुल्ला सहजयान का रास्ता पकड़ा।” –महापंडित राहुल सांकृत्यायन
“सिद्ध-सामंत युग की कविताओं की सृष्टि आकाश में नहीं हुई है वे हमारे देश की ठोस धरती की उपज हैं। इन कवियों ने जो खास-खास शैली भाव को लेकर कविताएँ की, वे देश की तत्कालीन परिस्थितियों के कारण ही।” –महापंडित राहुल सांकृत्यायन
“आक्रोश की भाषा का पहला प्रयोग सरहपा में ही दिखाई देता है।“ –डॉ. बच्चन सिंह
मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem
मुस्लिम कवियों में कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem में आसक्त रसखान, रहीम, ताज बीवी, बेगम शीरी, शेख आलम, मौलाना आजाद अजीमाबादी, हजरत नफीस, मिया वाहिद अली, अहमद खां राणा, रशीद, मिया नजीर एवं जफर अली आदि हैं। आज हम जानेंगे मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम के बारे में।
कृष्ण के उदार, चंचल, माखनचोर, छलिया रूप का वर्णन अनगिनत कवियों ने किया है मध्यकालीन सगुण भक्ति के आराध्य देवताओं में भगवान श्री कृष्ण का स्थान सर्वोपरि है।
कन्हैया भारतीय पुराण और इतिहास दोनों में सर्वाधिक वर्णित भी हुए है जो विद्वान महाभारत को इतिहास की घटना मानते है, वे भारतीय इतिहास का सर्वाधिक प्रभावशाली व्यक्ति कृष्ण को ही ठहराते है।(1)
कान्हा के इसी रसिया, छलिया, प्रेमी तथा प्रभावशाली व्यक्तित्व ने ना केवल हिन्दु जाति को अपने मोहपाश में बंद किया वरन् मुस्लिम कवियों ने भी उनकी ‘लाम’ पर मुग्ध हो कर इस्लाम खोया है।
माखनचोर पर अपना सब कुछ वारने वाले ऐसे एक नहीं अनेक कवि हुए है।
कृष्ण के रूप सौन्दर्य का जादू केवल राधा रानी या गोपियों के सिर चढ़ कर बोला हो ऐसा नहीं है।
रूप सौन्दर्य और प्रेम पाश तो वो मय है जिसने मुस्लिम देवियों को भी प्रेम रस से सराबोर करके मदमस्त कर दिया है।
कृष्ण की ‘लाम’(2) पर अनेक कवियों ने अपने हृदय हारे है, तो अनेक कवियों ने अपना तन-मन दोनों न्यौछावर किया है।
‘लाम’ ने उनके अनुपम सौन्दर्य में चार चाँद लगाये है तो उनकी इस ‘लाम’ ने मुसलमान कवियों का इस्लाम ही छीन लिया है भूपाल की बेगम शीरी जिन्हें कृष्ण की इस ‘लाम’ ने काफिर बना दिया।
मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem : काफिर बनने की कहानी सुनते है उन्हीं की जुबानी
‘‘काफिर किया मुझको तिरी इस जुल्फ ने काफिर इस ‘लाम’ ने खोया तिरे, इस्लाम हमारा’’(3)
कृष्ण का रूप माधुर्य शीरी को ऐसा रास आया की वो उसके लिए काफिर हो गई।
ऐसी ही कृष्ण के प्रेम में पगी एक कवयित्री है ताज बेगम।
ताज बेगम के बारे में परस्पर अलग-अलग मत प्राप्त होते है आपके 1595(4) में वर्तमान होने का अनुमान है।
इनकी कविताओं में पंजाबी पुट तथा पंजाबी शब्दों की बाहुल्यता को देखते हुए मिश्रबन्धु उन्हें पंजाब अथवा आसपास की स्वीकृत करते हैं।
मिश्र बंधु विनोद में ताज के कई पद भी संकलित है।
एक जनश्रुति के अनुसार ताज दिल्ली की रहने वाली मुगल शहजादी थी।(5)
स्वामी पारसनाथ सरस्वती के आलेख के अनुसार ताज का पूरा नाम ‘ताज बीवी’ था और वे बादशाह शाहजहां की अत्यंत प्रिय बेगम थी लेकिन जितना प्रेम शाहजहाँ ताज से करते थे।
उससे कहीं ज्यादा प्रेम ताज से करती थी उन्होंने लिखा है-
सुनो दिजानी मांडे दिल की कहानी तुम दस्त ही बिकानी बदनामी भी सहूँगी मैं
देव पूजा ठानी हौ निवाज हूँ भूलानी, तजे कलमा कुरान सारे गुननि गहूँगी मै।
नंद के फरजंद! कुरबान ‘ताज’ सूरत पै हौ तो तुरकानी हिन्दुआनी है रहूँगी मै(6)
स्वामी पारसनाथ सरस्वती के ‘कल्याण’ में प्रकाशित आलेख में उक्त पद पंजाबी बाहुल्य शब्दावली युक्त प्राप्त होता है।
ताज
श्री बलदेव प्रसाद अग्रवाल के अनुसार ‘ताज’ करौली निवासी थी।
श्री अग्रवाल के अनुसार ताज नहा धोकर मंदिर में भगवान के नित्य दर्शन के पश्चात ही भोजन ग्रहण करती थी।
एक दिन वैष्णवों ने उन्हें मुसलमान होने के कारण विधर्मी मान, मंदिर में दर्शन करने से रोक दिया इससे ताज उस दिन निराहार रह मंदिर के आंगन में ही बैठी रही और कृष्ण के नाम का जाप करती रही।
जब रात हो गई तब ठाकुर जी स्वयं मनुष्य के रूप में, भोजन का थाल लेकर पधारे और कहने लगे तुझे आज थोड़ा सा भी प्रसाद नहीं मिला, ले अब खा।
कल प्रातः काल जब वैष्णव आवें तो उनसे कहना कि तुम लोगों ने मुझे कल ठाकुर जी के दर्शन और प्रसाद का सौभाग्य नहीं दिया।
इससे रात को ठाकुर जी स्वयं मुझे प्रसाद दे गये है और तुम लोगों के लिए संदेश भी दे गये हैं कि ताज को परम वैष्णव समझो।
इसके दर्शन और प्रसाद ग्रहण करने में रुकावट मत डालो।
प्रातःकाल जब वैष्णव आये तब ताज ने सारी घटना कह सुनाई ताज के सामने भोजन का थाल देखकर अत्यन्त चकित हुए वे सभी वैष्णव ताज के पैरों पर गिरकर क्षमा प्रार्थना करने लगे।
तब से ताज मंदिर में पहले दर्शन करती तथा सारे वैष्णव उसके बाद में दर्शन करते।(7)
‘दस्त की बिकानी, बदनामी भी सहूंगी मैं’
‘दस्त की बिकानी, बदनामी भी सहूंगी मैं’ कि घोषणा करने वाली ताज की तुलना मीरा से सहज ही की जा सकती है।
मीरा ने भी ‘लोक-लाज खोई’ कह कर तात्कालिक समाज की मानसिकता को उजागर किया है।
मीरां और ताज दोनों की कन्हैया की प्रेम दीवानी है।
एक ने लोक लाज खोई है तो दुसरी बदनामी सहने को तैयार है परन्तु मीरा को जहां अपनो से प्रताड़ित होना पड़ा है वहीं ताज को पीड़ा देने वाला सारा समाज है।
इसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों शामिल है।
मीरा की पीड़ा शायद इस कारण अधिक है क्योंकि उनको पीड़ा पहुँचाने का काम करने वाले उनके परिवार के ही लोग है।
इसलिए ये कष्ट उनके लिए भारी मानसिक आघात लिये हुए है।
मीरां को केवल परिजनों से ही संघर्ष करना पड़ा परन्तु ताज का संघर्ष मीरां से व्यापक है।
क्योंकि उसे तो घर और बाहर दोनों से संघर्ष करना पड़ा है।
तात्कालिक समाज में जब हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य अपनी चरम सीमा पर था उस समय इस तरह से किसी अन्य धर्म की उपासना करना वास्तव में अंगारों पर चलना था।
परिवार में परिजनों का विरोध और ताने सहना बाहर समाज के कटाक्ष और उपेक्षा का शिकार होना एक स्त्री के लिए कितना भयावह हो सकता है।
उसे तो केवल उसे भोगने वाली वो औरत ही बता सकती है।
कन्हैया के छैल छबीले रूप
ताज के पदों को पढ़ कहीं भी ऐसा आभाष नहीं होता कि उस सामाजिक, धार्मिक, मानसिक प्रताड़ता का रजकणांश भी विपरीत प्रभाव हुआ है।
हाँ ये जरुर कहा जा सकता है कि इस प्रताड़ना से उनका कान्हा के प्रति अनुराग और बढ़ता गया तथा काव्य में निखार आता गया है।
कन्हैया के छैल छबीले रूप पर अपना सब कुछ कुरबान करने वाली ताज उन्हें ही अपना साहब मानती है- छैल जो छबीला सब रंग में रंगीला बड़ा चित का अड़ीला सब देवताओं में न्यारा है। माल गले सोहै, नाक मोती सेत सो है, कान कुण्डल मनमोहे, मुकुट सीस धारा है।। दुष्ट जन मारे, संत जन रखवारे ‘ताज’ चित हितवारे प्रेम प्रीतिकार वारा है। नंन्दजू को प्यारा, जिन कंस को पछारा वृन्दावन वारा कृष्ण साहेब हमारा है।।
ताज के हृदय मे अपने बांके छैल छबीले कृष्ण कन्हैया के लिए कितनी आस्था है।
ये उनके पदो से सहज ही सामने आत है।
अपने प्राण प्यारे नंद दुलारे कृष्ण कन्हैया के प्रेम में बुत परस्ती भी करने को तैयार है।
चित का अड़ीला उनका गोपाल सब देवताओं में न्यारा है जिसके लिए ये मुगलानी हिन्दुआनी हो गई थी।
‘बदनामी भी सहूंगी मैं’ कि घोषणा करने वाली ताज ने वास्तव में कितने कष्ट सहे होंगे इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता है।
मुस्लिम कवियों के राधा-कृष्ण, सीता राम आदि के प्रति प्रेम से उन्हें किन कष्टों को सहन करना पड़ा होता।
इस बात का अनुमान आधुनिक रसखान (जिनका वास्तविक नाम ‘रशीद’ लुप्त हो गया जिनके नाम पर रायबरेली में मार्ग है) के कवि एवं लेखक पुत्र इफ्तिखार अहमद खां ‘राना’ से लेखक आलोचक डाॅ. रामप्रसाद मिश्र की बातचीत से लगाया जा सकता है।
‘राजा’ के अनुसार- उन्हें राम तुलसी प्रेमी होने के कारण कठिनाई होती है। फिर भी रहीम, रसखान, ताज बेगम, नजीर अकबराबादी इत्यादी की परम्परा जीवंत है।(8)
राधा के वल्लभ
जगत के खेवनहार श्रीहरि ने पापी से पापी पर भी अपनी कृपा की है और उन्हें इस संसार सागर से उबारा राधा के वल्लभ ताज के भी वल्लभ प्राण प्यारे प्रियतम हो गये है जो उनको इस संसार की मझधार से पार लगाने वाले है-
ध्रुव से, प्रहलाद, गज, ग्राह से अहिल्या देखि, सौरी और गीध थौ विभीषन जिन तारे हैं।
पापी अजामील, सूर तुलसी रैदास कहूँ, नानक, मलूक, ‘ताज’ हरिही के प्यारे हैं।
जगत की जीवन जहान बीच नाम सुन्यौ, राधा के वल्लभ, कृष्ण, वल्लभ हमारे हैं।(9)
शेख की कविताओं में भावों की उत्कृष्टता
ताज कृष्ण प्रेम में काफिर होने वाली पहली या आखिरी मुस्लिम औरत नहीं इनके अलावा शेख नामक रंगरेजिन भी है जो कृष्ण की भक्त थी।
ये आलम की पत्नी थी और कपड़े रंगने का काम किया करती थी।
आलम पहले ब्रह्मण थे परन्तु बाद में शेख से प्रेम होने के कारण मुस्लिम हो गये।
हुआ यूं की एक बार आलम ने अपनी पगड़ी शेख को रंगने के लिए दी तो उस पगड़ी के एक छोर मंे एक कागज का टुकड़ा बंधा हुआ था।
जिसमें दोहे का एक चरण लिखा हुआ था शेख ने उसी कागज पर दोहे को पूरा कर दिया और कागज वैसी ही वापिस बांध दिया और रंगी हुई पगड़ी आलम को दे दी।
अपने दोहे की पूर्ति देखकर आलम रंगरेजिन शेख की कला पर मोहित हो गया और दोनों में प्रेम हो गया फलस्वरूप आलम ने इस्लाम कबूल कर लिया शेख और आलम दोनों मिलकर कविताएं करते थे।
शेख की कविताओं में भावों की उत्कृष्टता विद्यमान है।
राधारानी जो सौन्दर्य वर्णन शेख ने किया है, उस उत्कृष्टता तक पहुंचने में बड़े बड़े कवि पीछे छूट गये है।
शेख उस अलौकिक अनुपम और शब्दातीत सौन्दर्य का जो शब्द चित्र रचा है वह कदाचित किसी साधारण कवि के वश कि बात नहीं है-
सनिचित चाहे जाकी किंकिनी की झंकार करत कलासी सोई गति जु विदेह की
शेख भनि आजू है सुफेरि नही काल्ह जैसी निकसी है राधे की निकाई निधि नेह की
फूल की सी आभा सब सोभा ले सकेलि धरी फलि ऐहै लाल भूलि जैसे सुधि गेह की
कोटि कवि पचै तऊ बारनिन पावै कवि बेसरि उतारे छवि बेसरि बेह की(10)
श्रीहरि से सहायता की गुहार
ताज कि तरह ही शेख को भी अपने बंशी बजैया, रास रचैया पार लगैया-कृष्ण कन्हैया पर अटूट विश्वास है कवयित्री श्रीहरि से सहायता की गुहार करती है-
‘सीता सत रखवारे तारा हूँ के गुनतारे तेरे हित गौतम के तिरियाऊ तरी है
हौ हूं दीनानाथ हौ अनाथ पति साथ बिनु सुनत अनाधिनि के नाथ सुधि करी है
डोले सुर आसन दुसासन की ओर देखि। अंचल के ऐंचत उधारी और धरी है।
एक तै अनेक अंग धाई संत सारी संग तरल तरंग भरी गंग सी है ढरी है।’(11)
सनातन धर्म के प्रति समर्पण : मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem
इस्लाम में अवतारवाद में विश्वास नहीं किया जाता है।
लेकिन उक्त पद में शेख ने कृष्ण को अनेक रूप स्वीकार किये है।
यहां ईश्वर के अनेक रूपों को स्वीकार करने यह सिद्ध हो जाता है कि शेख भले ही मुस्लिम हो लेकिन पूरी तरह से अपने आप को भारतीय मान्यताओं तथा सनातन धर्म के प्रति समर्पित कर लिया है।
चूंकि आलम और शेख रीतिकालीन कवि है इसलिए उनके काव्य पर रीतिकालीन छाप स्पष्ट देखी जा सकती है शेख के मुक्तकों में राधाकृष्ण के प्रेम और विरह के चित्र अधिक प्राप्त होते है।
इन्होंने स्थान-स्थान पर राधा के सौन्दर्य, उनके नाज-नखरे तथा वियोग की स्थिति को चित्रित किया है।
शेख का वर्णन बड़ा ही उम्दा किस्म का है।
काव्य के स्थान के अनुसार देखे तो निश्चित रूप से उन्हें उच्च स्थान दिया जा सकता है।
जो कदाचित् कुछ भक्तिकालीन कवियों को भी दुर्लभ है।
ऋतु वर्णन में भी शेख का काव्य उच्च कोटी का है-
‘‘घोर घटा उमड़ी चहूं ओर ते ऐसे में मान न की जे अजानी तू तो विलम्बति है बिन काज बड़े बूंदन आवत पानी
सेख कहै उठि मोहन पै चलि को सब रात कहोगी कहानी देखुरी ये ललिता सुलता अब तेऊ तमालन सो लपटानी’’(12)
उच्च कोटी के कवि शेख
शेख की तरह आलम भी उच्च कोटी के कवि थे कविताओं में प्रायः कृष्ण के हर रूप का वर्णन बड़ा ही हृदयहारी बन पड़ा है।
कृष्ण को साधने वाले अनेक कवियों में मौलाना आजाद आजीमाबादी का नाम बड़े आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है।
कृष्ण भक्ति से सराबोर इस कवि को कृष्ण से आगे कृष्ण से अलग कुछ सूझता ही नहीं।
इन्हें कृष्ण की बांसुरी में वो आग नजर आती है जो सारे जहां को रोशन किये हुए है।
ये प्रेम की ठण्डी आग है जिसमें कवि भी जल रहा है।
कन्हैया तो उनके हृदय में बसा हुआ है उसे खोजने के लिए काशी मथुरा जाने की दरकार नहीं है-
‘बजाने वाले के है करिश्में जो आप है महज बेखुदी में
न राग में है न रंग में है जो आग है उसकी बांसुरी में है
हुआ न गाफिल रही तलासी गया न मथुरा गया न काशी
मै क्यों कही की खाक उड़ता मेरा कन्हैया तो है मुझी में’(13)
रसखान : मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem
कृष्ण की जैसी भक्ति और काव्य रचना रसखान ने की है वह ऊँचाई विरले कवि ही प्राप्त कर सके हैं।
‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ के अनुसार रसखान दिल्ली में निवास करते थे।
उनकी प्रीति एक साहुकार के पुत्र से थी।
उनकी यह आसक्ति वैष्णव भक्तों के प्रोत्साहन से कृष्ण भक्ति में परिवर्तित हो गई।
वैष्णवों द्वारा प्रदत कृष्ण चित्र लिये ये दिल्ली से ब्रज प्रदेश पहुंचे।
कृष्ण दर्शन की लालसा में अनेक मंदिरों की खाक छानते रहे।
अंततः गोविन्द कुण्ड में श्री नाथ जी के मंदिर में भक्त वत्सल भगवान कृष्ण ने इन्हें दर्शन दिये।
तदुपरान्त स्वामी विट्ठलनाथ जी ने अपने मंदिर में रसखान को बुलाया और वहीं वे कृष्ण लीला गान करते हुऐ कृष्ण भक्ति में निष्णात हुए।
इनके जन्म और मृत्यु के बारे में पर्याप्त मतभेद विद्यमान है।
रसखान उस ‘अनिवार’ प्रेम पंथ के यात्री है जो कमल तन्तु से भी कोमल और तलवार की धार से भी तेज जितना ही सीधा उतना ही टेढ़ा है।
‘‘कमल तन्तु सौ क्षीणहर कठिन खड़ग को धार अति सूधो टेढो बहुर प्रेम पंथ अनिवार’’(15)
रसखान प्रेम का सुन्दर विस्तृत चित्रण करते हुए कहते है कि प्रेम वह नहीं है।
जिसमें दो मन मिलते है प्रेम वह है जिसमें दो शरीर एक हो जाए अर्थात् अपना शरीर अपना न होकर कृष्ण का हो जाये और कृष्ण का शरीर अपना हो जाये।
यही प्रेम की परिभाषा रसखान ने दी है-
‘‘दो मन इक होते सुन्यो पै वह प्रेम न आहि होई जबै इै तन इक सोई प्रेम कहाइ।’’(16)
रसखान का अद्वैत प्रेम
इस प्रकार रसखान ने प्रेम अद्वैत को स्वीकारा है।
जिसमें दो का कोई स्थान नहीं है। आपका कृष्ण प्रेम जगत विख्यात है कृष्ण के प्रेम में रसखान वो सब कुछ बनना चाहते है जिसका संबंध किसी ना किसी रूप में कृष्ण से रहा है।
रसखान का प्रेम निश्छल है निर्विकार है।
जिसमें केवल विशुद्ध अपनापा है लाग लपेट के लिए कोई स्थान नहीं है।
‘‘मानुष हौ तो वही रसखानि, बसौ ब्रज गोकुल गांव के ग्वारन।’’लिखकर रसखान ने अपनी इच्छाओं को जग जाहिर किया है।
जीवन के प्रत्येक रूप में वे श्रीकृष्ण का सामीप्य ही चाहते है।
गोपी बनकर गायों को वन-वन चराना चाहते है।
कृष्ण की मोरपंख का मुकुट और गुंज की माला धारण करना चाहते है।
वो श्री कृष्ण का हर स्वांग कर लेना चाहते है-
‘‘मोर पंख सिर उपर राखिहौ, गुंज की माला गरे पहिरौंगी ओढि पीताम्बर ले लकुटी बन गोधन ग्वारिन संग फिरोगी
भाव तो ओहि मेरो रसखानि, सो तेरे किये स्वांग करोंगी या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरान धरौंगी।’’(17)
मौलाना आजाद अजीमाबादी
कृष्ण की जिस बांसुरी में मौलाना आजाद अजीमाबादी को आग नजर आ रही थी।
वही बांसुरी रसखान की गोपियों के लिए सब कामों में बाधा पहुंचाती है।
कही वह सौतन की तरह जी सांसत में लाती है तो गोपिका जल का मटका तक नहीं भर पाती है।
उनके मन में यही होता है कि सारे बांस कट जाये ना रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी
‘‘जल की न घट गरै मग की न पग धरें घर की न कछु करै बैठी भरै साँसुरी एकै सुनि लौट गई एकै लोट पोट भई एक निके दृगन निकसि आये आँसुरी कहै रसनायक सो ब्रज वनितानि विधि बधिक कहाये हाय हुई कुल होंसुरी करिये उपाय बांस डारिये कटाय’’(18)
रसखान का साहित्यिक पक्ष
नहि उपजैगो बाँस नाहि बाजै फेरि बाँसुरी।
रसखान का साहित्यिक पक्ष बहुत ऊँचा है तो इनकी भक्ति भी उच्च कोटि की है।
यकीनन हिन्दी साहित्य का कृष्ण भक्ति काव्य रसखान के बिना अधूरा है।
कृष्ण की बाल लीला वर्णन की तुलना सूर के बाललीला वर्णन से सहज ही की जा सकती है-
धूरी भरे अति सोहत स्याम जू तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी
खेलत खात फिरे अंगना पग पैंजनियां कटि पीरी कछौटी
बा छवि को ‘रसखानि’ विलोकति बारत काम कला निज कोटी
काग के भाग बड़े सजनी हरि हाथ सौ ले गयो माखन रोटी(19)
धूल से भरे रसखान के बालकृष्ण किसी भी तरह से सूर के बाल गोपाल से कम नहीं है।
सिर पर बनी सुन्दर चोटी बताती है कि सूर के कृष्ण चोटी बढाने के लिए बार-बार दूध पीते है।
अपनी मैया से बार-बार पूछते है- ‘मैया कबहूं बढेगी चोटी पर अजहूं है छोटी’।
यह चोटी रसखान तक आते-आते बड़ी हो चुकी है।
उनके सुन्दर रूप पर वे रसखान कामदेव की करोड़ो कलाएं न्यौछावर करने को तैयार है।
रहीम की भाषाशैली : मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem
‘रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून पानी गये ना ऊबरे मोती मानस चून’’
ऐसा अमर काव्य रचने वाले अब्र्दुरहीम खानखाना बाबर के विश्वस्त साथी और अकबर के संरक्षक बैरम खां के पुत्र थे।
रहीम बहुभाषाविद् थे।
अरबी, फारसी, तुर्की, संस्कृत आदि भाषाओं पर रहीम का अच्छा अधिकार था।
रहीम को साहित्य का जितना ज्ञान था उतने ही कुशल वे सेनानायक भी थे।
उन्होंने कई युद्धों में भाग लिया और विजय प्राप्त की।
हिन्दी साहित्य की अमर निधि माने जाने वाले रहीम के दोहे आम जन में लोकोक्ति की तरह काम में लिये जाते है।
भक्ति और नीति का अमर काव्य रचने वाले रहीम ने युद्धों से समय निकाल कर साहित्य साधना की है।
कहा जाता है कि इनके पास अपार धन था दानी प्रवृत्ति होने के कारण सारा धन समाप्त हो गया।
फलस्वरूप इनका अंतिम समय बड़े कष्ट में बीता अमीरी में साथ देने वाले मित्रों ने मुँह मोड़ लिया लेकिन रहीम को इसका कोई दुःख नहीं था।
उन्हें तो बस अपने कृष्ण कन्हैा पर भरोसा था-
‘रहीम को ऊ का करै, ज्वारी चोर लबार जा के राखनहार है माखन चाखन हार।’(20)
रहीम को जुआरी चोर से कोई भय नहीं है।
उनके रखवाले तो स्वयं माखन चोर कृष्ण है।
रहीम को चकोर रूपी मन रात दिन कृष्ण रूपी चंद्रमा को निहारता है।
उनका मन ठीक उसी तरह से कृष्ण में रम चुका है।
जैसे चकोर का मन चाँद में लगता है-
‘‘तै रहीम मन अपनो कीनो चारो चकोर निसि बासर लाग्यो रहे कृष्ण चंद की ओर’’(21)
हजरत नफीस
हजरत नफीस को तो कन्हाई की आँखे और मुखड़ा इतना पसंद है कि बस उसे ही देखना चाहते है-
‘कन्हैया की आँखें, हिरण सी नसीली कन्हैया की शोखी, कली-सी रसीली’’
मिया वाहिद अली
मिया वाहिद अली को नंदलाल की ऐसी लगन लगी है कि वे दुनिया छोडने को उतारू है।
कृष्ण की मुस्कान, मुरली की तान, उनकी चाल कंचन की भाल धनुष जैसे सुन्दर नयनों पर वाहिद अपनी लगन लगाये रखना चाहता है-
‘‘सुन्दर सुजान पर मंद मुस्कान पर बांसुरी की तान पर ठौरन ठगी रहे
मूरति बिसाल पर कंचन की माल पर खजन सी चाल पर खौरन सजी रहे
भौंहे धनु मैनपर लोने जुग नैन पर प्रेम भरे बैन पर ‘वाहिद’ पगी रहे
चंचल से तन पर साँवरे बदन पर नंद के ललन पर लगन लगी रहे।’’(22)
मिया नजीर
आगरा के प्रसिद्ध कवि मिया नजीर का कृष्ण प्रेम बड़ा ही बेनजीर है।
मुरली की धुन ने उनको बेसुध किया।
कान्हा की बाँसुरी की धुन ऐसी है नर-नारी रिसी मुनी सब यह जयहरि जय हरि कह उठे है-
‘‘कितने तो मुरली धुन से हो गये धुनी कितनों की खुधि बिसर गयी, जिस जिसने धुन सुनी क्या नर से लेकर नारिया, क्यारिसी और मुनी
तब कहने वाले कह उठे, जय जय हरि हरि ऐसी बजाई कृष्ण कन्हाइया ने बांसुरी’’(23)
मौलाना जफर अली साहब
सच्चिदानंद स्वरूप श्रीकृष्ण की महिमा, उदारता तथा रूपमाधुरी के वर्णन अगणित मुस्लमान कवियों ने भी किया है।
आधुनिक मुस्लिम कवियों ने भी अनेक ऐसे कवि हुये हैं जिनको श्रीकृष्ण के प्रति अथाह प्रेम है।
अनेक मुसलमान गायक वादक और अभिनेता बिना किसी भेदभाव के कृष्ण के पुजारी है।
पंजाब के मौलाना जफर अली साहब की आरजू भी अब सुन ले-
‘‘अगर कृष्ण की तालीम आम हो जाये तो काम फितनगारो का तमाम हो जाये
मिट जाये ब्राह्मण और शेख का झगड़ा जमाना दोनो घरों का गुलाम हो जाये
विदेशी की लड़ाई की छज्जी उड़ जाए जहाँ पर तेग दुदुम का तमाम हो जाये
वतन की खाक से जर्रा बन जाए चांद बुलंद इस कदर उसका मुकाम हो जाये
है इस तराने में बांसुरी की गूंज खुदा करे वह मकबूल आम हो जाए’’(24)
अंततः
कृष्ण भक्ति में रमने वाले ये कवि तो कुछ उदाहरण मात्र है।
इनके अलावा ऐसे सैकड़ों कवि और कवयित्रियां है जिन्होंने कृष्ण से प्रेम किया है।
हिन्दी साहित्य के खजाने में अपना हिस्सा दान किया है।
ऐसे लेखक और कवि वर्तमान संकीर्ण और धार्मिक उन्माद के वातावरण में समन्वय स्थापित करने का काम करते है।
इन कवियों ने बिना किसी लाग लपेट के कृष्ण को अपना आराध्य माना है।
उन्मुक्त भाव से कृष्ण भक्ति करके धार्मिक सहिष्णुता का परिचय दिया है।
आधुनिक हिन्दी साहित्य के जनक भारतेन्दु हरिश्चंद्र का यह कथन उचित प्रतीत होता है कि- ‘‘इन मुस्लमान हरिजजन पै कोटिक हिन्दु वारियै’’
संदर्भ ग्रंथ-
(1)हिन्दी साहित्य का इतिहास, संपादक- डाॅ. नगेन्द्र, प्रकाशक-मयूर पेपर बेक्स, नोएडा (2)‘लाम’ (ل ) उर्दू का एक अक्षर होता है। जिसकी शक्ल इस प्रकार होती है की पहले एक सीधी खड़ी लकीर खींचकर उसके नीचे के सीरे को बांये तरफ गोलाई के साथ उपर थोड़ा ले जाकर छोड़ दिया जाता है। उसकी शक्ल लगभग बालों की लटों (ل ) की जैसी हो जाती है। (3)मुस्लिम कवियों का कृष्ण काव्य, बलदेव प्रसाद अग्रवाल, प्रकाशक- बलदेव प्रसाद अग्रवाल एंड संस अजमेर (4)शिव सिंह सरोज के अनुसार 1652 वि., मिश्र बंधु विनोद के देवीप्रसाद द्वारा अनुमानित 1700 वि. (1643 ई.) का उल्लेख मिलता है। (5)सानुबंध- मासिक उन्नाव, दिस. 1987 ई. के अंक में बनवारीलाल वैश्य कृत लेख ‘ताज का कृष्णानुराग’
(6)गीताप्रेस-गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण’पत्रिका का अंक भाग संख्या 28 (www.ramkumarsingh.com से प्राप्त आलेख के अनुसार) (7)मुस्लिम कवियों का कृष्णकाव्य- बलदेव प्रसाद अग्रवाल एंड संस, अजमेर (8)हिन्दी साहित्य का वस्तुनिष्ठ इतिहास- डाॅ. रामप्रसाद मिश्र, प्रकाशक- सतसाहित्य भंडार, नई दिल्ली। (9)मुस्लिम कवियों का कृष्णकाव्य- बलदेव प्रसाद अग्रवाल, प्रकाशक- बलदेव प्रसाद अग्रवाल एण्ड संस, अजमेर। (10)वही (11)वही (12)वही (13)मुस्लिम कवियों की कृष्ण भक्ति- स्वामी पारसनाथ तिवाड़ी, कल्याण पत्रिका, गीताप्रेस गोरखपुर (14)दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता (15)रसखान रचनावली- विद्यानिवास मिश्र, प्रकाशक- वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली (16)वही (17)वही (18)वही (19)वही (20)हिन्दी साहित्य का वस्तुनिष्ठ इतिहास- डाॅ. रामप्रसाद मिश्र, सतसाहित्य भंडार, नई दिल्ली। (21)वही (22)स्वामी पारसनाथ सरस्वती- कल्याण पत्रिका, गीताप्रेस गोरखपुर (23)वही (24)वही