रासो साहित्य की रचनाएँ एवं रचनाकार

रासो साहित्य की रचनाएँ एवं रचनाकार

हिंदी रासो साहित्य या रासक काव्य परंपरा की रचनाएँ एवं रचनाकार 

रासो, रासक या रास साहित्य नाम से हिंदी में अनेक रचनाएँ मिलती है। ये सभी रासो काव्य परंपरा के अंतर्गत ही रखी गई है। तो जानते हैं रासो साहित्य की रचनाएँ एवं उनके रचनाकार के बारे में। विद्वानों ने इन्हें मोटे रूप में दो भागों में बांटा है―

प्रथम गीत नृत्यपरक धारा के रासो-ग्रंथ तथा

द्वितीय छंद वैविध्यपरक धारा के रासो-ग्रंथ। इन दोनों धाराओं का विस्तृत वर्णन इस प्रकार से है―

raso sahitya ki rachnaye - रासो साहित्य की रचनाएँ
raso sahitya ki rachnaye – रासो साहित्य की रचनाएँ

गीत नृत्यपरक धारा के रासो-ग्रंथ : रासो साहित्य की रचनाएँ एवं रचनाकार

1. उपदेशरसायन : रचयिता ― जिनदत्त सूरि।

अपभ्रंश में रचित यह रासो- काव्य-परंपरा का प्राचीनतम ग्रंथ माना जाता है।

इसका रचनाकाल 1134 ई. है।

इसमें 32 छंदों में जैन धर्म के उपदेश रचित है।

2. भरतेश्वरबाहुबलीरास : रचयिता शालिभद्र सूरि।

यह रचना 1184 ई. में रचित है।

इसमें भगवान् ऋषभदेव के दो पुत्रों भरतेश्वर और बाहुबली के मध्य राज्यसत्ता के संघर्ष की कथा का वर्णन है।

इसमें वीररस का प्राधान्य है।

‘रासो’ शब्द की व्युत्पत्ति, अर्थ, रासो साहित्य, विभिन्न प्रमुख मत, क्या है रासो साहित्य?, रासो शब्द का अर्थ एवं पूरी जानकारी।

3. बुद्धिरास : रचयिता शालिभद्र सूरि – रासो साहित्य की रचनाएँ एवं रचनाकार

इसका रचनाकाल 1184 ई. है।

यह भी धर्मोपदेशक ग्रंथ है।

पथभ्रष्ट व्यक्तियों का मार्गनिर्देशन इसका उद्देश्य है।

4. जीवदयारास : यह आसगु कवि की रचना है।

जिसकी रचना 1200 ई. में जालोर में हुई।

इस काव्य का लक्ष्य जीवदया का उपदेश देना है।

5. चंदनबालारास : आसगु द्वारा रचित।

यह रचना 1200 ई. की है।

चंदनबाला के धार्मिक चरित्र का उल्लेख इस ग्रंथ में हुआ है।

इसमें करुण रस की प्रधानता है।

6. जंबूस्वामीरास :  धर्मसूरि द्वारा रचित

यह रचना 1209 ई. की है।

इसमें जैन साधु जंबूस्वामी के चरित्र का वर्णन हुआ है।

7. रेवतगिरिरास : विजयसेन सूरि

यह ग्रंथ 1291 ई. में रचित है।

इस रासो ग्रंथ में गिरनार के जैनमंदिरों के जीर्णोद्धार की कथा है।

8. नेमिजिणंदरासो : पाल्हण

1232 ई. में रचित कृति है।

इसमें नेमिनाथ की कथा का वर्णन है।

9. गायसुकुमाररासो : कवि देल्हणि

1243 ई. में रचित।

इस रचना में  गायसुकुमार का चरित्र चित्रण हुआ है।

10. सप्तक्षेत्रिरासु― अज्ञात कवि

इस रचना का रचना काल 1270 ई. है।

इसमें जिनमंदिर, जिनप्रतिमा, ज्ञान, साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका नामक सप्तक्षेत्रों की उपासना का वर्णन है।

11. पेथडरास : रचयिता मंडलिक

इसका रचनाकाल 1303 ई. है।

प्रस्तुत ग्रंथ में संघपति पेथड के चरित्र का वर्णन है।

12. कच्छूलिरास : अज्ञात

1306 ई. की रचना।

इसमें एक जैन तीर्थ का वर्णन हुआ है।

13. समरारासु : अंबदेव सूरि

1314 ई. में रचित रचना है।

रचना में संघपति समरा का चरित्र चित्रण हुआ है।

14. बीसलदेवरासो : नरपति नाल्ह

4 खंडों में विभक्त यह रचना 1155 ई. की है।

इसमें अजमेर के चौहान राजा बीसलदेव तृतीय के पत्नी से रूठकर उड़ीसा जाने का वर्णन हुआ है।

श्रृगार प्रधान इस रचना में वियोग-श्रृगार का चरमोत्कर्ष देखते ही बनता है।

छंद वैविध्यपरक धारा के रासो-ग्रंथ : रासो साहित्य की रचनाएँ एवं रचनाकार

1. मुंजरास : रचयिता अज्ञात

प्रामाणिक प्रति अनुपलब्ध है।

इसका रचना काल 1140 ई. है।

इसमें महाराज मुंज की कथा का वर्णन है।

2. संदेशरासक : अब्दुर्रहमान

इस रचना का काल 1143 ई. है।

यह प्रथम प्रामाणिक रासो-ग्रंथ है। जिसकी भाषा अवहट्ट है।

3. पृथ्वीराजरासो : चंदबरदायी – रासो साहित्य की रचनाएँ एवं रचनाकार

यह हिंदी का प्रथम महाकाव्य है।

रामचंद्र शुक्ल के अनुसार संवत् 1225-1249 है।

इसमें महाराज पृथ्वीराज चौहान तृतीय की कथा वर्णित है।

4. हम्मीररासो : अज्ञात

सं. 1450 के आसपास रचित  है।

इसमें राणा हम्मीरदेव का चरित्र चित्रण है।

यह रचना अप्राप्य है।

5. बुद्धिरासो : जल्ह

14वीं सदी की रचना है।

इसमें चपावती नगर के राजकुमार और जलधि तरंगिनी की प्रणयकथा वर्णित की गई है।

6. परमालरासो : जगनिक

16वीं सदी की इस रचना को आल्हा-खंड भी कहते हैं।

जगनिक परमार्दिदेव (परमाल) के राजाश्रित कवि थे।

7. राव जैतसी रो रासो : अज्ञात

1543 ई. की रचना है।

इस ग्रंथ में बीकानेर के शासक जैतसी तथा हुमायूँ के भाई कामरान के युद्ध का वर्णन है।

8. विजयपालरासो : नल्हसिंह

1543 ई. में रचित इस वीररस पूर्ण रासो-काव्य में करौली के राजा विजयपाल की दिग्विजय एवं विजयपाल का पंग राजा से युद्ध का वर्णन है।

9. रामरासो : माघवदास

1618 ई. में रचित ग्रंथ है।

इसमें रामकथा का वर्णन है।

10. राणारासो : दयाल कवि – रासो साहित्य की रचनाएँ एवं रचनाकार

1618 ई. की इस रचना हैं।

इसमें राणा कुम्भा, उदयसिंह, प्रताप, अमरसिंह इत्यादि का जीवन चरित्र वर्णित है।

11. रतनरासो : कवि कुंभकर्ण

रतलाम के महाराज राणा रतन सिंह का चरित्रचित्रण किया है।

इसका रचनाकाल 1623 ई. है।

12. कायमरासो : न्यामत खाँ जान

इसकी रचना 1634-56 ई. के बीच की गई।

इसमें कायमखानी वंश का महत्त्व एवं आलमखां का चरित्र वर्णित हुआ है ।

13. शत्रुसालरासो : राव डूंगरसी

1653 ई. में रचित इस वीररसात्मक काव्य में बूंदी के शासक राव शत्रुसाल का जीवनचरित्र है।

14. माँकणरासो : कीर्ति सुंदर

इस विनोदात्मक रचना में माँकण अर्थात् खटमल का चरित्र वर्णित किया गया है।

15. संगतसिंह रासो : कवि गिरिधर चारण

इस वीररसात्मक कृति में राणा प्रताप के भाई शक्तिसिंह तथा उनके वंशज की महत्ता का वर्णन किया है।

16. हम्मीररासो : जोधराज कवि

यह रचना 1728 ई. में रचित है।

इसमें राजा हम्मीर का चरित्राचित्रण वर्णित है।

17. खुमाणरासो : दलपति विजय – रासो साहित्य की रचनाएँ एवं रचनाकार

9 वीं सदी में रचित 5000 छंदों का एक विशाल ग्रंथ है।

इसमें चित्तौड़ के शासक खुमाण द्वितीय तथा खलीफा अलमामू के युद्ध का वर्णन है।

18. भगवंतसिंह को रासो : इस वीररसात्मक ग्रंथ में भगवंत सिंह का चरित्रांकन हुआ है।

19. करहिया कौ रासो : इसमें करहिया के परमार तथा राव जवाहरसिंह के मध्य युद्ध वर्णित है ।

20. कलियुगरासो : इस रचना में कलियुग के कुप्रभाव का वर्णन है। यह अन्य रासो-काव्य से भाषा और छंद की दृष्टि से सर्वथा पृथक है।

‘रासो’ शब्द की व्युत्पत्ति – विभिन्न मत

‘रासो’ शब्द की जानकारी

‘रासो’ शब्द की व्युत्पत्ति, अर्थ, रासो साहित्य, विभिन्न प्रमुख मत, क्या है रासो साहित्य?, रासो शब्द का अर्थ एवं पूरी जानकारी।

‘रासो’ शब्द की व्युत्पति तथा ‘रासो-काव्य‘ के रचना-स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न प्रकार की धाराणाओं को व्यक्त किया है।

डॉ० गोवर्द्धन शर्मा ने अपने शोध- प्रबन्ध ‘डिंगल साहित्य में निम्नलिखित धारणाओं का उल्लेख किया है।

रास काव्य मूलतः रासक छंद का समुच्चय है।

रासो साहित्य की रचनाएँ एवं रचनाकार

अपभ्रंश में 29 मात्रओं का एक रासा या रास छंद प्रचलित था।

विद्वानों ने दो प्रकार के ‘रास’ काव्यों का उल्लेख किया है- कोमल और उद्धृत।

प्रेम के कोमल रूप और वीर के उद्धत रुप का सम्मिश्रण पृथ्वीराज रासो में है।

‘रासो’ साहित्य हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि है।

शब्द ‘रासो’ की व्युत्पत्ति के संबंध में विद्वानों में मतैक्य का अभाव है।

क्या है रासो साहित्य?

रासो शब्द का अर्थ बताइए?

‘रासो’ साहित्य अर्थ मत
‘रासो’ साहित्य अर्थ मत

विभिन्न विद्वानों ने इस संबंध में अनेक मत दिए हैं जिनमें से प्रमुख मत इस प्रकार से हैं-

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार बीसलदेव रासो में प्रयुक्त ‘रसायन’ शब्द ही कालान्तर में ‘रासो’ बना।

गार्सा द तासी के अनुसार ‘रासो’ की उत्पत्ति ‘राजसूय’ शब्द से है।

रामचन्द्र वर्मा के अनुसार इसकी उत्पत्ति ‘रहस्य’ से हुई है।

मुंशी देवीप्रसाद के अनुसार ‘रासो’ का अर्थ है कथा और उसका एकवचन ‘रासो’ तथा बहुवचन ‘रासा’ है।

ग्रियर्सन के अनुसार ‘रायसो’ की उत्पत्ति राजादेश से हुई है।

गौरीशंकर ओझा के अनुसार ‘रासा’ की उत्पत्ति संस्कत ‘रास’ से हुई है।

पं० मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या के अनुसार ‘रासो’ की उत्पत्ति संस्कत ‘रास’ अथवा ‘रासक’ से हुई है।

मोतीलाल मेनारिया के अनुसार जिस ग्रंथ में राजा की कीर्ति, विजय, युद्ध तथा तीरता आदि का विस्तत वर्णन हो, उसे ‘रासो’ कहते हैं।

विश्वनाथप्रसाद मिश्र के अनुसार ‘रासो’ की व्युत्पत्ति का आधार ‘रासक’ शब्द है।

कुछ विद्वानों के अनुसार राजयशपरक रचना को ‘रासो’ कहते हैं।

विभिन्न विद्वानों ने इस संबंध में अनेक मत दिए हैं जिनमें से प्रमुख मत इस प्रकार से हैं-

बैजनाथ खेतान के अनुसार ‘रासो या ‘रायसों’ का अर्थ है झगड़ा, पचड़ा या उद्यम और उसी ‘रासो’ की उत्पत्ति है।

के० का० शास्त्री तथा डोलरराय माकंड के अनुसार ‘रास’ या ‘रासक मूलतः नत्य के साथ गाई जाने वाली रचनाविशेष है।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार ‘रासो’ तथा ‘रासक’ पर्याय हैं और वह मिश्रित गेय-रूपक हैं।

कुछ विद्वानों के अनुसार गुजराती लोक-गीत-नत्य ‘गरबा’, ‘रास’ का ही उत्तराधिकारी है।

डॉ० माताप्रसाद गुप्त के अनुसार विविध प्रकार के रास, रासावलय, रासा और रासक छन्दों, रासक और नाट्य-रासक, उपनाटकों, रासक, रास तथा रासो-नृत्यों से भी रासो प्रबन्ध-परम्परा का सम्बन्ध रहा है. यह निश्चय रूप से नहीं कहा जा सकता। कदाचित् नहीं ही रहा है।

मं० र० मजूमदार के अनुसार रासाओं का मुख्य हेतु पहले धर्मोपदेश था और बाद में उनमें कथा-तत्त्व तथा चरित्र-संकीर्तन आदि का समावेश हुआ।

विजयराम वैद्य के अनुसार ‘रास’ या ‘रासो’ में छन्द, राग तथा धार्मिक कथा आदि विविध तत्व रहते हैं।

डॉ० दशरथ शर्मा के अनुसार रास के नृत्य, अभिनय तथा गेय-वस्तु-तीन अंगों से तीन प्रकार के रासो (रास, रासक-उपरूपक तथा श्रव्य-रास) की उत्पत्ति हुई।

विभिन्न विद्वानों ने इस संबंध में अनेक मत दिए हैं जिनमें से प्रमुख मत इस प्रकार से हैं-

हरिबल्लभ भायाणी ने सन्देश रासक में और विपिनबिहारी त्रिवेदी ने पृथ्वीराज रासो में ‘रासा’ या ‘रासो’ छन्द के प्रयुक्त होने की सूचना दी है।

कुछ विद्वानों के अनुसार रसपूर्ण होने के कारण ही रचनाएँ, ‘रास’ कहलाई।

‘भागवत’ में ‘रास’ शब्द का प्रयोग गीत नृत्य के लिए हुआ है।

‘रास’ अभिनीत होते थे, इसका उल्लेख अनेक स्थान पर हुआ है। (जैसे-भावप्रकाश, काव्यानुशासन तथा साहितय-दर्पण आदि।)

हिन्दी साहित्य कोश में ‘रासो’ के दो रूप की ओर संकेत किया गया है गीत-नत्यपरक (पश्चिमी राजस्थान तथा गुजरात में समद्ध होने वाला) और छंद-वैविध्यपरक (पूर्वी राजस्थान तथा शेष हिन्दी में प्रचलित रूप।)

‘रासो’ शब्द की व्युत्पत्ति, अर्थ, रासो साहित्य, विभिन्न प्रमुख मत, क्या है रासो साहित्य?, रासो शब्द का अर्थ एवं पूरी जानकारी।

हालावाद विशेष- https://thehindipage.com/halawad-hallucination/halawad/

‘रासो’ शब्द की व्युत्पत्ति – विभिन्न मत- https://thehindipage.com/raaso-sahitya/raaso-shabad-ki-jankari/

कामायनी के विषय में कथन- https://thehindipage.com/kamayani-mahakavya/kamayani-ke-vishay-me-kathan/

संस्मरण और रेखाचित्र- https://thehindipage.com/sansmaran-aur-rekhachitra/sansmaran-aur-rekhachitra/

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