महाकवि पुष्पदंत Mahakavi Pushpdant का परिचय, पुष्पदंत की रचनाएँ, पुष्पदंत के उपनाम और उपाधियाँ, महाकवि पुष्पदंत | Mahakavi Pushpdant | के लिए प्रमुख कथन आदि की जानकारी
परिचय
अपभ्रंश भाषा में अनेक नामचीन कवि हुए हैं; जिनमें से पुष्पदंत एक प्रमुख नाम है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने पुष्पदंत को अपभ्रंश के श्रेष्ठ कवियों में स्वयम्भू के बाद दूसरे स्थान पर रखा है।
पुष्पदंत ने स्वयं अपने विषय में अपनी रचनाओं में जानकारी दी है। उनके ग्रंथों में उनके माता-पिता, आश्रयदाता, वास-स्थान, स्वभाव, कुल-गोत्र आदि की जानकारी प्राप्त हो जाती है। इनके परवर्ती कवियों ने भी इनका नाम बड़े आदर और सम्मान से लिया है। आधुनिक शोध एवं खोजों से भी पुष्पदंत के विषय में पर्याप्त जानकारी मिलती है।
महाकवि पुष्पदंत का परिचय एवं रचनाएँ
माता–पिता एवं कुल–गोत्र
पुष्पदंत के पिता का नाम केशव भट्ट और माता का नाम मुग्धादेवी था।आप काश्यप गोत्र के ब्राह्मण थे और पहले शैव मतावलम्बी थे तथा किसी भैरव नामक राजा (शैव मतावलम्बी) की प्रशंसा में काव्य का प्रणयन भी किया था।अंतः साक्ष्य के आधार पर कह सकते हैं कि पुष्पदंत 10 वीं शताब्दी में वर्तमान थे।
निवास स्थान
कवि पुष्पदंत का निवास मान्यखेट (दक्षिण भारत) में राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय के प्रधानमंत्री भरत तथा उसके पश्चात गृह मंत्री नन्न के आश्रय में था। भरत के अनुरोध पर ही पुष्पदंत जिन भक्ति की ओर प्रवृत्त हो काव्य सृजन में रत हुए। पुष्पदंत ने संन्यास विधि से शरीर त्यागा।
महाकवि पुष्पदंत के उपनाम और उपाधियां (महाकवि पुष्पदंत का परिचय एवं रचनाएँ)
पुष्पदंत का घरेलू नाम खंडू अथवा खंड था। इनकी अनेक उपाधियाँ थी जो उनके ग्रंथों उसे हमें प्राप्त होती –
विशाल चित्त, गुण गण महंत, वागेश्वरी देवानिकेत, भवय जीव-पंकरुह भानु।
जसहर चरिउ से- सरस्वती निलय।
महाकवि पुष्पदंत की रचनाएँ (महाकवि पुष्पदंत का परिचय एवं रचनाएँ)
निम्नलिखित तीन ग्रंथों को पुष्पदंत की प्रामाणिक रचनाएं माना जाता है-
तिसट्ठि महापुरिस गुणालंकार (महापुराण)
ण्यकुमार चरिउ (नागकुमार चरित्र)
जसहर चरिउ (यशोधर चरित्र)
महापुराण–
यह पुष्पदंत की प्रथम रचना मानी जाती है, जिसे उन्होंने राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीया के मंत्री भरत के आश्रय में उन्हीं की प्रेरणा से मान्य खेत में लिखा था। अंतः साक्ष्यों के अनुसार पुष्पदंत ने 959 ईस्वी में इसे लिखना आरंभ किया तथा 965 ईस्वी में यह ग्रंथ पूर्ण हुआ। संपूर्ण ग्रंथ में 102 संधियाँ 1960 कड़वक तथा 27107 पद हैं। महापुराण में तिरसठ महापुरुषों का जीवन चरित्र वर्णित है।
ण्यकुमार चरिउ–
यह नौ संधियों का खंडकाव्य है, जिसकी रचना महापुराण के बाद हुई है। अंतः साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि पुष्पदंत ने इसकी रचना मंत्री नन्न के आश्रय में की थी। इस ग्रंथ में नाग कुमार के चरित्र द्वारा श्री पंचमी के उपवास का फल बताया गया है।
जसहर चरिउ–
जसहरचरिउ पुष्पदंत की अंतिम रचना मानी जाती है। जिसे उन्होंने नन्न के आश्रय में लिखा था। यह चार संधियों की लघु रचना है, जिसमें यशोधर का चरित्र वर्णित किया गया है।
महाकवि पुष्पदंत के लिए प्रमुख कथन (महाकवि पुष्पदंत का परिचय एवं रचनाएँ)
“पुष्पदंत मनुष्य थोड़े ही है, सरस्वती उनका पीछा नहीं छोड़ती” –हरिषेण।
“अपभ्रंश का भवभूति”- डॉ हरिवल्लभ चुन्नीलाल भयाणी।
“बाण के बाद राजनीति का इतना उग्र आलोचक दूसरा लेखक नहीं हुआ। सचमुच मेलपाटी के उस उद्यान में हुई अमात्य भरत और पुष्पदन्त की भेंट भारतीय साहित्य की बहुत बड़ी घटना है। यह अनुभूति और कल्पना की अक्षय धारा है, जिससे अपभ्रंश साहित्य का उपवन हरा-भरा हो उठा। मंत्री भरत माली थे और कृष्ण वर्ण कुरूप पुष्पदन्त कवि-मनीषी, के स्नेह के आलवाल में कवि श्री का काव्य-कुसुम मुकुलित हुआ।” –डॉ. देवेंद्र कुमार जैन।
कवि स्वयम्भू | Kavi Svayambhu अपभ्रंश के प्रथम कवि का जीवन-परिचय, रचनाएं, उपाधियाँ, स्वयंभू का काल निर्धारण, स्वयम्भू का अर्थ आदि
स्वयम्भू : काल निर्धारण – अपभ्रंश के प्रथम कवि स्वयम्भू का जीवन-परिचय एवं रचनाएं
कवि स्वयंभू की जन्मतिथि के विषय में निश्चित ज्ञान नहीं है और नही अभी तक उनके जन्म स्थान, कुल परंपरा, कार्यस्थान, कार्य विधि तथा अन्य घटनाओं के बारे में कोई विशेष जानकारी प्राप्त हो पायी है।
स्वयंभू कृत पउमचरिउ में एक स्थान पर तथा रिट्ठणेमिचरिउ में दो स्थानों पर कुछ तिथियों, महीनों, नक्षत्रों का उल्लेख अवश्य मिलता है, परंतु कहीं भी वर्ष का उल्लेख नहीं होता है, अतः काल निर्णय करना अत्यंत कठिन है। पउमचरिउ तथा रिट्ठणेमिचरिउ में स्वयंभू ने भरत, व्यास, पिंगलाचार्य, इंद्राचार्य, भामह, दंडी, श्रीहर्ष, बाण, चतुर्मुख, रविषेण आदि पूर्वगामी कवियों की प्रशंसा की है, जिनमें से रविषेण सबसे अंतिम थे। रविषेण की कृति पद्म चरित्र का रचनाकाल ईस्वी सन् 676 से 677 में माना जाता है और स्वयम्भू ने स्वीकार किया है कि उन्होंने रविसेणारिय पसाएँ अर्थात रविषेणाचार्य के प्रसाद से रामकथा रूपी नदी का अवगाहन किया है। इससे स्वयम्भू का समय 676 से 677 के बाद का ही निश्चित होता है। यह स्वयम्भू के काल की पूर्व सीमा ठहरती है।
इस तरह स्वयंभू के परवर्ती कवियों ने स्वयंभू के प्रति कृतज्ञता प्रकट की है। ऐसे कवियों में पुष्पदंत कालक्रम में सबसे पहले हैं। उन्होंने अपने महापुराण में दो स्थानों पर स्वयंभू को बड़े आदर के साथ स्मरण किया है। पुष्पदंत के महापुराण की रचना 959- 60 ईसवी में प्रारंभ हुई, अतः स्वयंभू इस समय से पूर्व हो चुके थे, इसलिए स्वयंभू की उत्तर सीमा 959- 60 के आसपास ठहरती है। स्वयम्भू की पूर्व सीमा 676- 77 तथा उत्तर सीमा 959- 60 तक के 300 वर्षों के सुदीर्घ कालखंड में एक निश्चित समय निर्धारित करना अत्यंत दुष्कर कार्य है। एक अन्य मत के अनुसार स्वयंभू 783 ईसवी के आसपास वर्तमान थे।
कवि स्वयम्भू | Kavi Svayambhu का जीवन-परिचय
स्वयम्भू जैन मतावलम्बी थे।
इनके पिता का नाम मारुतदेव तथा माता का नाम पद्मिनी था।
काव्य कला का ज्ञान इन्होंने अपने पिता से ही लिया था।
स्वयम्भू ने अपने किसी पुत्र का उल्लेख नहीं किया है, किंतु त्रिभुवन को निर्विवाद रूप से उनका पुत्र माना जाता है।
जन्म स्थान के संबंध में कोई पुष्ट प्रमाण तो नहीं मिलता परंतु अंतः साक्ष्य के आधार पर कहा जा सकता है, कि स्वयंभू कर्नाटक प्रदेश के निवासी रहे होंगे। लेकिन उनकी भाषा से यह अनुमान लगाया जाता है, कि स्वयंभू का जन्म उत्तर भारत या मध्य भारत में हुआ होगा और बाद में वे दक्षिण गए होंगे। यह अनुमान महापंडित राहुल सांकृत्यायन के मत पर आधारित है।
कवि स्वयम्भू | Kavi Svayambhu की उपाधियाँ
त्रिभुवन ने उन्हें स्वयंभूदेव, कविराज, कविराज चक्रवर्तिन विद्वान और छंदस् चूड़ामणि आदि उपाधियों से अलंकृत किया है।
पउमचरिउ में स्वयंभू ने अपने आप को कविराज कहकर संबोधित किया है।
डॉ हरिवल्लभ चुन्नीलाल भयाणी ने इन्हें अपभ्रंश का कालिदास और डॉ राहुल सांकृत्यायन ने इन्हें अपभ्रंश का वाल्मीकि कहा है।
स्वयम्भू कवि की रचनाएं – अपभ्रंश के प्रथम कवि स्वयम्भू का जीवन-परिचय एवं रचनाएं
स्वयंभू की तीन कृतियां निर्विवाद रूप से स्वीकार की जाती हैं- पउमचरिउ (पद्मचरित्र), रिट्ठणेमिचरिउ तथा स्वयम्भू छंद।
पउमचरिउ–
पउमचरिउ में राम कथा है।
राम का एक पर्याय पद्म भी है, अतः स्वयंभू ने पद्मचरित्र नाम दिया।
कथा के अंत में राम को मुनींद्र से उपदेश ग्रहण कर निर्वाण प्राप्त करते हुए दिखाया गया है।
ऐसा करके कवि ने जैन धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करनी चाही है।
पउमचरिउ पांच कांड और 90 संधियों में विभाजित महाकाव्य है-
(1) विद्याधर कांड में 20,
(2) अयोध्या कांड में 22,
(3) सुंदरकांड में 14,
(4) युद्ध कांड में 21,
(5) उत्तरकांड में 13 संधियाँ हैं।
संधियाँ कडवकों में विभाजित है।
ग्रंथ में कुल 1269 कडवक है।
पउमचरिउ की 23वी और 46 वी में संधि के प्रारंभ में कवि ने पुनः मंगलाचरण लिखे हैं।
पउमचरिउ को स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवनस्वयंभू ने पूर्णता प्रदान की। इसकी 84 से 90 संधियाँ त्रिभुवन की रचना है।
रिट्ठणेमिचरिउ–
आकार की दृष्टि से यह ग्रंथ स्वयंभू के अन्य सभी ग्रंथों से विशाल है इसमें 18000 श्लोक तथा चार कांड और 120 संधियाँ हैं।
इसमें आयी कृष्ण तथा कौरव पांडव की कथा के कारण इसके रिट्ठणेमिचरिउ, हरिवंश पुराण, भारत पुराण आदि कई नाम मिलते हैं।
रिट्ठणेमिचरिउ को भी स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन ने पूर्ण किया।
स्वयंभू छंद–
इसमें 8 अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय के अंत में स्वयंभू छंद शब्द मिलता है।
ग्रंथ के प्रथम तीन अध्याय में प्राकृत छंदों तथा अंतिम पांच अध्यायों में अपभ्रंश के छंदों का विवेचन किया गया है।
इसके अतिरिक्त कुछ प्रमाणों के आधार पर सिरिपंचमी चरिउ तथा सुद्धयचरिय इनकी दो अन्य रचनाएं स्वीकार की जाती है।
दो अलग-अलग मतों के अनुसार स्वयंभू को एक व्याकरण ग्रंथ तथा एक अलंकार और कोश ग्रंथ का रचयिता भी कहा जाता है।
स्वयंभू के लिए प्रमुख कथन –
“हमारे इसी युग में नहीं, हिन्दी कविता के पांचो युगों (1-सिद्ध-सामन्त युग, 2-सूफी-युग, 3-भक्त-युग, 4-दरबारी-युग, 5-नव जागरण-युग) के जितने कवियों को हमने यहाँ संग्रहीत किया है, उनमें यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि स्वयंभू सबसे बड़ा कवि था। वस्तुतः वह भारत के एक दर्जन अमर कवियों में से एक था।” –डॉ.राहुल सांकृत्यायन
अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य – अपभ्रंश के प्रथम कवि स्वयम्भू का जीवन-परिचय एवं रचनाएं
डॉ रामकुमार वर्मा ने स्वयंभू को हिंदी का प्रथम कवि माना है।
स्वयम्भू ने अपनी भाषा को देसी भाषा कहां है।
स्वयम्भू ने चतुर्मुख को पद्धड़िया बंध का प्रवर्तक तथा श्रेष्ठ कवि कहा है।
पद्धरी 16 मात्रा का मात्रिक छंद है। इस छंद के नाम पर इस पद्धति पर लिखे जाने वाले काव्यों को पद्धड़िया बंध कहा गया है।
स्रोत–
महाकवि स्वयंभू- डॉ संकटा प्रसाद उपाध्याय
हिंदी काव्य धारा –डॉ राहुल सांकृत्यायन
पउमचरिउ (प्रस्तावना)- डॉ हरिवल्लभ चुन्नीलाल भयाणी
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गोरखनाथ Gorakhnath का जीवन परिचय, रचनाएं, जन्म के बारे में विभिन्न मत, गोरखनाथ के बारे में साहित्यकारों के विभिन्न मत एवं गोरखनाथ जी की उक्तियाँ आदि की जानकारी।
परिचय
सिद्ध संप्रदाय का विकसित और परिवर्तित रूप ही नाथ संप्रदाय है। ‘नाथ’ शब्द के अनेक अर्थ है, शैव मत के विकास के बाद ‘नाथ’ शब्द शिव के लिए प्रयुक्त होने लगा। नाथ संप्रदाय में इस शब्द की जो व्याख्या की गई है उसके अनुसार ‘ना’ का अर्थ है ‘अनादिरूप’ तथा ‘थ’ का अर्थ है ‘स्थापित होना’। एक अन्य मत के अनुसार नाथ शब्द की व्याख्या की गई है, जिसमें ‘नाथ’ शब्द ‘मुक्तिदान’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
गोरखनाथ जीवन परिचय रचनाएं
ना- नाथ ब्रह्म (जो मोक्ष देता है)
थ – स्थापित करना (अज्ञान के सामर्थ्य को स्थापित करना)
नाथ – जो ज्ञान को दूर कर मुक्त दिलाता है।
नाथपंथी शिवोपासक हैं, और अपनी साधना में तंत्र मंत्र एवं योग को महत्त्व देते हैं, इसलिए इन्हें योगी भी कहा जाता है। माना जाता है कि नाथ पंथ सहजयान का विकसित रूप है। विकास परंपरा में भी नाथों का स्थान सिद्धों के बाद ही आता है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार नाथों का समय नौवीं शताब्दी का मध्य है। उनके मत से अधिकतर विद्वान सहमत भी हैं।
विद्वानों ने मत्स्येंद्रनाथ का काल नौवीं शती का अंतिम चरण तथा गोरखनाथ का समय है।
दसवीं शती स्वीकार किया है, जबकि अन्य नाथों की प्रवृत्ति सीमा 12वीं 13वीं शताब्दी मानी जाती है।
नाथों की संख्या नौ मानी जाती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार अभी लोग नवनाथ और चौरासी सिद्ध कहते सुने जाते हैं।
नौ नाथो में आदिनाथ (शिव), मत्स्येंद्रनाथ (मच्छिंद्रनाथ), गोरखनाथ, चर्पटनाथ, चौरंगीनाथ आदि प्रमुख है।
नाथ एक विशेष वेशभूषा धारण करते थे जिसमें मेखला, शृंगी, गूदड़ी, खप्पर, कर्णमुद्रा, झोला आदि होते थे।
यह कान चीरकर कुंडल पहनते थे, इसलिए कनफटा योगी कहलाते थे।
नाथ पंथ के प्रवर्तक आदिनाथ या स्वयं शिव माने जाते हैं।
उनके शिष्य मत्स्येंद्रनाथ और इनके शिष्य गोरखनाथ थे।
यह पहले बौद्ध थे, बाद में नाथपंथी हो गए और योग मार्ग चलाया।जिसे हठयोग के नाम से जाना जाता है।
हठयोगियों के सिद्ध सिद्धांत पद्धति ग्रंथ के अनुसार-
ह- सूर्य
ठ – चंद्रमा
हठयोग – सूर्य और चंद्रमा का संयोग।
हठयोग की साधना शरीर पर आधारित है। कुंडलिनी को जगाने के लिए आसन, मुद्रा, प्राणायाम और समाधि का सहारा लिया जाता है।
गोरखनाथ का जीवन परिचय (गोरखनाथ जीवन परिचय एवं रचनाएं)
व्यक्तित्व एवं कृतित्व
जन्म एवं जन्म स्थान
गोरक्षनाथ की उत्पत्ति के दो रुप में मिलते हैं। व्यक्तित्व के रुप में गोरक्षनाथ शिवावतार है।
महाकाल योग शास्त्र में शिव ने स्वयं स्वीकार किया है कि मै ‘योगमार्ग का प्रचारक गोरक्ष हूँ।
हठयोग प्रदीपिका में उल्लेख है कि स्वयं आदिनाथ शिव ने योग-मार्ग के प्रचार हेतु गोरक्ष का रुप लिया था।
‘गोरक्ष सिद्धान्त संग्रह मे गोरखनाथ को ईश्वर की संतान के रूप में संबोधित किया गया है।
बंगीय काव्य ‘गोरक्ष-विजय’ के अनुसार गोरखनाथ आदिनाथ शिव की जटाओं से प्रकट हुए थे।
नेपाल दरबार ग्रंथालय से प्राप्त गोरक्ष सहस्रनाम के अनुसार गोरखनाथ दक्षिण मे बड़ब नामक देश में महामन्त्र के प्रसाद से उत्पन्न हुए थे।
तहकीकाक चिश्ती नामक पुस्तक से प्राप्त वर्णन के अनुसार शिव के एक भक्त ने सन्तानोत्पत्ति की इच्छा से शिव-धूनी से भस्म प्राप्त कर अपनी पत्नी को ग्रहण करने के लिए दिया पर लोक-लज्जा के भय से उस स्त्री ने उस भस्म को फेंक दिया। चामत्कारिक रूप से उसी स्थान पर एक हष्ट-पुष्ट बालक उत्पन्न हुआ। शिव ने उसका नाम गोरक्ष रखा। वर्तमान समय में भी गोरक्षनाथ को नाथ योगी लोग शिव-गोरक्ष के रुप में ही मान्यता देते है।
‘योग सम्प्रदाय विष्कृति’ के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ ने एक सच्चरित्र धर्मनिष्ट निस्संतान ब्राह्मण दंपत्ति को पुत्र प्राप्ति की इच्छा से भस्म प्रदान की, इसी भस्म से गोरखनाथ उत्पन्न हुए। गोरखनाथ के जन्म स्थान के सम्बन्ध में पर्याप्त मतभेद है।
महार्थमंजरी के त्रिवेन्द्रम संस्करण से ज्ञात होता है कि वे चोल देश के निवासी थे उनके पिता का नाम माधव और गुरु का नाम महाप्रकाश था।
अवध की परम्परा में गोरक्षनाथ जायस नगर के एक पवित्र ब्राह्मण कुल में उत्पन्न माने जाते हैं।
विभिन्न मतानुसार
ब्रिग्स ने गोरक्ष को पंजाब का मूल निवासी बताया है।
ग्रियर्सन ने उनका पश्चिमी हिमालय का निवासी होना स्वीकार किया है
डॉ० मोहन सिंह पेशावर के निकट रावलपिंडी जिले के एक ग्राम ‘गोरखपुर’ को उनकी मातृभूमि बताते है।
डा० रांगेय राघव का मत है कि गोरखनाथ का जन्मस्थान पेशावर का उत्तर-पश्चिमी पंजाब है।
पं० परशुराम चतुर्वेदी का अनुमान है कि गोरख का जन्म पश्चिमी भारत अथवा पंजाब प्रांत के किसी स्थान में हुआ था और उनका कार्य-क्षेत्र नेपाल, उत्तरी भारत आसाम, महाराष्ट्र एवं सिन्ध तक फैला हुआ था।
नेपाल पुस्तकालय से उपलब्ध ग्रन्थ योग सम्प्रदाय विष्कृति के अनुसार गोरक्ष की जन्मभूमि गोदावरी नदी के तट पर स्थित ‘चन्द्रगिरि’ नामक स्थान है।
डॉ० अशोक प्रभाकर का मत है कि महाराष्ट्र मे त्रियादेश की स्थापना बताकर तथा नाथ पंथ की कुछ गुफाओं व प्रतीकों को आधार बनाकर गोरखनाथ की जन्मभूमि महाराष्ट्र में स्थित ‘चन्द्रगिरि’ को बताते है।
अक्षय कुमार बनर्जी का मत है कि मत्स्येन्द्र गोरक्ष आदि ने सर्वप्रथम हिमालय प्रदेश-नेपाल, तिब्बत आदि देशों में अपनी योग साधना आरम्भ की और सम्भवतः इन्हीं स्थानो में वे प्रथम देव सदृश पूजे गये उनका स्थान देवाधिदेव पशुपतिनाथ शिव को छोड़कर अन्य सभी देवताओं से ऊँचा था।
तिब्बत व नेपाल के क्षेत्र से ही योग साधना का आन्दोलन पूर्व में कामरूप (आसाम) बंगाल, मनीपुर तथा निकटवर्ती क्षेत्रों में फैला। पश्चिम में कश्मीर, पंजाब पश्चिमोत्तर प्रदेश, यहाँ तक कि काबुल और फारस तक पहुँचा उत्तर प्रदेश हिमालय के समीप होने के कारण अधिक प्रभावित हुआ। दक्षिण पश्चिम और दक्षिण पूर्व में भी गोरखनाथ तथा अन्यान्न नाथ योगियों की शिक्षाएं तथा उनके चमत्कार की कथाएँ पुष्प की सुगंध की तरह चहूँ ओर बिखर गयीं।
गोरखनाथ के जन्म के समय के बारे में निश्चित नहीं कहा जा सकता है-
गोरखनाथ का समय डॉ राहुल सांकृत्यायन ने 845 ईस्वी माना है।
डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी उन्हें नवी शताब्दी का मानते हैं।
डॉ पीतांबरदत्त बड़थ्वाल ने 11वीं शताब्दी का स्वीकार करते हैं।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल तथा डॉ रामकुमार वर्मा इन्हें 13वीं शताब्दी का मानते हैं।
आधुनिक खोजों के अनुसार गोरखनाथ ने ईसा की तेरहवीं सदी के आरंभ में अपना साहित्य लिखा था।
गोरखनाथ की रचनाएं (गोरखनाथ जीवन परिचय एवं रचनाएं)
इनके ग्रंथों की संख्या 40 मानी जाती है, परंतु डॉ पीतांबर दत्त बड़थ्वाल ने इनकी 14 रचनाओं को प्रमाणिक मानकर गोरखवाणी नाम से उनका संपादन किया है। डॉ बड़थ्वाल द्वारा संपादित पुस्तकों की सूची इस प्रकार है– (1) शब्द, (2) पद, (3) शिष्या दर्शन. (4) प्राणसंकली. (5) नरवैबोध, (6) आत्मबोध, (7) अभयमुद्रा योग, (8) पंद्रह तिथि, (9) सप्तवार, (10) मछिन्द्र गोरखबोध, (11) रोमावली, (12) ज्ञान तिलक, (13) ज्ञान चौतीसा, (14) पंचमात्रा।
मिश्र बंधु
डॉ बड़थ्वाल के अतिरिक्त मिश्र बंधुओं ने गोरखनाथ के 9 संस्कृत ग्रंथों का परिचय दिया है– (1) गोरक्षशतक, (2) चतुरशीत्यासन, (3) ज्ञानामृत, (4) योगचिन्तामणि, (5) योग महिला, (6) योग मार्तण्ड, (7) योग सिद्धांत पद्धति, (8) विवेक मार्तण्ड (9) सिद्ध-सिद्धान्त पद्धति
ने गोरखनाथ 28 ग्रंथों की का उल्लेख किया है, द्विवेदी जी ने लिखा है कि उन पुस्तकों में अधिकांश के रचयिता गोरखनाथ नहीं थे–1.अमनस्कयोग 2. अमरौधशासनम् 3. अवधूत गीता 4. गोरक्ष कल्प 5. गोरक्षकौमुदी 6. गोरक्ष गीता 7. गोरक्ष चिकित्सा 8. गोरक्षपंचय 9. गोरक्षपद्धति 10. गोरक्षशतक 11. गोरक्ष शास्त्र 12.गोरक्ष संहिता 13. चतुरशीत्यासन 14. ज्ञान प्रकाश 15. ज्ञान शतक 16. ज्ञानामृत योग 17. नाड़ीज्ञान प्रदीपिका 18. महार्थ मंजरी 19. योगचिन्तामणि 20. योग मार्तण्ड 21.योगबीज 22. योगशास्त्र 23. योगसिद्धांत पद्धति 24. विवेक मार्तण्ड 25. श्रीनाथ-सूत्र 26. सिद्ध-सिद्धान्तपद्धति 27. हठयोग 28. हठ संहिता।
डॉ० नागेन्द्रनाथ उपाध्याय
ने गोरखनाथ के 15 ग्रंथो की सूची प्रस्तुत की है लेकिन इनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है- 1. अमरौधशासनम् 2. अवधूत गीता 3. गोरक्ष गीता 4.गोरक्षशतक 5. विवेक मार्तण्ड 6. महार्थमंजरी 7. सिद्ध-सिद्धान्त पद्धति 8. चतुरशीत्यासन् 9. ज्ञानामृत 10. योग महिमा 11. योग-सिद्धान्त पद्धति 12. गोरक्ष कथा 13. गोरक्ष सहस्रनाम 14. गोरक्षपिष्टिका 15. योगबीज
“शंकराचार्य के बाद इतना प्रभावशाली और इतना महिमान्वित भारतवर्ष में दूसरा नहीं हुआ। भारतवर्ष के कोने-कोने में उनके अनुयायो आज भी पाये जाते हैं। भक्ति आन्दोलन के पूर्व सबसे शक्तिशाली धार्मिक आन्दोलन गोरखनाथ का भक्ति मार्ग हो था। गोरखनाथ अपने युग के सबसे बड़े नेता थे” – आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
“गोरख जगायो जोग भक्ति भगाए लोग” – तुलसीदास
अन्य महत्वपूर्ण तथ्य
1 नाथ साहित्य के प्रारंभ करता गोरखनाथ थे।
2 गोरखनाथ के गुरु का नाम मत्स्येंद्रनाथ था।
3 हिंदी साहित्य में षट्चक्र वाला योग मार्ग गोरखनाथ ने चलाया।
4 मिश्रबंधुओं ने गोरखनाथ को हिंदी का प्रथम गद्य लेखक माना है।
स्रोत –
इग्नू स्नातकोत्तर (हिंदी) पाठ्य सामग्री
हिंदी साहित्य का इतिहास – डॉ नगेंद्र
नाथ संप्रदाय – डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी
गोरक्षनाथ और उनका युग – डॉ रांगेय राघव
अमनस्क योग – श्री योगीनाथ स्वामी
नाथ संप्रदाय का इतिहास दर्शन एवं साधना प्रणाली – डॉ कल्याणी मलिक
गोरक्षनाथ एंड कनफटा योगीज – ब्रिग्स
योगवाणी फरवरी 1977
नाथ और संत साहित्य तुलनात्मक अध्ययन – डॉ नागेंद्रनाथ उपाध्याय
गोरखनाथ का जीवन परिचय, रचनाएं, जन्म के बारे में विभिन्न मत, गोरखनाथ के बारे में साहित्यकारों के विभिन्न मत एवं गोरखनाथ जी की उक्तियाँ आदि की जानकारी।
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सिद्ध सरहपा Siddh Sarhapa : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सिद्ध सरहपा Siddh Sarhapa प्रथम हिन्दी कवि के व्यक्तित्व एवं कृतित्व, जीवन परिचय, रचनाएं, भाषा शैली, 84 सिद्धों के नाम एवं प्रमुख कथन
हिंदी साहित्य का आरंभिक कवि सरहपा को माना जाता है।
यह 84 सिद्धों में प्रथम माने जाते हैं।
सरहपा के बारे में चर्चा करने से पहले सिद्ध संप्रदाय की संक्षिप्त जानकारी आवश्यक है।
सामान्य रूप से जब कोई साधक साधना में प्रवीण हो जाता है और विलक्षण सिद्धियां प्राप्त कर लेता है तथा उन सिद्धियों से चमत्कार दिखाता है, उसे सिद्ध कहते हैं।
प्रथम हिन्दी कवि-सिद्ध सरहपा
लगभग आठवीं शताब्दी में बौद्ध धर्म से सिद्ध संप्रदाय का विकास हुआ था।
बहुत संप्रदाय विघटित होकर दो शाखाओं- हीनयान तथा महायान में बँट गया।
कालांतर में महायान पुनः दो उपशाखाओं में विभाजित हुआ-
(क) वज्रयान
(ख) सहजयान
इन्हीं शाखाओं के अनुयाई साधकों को सिद्ध कहा गया है।
वज्रयानियों का केंद्र श्री पर्वत रहा है।
सिद्धों के समय को लेकर विद्वानों में मतभेद है।
महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने सिद्धों का समय सातवीं शताब्दी स्वीकार किया है।
डॉ रामकुमार वर्मा ने इनका समय संवत् 797 से 1257 तक माना है।
जबकि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इनका समय दसवीं शताब्दी स्वीकार किया है।
सिद्धों की संख्या
संख्या 84 मानी जाती है।
तंत्र साधना में 84 का गूढ़ तांत्रिक अर्थ तथा विशेष महत्व होता है।
योग तथा तंत्र में आसन भी 84 माने गए हैं।
84 सिद्धों का संबंध 84 लाख योनियों से भी माना जाता है।
काम शास्त्र में 84 आसन भी स्वीकार किए गए हैं।
हिंदी साहित्य कोश के अनुसार 12 राशियों तथा 7 नक्षत्रों का गुणनफल भी 84 होता है।
उस समय प्रत्येक संप्रदाय 84 की संख्या को महत्व देता था।
सिद्धों का 84 ही होने का कोई पुष्ट प्रमाण नहीं मिलता है।
डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा उपलब्ध करवाई गई 84 सिद्धों की सूची इस प्रकार है-
डॉ रामकुमार वर्मा सरहपा को हिंदी का प्रथम कवि स्वीकार करते हुए, उनकी कविता में हिंदी कविता के आदि रूप का अस्तित्व स्वीकार किया है। उनके मत से अन्य प्रमुख साहित्यकार भी सहमत नजर आते हैं।
प्रथम हिन्दी कवि-सिद्ध सरहपा व्यक्तित्व एवं कृतित्व
सरहपा सिद्धों में प्रथम सिद्ध माने जाते हैं। इन्होंने ही सिद्ध संप्रदाय का प्रवर्तन किया।
कतिपय विद्वान मानते हैं कि सरहपा ने ही महामुद्रा साधना का प्रथम अभ्यास किया तथा इसमें सिद्धि प्राप्त की।
सरहपा के जन्म तथा मृत्यु के विषय में पर्याप्त जानकारी का अभाव है लेकिन कुछ साक्ष्यों के आधार पर उनके समय का अनुमान लगाया जाता है।
डॉ राहुल सांकृत्यायन के मतानुसार सरहपा आठवीं शताब्दी (769) के लगभग वर्तमान थे।
डॉ ग्रियर्सन, शिव सिंह सेंगर, मिश्र बंधु,चंद्रधर शर्मा गुलेरी, हजारी प्रसाद द्विवेदी तथा डॉ रामकुमार वर्मा राहुल जी से दूर तक सहमत हैं।
सरहपा के कई नाम सरोरुह, वज्र, सरोवज्र, पद्म, पद्मवज्र तथा राहुलभद्र आदि मिलते हैं।
सिद्धि प्राप्त करने से पूर्व इनका नाम राहुल भद्रथा, बाद में सरहपा हुआ।
तिब्बत में प्रचलित के किंवदंती के अनुसार सरहपा का जन्म उड़ीसा में हुआ था।
डॉ राहुल सांकृत्यायन ‘दोहाकोश’ की भूमिका में सरहपा का जन्म स्थान राज्ञी नामक गांव को माना है, परंतु वर्तमान में इस नाम का कोई गांव नहीं है।
विद्वानों का मत है कि यह गांव शायद बिहार के भागलपुर के आस-पास रहा होगा।
इन्हे वेद वेदांगों में बचपन से ही विशेष रुचि थी।
मध्यप्रदेश में इन्होंने त्रिपिटकों का अध्ययन किया और बौद्ध धर्म में दीक्षित होकर नालंदा आ गए, वहां से महाराष्ट्र पहुंचे और महामुद्रा योग में सिद्धि प्राप्त कर सिद्ध कहलाए।
सरहपा और उनके समकालीन साहित्य पर अनेक विद्वानों ने शोध कार्य किया है जिनमें मिशेल, हरमन याकोबी, चन्द्रमोहन घोष, महामहोपाध्याय पण्डित विधुशेखर शास्त्री, महामहोपाध्याय पं. हरप्रसाद शास्त्री, डॉ. प्रबोधचन्द्र बागची, मुनि जिनविजय, डॉ शहीदुल्ला, महापण्डित राहुल सांकृत्यायन आदि मुख्य हैं।
इनके प्रयासों से ही आज इस काल का साहित्य थोड़ा बहुत हमें उपलब्ध है।
सिद्ध सरहपा Siddh Sarhapa की रचनाएं
सरहपा ने लगभग 32 ग्रंथों की रचना कीजिनमें से दोहाकोश इनकी श्रेष्ठ रचना मानी जाती है।
दोहाकोश की भूमिका में राहुल सांकृत्यायन ने 7 कृतियों की एक सूची दी है, जिन्हें सरहपा की रचनाएं कहा जा सकता है।
इसके अतिरिक्त दोहाकोश की भूमिका में ही राहुल जी ने सरहपा की संभावित 16 अन्य कविताओं की सूची भी दी है।
सिद्ध सरहपा Siddh Sarhapa के लिए प्रमुख कथन
“आज की भाषा में अबनार्मल प्रतिभा के धनी थे मूड आने पर वह कुछ गुनगुनाने लगते। शायद उन्होंने स्वयं इन पदों को लेखबद्ध नहीं किया। यह काम उनके साथ रहने वाले सरह के भक्तों ने किया। यही कारण है, जो ‘दोहा-कोश के छन्दों के क्रम और संख्या में इतना अन्तर मिलता है। सरह जैसे पुरुष से यह आशा नहीं रखनी चाहिए कि वह अपनी धर्म की दूकान चलाएगा, पर, आगे वह चली और खूब चली, इसे कहने की आवश्यकता नहीं।” –महापंडित राहुल सांकृत्यायन
“जब उन्हें वहाँ का जीवन दमघोंटू लगने लगा, तो उन्होंने सब कुछ को लात मारी, भिक्षुओं का बाना छोड़ा, अपनी नहीं, किसी दूसरी छोटी जाति की तरुणी को लेकर खुल्लमखुल्ला सहजयान का रास्ता पकड़ा।” –महापंडित राहुल सांकृत्यायन
“सिद्ध-सामंत युग की कविताओं की सृष्टि आकाश में नहीं हुई है वे हमारे देश की ठोस धरती की उपज हैं। इन कवियों ने जो खास-खास शैली भाव को लेकर कविताएँ की, वे देश की तत्कालीन परिस्थितियों के कारण ही।” –महापंडित राहुल सांकृत्यायन
“आक्रोश की भाषा का पहला प्रयोग सरहपा में ही दिखाई देता है।“ –डॉ. बच्चन सिंह