राजस्थान का एकीकरण, राजस्थान का इतिहास, राजस्थान का निर्माण, राजस्थान की प्रमुख रियासतें, Rajasthan ka Ekikaran, एकीकरण के सात चरण। इन सातों चरणों का विवरण इस प्रकार है-
प्रथम चरण : राजस्थान का एकीकरण Rajasthan ka Ekikaran
मत्स्य संघ 18 मार्च, 1948 ई.
मत्स्य संघ – अलवर, भरतपुर, धौलपुर, करौली व नीमराणा ठिकाना (4+1)
सिफारिश – के. एम. मुन्शी की सिफारिश पर प्रथम चरण का नाम मत्स्य संघ रखा गया ।
राजधानी – अलवर
राजप्रमुख – उदयभान सिंह ( धोलपुर)।
उपराजप्रमुख – गणेशपाल देव (करौली)।
प्रधानमंत्री – शोभाराम कुमावत (अलवर)।
उप-प्रधानमंत्री – युगल किशोर चतुर्वेदी व गोपीलाल यादव ।
द्वितीय चरण : राजस्थान का एकीकरण Rajasthan ka Ekikaran
राजस्थान संघ – 25 मार्च, 1948 ई.
राजस्थान संघ/पूर्व राजस्थान – डूंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़, शाहपुरा, किशनगढ़, टोंक, बूंदी, कोटा, झालावाड़ व कुशलगढ़ ठिकाना (9+1)
राजधानी – कोटा
राजप्रमुख – भीमसिंह (कोटा)
उप राजप्रमुख – लक्ष्मण सिंह (डूंगरपुर)
प्रधानमंत्री – गोकुल लाल असावा (शाहपुरा)
उद्घाटनकर्ता – एन.वी. गाॅडगिल
उद्घाटन – दूसरे चरण का उद्घाटन कोटा दुर्ग में किया गया
तृतीय चरण
संयुक्त राजस्थान – 18 अप्रैल, 1948 ई.
संयुक्त राजस्थान = राजस्थान संघ + उदयपुर (10+1)
राजधानी – उदयपुर
राजप्रमुख – भूपालसिंह (मेवाड)
उप-राजप्रमुख – भीमसिंह (कोटा)
प्रधानमंत्री – माणिक्यलाल वर्मा (मेवाड)
सिफारिश – पंडित जवाहरलाल नेहरू की सिफारिश पर माणिक्यलाल वर्मा को संयुक्त राजस्थान का प्रधानमंत्री बनाया गया ।
उद्घाटनकर्ता – पण्डित जवाहरलाल नेहरू
उद्घाटन – तीसरे चरण का उद्घाटन कोटा दुर्ग में किया गया
चतुर्थ चरण
वृहत् राजस्थान – 30 मार्च, 1949 ई.
वृहत् राजस्थान = संयुक्त राजस्थान + जयपुर, जोधपुर, जैसलमेर व बीकानेर + लावा ठिकाना (11+5)
राजधानी – जयपुर
सिफारिश – श्री पी. सत्यनारायण राव समिति की सिफारिश पर जयपुर को राजधानी बनाया गया राजस्थान के एकीकरण की प्रक्रिया के दोरान राज्य की राजधानी के मुद्दे को सुलझाने के लिए बी आर. पटेल की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया था।
महाराज प्रमुख – भूपाल सिंह (मेवाड)
राजप्रमुख – मानसिंह द्वितीय (जयपुर)
उपराजप्रमुख – भीमसिंह (कोटा)
प्रधानमंत्री – हीरालाल शास्त्री( जयपुर)
उद्घाटनकर्ता – सरदार वल्लभ भाई पटेल
न्याय का विभाग – जोधपुर
शिक्षा का विभाग – बीकानेर
वन विभाग – कोटा
कृषि विभाग – भरतपुर
खनिज विभाग – उदयपुर
पंचम चरण
वृहत्तर राजस्थान ( संयुक्त वृहत्त राजस्थान) 15 मई, 1949 ई.
वृहत्तर राजस्थान = वृहत् राजस्थान + मत्स्य संघ ( 16+4 )
सिफारिश – शंकरराव देव समिति की सिफारिश पर मत्स्य संघ को वृहत्तर राजस्थान में मिलाया गया।
राजधानी – जयपुर
महाराज प्रमुख – भूपालसिंह (मेवाड)।
राज प्रमुख – मानसिंह द्वितीय (जयपुर)।
प्रधानमंत्री – हीरालाल शास्त्री (जयपुर)।
उद्घाटनकर्ता – सरदार वल्लभ भाई पटेल।
षष्ठ चरण
राजस्थान संघ 26 जनवरी, 1950 ई.
राजस्थान संघ = वृहत्तर राजस्थान + सिरोही, आबू दिलवाडा (20+3)
राजधानी – जयपुर
महाराज प्रमुख – भूपालसिंह
राजप्रमुख – मानसिंह द्वितीय
प्रधानमंत्री/मुख्यमंत्री – हीरालाल शास्त्री
26 जनवरी 1950 ई. को राजस्थान को बी श्रेणी में शामिल किया गया
26 जनवरी 1950 ई. को राजपूताना का नाम बदलकर राजस्थान रख दिया गया।
सप्तम चरण
वर्तमान राजस्थान 1 नवम्बर, 1956 ई.
वर्तमान राजस्थान = राजस्थान संघ + आबू दिलवाड़ा + अजमेर मेरवाड़ा + सुनेल टप्पा – सिरोंज क्षेत्र
राजधानी – जयपुर
सिफारिश – राज्य पुनर्गठन आयोग (अध्यक्ष-फजल अली) की सिफारिश पर अजमेर मेरवाड़ा, आबू दिलवाडा व सुनेल टप्पा को वर्तमान राजस्थान में मिलाया गया।
राजस्थान के झालावाड़ का सिरोंज क्षेत्र मध्यप्रदेश में मिला दिया गया।
•रसरहस्य(1670):- कुलपति मिश्र
•भावविलास(1689):- देव
•अष्टयाम:- देव
•शब्दरसायन/काव्यरसायन:- देव
•सुखसागरतरंग:- देव
•जातिविलास:- देव
•प्रेमतरंग:- देव
•रसपीयूषनिधि(1737):- सोमनाथ
•श्रृंगारविलास:- सोमनाथ
•रससारांश:- भिखारीदास
•श्रृंगारनिर्णय:- भिखारीदास
•रसिकानंद:-ग्वाल
•रसतरंग:-ग्वाल
•बलवीर विनोद:- ग्वाल
•सुधानिधि(1634):- तोष
राघवयादवीयम् ग्रन्थ जिसे अनुलोम-विलोम काव्य भी कहा जाता है। 17वीं शताब्दी में कवि वेंकटाध्वरि की रचना एवं अति दुर्लभ ग्रन्थ। राघवयादवीयम् ग्रन्थ अनुलोम-विलोम-काव्य वेंकटाध्वरि
*अति दुर्लभ एक ग्रंथ ऐसा भी है हमारे सनातन धर्म मे*
इसे तो सात आश्चर्यों में से पहला आश्चर्य माना जाना चाहिए
यह है दक्षिण भारत का एक ग्रन्थ – राघवयादवीयम्
क्या ऐसा संभव है कि जब आप किताब को सीधा पढ़े तो राम कथा के रूप में पढ़ी जाती है
और जब उसी किताब में लिखे शब्दों को उल्टा करके पढ़े तो कृष्ण कथा के रूप में होती है ।
जी हां, कांचीपुरम के 17वीं शदी के कवि वेंकटाध्वरि रचित ग्रन्थ “राघवयादवीयम्” ऐसा ही एक अद्भुत ग्रन्थ है।
‘अनुलोम-विलोम काव्य’
इस ग्रन्थ को ‘अनुलोम-विलोम काव्य’ भी कहा जाता है।
पूरे ग्रन्थ में केवल 30 श्लोक हैं।
इन श्लोकों को सीधे-सीधे पढ़ते जाएँ, तो रामकथा बनती है और विपरीत (उल्टा) क्रम में पढ़ने पर कृष्णकथा।
इस प्रकार हैं तो केवल 30 श्लोक, लेकिन कृष्णकथा (उल्टे यानी विलोम) के भी 30 श्लोक जोड़ लिए जाएँ तो बनते हैं 60 श्लोक।
पुस्तक के नाम से भी यह प्रदर्शित होता है, राघव (राम) + यादव (कृष्ण) के चरित को बताने वाली गाथा है ~ “राघवयादवीयम।”
अर्थातः
मैं उन भगवान श्रीराम के चरणों में प्रणाम करता हूं, जो
जिनके ह्रदय में सीताजी रहती है तथा जिन्होंने अपनी पत्नी सीता के लिए सहयाद्री की पहाड़ियों से होते हुए लंका जाकर रावण का वध किया तथा वनवास पूरा कर अयोध्या वापिस लौटे।
अर्थातः
मैं रूक्मिणी तथा गोपियों के पूज्य भगवान श्रीकृष्ण के
चरणों में प्रणाम करता हूं, जो सदा ही मां लक्ष्मी के साथ
विराजमान है तथा जिनकी शोभा समस्त जवाहरातों की शोभा हर लेती है।
“राघवयादवीयम” के ये 60 संस्कृत श्लोक इस प्रकार हैं
इन्क्रेडिबल इंडिया: सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय जैसी सांस्कृतिक विरासत का महत्त्व एवं ऐतिहासिक योगदान के बारे में जानकारी
असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मामृतं गमय।।
बृहदारण्यकोपनिषद् का उक्त वाक्य भारतीय ज्ञान और ज्ञान प्राप्ति की तीव्र उत्कंठा को दर्शाता है।
विश्व के ज्ञात इतिहास को परखे तो पता चलता है कि विश्व में केवल भारत ही वह पुण्य भूमि है जहां ज्ञान की उत्पत्ति हुई और ज्ञान को सर्वोपरि महत्त्व दिया गया प्राचीन भारत में अनेक विश्वविद्यालय थे,
जो ज्ञान का केंद्र बिंदु थे अनेक ज्ञात विश्वविद्यालयों की सूची में तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय का नाम एक स्वर्णिम अध्याय के रूप में जुड़ चुका है।
तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय की उपस्थिति भारत को जगद्गुरु और ज्ञान का केंद्र बिंदु सिद्ध करने में एक और अध्याय जोड़ता है।
इस विश्वविद्यालय के भग्नावशेषों से यह सिद्ध हो जाता है कि प्राचीन भारत में शिक्षा की एक सुदीर्घ और सुव्यवस्थित प्रणाली विकसित हो चुकी थी, जिसकी कीर्ति भारत ही नहीं वरन् उसके बाहर भी दूर-दूर तक थी।
यह विश्वविद्यालय नालंदा विश्वविद्यालय और विक्रमशिला विश्वविद्यालय से लगभग 300 से 400 वर्ष प्राचीन है
जिसके अवशेष 2014 में बिहार के नालंदा जिले में एकंगरसराय उपखण्ड के तेल्हाड़ा ग्राम में उत्खनन के दौरान प्राप्त हुए हैं।
काल निर्धारण : तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय सांस्कृतिक विरासत इन्क्रेडिबल इंडिया
बिहार पुरातत्व विभाग के अनुसार इस स्थल की सर्वप्रथम खोज वर्ष 1872 में एस. ब्रोडले ने की थी।
ब्रोडले ने इस स्थल के लिए तिलास-अकिया शब्द का प्रयोग किया है।
इसकी पुष्टि यहां से प्राप्त तीन प्रकार की ईंटों से भी हो जाती है।
सबसे बड़े आकार की ईंटें कुषाण कालीन है जिनका आकार 42*32*6 सेमी. है, जो इस महाविहार में सबसे नीचे प्राप्त हुई है।
इसके ऊपर गुप्तकालीन ईंटें हैं जिनका आकार 36*28*5 सेमी. है।
इसके ऊपर पालकालीन ईंटों की चिनाई है जिनका आकार 32*28*5 सेमी. है ईंटों के आकार और चिनाई से ज्ञात होता है कि इस महाविहार का जीर्णोद्धार विभिन्न राजवंशों ने करवाया था।
कुषाण कालीन इंटों का सबसे नीचे मिलने का अर्थ है महाविहार का प्रारंभिक निर्माण कुषाण शासकों द्वारा करवाया गया था,
जबकि नालंदा विश्वविद्यालय गुप्तकालीन (चौथी शताब्दी ईस्वी) है और विक्रमशिला विश्वविद्यालय (सातवीं शताब्दी ईस्वी) पाल शासकों की देन है,
अतः कालक्रम की दृष्टि से देखें तो तेल्हाड़ा महाविहार (विश्वविद्यालय) नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय से प्राचीन सिद्ध होता है।
उत्खनन में प्राप्त सामग्री : तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय सांस्कृतिक विरासत इन्क्रेडिबल इंडिया
उत्खनन में महाविहार के भग्नावशेषों के साथ-साथ अनेक सील और सीलिंग (मुहरें) घंटियां, कांस्य प्रतिमाएँ, आंगन, बरामदा, साधना कक्ष, कुएं और नाले के साक्ष्य मिले हैं।
तप में लीन बुद्ध की अस्थिकाय दुर्लभ मूर्ति भी प्राप्त हुयी है जो एक सील (मुहर) पर उत्कीर्ण है।
यहां से प्राप्त अधिकतर सीलें (मुहरें) टेराकोटा (एक विशेष प्रकार की मिट्टी) की बनी हुई हैं।
उत्खनन में प्राप्त एक मोहर पर पालि में लिखे लेख को पढ़ने में कोलकाता विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉ. एस. सान्याल ने सफलता प्राप्त की है।
उनके अनुसार मुहर पर उत्कीर्ण लेख में वर्णित जानकारी के अनुसार इस महाविहार का वास्तविक नाम तिलाधक, तेलाधक्य या तेल्हाड़ा नहीं वरन श्री प्रथम शिवपुर महाविहार है।
चीनी यात्री ह्वेनसांग तथा इत्सिंग ने भी अपने वृतांतों में इस महाविहार का उल्लेख किया है।
ह्वेनसांग और इत्सिंग ने इसका उल्लेख तीलाधक नाम से किया है।
ह्वेनसांग और इत्सिंग के अनुसार यह महाविहार अपने समय का उच्च कोटि का सुंदर, विशिष्ट और श्रेष्ठ महाविहार था।
महाविहार में तीन मंजिला मंडप के साथ-साथ तीन मंदिर, अनेक तोरणद्वार, मीनार और घंटिया होती थीं।
चीनी यात्रियों के कथन की पुष्टि उत्खनन में प्राप्त अवशेषों से होती है।
चरमोत्कर्ष एवं पतन : तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय सांस्कृतिक विरासत इन्क्रेडिबल इंडिया
प्राचीन भारत ज्ञान विज्ञान अध्यात्म धर्म दर्शन आदि सभी विधाओं में अत्यंत समृद्ध था।
वैदिक वांग्मय उक्त कथन का पुष्ट प्रमाण है।
बौद्धकाल आते-आते भारतीय ज्ञान-विज्ञान की ख्याति सुदूर देशों तक फैल गई, जिसका प्रमाण प्राचीन भारत के शिक्षा केंद्र के रूप में स्थापित महाविहार (विश्वविद्यालय), उन में पढ़ने वाले असंख्य देशी-विदेशी छात्र और शिक्षक हैं।
तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय अपनी स्थापना (प्रथम शताब्दी ईस्वी) के कुछ वर्षों बाद ही प्रसिद्धि को प्राप्त करने लगा था।
ह्वेनसांग के वृतांत के अनुसार सातवीं शताब्दी तक तेल्हाड़ा महाविहार में सात मठ तथा शिक्षकों के लिए अलग-अलग कक्ष थे।
इस महाविहार में लगभग 1000 बौद्ध भिक्षु महायान संप्रदाय की शिक्षा ग्रहण करते थे।
ह्वेनसांग और इत्सिंग के वृत्तांतों से सिद्ध होता है कि यह महाविहार बौद्ध शिक्षा का प्रसिद्ध केंद्र था
जो कि मुख्यतः बौद्ध धर्म की हीनयान शाखा को समर्पित था।
11 वीं शताब्दी ईस्वी तक तेल्हाड़ा महाविहार की प्रसिद्धि चरमोत्कर्ष पर थी।
कभी-कभी किसी स्थान की समृद्धि ही उसके पतन का कारण बन जाती है।
ऐसा ही भारत और उसके ज्ञान विज्ञान के साथ हुआ है।
मुस्लिम आक्रांताओं के आक्रमण सातवीं शताब्दी से ही शुरू हो गए थे परंतु 10 वीं शताब्दी तक भारतीय शासकों ने उनसे कड़ा संघर्ष किया 11वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में भारतीय शक्ति क्षीण होने लगी इस्लामी के आक्रांताओं ने साम-दाम-दंड-भेद की नीति का अनुसरण किया और एक के बाद एक प्रदेशों को जीते चले गये।
तेल्हाड़ा के उत्खनन में महाविहार की दीवारों पर अग्नि के साक्ष्य और राख की एक फुट मोटी परत मिली है।
इसी के आधार पर विशेषज्ञों का मानना है कि-
1192 में तुर्क आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी ने ओदंतपुरी की विजय के दौरान मनेर से दक्षिण की ओर तेल्हाड़ा की ओर प्रस्थान किया था।
उसने नालंदा विहार की तरह यहां भी बहुत आतंक मचाया और यहां के शिक्षकों और शिक्षार्थियों का वध कर महाविहार में आग लगा दी जिसके कारण इसका पतन हो गया।
विशेषज्ञों का मत –
बिहार के कला संस्कृति और युवा विभाग के सचिव आनंद किशोर का दावा है, ”तेल्हाड़ा में 100 से ज्यादा ऐसी चीजें मिली हैं, जो साबित करती हैं कि तेल्हाड़ा में प्राचीन विश्वविद्यालय के अवशेष हैं. यहां कुषाणकालीन ईंट और मुहरें मिली हैं, जिनके पहली शताब्दी में बने होने का प्रमाण मिलता है. ध्यान देने वाली बात है कि नालंदा को चौथी और विक्रमशिला को आठवीं शताब्दी का विश्वविद्यालय माना जाता है।”
बिहार पुरातत्व विभाग के निदेशक डॉ. अतुल कुमार वर्मा की माने तो संभवतः तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय बिहार का प्रथम विश्वविद्यालय था।
प्राचीन भारत के अन्य विश्वविद्यालयों की तरह तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय कि सभी व्यवस्थाएं भी शासकों द्वारा प्राप्त दान अथवा उनके द्वारा दान में दिए ग्रामों से प्राप्त आय के द्वारा ही होती थी।
विद्यार्थियों की शिक्षा, आवास, भोजन, चिकित्सा इत्यादि सभी नि:शुल्क थे।
बिहार विरासत समिति के सचिव डॉ. विजय कुमार चौधरी कहते हैं, ”बिहार में ऐसे पुरातात्विक साक्ष्य भरे पड़े हैं. राज्य में पुरातात्विक स्थलों के सर्वेक्षण में 6,500 साइटें मिली हैं.
उनमें कई महत्वपूर्ण महाविहार हैं. तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय का अवशेष उसी कड़ी का हिस्सा है।
भविष्य की योजना-
तेल्हाड़ा को विश्व पटल पर लाने के लिए बिहार सरकार ने 28 करोड़ की लागत से तेल्हाड़ा मैं एक म्यूजियम की योजना तैयार की है।
म्यूजियम के साथ-साथ तेल्हारा विद्यालय के लिए एक मास्टर प्लान भी तैयार करने की योजना है
जिसमें तेल्हाड़ा की खुदाई के साथ ही उसे यूनेस्को की वर्ल्ड हेरिटेज साइट में शामिल कराने के लिए आवश्यक प्रपत्र तैयार करने से संबंधित विषय भी शामिल किये जाएंगे।
इन्क्रेडिबल इंडिया: सबसे प्राचीन विश्वविद्यालय तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय जैसी सांस्कृतिक विरासत का महत्त्व एवं ऐतिहासिक योगदान के बारे में जानकारी
नीति आयोग के उपाध्यक्ष डॉ० अरविंद पनगढिय़ा
प्राचीन तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय के खंडहर का अवलोकन कर इसे इन्क्रेडिबल इंडिया – अतुल्य भारत में शामिल करने कि बात की है।
अतः निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि प्राचीन भारत वास्तव में जगद्गुरु था।
भारत ने ही विश्व को ज्ञान की प्रथम किरण दिखाई थी और हमारे पूर्वजों ने ही संपूर्ण विश्व में ज्ञान का प्रकाश फैलाया था।
हमें गर्व है अपने गौरवशाली स्वर्णिम अतीत तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय पर।
आइए भारतीय होने पर स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करें और अपनी सांस्कृतिक विरासत पर गर्व करें।
हिन्दी साहित्य काल विभाजन एवं कालखण्डों के नामकरण तथा हिंदी साहित्य में प्रचलित काल विभाजन और नामकरण की संपूर्ण जानकारी
“प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य-परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ‘साहित्य का इतिहास’ कहलाता है।” (आ.शुक्ल)
पूर्व काल में घटित घटनाओं, तथ्यों का विवेचन, विश्लेषण एवं मूल्यांकन इतिहास में किया जाता है, और साहित्य में मानव-मन एवं जातीय जीवन की सुखात्मक दुखात्मक ललित भावनाओं की अभिव्यक्ति इस प्रकार की जाती है कि वे भाव सर्वसामान्य के भाव बन जाते हैं।
इससे स्पष्ट होता है कि, विभिन्न परिस्थितियों अनुसार परिवर्तित होने वाली जनता की सहज चित्तवृत्तियों की अभिव्यक्ति साहित्य में की जाती है जिससे साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता रहता है।
विभिन्न परिस्थितियों के आलोक में साहित्य के इसी परिवर्तनशील प्रवृत्ति और साहित्य में अंतर्भूत भावाभिव्यक्ति को प्रस्तुत करना ही साहित्येतिहास कहलाता है।
हिन्दी साहित्य काल विभाजन
आज साहित्य का अध्ययन एवं विश्लेषण केवल साहित्य और साहित्यकार को केंद्र में रखकर नहीं किया जा सकता बल्कि साहित्य का भावपक्ष, कलापक्ष, युगीन परिवेश, युगीन चेतना, साहित्यकार की प्रतिभा, प्रवृत्ति आदि का भी विवेचन विश्लेषण किया जाना चाहिए।
अतः कहा जा सकता है कि साहित्येतिहास का उद्देश्य ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्में साहित्य को वस्तु, कला पक्ष, भावपक्ष, चेतना तथा लक्ष्य की दृष्टि से स्पष्ट करना है साहित्य का बहुविध विकास, साहित्य में अभिव्यक्त मानव जीवन की जटिलता, ऐतिहासिक तथ्यों की खोज, अनेक सम्यक अनुशीलन के लिए साहित्येतिहास की आवश्यकता होती है।
“किसी भाषा में उस साहित्य का इतिहास लिखा जाना उस साहित्य की समृद्धि का परिणाम है। साहित्य के इतिहास का लिखा जाना अपनी साहित्यिक निधि की चिंता करना एवं उन साहित्यिकों के प्रति न्याय एवं कृतज्ञता प्रकट करना है जिन्होंने हमारे जातीय एवं राष्ट्रीय जीवन को प्रभावित किया है साहित्य के इतिहास को वह भित्तिचित्र समझिए जिसमें साहित्यिकों के आकृति-चित्र ही नहीं होते, हृदयचित्र और मस्तिष्क-चित्र भी होते हैं। इसके लिए निपुण चित्रकार की आवश्यकता होती है।” (विश्वंभर मानव)
हिन्दी साहित्य का काल विभाजन
जॉर्ज ग्रियर्सन द्वारा किया गया काल – विभाजन :
चारणकाल (700 इ. से 1300 इ. तक)
19 शती का धार्मिक पुनर्जागरण
जयसी की प्रेम कविता
कृष्ण संप्रदाय
मुगल दरबार
तुलसीदास
प्रेमकाव्य
तुलसीदास के अन्य परवर्ती
18 वीं शताब्दी
कंपनी के शासन में हिंदुस्तान
विक्टोरिया के शासन में हिंदुस्तान
इस काल विभाजन में एकरूपता का अभाव है। यह काल विभाजन कहीं कवियों के नाम पर; कहीं शासकों के नाम पर; कहीं शासन तंत्र के नाम पर किया गया है।
इस काल विभाजन में साहित्यिक प्रवृत्तियों और साहित्यिक चेतना का सर्वथा अभाव है।
अनेकानेक त्रुटियां होने के बाद भी काल विभाजन का प्रथम प्रयास होने के कारण ग्रियर्सन का काल विभाजन सराहनीय एवं उपयोगी तथा परवर्ती साहित्येतिहासकारों के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हुआ है।
मिश्र बंधुओं द्वारा किया गया काल-विभाजन :
मिश्र बंधुओं ने अपने साहित्येतिहास ग्रंथ ‘मिश्र बंधु विनोद’ (1913) में नया काल विभाजन प्रस्तुत किया।
यह काल विभाजन भी सर्वथा दोष मुक्त नहीं है, इस काल विभाजन में वैज्ञानिकता का अभाव है परंतु यह काल विभाजन ग्रियर्सन के काल विभाजन से कहीं अधिक प्रौढ़ और विकसित है-
प्रारंभिक काल (सं. 700 से 1444 विक्रमी तक)
माध्यमिक काल (सं. 1445 से 1680 विक्रमी तक)
अलंकृत काल (सं. 1681 से 1889 विक्रमी तक)
परिवर्तन काल (सं. 1890 से 1925 विक्रमी तक)
वर्तमान काल (सं. 1926 से अब तक)
आ. रामचंद्र शुक्ल द्वारा किया गया काल विभाजन :
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ (1929) में हिंदी साहित्य के इतिहास का नवीन काल विभाजन प्रस्तुत किया, यह काल विभाजन पूर्ववर्ती काल विभाजन से अधिक सरल, सुबोध और श्रेष्ठ है।
आचार्य शुक्ल द्वारा किया गया काल विभाजन वर्तमान समय तक सर्वमान्य है-
आदिकाल (वीरगाथा काल, सं. 1050 से 1375 विक्रमी तक)
पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल, सं. 1375 से 1700 विक्रमी तक)
उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल, सं. 1700 से 1900 विक्रमी तक)
आधुनिक काल (गद्य काल, सं. 1900 से आज तक)
डॉ. रामकुमार वर्मा द्वारा किया गया काल-विभाजन :
डॉ रामकुमार वर्मा ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ में काल विभाजन हेतु आचार्य शुक्ल का अनुसरण करते हुए अपना काल विभाजन प्रस्तुत किया है
कालविभाजन के अंतिम चार खंड तो आ. शुक्ल के समान ही है, लेकिन वीरगाथा काल को चारण काल नाम देकर इसके पूर्व एक संधिकाल और जोडकर हिंदी साहित्य का आरंभ सं. 700 से मानते हुए काल-विभाजन प्रस्तुत किया है।
आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आ. शुक्ल जी के काल-विभाजन को ही स्वीकार कर केवल संवत् के स्थान पर ईस्वी सन् का प्रयोग किया है।
द्विवेदीजी ने पूरी शताब्दी को काल विभाजन का आधार बनाकर वीरगाथा की अपेक्षा आदिकाल नाम दिया है।
आदिकाल (सन् 1000 ई. से 1400 ई. तक)
पूर्व मध्यकाल (सन् 1400 ई. से 1700 ई. तक)
उत्तर मध्यकाल (सन् 1700 ई. से 1900 ई. तक)
आधुनिक काल (सन् 1900 ई. से अब तक)
बाबू श्यामसुन्दर दास द्वारा किया गया काल-विभाजन:
बाबू श्यामसुन्दर दास द्वारा किया गया काल-विभाजन आ. शुक्ल के काल-विभाजन से साम्य रखता है।
दोनों के काल विभाजन में कोई अधिक भिन्नता नहीं है का काल-विभाजन इस प्रकार है-
आदिकाल (वीरगाथा का युग संवत् 1000 से संवत् 1400 तक)
पूर्व मध्य युग (भक्ति काल युग, संवत् 1400 से संवत् 1700 तक)
उत्तर मध्ययुग (रीति ग्रन्थों का युग, संवत् 1700 से, संवत् 1900 तक)
आधुनिक युग (नवीन विकास का युग, संवत् 1900 से अब तक)
डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त द्वारा किया गया काल-विभाजन:
डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने अपने ग्रन्थ ‘हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास’ में शुक्ल जी के काल विभाजन का ही समर्थन किया है। उनका काल-विभाजन इस प्रकार है-
प्रारम्भिक काल (1184 – 1350 ई.)
पूर्व मध्यकाल (1350 – 1600 ई.)
उत्तर मध्यकाल (1600 – 1857 ई.)
धुनिक काल (1857 ई. अब तक)
डॉ. नगेंद्र द्वारा किया गया काल-विभाजन :
आदिकाल (7 वी सदी के मध्य से 14 वीं शती के मध्यतक)
भक्तिकाल (14 वीं सदी के मध्य से 17 वीं सदी के मध्यतक)
रीतिकाल (17 वीं सदी के मध्य से 19 वीं शती के मध्यतक)
“घर बालक की प्रथम पाठशाला और माता-पिता उसके प्रथम शिक्षक होते हैं।”
उक्त कथन पूर्ण सत्य है बालक अपना पहला ज्ञान अपने परिवार और परिजनों से ही लेता है और उसके बाद ही वह समाज में प्रवेश करता है।
समाज में प्रवेश करके वह समाज के बारे में प्रयोगात्मक ज्ञान प्राप्त करता है
लेकिन इसके बाद भी उसे ज्ञान प्राप्ति के लिए विद्यालय और उसके पश्चात महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय की आवश्यकता होती है।
वर्तमान समय में हमें शिक्षा की कितनी आवश्यकता है उस शिक्षा से हम क्या क्या कर सकते हैं,
किस तरह से हम अपने तथा दूसरों के जीवन में परिवर्तन ला सकते हैं।
इसके लिए नेल्सन मंडेला का यह कथन पूर्णतया सार्थक है
“शिक्षा सबसे शक्तिशाली हथियार है जिसका उपयोग आप विश्व को बदलने के लिए कर सकते हैं”।
भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान
विश्व की सबसे प्राचीन और विकसित सभ्यता भारतीय सभ्यता है विश्व के सबसे प्राचीन ग्रंथ वेद है, जो कि ज्ञान का अथाह भंडार है।
प्राचीन काल से ही भारत में शिक्षा का प्रचार प्रसार अत्यंत व्यापक था।
वेदो के अध्ययन से हमें पता चलता है कि प्राचीन काल में भारत में सभी वर्गों को शिक्षा प्राप्ति का अधिकार था
प्राचीन समय में भारत में गुरुकुल पद्धति से शिक्षा दी जाती थी।
विद्यार्थी अपने गुरु के पास जाकर शिक्षा ग्रहण करते थे और शिक्षा पूर्ण होने पर ही अपने घर लौटते थे।
यह पद्धति अत्यंत कठिन थी परंतु इससे प्राप्त ज्ञान जीवन को बदलने वाला था
प्राचीन भारतीय शिक्षा का उद्देश्य केवल परीक्षाएं पास करवाकर डिग्रियां बांटना नहीं था बल्कि सीखे हुए ज्ञान को जीवन में धारण करना तथा यथा समय उसका प्रयोग किया जा सके शिष्य को इस योग्य बनाया जाना था।
भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान
आज से लगभग 2700 वर्ष पूर्व भारत में विश्व का पहला विश्वविद्यालय स्थापित किया गया।
यह विश्वविद्यालय तक्षशिला नामक स्थान पर स्थापित किया गया था।
इसके बाद लगभग 2300 वर्ष पूर्व नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना की गई।
यह दोनों ही विश्वविद्यालय वेद वेदांग के अतिरिक्त ज्ञान-विज्ञान, तकनीकी, गणित खगोल, भौतिकी, राजनीति शास्त्र, अर्थशास्त्र, नीति शास्त्र, व्याकरण आदि अनेक विषयों के लिए प्रसिद्ध थे।
इन्ही विश्वविद्यालयों में प्रसिद्ध भारतीय विद्वानों, जैसे- चरक, सुश्रुत, आर्यभट्ट, चाणक्य, पतंजलि आदि ने ज्ञान प्राप्त किया और ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों, जैसे- गणित, खगोल विज्ञान, भौतिकी, रसायन शास्त्र, चिकित्सा विज्ञान और शल्य चिकित्सा इत्यादि में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
सभी प्रकार के स्वास्थ्य और विज्ञान में भारतीयों का स्थान प्रथम है
यथा- आचार्य कणाद परमाणु संरचना पर सर्वप्रथम प्रकाश डालने वाले महापुरूष थे।
कणाद का कहना था– “यदि किसी पदार्थ को बार-बार विभाजित किया जाए और उसका उस समय तक विभाजन होता रहे, जब तक वह आगे विभाजित न हो सके, तो इस सूक्ष्म कण को परमाणु कहते हैं। परमाणु स्वतंत्र रूप से नहीं रह सकतेI परमाणु का विनाश कर पाना भी सम्भव नहीं हैं।”
प्राचीन वैज्ञानिकों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त
बौधायन भारत के प्राचीन गणितज्ञ और शुल्ब सूत्र तथा श्रौतसूत्र के रचयिता थे। उस समय भारत में रेखागणित या ज्यामिति को शुल्व शास्त्र भी कहा जाता था।
सुश्रुत प्राचीन भारत के महान चिकित्साशास्त्री एवं शल्यचिकित्सक थे। उनको शल्य चिकित्सा का जनक कहा जाता है।
चरक एक महर्षि एवं आयुर्वेद विशारद के रूप में विख्यात हैं। वे कुषाण राज्य के राजवैद्य थे। इनके द्वारा रचित चरक संहिता एक प्रसिद्ध आयुर्वेद ग्रन्थ है।
जीवक कौमारभच्च प्राचीन भारत के प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्यथे। अनेक बौद्ध ग्रन्थों में उनके चिकित्सा-ज्ञान की व्यापक प्रशंसा मिलती है। वे बालरोग विशेषज्ञ थे।
आर्यभट प्राचीन भारत के एक महान ज्योतिषविद् और गणितज्ञ थे। इन्होंने आर्यभटीय ग्रंथ की रचना की जिसमें ज्योतिषशास्त्र के अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन है।
वराहमिहिर (वरःमिहिर) ईसा की पाँचवीं-छठी शताब्दी के भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ थे। वाराहमिहिर ने ही अपने पंचसिद्धान्तिका में सबसे पहले बताया कि अयनांश का मान 50.32 सेकेण्ड के बराबर है।
ब्रह्मगुप्त (५९८-६६८) प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ थे। वे तत्कालीन गुर्जर प्रदेश (भीनमाल) के अन्तर्गत आने वाले प्रख्यात शहर उज्जैन (वर्तमान मध्य प्रदेश) की अन्तरिक्ष प्रयोगशाला के प्रमुख थे और इस दौरान उन्होने दो विशेष ग्रन्थ लिखे: ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त (सन ६२८ में) और खण्डखाद्यक या खण्डखाद्यपद्धति (सन् ६६५ ई में)। ये अच्छे वेधकर्ता थे और इन्होंने वेधों के अनुकूल भगणों की कल्पना की है। प्रसिद्ध गणितज्ञ ज्योतिषी, भास्कराचार्य, ने अपने सिद्धांत को आधार माना है और बहुत स्थानों पर इनकी विद्वत्ता की प्रशंसा की है। मध्यकालीन यात्री अलबरूनी ने भी ब्रह्मगुप्त का उल्लेख किया है।
भास्कराचार्य या भास्कर द्वितीय (1114 – 1185) प्राचीन भारत के एक प्रसिद्ध गणितज्ञ एवं ज्योतिषी थे। इनके द्वारा रचित मुख्य ग्रन्थ सिद्धान्त शिरोमणि है जिसमें लीलावती, बीजगणित, ग्रहगणित तथा गोलाध्याय नामक चार भाग हैं। ये चार भाग क्रमशः अंकगणित, बीजगणित, ग्रहों की गति से सम्बन्धित गणित तथा गोले से सम्बन्धित हैं।
भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान
विदेशी आक्रमणों के साथ ही भारतीय शिक्षा पद्धति का प्रभाव भी शुरू हो गया विदेशी आक्रांता ओं ने न सिर्फ भारतीय शिक्षा पद्धति का नाश किया बल्कि अनेक अनेक ग्रंथों विश्वविद्यालयों पुस्तकालय आदि को भी नष्ट कर दिया। अंग्रेजी शासनकाल में मैकाले द्वारा शुरू की गई शिक्षा पद्धति ने भारतीय शिक्षा की रीड की हड्डी ही तोड़ दी।
अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार से भारतीय शिक्षा और ज्ञान विज्ञान अपना प्रभुत्व खोने लगे और उस पर एक नया स्वरूप छाने लगा जिसे पाश्चात्य शिक्षा कहा गया।
कालांतर में भारतीय विद्वानों ने भी इसी पाश्चात्य शिक्षा का अनुसरण किया स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अनेक आयोग तथा समितियां गठित किए गए लेकिन उनमें से किसी ने भी भारतीय शिक्षा पद्धति की तरफ ध्यान नहीं दिया सभी ने पाश्चात्य शिक्षा पद्धति से ही शिक्षा देने का समर्थन किया जो शायद समय की मांग भी थी।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत में शिक्षा से संबंधित आयोग और समितियां (Commissions and Committees related with Education over the years)
विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग या राधा कृष्ण आयोग (1948):
स्वतंत्र भारत का यह पहला शिक्षा आयोग था जो पूर्व राष्ट्रपति शिक्षाविद एवं दार्शनिक डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्ण की अध्यक्षता में गठित हुआ इसके द्वारा क्षेत्र, जाति, लैंगिक विषमता का भेदभाव किए बिना समाज के सभी वर्गों के लिए उच्च शिक्षा को उपलब्ध कराने की अनुशंसा की गई।
मुदालियर आयोग या माध्यमिक शिक्षा आयोग:
डॉ. ए. लक्ष्मण स्वामी मुदलियार की अध्यक्षता में गठित माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952):
समिति ने सम्पूर्ण भारत में एक समान प्रारूप लागू करने,
आउटकम की दक्षता में वृद्धि,
मैट्रिक पाठ्यक्रमों का विविधीकरण,
बहुउद्देशीय मैट्रिक विद्यालयों तथा तकनीकी विद्यालयों की स्थापना की सिफारिश की।
भारतीय शिक्षा आयोग या कोठारी आयोग (1964-66)
डॉ. दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में गठित भारतीय शिक्षा आयोग का गठन 1964 में किया गया
इस आयोग द्वारा – a आंतरिक परिवर्तन b गुणात्मक सुधार और c शैक्षिक सुविधाओं का विस्तार, के आधार पर एक व्यापक पुनर्निर्माण के तीन मुख्य बिंदुओं कि अनुशंसा की गयी।
1968 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति:
कोठारी आयोग की अनुशंसा के आधार पर 1968 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति का निर्माण किया गया।
इसने माध्यमिक विद्यालयों में क्षेत्रीय भाषाओं पर बल देने; संविधान में प्रस्तावित 6-14 वर्ष की आयु वर्गों के बालकों के लिए अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान करने;
अंग्रेजी को विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम बनाने,
हिंदी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्वीकार करने एवं
संस्कृत के विकास को बढ़ावा देने तथा राष्ट्रीय आय का 6 प्रतिशत शिक्षा पर व्यय करने जैसी कई महत्त्वपूर्ण अनुशंसाएं की।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986):
(अद्यतन1992) इसके प्रमुख प्रावधानों में शामिल हैं-
समाज के सभी वर्गों विशेष रूप से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और महिलाओं को शिक्षा की पहुँच सुनिश्चित करना;
निर्धनों के लिए छात्रवृत्ति का प्रावधान,
प्रौढ़ शिक्षा प्रदान करना,
वंचित/पिछड़े वर्गों से शिक्षकों की भर्ती करना और नए विद्यालयों एवं महाविद्यालयों का विकास करना;
छात्रों को प्राथमिक शिक्षा प्रदान करना;
गांधीवादी दर्शन के साथ ग्रामीण लोगों को शिक्षा प्रदान करना;
मुक्त विश्वविद्यालयों की स्थापना करना;
शिक्षा में IT का प्रचार करना;
तकनीकी शिक्षा क्षेत्र को प्रारम्भ करने के अतिरिक्त वृहद स्तर पर निजी उद्यम को बढ़ावा देना।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1992):
भारत सरकार द्वारा 1990 में आचार्य राममूर्ति की अध्यक्षता में 1986 की राष्ट्रीय नीति के परिणामों की समीक्षा करने के लिए एक आयोग का गठन किया गया।
इसकी प्रमुख अनुशंसाओं में शामिल थीं-
केंद्र और राज्य सरकारों को सलाह देने के लिए उच्चतम सलाहकार निकाय के रूप में केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड का गठन;
शिक्षा की गुणवत्ता में वृद्धि पर ध्यान केंद्रित करना;
छात्रों में नैतिक मूल्यों को विकसित करना तथा
जीवन में शिक्षा को आत्मसात करने पर बल देना।
टी एस आर सुब्रमण्यम समिति की प्रमुख सिफारिशें:भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान
फेल नहीं करने की नीति पांचवी कक्षा तक ही लागू होनी चाहिए।। उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को बेहतर बनाने के लिए विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत आने की अनुमति दी जानी चाहिए।
मानव संसाधन के अधीन एक ’भारतीय शिक्षा सेवा’ का गठन किया जाए, (Indian Education Service: IES) का गठन किया जाना चाहिए; शिक्षा पर व्यय GDP का कम से कम 6% तक बढ़ाया जाना चाहिए; मौजूदा B.Ed पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए स्नातक स्तर पर 50% अंकों के साथ न्यूनतम पात्रता शर्त होनी चाहिए; सभी शिक्षकों की भर्ती के लिए शिक्षक पात्रता परीक्षा (Teacher Eligibility Test: TET) अनिवार्य किया जाना चाहिए; सरकार और निजी स्कूलों में शिक्षकों के लिए लाइसेंसिंग या प्रमाणीकरण को अनिवार्य बनाना चाहिए; 4 से 5 वर्ष की आयु वर्ग के बच्चों के लिए पूर्व-विद्यालय शिक्षा को अधिकार के रूप में घोषित किया जाना चाहिए; मिड-डे-मील योजना का विस्तार माध्यमिक विद्यालय तक किया जाए ; भारत में कैंपस खोलने के लिए शीर्ष 200 विदेशी विश्वविद्यालयों को अनुमति दी जानी चाहिए।
नई शिक्षा नीति तैयार करने हेतु कस्तूरीरंगन आयोग (2017) का गठन : भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान
केंद्र सरकार द्वारा एक नई शिक्षा नीति तैयार करने हेतु कस्तूरीरंगन आयोग (2017) का गठन किया गया है।
नई शिक्षा नीति में ध्यान केंद्रित किए जाने वाले प्रमुख बिंदु हैं:
आंगनबाड़ी को प्री-प्राइमरी स्कूल में बदला जायेगा।
राज्य एक साल के भीतर कोर्स बनायेंगे तथा शिक्षकों का अलग कैडर बनायेंगे।
सभी प्राइमरी स्कूल प्री-प्राइमरी स्कूल से सुसज्जित होंगे। आगनबाड़ी केंद्रों को स्कूल कैम्पस में स्थापित किया जायेगा।
नो डिटेंशन अब कक्षा 05 तक होगा।
RTE को 12 वीं तक ले जाया जायेगा।
विज्ञान, गणित तथा अंग्रेजी का समान राष्ट्रीय पाठ्यक्रम होगा।
सामाजिक विज्ञान का एक हिस्सा समान होगा, शेष का निर्माण राज्य करेंगे।
कक्षा 6 से ICT आरंभ होगी।
कक्षा 6 से विज्ञान सीखने के लिए प्रयोगशाला की सहायता ली जायेगी।
गणित, विज्ञान तथा अंग्रेजी के कक्षा 10 हेतु दो लेवल होंगे-A तथा B
ICT का शिक्षण तथा अधिगम सुनिश्चित करने हेतु प्रयोग।
विद्यालय के कार्यों का कम्प्यूटीकरण तथा शिक्षकों-छात्रों की उपस्थिति की ऑनलाइन मॉनिटरिंग।
राज्यों में शिक्षकों की नियुक्ति के लिये अलग से ‘शिक्षक भर्ती आयोग’।
नियुक्ति पारदर्शी तथा मैरिट के आधार पर होगी।
सभी रिक्त पद भरे जाएं। प्रधानाचार्यों के लिये लीडरशिप ट्रेनिंग अनिवार्य।
राष्ट्रीय स्तर पर ‘टीचर एजुकेशन विश्वविद्यालय’ की स्थापना।
हर पांच साल में शिक्षकों को एक परीक्षा देनी होगी। इसे उनके प्रमोशन तथा इन्क्रीमेंट से जोड़ा जायेगा।
GDP का 6% शिक्षा पर खर्च करने के लक्ष्य को पूरा करने की कोशिश हो।
नयी संस्थाओं को खोलने के बजाय मौजूदा शिक्षण संस्थाओं को मजबूत किया जाये।
मिड डे मील का दायित्व शिक्षकों के ऊपर से हटाकर महिला स्वयं सहायता समूहों को दिया जायेगा।
भोजन बनाने की केंद्रिकत प्रणाली विकसित की जायेगी।
निष्कर्ष
आधुनिक शिक्षा आज की आवश्यकता है परंतु केवल भौतिक उन्नति ही जीवन का सार नहीं है इसके साथ आध्यात्मिक उन्नति भी आवश्यक है स्वतंत्र भारत में जितने भी आयोग और समितियां शिक्षा की उन्नति के लिए गठित किए गए।
उन सभी का विश्लेषण करने के बाद यह प्रतीत होता है कि किसी ने भी प्राचीन भारतीय ज्ञान और विज्ञान के बारे में ऐसा कोई विचार नहीं दिया जिससे कि प्राचीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान का सदुपयोग आज की भौतिकवादी सभ्यता में किया जा सके।
बिना आध्यात्मिक मुक्ति के गौरी भौतिकता सर्वनाश की ओर ले जाती है।
प्राचीन भारतीय ज्ञान विज्ञान में भौतिक उन्नति के स्थान पर आध्यात्मिक व्यक्ति को महत्व दिया गया था
इसीलिए उनका जीवन शांतिपूर्ण और सात्विक था।
प्राचीन भारतीय मनीषियों ने वर्तमान समय से कहीं अधिक उन्नति कर ली थी।
ज्ञान विज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में वह आज से कहीं आगे थे
अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि आधुनिकता को अपनाया तो जाएं लेकिन अपने प्राचीन गौरव को ना छोड़ा जाए।
Computer History Timeline – कम्प्यूटर इतिहास टाईम लाइन (Part – 02)
Computer History Timeline | कम्प्यूटर का इतिहास हिंदी में| रोबोट|BM| जॉयस्टिक| प्रिंटेड सर्किट बोर्ड |एटानासॉफ-बेरी कंप्यूटर|MARK II |
1909 में ब्रायंट कंप्यूटर उत्पादों की स्थापना हुई।
1910 में हेनरी बैबेज, चार्ल्स बैबेज के सबसे छोटे बेटे एनालिटिकल इंजन के एक हिस्से को पूरा करते हैं और बुनियादी गणना करने में सक्षम बना देते हैं।
1911 में 16 जून को आईबीएम कंपनी की स्थापना न्यूयॉर्क में हुई।
आईबीएम को मूल रूप से कंप्यूटिंग-टेबुलेटिंग-रिकॉर्डिंग कंपनी (C-T-R), कम्प्यूटिंग स्केल कंपनी और अंतर्राष्ट्रीय समय रिकॉर्डिंग कंपनी के एक समेकन के रूप में जाना जाता था।
25 जुलाई 1911 को आईबीएम ने अपना पहला पेटेंट लिया।
1921 में चेक नाटककार कारेल कैपेक ने 1921 में आरयूआर (रोसुम के यूनिवर्सल रोबोट्स) में “रोबोट” शब्द का सिक्का चलाया।
1923 में जैक सेंट क्लेयर किल्बी, नोबेल पुरस्कार विजेता और इंटीग्रेटेड सर्किट के आविष्कारक, हैंडहेल्ड कैलकुलेटर और थर्मल प्रिंटर का जन्म 8 नवंबर, 1923 को हुआ था।
1924 कम्प्यूटिंग-टेबुलेटिंग-रिकॉर्डिंग कंपनी (C-T-R) का नाम बदलकर 14 फरवरी 1924 को IBM कर दिया गया।
1925 में पश्चिमी इलेक्ट्रिक अनुसंधान प्रयोगशालाएँ और एटी एंड टी का इंजीनियरिंग विभाग समेकित तौर पर बेल टेलीफोन प्रयोगशालाएँ बनाता है।
1926 में अमेरिकी नौसेना अनुसंधान प्रयोगशाला में सी बी मिरिक द्वारा पहले जॉयस्टिक का आविष्कार किया गया।
1926 में सेमीकंडक्टर ट्रांजिस्टर के लिए पहला पेटेंट बनाया गया।
1936 में जर्मनी के कोनराड ज़्यूस ने Z1 बनाया जो पहले बाइनरी डिजिटल कंप्यूटरों में से एक है और एक मशीन जिसे एक पंच टेप के माध्यम से नियंत्रित किया जा सकता है।
1936 में रेडियो पर काम करते हुए पॉल आइस्लर ने प्रिंटेड सर्किट बोर्ड (पीसीबी) का आविष्कार किया।
12 मई, 1936 को ड्वोरक को कीबोर्ड के लिए पेटेंट मिला।
1937 आयोवा स्टेट कॉलेज के जॉन विंसेंट अटानासॉफ तथा क्लिफर्ड बेरी बाइनरी-आधारित एबीसी (एटानासॉफ-बेरी कंप्यूटर) बनाना शुरू किया। यह पहला इलेक्ट्रॉनिक डिजिटल कंप्यूटर माना जाता है।
1938 कंपनी को हिउलेट पैकार्ड ने अपना पहला उत्पाद एचपी 200 ए बनाया।
22 अक्टूबर, 1938 को चेस्टर कार्लसन ने पहली इलेक्ट्रोफोटोग्राफ़िक इमेज बनाई जो बाद में ज़ेरॉक्स मशीन बन गई।
1939 में हेवलेट पैकर्ड की स्थापना 1939 में विलियम हेवलेट और डेविड पैकर्ड द्वारा की गई थी।
कंपनी की आधिकारिक तौर पर 1 जनवरी, 1939 को स्थापना की गई थी।
1939 में जॉर्ज स्टिबिट्ज ने जटिल संख्या कैलकुलेटर बनाया जो जटिल संख्याओं को जोड़ने, घटाने, गुणा करने और विभाजित करने में सक्षम था। यह उपकरण डिजिटल कंप्यूटर के लिए एक आधार प्रदान करता है।
1939 आयोवा स्टेट कॉलेज के जॉन विंसेंट अटानासॉफ और क्लिफोर्ड बेरी ने बाइनरी आधारित एबीसी (एटानासॉफ-बेरी कंप्यूटर) का एक प्रोटोटाइप बनाया।
जॉन एतानासॉफ़ एबीसी (एटनासॉफ़-बेरी कंप्यूटर) का सफलतापूर्वक परीक्षण करता है जो पुनर्योजी संधारित्र ड्रम मेमोरी का उपयोग करने वाला पहला कंप्यूटर था।
ENIAC (इलेक्ट्रॉनिक न्यूमेरिकल इंटीग्रेटर एंड कंप्यूटर), पहला सामान्य उद्देश्य इलेक्ट्रॉनिक डिजिटल कैलकुलेटर का निर्माण शुरू होता है।
इस कंप्यूटर को सबसे पहले इलेक्ट्रॉनिक कंप्यूटर माना जाता है।
टॉमी फ्लावर्स द्वारा विकसित पहला इलेक्ट्रिक प्रोग्रामेबल कंप्यूटर द कोलोसस, पहली बार दिसंबर 1943 में प्रदर्शित किया गया था।
मार्क 1 कोलोसस कंप्यूटर 5 फरवरी, 1944 को चालू हो गया।
यह कंप्यूटर पहला बाइनरी और आंशिक रूप से प्रोग्रामेबल कंप्यूटर है।
1 जून 1994 को मार्क 2 कोलोसस कंप्यूटर चालू हो गया।
हार्वर्ड मार्क I कंप्यूटर रिले-आधारित हार्वर्ड-आईबीएम मार्क I एक बड़ी प्रोग्राम-नियंत्रित गणना मशीन है जो अमेरिकी नौसेना के लिए महत्वपूर्ण गणना प्रदान करता है। ग्रेस हॉपर इसका प्रोग्रामर बन गया।
वॉन न्यूमैन आर्किटेक्चर और संग्रहीत कार्यक्रमों के साथ एक सामान्य-उद्देश्य वाले इलेक्ट्रॉनिक डिजिटल कंप्यूटर का विवरण जॉन वॉन न्यूमैन की EDVAC की रिपोर्ट में पेश किया गया था।
8 फरवरी, 1945 को हार्वर्ड मार्क I डिजिटल कंप्यूटर के लिए पेटेंट दायर किया गया था।
कंप्यूटर बग के रूप में बग शब्द को ग्रेस हॉपर ने MARK II की प्रोग्रामिंग करते हुए कहा था।
जन राजमैन ने सेलेरॉन ट्यूब विकसित करने पर अपना काम शुरू किया जो 256 बिट्स को संग्रहीत करने में सक्षम था।
उस समय चुंबकीय कोर मेमोरी की लोकप्रियता के कारण, सेलेरॉन ट्यूब को बड़े पैमाने पर उत्पादन में नहीं डाला गया था।
फ्रेडी विलियम्स 11 दिसंबर, 1946 को अपने CRT (कैथोड-रे ट्यूब) भंडारण उपकरण पर एक पेटेंट के लिए आवेदन करते हैं।
वह उपकरण जो बाद में विलियम्स ट्यूब या अधिक उपयुक्त रूप से विलियम्स-किलबर्न ट्यूब के रूप में जाना जाने लगा।
ट्यूब केवल 128 40-बिट शब्दों को संग्रहीत करता है।
जॉन बार्डीन, वाल्टर ब्रेटन, और विलियम शॉकले ने 23 दिसंबर, 1947 को बेल लेबोरेटरीज में पहले ट्रांजिस्टर का आविष्कार किया।
कम्प्यूटिंग मशीनरी के लिए एसोसिएशन की स्थापना 1947 में हुई थी।
थॉमस टी गोल्डस्मिथ जूनियर और एस्टले रे मान ने 25 जनवरी, 1947 को सीआरटी पर
खेले गए पहले कंप्यूटर गेम में से एक का वर्णन करते हुए # 2,455,992 का पेटेंट कराया।
जे फोरेस्टर और अन्य शोधकर्ता व्हर्लविंड कंप्यूटर में चुंबकीय-कोर मेमोरी का उपयोग करने के विचार के साथ आते हैं।
1822 में चार्ल्स बैबेज द्वारा बनाया गया पहला मैकेनिकल कंप्यूटर वास्तव में ऐसा नहीं था, जो आज का कंप्यूटर है। जैसे जैसे समय बीतता गया तकनीक और अधिक विकसित होती गई और उसका स्वरूप हमारे सामने है। आने वाले समय और अधिक विकसित होगा। कम्प्यूटर क्षेत्र में कब किसने क्या योगदान दिया आइए जानते हैं
30,000 ई.पू. ऐसा माना जाता है कि यूरोप में पैलियोलिथिक लोग हड्डियों, हाथी दांत और पत्थर पर निशान निशान बनाकर कोई रिकॉर्ड रखते थे।
3500 ई.पू. लेखन का पहला सबूत मिलता है।
3400 ई.पू. मिस्र के लोगों ने 10 की संख्या के लिए एक प्रतीक बनाया ताकि बड़ी बड़ी गणनाएं आसानी से हो सकें।
3000 ई.पू. मिस्र में सबसे पहले हाइरोग्लिफ़िक अंक का उपयोग किया जाता है।
300 ई.पू. यूक्लिड नामक गणितज्ञ ने यूनानियों की 13 पुस्तकों को प्रस्तुत किया जो गणितीय ज्ञान को संक्षेप मं प्रस्तुत करती हैं।
300 ई.पू. यूक्लिड ने यूक्लिडियन एल्गोरिथम बनाया, जिसे पहला एल्गोरिदम माना जाता है। उनके गणित और ज्यामिति आज भी पढ़ाए जाते हैं।
300 ई.पू. आज के अबेकस जैसा हाथ अबेकस बना।
260 ई.पू. माया गणित की आधार -20 प्रणाली विकसित करती है, जो शून्य का परिचय देती है।
1000 A.D. गार्बर्ट डी’रिलैक के नाम का एक चर्चमैन जो बाद में पोप सिल्वेस्टर II बनता है, यूरोप में अबेकस और हिंदू-अरबी गणित के महत्व को समझाते हैं।
1440 जोहान्स गुटेनबर्ग ने अपने पहले प्रिंटिंग प्रेस गुटेनबर्ग प्रेस के विकास को पूरा किया।
1492 लियोनार्डो दा विंसी 13 अंकों के cog-wheeled adder वाले योजक का डायग्राम बनाया।
1500 में लियोनार्डी दा विंची ने एक यांत्रिक कैलकुलेटर का आविष्कार किया।
1605 में फ्रांस के बेकन ने एक संदेश लिखने वाले ए बी के संदेशों को सांकेतिक शब्दों में बदलने के लिए एक साइफर बेकेनियन सिफर का उपयोग किया।
1613 “कंप्यूटर” शब्द पहली बार 1613 में इस्तेमाल किया गया।
1617 जॉन नेपियर ने हाथी दांत से “नेपियर बोन्स” नामक एक प्रणाली शुरू की, जो अंकों का जोड, घटाव व गुणा कर सकता थी।
1621 में विलियम मस्ट्रेड ने सर्कुलर स्लाइड रूल का आविष्कार किया गया।
1623 में जर्मनी के विल्हेम स्किकार्ड ने पहली यांत्रिक गणना मशीन बनाई। यह मशीन नेपियर बोंस की तरह हड्डियों द्वारा बनाई गई।
1632 में कैम्ब्रिज के विलियम मस्टर्ड ने स्लाइड रूल जैसा एक उपकरण बनाने के लिए दो गंटर नियमों को संयोजित किया।
1642 में फ्रांस के ब्लेज पास्कल पास्कलीन नामक यंत्र बनाया जो गणनाएं कर सकता था।
1671 गॉटफ्रीड लीबनिज़ ने स्टेप रेकनर बनाया जो स्क्वेयर रूट को गुणा, भाग व मूल्यांकन करता था।
1679 में गॉटफ्रीड लीबनिज बाइनरी अंकगणित की खोज की। बाइनरी में प्रत्येक संख्या को केवल 0 और 1 द्वारा दर्शाया जा सकता है।
1725 को फ्रांस में बेसिल बाउचॉन ने एक लूम का आविष्कार किया जिसमें एक छिद्रित पेपर टेप रोल का उपयोग किया गया था, जिसे बाद में 1728 में उनके सहायक जीन-बैप्टिस्ट फाल्कन ने पंच कार्ड का उपयोग करने के लिए अपग्रेड किया। यह पूरी तरह से स्वचालित नहीं था।
1801 में फ्रांसिस जोसेफ-मैरी जैक्वार्ड ने पहली बार जैक्वार्ड लूम का प्रदर्शन किया।
1804 फ्रांसिस जोसेफ मैरी जैक्वार्ड ने पूरी तरह से स्वचालित लूम को पूरा किया जो पंच कार्ड द्वारा क्रमानुसार आदेश प्राप्त करता था।
1820 में चार्ल्स जेवियर थॉमस डी कॉलमार ने अरिथोमीटर नामक पहली व्यावसायिक रूप से सफल गणना मशीन बनाई।
यह न केवल जोड़, बल्कि घटाव, गुणा और भाग भी कर सकता था।
1822 की शुरुआत में, चार्ल्स बैबेज ने डिफरेंशियल इंजन विकसित करना शुरू किया, जिसमें पहला मैकेनिकल प्रिंटर शामिल था।
1823 में बैरन जोन्स जैकब बर्ज़ेलियस ने सिलिकॉन निर्मित सीआई की खोज की, जो आज के आईसी (एकीकृत सर्किट) का मूल घटक है।
1832 में कोर्साकोव ने पहली बार जानकारी स्टोरज के लिए के लिए पंच कार्ड का उपयोग किया।
1836 को शेमूएल मोर्स और अल्फ्रेड वेल ने एक कोड विकसित करना शुरू किया जिसे मोर्स कोड कहा गया।
इसमें अंग्रेजी वर्णमाला और दस अंकों के अक्षरों का प्रतिनिधित्व करने के लिए विभिन्न संख्याओं का उपयोग किया।
1837 में चार्ल्स बैबेज ने पहली बार एनालिटिकल इंजन बनाया, जो कि कंप्यूटर को मेमोरी के रूप में पंच कार्ड और कंप्यूटर को प्रोग्राम करने का एक तरीका था।
1845 इज़्रेल स्टाफ़ेल ने वारसॉ में औद्योगिक प्रदर्शनी में स्टाफ़ के कैलकुलेटर का प्रदर्शन किया।
1854 ऑगस्टस डेमोरोन और जॉर्ज बोले ने तार्किक कार्यों के एक सेट को व्यवहारिक रूप दिया।
1860 में 29 फरवरी को हरमन होलेरिथ का जन्म हुआ।
1868 में क्रिस्टोफर शोल्स ने एक टाइपराइटर के लिए QWERTY लेआउट कीबोर्ड का उपयोग किया और 14 जुलाई 1868 को इसका पेटेंट ले लिया।
1877 को संयुक्त राज्य अमेरिका के एमिल बर्लिनर ने माइक्रोफोन का आविष्कार किया।
1878 में कीबोर्ड रेमिंग्टन नंबर 2 टाइपराइटर कुंजी रखने वाला पहला कीबोर्ड 1878 में पेश किया गया था।
1884 में हरमन होलेरिथ ने द होलेरिथ इलेक्ट्रिक टेबुलेटिंग सिस्टम बनाया।
1889 में हरमन होलेरिथ ने सबसे पहले अपने डॉक्टरेट थीसिस में टेबुलेटिंग मशीन का वर्णन किया।
1890 में हरमन होलेरिथ ने मशीनों से अमेरिकी जनगणना के लिए पंच कार्डों द्वारा रिकॉर्ड करने और संग्रहीत करने के लिए एक प्रणाली विकसित की और एक कंपनी गठित की जिसे आज आईबीएम के नाम से जाना जाता है।
1893 में पहला अंडरवुड टाइपराइटर का आविष्कार किया गया।
1896 में हर्मन होलेरिथ ने टैबुलेटिंग मशीन कंपनी शुरू की।
कंपनी बाद में प्रसिद्ध कंप्यूटर कंपनी आईबीएम (इंटरनेशनल बिजनेस मशीन) बन गई।
1904 को एप्पल macOS का युग शुरू हुआ।
1904 में ही जॉन एंब्रोज फ्लेमिंग ने एडिसन के डायोड वैक्यूम ट्यूबों के साथ प्रयोग किया और पहला वाणिज्यिक डायोड वैक्यूम ट्यूब बनाया।
1907 में ली डी फ्रॉस्ट ने वैक्यूम ट्यूब ट्रायोड के लिए पेटेंट दायर किया।
बाद में इस पेटेंट को बाद में पहले इलेक्ट्रॉनिक कंप्यूटर में इलेक्ट्रॉनिक स्विच के रूप में उपयोग किया है।
1907 आईबीएम ने 11 अक्टूबर 1907 को अपने पहले अमेरिकी पेटेंट के लिए दायर किया।
First in Computer Field in Word कम्प्यूटर क्षेत्र में प्रथम प्रिंटर, लैपटाॅप, पर्सनल कम्प्यूटर, प्रथम कम्पनी पहले कम्प्यूटर की अवधारणा आदि
1822 में चार्ल्स बैबेज द्वारा बनाया गया पहला मैकेनिकल कंप्यूटर वास्तव में ऐसा नहीं था, जो आज का कंप्यूटर है।
जैसे जैसे समय बीतता गया तकनीक और अधिक विकसित होती गई और उसका स्वरूप हमारे सामने है।
आने वाले समय और अधिक विकसित होगा।
कम्प्यूटर क्षेत्र में कब, किसने, क्या योगदान दिया, आइए जानते हैं-
कम्प्यूटर के आविष्कारक Charles Babbage हैं।
‘कंप्यूटर’ शब्द का पहली बार इस्तेमाल कब किया गया था? When was the term ‘computer’ first time used?
1613- रिचर्ड ब्रेथवेट की एक पुस्तक ‘योंग मैन्स ग्लानिंग्स’ “कंप्यूटर” शब्द का पहली बार उपयोग 1613 में किया गया था।
इसमें मूल रूप से एक ऐसे इंसान का वर्णन था जिसने गणना या अभिकलन किया था।
पहला मैकेनिकल कंप्यूटर या स्वचालित कंप्यूटिंग इंजन अवधारणा- The first concept of mechanical computer or automatic computing engine.
1822- Charles Babbage ने पहली स्वचालित कंप्यूटिंग मशीन अवधारणा 1822 में की थी और इस पर कार्य करना शुरू किया।
Difference Engine कई सेटों की गणना करने और परिणामों की हार्ड कॉपी बनाने में सक्षम था।
बैबेज को एडा लवलेस से डिफरेंस इंजन के विकास में कुछ मदद मिली, किंतु धन और बिजली की कमी के कारण बैबेज इस मशीन को पूर्ण नहीं कर सके।
1837 में चार्ल्स बैबेज ने पहले सामान्य Mechanical Computer, Analytical Engine का प्रस्ताव रखा।
एनालिटिकल इंजन में एक ALU- Arithmetic Logic Unit (अंकगणित तर्क इकाई), Flow Control, Ouch Card (Jacquard Loom से प्रेरित) और Integrated Memory शामिल थी।
यह पहली सामान्य-प्रयोजन कंप्यूटर की अवधारणा मानी जाती है किंतु दुर्भाग्य से फंडिंग के कारण यह कंप्यूटर भी कभी नहीं बन पाया था।
पहला प्रोग्रामेबल कंप्यूटर (First Programmable Computer)
Z1 को जर्मन कोनराड ज़्यूस ने 1936 और 1938 के बीच अपने माता-पिता के लिविंग रूम में बनाया।
यह पहला Electro-mechanical Binary Programmable Computer कंप्यूटर माना जाता है।
पहली अवधारणा जिसे हम एक आधुनिक कंप्यूटर मानते हैं (First Concept of Modern Computer)
ट्यूरिंग मशीन पहली बार 1936 में एलन ट्यूरिंग द्वारा प्रस्तावित की गई थी और कंप्यूटिंग और कंप्यूटर के बारे में सिद्धांतों की नींव बन गई। मशीन एक उपकरण था जिसने कागज के टेप पर प्रतीकों को इस तरह से मुद्रित किया कि Logical Instructions की एक श्रृंखला के बाद एक व्यक्ति का अनुकरण किया। इन बुनियादी बातों के बिना आज का कंप्यूटर नहीं हो सकता।
पहला इलेक्ट्रिक प्रोग्रामेबल कंप्यूटर (First Electric Programmable Computer)
कोलोसस मार्क 2
कोलोसस पहला इलेक्ट्रिक प्रोग्रामेबल कंप्यूटर था, जिसे टॉमी फ्लावर्स द्वारा विकसित किया गया था और पहली बार दिसंबर 1943 में प्रदर्शित किया गया था।
ब्रिटिश कोड तोड़ने वाले जर्मन संदेशों को पढ़ने में मदद करने के लिए कोलोसस बनाया गया था।
पहला डिजिटल कंप्यूटर (First Digital Computer)
Atanasoff Berry Computer प्रोफेसर जॉन विंसेंट अटानासॉफ और 1937 में स्नातक छात्र क्लिफ बेरी द्वारा शुरू किया और यह 1942 तक जारी रहा।
Atanasoff Berry Computer एक इलेक्ट्रिकल कंप्यूटर था जो डिजिटल गणना के लिए 300 से अधिक वैक्यूम ट्यूबों का उपयोग करता था,
जिसमें बाइनरी गणित और बूलियन तर्क शामिल थे और इसमें कोई सीपीयू (प्रोग्राम करने योग्य) नहीं था।
19 अक्टूबर, 1973 को यूएस फेडरल जज अर्ल आर लार्सन ने अपने फैसले पर हस्ताक्षर किए कि जे प्रीपर एकर्ट और जॉन मौचली द्वारा ENIAC पेटेंट अमान्य था।
फैसले में लार्सन ने एटानासॉफ को एकमात्र आविष्कारक का नाम दिया।
पेंसिल्वेनिया विश्वविद्यालय में जे प्रिस्पर एकर्ट और जॉन मौचली द्वारा ENIAC का आविष्कार किया गया था और 1943 में इसका निर्माण शुरू कर दिया और यह 1946 तक पूरा हुआ।
ENIAC ने लगभग 1,800 वर्ग फुट स्थान घेर लिया और इसमें लगभग 50 टन वजन के 18,000 वैक्यूम ट्यूब का उपयोग किया गया।
Atanasoff Berry Computer कंप्यूटर पहला डिजिटल कंप्यूटर था, फिर भी कई लोग ENIAC को पहला डिजिटल कंप्यूटर मानते हैं।
पहला संग्रहीत प्रोग्राम कंप्यूटर (First Stored Program Computer)
सर्वप्रथम इलेक्ट्रॉनिक रूप से संगृहीत कार्यक्रम जिसे कंप्यूटर द्वारा निष्पादित किया जाता है,
जिसे एसएस किम के लिए 1948 में टॉम किलबर्न द्वारा लिखा गया था।
किसी प्रोग्राम को इलेक्ट्रॉनिक रूप से स्टोर और निष्पादित करने वाला पहला कंप्यूटर
SSEM – Small Scale Experimental Machine (स्मॉल-स्केल एक्सपेरिमेंटल मशीन) था, जिसे 1948 में “बेबी” या “मैनचेस्टर बेबी” के रूप में भी जाना जाता था।
इसका डिजाइन फ्रेडरिक विलियम्स ने तैयार किया गया था।
दूसरा संग्रहीत प्रोग्राम कंप्यूटर भी इंग्लैंड में कैम्ब्रिज गणितीय प्रयोगशाला के विश्वविद्यालय में मौरिस विल्क्स द्वारा निर्मित और डिज़ाइन किया गया था जिसका नाम EDSAC था। EDSAC ने 6 मई, 1949 को अपनी पहली गणना की।
यह एक ग्राफिकल कंप्यूटर गेम, “OXO” चलाने वाला पहला कंप्यूटर भी था,
जिसमें 6-इंच कैथोड रे ट्यूब पर प्रदर्शित टिक-टैक-टो का कार्यान्वयन था।
EDSAC मैनचेस्टर मार्क 1
उसी समय, मैनचेस्टर मार्क 1 एक और कंप्यूटर था जो संग्रहीत प्रोग्राम चला सकता था।
विक्टोरिया यूनिवर्सिटी ऑफ मैनचेस्टर में निर्मित,
मार्क 1 कंप्यूटर का पहला संस्करण अप्रैल 1949 में प्रारंभ हो गया था तथा उसी वर्ष 16 व 17 जून को बिना किसी त्रुटि के नौ घंटे तक मेर्सन की खोज के लिए एक कार्यक्रम चलाने के लिए मार्क 1 का उपयोग किया गया था।
पहली कंप्यूटर कंपनी (First Computer Company)
पहली कंप्यूटर कंपनी, इलेक्ट्रॉनिक कंट्रोल्स कंपनी थी।
इसकी स्थापना 1949 में ENIAC कंप्यूटर बनाने में मदद करने वाले जे प्रिस्पर एकर्ट और जॉन मौचली ने की।
बाद में इसी कंपनी का नाम बदलकर EMCC या Eckert-Mauchly Computer Corporation कर दिया गया और UNFCAC नाम के तहत मेनफ्रेम कंप्यूटर की एक श्रृंखला जारी की।
मेमोरी में संग्रहीत प्रोग्राम वाला पहला कंप्यूटर (First Memory Stored Program Computer)
UNIVAC 1101
पहली बार 1950 में संयुक्त राज्य सरकार को दिया गया, UNIVAC 1101 या ERA 1101 को मेमोरी से प्रोग्राम चलाने और चलाने में सक्षम पहला कंप्यूटर माना जाता है।
पहला कमर्शियल कंप्यूटर (First Commercial Computer)
1942 में, कोनराड ज़ूस ने Z4 पर काम करना शुरू किया जो बाद में बन गया।
इस कंप्यूटर को 12 जुलाई, 1950 को स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी ज्यूरिख के गणितज्ञ एडुआर्ड स्टिफ़ेल को बेचा गया था।
आईबीएम का पहला कंप्यूटर (First Computer of IBM)
7 अप्रैल, 1953 को आईबीएम ने सार्वजनिक रूप से अपना पहला व्यावसायिक Scientist-701 पेश किया।
रैम वाला पहला कंप्यूटर (First Computer with RAM)
MIT ने 8 मार्च, 1955 को Whirlwind मशीन शुरू की,
एक क्रांतिकारी कंप्यूटर था जो चुंबकीय कोर रैम और वास्तविक समय ग्राफिक्स वाला पहला डिजिटल कंप्यूटर था।
पहला ट्रांजिस्टर कंप्यूटर (First Transited Computer)
पहला डेस्कटॉप और मास-मार्केट कंप्यूटर (First Desktop and Mass Market Computer)
1964 में, पहला डेस्कटॉप कंप्यूटर, प्रोग्राम 101, को न्यूयॉर्क वर्ल्ड फेयर में जनता के लिए अनावरण किया गया।
इसका आविष्कार पियर गियोर्जियो पेरोटो द्वारा किया गया था और इसका निर्माण ओलिवेट्टी ने किया था।
लगभग 44,000 प्रोग्राम101 कंप्यूटर बेचे गए, जिनमें से प्रत्येक की कीमत 3,200 डॉलर थी।
1968 में, HP (Hewlett Packard) ने HP-9100A का व्यवसाय शुरू किया, जिसे पहले बड़े पैमाने पर विपणन डेस्कटॉप कंप्यूटर माना जाता था।
पहला वर्कस्टेशन (First Workstation)
1974 में शुरू किए गए पहले वर्कस्टेशन को Xerox Alto माना जाता है।
इस कंप्यूटर में पूरी तरह कार्यात्मक कंप्यूटर, डिस्प्ले और माउस शामिल थे।
यह कंप्यूटर आज के कंप्यूटरों की तरह संचालित है, जो अपने ऑपरेटिंग सिस्टम के लिए एक इंटरफेस के रूप में विंडोज़, मेनू और आइकन का उपयोग करते हैं।
9 दिसंबर, 1968 को डगलस एंगेलबर्ट द्वारा द मदर ऑफ ऑल डेमोस में कंप्यूटर की कई क्षमताओं का प्रदर्शन किया गया था।
पहला माइक्रोप्रोसेसर (First Microprocessor)
इंटेल 15 नवंबर, 1971 को पहले माइक्रोप्रोसेसर, इंटेल 4004 को पेश करता है।
पहला माइक्रो कंप्यूटर (First Micro-computer)
वियतनामी-फ्रांसीसी इंजीनियर एंड्रे ट्रूंग ट्रोंग थी ने फ्रेंकोइस गर्नले के साथ मिलकर 1973 में माइक्रो कंप्यूटर विकसित किया
इसे पहले माइक्रो कंप्यूटर के रूप में माना जाता है।
इसमें इंटेल 8008 प्रोसेसर का उपयोग किया गया था और यह पहला वाणिज्यिक गैर-असेंबली कंप्यूटर था।
यह $ 1,750 में बिका।
पहला पर्सनल कंप्यूटर (First Personal Computer)
1975 में एड रॉबर्ट्स ने “पर्सनल कंप्यूटर” शब्द रचा और Altair-8800 को पेश किया।
हालाँकि, कुछ लोग काइनाक-1 को पहला पर्सनल कंप्यूटर मानते हैं, जिसे पहली बार 1971 में $ 750 में पेश किया गया था।
लाईट की एक श्रृंखला को चालू और बंद करके डेटा और आउटपुट डेटा इनपुट करने के लिए स्विच था।
पहला लैपटॉप या पोर्टेबल कंप्यूटर (First Laptop OR Portable Computer)
IBM 5100 पहला पोर्टेबल कंप्यूटर जिसे सितंबर 1975 में जारी किया गया।
कंप्यूटर का वजन 55 पाउंड था और इसमें पांच इंच का CRT डिस्प्ले, टेप ड्राइव, 1.9 मेगाहर्ट्ज PALM प्रोसेसर और 64 KB की रैम थी।
वास्तव में Osborne-I को पोर्टेबल कंप्यूटर या लैपटॉप माना जाता है,
जिसे अप्रैल 1981 में रिलीज़ किया गया था और एडम ओसबोर्न द्वारा विकसित किया गया था।
ओसबोर्न I का वजन 24.5 पाउंड था, इसमें 5 इंच का डिस्प्ले, 64 केबी मेमोरी, दो 5 1/4 “फ्लॉपी ड्राइव, सीपी / एम 2.2 ऑपरेटिंग सिस्टम था, जिसमें एक मॉडेम भी शामिल था, और इसकी कीमत $ 1,795 थी।
IBM PCD (PC Division) ने बाद में 1984 में IBM पोर्टेबल जारी किया,
इसका पहला पोर्टेबल कंप्यूटर जिसका वजन 30 पाउंड था।
बाद में 1986 में, IBM PCD ने अपना पहला लैपटॉप कंप्यूटर, PC परिवर्तनीय घोषित किया, जिसका वजन 12-पाउंड था।
अंत में, 1994 में, आईबीएम ने आईबीएम थिंकपैड 775CD को पेश किया, जो एक एकीकृत सीडी-रोम के साथ पहला नोटबुक था।
पहला Apple कंप्यूटर (First Apple Computer)
Apple I (Apple 1) पहला Apple कंप्यूटर था जो मूल रूप से $ 666.66 में बेचा गया था।
1976 में स्टीव वोज्नियाक द्वारा इस कंप्यूटर की किट विकसित की गई थी और इसमें 6502 8-बिट प्रोसेसर और 4 केबी मेमोरी थी, जो विस्तार कार्ड का उपयोग करके 8 या 48 केबी तक बढ सकती थी।
Apple के पास पूरी तरह से इकट्ठे सर्किट बोर्ड थे लेकिन किट को अभी भी बिजली की आपूर्ति, प्रदर्शन और कीबोर्ड की आवश्यकता थी।
पहला IBM पर्सनल कंप्यूटर (First IBM Personal Computer)
IBM PC-5150 आईबीएम ने अपना पहला पर्सनल कंप्यूटर, आईबीएम पीसी, 1981 में पेश किया।
इस कंप्यूटर का नाम Code-Acorn था।
इसमें 8088 प्रोसेसर, 16 केबी की मेमोरी दी गई थी, जो 256 तक विस्तार योग्य थी और एमएस-डॉस का उपयोग करती थी।
पहला पीसी क्लोन (First PC Clone)
Compaq Portable को पहला पीसी क्लोन माना जाता है और मार्च 1983 में कॉम्पैक द्वारा रिलीज़ किया गया।
कॉम्पैक पोर्टेबल IBM कंप्यूटर के साथ 100% संगत था और आईबीएम कंप्यूटर के लिए विकसित किसी भी सॉफ्टवेयर को चलाने में सक्षम था।
पहला मल्टीमीडिया कंप्यूटर (First Multimedia Computer)
1992 में, Tandy Radio Shack ने MC00 XL / 2 और M4020 SX को एमपीसी मानक की सुविधा देने वाले पहले कंप्यूटरों के बीच जारी किया।
अन्य कंप्यूटर कंपनी सबसे पहले (Other Computer Companies First) : कम्प्यूटर क्षेत्र में प्रथम
तोशिबा – 1954 में, तोशिबा ने अपना पहला कंप्यूटर, “टीएसी” डिजिटल कंप्यूटर पेश किया।
NEC – 1958 में, NEC ने अपना पहला कंप्यूटर “NEAC 1101.” बनाया।
हेवलेट पैकर्ड(HP) – 1966 में, हेवलेट पैकर्ड ने अपना पहला सामान्य कंप्यूटर “HP-2115” जारी किया।
कमोडोर – 1977 में, कमोडोर ने अपना पहला कंप्यूटर, “कमोडोर पीईटी” पेश किया।
कॉम्पैक – मार्च 1983 में, कॉम्पैक ने अपना पहला कंप्यूटर और पहला 100% आईबीएम-संगत कंप्यूटर “कॉम्पैक पोर्टेबल” जारी किया।
डेल – 1985 में, डेल ने अपना पहला कंप्यूटर “टर्बो पीसी” पेश किया।
First in Computer Field in Word कम्प्यूटर क्षेत्र में प्रथम प्रिंटर, लैपटाॅप, पर्सनल कम्प्यूटर, प्रथम कम्पनी पहले कम्प्यूटर की अवधारणा आदि
प्रथम महाकवि चंदबरदाई | Mahakavi Chandbardai का जीवन परिचय, Chandbardai के अन्य नाम, पृथ्वीराज रासो के संस्करण, प्रमुख पंक्तियाँ, तथ्य, कथन
आचार्य शुक्ल के अनुसार उनका जन्म लाहोर में हुआ था। कहा जाता है कि पृथ्वीराज और चंदवरदाई का जन्म एक दिन हुआ था। परंतु मिश्र बंधुओं के अनुसार पृथ्वीराज चौहान और चंदबरदाई की आयु में अंतर था। इनकी जन्म तिथि एक ही थी या नहीं थी इस संबंध में मिश्र बंधु कुछ नहीं लिखते हैं लेकिन आयु गणना उन्होंने अवश्य की है जिसके आधार पर उनका अनुमान है कि चंद पृथ्वीराज से कुछ बड़े थे। चंद ने अपने जन्म के बारे में रासों में कोई वर्णन नहीं किया है, परंतु उन्होंने पृथ्वीराज का जन्म संवत् 1205 विक्रमी में बताया है।
प्रथम महाकवि चंदबरदाई | Mahakavi Chandbardai : अन्य नाम
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के मतानुसार कवि चंदवरदाई हिंदी साहित्य के प्रथम महाकवि है, उनका महान ग्रंथ ‘पृथ्वीराजरासो‘ हिंदी का प्रथम महाकाव्य है। आदिकाल के उल्लेखनीय कवि चंदबरदाई ने पृथ्वीराज रासो में अपना जीवन दिया है, रासो अनुसार चंद भट्ट जाति के जगात नामक गोत्र के थे। मुनि जिनविजय द्वारा खोज निकाले गए जैन प्रबंधों में उनका नाम चंदवरदिया दिया है और उन्हें खारभट्ट कहा गया है।
चंद, पृथ्वीराज चौहान के न केवल राजकवि थे, वरन् उनके सखा और सामंत भी थे और जीवन भर दोनों साथ रहे। चंद षड्भाषा, व्याकरण, काव्य, साहित्य, छंद शास्त्र, ज्योतिष, पुराण आदि अनेक विधाओं के जानकार विद्वान थे। उन पर जालंधरी देवी का इष्ट था। चंदवरदाई की जीवनी के संबंध में सूर की “साहित्यलहरी” में सुरक्षित सामग्री है।
सूर की वंशावली
‘सूरदास’ की साहित्य लहरी की टीका मे एक पद ऐसा आया है जिसमे सूर की वंशावली दी है। वह पद यह है-
प्रथम ही प्रथु यज्ञ ते भे प्रगट अद्भुत रूप।
ब्रह्म राव विचारि ब्रह्मा राखु नाम अनूप॥
पान पय देवी दियो सिव आदि सुर सुखपाय।
कह्यो दुर्गा पुत्र तेरो भयो अति अधिकाय॥
पारि पायॅन सुरन के सुर सहित अस्तुति कीन।
तासु बंस प्रसंस में भौ चंद चारु नवीन॥
भूप पृथ्वीराज दीन्हों तिन्हें ज्वाला देस।
तनय ताके चार, कीनो प्रथम आप नरेस॥
दूसरे गुनचंद ता सुत सीलचंद सरूप।
वीरचंद प्रताप पूरन भयो अद्भुत रूप॥
रंथभौर हमीर भूपति सँगत खेलत जाय।
तासु बंस अनूप भो हरिचंद अति विख्याय॥
आगरे रहि गोपचल में रह्यो ता सुत वीर।
पुत्र जनमे सात ताके महा भट गंभीर॥
कृष्णचंद उदारचंद जु रूपचंद सुभाइ।
बुद्धिचंद प्रकाश चौथे चंद भै सुखदाइ॥
देवचंद प्रबोध संसृतचंद ताको नाम।
भयो सप्तो दाम सूरज चंद मंद निकाम॥
महामहोपाध्याय पंडित हरप्रसाद शास्त्री के अनुसार नागौर राजस्थान में अब भी चंद के वंशज रहते हैं। अपनी राजस्थान यात्रा के दौरान नागौर से चंद के वंशज श्री नानूराम भाट से शास्त्री जी को एक वंश वृक्ष प्राप्त हुआ है जिसका उल्लेख आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी अपने हिंदी साहित्य का इतिहास नामक ग्रंथ में किया है जो इस प्रकार है-
इन दोनो वंशावलियो के मिलाने पर मुख्य भेद यह प्रकट होता है कि नानूगम ने जिनको जल्लचंद की वंश-परंपरा मे बताया है, उक्त पद मे उन्हे गुणचंद की परंपरा में कहा है। बाकी नाम प्रायः मिलते हैं। (उद्धृत-हिंदी साहित्य का – आचार्य रामचंद्र शुक्ल)
प्रथम महाकवि चंदबरदाई | Mahakavi Chandbardai : पृथ्वीराज रासो के संस्करण
प्रथम संस्करण-वृहत् संस्करण– 69 समय 16306 छंद (नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित तथा हस्तलिखित प्रतियां उदयपुर संग्रहालय में सुरक्षित हैं)
द्वितीय संस्करण– मध्य संस्करण– 7000 छंद (अबोहर और बीकानेर में प्रतियाँ सुरक्षित है।)
तृतीय संस्करण-लघु संस्करण– 19 समय 3500 छंद (हस्तलिखित प्रतियाँ बीकानेर में सुरक्षित है।)
चतुर्थ संस्करण–लघूत्तम संस्करण – 1300 छंद (डॉ. माता प्रसाद गुप्ता तथा डॉ दशरथ ओझा इसे ही मूल रासो ग्रंथ मानते हैं।)
‘पृथ्वीराज रासो’ की प्रामाणिकता-अप्रामाणिकता में विद्वानों के बीच मतभेद है जो निम्नलिखित है-
1- प्रामाणिक मानने वाले विद्वान- जेम्सटॉड, मिश्रबंधु, श्यामसुन्दर दास, मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या , डॉ दशरथ शर्मा
2- अप्रामाणिक मानने वाले विद्वान- आचार्य रामचंद्र शुक्ल, मुंशी देवी प्रसाद, कविराज श्यामल दास, गौरीशंकर हीराचंद ओझा, डॉ वूल्लर, कविवर मुरारिदान
3- अर्द्ध-प्रामाणिक मानने वाले विद्वान- मुनि जिनविजय, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ सुनीति कुमार चटर्जी, डॉ दशरथ ओझा
4- चौथा मत डॉ. नरोत्तम दास स्वामी का है। उन्होंने सबसे अलग यह बात कही है कि चंद ने पृथ्वीराज के दरबार में रहकर मुक्तक रूप में ‘रासो’ की रचना की थी। उनके इस मत से कोई विद्वान सहमत नहीं है।
पृथ्वीराज सुजस कवि चंद कृत, चंद नंद उद्धरिय तिमि॥”
(5) “मनहुँ कला ससिमान कला सोलह सो बनिय”
(6) “पुस्तक जल्हण हत्थ दे, चलि गज्जन नृप काज।”
चंदबरदाई का जीवन परिचय : चंदबरदाई के लिए महत्त्वपूर्ण कथन
“चन्दबरदाई हिन्दी के प्रथम महाकवि माने जाते हैं और इनका ‘पृथ्वीराज रासो’ हिन्दी का प्रथम महाकाव्य है।” -आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
“हिन्दी का वास्तविक प्रथम महाकवि चन्दबरदाई को ही कहा जा सकता है।” –मिश्रबंधु
“यह ग्रन्थ मानो वर्तमान काल का ऋग्वेद है। जैसे ऋग्वेद अपने समय का बड़ा मनोहर ऐसा इतिहास बताता है जो अन्यत्र अप्राप्य है उसी प्रकार रासो भी अपने समय का परम दुष्प्राप्य इतिहास विस्तार-पूर्वक बताता है।” –मिश्रबंधु
“यह (पृथ्वीराज रासो) एक राजनीतिक महाकाव्य है, दूसरे शब्दों में राजनीति की महाकाव्यात्मक त्रासदी है।” –डॉ. बच्चन सिंह
‘पृथ्वीराज रासो’ की रचना शुक-शकी संवाद के रूप में हुई है। –हजारी प्रसाद द्विवेदी
चंदबरदाई से संबंधित महत्त्वपूर्ण तथ्य
1. रासो’ में 68 प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया गया है। मुख्य छंद -कवित्त, छप्पय, दूहा, तोमर, त्रोटक, गाहा और आर्या हैं। (राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी के अनुसार 72 प्रकार के छंदों का प्रयोग हुआ है)
2. चन्दबरदाई को ‘छप्पय छंद‘ का विशेषज्ञ माना जाता है।
3. डॉ. वूलर ने सर्वप्रथम कश्मीरी कवि जयानक कृत ‘पृथ्वीराजविजय’ (संस्कृत) के आधार पर सन् 1875 में ‘पृथ्वीराज रासो’ को अप्रामाणिक घोषित किया।
4. पृथ्वीराज रासो’ को चंदबरदाई के पुत्र जल्हण ने पूर्ण किया।
5. मोहनलाल विष्णु लाल पंड्या ने अनंद संवत की कल्पना के आधार पर हर पृथ्वीराज रासो को प्रामाणिक माना है।
6. रासो की तिथियों में इतिहास से लगभग 90 से 100 वर्षों का अंतर है।
7. इसका प्रकाशन नागरी प्रचारिणी सभा काशी तथा रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल से हुआ।
8. कयमास वध पृथ्वीराज रासो का एक महत्वपूर्ण समय है।
9. कनवज्ज युद्ध सबसे बड़ा समय है।
10. पृथ्वीराज रासो की शैली पिंगल है।
11. कर्नल जेम्स टॉड ने इसके लगभग 30,000 छंदों का अंग्रेजी में अनुवाद किया था।
12. इस ग्रंथ में चौहानों को अग्निवंशी बताया गया है।
13. इस ग्रंथ में पृथ्वीराज चौहान के 14 विवाहों का उल्लेख है।
चंदबरदाई का जीवन परिचय, चंदबरदाई के अन्य नाम, पृथ्वीराज रासो के संस्करण, प्रमुख पंक्तियाँ, महत्त्वपूर्ण तथ्य, महत्त्वपूर्ण कथन
स्रोत–
पृथ्वीराज रासो, हिन्दी नवरत्न –मिश्रबंधु, हिन्दी साहित्य का इतिहास – आ. शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास –डॉ नगेन्द्र
अतः हमें आशा है कि आपको यह जानकारी बहुत अच्छी लगी होगी। इस प्रकार जी जानकारी प्राप्त करने के लिए आपhttps://thehindipage.comपर Visit करते रहें।