क्रिया विशेषण Kriya Visheshan | kriya visheshan ke bhed | kriya visheshan kise kahate hain | kriya visheshan in hindi| क्रिया विशेषण
प्रयोग के आधार पर हिन्दी में शब्दों के दो भेद किए जाते हैं। (i) विकारी शब्द
(ii) अविकारी या अव्यय शब्द
(i) विकारी शब्द वे शब्द होते हैं, जिनका रूप लिंग, वचन, कारक और काल के अनुसार परिवर्तित हो जाता है, उन्हें विकारी शब्द कहते हैं विकारी शब्दों में समस्त संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण तथा क्रिया शब्द आते हैं।
(ii) अविकारी या अव्यय शब्द वे शब्द होते हैं, जिनके रूप में लिंग, वचन, कारक, काल के अनुसार कोई विकार उत्पन्न नहीं होता अर्थात् इन शब्दों का रूप सदैव वही बना रहता है।
ऐसे शब्दों को अविकारी या अव्यय शब्द कहते हैं।
अविकारी शब्दों में क्रियाविशेषण, सम्बन्धबोधक अव्यय, समुच्चय बोधक अव्यय तथा विस्मयादिबोधक अव्यय आदि शब्द आते हैं। विस्तृत विवरण इस प्रकार है-
क्रिया विशेषण Kriya Visheshan
जिस अव्यय से क्रिया की कोई विशेषता जानी जाती है उसे क्रिया-विशेषण कहते हैं,
क्रिया-विशेषणों का वर्गीकरण तीन आधारों पर हो सकता है
(1) प्रयोग के आधार पर
(2) रूप के आधार पर
(3) अर्थ के आधार पर
प्रयोग के आधार पर क्रिया-विशेषण
प्रयोग के आधार पर क्रिया-विशेषण तीन प्रकार के होते हैं-
(1) साधारण क्रिया-विशेषण
(2) संयोजक क्रिया-विशेषण
(3) अनुवद्ध क्रिया-विशेषण
(1) साधारण क्रिया-विशेषण – जिन क्रिया-विशेषणो का प्रयोग किसी वाक्य मे स्वतंत्र होता है उन्हें साधारण क्रिया-विशेषण कहते हैं; जैसे –
“हाय ! अब मैं क्या करुं!”
“बेटा, जल्दी आओ।“
“वह साँप कहाँ गया?”
(2) संयोजक क्रिया-विशेषण – जिनका संबंध किसी उपवाक्य के साथ रहता है उन्हें संयोजक क्रिया-विशेषण कहते हैं; जैसे-
“जब राम ही नहीं तो मैं ही जी के क्या करूँगा।
“जहाँ अभी रेगिस्तान है वहां पर किसी समय सागर था।
(3) अनुबद्ध क्रिया-विशेषण – वे क्रिया विशेषण जिनका प्रयोग अवधारणा के लिए किसी भी शब्द-भेद के साथ हो सकता है; जैसे –
“यह तो किसी ने धोखा ही दिया है ।”
“मैंने उसे देखा तक नहीं।”
“आपके आने भर की देरी है।”
क्रिया विशेषण Kriya Visheshan
(2) रूप के आधार पर क्रिया-विशेषण – रूप के अनुसार क्रिया-विशेषण तीन प्रकार के होते हैं –
(1) मूल क्रिया-विशेषण
(2) यौगिक क्रिया-विशेषण
(3) स्थानीय क्रिया-विशेषण
(1) मूल क्रिया-विशेषण- जो क्रिया-विशेषण किसी दूसरे शब्द से नहीं बनते वे मूल क्रिया-विशेषण कहलाते है, जैसे. ठीक, दूर, अचानक, फिर, नहीं, इत्यादि। अन्य उदाहरण –
वह ठीक सामने खड़ा है।
वह दूर चला गया है।
अचानक वर्षा होने लगी।
(2) यौगिक क्रिया-विशेषण – जो क्रिया-विशेषण दूसरे शब्दों में प्रत्यय या शब्द जोडने से बनते हैं उन्हें यौगिक क्रिया-विशेषण कहते हैं।
वे नीचे लिखे शब्द-भेदो से बनते हैं-
(अ) संज्ञा से – सवेरा, मन से, क्रमश, आगे, रात को, प्रेम पूर्वक, दिन-भर, रात-तक, इत्यादि ।
क्रिया शब्द के उदाहरण | क्रिया Kriya की परिभाषा, क्रिया के भेद, क्रिया किसे कहते हैं? अकर्मक क्रिया, सकर्मक क्रिया, क्रिया की पहचान का अचूक सूत्र : क्रिया परिभाषा भेद उदाहरण
परिभाषा
वे शब्द, जिनके द्वारा किसी कार्य का करना या होना पाया जाता है उन्हें क्रिया पद कहते हैं।
संस्कृत में क्रिया रूप को धातु कहते हैं, हिन्दी में उन्हीं के साथ ना लग जाता है जैसे लिख से लिखना, हँस से हँसना।
भेद
कर्म, प्रयोग तथा संरचना के आधार पर क्रिया के विभिन्न भेद किए जाते हैं –
1. कर्म के आधार पर क्रिया Kriya
कर्म के आधार पर क्रिया के मुख्यतः दो भेद किए जाते हैं (i) अकर्मक क्रिया (ii) सकर्मक क्रिया।
अकर्मक क्रिया
वे क्रियाएँ जिनके साथ कर्म प्रयुक्त नहीं होता तथा क्रिया का प्रभाव वाक्य के प्रयुक्त कर्त्ता पर पड़ता है, उसे अकर्मक क्रिया कहते हैं। जैसे- कुत्ता भौंकता है।
सीता हँसती है।
गीता सोती है।
बालक रोता है।
आदमी बैठा है।
कुछ और अकर्मक क्रिया ऐसी हैं, जिनका प्रायः कभी कभी अकेले कर्त्ता से पूर्णतया प्रकट नहीं होता। कर्ता के विषय में पूर्ण विधान होने के लिए इन क्रियाओं के साथ कोई संज्ञा या विशेषण आता है। इन क्रियाओं को अपूर्ण अकर्मक क्रिया कहते हैं और जो शब्द इनका आशय पूरा करने के लिए आते हैं उन्हें पूर्ति कहते हैं। “होना”, “रहना,” “बनना,” “दिखना”, “निकलना”, “ठहरना इत्यादि अपूर्ण अर्मक क्रियाएँ हैं। उदा०–“लड़का चतुर है।” साधु चोर निकला।” “नौकर वीर रहा ।” “आप मेरे मित्र ठहरे।” “यह मनुष्य विदेशी दिखता है। इन वाक्यों मे “चतुर”, “चोर”, “बीमार” आदि शब्द पूत्ति हैं।
सकर्मक क्रिया
वे क्रियाएँ, जिनका प्रभाव वाक्य में प्रयुक्त कर्ता पर न पड़ कर कर्म पर पड़ता है। अर्थात् वाक्य में क्रिया के साथ कर्म भी प्रयुक्त हो, उन्हें सकर्मक क्रिया कहते हैं।
जैसे- राम दूध पी रहा है।
सीता खाना बना रही है।
सकर्मक क्रिया के दो उपभेद किये जाते हैं
(अ) एक कर्मक क्रिया
जब वाक्य में क्रिया के साथ एक कर्म प्रयुक्त हो तो उसे एककर्मक क्रिया कहते हैं। जैसे- विपिन खेल कर रहा है।
(आ) द्विकर्मक क्रिया
जब वाक्य में क्रिया के साथ दो कर्म प्रयुक्त हुए हों तो उसे द्विकर्मक क्रिया कहते हैं। जैसे – अध्यापक जी छात्रों को हिन्दी पढ़ा रहे हैं। इस वाक्य में पढ़ा रहे हैं क्रिया के साथ छात्रों एवम् हिन्दी दो कर्म प्रयुक्त हुए है अतः पढ़ा रहे हैं द्विकर्मक क्रिया है।
2. प्रयोग तथा संरचना के आधार पर क्रिया Kriya
वाक्य में क्रियाओं का प्रयोग कहाँ किया जा रहा है किस रूप में किया जा रहा है, इसके आधार पर भी क्रिया के निम्न भेद होते हैं
(I) सामान्य क्रिया
जब किसी वाक्य में एक ही क्रिया का प्रयोग हुआ हो, उसे सामान्य क्रिया कहते हैं। जैसे –
सुरेश जाता है।
मीता आई।
(ii) संयुक्त क्रिया
जो क्रिया दो या दो से अधिक भिन्नार्थक क्रियाओं के मेल से बनती है, उसे संयुक्त क्रिया कहते हैं। जैसे
चंपा ने खाना बना लिया।
राज ने पत्र लिख लिया।
(iii) प्रेरणार्थक क्रिया
वे क्रियाएँ, जिन्हें कर्ता स्वयं न करके दूसरों को क्रिया करने के लिए प्रेरित करता है, उन क्रियाओं को प्रेरणार्थक क्रिया कहते हैं। जैसे–
राहुल, विवेक से पत्र लिखवाता है।
अनीता, सविता से पानी मंगवाती है।
(iv) पूर्वकालिक क्रिया
जब किसी वाक्य में दो क्रियाएँ प्रयुक्त हुई हों तथा उनमें से एक क्रिया दूसरी क्रिया से पहले सम्पन्न हुई हो तो पहले सम्पन्न होने वाली क्रिया पूर्व कालिक क्रिया कहलाती है। जैसे-
धर्मेन्द्र पढ़कर सो गया।
यहाँ सोने से पूर्व पढ़ने का कार्य हो गया अतः पढ़कर क्रिया पूर्वकालिक क्रिया कहलाएगी। (किसी मूल धातु के साथ कर लगाने से पूर्वकालिक क्रिया बनती है।)
(V) नाम धातु क्रिया
वे क्रिया पद, जो संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण आदि से बनते है, उन्हें नामधातु क्रिया कहते हैं।
वे क्रिया पद जो क्रिया शब्दों के साथ प्रत्यय लगने पर बनते हैं, उन्हें कृदन्त क्रिया पद कहते हैं जैसे
चल से चलना, चलता, चलकर।
लिख से लिखना, लिखता, लिखकर।
(vii) सजातीय क्रिया
वे क्रियाएँ, जहाँ कर्म तथा क्रिया दोनों एक ही धातु से बनकर साथ प्रयुक्त होती हैं। जैसे-भारत ने लड़ाई लड़ी।
(viii) सहायक क्रिया
किसी भी वाक्य में मूल क्रिया की सहायता करने वाले पद को सहायक क्रिया कहते है। जैसे-अरविन्द पढ़ता है। राजु ने अपनी पुस्तक मेज पर रख दी है। उक्त वाक्यों में है तथा दी है सहायक क्रिया हैं।
3. काल के अनुसार क्रिया Kriya
जिस काल में कोई क्रिया होती है, उस काल के नाम के आधार पर क्रिया का भी नाम रख देते हैं। अतः काल के अनुसार क्रिया तीन प्रकार की होती है
(i) भूतकालिक क्रिया
क्रिया का वह रूप, जिसके द्वारा बीते समय में (भूतकाल में) कार्य के सम्पन्न होने का बोध होता है। जैसे-
सुनीता गयी।
सौरभ खेल रहा था।
(ii) वर्तमानकालिक क्रिया
क्रिया का वह रूप जिसके द्वारा वर्तमान समय में कार्य के सम्पन्न होने का बोध होता है। जैसे-
प्रदीप खाना खाता है।
पूजा खाना बना रही है।
(iii) भविष्यत्कालिक क्रिया
क्रिया का वह रूप जिसके द्वारा आने वाले समय में कार्य के सम्पन्न होने का बोध होता है। जैसे –
मिताली कल जयपुर जायेगी।
रमेश विद्यालय जायेगा।
अकर्मक-सकर्मक क्रिया Kriya की पहचान का अचूक सूत्र
1 क्रिया से पहले क्या शब्द लगाकर प्रश्न बनाते हैं, यदि उत्तर आए तो वह क्रिया सकर्मक क्रिया होती है अन्यथा क्रिया अकर्मक होती है।
जैसे- लोग रामायण पढ़ते हैं।
उक्त वाक्य में पढ़ते हैं क्रिया पद है यदि इससे पहले क्या शब्द लगाकर एक प्रश्न बना लिया जाए तो प्रश्न बनेगा क्या पढ़ते हैं? तो इस प्रश्न का उत्तर हमें रामायण प्राप्त होता है इसलिए पढ़ने की क्रिया का फल लोग पद पर न पड़कर रामायण पर पड़ता है, इसलिए यहां क्रिया सकर्मक क्रिया है और रामायण इस वाक्य में कर्म पद है।
2 यदि क्या शब्द लगाकर प्रश्न करने पर प्रत्यक्ष उत्तर नहीं आता है लेकिन कोई काल्पनिक उत्तर आए तो भी क्रिया सकर्मक होगी।
यदि उत्तर में कर्ता ही प्राप्त होता है तो क्रिया सकर्मक नहीं होगी।
विद्यार्थी पढ़ते हैं।
उक्त वाक्य में क्रिया के साथ क्या लगाकर प्रश्न बनायें तो प्रश्न का कोई प्रत्यक्ष उत्तर नहीं प्राप्त होता है,
परन्तु इसका काल्पनिक उत्तर प्राप्त हो सकता है। अतः यहाँ पर सकर्मक क्रिया है।
3 प्रकृति द्वारा होने वाली क्रिया अथवा स्वतः होने वाली क्रियाएं सदैव अकर्मक होती है अथवा
जिस क्रिया का कोई कर्ता नहीं होता वह सदैव अकर्मक क्रिया होती है। जैसे-
फूल खिलता है।
उक्त वाक्य में जब क्या पद लगाकर प्रश्न बनाया जाएगा तो प्रश्न बनेगा क्या खिलता है?
वहां पर हमें इसका उत्तर प्राप्त नहीं होता है।
यदि हम इस प्रश्न का उत्तर फूल करेंगे तो फूल स्वयं कर्ता है कर्म नहीं है और दूसरी बात कि यह स्वतः होने वाली क्रिया है,
फूल स्वयं खिल रहा है, अतः यहां अकर्मक क्रिया होगी।
अन्य उदाहरण
बूंद-बूंद से घड़ा भरता है।
उक्त वाक्य में भी यदि क्या पद लगाकर प्रश्न बनाया जाए तो प्रश्न बनेगा क्या भरता है?
और इसका सीधा सा उत्तर मिलता है घड़ा भरता है।
परंतु घड़ा स्वतः भर रहा है उसको भरने वाला अर्थात उसका कोई कर्ता नहीं है
अतः स्वतः होने वाली क्रिया अकर्मक क्रिया होगी।
यदि इसी वाक्य को यह कर दिया जाए राम बूंद-बूंद से घड़ा भरता है।
तब राम इसका कर्ता हो जाएगा।
उस स्थिति में यह क्रिया सकर्मक क्रिया हो जाएगी।
कुछ क्रियाएँ प्रयोग के अनुसार सकर्मक और अकर्मक दोनो होती हैं, जैसे, खुजलाना, भरना, लजाना, भूलना, घिसना, बदलना, ऐठना, ललचाना, घबराना, इत्यादि । उदा०
“मेरे हाथ खुजलाते हैं ।” – अकर्मक क्रिया
“उसका बदन खुजलाकर उसकी सेवा करने में उसने कोई कसर नहीं की।” – सकर्मक क्रिया
“खेल-तमाशे की चीजें देखकर भोले भाले आदमिया का जी ललचाता है।” – अकर्मक क्रिया
“राकेश अपने सामान की खरीदारी के लिये मोहन को ललचाता है।” – सकर्मक क्रिया
विशेषण Visheshan | visheshan ke bhed | visheshan | kise kahate hain | paribhasha | visheshan in hindi | prakar | परिभाषा | विशेषण के उदाहरण
प्रयोग के आधार पर हिन्दी में शब्दों के दो भेद किए जाते हैं। (i) विकारी (Vikari Shabad)
(ii) अविकारी या अव्यय शब्द (Avikari Shabad)
(i) विकारी शब्द वे शब्द होते हैं, जिनका रूप लिंग, वचन, कारक और काल के अनुसार परिवर्तित हो जाता है, उन्हें विकारी शब्द कहते हैं विकारी शब्दों में समस्त संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण तथा क्रिया शब्द आते हैं।
(ii) अविकारी या अव्यय शब्द वे शब्द होते हैं, जिनके रूप में लिंग, वचन, कारक, काल के अनुसार कोई विकार उत्पन्न नहीं होता अर्थात् इन शब्दों का रूप सदैव वही बना रहता है।
ऐसे शब्दों को अविकारी या अव्यय शब्द कहते हैं। अविकारी शब्दों में क्रियाविशेषण, सम्बन्धबोधक अव्यय, समुच्चय बोधक अव्यय तथा विस्मयादिबोधक अव्यय आदि शब्द आते हैं। विस्तृत विवरण इस प्रकार है-
विशेषण Visheshan
परिभाषा: वे शब्द, जो किसी संज्ञा या सर्वनाम शब्द की विशेषता बतलाते हैं, उन्हें विशेषण कहते हैं। जैसे-
नीला-आकाश
छोटी लड़की
दुबला आदमी
कुछ पुस्तकें
में क्रमशः नीला, छोटी, दुबला, कुछ पद विशेषण हैं, जो आकाश लड़की, आदमी पुस्तकें आदि संज्ञाओं की विशेषता का बोध कराते हैं।
अतः विशेषता बतलाने वाले शब्द विशेषण कहलाते हैं वहीं वह विशेषण पद जिस संज्ञा या सर्वनाम की विशेषता बतलाता है उसे विशेष्य कहते हैं उक्त उदाहरणों में आकाश, लड़की आदमी पुस्तकें आदि पद विशेष्य कहलायेंगे।
विशेषण संज्ञा की व्याप्ति मर्यादित करता है
इस उक्ति का अर्थ यह है कि विशेषण रहित संज्ञा से जितनी वस्तुओं का बोध होता है उनकी संख्या विशे षण के योग से कम हो जाती ।
“दो शब्द से जितने प्राणियों का बोध होता है उसके प्राणियों का बोध “काला घोड़ा,” शब्दों से नहीं होता है।
“घोड़ा” शब्द जितना व्यापक है उतना “काला घोड़ा” शब्द नहीं है।
“घोड़ा” शब्द की व्याप्ति ( विस्तार ) “काला” शब्द से मर्यादित (संकुचित ) होती है; अर्थात “घोड़ा” शब्द अधिक प्राणियों का बोधक है और “काला घोड़ा” शब्द उससे कम प्राणियों का बोधक है।
विशेषण मुख्यतः 5 प्रकार के होते हैं – पंडित कामता प्रसाद गुरु ने विशेषण के तीन भेद स्वीकार किए हैं-
1 सार्वनामिक विशेषण
2 गुणवाचक विशेषण
3 संख्यावाचक विशेषण
1. गुणवाचक विशेषण : वे शब्द, जो किसी संज्ञा या सर्वनाम के गुण, दोष, रूप, रंग, आकार, स्वभाव, दशा आदि का बोध कराते हैं, उन्हें गुणवाचक विशेषण कहते हैं। जैसे-
वे विशेषण, जो किसी संज्ञा या सर्वनाम की निश्चित, अनिश्चित संख्या, क्रम या गणना का बोध कराते हैं उन्हें संख्यावाचक विशेषण कहते हैं।
ये भी दो प्रकार के होते हैं- एक वे जो निश्चित संख्या का बोध कराते हैं तथा दूसरे वे जो अनिश्चित संख्या का बोध कराते हैं जैसे-
(i) निश्चित संख्यावाचक
निश्चित संख्यावाचक विशेषण से वस्तुओं की निश्चित संख्या का बोध होता है; जैसे, एक लड़का, पच्चीस रुपये, दसवाँ भाग, दूना मोल, पाँचों इंद्रियाँ, हर आदमी, इत्यादि।
निश्चित संख्या-वाचक विशेपणों के पाँच भेद हैं-
(अ) गणनावाचक – एक, दो, तीन।
(आ) क्रमवाचक – पहला, दूसरा।
(इ) आवृत्तिवाचक – दोगुना, चौगुना।
(द) समुदाय वाचक – दोनों तीनों, चारों।
(य) प्रत्येक बोधक – “हर घड़ी”, ” हर एक आदमी”, “प्रति जन्म”, “प्रत्येक बालक, “हर आठवें दिन”, इत्यादि।
(ii) अनिश्चय संख्यावाचक – कई, कुछ, सब, बहुत, थोड़े।
3. परिमाण वाचक विशेषण
वे विशेषण, जो किसी पदार्थ की निश्चित या अनिश्चित मात्रा, परिमाण, नाप या तौल आदि का बोध कराते है, उन्हें परिमाण वाचक विशेषण कहते हैं।
इसके भी दो उपभेद किए जा सकते हैं यथा-
(i) निश्चित परिमाण वाचक : दो मीटर, पाँच किलो, सात लीटर।
वे सर्वनाम शब्द, जो विशेषण के रूप में किसी संज्ञा या सर्वनाम की विशेषता बताते हैं, उन्हें संकेतवाचक या सार्वनामिक विशेषण कहते हैं। जैसे-
(i) इस गेंद को मत फेको।
(ii) उस पुस्तक को पढ़ो।
(iii) वह कौन गा रही है?
वाक्यों में इस, उस वह आदि शब्द संकेतवाचक विशेषण हैं।
5. व्यक्तिवाचक विशेषण
वे विशेषण, जो व्यक्तिवाचक संज्ञा से बनकर अन्य संज्ञा या सर्वनाम की विशेषण बतलाते हैं उन्हें व्यक्तिवाचक विशेषण कहते हैं। जैसे-
जोधपुरी जूती, बनारसी साड़ी, कश्मीरी सेब, बीकानेरी भुजिए वाक्यों में जोधपुरी, बनारसी, कश्मीरी, बीकानेरी शब्द व्यक्तिवाचक विशेषण है।
विशेष : कतिपय विद्वान एक और प्रकार विभाग वाचक विशेषण का भी उल्लेख करते हैं। जैसे- प्रत्येक हर एक आदि।
विशेषण Visheshan की अवस्थाएँ
गुणवाचक विशेषण की तुलनात्मक स्थिति को अवस्था कहते हैं। अवस्था के तीन प्रकार माने गये हैं-
(i) मूलावस्था – जिसमें किसी संज्ञा या सर्वनाम की सामान्य स्थिति का बोध होता है। जैसे- राम अच्छा लड़का है।
(ii) उत्तरावस्था – जिसमें दो संज्ञा या सर्वनाम की तुलना की जाती है। जैसे-अशोक रमेश से अच्छा है।
(iii) उत्तमावस्था – जिसमें दो से अधिक संज्ञा या सर्वनामों की तुलना करके, एक को सबसे अच्छा या बुरा बतलाया जाता है वहाँ उत्तमावस्था होती है। जैसे – राम सबसे अच्छा है। सीता सुन्दरतम लड़की है।
अवस्था परिवर्तन : मूलावस्था के शब्दों में तर तथा तम प्रत्यय लगा कर या शब्द के पूर्व शाम से अधिक, या सबसे अधिक शब्दों का प्रयोग कर क्रमशः उत्तरावस्था एवं उत्तमावस्था में प्रयुक्त किया जाता है, जैसे-
मूलावस्था उत्तरावस्था उत्तमावस्था
उच्च उच्चतर उच्चतम
तीव्र तीव्रतर तीव्रतम
अच्छा से अच्छा सबसे अच्छा
ऊँचा से ऊँचा सबसे ऊँचा
विशेष
सार्वनामिक विशेषण Visheshan तथा सर्वनाम में अंतर
पुरुषवाचक और निजवाचक सर्वनामों को छोड़कर शेष सर्वनामों का प्रयोग विशेषण के समान होता है।
जब ये शब्द अकेले आते हैं, तब सर्वनाम होते हैं और जब इनके साथ संज्ञा आती है तब ये विशेषण होते हैं; जैसे-
“नौकर आया है ; वह बाहर खड़ा है।”
इस वाक्य में ‘वह’ सर्वनाम है; क्योंकि वह “नौकर” संज्ञा के बदले आया है।
“वह नौकर नही आया यहाँ “वह” विशेषण है; क्योकि “वह” “नौकर” संज्ञा की व्याप्ति मर्यादित करता है।
अर्थात् उसका आश्रय बताता है।
इसी तरह “किसी को बुलाओ” और “किसी ब्राह्मण को बुलाओ “- इन दोनो वाक्यो में “किसी” क्रमशः सर्वनाम और विशेषण है।
विशेष्य
विशेषण के योग से जिस संज्ञा की व्याप्ति मर्यादित होती है उस संज्ञा को विशेष्य कहते हैं;
जैसे, “ठंडी हवा चली” – इस वाक्य में ‘ठंडी’ विशेषण और ‘हवा’ विशेष्य है।
विशेष्य (उद्देश्य) विशेषण और विधेय विशेषण
व्यक्तिवाचक संज्ञा के साथ जो विशेषण आता है वह उस संज्ञा की व्याप्ति मर्यादित नहीं करता, जैसे-
पतिव्रता सीता
प्रतापी भोज
दयालु ईश्वर
इन उदाहरणों में विशेषण संज्ञा के अर्थ को केवल स्पष्ट करते हैं।
“पतिव्रता सीता” वही व्यक्ति है जो ‘सीता है।
इसी प्रकार “भोज” और प्रतापी भोज एक ही व्यक्ति के नाम हैं।
किसी शब्द का अर्थ स्पष्ट करने के लिये जो शब्द आते हैं वे समानाधिकरण कहाते है।
ऊपर के वाक्यों में “पतिव्रता,” “प्रतापी” और “दयालु” समानाधिकरण विशेषण हैं।
विशेषण Visheshan
जातिवाचक संज्ञा के साथ उसका साधारण धर्म सूचित करनेवाला विशेषण समानाधिकरण होता है; जैसे-
(हिन्दी में अपने से बड़े या आदरणीय व्यक्ति के लिए तुम की अपेक्षा आप सर्वनाम का प्रयोग किया जाता है।)
(3) अन्य पुरुषवाचक सर्वनाम
वे सर्वनाम, जिनका प्रयोग बोलने तथा सुनने वाले व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के लिए प्रयुक्त करते हैं।
जैसे– यह, वह, वे, उन्हें, उसे, इसे, उसका इसका आदि।
निश्चयवाचक सर्वनाम Sarvanam
वे सर्वनाम, जो किसी निश्चित वस्तु का बोध कराते है, उन्हें निश्चयवाचक सर्वनाम कहते हैं।
जैसे- यह, वह, वे, इस, उस. ये आदि। जैसे-
वह आपकी पुस्तक है, वाक्य में वह पद निश्चयवाचक सर्वनाम है।
इसी प्रकार “यह मेरा घर है” में यह पद निश्चय वाचक सर्वनाम है।
अनिश्चयवाचक सर्वनाम
वे सर्वनाम शब्द, जिनसे किसी निश्चित वस्तु या व्यक्ति का बोध नहीं होता बल्कि अनिश्चय की स्थिति बनी रहती है, उन्हें अनिश्चयवाचक सर्वनाम कहते हैं। जैसे-
कोई जा रहा है।
वह कुछ खा रहा है।
किसी ने कहा था।
वाक्यों में कोई, कुछ, किसी पद अनिश्चयवाचक सर्वनाम हैं।
प्रश्नवाचक सर्वनाम
वे सर्वनाम, जो प्रश्न का बोध कराते हैं या वाक्य को प्रश्नवाचक बना देते हैं, उन्हें प्रश्नवाचक सर्वनाम कहते हैं। जैसे-
कौन गाना गा रही है?
वह क्या लाया?
किसकी पुस्तक पड़ी है?
उक्त वाक्यों में कौन, क्या, किसकी पद प्रश्नवाचक सर्वनाम है।
सम्बन्धवाचक सर्वनाम
सर्वनाम, जो दो पृथक-पृथक बातों के स्पष्ट सम्बन्ध को व्यक्त करते है, उन्हें सम्बन्धवाचक सर्वनाम कहते हैं।
जैसे-जो- वह, जो-सो, जिसकी-उसकी. जितना-उतना, आदि सम्बन्ध वाचक सर्वनाम है। उदाहरणार्थ-
जो पढ़ेगा सो पास होगा।
जितना गुड़ डालोगे उतना मीठा होगा।
निजवाचक सर्वनाम Sarvanam
ये सर्वनाम, जिन्हें बोलने वाला कर्ता स्वयं अपने लिए प्रयुक्त करता है, उन्हें निजवाचक सर्वनाम कहते हैं।
आप अपना, स्वयं, खुद आदि निजवाचक सर्वनाम है।
मैं अपना खाना बना रहा हूँ।
तुम अपनी पुस्तक पढो।
आदि वाक्यों में अपना, अपनी पद निजवाचक सर्वनाम है।
सर्वनाम Sarvanam की सही पहचान
‘आप’ शब्द में सही सर्वनाम
प्रयोग के आधार पर ‘आप’ शब्द में तीन सर्वनाम हो सकते हैं
अत: सही सर्वनाम की पहचान के लिए निम्नलिखित सूत्र अत्यंत उपयोगी है-
मध्यम पुरुषवाचक
यदि ‘आप’ शब्द तू/तुम के आदर रूप में प्रयुक्त होता है तो निश्चय ही वह श्रोता के लिए प्रयुक्त होगा अतः वहाँ यह मध्यमपुरुषवाचक सर्वनाम माना जाता है। जैसे– आप आराम कीजिए।
आप कहाँ जा रहे हैं?
आप क्या खाना पसंद करेंगे?
उपर्युक्त सभी उदाहरणों में आप पद श्रोता के लिएआदर सूचक रूप में ही प्रयुक्त हुआ है,
अतः यहां मध्यम पुरुषवाचक सर्वनाम माना जाएगा।
अन्य पुरुषवाचक
यदि ‘आप’ शब्द का प्रयोग किसी व्यक्ति विशेष का परिचय करवाने के अर्थ में किया जाता है तो वहाँ यह ‘अन्य पुरुषवाचक सर्वनाम’ माना जाता है।
जैसे– भगत सिंह क्रांतिकारी युवक थे, आपने ‘इन्कलाब जिन्दाबाद’ का नारा बुलंद किया।
उपर्युक्त उदाहरण में भगत सिंह के लिए प्रयुक्त आपने शब्द भगत सिंह के परिचय के रूप में प्रयुक्त हुआ है, अतः यहां अन्य पुरुषवाचक सर्वनाम माना जाएगा।
इस प्रकार के परिचयात्मक रूप में यदि आप शब्द का प्रयोग किया जाता है और वह व्यक्ति जिस का परिचय दिया जा रहा है वह वहां उपस्थित हो तो भी आप शब्द का प्रयोग अन्य पुरुषवाचक सर्वनाम ही माना जाएगा। क्योंकि जिस व्यक्ति का परिचय दिया जा रहा है, भले ही वह वहां उपस्थित हो परंतु वह उस बातचीत में शामिल नहीं है। बातचीत में शामिल केवल वक्ता और श्रोता ही है। वह व्यक्ति बातचीत को सुनने के बावजूद भी उस बातचीत का अंग नहीं माना जाता,अतः ऐसी स्थिति में वहां अन्य पुरुषवाचक सर्वनाम ही माना जाता है।
निजवाचक
यदि ‘आप’ शब्द अपनेपन को प्रकट करता है तो वहाँ वह निजवाचक सर्वनाम माना जाता है।
निजवाचक “आप” का प्रयोग नीचे लिखे अर्थों में होता है-
(अ) किसी संज्ञा या सर्वनाम के उदाहरण के लिए, जैसे
“मैं आप वहीं से आया हूँ ।”
“बनते कभी हम आप योगी।”
(आ) दूसरे व्यक्ति के निराकरण के लिए, जैसे –
(अ) “श्रीकृष्ण जी ने ब्राह्मण को विदा किया और आप चलने का विचार करने लगे।”
(आ) “वह अपने को सुधार रहा है।”
(इ) अवधारणा के अर्थ में “आप” के साथ कभी कभी “ही” जोड़ देते हैं, जैसे, “मैं तो आपही आती थी।”
“वह अपने पात्र के सम्पूर्ण गुण अपने ही में भरे हुए अनुमान करने लगता है।”
(ई) कभी-कभी “आप” के साथ उसका रूप “अपना” जोड़ देते हैं –
जैसे, “किसी दिन मैं आप अपने को न भूल जाऊँ ।
“क्या वह अपने आप झुका है ?”
“राजपूत वीर अपने आपको भूल गये।”
(उ) “आप” शब्द कभी-कभी वाक्य में अकेला आता है और अन्य पुरुष का बोधक होता है; जैसे-
“आप कुछ उपार्जन किया ही नहीं, जो था वह नाश हो गया।”
(ऊ) सर्व-साधारण के अर्थ में भी “आप” आता है-
जैसे आप भला तो जग भला ।” (कहावत)
“अपने से बड़ों का आदर करना उचित है।”
ऋ) “आप” के बदले व उसके साथ बहुधा “खुद” (उर्दू), “स्वयं वा स्वतः” (संस्कृत) का प्रयोग होता है। स्वयं, स्वतः और खुद हिंदी में अव्यय हैं और इनका प्रयोग बहुधा क्रिया विशेषण के समान होता है। आदरसूचक ‘आप’ के साथ द्विरुक्ति के निवारण के लिए इनमें से किसी एक का प्रयोग करना आवश्यक है; जैसे-
“आप खुद यह बात समझ सकते हैं।”
“हम आज अपने आपको भी हैं स्वयं भूले हुए ।”
महाराज स्वतः वहाँ गये थे।”
(ए) कभी-कभी “आप” के साथ निज (विशेषण) संज्ञा के समान आता है; पर इसका प्रयोग केवल संबंध-कारक में होता है। जैसे, “हम तुम्हें एक अपने निज के काम मे भेजा चाहते हैं ।
(ऐ) “आप” शब्द का रूप “आपस“, “परस्पर” के अर्थ मे आता है। इसका प्रयोग केवल संबंध और अधिकरण-कारकों मे होता है; जैसे-
“एक दूसरे की राय आपस में नहीं मिलती।”
“आपस की फूट बुरी होती है।”
(ओ) “आपही”, “अपने आप”, “आपसे आप” और “आपही आप का अर्थ “मन से” या “स्वभाव से” होता है और इनका प्रयोग क्रिया विशेषण-वाक्यांश के समान होता है, जैसे-
“ये मानवी यंत्र आपही आप घर बनाने लगे।” (उद्धृत –पं. कामताप्रसाद गुरु)
यह/वह/वे का प्रयोग भी प्राय: दो सर्वनामों में किया जाता है अत: सही सर्वनाम की पहचान के लिए निम्नलिखित सूत्र बहुत उपयोगी है। अगर–
वह/वे अन्य पुरुष के रूप में तब आते हैं, जब वह/वे का प्रयोग वक्ता या श्रोता से इतर किसी अन्य व्यक्ति के लिए किया जाता है। जैसे-
वह (कृष्ण) तो गवार ग्वाला है।
वे (कालिदास) असामान्य वैयाकरण थे।
क्या अच्छा होता जो वह इस काम को कर जाते।
वह सौदागर की सब दुकान को अपने घर ले जाना चाहता है।
(ध्यातव्य है कि वह/वे अन्य पुरुष के रूप में तब प्रयुक्त होता है जब वह वह किसी व्यक्ति के लिए प्रयुक्त हो न कि किसी पदार्थ या वस्तु के लिए।)
यदि यह/वह/वे के तुरन्त बाद कोई अन्य शब्द आए तथा उसके बाद ‘संकेतित’ पदार्थ/वस्तु वाक्य में प्रयुक्त हो रहा है तो वहाँ यह/वह/वे शब्दों को निश्चयवाचक सर्वनाम में मानना चाहिए। जैसे-
वह मेरी पुस्तक है।
यह किसकी साइकिल है।
वे सूखे पेड़ कौन ले गया।
उक्त सभी उदाहरणों में यह, वह, वे पद निश्चित वस्तुओं की ओर संकेत कर रहे हैं, अतः यहां निश्चयवाचक माना जाएगा।
(यदि यह, वह,वे शब्दों के तुरंत बाद कोई संज्ञा शब्द आ जाए और वह उन संज्ञा शब्दों की विशेषता प्रकट करें तो वहां संकेतवाचक विशेषण माना जाएगा इसकी विस्तृत चर्चा विशेषण प्रकरण के अंतर्गत की जाएगी।)
संज्ञा Sangya की परिभाषा, संज्ञा के भेद, संज्ञा के उदाहरण, प्रकार, संज्ञा की पहचान, हिंदी व्याकरण में संज्ञा संपूर्ण जानकारी सहित परीक्षोपयोगी तथ्य
प्रयोग के आधार पर हिन्दी में शब्दों के दो भेद किए जाते हैं।
(i) विकारी (Vikari Shabad)
(ii) अविकारी या अव्यय शब्द (Avikari Shabad)
(i) विकारी शब्द वे शब्द होते हैं, जिनका रूप लिंग, वचन, कारक और काल के अनुसार परिवर्तित हो जाता है, उन्हें विकारी शब्द कहते हैं विकारी शब्दों में समस्त संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण तथा क्रिया शब्द आते हैं।
(ii) अविकारी या अव्यय शब्द वे शब्द होते हैं, जिनके रूप में लिंग, वचन, कारक, काल के अनुसार कोई विकार उत्पन्न नहीं होता अर्थात् इन शब्दों का रूप सदैव वही बना रहता है। ऐसे शब्दों को अविकारी या अव्यय शब्द कहते हैं। अविकारी शब्दों में क्रियाविशेषण, सम्बन्धबोधक अव्यय, समुच्चय बोधक अव्यय तथा विस्मयादिबोधक अव्यय आदि शब्द आते हैं। विस्तृत विवरण इस प्रकार है-
संज्ञा Sangya की परिभाषा
परिभाषा
किसी प्राणी, वस्तु स्थान, भाव अवस्था, गुण या दशा के नाम को संज्ञा कहते हैं। जैसे राम, नदी, आगरा, स्वतंत्रता, बचपन, मिठास, खटास आदि।
संज्ञा Sangya के भेद
संज्ञा मुख्यतः तीन प्रकार की होती है
(1) व्यक्तिवाचक संज्ञा (2) जातियाचक संज्ञा (3) भाववाचक संज्ञा
(1) व्यक्तिवाचक संज्ञा Sangya
व्यक्ति विशेष, वस्तु विशेष अथवा स्थान विशेष के नाम को व्यक्तिवाचक संज्ञा कहते है। जैसे
व्यक्ति विशेष : जय, गौतम, रमेश, नीलेश।
वस्तु विशेष : रामायण, रविपंखा, उषामशीन।
स्थान विशेष : बीकानेर, गंगा, मीनाक्षी मंदिर, हिमालय।
व्यक्तिवाचक संज्ञा में रहने वाले शब्दों की पहचान
(i) व्यक्तियों के नाम
(ii) दिशाओं के नाम
(iii) देशों के नाम
(iv) पहाड़ों के नाम
(v) समुद्रों के नाम
(vi) नदियों के नाम
(vii) दिनों के नाम
(viii) महीनों के नाम
(ix) पुस्तकों के नाम
(x) समाचार पत्रों के नाम
(xi) त्योहारों/उत्सवों के नाम
(xii) नगरों के नाम
(xiii) सड़कों के नाम
(xiv) चौकों के नाम
(xv) ऐतिहासिक युद्धों के नाम
(xvi) राष्ट्रीय जातियों के नाम
कतिपय परिस्थितियों में व्यक्तिवाचक संज्ञा शब्द भी जातिवाचक संज्ञा के रूप में स्वीकार किए जाते हैं–
व्यक्तिवाचक संज्ञा का कोई शब्द जब अपने साथ अन्य नामों का भी बोध कराता है तो वहाँ जातिवाचक संज्ञा मानी जाती है- जैसे
समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहा जाता है।
उक्त उदाहरण में नेपोलियन शब्द व्यक्तिवाचक संज्ञा का उदाहरण है परंतु यहाँ अन्य नामो का बोध कराने के कारण यह जातिवाचक संज्ञा माना गया है।
अन्य उदाहरण –
कलियुग के भीम।
कविता हमारे घर की लक्ष्मी है
देश में जयचन्दों की कमी नहीं है।
तीसरे उदाहरण में ‘लक्ष्मी’ संज्ञा जातिवाचक है, क्योंकि उससे विष्णु की स्त्री का बोध नहीं होता, किंतु लक्ष्मी के समान एक गुणवती स्त्री का बोध होता है। इसी प्रकार ‘भीम’ भी जातिवाचक संज्ञा हैं। “गुप्तों की शक्ति क्षीण होने पर यह स्वतंत्र हो गया था”। इस वाक्य में “गुप्तों” शब्द से अनेक व्यक्तियों का बोध होने पर भी वह नाम व्यक्तिवाचक संज्ञा है, क्योंकि इससे किसी व्यक्ति के विशेष धर्म का बोध नहीं होता, किंतु कुछ व्यक्तियोंके एक विशेष समूह का बोध होता है। (उद्धृत – हिंदी व्याकरण पंडित कामताप्रसाद गुरु पृ. सं. 80)
(2) जातिवाचक संज्ञा Sangya
जिस संज्ञा से किसी प्राणी, वस्तु अथवा स्थान की जाति या पूरे वर्ग का बोध होता है, उसे जातिवाचक संज्ञा कहते हैं। जैसे –
प्राणी : मानव, लड़का, घोड़ी, मोर, फौज, भीड़।
वस्तु : पुस्तक, पंखा, चाय, साबुन, सोना,पर्वत, गेंहूँ।
स्थान : नदी, गांव, विद्यालय।
जातिवाचक संज्ञा में रहने वाले शब्दों की पहचान-
I. पदों के नाम- राष्ट्रपति, सभापति, जिलाधीश, तहसीलदार, प्रधानाचार्य, अध्यापक।
II. व्यवसाय के नाम- डाॅक्टर, वकील, मजदूर आदि।
III. सामाजिक संबंधों के नाम- दादा, दादी, भाई, पिताजी, माताजी आदि।
IV. प्राकृतिक आपदाओं के नाम- आँधी, तूफान, भूकम्प आदि।
V. फर्नीचर के नाम- मेज, कुर्सी, चारपाई आदि।
कतिपय परिस्थितियों में जातिवाचक संज्ञा शब्द भी व्यक्तिवाचक संज्ञा के रूप में स्वीकार किए जाते हैं–
जब कोई जातिवाचक संज्ञा शब्द किसी व्यक्ति विशेष के अर्थ में रूढ़ हो जाता है तो वहाँ व्यक्तिवाचक संज्ञा मानी जाती है। कुछ जातिवाचक संज्ञाओं का प्रयोग व्यक्तिवाचक संज्ञाओं के समान होता है।
जैसे-
पुरी = जगन्नाथ
देवी = दुर्गा
दाऊ = बलराम
संवत् = विक्रमी संवत् इत्यादि ।
इसी वर्ग में वे शब्द शामिल हैं जो मुख्य नामों के बदले उपनाम के रूप में आते हैं। जैसे-
सितारे – हिंद = राजा शिवप्रसाद
भारतेन्दु = बाबू हरिश्चन्द्र
गुसाईजी = गोस्वामी तुलसीदास इत्यादि।
बहुत सी योगरूढ़ संज्ञा, जैसे, गणेश, हनुमान, हिमालय, गोपाल, इत्यादि मूल में जातिवाचक संज्ञाएँ हैं, परंतु अब इनका प्रयोग जातिवाचक अर्थ में प्रायः नहीं होता। (उद्धृत – हिंदी व्याकरण पंडित कामताप्रसाद गुरु पृ. सं. 80-81)
अन्य उदाहरण –
नेताजी ने जय हिंद का नारा दिया।
उक्त उदाहरण में नेताजी शब्द जातिवाचक संज्ञा के अंतर्गत है। क्योंकि नेताजी शब्द का अपने सामान्य अर्थ में कोई भी नेताजी हो सकते हैं, परंतु उक्त वाक्य में ऐसा नहीं है।यहां नेताजी शब्द सुभाषचंद्र बोस के लिए रूढ़ हो गया है, अतः यहां नेताजी शब्द व्यक्तिवाचक संज्ञा माना जाएगा।
बापू ने आजादी के लिए चरखा चलाया।
सरदार ने देश को संगठित किया।
देश हमें प्राणों से प्यारा है।
(3) भाववाचक संज्ञा Sangya
किसी भाव. अवस्था, गुण अथवा दशा के नाम को भाववाचक संज्ञा कहते हैं।
कतिपय परिस्थितियों में भाववाचक संज्ञा शब्द भी जातिवाचक संज्ञा के रूप में स्वीकार किए जाते हैं–
कभी-कभी भाववाचक संज्ञा का प्रयोग जातिवाचक संज्ञा के समान होता है, जैसे-
“उसके आगे सब निरादर है”।
इस वाक्य में “निरादर” शब्द से”निरादर-योग्य ‘स्त्री’ का बोध होता है ।
“ये सब कैसे अच्छे पहिरावे है”।
यहाँ “पहनावे” का अर्थ बहुत करके“पहनने के वस्त्र” है ।
(उद्धृत – हिंदी व्याकरण पंडित कामताप्रसाद गुरु पृ. सं. 81)
सामान्य परिस्थितियों में भाववाचक संज्ञा का प्रयोग एकवचन में ही होता है। परंतु यदि भाववाचक संज्ञा को बहुवचन में प्रयुक्त कर दिया जाये तो वहाँ पर जातिवाचक संज्ञा मानी जाती है।
अब तो दूरियाँ भी नजदीकियाँ बन गयी हैं।
आजकल चोरियाँ बहुत हो रही हैं।
सबकी प्रार्थनाएँ व्यर्थ नहीं जायेंगी।
उक्त उदाहरणों में दूरियां, नज़दीकियां, चोरियां,प्रार्थनाएं आदि विशेषण शब्द है, परंतु बहुवचन में प्रयुक्त होने के कारण जातिवाचक संज्ञा माने गए हैं।
विशेष: कुछ विद्वान अंग्रेजी व्याकरण की नकल करते हुए हिन्दी में भी संज्ञा के निम्नलिखित दो भेद और मानते हैं
(1) समुदायवाचक संज्ञा Sangya (Collective Noun)-
जिन संज्ञा शब्दों से व्यक्तियों, वस्तुओं आदि के समूह का बोध हो, उन्हें समुदायवाचक संज्ञा कहते हैं। जैसे –
शब्द विचार | Shabd Vichar | शब्द Shabd की परिभाषा | शब्द Shabd के भेद | उत्पत्ति के आधार पर शब्द | रचना के आधार पर शब्द | | प्रयोग के आधार पर | अर्थ के आधार पर
परिभाषा | शब्द Shabd
एक या एक से अधिक वर्णों से बने सार्थक ध्वनि-समूह को शब्द कहते है।
शब्द Shabd के भेद
शब्द की उत्पत्ति या स्रोत, रचना या बनावट, प्रयोग तथा अर्थ के आधार पर शब्दों के निम्न भेद किये जाते हैं-
उत्पत्ति के आधार पर शब्द
उत्पत्ति एवं स्रोत के आधार पर हिन्दी भाषा में शब्दों को निम्न चार उपभेदों में बाँटा गया है
तत्सम शब्द
तत् अर्थात उसके, सम अर्थात समान अर्थात अपनी मूल भाषा के समान प्रयुक्त होने वाले शब्द।
किसी भाषा में प्रयुक्त उसकी मूल भाषा के शब्दों को तत्सम शब्द कहते हैं।
हिन्दी की मूल भाषा संस्कृत है अतः संस्कृत के वे शब्द, जो हिन्दी में ज्यों के त्यों प्रयुक्त होते हैं, उन्हें तत्सम शब्द कहते हैं।
तद् अर्थात उसके, भव अर्थात (समान) भाव देने वाला अर्थात संस्कृत के वे शब्द जिनका हिन्दी में रूप परिवर्तित हो गया हो, परंतु अर्थ वही रहे, तद्भव शब्द कहलाते हैं।
जैसे – अक्षि से आँख, सूर्य से सूरज, हरिद्रा से हल्दी, घृत से घी आदि बने शब्द तद्भव शब्द कहलाते हैं।
देशज शब्द
किसी भाषा में प्रचलित वे शब्द, जो क्षेत्रीय जनता द्वारा आवश्यकतानुसार गढ लिए जाते है, देशज शब्द कहलाते हैं।
अर्थात् भाषा के अपने शब्दों को देशज शब्द कहते हैं।
साथ ही वे शब्द भी देशज शब्दों की श्रेणी में आते हैं जिनके सोत का कोई पता नहीं है तथा हिन्दी में संस्कृतेतर भारतीय भाषाओं से आ गये हैं-
(अ) अपनी गढंत से बने शब्द
(आ) द्रविड़ जातियों की भाषाओं से आये देशज शब्द
(इ) कोल, भील, संस्थाल आदि जातियों की भाषा से आये शब्द
विदेशी शब्द
राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक आदि विभिन्न कारणों से किसी भाषा में अन्य देशों की भाषाओं से भी शब्द आ जाते है. उन्हें विदेशी शब्द कहते हैं।
हिन्दी भाषा में प्रयुक्त अंग्रेजी, अरबी, फारसी, पुर्तगाली, तुर्की, फ्रांसीसी, चीनी भाषाओं के अतिरिक्त डच, जर्मनी, जापानी, तिब्बती, रूसी, यूनानी भाषा के भी शब्द प्रयुक्त होते हैं।
शब्द विचार Shabad Vichar
रचना के आधार पर शब्द
शब्दों की रचना प्रक्रिया के आधार पर हिन्दी भाषा के शब्दों के तीन भेद किये जाते हैं (1) रूढ़ शब्द (2) यौगिक शब्द (3) योग रूढ़ शब्द
रूढ़ शब्द
वे शब्द जो किसी व्यक्ति, स्थान, प्राणी और वस्तु के लिए वर्षों से प्रयुक्त होने के कारण किसी विशिष्ट अर्थ में प्रचलित हो गए है, रूढ़ शब्द कहलाते है।
इन शब्दों की निर्माण प्रक्रिया भी पूर्णतः ज्ञात नहीं होती।
इनका अन्य अर्थ भी नही होता तथा इन शब्दों के टुकड़े करने पर भी उन टुकड़ों के स्वतन्त्र अर्थ नहीं होते
वे यौगिक शब्द जिनका निर्माण पृथक-पृथक अर्थ देने वाले के योग से होता है,
किन्तु ये अपने द्वारा प्रतिपादित अनेक अर्थों में से किसी एक विशेष अर्थ के लिए ही प्रतिपादित होकर रूढ़ हो गये है,
ऐसे शब्दों को योगरूढ शब्द कहलाते हैं।
जैसे-त्रिनेत्र, शब्द ‘त्रि’ और ‘नेत्र’ के योग से बना है, जो भगवान शिव के अर्थ में रुढ है।
इसी प्रकार चक्रपाणि, वीणापाणि, रेवतीरमण, श्यामसुंदर, हिमालय. जलज, जलद, गजानन, लम्बोदर, पीताम्बर, सुरारि।
शब्द विचार Shabad Vichar
प्रयोग के आधार पर
प्रयोग के आधार पर हिन्दी में शब्दों के दो भेद किए जाते है-
विकारी शब्द
वे शब्द, जिनका रूप लिंग, वचन, कारक और काल के अनुसार परिवर्तित हो जाता है,
उन्हें विकारी शब्द कहते हैं विकारी शब्दों में समस्त संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण तथा क्रिया शब्द आते हैं।
इनका विस्तृत अध्ययन अलग प्रकरण में किया गया है।
अविकारी या अव्यय शब्द
ये शब्द जिनके रूप में लिंग, वचन, कारक, काल के अनुसार कोई विकार (परिवर्तन) उत्पन्न नहीं होता अर्थात इन शब्दों का रूप सदैव वही बना रहता है।
ऐसे शब्दों को अविकारी या अव्यय शब्द कहते हैं।
अविकारी शब्दों में क्रियाविशेषण, सम्बन्धबोधकअव्यय, समुच्चयबोधक अव्यय तथा विस्मयादिबोधक अव्यय आदि शब्द आते हैं।
अर्थ के आधार पर
अर्थ के आधार पर शब्दों के निम्न भेद किए जाते हैं
एकार्थी शब्द : वे शब्द जिनका प्रयोग प्रायः एक ही अर्थ में होता है, एकार्थी शब्दकहलाते है।
जैसे रात, धूप, लडका, पहाड़, नदी।
अनेकार्थी शब्द: वे शब्द, जिनके एक से अधिक अर्थ होते है. तथा उनका प्रयोग अलग-अलग अर्थ में किया जा सकता है।
जैसे: अंक, सारंग, कर, द्विज, हरि आदि अनेकार्थी शब्द है।
पर्यायवाची शब्द: ये शब्द जिनका अर्थ समान होता है। अर्थात् एक ही शब्द के अनेक समानार्थी शब्द पर्यायवाची शब्द कहलाते है।
जैसे चंद्रमा- चाँद, शशि, राकेश, मयंक आदि शब्द चंद्रमा के समानार्थी या पर्यायवाची शब्द हैं।
विलोम शब्द: वे शब्द जो एक दूसरे का विपरीत अर्थ देते है, उन्हें विलोम या विपरीतार्थक शब्द कहते हैं।
जैसे शीत-ऊष्ण, काला-सफेद, जीवन-मरण, सुख-दुःख।
समोच्चारित भिन्नार्थक शब्द या युग्म शब्द : वे शब्द जिनका उच्चारण समान प्रतीत होता है किन्तु अर्थ बिल्कुल भिन्न होता है।
ऐसे शब्दों को समोच्चारित भिन्नार्थक शब्द या युग्म-शब्द कहते हैं। जैसे आवरण-आभरण।
शब्द समूह के लिए एक शब्द : शब्द जो किसी वाक्य, वाक्यांश या शब्द समूह के लिए एक शब्द बन कर प्रयुक्त होते है उन्हें शब्द समूह के लिए प्रयुक्त एक शब्द कहते हैं।
जैसे – जिसका कोई अंत न हो – अनंत।
शब्द विचार Shabd Vichar
समानार्थक प्रतीत होने वाले भिन्नार्थक शब्द: वे शब्द जो सामान्यतः समान अर्थ वाले प्रतीत होते हैं, किन्तु उनमें अर्थ का सूक्ष्म अन्तर होता है तथा उन्हें अलग-अलग संदर्भ में ही प्रयुक्त किया जाता है जैसे अस्त्र-शस्त्र।
अस्त्र शब्द उन हथियारों के लिए प्रयुक्तजिन्हें फेंक कर वार किया जाता है।
जैसे-तीर बम, बन्दुक, आदि, जबकि शस्त्र उन हथियारो को कहते है जिनका प्रयोग पास में रखकर ही किया जाता है जैसे- लाठी. तलवार, चाकू, भाला आदि।
समूहवाची शब्द: किसी एक समूह का बोध कराने वाले शब्दों को समूहवाची शब्द कहते हैं
जैसे: गठ्ठर (लकड़ियों का) गुच्छा (चाबियों या अंगूर का) गिरोह (माफिया या डाकुओं का), जोडा (जूतों का, हसों का) जत्था (यात्रियों का, सत्याग्रहियों का), झुण्ठ (पशुओं का) टुकड़ी (सेना की), ढेर (अनाज का), पंक्ति (मनुष्यों, हंसों की) भीड (मनुष्यों की), माला (फूलो की, मोतियों की), श्रृंखला (मानव, लौह) रेवड़ (भेड़ व बकरियों का) समूह (मनुष्यों का)
ध्वन्यार्थक शब्द
वे ध्वन्यात्मक शब्द जिनका अर्थ ध्वनियों पर आधारित होता है। इनको निम्न उपभेदों में बाँट सकते हैं
भाषा तथा व्याकरण Bhasha Vyakaran | भाषा-व्याकरण में अंतर | भाषा-व्याकरण में संबंध । भाषा किसे कहते हैं? | भाषा के भेद ।
मनुष्य सामाजिक प्राणी है और इसी सामाजिकता के गुण के कारण उसे सदैव विचार विनिमय की आवश्यकता रही है विचार विनिमय के लिए है मानव पहले संकेतों तथा हाव-भाव का प्रयोग करता था और उसके बाद में ध्वनि संकेतों का प्रयोग शुरू हुआ।
इन्हीं ध्वनि संकेतों से भाषा का विकास हुआ। भाषा एक मात्र ऐसा साधन है, जिसके माध्यम से मनुष्य अपने हृदय के भाव एवं मस्तिष्क के विचार दूसरे मनुष्यों के समक्ष प्रकट कर सकता है और इस प्रकार समाज में पारस्परिक जुडाव की स्थिति बनती है।
यदि भाषा का विकास नहीं होता तो मनुष्य भौतिक और आध्यात्मिक उन्नति नहीं कर पाता और न ही अपने विचारों की अभिव्यक्ति ही कर पाता।
Bhasha Vyakaran
भाषा के अभाव में मनुष्य पशु तुल्य रहता क्योंकि वह अपने पूर्व अनुभवों से कोई लाभ किसी को नहीं दे पाता।
भाषा शब्द संस्कृत के ‘भाष्’ से व्युत्पन्न हुआ है। जिसका अर्थ होता है -प्रकट करना।
जिस माध्यम से हम अपने मन के भाव एवं मस्तिष्क के विचार बोलकर प्रकट करते उसे भाषा कि संज्ञा दी गई है।
भाषा ही मनुष्य की पहचान होती है।
उसके व्यापक स्वरूप के सम्बन्ध में कहा जा सकता है कि- “भाषा वह साधन है जिसके माध्यम से हम सोचते है और अपने भावों/विचारों को व्यक्त करते है।”
आज विश्व के अलग-अलग भागों में अलग-अलग भाषाएं प्रचलित हैं भारत में भी अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग भाषाएं प्रचलित हैं
इन भाषाओं में से हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त है और वही हमारी राजभाषा भी है हिंदी एक वैज्ञानिक भाषा है, इस वैज्ञानिक भाषा का अध्ययन हम आगे करेंगे।
व्याकरण
व्याकरण वह शास्त्र है, जिसके द्वारा हम किसी भी भाषा को शुद्ध लिखना, बोलना और पढ़ना सीखते हैं।
प्रत्येक भाषा के लिखने, पढ़ने और बोलने केनियम मौलिक और निश्चित होते हैं।
भाषा की शुद्धता और गुणवत्ता को बनाए रखने के लिए इन नियमों का पालन करना अतिआवश्यक होता है।
ये नियम भी व्याकरण के अंतर्गत आते हैं, अतः कह सकते हैं कि किसी भाषा को सीखने के नियमों के संग्रह को व्याकरण कहते हैं।
वर्ण विचार
किसी भाषा के व्याकरण ग्रंथ में इन तीन तत्वों की विशेष एवं आवश्यक रूप से विवेचना की जाती है-
वर्ग
शब्द
वाक्य
हिन्दी विश्व की सभी भाषाओं में सर्वाधिक वैज्ञानिक भाषा है।
जिसमें में 44 वर्ण हैं, जिन्हें दो भागों में बांटा जा सकता है- स्वर और व्यंजन।
स्वर
ऐसी ध्वनियों का उच्चारण करने मे अन्य किसी ध्वनि की सहायता की आवश्यकता नहीं होती. उन्हें स्वर कहते हैं।
स्वर ग्यारह होते हैं. अ. आ, इ, ई, उ. ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ।
स्वरों का वर्गीकरण
उच्चारण काल/ मात्रा के आधार पर
इन्हें तीन भागों में बांटा जा सकता है-
हृस्व
दीर्घ एवं
प्लुत
हृस्व स्वर
जिन स्वरों के उच्चारण में अपेक्षाकृत कम समय लगे, अथवा एक मात्रा जितना समय लगे उन्हें हृस्व स्वर कहते हैं। जैसे- अ, इ, उ, ऋ।
दीर्घ स्वर
जिन स्वरों को उच्चारण में अधिक समय लगेअथवा दो मात्रा जितना समय लगे उन्हें दीर्घ स्वर कहते है।
इन्हे मात्रा द्वारा भी दर्शाया जाता है। ये दो स्वरों को मिला कर बनते हैं. अतः इन्हें संयुक्त स्वर भी कहा जाता है।
आ. ई. ऊ, ए. ऐ, ओ, औ दीर्घ स्वर है। स्वरों के मात्रा रूप इस प्रकार है : ा ि ी ु ू ृ े ै ो ौ
प्लुत स्वर
जिन वर्णों के उच्चारण में दीर्घ स्वर से भी अधिक समय लगता है, उन्हें प्लुतस्वर कहते हैं।
हिंदी में आवश्यकता अनुसार सभी स्वर प्लुत स्वर होते हैं।
किसी को पुकारने में या नाटक के संवाद आदि में इसका प्रयोग किया जाता है। जैसे –पूSSSSत्र
जिह्वा के प्रयोग के आधार पर
जिह्वा के प्रयोग के आधार पर स्वर तीन प्रकार के होते हैं– अग्रस्वर,मध्य स्वर, और पश्च स्वर।
अग्र स्वर: जिन स्वरों के उच्चारण में जिह्वा का अग्र भाग अपेक्षाकृत अधिक सक्रिय रहता है – इ ई ए ऐ।
मध्य स्वर : जिन स्वरों के उच्चारण में जिह्वा का मध्य भाग अपेक्षाकृत अधिक सक्रिय रहता है- अ।
पश्च स्वर: जिन स्वरों के उच्चारण में जिह्वा का पश्च भाग अपेक्षाकृत अधिक सक्रिय रहता है- आ उ ऊ ओ औ।
मुख-विवर (मुख- द्वार) के खुलने के आधार पर :
मुख विवर के खुलने के आधार पर स्वर चार प्रकार के होते हैं –विवृत स्वर, अर्ध विवृत स्वर, अर्ध संवृत स्वर और संवृत स्वर
विवृत (Open): जिन स्वरों के उच्चारण में मुख-द्वार पूरा खुलता है – आ।
अर्ध-विवृत (Half-Open): जिन स्वरों के उच्चारण में मुख-विवर (मुख-द्वार) आधा खुलता है–अ, ऐ, ओ, औ
अर्ध-संवृत (Half-close): जिन स्वरों के उच्चारण में मुख-द्वार (मुख-विवर)आधा बंद रहता है – ए, ओ।
संवृत (Close): जिन स्वरों के उच्चारण में मुख-द्वार (मुख-विवर) लगभग बंद रहता है – इ.ई. उ, ऊ।
4.ओष्ठ की स्थिति के आधार पर
ओष्ठ की स्थिति के आधार पर स्वर दो प्रकार के होते हैं- अवृतमुखी और वृत्तमुखी
अवृतमुखी– जिन स्वरों के उच्चारण में ओष्ठ वृतमुखी या गोलाकार नहीं होते हैं –अ, आ, इ, ई, ए, ऐ।
वृतमुखी- जिन स्वरों के उच्चारण में ओष्ठ वृतमुखी या गोलाकार होते हैं (उ, ऊ, ओ, औ)।
5.हवा के नाक व मुँह से निकलने के आधार पर
हवा के नाक व मुंह से निकलने के आधार पर स्वर दो प्रकार के होते हैं- निरनुनासिक, अनुनासिक
निरनुनासिक/मौखिक स्वर– जिन स्वरों के उच्चारण में वायु केवल मुंह से निकलती है– अ, आ आदि।
अनुनासिक स्वर– जिन स्वरों के उच्चारण में वायु मुँह के साथ-साथ नाक से भी निकलती है – अँ, आँ, इँ आदि।
घोषत्व के आधार पर– घोष का अर्थ है नाद या स्वर तंत्रियों में श्वास का कंपन। घोषत्व के आधार पर ध्वनियां/वर्ण दो प्रकार की होती/होते हैं-
सघोष ध्वनियां- जिन स्वरों के उच्चारण से स्वरतंत्री में कंपन होता है उन्हे ‘घोष / सघोष ध्वनि कहते हैं। सभी स्वर ‘सघोष’ ध्वनियाँ होती हैं।
अघोष ध्वनियां- कोई भी स्वर अघोष नहीं होता। अघोष वर्णों का विवरण व्यंजनों के अंतर्गत दिया गया है।
व्यंजन
जो ध्वनियां स्वरों की सहायता से उच्चारित की जाती है, उन्हें व्यंजन कहते हैं।
जब हम ‘क’बोलते हैं तब उसमें ‘क्’ + ‘अ’ का उच्चारण मिला होता है।
इस प्रकार हर व्यंजन स्वर की सहायता से ही बोला जाता है।
व्यंजनों को पाँच वर्ग तथा स्पर्श, अन्तस्थ एवं ऊष्म व्यंजनों में बाँटा जा गया है।
वर्गीय व्यंजन/स्पर्श व्यंजन :
क वर्ग – क्, ख्, ग्, घ्, (ङ्)
च वर्ग – च्, छ्, ज्,झ्, (ञ्)
ट वर्ग – ट्, ठ्, ड्, ढ्, (ण्)
त वर्ग – त्, थ्,द्, ध्, (न्)
प वर्ग –प्, फ्,ब्,भ्, (म्)
अन्तस्थ-य्, र्, ल्, व्
ऊष्म –श्, ष्, स्,ह्
संयुक्ताक्षर
इसके अतिरिक्त हिन्दी में निम्नलिखित तीन संयुक्त व्यंजन भी होते है, जिनका निर्माण इस प्रकार होता है-
क्ष – क्+ष
त्र – त्+र
ज्ञ – ज्+ञ
हिन्दी वर्णमाला में 11 स्वर और 33 व्यंजन अर्थात् कुल 44 वर्ण है तथा तीन सयुक्ताक्षर होते हैं।
इन सबके अतिरिक्त हिंदी में कुछ अन्य ध्वनियाँ भी प्रचलित हैं, जिनका विवरण इस प्रकार है-
‘ड़’ इसका विकास हिंदी में हुआ है।
मूल संस्कृत व्याकरण से जो वर्णमाला हिंदी में ग्रहण की गई है, उसमें यह वर्ण नहीं मिलता है।
उपर्युक्त वर्ण ‘ट वर्गीय’ व्यंजन ‘ड’से मिलता जुलता ही हैं, परंतु इसके नीचे तलबिंदु/ नुक्ता का प्रयोग किया जाता है।
‘ट वर्गीय’व्यंजन ‘ड’ के आगे बिंदु का प्रयोग होने से वह ‘क वर्गीय’ पंचम वर्ण ङ बन जाता है।
भाषा व्याकरण Bhasha Vyakaran
अतः हिंदी में मिलते जुलते तीन रूप प्रचलित हैं लेकिन तीनों के उच्चारण और प्रयोग अलग-अलग हैं, जो इस प्रकार हैं
क वर्गीय पंचम वर्ण = ङ (यह न्ग की ध्वनि देता है। हिंदी में इससे कोई भी शब्द शुरू नहीं होता है, यह केवल क वर्ग के पंचम वर्ण के स्थान पर ही काम आता है।)
ट वर्गीय तृतीय वर्ण = ड (इसका प्रयोग शब्द में किसी भी स्थान पर किया जा सकता है।)
हिंदी में विकसित नवीन ध्वनि = ड़(हिंदी में इससे कोई भी शब्द शुरू नहीं होता है।
यह किसी भी शब्द के बीच में या अंत में आता है।
‘ढ़’ इसका विकास भी हिंदी में हुआ है।
मूल संस्कृत व्याकरण से जो वर्णमाला हिंदी में ग्रहण की गई है, उसमें यह वर्ण भी नहीं मिलता है।
(उपर्युक्त दोनों वर्ण ‘ट वर्गीय’ व्यंजन ‘ड’, ‘ढ’ से मिलते जुलते ही हैं, परंतु इनके नीचे तलबिंदु/ नुक्ता का प्रयोग किया जाता है।
ड़ और ढ़ दोनों ही वर्णों से हिंदी का कोई भी शब्द शुरू नहीं होता है अर्थात यह दोनों वर्ण हिंदी के किसी भी शब्द के प्रारंभ में नहीं आते हैं।)
द्य यह वर्ण भी एक तरह का संयुक्ताक्षर है, जो कि द्+य के मेल से बना है और द्य की ध्वनि देता है।
इसका प्रयोग विद्यालय, विद्या, विद्युत, उद्यम, उद्योग इत्यादि शब्दों में होता है।
यह वर्ण धवर्ण से अलग होता है। द्य के स्थान पर ध का प्रयोग शुद्ध होता है।
श्र यह भी एक प्रकार से संयुक्ताक्षर ही है, जिसकानिर्माण श्+र के मेल से होता है।
इसे भी वर्णों में या संयुक्त अक्षरों में नहीं गिना जाता है।
विदेशी/आगत ध्वनियां
अंग्रेजी भाषा से
ऑ इसका आगमन आंग्ल भाषा से हुआ है। जिसका प्रयोग डॉक्टर, कॉलेज, नॉलेज नॉन आदि शब्दों में होता है।
अरबी, फारसी से
क़, ख़, ग़, ज़, फ़ यह सभी व्यंजन अरबी फारसी से हिंदी में आए हैंऔर हिंदी के व्यंजनों से मिलते जुलते ही हैं, परंतु इनके साथ तलबिंदु / नुक्ता का प्रयोग किया जाता है और इनका उच्चारण भी हिंदी के व्यंजनों से थोड़ा सा अलग होता है इन व्यंजनों का प्रयोग अरबी फारसी उर्दू के शब्दों में या कुछ अंग्रेजी के शब्दों में भी होता है।
वर्णों के उच्चारण स्थान : भाषा व्याकरण Bhasha Vyakaran
भाषा को शुद्ध रूप में बोलने और समझने के लिए विभिन्न वर्णों के उच्चारण स्थान को जानना आवश्यक है।
वर्ण उच्चारण स्थानवर्ण ध्वनि का नाम
अ, आ, कठ कोमल तालुकंठ्य – क वर्ग और विसर्ग
इ.ई.च वर्ग, तालु तालव्य -य् श
ऋ, ट वर्ग। मूर्द्धा मूर्धन्य – और र, ष
त वर्ग, दंत दंत्य -ल, स
उ, ऊ, ओष्ठ। ओष्ठ्य -प वर्ग
अं, ङ, ञ, नासिका नासिक्य – ण, न म
ए, ऐ कंठ तालु कंठ-तालव्य –
ओ. औ कंठ ओष्ठ कंठोष्ठ्य
व दंत ओष्ठ दंतोष्ठ्य
हस्वर यन्त्रअलिजिहवा
अनुनासिक
अनुनासिक ध्वनियों के उच्चारण में वर्ण विशेष का उच्चारण स्थान के साथ-साथ नासिका का भी योग रहता है अतः अनुनासिक वर्णों का उच्चारण स्थान उस वर्ग का उच्चारण स्थान और नासिका होगा।
जैसे अं में कंठ और नासिका दोनो का उपयोग होता है अतः इसका उच्चारण स्थान कंठ नासिका दोनो होगा।
उच्चारण की दृष्टि से व्यंजनों को आठ भागों में बांटा जा सकता है-
स्पर्शी व्यंजन : जिन व्यंजनों के उच्चारण में फेफड़ों से छोड़ी जाने वाली वायु वाग्यंत्र के किसी अवयव का स्पर्श करती है और फिर बाहर निकलती है। निम्नलिखित व्यंजन स्पर्शी हैं :
क्, ख्, ग्, घ्
ट्, ठ्, ड्, ढ्
त्, थ्, द्, ध्
प्, फ्, ब्, भ्
भाषा व्याकरण Bhasha Vyakaran
संघर्षी व्यंजन: जिन व्यंजनों के उच्चारण में दो उच्चारण अवयव इतने निकट आ जाते हैं किबीच का मारक छोटा हो जाता है, तब वायु उनसे घर्षण करती हुई निकलती है।
ऐसे व्यंजन संघर्षी व्यंजन है-श्,ष्, स्, ह्, ख्, ज्, फ्
स्पर्श संघर्षी व्यंजन: जिन व्यंजनों के उच्चारण में स्पर्श का समय अपेक्षाकृत अधिक होता है और उच्चारण के बाद वाला भाग संघर्षी हो जाता है, वे स्पर्श संघर्षी व्यंजन कहलाते हैं – च्, छ्,ज्, झ्।
नासिक्य व्यंजन: जिनके उच्चारण में हवा का प्रमुख अंश नाक से निकलता है – ङ्, ञ्,ण्, न्,म्
पार्श्विक व्यंजन : जिनव्यंजनोंके उच्चारण में जिह्वा का अगला भाग मसूड़ों को छूता है और वायु पार्श्व (आस-पास) से निकल जाती है, वे पार्श्विक व्यंजन है जैसे- ल्।
प्रकम्पित व्यंजन: जिन व्यंजनों के उच्चारण में जिह्वा को दो तीन बार कंपन करना पड़ता है, वे प्रकंपित कहलातेव्यंजन हैं। जैसे- र्।
उत्क्षिप्त/ ताड़नजात व्यंजन: जिनके उच्चारण में जिह्वा की नोक झटके से नीचे गिरती है तो वह उक्षिप्त (फेंका हुआ) ध्वनि कहलाती है। ड्, ढ् उत्क्षिप्त ध्वनियाँ हैं।
भाषा व्याकरण Bhasha Vyakaran
संघर्षहीन व्यंजन: जिन ध्वनियों के उच्चारण में हवा बिना किसी संघर्ष के बाहर निकल जाती है ये संघर्षहीन ध्वनियाँ कहलाती है। जैसे- य्, व्।
इनके उच्चारण में स्वरों से मिलता जुलता प्रयत्न करना पड़ता है. इसलिए इन्हें अर्धस्वर भी कहते हैं।
इसके अतिरिक्त स्वर तन्त्रियों की स्थिति और कम्पन के आधार पर वर्णो को घोष/ सघोष और अघोष श्रेणी में भी बांटा जा सकता है।
घोष वर्ण : घोष का अर्थ है नाद या गूंज। जिन वर्णों का उच्चारण करते समय गूंज (स्वर तंत्र में कंपन) होती है, उन्हें घोष वर्ण कहते हैं।
सभी स्वर,पाँचों वर्गों के अन्तिम तीन वर्ण तथा य, र, ल, व,ह घोष वर्ण कहलाते है। इनकी कुल संख्या इकतीस है।
अघोष वर्ण: जिन वर्णों के उच्चारण में प्राणवायु में कम्पन नहीं होता अतः कोई गूज न होने से ये अघोष वर्ण होते हैं।
सभी वर्गों के पहले और दूसरे वर्ण तथा श, ष, स, आदि सभी अघोष वर्ण है। इनकी संख्या तेरह है।
श्वास वायु के आधार पर वर्णों के दो भेद है:
अल्पप्राण वर्ण: जिन वर्णों के उच्चारण में श्वास वायु कम मात्रा में मुख विवर से बाहर निकलतीहै, वे अल्पप्राण वर्ण कहलाते हैं।सभी स्वर, सभी वर्गों का पहला, तीसरा और पाँचवा वर्ण तथा य,र, ल, व अल्पप्राण हैं।
महाप्राण वर्ण: जिन वर्णों के उच्चारण में श्वास वायु अधिक मात्रा में मुख विवर से बाहर निकलती है. उन्हें महाप्राण ध्वनियों कहते है।
प्रत्येक वर्ग का दूसरा और चौथा वर्ण तथा श,ष, स् ह महाप्राण है।
अनुनासिक: अनुनासिक ध्वनियों के उच्चारण में नाक का सहयोग रहता है, जैसे –अँ, आँ, ईँ, उँ आदि।
हिन्दी वर्तनी का मानकीकरण : भाषा व्याकरण Bhasha Vyakaran
संयुक्त वर्ण :
खड़ी पाई वाले व्यंजन : खडी पाई वाले व्यंजनों का संयुक्त रूप सटी पाई को हटाकर ही बनाया जाना चाहिए:
यथा ख्याति, लग्न विध्न कच्चा, छज्जा, नगण्य, कुत्ता, पथ्य, ध्यान, न्यास, पाठ. डिब्बा, सभ्य, रम्य, उल्लेख व्यास, श्लोक, राष्ट्रीय आदि।
विभक्ति चिह्न :
(क) हिन्दी के विभक्ति चिह्न सभी प्रकार के संज्ञा शब्दों से पृथक लिखेजाय,जैसे – राम ने, राम को, राम से आदि।
सर्वनाम शब्दों में ये चिह्न प्रातिपदिक के साथ मिलाकर लिखे जाय, जैसे – उसने, उसको, उससे।
(ख) सर्वनाम के साथ यदि दो विभक्ति चिहन हों तो उनमें से पहला मिलाकर और दूसरा पृथक लिखा जाय – जैसे – उसके लिए, इसमें से।
क्रिया पद : संयुक्त क्रियाओं में सभी अंगीभूत क्रियाएँ पृथक-पृथक् लिखी जाय
जैसे- पढ़ रहा है, बढ़ते आ रहे हैं, जा सकता है, खाता रहता है, खेला करता है, घूमता रहेगा आदि।
संयोजक चिहन (हाइफन):संयोजक चिह्न का विधान अर्थ की स्पष्टता के लिए किया गया है। यथा –
(क) द्वन्द्व समास में पदों के बीच संयोजक चिह्न रखा जाए – जैसे -दिन-रात,दाल-रोटी, भाई-भतीजा,देख-भाल,दो-चार, हंसी-मजाक, लेन-देन, पाप-पुण्य, अमीर-गरीब
(ख) सा, जैसा आदि से पूर्व संयोजक चिह्न रखा जाए, जैसे- तुम-सा मोटा-सा, चाँद-सा,कमल-जैसा. तलवारसीधार।
(ग) तत्पुरुष समास में योजक चिह्न का प्रयोग वहीं किया जाए. जहाँ उसके बिना अर्थ के स्तर पर भ्रम होने की संभावना हो,
अन्यथा नहीं, जैसे भू-तत्व (पृथ्वी तत्व)।
संयोजक चिह न लगाने पर भूतत्व लिखा जाएगा और इसका अर्थ भूत होने का भाव भी लगाया जा सकता है।
सामान्यतः तत्पुरुष समास में संयोजक चिन्ह लगाने की आवश्यकता नहीं है.
अतः शब्दों को मिलाकर ही लिखा जाए, जैसे रामराज्य राजकुमार, गंगाजल, ग्रामवासी आत्महत्या आदि।
किन्तु अ-नख (बिना नख का), अति (नमता का अभाव) अ-परस (जिसे किसी ने छुआ न हो) आदि शब्दों में संयोजक चिन्ह लगाया जाना चाहिए अन्यथा रख, अनति, अपरस शब्द बन जाएँगे।
5 अव्यय : ‘तक’,‘साथ’’ आदि अव्यय सदा पृथक लिखे जाय जैसे – आपके साथ, यहाँ तक।
अन्य नियम :
अंग्रेजी के जिन शब्दों में अर्द्धवृत्त ‘ऑ’ ध्वनि का प्रयोग होता है, उनके शुद्ध रूप का हिन्दीमें प्रयोग अभीष्ट होने पर आ की मात्रा के ऊपर अर्द्धचन्द्का प्रयोग किया जाय।
जैसे – कॉलेज, डॉक्टर, कॉपरेटिव आदि।
हिन्दी में कुछ शब्द ऐसे है जिनके दो-दो रूप बराबर चल रहे है।
विद्वत्समाज में दोनों रूपों की एक-सी मान्यता है जैसे गरदन/गर्दन, गर्मी/गर्मी, बरफ/बर्फ, बिलकुल/बिल्कुल. सरदी/सर्दी कुरसी/कुर्सी, भरती/भर्ती, फुरसत/फुर्सत. बरदाश्त/बरदाश्त, वापस/वापिस, आखीर/आखिर, बरतन/बर्तन, दोबारा/दुबारा, दुकान/ दुकान आदि।
पूर्वकालिक प्रत्यय : भाषा व्याकरण Bhasha Vyakaran
पूर्वकालिक प्रत्यय –कर क्रिया से मिलाकर लिखा जाए: जैसे मिलाकर, खा-पीकर, पढ़कर,सोकर।
शिरोरेखा का प्रयोग प्रचलित रहेगा।
पूर्ण विराम को छोड़कर शेष विराम चिह्न वही ग्रहण कर लिए जाय जो अंग्रेजी में प्रचलित है, जैसे : ? ; ! :- –
पूर्ण विराम के लिए खड़ी पाई। (।) का प्रयोग किया जाये।
अंग्रेजी हिन्दी अनुवाद कार्य तथा अन्य प्रशासनिक साहित्य में विषय के विभाजन, उपविभाजन तथा अवतरणों, उप अवतरणों का क्रमांकन करते समय अंग्रेजी के A, B,C, अथवा a, b,c, के स्थान पर सर्वत्र क, ख, ग का प्रयोग किया जाए (अ.ब. स, अथवा अ. आ, इ, आदि का नहीं) आवश्यकतानुसार 1,23, अथवा रोमनI,ii, iiiका प्रयोग किया जा सकता है।
हल चिह्न (्) का प्रयोग : भाषा व्याकरण Bhasha Vyakaran
सामान्य रूप से व्यंजन का उच्चारण स्वर की सहायता से होता है किंतु हिंदी में बहुत से ऐसेबहुत से शब्द प्रचलित हैं।
जिनमें व्यंजन के साथ स्वर का प्रयोग नहीं होता सामान्य बोलचाल की भाषा में इसे आधा व्यंजन कहा जाता है।
इस प्रकार के आधे व्यंजनया बिना स्वर के व्यंजन को दर्शाने के लिए जिन व्यंजनों के साथ खड़ी पाई का प्रयोग होता है (क ख ग)उनमें उनकी खड़ी पाई को हटा दिया जाता है
या फलक वाले व्यंजनों (क, फ) में उनके फलक को हटा दिया जाता है जैसे–ख्याति, व्यंजन, ग्यारह, क्या, फ्लू आदि।
इसके अतिरिक्त खड़ी पाई वाले व्यंजनों के साथ हल चिह्न का प्रयोग करके भी इन्हें आधा या बिना स्वर का लिखा जा सकता है, जैसे- क्, त् , थ् आदि।
गोल पेंदे वाले व्यंजनों (ट, ठ, ड, ढ, द, ह) को आधा या बिना स्वर का लिखने के लिए हल चिह्न का ही प्रयोग किया जाता है जैसे- ट्, ठ्, ड्, ढ्, द्।
अतः स्पष्ट है कि हल चिह्न का प्रयोग किसी व्यंजन को आधा या बिना स्वर का लिखने के लिए होता है।
अर्थात जिस व्यंजन के साथ हल चिह्न का प्रयोग होता है, वह स्वर रहित होता है।
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श्री सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या के अनुसार प्रांतीय भाषा-बोलियाँ का महत्त्व
भाषा-बोलियाँ का महत्त्व
‘प्रांतीय भाषाओं के पुनरुद्धार से हिन्दी का आंतरप्रदेशिक महत्व किसी तरह कम नहीं हो सकता |
पच्छाहीं के लोगों ने बेशक हिंदी का थोड़ा बहुत फैलाव किया है और टूटी फूटी व्याकरण-भ्रष्ट हिंदी को अपनाकर पच्छाहीं के आसपास के लोगों ने हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाया है, लेकिन राष्ट्रभाषा या आंतरप्रदेशिक भाषा में और घरेलू बच्चों की शिक्षा की बोली या प्रांतीय कामकाज की बोली में बहुत पार्थक्य है|
मातृभाषा के सिवाय किसी दूसरी भाषा में मनुष्य के हृदय के भावों का पूरा-पूरा प्रकाश नहीं हो सकता और जब तक मनुष्य साहित्य में अपना पूरा प्रकाश नहीं कर सकता, तबतक वह जो साहित्य बनाने की कोशिश करता है, उसमें बहुत सी व्यर्थता आ जाती है |
श्री तुलसीदासजी और विद्यापति ने जो कुछ लिखा, अपनी मातृभाषा में ही लिखा, इसीलिए भारतीय-साहित्य के उद्यान में विद्यापति के पद और तुलसीदास का ‘रामचरितमानस’ हर तरह से सफल रचना होकर अधिक से अधिक लोकप्रिय हो सकी और जन-जन की जिव्हा पर आसानी से स्थान पा सकी|
महत्त्व
भारत में इस वक्त 15 मुख्य भाषाएँ चालू है |
प्रांतीय बोलियों की तो गिनती ही नहीं की जा सकती |
इन मुख्य या साहित्यिक भाषाओं में 11 भाषाएँ उत्तर भारत की गिनी जाती है और 4 दक्षिण भारत की |
इनके अतिरिक्त ऐसी कुछ भाषाएँ भी है
जो आज साहित्यिक महत्त्व की अधिकारिणी तो नहीं है,
परन्तु प्राचीन समय में उनका साहित्य उच्च कोटि का था
और उनकी संतानों के हृदय की सभी बातें उन्हीं भाषाओं में प्रकट होती थी |
राजस्थानी और मैथिली
राजस्थानी और मैथिली– और बोलियों के साथ इन दो भाषाओँ के निकेन्द्रीकरण की बात आज हिंदी संसार में लाई गई है |
‘हिन्दी प्रान्त’ में जो बोलियां सिर्फ घर में और सीमित प्रांत में काम में लाई जाती है, उन बोलियों के दो जबरदस्त और नामी वकील हिन्दी साहित्य क्षेत्र में पधारे हैं|
उनमें से एक हैं श्री बनारसीदास चतुर्वेदी और
दूसरे हैं श्री राहुलजी सांकृत्यायन |
भाषा तात्त्विकी दृष्टि से मेरी राय यह है कि जहां सचमुच व्याकरण का पार्थक्य दिखाई दे|
जहां प्राचीन साहित्य रहने के कारण प्रांतीय बोली के लिए उसके बोलने वालों में अभिमान बोध हो और जहां प्रांतीय बोली बोलने वाले बच्चों और वय:प्राप्त लोगों को हिंदी अपनाने में दिक्कत हो, वहाँ ऐसी प्रान्तीय बोली की शिक्षा और प्रांतीय कामकाज में ला देने का सवाल आ सकता है |
जहां तक हम देखते हैं व्याकरण की दृष्टि से राजस्थानी—खड़ीबोली हिंदी से पार्थक्य रखती है |
राजस्थानी जनता में अपने प्राचीन साहित्य के लिए एक नई चेतना भी दिखाई दे रही है |
राजस्थानी के प्राचीन साहित्य के बारे में कुछ बोलने की जरूरत नहीं |
अगर तथाकथित ‘हिंदी’ साहित्य से राजस्थानी में लिखा हुआ साहित्य निकाल दिया जाय, तो प्राचीन हिंदी साहित्य का गौरव कितना ही घट जाएगा|
चंदबरदाई
चंदबरदाई के पहले के समय में और उसके बाद के समय में राजस्थानमें जितने कवि हो गये हैं,
उन पर ज्यों-ज्यों प्रकाश डाला जाता है, त्यों-त्यों हमारा विस्मय और आनन्द बढ़ता जाता है |
केवल राजस्थानी बोलने वालों ही को इसका गौरव नहीं है, लेकिन समस्त भारत को इसका गौरव है |
इस गौरव के वश यदि राजस्थानी लोग अपनी मातृभाषा का पुनरुद्धार और पुनःप्रतिष्ठा करना चाहते हैं, तो इसमें नाराज होने और बुरा मानने का कुछ नहीं है |
भारत की प्रमुख 15 भाषाओँ में यदि राजस्थानी जैसी दो-चार भाषाएँ प्रतिष्ठित हो जाएं, तो इसमें आशंका और भय की कोई बात नहीं है | राजस्थानी लोग अपनी मूर्च्छित सी आत्मा को फिर सजग और सचेत करना चाहते हैं, इसमें समस्त भारत को लाभ पहुंचेगा, और राष्ट्रीय एकता की कोई भी हानि नहीं होगी | (श्री सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या—भारतीय भाषातत्त्व के आचार्य –कलकत्ता विश्वविद्यालय 11-2- 1944)
प्रख्यात राजस्थानी कवि और लेखक डॉ आईदान सिंह भाटी की फेसबुक वॉल से साभार प्राप्त