विसर्ग सन्धि Visarg Sandhi परिभाषा नियम प्रकार | सन्धि परिभाषा नियम प्रकार स्वर सन्धि व्यंजन सन्धि विसर्ग सन्धि उदाहरण एवं अपवाद | परीक्षोपयोगी जानकारी
सन्धि
परिभाषा- दो ध्वनियों (वर्णों) के परस्पर मेल को सन्धि कहते हैं। अर्थात् जब दो शब्द मिलते हैं तो प्रथम शब्द की अन्तिम ध्वनि (वर्ण) तथा मिलने वाले शब्द की प्रथम ध्वनि के मेल से जो विकार होता है उसे सन्धि कहते हैं।
ध्वनियों के मेल में स्वर के साथ स्वर (परम+ अर्थ)
स्वर के साथ व्यंजन (स्व+छंद)
व्यंजन के साथ व्यंजन (जगत्+विनोद), व्यंजन के साथ स्वर (जगत्+अम्बा)
विसर्ग के साथ स्वर (मनः+अनुकूल) तथा विसर्ग के साथ व्यंजन ( मनः+रंजन) का मेल हो सकता है।
विसर्ग के साथ स्वर अथवा व्यंजन के मेल को विसर्ग संधि कहते हैं|
मनः + विनोद = मनोविनोद
अंतः + चेतना = अंतश्चेतना
1. विसर्ग से पहले यदि अ तथा बाद में किसी वर्ग का तीसरा चौथा पांचवा व्यंजन अथवा अ, आ, य, र, ल, व, ह में से कोई आए तो विसर्ग का ओ हो जाता है तथा अ/आ का लोप हो जाता है-
अंततः + गत्वा = अंततोगत्वा
अधः+भाग = अधोभाग
अधः+मुख = अधोमुख
अधः+गति = अधोगति
अधः+लिखित = अधोलिखित
अधः+वस्त्र = अधोवस्त्र
अधः+भाग = अधोभाग
अधः+हस्ताक्षरकर्ता = अधोहस्ताक्षरकर्ता
अधः+गमन = अधोगमन
तिरः + हित = तिरोहित
उर: + ज = उरोज (स्तन)
तमः + गुण = तमोगुण
उरः + ज्वाला = उरोज्वाला
तपः + धन = तपोधन
तिरः + भाव = तिरोभाव
तिरः + हित = तिरोहित
तपः + भूमि = तपोभूमि
तेजः + मय = तेजोमय
पुरः + हित = पुरोहित
मनः + हर = मनोहर
मन: + रम = मनोरम
मनः + हर = मनोहर
मनः + वृत्ति – मनोवृत्ति
मन: + मालिन्य = मनोमालिन्य
यशः + मती = यशोमती
यशः + दा = यशोदा
यश: + गान = यशोगान
यश: + वर्धन = यशोवर्धन
रज: + दर्शन = रजोदर्शन
रजः + मय – रजोमय
सरः + रुह = सरोरुह (कमल)
शिरः + धार्य = शिरोधार्य
विशेष-
प्रातः का मूल रूप प्रातर् , पुनः का मूल रूप पुनर् तथा अंतः का मूलभूत अंतर् होता है। प्रातः, पुनः, अंतः आदि शब्दों के विसर्ग के मूल में र है तथा र से ही इनके विसर्ग बने हैं अतः ऐसे शब्दों में उक्त नियम नहीं लागू होता बल्कि र ही रहता है।
(अंत्य र् के बदले भी विसर्ग होता है । यदि र के आगे अघोष-वर्ण आवे तो विसर्ग का कोई विकार नहीं होता; और उसके आगे घोष-वर्ण आवे तो र ज्यों का त्यों रहता है- उद्धृत- हिन्दी व्याकरण – पंडित कामताप्रसाद गुरु पृष्ठ सं. 60) जैसे-
अंत: (अंतर्) + आत्मा = अंतर्रात्मा
अंतः (अंतर्) + निहित = अंतर्निहित
अंत: (अंतर्) + हित = अंतर्हित
अंतः(अंतर्) + धान = अंतर्धान
अंत: (अंतर्)+भाव = अंतर्भाव
अंतः (अंतर्) + यात्रा = अंतर्यात्रा
अंतः(अंतर्)+द्वंद्व = अतर्द्वंद्व
अंतः(अंतर्)+अग्नि = अंतरग्नि
अंतः(अंतर्)+गत = अंतर्गत
अंतः(अंतर्)+मुखी = अंतर्मुखी
अंतः(अंतर्)+धान = अंतर्धान
प्रातः(प्रातर्)+उदय = प्रातरुदय
प्रातः(प्रातर्)+अर्चना = प्रांतरचना
पुनः(पुनर्)+आगमन = पुनरागमन
पुनः(पुनर्)+गठन = पुनर्गठन
पुनः(पुनर्)+अपि = पुनर्गठन
पुनः(पुनर्)+अपि = पुनरपि
पुनः(पुनर्)+जन्म = पुनर्जन्म
पुनः(पुनर्)+मिलन = पुनर्मिलन
अंतः (अंतर्) + पुर = अंतःपुर
अंतः (अंतर्) + करण = अंतःकरण
प्रातः (प्रातर्) + काल = प्रातःकाल
2. विसर्ग से पहले यदि इ/ई, उ/ऊ तथा बाद में किसी वर्ग का तीसरा चौथा पांचवा व्यंजन, य, ल, व, ह अथवा कोई स्वर में से कोई आए तो विसर्ग का र् हो जाता है-
आशी: + वचन = आशीर्वचन
आशी: +वाद = आशीर्वाद
आवि: + भाव =आविर्भाव
आविः + भूत = आविर्भूत
आयु: + वेद = आयुर्वेद
आयुः + विज्ञान = आयुर्विज्ञान
आयुः + गणना = आयुर्गणना
चतुः + दिक = चतुर्दशी
चतुः + दिशा = चतुर्दिश (आ का लोप)
चतु: + युग = चतुर्युग
ज्योतिः + विद = ज्योतिर्विद
ज्योतिः + मय = ज्योतिर्मय
दुः+लभ = दुर्लभ
दुः+जय = दुर्जय
दुः+अवस्था = दुरावस्था
नि:+उपम = निरुपम
नि:+लिप्त = निर्लिप्त
निः+रक्षण = निरीक्षण
प्रादुः+भूत = प्रादुर्भूत
प्रादुः+भाव = प्रादुर्भाव
बहिः+रंग = बहिरंग
बहिः-गमन = बहिर्गमन
बहिः+मंडल = बहिर्मंडल
यजुः + र्वेद = यजुर्वेद
श्री: + ईश = श्रीरीश
3. विसर्ग से पहले यदि अ/इ/उ (हृस्व स्वर) तथा दूसरे पद का प्रथम वर्ण र हो तो विसर्ग का लोप हो जाता है तथा हृस्व स्वर दीर्घ हो जाता है-
पुनः + रचना = पुनारचना
निः+रव = नीरव
नि:+रंध्र = नीरंध्र
निः+रोध = निरोध
नि:+रस = नीरस
निः+रोग = निरोग
निः+रुज = नीरुज
दुः + राज = दूराज
दुः + रम्य = दूरम्य
चक्षुः + रोग = चक्षूरोग
4. यदि विसर्ग के साथ च/छ/श का मेल हो तो विसर्ग के स्थान पर श् हो जाता है-
अंत:- चेतना = अंतश्चेतना/ अंत:चेतना
आः + श्चर्य = आश्चर्य
क: + चित = कश्चित
तपः + चर्या = तश्चर्या
दुः + चरित्र = दुश्चरित्र
निः + चय = निश्चय
निः + छल = निश्छल
मनः + चिंतन = मनश्चिंतन
प्रायः + चित = प्रायश्चित
बहिः + चक्र = बहिश्चक्र
मनः+चेतना = मनश्चेतना
मनः+चिकित्सक = मनश्चिकित्सक
मनः+चिकित्सा = मनश्चिकित्सा
हरिः + चंद्र = हरिश्चंद्र
यशः + शरीर = यशश्शरीर
यशः + शेष = यशश्शेष
5. यदि विसर्ग के साथ ट/ठ/ष का मेल हो तो विसर्ग के स्थान पर ष् हो जाता है-
धनुः + टंकार = धनुष्टंकार
चतुः + टीका = चतुष्टीका
चतुः + षष्टि = चतुष्षष्टि
6. यदि विसर्ग के साथ त/थ/स का मेल हो तो विसर्ग के स्थान पर स् हो जाता है-
अंतः + ताप = अंतस्ताप
अंत: + तल = अंत:स्तल
चतुः + सीमा = चतुस्सीमा
प्रातः + स्मरण = प्रातस्स्मरण/प्रात:स्मरण
दुः + साहस = दुस्साहस
नमः + ते = नमस्ते
नि: + संदेह = निस्संदेह/निःसंदेह
निः + तार = निस्तार
निः + सहाय = निस्सहाय
नि: + संकोच = निस्संकोच/नि:संकोच
बहि: + थल = बहिस्थल
पुरः + सर = पुरस्सर
मनः + ताप = मनस्ताप
मनः + ताप =मनस्ताप/मन:ताप
पुनः + स्मरण = पुनस्स्मरण
वि: + स्थापित = विस्स्थापित
विः + तीर्ण = विस्तीर्ण
ज्योतिः + तरंग = ज्योतिस्तरंग
निः + तेज़ = निस्तेज
7. विसर्ग से पहले यदि इ/उ (हृस्व स्वर) तथा दूसरे पद का प्रथम वर्ण क/प/फ हो तो विसर्ग का ष् हो जाता है
आविः + कार = आविष्कार
चतुः+पद = चतुष्पाद
चतुः+पाद = चतुष्पाद
चतुः+पथ = चतुष्पथ
चतुः+काष्ठ = चतुष्काष्ठ
ज्योतिः + पिंड – ज्योतिष्पिंड
चतुः + कोण = चतुष्कोण
ज्योतिः + पति = ज्योतिष्पति
नि:+कर्मण = निष्कर्मण
नि:+काम = निष्काम
नि:+फल = निष्फल
बहिः + कृत = बहिष्कृत
बहि: + क्रमण – बहिष्क्रमण
8. विसर्ग से पहले यदि अ/आ हो तथा दूसरे पद का प्रथम वर्ण क/प/ हो तो विसर्ग में कोई परिवर्तन नहीं होता है-
अंतः + पुर = अंत:पुर
अंत: + करण = अंतःकरण
अध: पतन = अध:पत (अधोपतन अशुद्ध है)
पय + पान = पय:पान (पयोपान अशुद्ध है)
प्रातः + काल = प्रातःकाल
मनः + कल्पित = मन:कल्पित
मनः + कामना = मन:कामना (मनोकामना अशुद्ध है)
विसर्ग सन्धि Visarg Sandhi के अपवाद
घृणा: + पद = घृणास्पद
पुरः + कृत = पुरस्कृत
पुरः + कार = पुरस्कार
श्रेयः + कर = श्रेयस्कर
घृणा: + पद = घृणास्पद
यशः + कर = यशस्कर
नमः + कार = नमस्कार
परः + पर = परस्पर
भाः + कर = भास्कर
भाः + पति = भास्पति
वनः + पति = वनस्पति
बृहः + पति – बृहस्पति
वाचः + पति = वाचस्पति
मनः + क = मनस्क
9. विसर्ग से पहले यदि अ हो तथा दूसरे पद का प्रथम वर्ण अ से भिन्न कोई स्वर हो तो विसर्ग का लोप हो जाता है-
अतः -एव = अतएव
तपः + उत्तम = तपउत्तम
मनः + उच्छेद = मनउच्छेद
यश: + इच्छा = यशइच्छा
हरिः + इच्छा = हरिइच्छा
विशेष-
निः और दुः संस्कृत व्याकरण में उपसर्ग नहीं माने गए हैं बल्कि निर् , निस् , दुर् और दुस् उपसर्ग माने गए हैं परंतु देशभर में जो प्रतियोगी परीक्षाएं आयोजित हुई है उनमें अभी तक विसर्ग संधि के संदर्भ में जो प्रश्न किए गए हैं
उन सभी प्रश्नों में निः और दुः वाले विकल्प ही सही माने गए हैं
पंडित कामता प्रसाद गुरु, डॉ. हरदेव बाहरी एवं अन्य विद्वानों ने भी निः और दुः का सन्धि रूप ही स्वीकार किया है।
अतः हमें यही रूप स्वीकार करना चाहिए परंतु यदि निः और दुः से बने शब्दों पर उपसर्ग से संबंधित प्रश्न पूछा जाए तो उनमें आवश्यकतानुसार निर् , निस् , दुर् और दुस् उपसर्ग बताना चाहिए।
स्वर संधि Swar Sandhi | व्यंजन सन्धि | विसर्ग सन्धि | परिभाषा | उदाहरण | अपवाद | दीर्घ सन्धि | गुण सन्धि की परिभाषा, उदाहरण एवं अपवाद परीक्षोपयोगी दृष्टि से-
परिभाषा- दो ध्वनियों (वर्णों) के परस्पर मेल को सन्धि कहते हैं।
अर्थात् जब दो शब्द मिलते हैं तो प्रथम शब्द की अन्तिम ध्वनि (वर्ण) तथा मिलने वाले शब्द की प्रथम ध्वनि के मेल से जो विकार होता है उसे सन्धि कहते हैं।
ध्वनियों के मेल में स्वर के साथ स्वर (परम+ अर्थ)
स्वर के साथ व्यंजन (स्व+छंद)
व्यंजन के साथ व्यंजन (जगत्+विनोद), व्यंजन के साथ स्वर (जगत्+अम्बा)
विसर्ग के साथ स्वर (मनः+अनुकूल) तथा विसर्ग के साथ व्यंजन ( मनः+रंजन) का मेल हो सकता है।
(हिन्दी में स्वर ग्यारह होते हैं। यथा-अ. आ. इ. ई. उ, ऊ. ऋ. ए. ऐ. ओ. औं तथा व्यंजन प्रायः स्वर की सहायता से बोले जाते हैं।
जैसे ‘परम’ में ‘म’ में “अ स्वर निहित है। ‘परम’ में ‘म’ का ‘अ – तथा ‘अर्थ’ के ‘अ’ स्वर का मिलन होकर सन्धि होगी।)
स्वर सन्धि पाँच प्रकार की होती है-
1 दीर्घ सन्धि
2 गुण सन्धि
3 वृद्धि सन्धि
4 यण सन्धि
5 अयादि सन्धि
(I) दीर्घ सन्धि-
दो समान हृस्व या दीर्घ स्वर मिलकर दीर्घ हो जाते हैं, इसे दीर्घ संधि कहते हैं-
1 अ + अ = आ
2 अ + आ = आ
3 आ + अ = आ
4 आ + आ = आ
5 इ + इ = ई
6 इ + ई = ई
7 ई + इ = ई
8 ई + ई = ई
9 उ + उ = ऊ
10 उ + ऊ = ऊ
11 ऊ + उ = ऊ
12 ऊ + ऊ = ऊ
उदाहरण-
1. अ + अ = आ
दाव + अनल = दावानल
नयन + अभिराम = नयनाभिराम
रत्न + अवली = रत्नावली
मध्य + अवधि = मध्यावधि
नील + अम्बर = नीलाम्बर
दीप + अवली = दीपावली
अभय + अरण्य = अभयारण्य
जठर + अग्नि = जठराग्नि
पुण्डरीक + अक्ष = पुण्डरीकाक्ष
2. अ + आ = आ
कृष्ण + आनंद = कृष्णानंद
प्राण+ आयाम = प्राणायाम
छात्र + आवास = छात्रावास
रत्न + आकर = रत्नाकर
घन + आनंद = घनानंद
अल्प + आयु = अल्पायु
कार्य + आलय = कार्यालय
धर्म + आत्मा = धर्मात्मा
भोजन + आलय = भोजनालय
पुण्य + आत्मा = पुण्यात्मा
पुस्तक + आलय = पुस्तकालय
हास्य + आस्पद = हास्यास्पद
लोक + आयुक्त = लोकायुक्त
पद + आक्रान्त = पदाक्रान्त
गज + आनन = गजानन
भय + आनक = भयानक
3. आ + अ = आ
विद्या + अर्थी = विद्यार्थी
तथा + अपि = तथापि
कक्षा + अध्यापक = कक्षाध्यापक
रचना + अवली = रचनावली
द्वारका + अधीश = द्वारकाधीश
व्यवस्था + अनुसार = व्यवस्थानुसार
कविता + अवली = कवितावली
करुणा + अमृत = करुणामृत
रेखा + अंकित = रेखांकित
मुक्ता + अवली = मुक्तावली
विद्या + अध्ययन = विद्याध्ययन
4. आ + आ = आ
आत्मा + आनंद = आत्मानंद
विद्या + आलय = विद्यालय
क्रिया + आत्मक = क्रियात्मक
प्रतीक्षा + आलय = प्रतीक्षालय
द्राक्षा + आसव = द्राक्षासव
दया +आनन्द = दयानन्द
महा + आत्मा = महात्मा
क्रिया + आत्मक = क्रियात्मक
रचना + आत्मक = रचनात्मक
कारा + आवास = कारावास
कारा + आगार = कारागार
महा + आशय = महाशय
प्रेरणा + आस्पद = प्रेरणास्पद
5. इ+ इ = ई
अति + इव = अतीव
रवि + इन्द्र = रवीन्द्र
मुनि + इन्द्र = मुनींद्र
प्रति + इक = प्रतीक
अभि + इष्ट = अभीष्ट
प्राप्ति + इच्छा = प्राप्तीच्छा
सुधि + इन्द्र = सुधीन्द्र
हरि + इच्छा = हरीच्छा
अधि + इन = अधीन
प्रति + इत = प्रतीत
अति + इव = अतीव
कवि + इन्द्र = कवीन्द्र
गिरि + इन्द्र = गिरीन्द्र
मणि + इन्द्र = मणीन्द्र
अति + इत = अतीत
अति + इन्द्रिय = अतीन्द्रिय
6. इ + ई = ई
हरि + ईश = हरीश
अधी + ईक्षक = अधीक्षक
परि + ईक्षा = परीक्षक
परि + ईक्षा = परीक्षा
अभि + ईप्सा = अभीप्सा
मुनि + ईश्वर = मुनीश्वर
वि + ईक्षण = वीक्षण
कपि + ईश = कपीश
अधि + ईक्षण = अधीक्षण
परि + ईक्षण = परीक्षण
प्रति + ईक्षा = प्रतीक्षा
वारि + ईश = वारीश
क्षिति + ईश = क्षितीश
अधि + ईश = अधीश
7. ई + इ = ई
मही + इन्द्र = महीन्द्र
लक्ष्मी + इच्छा = लक्ष्मीच्छा
यती + इन्द्र = यतीन्द्र
फणी + इन्द्र = फणीन्द्र
महती + इच्छा = महतीच्छा
शची + इन्द्र = शचीन्द्र
8. ई + ई = ई
रजनी + ईश = रजनीश
नारी + ईश्वर = नारीश्वर
नदी + ईश = नदीश
गौरी + ईश = गिरीश
फणी + ईश्वर = फणीश्वर
सती + ईश = सतीश
श्री + ईश = श्रीश
जानकी + ईश = जानकीश
भारती + ईश्वर = भारतीश्वर
नदी + ईश्वर = नदीश्वर
9. उ + उ = ऊ
भानु + उदय = भानूदय
सु + उक्ति = सूक्ति
कटु + उक्ति = कटूक्ति
बहु + उद्देश्यीय = बहूद्देश्यीय
लघु + उत्तर = लघूत्तर
मधु + उत्सव = मधूत्सव
गुरु + उपदेश = गुरूपदेश
मंजु + उषा = मंजूषा
अनु + उदित = अनूदित
10. उ + ऊ = ऊ
लघु + ऊर्मि = लघूर्मि
धातु + ऊष्मा = धातूष्मा
सिंधु + ऊर्मि = सिंधूर्मि
बहु + ऊर्जा = बहूर्जा
मधु + ऊर्मि = मधूर्मि
भानु + ऊर्ध्व = भानूर्ध्व
11. ऊ + उ = ऊ
वधू + उत्सव = वधूत्सव
भू + उपरि = भूपरि
चमू + उत्तम = चमूत्तम
वधू + उल्लास = वधूल्लास
वधू + उक्ति = वधूक्ति
चमू + उत्साह = चमूत्साह
भू + उद्धार = भूद्धार
12. ऊ + ऊ = ऊ
चमू + ऊर्जा = चमूर्जा
सरयू + ऊर्मि – सरयूर्मि
भू + ऊष्मा = भूष्मा
स्वर-संधि की परिभाषा, उदाहरण एवं अपवाद परीक्षोपयोगी दृष्टि से-
(II) गुण सन्धि-
अथवा आ के साथ इ/ई, उ/ऊ तथा ऋ के आने से वे क्रमश ए, ओ तथा अर् में बदल जाते हैं इसे गुण संधि कहते हैं-
1. अ + इ = ए
अल्प + इच्छा = अल्पेच्छा
इतर + इतर = इतरेतर
कर्म + इंद्री = कर्मेद्री
खग + इंद्र = खगेंद्र
गोप + इंद्र = गोपेन्द्र
जीत + इंद्रिय = जीतेंद्रिय
देव + इंद्र = देवेंद्र
न + इति = नेति
नर + इंद्र = नरेंद्र
पूर्ण + इंदु = पूर्णेन्दु
भारत + इंदु = भारतेंदु
सुर + इंद्र = सुरेन्द्र
विवाह + इतर = विवाहेतर
मानव + इतर = मानवेतर
स्व + इच्छा = स्वेच्छा
शब्द + इतर = शब्देतर
2. अ + ई = ए
अप + ईक्षा = अपेक्षा
आनंद + ईश्वर = आनंदेश्वर
एक + ईश्वर = एकेश्वर
खग + ईश = खगेश
गोप + ईश = गोपेश
ज्ञान + ईश – ज्ञानेश
लोक + ईश = लोकेश
अखिल + ईश = अखिलेश
प्र + ईक्षक = प्रेक्षक
सिद्ध + ईश्वर = सिद्धेश्वर
3. आ + इ = ए
महा + इंद्र = महेंद्र
रसना + इंद्रिय = रसनेंद्रिय
रमा + इंद्र = रमेंद्र
राका + इंदु = राकेंदु
सुधा + इंदु = सुधेंदु
4. आ + ई = ए
अलका + ईश = अलकेश
ऋषिका + ईश = ऋषिकेश
महा + ईश = महेश
रमा + ईश = रमेश
कमला + ईश = कमलेश
उमा + ईश = उमेश
गुडाका + ईश = गुडाकेश (शिव)
(गुडाका – नींद)
महा + ईश्वर = महेश्वर
5. अ + उ = ओ
अतिशय + उक्ति = अतिशयोक्ति
पर + उपकार = परोपकार
सर्व + उपरि = सर्वोपरि
उत्तर + उत्तर = उत्तरोत्तर
रोग + उपचार = रोगोपचार
हित + उपदेश = हितोपदेश
स + उदाहरण = सोदाहरण
प्रवेश + उत्सव = प्रवेशोत्सव
स + उत्साह = सोत्साह
स + उद्देश्य = सोद्देश्य
6. आ + उ = ओ
आत्मा + उत्सर्ग = आत्मोत्सर्ग
करुणा + उत्पादक= करुणोत्पादक
गंगा + उदक = गंगोदक (गंगाजल)
महा + उरु = महोरु
यथा + उचित = यथोचित
सेवा + उपरांत = सेवोपरांत
होलिका + उत्सव = होलिकोत्सव
7. अ + ऊ = ओ
जल + ऊर्मि = जलोर्मि
जल + ऊष्मा = जलोष्मा
नव + ऊढ़ = नवोढ़ा
सूर्य + ऊष्मा = सूर्योष्मा
समुद्र + ऊर्मि = समुद्रोर्मि
नव + ऊर्जा = नवोर्जा
8. आ + ऊ = ओ
महा + ऊर्जा = महोर्जा
महा + ऊर्मि = महोर्मि
गंगा + ऊर्मि = गंगोर्मि
यमुना + ऊर्मि = यमुनोर्मि
सरिता + ऊर्मि = सरितोर्मि
9. अ + ऋ = अर्
उत्तम + ऋण = उत्तमर्ण (ऋण देने वाला)
अधम + ऋण = अधमर्ण (ऋण लेने वाला)
कण्व + ऋषि = कण्वर्षि
देव + ऋषि = देवर्षि
देव + ऋण = देवर्ण
वसंत + ऋतु = वसंतर्तु
सप्त + ऋषि = सप्तर्षि
10. आ + ऋ = अर्
वर्षा + ऋतु = वर्षर्तु
महा + ऋषि = महर्षि
महा + ऋण = महर्ण
(III) वृद्धि संधि-
अ अथवा आ के साथ ए अथवा ऐ या ओ अथवा औ के आने से दोनों मिलकर क्रमशः ऐ तथा औ में बदल जाते हैं इसे वृद्धि संधि कहते हैं-
1. अ + ए = ऐ
एक + एक = एकैक
हित + एषी = हितैषी
धन + एषी = धनैषी
शुभ + एषी = शुभैषी
वित्त + एषणा = वित्तैषणा
पुत्र + एषणा = पुत्रैषणा
धन + एषणा = धनैषणा
विश्व + एकता = विश्वैकता
2. आ + ए = ऐ
तथा + एव = तथैव
वसुधा + एव = वसुधैव
सदा + एव = सदैव
महा + एषणा = महैषणा
3. अ + ऐ = ऐ
विश्व + ऐक्य – वैश्विक
मत + ऐक्य – मतैक्य
धर्म + ऐक्य = धर्मैक्य
विचार + ऐक्य = विचारैक्य
धन + ऐश्वर्य = धनैश्वर्य
स्व + ऐच्छिक = स्वैच्छिक
4. आ + ऐ = ऐ
महा + ऐश्वर्य = महैश्वर्य
गंगा + ऐश्वर्य = गंगैश्वर्य
5. अ + ओ = औ
जल + ओक = जलौक
जल + ओघ = जलौघ
परम + ओजस्वी = परमौजस्वी
6. अ + औ = औ
भाव + औचित्य = भावौचित्य
भाव + औदार्य = भावौदार्य
परम + औदार्य = परमौदार्य
मिलन + औचित्य = मिलनौचित्य
मंत्र + औषधि = मंत्रौषधि
जल + औषधि = जलौषधि
7. आ + ओ = औ
गंगा + ओक = गंगौक
महा + ओज = महौज
महा + ओजस्वी = महौजस्वी
8. आ + औ = औ
महा + औषधि = महौषधि
महा + औदार्य = महौदार्य
वृथा + औदार्य = वृथौदार्य
मृदा + औषधि = मृदौषधि
(IV) यण् संधि-
इ/ई, उ/ऊ अथवा ऋ के साथ कोई असमान स्वर आए तो इ/ई का य् , उ/ऊ का व् तथा ऋ का र् हो जाता है तथा असमान स्वर य् , व् , र् में मिल जाता है इसे यण् संधि कहते हैं-
(असमान स्वर से तात्पर्य है कि इ/ई के साथ इ/ई को छोड़कर अन्य कोई भी स्वर इसी प्रकार उ/ऊ के साथ उ/ऊ को छोड़कर अन्य कोई भी स्वर तथा ऋ के साथ ऋ को छोड़कर अन्य कोई भी स्वर)
1. इ/ई + असमान स्वर = य्
अति + अधिक = अत्यधिक
अति + अंत = अत्यंत
अभि + अर्थी – अभ्यर्थी
इति + अलम् = इत्यलम्
परि + अवसान = पर्यवसान
परि + अंक = पर्यंक (पलंग)
प्रति + अर्पण = प्रत्यर्पण
वि + अवहार = व्यवहार
वि+अंजन = व्यंजन
वि + अष्टि = व्यष्टि
वि + अय = व्यय
अति + आवश्यक = अत्यावश्यक
अधि + आदेश = अध्यादेश
इति + आदि = इत्यादि
अधि + आपक = अध्यापक
उपरि + उक्त = उपर्युक्त
अभि + उदय = अभ्युदय
वि + उत्पत्ति = व्युत्पत्ति
प्रति + उपकार = प्रत्युपकार
नि + ऊन = न्यून
वि + ऊह = व्यूह
प्रति + एक = प्रत्येक
देवी + अर्पण = देव्यर्पण
नारी + उचित = नर्युचित
सखी + आगमन = सख्यागमन
2. उ/ऊ + असमान स्वर = व्
अनु + अय = अन्वय
तनु + अंगी = तन्वंगी
मनु + अंतर = मन्वंतर
सु + अच्छ = स्वच्छ
गुरु + आज्ञा = गुर्वाज्ञा
मधु + आचार्य = मध्वाचार्य
साधु + आचरण = साध्वाचरण
अनु + इति = अन्विति
धातु + इक = धात्विक
लघु + ओष्ठ = लघ्वोष्ठ
शिशु + ऐक्य = शिश्वैक्य
गुरु + औदार्य = गुर्वौदार्य
चमू + अंग = चम्वंग
वधू + आगमन = वध्वागमन
3. ऋ + असमान स्वर = र्
(यहां यण् संधि में एक विशेष नियम काम करता है जिसके अंतर्गत ऋ के साथ असमान स्वर मिलने से ऋ का र् हो जाता है तथा पितृ शब्द में आया अंतिम त हलंत रह जाता है ऐसी स्थिति में हलंत त और र् का मेल होने से दोनों मिलकर त्र् हो जाते हैं और त्र् में असमान स्वर मिल जाता है) जैसे-
पितृ + अनुमति = पित्रनुमति
मातृ + आज्ञा = मात्राज्ञा
भ्रातृ + आनंद = भ्रात्रानंद
पितृ + इच्छा = पित्रिच्छा
मातृ + उपदेश = मात्रुपदेश
भ्रातृ + उत्कंठा = भ्रात्रुत्कंठा
वक्तृ + उद्बोधन = वक्त्रुद्बोधन
दातृ + उदारता = दात्रुदारता
स्वर-संधि की परिभाषा, उदाहरण एवं अपवाद परीक्षोपयोगी दृष्टि से-
(V) अयादि सन्धि-
ए, ऐ, ओ, औ के साथ कोई असमान स्वर आए तो ए का अय् , ऐ का आय् , ओ का अव् तथा औ का आव् हो जाता है तथा असमान स्वर अय् ,आय् ,अव् ,आव् में मिल जाता है इसे अयादि संधि कहते हैं-
(असमान स्वर से तात्पर्य है कि ए, ऐ, ओ, औ के साथ ए, ऐ, ओ, औ को छोड़कर अन्य कोई भी स्वर)
व्यंजन संधि Vyanjan Sandhi | परिभाषा | नियम | प्रकार | स्वर सन्धि व्यंजन सन्धि विसर्ग सन्धि अपवाद के बारे में विस्तृत जानकारी
Vyanjan Sandhi व्यंजन का व्यंजन अथवा स्वर के साथ मेल होने से जो विकार उत्पन्न होता है उसे व्यंजन संधि कहते हैं। ऋक् + वेद = ऋग्वेद शरद् + चंद्र = शरच्चन्द्र
सन्धि
परिभाषा- दो ध्वनियों (वर्णों) के परस्पर मेल को सन्धि कहते हैं। अर्थात् जब दो शब्द मिलते हैं तो प्रथम शब्द की अन्तिम ध्वनि (वर्ण) तथा मिलने वाले शब्द की प्रथम ध्वनि के मेल से जो विकार होता है उसे सन्धि कहते हैं। ध्वनियों के मेल में स्वर के साथ स्वर (परम+ अर्थ) स्वर के साथ व्यंजन (स्व+छंद) व्यंजन के साथ व्यंजन (जगत्+विनोद), व्यंजन के साथ स्वर (जगत्+अम्बा) विसर्ग के साथ स्वर (मनः+अनुकूल) तथा विसर्ग के साथ व्यंजन ( मनः+रंजन) का मेल हो सकता है।
सन्धि की परिभाषा, नियम, प्रकार एवं स्वर सन्धि, व्यंजन सन्धि तथा विसर्ग सन्धि के बारे में विस्तृत जानकारी
1. किसी भी वर्ग के पहले व्यंजन के बाद किसी भी वर्ग का तीसरा, चौथा व्यंजन अथवा य, र, ल, व, ह या कोई स्वर में से कोई आए तो पहला व्यंजन अपने वर्ग का तीसरा व्यंजन हो जाता है। यदि व्यंजन से स्वर का मेल होता है तो जो स्वर की मात्रा होगी वो हलन्त वर्ण में जुड़ जाएगी। यदि व्यंजन से व्यंजन का मिलन होगा तो वे हलन्त ही रहेंगे।
सन्धि की परिभाषा, नियम, प्रकार एवं स्वर सन्धि, व्यंजन सन्धि तथा विसर्ग सन्धि के बारे में विस्तृत जानकारी
4. त् का द् में परिवर्तन
वृहत्+आकाश = वृहदाकाश
वृहत्+आकार = वृहदाकार
जगत्+ईश = जगदीश
जगत्+अम्बा = जगदम्बा
जगत्+विनोद = जगद्विनोद
उत्+वेग = उद्वेग
उत्+यान = उद्यान
उत्+भव = उद्भव
उत्+योग = उद्योग
सत् + आनंद = सदानंद
5. प् का ब् में परिवर्तन
अप्+ज = अब्ज
अप्+द = अब्द
सुप् + अंत = सुबंत
2. किसी भी वर्ग के पहले अथवा तीसरे व्यंजन के बाद किसी भी वर्ग का पाँचवाँ व्यंजन आए तो पहला/तीसरा व्यंजन अपने वर्ग का पाँचवाँ व्यंजन हो जाता है
1. क् का ङ में परिवर्तन
दिक्+नाग = दिङ्नाग (दिशा का हाथी)
दिक्+मय = दिङ्मय
दिक्+मुख = दिङ्मुख
दिक्+मूढ़ = दिङ्मूढ
वाक्+मय = वाङ्मय
वाक्+मुख = वाङ्मुख
वणिक् + माता = वणिङ्माता
वाक्+मूर्ति = वाङ्मूर्ति
सम्यक्+नीति = सम्यङ्नीति
सम्यक्+मात्रा = सम्यङ्मात्रा
2. ट् का ण् में परिवर्तन
षट्+मुख = षण्मुख
षट्+मूर्ति – षण्मूर्ति
षट्+मातुर = षण्मातुर
षट्+नियमावली = षण्नियमावली
षट्+नाम = षण्णाम
षट्+मास = षण्मास
सम्राट् + माता = सम्राण्माता
3. त् का न में परिवर्तन
उत्+मुख = उन्मुख
उत्+मूलन = उन्मूलन
उत्+नति = उन्नति
उत्+मार्ग = उन्मार्ग
उत्+मेष = उन्मेष
उत्+निद्रा = उन्निद्रा
उत्+मूलित = उन्मूलित
उत्+नयन = उन्नयन
उत्+मोचन = उन्मोचन
एतत् + मुरारि = एतन्मुरारी
जगत्+नायक = जगन्नायक
जगत्+मिथ्या = जगन्मिथ्या
जगत्+नियंता = जगन्नियंता
जगत्+मोहिनी = जगन्मोहिनी
तत् + मात्र = तन्मात्रा
उत्+नायक = उन्नायक
उत्+मीलित – उन्मीलित
उत्+मान = उन्मान
चित् + मय = चिन्मय
जगत्+नाथ = जगन्नाथ
जगत्+माता = जगतन्माता
जगत्+निवास = जगन्निवास
जगत्+नियम = जगन्नियम
सत्+ मार्ग = सन्मार्ग
सत्+नारी = सन्नारी
सत्+मति = सन्मति
सत्+निधि = सन्निधि
सत्+नियम = सन्नियम
4. द् का न में परिवर्तन
उपनिषद्+मीमांसा = उपनिषन्मीमांसा
उपनिषद्+मर्म = उपनिषन्मर्म
शरद्+महोत्सव = शरन्महोत्सव
शरद्+मास = शरन्मास
3. यदि म् के बाद क से म तक का कोई भी व्यंजन आए तो म् आए हुए व्यंजन के वर्ग का पाँचवाँ व्यंजन हो जाता है
1. म् का ङ् में परिवर्तन
अलम्+कृति = अलङ्कृति/अलंकृति
अलम्+कृत = अलङ्कृत/अलंकृत
अलम्+करण = अलङ्करण/अलंकरण
अलम्+कार = अलङ्कार/अलंकार
अहम्+कार = अहङ्कार/अहंकार
दीपम्+ कर = दीपङ्कर/दीपंकर
तीर्थम् + कर = तीर्थङ्कर/तीर्थंकर
भयम् + कर = भयङ्कर/भयंकर
शुभम् + कर = शुभङ्कर/शुभंकर
सम्+कलन = सङ्कलन/संकलन
सम्+कीर्तन = सङ्कीर्तन/संकीर्तन
सम्+कोच = सङ्कोच/संकोच
सम्+क्षेप = सङ्क्षेप/संक्षेप
सम्+गति = सङ्गति/संगति
सम्+गठन = सङ्गठन/संगठन
सम्+गीत = सङ्गीत/संगीत
अस्तम् + गत = अस्तङ्गत/अस्तंगत
सम्+गम = सङ्गम/संगम
सम्+घटन = सङ्घटन/संघटन
सम्+घर्ष = सङ्घर्ष/संघर्ष
सम्+घनन = सङ्नन/संघनन
2. म् का ञ् में परिवर्तन
अकिम् + चन = अकिञ्चन/अकिंचन
पम्+चम -पञ्चम/पंचम
सम् + चार = सञ्चार/संचार
चम् + चल = चञ्चल/चंचल
सम्+चय = सञ्चय/संचय
सम्+चित् = सञ्चित/संचित
अम् + जन = अञ्जन/अंजन
चिरम्+जीव = चिरञ्जीवी/चिरंजीव
चिरम्+जीत = चिरञ्जीत/चिरंजीत
धनम् + जय = धनञ्जय/धनंजय
सम्+जय = सञ्जय/संजय
सम्+ज्ञा = सञ्ज्ञा/संज्ञा
सम्+संजीवनी = सञ्जीवनी/संजीवनी
3. म् का ण् में परिवर्तन
दम् + ड = दण्ड/दंड
4. म् का न् में परिवर्तन
चिरम् + तन = चिरन्तन/चिरंतन
परम् + तु = परन्तु/परंतु
सम्+ताप = सन्ताप/संताप
सम्+तति = सन्तति/संतति
सम्+त्रास = सन्त्रास/संत्रास
सम्+तुलन = सन्तुलन/संतुलन
सम्+तुष्ट = सन्तुष्ट/संतुष्ट
सम्+तोष = सन्तोष/संतोष
सम्+देह = सन्देह/संदेह
सम्+देश = सन्देश/संदेश
सम्+धि = सन्धि/संधि
धुरम् + धर = धुरन्धर/धुरंधर
सम् + न्यासी = सन्न्यासी/संन्यासी**
किम् + नर = किन्नर*
सम्+निकट = सन्निकट*
सम्+निहित = सन्निहित*
5. म् का म् में परिवर्तन
सम्+पादक = सम्पादक/संपादक
सम्+प्रदान = सम्प्रदान/संप्रदान
सम्+प्रदाय =सम्प्रदाय/संप्रदाय
सम्+पूर्ण = सम्पूर्ण/संपूर्ण)
सम्+बोधक = सम्बोधक/संबोधक
सम्+बोधन = सम्बोधन/संबोधन
सम्+भाव = सम्भाव/संभाव
सम्+भावना = सम्भावना/संभावना
विश्वम् + भर = विश्वम्भर/विश्वंभर
अवश्यम् + भावी = अवश्यम्भावी/अवश्यंभावी
सम्+मत = सम्मत*
सम्+मान = सम्मान*
सम्+मेलन = सम्मेलन*
सम्+मुख = सम्मुख*
सम्+मोहन = सम्मोहन* ( * दो पंचम वर्ण एक साथ आने पर अनुस्वार नहीं किया जाता ** सन्न्यासी शब्द में भी उक्त नियम लागू होता है परंतु सन्न्यासी शब्द को अभी तक परीक्षाओं में संन्यासी रूप में ही पूछा गया है और इसे ही सही माना गया है व्याकरण की दृष्टि से सन्न्यासी रूप सही है)
4. यदि म् के बाद य, र, ल, व, श, ष, स, ह में से कोई भी व्यंजन आए तो म् का अनुस्वार हो जाता है
किम् + वदंती = किंवदंती
प्रियम् + वदा – प्रियंवदा
सम्+वाद = संवाद
सम्+वेदना = संवेदना
स्वयम् + वर = स्वयंवर
सम्+ विधान = संविधान
सम्+वाहक = संवाहक
सम्+शय = संशय
सम्+श्लेषण = संश्लेषण
सम्+सर्ग = संसर्ग
सम्+सार = संसार
सम्+सृति = संसृति
किम् + वा = किंवा
सम्+क्षेप = संक्षेप
सम्+त्राण = संत्राण
सम्+लाप = संलाप
सम्+योग = संयोग
सम्+यम = संयम
सम्+लग्न = संलग्न
सम्+वर्धन = संवर्धन
सम्+हार = संहार
सम्+वेदना = संवेदना
सम्+शोधन = संशोधन
सम्+स्मरण = संस्मरण
5. यदि द् के बाद क, ख, क्ष, त, थ, प, स (ट्रिक- तक्षक, सपथ, ख) में से कोई भी व्यंजन आए तो द् का त् हो जाता है
उद्+कट = उत्कट
उद्+क्षिप्त = उत्क्षिप्त
उद्+कीर्ण = उत्कीर्ण
उपनिषद् + कथा = उपनिषत्कथा
तद् + काल = तत्काल
विपद् + काल = विपत्काल
उद् + खनन = उत्खनन
आपद् + ति = आपत्ति
उद्+तर = उत्तर
उद्+तम = उत्तम
उद्+कोच = उत्कोच
उपनिषद् + काल = उपनिषत्काल
तद् + क्षण = तत्क्षण
शरद्+काल = शरत्काल
शरद्+समारोह = शरत्समारोह
शरद्+सुषमा = शरत्सुषमा
उद्+ताप = उत्ताप
उद्+तप्त = उत्तप्त
उद्+तीर्ण = उत्तीर्ण
उद्+तेजक = उत्तेजक
सम्पद् + ति = सम्पत्ति
उद्+पाद = उत्पाद
तद्+पुरुष = तत्पुरुष
उद्+फुल्ल = उत्फुल्ल
सद्+संग = सत्संग
उद्+संग = सत्संग
उद्+सर्ग = उत्सर्ग
उद्+साह = उत्साह
उपनिषद् + समीक्षा = उपनिषत्समीक्षा
संसद् + सत्र = संसत्सत्र
तद्+सम = तत्सम
संसद् + सदस्य = संसत्सदस्य
व्यंजन संधि Vyanjan Sandhi की परिभाषा, नियम, प्रकार एवं स्वर सन्धि, व्यंजन सन्धि तथा विसर्ग सन्धि के बारे में विस्तृत जानकारी
6. यदि त् अथवा द् के बाद च/छ, ज/झ, ट/ठ, ड/ढ, ल में से कोई भी व्यंजन आए तो त्/द् का क्रमशः च् , ज् ,ट् , ड् , ल् हो जाता है
1. त्/द् का च् में परिवर्तन
उत्+चारण – उच्चारण
उत्+चाटन – उच्चाटन
जगत्+चिंतन = जगच्चिंतन
भगवत् + चरण – भगवच्चरण
वृहत् + चयन् = वृहच्चयन
भगवत् + चिंतन = भगवच्चिंतन
विद्युत + चालक = विद्युच्चालक
सत्+चरित्र = सच्चरित्र
सत्+चित् + आनंद = सच्चिदानंद
शरद् + चंद्र = शरच्चंद्र
उद्+छादन = उच्छादन
उद्+छिन्न = उच्छिन्न
उद्+छेद = उच्छेद
2. त्/द् का ज् में परिवर्तन
उत् + ज्वल = उज्ज्वल
तत् + जन्य = तज्जन्य
तड़ित् + ज्योति = तड़िज्ज्योति
जगत् + जीवन = जगज्जीवन
बृहत् + जन = बृहज्जन
यावत् + जीवन – यावज्जीवन
उत् + जयिनी = उज्जयिनी
जगत् + जननी = जगज्जननी
भगवत् + ज्योति – भगज्ज्योति
बृहत् + ज्योति – बृहज्ज्योति
विपद् + जाल – विपज्जाल
विपद् + ज्वाला = विपज्ज्वाला
3. त्/द् का ट् में परिवर्तन
तत् + टीका = तट्टीका
बृहत् + टीका = बृहट्टीका
मित् + टी = मिट्टी
4. त्/द् का ड् में परिवर्तन
उत् + डयन = उड्डयन
भवत् + डमरू = भवड्डमरू
5. त्/द् का ल् में परिवर्तन
उत्+लेख = उल्लेख
उत्+लंघन = उल्लंघन
तत् + लीन – तल्लीन
तड़ित् + लेखा = तड़िल्लेखा
विपद् + लीन = विपल्लीन
शरद् + लास = शरल्लास
उत् + लिखित + उल्लिखित
विद्युत् + लेखा = विद्युल्लेखा
7. यदि त् अथवा द् के बाद श आए तो त्/द् का च् तथा श का छ हो जाता है
उत्+श्वास = उच्छ्वास
उत्+शासन = उच्छासन
उत्+शृंखल = उच्छृंखल
उत्+शिष्ट = उच्छिष्ट
उत्+शास्त्र = उच्छास्त्र
उत्+श्वास = उच्छवास
मृद् + शकटिक = मृच्छकटिक
जगत् + शान्ति = जगच्छांति
शरद् + शवि = शरच्छवि
सत् + शास्त्र = सच्छास्त्र
सत् + शासन- सच्छासन
श्रीमत् + शरत् + चंद्र = श्रीमच्छरच्चंद्र
8. यदि त् अथवा द् के बाद ह आए तो त्/द् का द् तथा ह का ध हो जाता है
उत् + हार = उद्धार
तत् + हित = तद्धित
उत् + हरण = उद्धरण
पत् + हति = पद्धति
मरुत् + हारिणी = मरुद्धारिणी
उत् + हृत = उद्धृत
9. किसी भी स्वर के बाद यदि छ आए तो छ से पहले च् का आगमन हो जाता है
वि + छेद = विच्छेद
तरु + छाया = तरुच्छाया
छत्र + छाया = छत्रच्छाया
प्रति + छाया = प्रतिच्छाया
अनु + छेद = अनुच्छेद
प्र + छन्न = प्रच्छन
स्व + छंद = स्वच्छंद
आ + छादन = आच्छादन
आ + छन्न = आच्छन्न
मातृ + छाया = मातृच्छाया
10. सम् के बाद यदि कृ धातु से बनने वाले शब्द आए तो सम् वाले म् का अनुस्वार तथा अनुस्वार के बाद स् का आगमन हो जाता है (कृ धातु वाले प्रमुख शब्द- करण, कार, कृत, कृति, कर्ता, कार्य)
सम्+कृत = संस्कृत
सम्+कर्ता = संस्कर्ता
सम्+कृति = संस्कृति
सम्+करण = संस्करण
सम्+कार = संस्कार
सम्+कार्य = संस्कार्य
11. परि के बाद यदि कृ धातु से बनने वाले शब्द आए तो दोनों पदों के बीच ष् का आगमन हो जाता है (कृ धातु वाले प्रमुख शब्द- करण, कार, कृत, कृति, कर्ता, कार्य)
परि+कृत = परिष्कृत
परि+करण = परिष्करण
परि+कारक = परिष्कारक
परि+कृति = परिष्कृति
परि+कार = परिष्कार
परि+कर्ता = परिष्कर्ता
परि+कार्य = परिष्कार्य
व्यंजन संधि Vyanjan Sandhi की परिभाषा, नियम, प्रकार एवं स्वर सन्धि, व्यंजन सन्धि तथा विसर्ग सन्धि के बारे में विस्तृत जानकारी
12. किसी शब्द में कहीं पर भी इ, ऋ, र, ष में से कोई आए तथा दूसरे शब्द में कहीं पर भी न आए तो न का ण हो जाता है (विशेष- र और ष हलंत और सस्वर किसी भी रूप में हो सकते हैं)
ऋ + न = ऋण
तर + अन = तरण
दूष् + अन = दूषण
प्र+नेता = प्रणेता
प्रा + आन = प्राण
प्र+मान = प्रमाण
प्र+आंगन = प्रांगण
प्र+नाम = प्रणाम
परि + नय = परिणय
पुरा + न = पुराण
भर + अन = भरण
पोष् + अन = पोषण
मर् + अन = मरण
भूष् + अन = भूषण
परि + नति = परिणति
राम + अयन = रामायण (दीर्घ संधि-अपवाद)
शिक्ष् + अन = शिक्षण
वर्ष् + अन = वर्षण
शूर्प + नखा = शूर्पणखा
विष् + नु = विष्णु
हर् + अन = हरण
13. किसी भी स्वर के बाद यदि स आए तो स का ष हो जाता है यदि उसी पद में स के बाद में कहीं भी थ या न आये तो थ का ठ तथा न का ण क हो जाता है
अभि + सेक =अभिषेक
अभि + सिक्त =अभिषिक्त
उपनि + सद् = उपनिषद्
नि + सेध = निषेध
नि + साद = निषाद
प्रति + शोध + प्रतिषेध
वि+सम + विषम
परि + षद् = परिषद्
वि+साद = विषाद
अनु + संगी = अनुषंगी
सु+सुप्त = सुषुष्त
सु+षमा = सुषमा
सु+सुष्टि = सुषुप्ति
सु+स्मिता = सुष्मिता
जिस संस्कृत धातु में पहले स हो और बाद में ऋ या र या उससे बने शब्द के स उक्त नियम के अनुसार ष में नही बदलते जैसे-
अनु + सार = अनुसार
वि+स्मरण = विस्मरण
वि+सर्ग = विसर्ग
वि+सर्जन = विसर्जन
वि+स्मृति = विस्मृति
सन्धि की परिभाषा, नियम, प्रकार एवं स्वर सन्धि, व्यंजन सन्धि तथा विसर्ग सन्धि के बारे में विस्तृत जानकारी
14. अहन् के बाद यदि र आए तो अहन् पद में आये न् का उ हो जाता है तथा अहन् पद में आए ह व्यंजन के अंतिम स्वर अ का उ से मेल होने से गुण संधि के नियमानुसार दोनों मिलकर ओ हो जाते हैं
अहन्+रात्रि = अहोरात्र
अहन्+रूप – अहोरूप
परन्तु यदि अहन् के बाद र के अतिरिक्त कोई और वर्ण आए तो न् का र् हो जाता है
अहन्+पति = अहर्पति
अहन्+मुख = अहर्मुख
अहन्+अहन् = अहरह
अहन्+निशा = अहर्निश
15. किसी पद में यदि अंतिम व्यंजन द् हो तथा उससे पहले ऋ आए तो द् का ण् हो जाता है
मृद्+मय = मृण्मय
मृद्+मयी = मृण्मयी
मृद्+मूर्ति = मृण्मूर्ति
16. यदि ष् के बाद त/थ है हो तो त/थ का ट/ठ हो जाता है
समास विग्रह | समास के प्रश्न | samas ke udaharan | परिभाषा paribhasha और उसके भेद bhed | प्रकार prakar
परिभाषा
समास शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है छोटा-रूप। अतः जब दो या दो से अधिक पद अपने बीच की विभक्तियों का लोप कर जो छोटा रूप बनाते हैं, उसे समास, सामासिक पद या समस्त पद कहते हैं।
जैसे- रसोई के लिए घर शब्दों में से ‘के लिए’ विभक्ति का लोप करने पर नया पद बना रसोई घर, जो एक सामासिक पद है। किसी समस्त पद या सामासिक पद को उसके विभिन्न पदों एवं विभक्ति सहित पृथक करने की क्रिया को समास का विग्रह कहते हैं, जैसे-
विद्यालय – विद्या के लिए आलय
माता-पिता – माता और पिता
समास Samas के भेद bhed | प्रकार prakar
समास मुख्य रूप से छह प्रकार के होते हैं परंतु पदों की प्रधानता के आधार पर समास चार प्रकार के माने गए हैं-
पदों की प्रधानता के आधार पर समास-
1 प्रथम पद की प्रधानता – अव्ययीभाव समास
2 उत्तर प्रद की प्रधानता – तत्पुरुष समास
3 दोनों पदों की प्रधानता – द्वंद्व समास
4 किसी भी पद की प्रधानता नहीं – बहुव्रीहि समास
समास Samas के मुख्य छः प्रकार
1. अव्ययीभाव समास
2. तत्पुरूष समास
3. द्वन्द्व समास
4. कर्मधारय समास
5. द्विगु समास
6. बहुव्रीहि समास
1. अव्ययीभाव समास Samas
अव्ययीभाव समास में प्रायः (i) पहला पद प्रधान होता है। (ii) पहला पद या संपूर्ण पद अव्यय होता है।
इसमें मुख्यतः निम्नलिखित अव्यय आते हैं- आ, उप, अति, यथा, यावत्, निर्, बा, बे, भर
जैसे –
आमरण = मरण तक
उपस्थिति = समीप उपस्थित
आबालवृद्ध = बाल से लेकर वृद्ध तक
अनुबंध = बंधन के साथ
अनुहरि = हरि के समीप
अनुशासन = शासन के साथ
अनुगंग = गंगा के समीप
नियंत्रण = पूर्णतः यंत्रण
भरपेट = पेट भर कर
निकम्मा = काम रहित
निपूता = पूत रहित
भरसक = सक भर
भरमार = पूरी मार
भरपाई = पूरी पाई
भरपूर = पूरा पूर
यथाशक्ति = शक्ति के अनुसार।
यथाशीघ्र = जितना शीघ्र हो
यथाक्रम = क्रम के अनुसार
यथाविधि = विधि के अनुसार
यथावसर = अवसर के अनुसार
यथेच्छा = इच्छा के अनुसार
प्रतिदिन = प्रत्येक दिन/ दिन-दिन/ हर दिन
प्रत्येक = एक-एक / प्रति एक /हर एक
प्रत्यक्ष = अक्षि के आगे
बाकायदा = कायदे के साथ
बेधड़क = बिना धड़कन के
बेईमान = बिना ईमान के
(iii) यदि एक पद की पुनरावृत्ति हो और दोनों पद मिलकर अव्यय की तरह प्रयुक्त हो, वहाँ भी अव्ययीभाव समास होता है। यथा–
नगर-नगर = प्रत्येक नगर
गांव-गांव = प्रत्येक गांव
ढाणी-ढाणी = प्रत्येक ढाणी
मोहल्ला-मोहल्ला = प्रत्येक मोहल्ला
गली-गली = प्रत्येक गली
घर-घर = प्रत्येक घर
बच्चा-बच्चा = प्रत्येक बच्चा
पल-पल = प्रत्येक पल
वर्ष-वर्ष = प्रत्येक वर्ष
मिनट-मिनट = प्रत्येक मिनट
घंटा-घंटा = प्रत्येक घंटा
(iv) एक जैसे दो पदों के बीच में ‘म,ही,न’ में से कोई आए
भागमभाग = निरंतर भागना
खुल्लमखुल्ला = एकदम खुला
तमजूत = निरंतर जूते मारना
लूटमलूट = निरंतर लूटना
काम ही काम = केवल काम
नाम ही नाम = केवल नाम
रुपया ही रुपया = केवल रुपया
मैं ही मैं = केवल मैं
कभी न कभी = निश्चित कभी
कहीं न कहीं = निश्चित कहीं
किसी न किसी = निश्चित किसी
कोई न कोई = निश्चित कोई
कुछ न कुछ = निश्चित कुछ
(v) एक जैसे दो पद मिलकर नया पद बनाएं और वह अव्यय हो तो अव्ययीभाव समास होता है।यथा-
बातोंबात = बात ही बात में
हाथोंहाथ = हाथ ही हाथ में
दिनोंदिन = दिन ही दिन में
बीचोंबीच = बीच ही बीच में/ठीक बीच में
धड़ाधड़ = धड़-धड़ के साथ
खटाखट = खट-खट के साथ
एकाएक = एक के बाद एक
बारंबार = बार के बाद बार
सटासट = सट-सट के बाद
(vi) नाम पूर्व पद और उत्तर पद संज्ञा हो तो अव्ययीभाव समास होता है। यथा – उत्तर पद में निम्नलिखित अव्यय आते हैं-
अर्थ, अनुसार, भर, उपरांत, पूर्वक
(क) अर्थ
सेवार्थ = सेवा के लिए
ज्ञानार्थ = ज्ञान के लिए
धर्मार्थ = धर्म के लिए
प्रयोजनार्थ = प्रयोजन के लिए
उपयोगार्थ = उपयोग के लिए
दर्शनार्थ = दर्शन के लिए
भोजनार्थ = भोजन के लिए
दानार्थ = दान के लिए
हितार्थ = हित के लिए
(ख) अनुसार
इच्छानुसार = इच्छा के अनुसार
आवश्यकतानुसार = आवश्यकता के अनुसार
योग्यतानुसार = योग्यता के अनुसार
कथनानुसार = कथन के अनुसार
नियमानुसार = नियम के अनुसार
तदनुसार = तत् के (उसके)अनुसार
धर्मानुसार = धर्म के अनुसार
(ग) भर
जीवनभर = संपूर्ण जीवन
सप्ताहभर = पूरा सप्ताह
उम्रभर = पूरी उम्र
वर्षभर = पूरा वर्ष
दिनभर = पूरा दिन
(घ) उपरांत
विवाहोपरांत = विवाह के उपरांत
मृत्यूपरांत = मृत्यु के उपरांत
जन्मोपरांत = जन्म के उपरांत
मरणोपरांत = मरने के उपरांत
तदुपरांत = तत् के (उसके) उपरांत
(च) पूर्वक
ध्यानपूर्वक = ध्यान के साथ
सुखपूर्वक = सुख के साथ
कुशलपूर्वक = कुशलता के साथ
नियमपूर्वक = नियम के साथ
सावधानीपूर्वक = सावधानी के साथ
विवेकपूर्वक = विवेक के साथ
श्रद्धापूर्वक = श्रद्धा के साथ
कृपापूर्वक = कृपा के साथ
(vii) संस्कृत के उपसर्ग युक्त पद भी अव्ययीभव समास Samas होते हैं। यथा –
अटूट = न टूट/टूटा
अनिच्छुक = न इच्छुक
नगण्य = न गण्य
2. तत्पुरुष समास Samas
तत्पुरुष समास Samas में दूसरा पद (उत्तर पद) प्रधान होता है अर्थात् विभक्ति का लिंग, वचन दूसरे पद के अनुसार होता है।
पं. कामता प्रसाद गुरु के अनुसार-तत्पुरुष समास के मुख्य दो भेद हैं-
(1) व्याधिकरण तत्पुरुष
(2) समानाधिकरण तत्पुरुष
(1) व्यधिकरण तत्पुरुष- जिस तत्पुरुष समास Samas में पूर्वपद तथा उत्तर पद को विभक्तियाँ या परसर्ग पृथक् पृथक् होते हैं वहाँ व्यधिकरण या तत्पुरुष समास Samas होता है। हिंदी में इन्हें कारकानुसार अभिहित किया जाता है, यथा-
(क) कर्म तत्पुरुष
(ख) करण तत्पुरुष
(ग) सम्प्रदान तत्पुरुष
(घ) अपादान तत्पुरुष
(च) संबंध तत्पुरुष
(छ) अधिकरण तत्पुरुष
कर्ता और संबोधन को छोड़कर शेष छह कारकों की विभक्तियों के अर्थ में तत्पुरुष समास होता है। तत्पुरुष समास में बहुधा दोनों पद संज्ञा या पहला पद संज्ञा और दूसरा विशेषण होता है।
पं.कामता प्रसाद गुरु द्वारा तत्पुरुष समास का वर्गीकरण इस प्रकार किया है-
कारक चिह्नों के आधार पर तत्पुरुष के भेद-
कारक चिह्नों के आधार पर तत्पुरुष के 6 भेद है जो निम्नलिखित हैं-
(क) कर्म तत्पुरुष (को)
नेत्र सुखद = नेत्रों को सुखद
वन-गमन = वन को गमन
जेब कतरा = जेब को कतरने वाला
प्राप्तोदक = उदक को प्राप्त
चिड़ीमार = चिड़ियों को मारने वाला
परलोक गमन = परलोक को गमन
कठफोड़ = काठ को फोड़ने वाला
मुंहतोड़ = मुंह को तोड़ने वाला
विकासोन्मुख = विकास को उन्मुख
मरणातुर = मरण को आतुर
(ख) करण तत्पुरुष (से/के द्वारा)
ईश्वर-प्रदत्त = ईश्वर से प्रदत्त
तुलसीकृत = तुलसी द्वारा रचित
दयार्द्र = दया से आर्द्र
रत्न जड़ित = रत्नों से जड़ित
हस्तलिखित = हस्त (हाथ) से लिखित
प्रेमातुर = प्रेम से आतुर
प्रेमांध = प्रेम से अंधा
मदांध = मद से अंधा
तुलसी विरचित = तुलसी द्वारा विरचित मनमौजी = मन से मौजी
मुंहमांगा = मुंह से मांगा
माघ प्रणीत = माघ के द्वारा प्रणीत
विरहा कुल = विरह से आकुल
जयपुर = जयसिंह के द्वारा बसाया पुर
(ग) सम्प्रदान तत्पुरुष (को, के लिए)
कृष्णार्पण = कृष्ण को अर्पण
शिवार्पण = शिव को अर्पण
हवन-सामग्री = हवन के लिए सामग्री विद्यालय = विद्या के लिए आलय
गुरु-दक्षिणा = गुरु के लिए दक्षिणा
बलि-पशु = बलि के लिए पशु
अनाथालय = अनाथों के लिए आलय
कारावास = करा के लिए आवास
आवेदन पत्र = आवेदन के लिए पत्र
हथकड़ी = हाथ के लिए कड़ी
रंगमंच = रंग के लिए मंच
रणभूमि = रण के लिए भूमि
डाक गाड़ी = डाक के लिए गाड़ी
(घ) अपादान तत्पुरुष (‘से’ अलग होने के अर्थ में)
ऋण-मुक्त = ऋण से मुक्त
पदच्युत = पद से च्युत
मार्ग भ्रष्ट = मार्ग से भ्रष्ट
धर्म-विमुख = धर्म से विमुख
देश-निकाला = देश से निकाला
पथभ्रष्ट = पथ से भ्रष्ट
विद्याहीन = विद्या से हीन
जात बाहर = जात से बाहर
पद दलित = पद से दलित
रोगमुक्त = रोग से मुक्त
कर्तव्यविमुख = कर्तव्य से विमुख
पदच्युत = पद से च्युत
ऋणमुक्त = ऋण से मुक्त
जन्मांध = जन्म से अंधा
(च) सम्बन्ध तत्पुरुष (का, के, की)
मंत्री-परिषद = मंत्रियों की परिषद
प्रेम-सागर = प्रेम का सागर
राजमाता = राजा की माता
अमचूर = आम का चूर्ण
रामचरित = राम का चरित
लखपति = लाखों का पति
सूर्योदय = सूर्य का उदय
स्वर्ण किरण = स्वर्ण की किरण
मध्याह्न = अहन् का मध्य
मृगछौना = मृग का छौना
देहदान = देह का दान
गोदान = गो का दान
कन्यादान = कन्या का दान
राष्ट्रोत्थान = राष्ट्र का उत्थान
पशु-बलि = पशु की बलि
राजप्रासाद = राजा का प्रासाद
सिंह शावक = सिंह का शावक
कठपुतली = काठ की पुतली
पनघट = पानी का घाट
पनवाड़ी = पान की वाड़ी
(छ) अधिकरण तत्पुरुष (में, पे, पर)
वनवास = वन में वास
ध्यान-मग्न = ध्यान में मग्न
घृतान्न = घृत में पक्का अन्न
कवि पुंगव = कवियों में पुंगव (श्रेष्ठ)
ध्यान-मग्न = ध्यान में मग्न
नराधम = नरों में अधम
नर श्रेष्ठ = नरों में श्रेष्ठ
बटमार = बट में मारने वाला
हरफ़नमौला = हर (प्रत्येक) फ़न (कला) में मौला (निपुण)
पुरुषोत्तम = पुरुषों में उत्तम
आप बीती = आप पर बीती
जीव दया = जीवों पर दया
घुड़सवार = घोड़े पर सवार
अश्वारूढ़ = अश्व पर आरूढ़
अश्वारोहन = अश्व पर आरोहण
अश्मारोहण = अश्म पर आरोहण
आत्म केंद्रित = आत्म पर केंद्रित
आत्मविश्वास = आत्म पर विश्वास
आत्मनिर्भर = आत्म पर निर्भर
पदारूढ = पद पर आरूढ़
पलाधारित = पल पर आधारित
भाषाधिकार = भाषा पर अधिकार
व्यधिकरण तत्पुरुष समास के अन्य भेद पं. कामता प्रसाद गुरु के अनुसार व्यधिकरण तत्पुरुष समास के कारक के अलावा अन्य भेद निम्नांकित है
(क) अलुक् (ख) अपपद (ग) नज् ( घ) प्रादि
(क) अलुक् समास Samas
जिस व्यधिकरण समास में पहले पद की विभक्ति का लोप नहीं होता, उसे अलुक् तत्पुरुष समास कहते हैं। इस समास में विभक्ति चिह्न ज्यों के त्यों बने रहते हैं। विभक्ति का लोप न होना अलुक् है। यथा-
युधिष्ठिर – युद्ध में स्थिर रहने वाला। इस उदाहरण में- ‘युद्ध’ की जगह ‘युधि’ हो गया है अर्थात् ‘में’ चिह्न मिल गया है। इसी तरह तीर्थंकर – तीर्थों को करने वाला। इसमें पहला पद ‘तीर्थम्’ है अर्थात् संस्कृत के कर्म कारक की विभक्ति ‘म्’ उपस्थित है, अत: ‘तीर्थंकर’ अलुक् तत्पुरुष है।
अलुक् तत्पुरुष के उदाहरण इस प्रकार हैं
समस्त पद समास
अंतेवासी – अंतः में (समीप) वास करने वाला
खेचर – ख (आकाश) में विचरण करने वाला
आत्मनेपद – आत्मन् के लिए प्रयुक्त पद
धनंजय – धनं (कुबेर) को जय करने वाला
धुरंधर – धुरी को धारण करने वाला
परस्मैपद – पर के लिए प्रयुक्त पद
परमेष्ठी – परम (आकाश) में स्थिर रहने वाला
भयंकर – भय को करने वाला
प्रलयंकर – प्रलय को करने वाला
मनसिज – मनसि (मन) में जन्म लेने वाला (कामदेव)
मृत्युंजय – मृत्यु को जय करने वाला
वसुंधरा – वसुओं को धारण करने वाली
सरसिज – सरसि (तालाब) में जन्म लेने वला (कमल)
वनेचर – वन में विचरण करने वाला
वाचस्पति – वाचः (वाणी) का पति
विश्वम्भर – विश्वं (विश्व को) भरने वाला
शुभंकर – शुभ को करने वाला
बृहस्पति – बृहत् है जो पति
(ख) उपपद तत्पुरुष समास Samas
जब तत्पुरुष समास का दूसरा पद ऐसा कृदंत होता है जिसका स्वतंत्र उपयोग नहीं हो सकता, तब उस समास को उपपद समास कहते हैं।
जलधर, पापहर, जलचर प्राणी उपपद समास नहीं हैं, क्योकि इनमें जो धर, हर और चर कृदंत हैं उनका प्रयोग अन्यत्र स्वतंत्रतापूर्वक होता है।
उदाहरण-
अंबुद – अंबु जल को देने वाला
अंबुधि – अंबु को धारण करने वाला
कृतज्ञ – कृत को मानने वाला
कृतघ्न – कृत को ना मानने वाला
कष्टप्रद – कष्ट को प्रदान करने वाला
कठफोड़वा – काठ को फोड़ने वाला
कुंभकार – कुंभ को करने वाला है
खग – ख (आकाश) में गमन करने वाला
चर्मकार – चर्म का कार्य करने वाला
चित्रकार – चित्र को बनाने वाला
जलद – जल को देने वाला
जलज – जल में जन्म लेने वाला
जलधि – जल को धारण करने वाला
(ग) नञ् तत्पुरूष समास Samas
अभाव या निषेध के अर्थ में शब्दों के पूर्व ‘अ’ या ‘अन्’ लगाने से जो तत्पुरुष बनता है उसे नञ् तत्पुरुष कहते हैं।
अनिच्छुक – न इच्छुक
अनाश्रित – बिना आश्रय के
अनुपयुक्त – उपयुक्तता से रहित
अनशन – भोजन से रहित
अनश्वर – न नश्वर
अनदेखा – न देखा हुआ
अनभिज्ञ – न अभिज्ञ
अनादि – न आदि
अनचाहा – न चाहा हुआ
अनजान – न जाना हुआ
असत्य – न सत्य
अनबन – न बनना
अमर – न मरने वाला
अजन्मा – न जन्म लेने वाला
अकारण – न कारण
अनिष्ट – न इष्ट
अडिग – न डिगने वाला
अजर – न बूढ़ा होने वाला
अटल – न टलने वाला
असंभव – न संभव
अकाल – न काल (समय ठीक नहीं होना)
अचेतन – न चेतन
अचल – न चल
अज्ञान – न ज्ञान
असभ्य – न सभ्य
अप्रिय – न प्रिय
अमोघ – न मोघ
अनंत – न अंत
अतृप्त – न तृप्त
अगोचर – न गोचर
अविकृत -न विकृत
अमंगल – न मंगल
नगण्य – न गण्य
नापसंद – न पसंद
नालायक – न लायक
नाजायज – न जायज
विशेष- नञ् तत्पुरूष समास के उदाहरण अव्ययीभाव समास में भी मिल जाते हैं, परंतु यदि प्रश्न के चार विकल्प में नञ् तत्पुरुष समास नहीं दिया हुआ है तो ही अव्ययीभाव समास का विकल्प सही होगा।
(घ) प्रादि तत्पुरूष समास
पंडित कामता प्रसाद गुरु के अनुसार “जिस तत्पुरुष समास के प्रथम स्थान में उपसर्ग आता है उसे संस्कृत व्याकरण में प्रादि समास कहते हैं।”
जिस समस्त पद में प्र, परा, अप आदि उपसर्ग पूर्व पद में हो उसे प्रादि तत्पुरुष कहते हैं।
अतिवृष्टि – अधिक वृष्टि
उपदेश – उप (छोटा) देश
प्रगति – प्रथम गति
प्रतिध्वनी – ध्वनि के बाद ध्वनि
प्रतिबिंब – बिम्ब के समान बिम्ब
प्रतिमूर्ति – किसी आकृति की नकल
प्रत्युपकार – उपकार से बदले किया गया उपकार
प्रपर्ण – जिसके सभी पत्ते झड़ चुके हो
3. समानाधिकरण तत्पुरुष अथवा कर्मधारय समास Samas
पं.कामता प्रसाद गुरु के अनुसार- “जिस तत्पुरुष समास के विग्रह में दोनों पदों के साथ एक ही (कर्ता कारक की) विभक्ति आती है. उसे समानाधिकरण तत्पुरुष अथवा कर्मधारय समास कहते है।”
पं.कामता प्रसाद गुरु के अनुसार- “समानाधिकरण तत्पुरुष के विग्रह में उसके दोनों शब्दों में एक ही विभक्ति लगती है। समानाधिकरण तत्पुरुष का प्रचलित नाम कर्मधारय है और यह कोई अलग समास नहीं है, किन्तु तत्पुरुष का केवल एक उपभेद है।”
जिस समस्त पद का उत्तर पद प्रधान हो तथा दोनों पदों में विशेषण विशेष्य अथवा उपमान उपमेय का संबंध हो, उसे कर्मधारय समास कहते हैं।
इस समास की निम्नांकित विशेषताएँ स्पष्ट होती है।
(1) समस्त पद का उत्तर पद प्रधान होता है।
(2) पूर्व पद मुख्यत: विशेषण होता है और जिसके दोनों पद विग्रह करके कर्ता कारक में ही रखे जाते हैं।
(3) कभी कर्मधारय के दोनों ही पद संज्ञा या दोनों ही पद विशेषण होते है। कभी-कभी पूर्वपद संज्ञा और उत्तर पद विशेषण होता है।
(4) इस समास में उपमान-उपमेय, उपमेय-उपमान, विशेषण-विशेष्य, विशेष्य-विशेषण, विशेषण-विशेषण, का प्रयोग होता है। दोनों ही पद प्रायः एक ही विभक्ति (कर्ता कारक) में प्रयुक्त होते हैं।
पंडित कामता प्रसाद गुरु के अनुसार कर्मधारय समास के मुख्य दो भेद माने गए हैं –
(1) विशेषता वाचक
(2) उपमान वाचक
(1) विशेषता वाचक- पंडित कामता प्रसाद गुरु के अनुसार इसके निम्नलिखित सात भेद होते हैं-
(क) विशेषण पूर्व पद
(ख) विशेषणोत्तर पद
(ग) विशेषणोभय पद
(घ) विषय पूर्वपद/विशेष्य पूर्व पद
(ङ) अव्यय पूर्व पद
(च) संख्या पूर्व पद
(छ) मध्यपद लोपी
(क) विशेषण-पूर्वपद- जिसमें प्रथम पद विशेषण होता है-
महाजन = महान है जो जन
पीतांबर = पीत है जो अंबर
शुभागमन = शुभ है जो आगमन
नीलकमल = नील है जो कमल
सद्गुण = सत् है जो गुण
पूर्णेन्दु = पूर्ण है जो इंदू
परमानंद = परम है जो आनंद
नीलगाय = नील है जो गाय
काली मिर्च = काली है जो मिर्च
मझधार = मझ (बीच में) है जो धारा
तलघर = तल में है जो घर
खड़ी-बोली = खड़ी है जो बोली
सुंदरलाल = सुंदर है जो लाल
पुच्छल तारा = पूछ वाला है जो तारा
भलामानस = भला है जो मनुष्य
काला पानी = काला है जो पानी
छुट भैया = छोटा है जो भैया
(ख) विशेषणोत्तर पद- जिसका दूसरा पद विशेषण होता है-
जन्मांतर (अंतर=अन्य)=जन्म है जो अंतर
पुरुषोत्तम = पुरुषों में है जो उत्तम
नराधम = नरों में है जो अधम
मुनिवर = मुनियों में है जो वर (श्रेष्ठ)
(पिछले तीन शब्दों का विग्रह दूसरे प्रकार से करने से ये तत्पुरुष हो जाते हैं; जैसे, पुरुषों में उत्तम = पुरुषोत्तम।)
प्रभुदयाल = प्रभु है जो दयाल
रामदीन = राम है जो दीन
रामकृपाल = राम है जो कृपाल
रामदयाल = राम है जो दयाल
शिवदयाल = शिव है जो दयाल
(ग) विशेषणोभय पद- जिसमें दोनों पद विशेषण होते हैं-
नीलपीत = जो नील है जो पीत है
शीतोष्ण = जो शीत है जो उष्ण है
श्यामसुंदर = जो श्याम है जो सुंदर है
शुद्धाशुद्ध = जो शुद्ध है जो अशुद्ध है
मृदु-मंद = जो मृदु है जो मंद है
लाल-पीला = जो लाल है जो पीला है
भला-बुरा = जो भला है जो बुरा है
ऊँच-नीच = जो नील है जो पीत है
खट-मिट्ठा = जो खट्टा है जो मीठा है
बडा-छोटा = जो बड़ा है जो छोटा है
मोटा ताजा = जो मोटा है जो ताजा है
सख्त-सुस्त = जो सख्त है जो सुस्त है
नेक-बद = जो नेक है जो बद है
कम-बेस = जो कम है जो बेस है
(घ) विषय पूर्वपद/विशेष्य पूर्व पद-
धर्मबुद्धि = धर्म है यह बुद्धि (धर्म- विषयक बुद्धि )
विंध्य-पर्वत = विंध्य नामक पर्वत
(ङ) अव्यय पूर्वपद- जिस समस्त पद में पूर्व पद अव्यय हो अव्यय पूर्वपद कर्मधारय समास कहलाता है-
दुर्वचन = दुर् (बुरे)है जो वचन
निराशा = निर् (दूर) है जो आशा
सहयोग = सह है जो योग
अधमरा = आधा है जो मरा हुआ
दुकाल = दु (बुरा) है जो काल
(च) संख्या पूर्व पद-जिस कर्मधारय समास में पहला पद संख्यावाचक होता है और जिससे समुदाय (समाहार) का बोध होता है उसे संख्या पूर्व पद कर्मधारय कहते हैं। को संस्कृत व्याकरण में द्विगु कहते हैं।
(द्विगु समास का विस्तृत वर्णन आगे किया गया है)
(छ) मध्यमपदलोपी
जिस समास में पहले पद फा संबंध दूसरे पद से बताने वाला शब्द अध्याहृत (लुप्त) रहता है उस समास को मध्यमपदलोपी अथवा लुप्त-पद समास कहते हैं-
घृतान्न = घृत मिश्रित अन्न
पर्णशाला = पर्णनिर्मित शाला
छायातरु = छाया-प्रधान तरु
देव-ब्राह्मण = देवीपूजक ब्राह्मण
दही-बडा = दही में डूबा हुआ बडा
गुड़म्बा = गुड़ में उबाला आम
गुड़धानी = गुड़ मिली हुई धानी
तिलचाँवली = तिल मिश्रित चावल
गोबरगणेश = गोबर से निर्मित गणेश
जेबघड़ी = जेब में रखी जाने वाली घड़ी
पनकपड़ा = पानी छानने का कपड़ा
गीदड़भभकी = गीदड़ जैसी भभकी
(2) उपमान वाचक कर्मधारय
पंडित कामताप्रसाद गुरु के अनुसार उपमान वाचक कर्मधारय के चार भेद हैं-
(क) उपमान-पूर्वपद
जिस वस्तु की उपमा देते हैं उसका वाचक शब्द जिस समास के आरम्भ में आता है उसे उपमान-पूर्व पद समास कहते हैं-
चंद्रमुख = चंद्र सरीखा मुख/चंद्र के समान है जो मुख
घनश्याम = घन सरीखा श्याम/घन के समान है जो श्याम
वज्रदेह = वज्र सरीखी देह/वज्र के समान है जो देह
प्राण-प्रिय = प्राण सरीखा प्रिय/प्राण के समान है जो प्रिय
सिंधु-हृदय = सिंधु सरीखा हृदय/सिंधु के समान है जो हृदय
राजीवलोचन = राजीव सरीखे लोचन/राजीव के समान है जो लोचन
(ख) उपमानोत्तर पद
जिस समस्त पद में उपमान उत्तर पद में तथा उपमेय पूर्व पद में होता है उसे उपमानोत्तर पद समास कहते हैं। समस्त पद का विग्रह करते समय दोनों पदों के बीच में ‘रूपी’ शब्द का प्रयोग किया जाता है बहुधा ऐसे पद रूपक अलंकार के उदाहरण होते हैं-
चरण-कमल = कमल रूपी चरण
राजर्षि = ऋषि रूपी राजा
पाणिपल्लव = पल्लव रूपी पाणि
क्रोधाग्नि = क्रोध रूपी अग्नि
विरह सागर = विरह रूपी सागर
भवसागर = भव रूपी सागर
पुरुष सिंह = सिंह रूपी पुरुष
कीर्ति लता = लता रूपी कीर्ति
देह लता = देह रूपी लता
मुखारविंद = अरविंद रूपी मुख
वचनामृत = अमृत रूपी वचन
(ग) अवधारणा पूर्वपद
जिस समास में पूर्वपद के अर्थ पर उत्तर पद का अर्थ अवलंवित होता है उसे अवधारणा पूर्वपद कर्मधारय कहते हैं।
जैसे- गुरुदेव = गुरु ही देव अथवा गुरु-रूपी देव
कर्म-बंध = कर्म ही बंधन/कर्म रूपी बंधन
पुरुष-रत्न = पुरुष ही रत्न/पुरुष रूपी रत्न
धर्म-सेतु = धर्म ही सेतु/धर्म रूपी सेतु
बुद्धि-बल = बुद्धि ही बल/बुद्धि रूपी बल
स्त्री-धन = स्त्री ही धन/स्त्री रूपी धन
(घ) अवधारणोत्तरपद
जिस समास में दूसरे पद के अर्थ पर पहले पद का अर्थ अवलंबित रहता है उसे अवधारणोत्तर पद कहते हैं।
जैसे- साधु-समाज-प्रयाग ( साधु-समाज-रूपी प्रयाग ) इस उदाहरण में दूसरे शब्द ‘प्रयाग के अर्थ पर प्रथम शब्द साधु-समाज का अर्थ अवलंबित है।
इन सबके अतिरिक्त कर्म-धारय समास में वे रंग-वाचक विशेषण भी आते है जिनके साथ अधिकता के अर्थ में उनका समानार्थी कोई विशेषण या संज्ञा जोड़ी जाती है। जैसे-
लाल-सुर्ख = लाल है जो सुर्ख
काला-भुजंग = काला है जो भुजंग
फक-उजला = फ़क है जो उजला
पीत-शाटिका = पीत है जो शाटिका
गोरा-गट = गोरा है जो गट (अत्यंत)
काला-कट = काला है जो कट (अत्यंत)
4. द्विगु समास Samas
पंडित कामताप्रसाद गुरु ने इस समास को संख्या पूर्व पद समास कहा है
पंडित कामताप्रसाद गुरु के अनुसार “जिस कर्मधारय समास में पहला पद संख्यावाचक होता है और जिससे समुदाय (समाहार) का बोध होता है उसे संख्या पूर्व पद कर्मधारय कहते हैं। इसी समास को संस्कृत व्याकरण में द्विगु कहते हैं।”
(कभी-कभी द्वितीय पद भी संख्यावाची होने पर द्विगु समास माना जाता है)
त्रिभुवन = तीन भुवनों का समाहार
त्रैलोक्य = तीनो लोकों का समाहार
चतुष्पदी = चार पदों का समाहार
पंचवटी = पाँच वटों का समाहार
त्रिकाल = तीन कालों का समाहार
अष्टाध्यायी = आठ अध्यायों का समाहार
पंसारी = पाँच सेरों का समाहार
दोपहर= दो पहरों का समाहार
चौमासा = चार मासों का समाहार
सतसई = सात सौ सइयों (पदों) का समाहार
चौराहा = चार राहों का समाहार
अठवाड़ा = आठ वारों का समाहार
छदाम = छह दामों का समाहार
चौघड़िया = चार घड़ियों का समाहार
दुपट्टा = दो पट्टों (वस्त्रों) का समाहार
दुअन्नी = दो आनों (भारतीय मुद्रा का एक प्राचीन रूप) का समाहार
संपादकद्वय – दो संपादकों का समाहार
लेखकद्वय – दो लेखकों का समाहार
संकलनत्रेय – तीन संकलनों का समाहार (एकांकी के संदर्भ में)
(विशेष अर्थ में प्रयुक्त संख्यावाची शब्द में बहुव्रीहि समास माना जाता है।)
5. द्वन्द्व समास Samas
जिस समस्त पद में उभय पद (दोनों पद) प्रधान होते हैं उसे द्वंद्व समास कहते हैं।
पंडित कामता प्रसाद गुरु के अनुसार- “जिस समास मे सब पद अथवा उनका समाहार प्रधान रहता है उसे द्वंद्व समास कहते हैं।” द्वंद्व समास तीन प्रकार का होता है-
जिस समास के सभी पद “और” समुच्चय-बोधक से जुड़े हुए हो, पर इस समुच्चयबोधक का लोप हो, उसे इतरेतर द्वंद्व कहते हैं।
तरेतर द्वन्द्व में ऐसे संख्यावाची शब्दों का भी प्रयोग किया जाता है जिनके दोनों ही पद संख्या का बोध कराते हैं। जैसे-
राधा-कृष्ण = राधा और कृष्ण
ऋषि-मुनि = ऋषि और मुनि
कंद-मूल-फल = कंद और मूल और फल
गाय-बैल = गाय और बैल
भाई-बहिन = भाई और बहन
बेटा-बेटी = बेटा और बेटी
घटी-बढ़ी = घटी और बड़ी
नाक-कान = नाक और कान
सुख-दु:ख = सुख और दु:ख
माँ-बाप = मां और बाप
चिट्ठी-पाती = चिट्ठी और पाती
तेतालीस = तीन और चालीस
पच्चीस = पाँच और बीस
पचपन = पाँच और पचास
(अ) इस समास में हिंदी की समस्त द्रव्यवाचक संज्ञाएँ एकवचन में प्रयुक्त होती हैं। यदि दोनों पद मिलकर प्राय: एक ही वस्तु सूचित करते है, तो भी एकवचन में आते हैं। जैसे-
दाल-रोटी = दाल और रोटी
इकतीस = एक और तीस
दुःख-सुख = दुख और सुख
घी-गुड़ = घी और गुड़
खान-पान = खान और पान
दाल-भात = दाल और भात
तन-मन-धन = तन और मन और धन
पेड़-पौधे = पेड़ और पौधे
फल-फूल = फल और फूल
बत्तीस = दो और तीस
बाप-दादा = बाप और दादा
बेटा-बेटी = बेटा और बेटी
बारह = दो और दस
बाईस = दो और बीस
भाई-बहन = भाई और बहन
भीम अर्जुन = भीम और अर्जुन
माँ-बाप = मां और बाप
यश-अपयश = यश और अपयश
राजा-रंक = राजा और रंक
राधा-कृष्ण = राधा और कृष्ण
राम-कृष्ण = राम और कृष्ण
राम-बलराम = राम और बलराम
(शेष द्वन्द्व-समास बहुधा बहुवचन में आते हैं)
(आ) एक ही लिंग के शब्द से बने समास का लिंग मूल लिंग ही रहता है, परंतु भिन्न- भिन्न लिंगों के शब्दों में बहुधा पुल्लिंग होता है; और कभी-कभी अंतिम और कभी-कभी प्रथम शब्द का भी लिंग आता है। जैसे-
गाय-बैल (पु.)
नाक-कान (पु.)
घी-शक्कर (पु.)
दूध-रोटी ( स्त्री.)
चिट्ठी-जाती ( स्त्री.)
भाई- बहन (पु.)
माँ-बाप (पु.)
(2) समाहार-द्वंद्व
जिस द्वंद्व समास Samas से उसके पदों के अर्थ के अतिरिक्त उसी प्रकार का और भी अर्थ सूचित हो उसे समाहार-द्वंद्व कहते हैं। जैसे- आहार-निद्रा-भय = केवल आहार, निद्रा और भय ही नही, किंतु प्राणियों के सब धर्म
सेठ-साहूकार = सेठ और साहूकारों के सिवा और और भी दूसरे धनी लोग
इस समास का विग्रह करते समय ‘आदि’ (बहुधा सजीव के साथ), ‘इत्यादि’ (बहुधा निर्जीव के साथ) शब्दों का प्रयोग किया जाता है-
भूल-चूक = भूल चूक इत्यादि
हाथ-पाँव = हाथ पांव इत्यादि
दाल-रोटी = दाल रोटी इत्यादि
रुपया-पैसा = रुपया पैसा इत्यादि
देव-पितर = देव पितर आदि
हिंदी में समाहार द्वद्व की संख्या बहुत है और उसके नीचे लिखे भेद हो सकते हैं
(क) प्रायः एक ही अर्थ के पदों के मेल से बने हुए शब्द
कपड़े-लत्ते = कपड़े लत्ते इत्यादि
बासन-बर्तन = बासन बर्तन इत्यादि
मार-पीट = मारपीट इत्यादि
लूट-मार = लूटमार इत्यादि
चाल-चलन = चाल चलन इत्यादि
घास-फूस = घास फूस इत्यादि
दिया-बत्ती = दीया बत्ती इत्यादि
चमक-दमक = चमक दमक इत्यादि
हृष्ट-पुष्ट = हष्ट पुष्ट इत्यादि
कंकर-पत्थर = कंकर पत्थर इत्यादि
बोल-चाल = बोलचाल इत्यादि
दान-धर्म = दान धर्म इत्यादि
साग-पात = साग पात इत्यादि
भला-चंगा = भला चंगा इत्यादि
कूड़ा-कचरा = कूड़ा कचरा इत्यादि
भूत-प्रेत = भूत प्रेत इत्यादि
बाल-बच्चा = बाल बच्चा इत्यादि
मेल-मिलाप = मेल मिलाप इत्यादि
मंत्र-जंत्र = मंत्र तंत्र इत्यादि
मोटा-ताजा = मोटा ताजा इत्यादि
कील-कांटा = कील कांटा इत्यादि
काम-काज = कामकाज इत्यादि
जीव-जन्तु = जीव जंतु इत्यादि
इस प्रकार के सामासिक शब्दों में कभी-कभी एक शब्द हिन्दी और दूसरा उर्दू रहता है; जैसे-
धन-दौलत = धन इत्यादि/धन-दौलत इत्यादि
जी-जान = जी इत्यादि/जी-जान इत्यादि
मोटा-ताजा = मोटा इत्यादि/मोटा-ताजा इत्यादि
चीज वस्तु = चीज इत्यादि/चीज वस्तु इत्यादि
तन-बदन = तन इत्यादि/तन-बदन इत्यादि
कागज-पत्र = कागज इत्यादि/कागज-पत्र इत्यादि
रीति-रसम = रीति इत्यादि/रीति-रसम इत्यादि
बैरी-दुश्मन = बैरी इत्यादि/बैरी-दुश्मन इत्यादि
भाई -बिरादर = भाई इत्यादि/भाई-बिरादर इत्यादि
(ख ) मिलते-जुलते अर्थ के पदों के मेल से बने हुए शब्द
अन्न-जल = अन्न इत्यादि/अन्न-जल इत्यादि
पान-फूल = पान इत्यादि/ पान-फूल इत्यादि
आचार-विचार = आचार इत्यादि/आचार-विचार इत्यादि
गोला-बारूद = गोला इत्यादि/गोला-बारूद इत्यादि
खाना-पीना = खाना इत्यादि खाना-पीना इत्यादि
मोल-तोल = मोल इत्यादि मोल-तोल इत्यादि
जंगल-झाड़ी = जंगल इत्यादि जंगल-झाड़ी इत्यादि
जैसा-तैसा = जैसा-तैसा इत्यादि
कुरता-टोपी = कुरता इत्यादि/ कुरता-टोपी इत्यादि
घर-द्वार = घर इत्यादि/ घर-द्वार इत्यादि
नाच-रंग = नाच इत्यादि/ नाच-रंग इत्यादि
पान-तमाखु = पान इत्यादि/ पान-तमाखु इत्यादि
दिन-दोपहर = दिन इत्यादि/ दिन-दोपहर इत्यादि
नोन-तेल = नोन इत्यादि/ नोन-तेल इत्यादि
सांप-बिच्छू = सांप इत्यादि/ सांप-बिच्छू इत्यादि
(ग ) परस्पर विरुद्ध अर्थवाले पदों का मेल
आगा-पीछा = आगे इत्यादि/ आगा-पीछा इत्यादि
लेन-देन = लेन-देन इत्यादि
चढ़ा-उतरी = चढ़ा-उतरी इत्यादि
कहा-सुनी = कहा-सुनी इत्यादि
विशेष- इस प्रकार के कोई-कोई विशेषणोभयपद भी पाये जाते हैं । जब इनका प्रयोग संज्ञा के समान होता है तब ये द्वद्व होते हैं, और जब ये विशेषण के समान आते हैं तब कर्मधारय होते हैं।
ऊँचा-पूरा = ऊँचा इत्यादि/ ऊँचा-पूरा इत्यादि (कर्मधारय)
ऊँचा-पूरा = ऊँचा और पूरा (द्वंद्व)
भरा-पूरा = भरा इत्यादि/ भरा-पूरा इत्यादि (कर्मधारय)
भरा-पूरा = भरा और पूरा (द्वंद्व)
(घ) ऐसे समास जिनमें एक शब्द सार्थक और दूसरा शब्द अर्थहीन, अप्रचलित अथवा पहले का समानुप्रास हो। जैसे-
आमने-सामने = सामने इत्यादि
आस-पास = पास इत्यादि
अड़ोस-पड़ोस = पड़ोस इत्यादि
बातचीत = बातचीत इत्यादि
देख-भाल = देखना इत्यादि
दौड़-धूप = दौड़ इत्यादि
भीड़-भाड = भीड़ इत्यादि
अदला-बदली = बदली इत्यादि
चाल-ढाल = चाल इत्यादि
काट-कूट = काटना इत्यादि
विशेष- (i) अनुप्रास के लिए जो पद लाया जाता है उसके आदि में दूसरे (मुख्य) पद का स्वर रखकर उस (मुख्य) पद के शेष भाग को पुनरुक्त कर देते हैं। जैसे-
ढेरे-एरे
घोड़ा-सोड़ा
कपड़े-अपड़े
उलटा सुलटा
गवार-सँवार
मिठाई-सिठाई
पान-वान
खत-वत
कागज-वागज
(ii) कभी-कभी पूरा पद पुनरुक्त होता है और कभी प्रथम पद के अंत में ‘आ’ और दूसरे पद के अंत में ‘ई’ कर देते हैं।
काम-काम
भागा-भाग
देखा देखी
तड़तड़ी
देखा-भाली
(3) वैकल्पिक द्वंद्व
जब दो पद “या”, “अथवा” आदि विकल्पसूचक समुच्चयबोधक के द्वारा मिले हों और उस समुच्चय- बोधक का लोप हो जाय, तब उन पदों के समास को वैकल्पिक द्वंद्व कहते हैं। इस समास मे बहुधा परस्पर-विरोधी पदों का मेल होता है। जैसे-
जात-कुजात = जात या कुजात
पाप-पुण्य = पाप या पुण्य
धर्माधर्म = धर्म या अधर्म
ऊँचा-नीचा = ऊँचा या नीचा
थोडा-बहुत = थोडा या बहुत
भला-बुरा = भला या बुरा
विशेष- पंडित कामताप्रसाद गुरु के अनुसार दो-तीन, नौ-दस, बीस-पच्चीस, आदि अनिश्चित गणनावाचक सामासिक विशेषण कभी-कभी संज्ञा के समान प्रयुक्त होते हैं। उस समय उन्हें वैकल्पिक द्वंद्व कहना उचित है।
मैं दो-चार को कुछ नहीं समझता।
आठ-दस = आठ या दस
तीस-पैंतीस = तीस या पैंतीस
साठ-सत्तर = साठ या सत्तर
पाँच-सात = पाँच या सात
6. बहुब्रीहि समास Samas
जिस समास में कोई भी पद प्रधान नहीं होता और जो अपने पदों से भिन्न किसी संज्ञा का विशेषण होता है उसे बहुब्रीहि समास Samas कहते हैं।
जैसे- चंद्रमौलि = चद्र है सिर पर जिसके अर्थात शिव
शशिशेखर = शशि (चंद्रमा) है शेखर पर जिसके अर्थात शिव
मन्मथ = मन को मथने वाला अर्थात कामदेव
आजानुबाहु = जिसकी बाहु जानुओं (घुटनों) तक है वह अर्थात राम
कनफटा = कान हैं फटे जिसके – एक नाथ सम्प्रदाय
कपोतग्रीव = कबूतर की तरह ग्रीवा है जिसकी वह
कलानाथ = कलाओं का है नाथ जो अर्थात् चन्द्रमा
चालू पुर्जा = चालू है पुर्जा जो अर्थात चालाक व्यक्ति
चारपाई = चार है पैर पाए जिसके अर्थात पलंग
चक्षुश्रवा = चक्षु (आँख) ही है श्रवा (कान) अर्थात साँप
चतुर्मास = चार मासों का समूह विशेष अर्थात् जैनियों का विशेष महीना
चहुमुखी = चार है मुख जिसके अर्थात् समग्र/संपूर्ण विकास
चौपाई = चार है पैर (पाए) जिसमें अर्थात् पलंग
छत्तीसगढ़ = छत्तीसगढ़ है जिसमें अर्थात् एक राज्य विशेष का
व्याकरण में क्रिया के होने वाले समय को काल कहते हैं।
काल Kal के भेद
प्रकार – काल तीन प्रकार के होते हैं।
1. भूतकाल (Bhootkaal) 2. वर्तमान काल (Vartamaan Kaal) 3. भविष्यत् काल (Bhavishya Kaal)
भूतकाल
वाक्य में प्रयुक्त क्रिया के जिस रूप से बीते समय (भूत) में क्रिया का होना पाया जाता है अर्थात् क्रिया के व्यापार की समाप्ति बतलाने वाले रूप को भूतकाल कहते हैं।
भूतकाल के 6 उपभेद किये जाते हैं –
(i) सामान्यभूत –
जब क्रिया के व्यापार की समाप्ति सामान्य रूप से बीते हुए समय में होती है, किन्तु इससे यह बोध नहीं होता कि क्रिया समाप्त हुए थोड़ी देर हुई है या अधिक वहाँ सामान्य भूत होता है। जैसे-
कुसुम घर गयी।
अविनाश ने गाना गाया।
राम ने पुस्तक पढी।
(ii) आसन्न भूत –
क्रिया के जिस रूप से यह प्रकट होता है कि क्रिया का व्यापार अभी-अभी कुछ समय पूर्व ही समाप्त हुआ है, वहाँ आसन्न भूत होता है। अतः सामान्य भूत के क्रिया रूप के साथ है/हैं के योग से आसन्न भूत का रूप बन जाता है। यथा-
कुसुम घर गयी है।
अविनाश ने गाना गाया है।
(iii) पूर्ण भूत –
क्रिया के जिस रूप से यह प्रकट होता है कि क्रिया का व्यापार बहुत समय पूर्व समाप्त हो गया था। अतः सामान्य भूत क्रिया के साथ था, थी, थे, लगने से काल पूर्ण भूत बन जाता है, किन्तु थी के पूर्व ई ही रहती है ईं नहीं। यथा-
भूपेन्द्र सिरोही गया था।
नीता ने खाना बनाया था।
(iv) अपूर्ण भूत –
क्रिया के जिस रूप से यह ज्ञात हो कि उसका व्यापार भूतकाल में अपूर्ण रहा अर्थात् निरन्तर चल रहा था तथा उसकी समाप्ति का पता नहीं चलता है, वहाँ अपूर्ण भूत होता है। इसमें धातु (क्रिया) के साथ रहा था, रही थी, रहे थे या ता था, ती थी, ते थे, आदि आते हैं।
हेमन्त पुस्तक पढ़ता था।
वर्षा गाना गा रही थी।
(v) संदिग्ध भूत –
क्रिया के जिस भूतकालिक रूप से उसके कार्य व्यापार होने के विषय में संदेह प्रकट हो, उसे संदिग्ध भूत कहते हैं। सामान्य भूत की क्रिया के साथ होगा, होगी, होंगे लगने से संदिग्ध भूत का रूप बन जाता है। जैसे-
राम गया होगा।
सीता खाना बना रही होगी।
(vi) हेतुहेतुमद्भूत –
भूतकालिक क्रिया का वह रूप जिससे भूतकाल में होने वाली क्रिया का होना किसी दूसरी क्रिया के होने पर अवलम्बित हो, वहाँ हेतुहेतुमद् भूत होता है। इस रूप में दो क्रियाओं का होना आवश्यक है तथा क्रिया के साथ ता, ती, ते, ती लगता है। जैसे-
यदि महेन्द्र पढ़ता तो उत्तीर्ण होता।
युद्ध होता तो गोलियाँ चलती।
वर्तमान काल : काल Kal
क्रिया के जिस रूप से वर्तमान समय में क्रिया का होना पाया जाये, उसे वर्तमान काल कहते हैं। वर्तमान काल के 5 भेद माने जाते हैं
(i) सामान्य वर्तमान –
जब क्रिया के व्यापार के सामान्य रूप से वर्तमान समय में होना प्रकट हो, वहाँ सामान्य वर्तमान काल होता है। इसमें धातु (क्रिया) के साथ ता है, ती है, ते हैं आदि आते हैं। जैसे-
अंकित पुस्तक पढ़ता है।
गर्मी गाना गाती है।
(ii) अपूर्ण वर्तमान –
जब क्रिया के व्यापार के पूर्ण होने अर्थात् क्रिया के चलते रहने का बोध होता है, वहाँ अपूर्ण वर्तमान काल होता है। इसमें धातु (क्रिया) के साथ रहा है, रही है, रहे हैं आदि आते हैं। जैसे-
प्रशान्त खेल रहा है।
सरोज गीत गा रही है।
(iii) संदिग्ध वर्तमान :
जब क्रिया के वर्तमान काल में होने पर संदेह हो, वहाँ संदिग्ध वर्तमान काल होता है। इसमें क्रिया के साथ ता, ती, ते के साथ होगा, होगी, होंगे का भी प्रयोग होता है। जैसे-
अभी खेत में काम करता होगा।
राम पत्र लिखता होगा।
(iv) संभाव्य वर्तमान –
जिस क्रिया से वर्तमान काल की अपूर्ण क्रिया की संभावना या आशंका व्यक्त हो, वहाँ संभाव्य वर्तमान काल होता है। जैसे-
शायद आज पिताजी आते हैं।
मुझे डर है कि कहीं कोई हमारी बात सुनता न हो।
(V) आज्ञार्थ वर्तमान –
क्रिया के व्यापार के वर्तमान समय में ही चलाने की आज्ञा का बोध कराने वाला रूप आज्ञार्थ वर्तमान काल कहलाता है। यथा –
राधा, तू नाच।
आप भी पढ़िए।
भविष्यत् काल : काल Kal
क्रिया के जिस रूप से आने वाले समय में (भविष्य में) होना पाया जाता है, उसे भविष्यत काल कहते हैं! भविष्यत् काल के तीन भेद किए जाते हैं
(i) सामान्य भविष्यत् :
क्रिया के जिस रूप से उसके भविष्य में सामान्य रूप में होने का बोध हो, उसे सामान्य भविष्यत् काल कहते हैं। इसमें क्रिया (धातु) के अन्त में एगा, एगी, एंगे आदि लगते हैं। यथा –
लीला नृत्य प्रतियोगिता में भाग लेगी।
(ii) सम्भाव्य भविष्यत् –
क्रिया के जिस रूप से उसके भविष्य में होने की संभावना का पता चले. वहाँ सम्भाव्य भविष्यत् काल होता है। इसमें क्रिया के साथ ए, ऐ, ओ, ऊँ का योग होता है। यथा
कदाचित आज भूपेन्द्र आए।
वे शायद जयपुर जाएँ।
(iii) आज्ञार्थ भविष्यत् –
किसी क्रिया व्यापार के आगामी समय में पूर्ण करने की आज्ञा प्रकट करने वाले रूप को आज्ञार्थ भविष्यत् काल कहते है। इसमें क्रिया के साथ इएगा लगता है। जैसे-
विकारी पद के जिस रूप से किसी की एक से अधिक संख्या का बोध होता है, उसे बहुवचन कहते हैं।
जैसे लड़के, तुम्हारे, काले, जाते हैं।
हिन्दी में निम्न शब्द सदैव बहुवचन में ही प्रयुक्त होते हैं, यथा –
आँसू, होश, दर्शन, हस्ताक्षर, प्राण, भाग्य, दाम, समाचार, बाल, लोग होश, हाल-चाल, आदरणीय व्यक्ति हेतु प्रयुक्त शब्द आप,।
वचन Vachan परिवर्तन parivartan ke niyam
हिन्दी व्याकरण अनुसार एकवचन शब्दों को बहुवचन में परिवर्तित करने हेतु कतिपय नियमों का उपयोग किया जाता है। यथा –
1. शब्दांत ‘आ’ को ‘ए में बदलकर-
कमरा – कमरे
लड़का – लड़के
बस्ता – बस्ते
बेटा – बेटे
पपीता – पपीते
रसगुल्ला – रसगुल्ले
2. शब्दान्त ‘अ’ को ‘एँ’ में बदलकर
पुस्तक – पुस्तकें
दाल – दालें
राह – राहें
दीवार – दीवारें
सड़क – सड़कें
कलम – कलमें
3. शब्दांत में आये ‘आ’ के साथ ‘एँ’ जोड़कर
बाला – बालाएँ
कविता – कविताएँ
कथा – कथाएँ
4. शब्दांत ‘ई’ वाले शब्दों के अन्त में ‘इयाँ’ लगाकर
दवाई – दवाइयाँ
लड़की – लड़कियाँ
साड़ी – साडियाँ
नदी – नदियाँ
स्त्री – स्त्रियाँ
खिड़की – खिड़कियाँ
5. स्त्रीलिंग शब्द के अन्त में आए ‘या’ को ‘याँ’ में बदलकर
चिड़िया – चिड़ियाँ
डिबिया – डिबियाँ
गुड़िया – गुड़ियाँ
6. स्त्रीलिंग शब्द के अन्त में आए ‘उ, ऊ’ के साथ ‘ऐँ’ लगाकर
वधू – वधुएँ
वस्तु – वस्तुएँ
बहू – बहुएँ
7. ‘इ, ई’ स्वरान्त वाले शब्दों के साथ ‘यों’ लगाकर तथा ई की मात्रा को इ में बदलकर
जाति – जातियों
रोटी – रोटियों
अधिकारी – अधिकारियों
लाठी – लाठियों
नदी – नदियों
गाड़ी – गाड़ियों
8. एकवचन शब्द के साथ, जन, गण, वर्ग, वृन्द, हर, मण्डल, परिषद् आदि लगाकर : वचन Vachan
गुरु – गुरुजन
अध्यापक – अध्यापकगण
लेखक – लेखकवृन्द
युवा – युवावर्ग
भक्त – भक्तजन
खेती – खेतिहर
मंत्री – मंत्रिमंडल
9. याकारांत ( ऊनवाचक ) संज्ञाओं के अंत में केवल चन्द्रबिन्दु लगाया जाता है, जैसे-
लुटिया – लुटियाँ
बुढ़िया – बुढियाँ
डिबिया – डिबियाँ
गुड़िया – गुड़ियाँ
खटिया – खटियाँ
विशेष : वचन Vachan
1. सम्बोधन शब्दों में ‘ओं’ न लगा कर ‘ओ’ की मात्रा ही लगानी चाहिए यथा बहनो ! मित्रो! बच्चो ! साथियो! भाइयो!
2. पारिवारिक संबंधवाचक, उपनामवाचक, और प्रतिष्ठा वाचक आकारांत पुल्लिंग शब्दों का रूप दोनों वचनों में एक ही, रहता है; जैसे, काका-काका, आजा-आजा, मामा-मामा, लाला-लाला, इत्यादि, किन्तु भानजा, भतीजा व साला से भानजे, भतीजे व साले शब्द बनते हैं।
3. विभक्ति रहित आकारान्त से भिन्न पुल्लिंग शब्द कभी भी परिवर्तित नहीं होते। जैसे बालक, फूल, अतिथि, हाथी, व्यक्ति, कवि, आदमी, सन्न्यासी, साधु, पशु, जन्तु, डाकू, उल्लू, लड्डू, रेडियो, फोटो, मोर, शेर, पति, साथी, मोती, गुरु, शत्रु, भालू, आलू, चाकू
4. विदेशी शब्दों के हिन्दी में बहुवचन हिन्दी भाषा के व्याकरण के अनुसार बनाए जाने चाहिए। जैसे स्कूल से स्कूलें न कि स्कूल्स, कागज से कागजों न कि कागजात।
5. भगवान के लिए या निकटता सूचित करने के लिए ‘तू’ का प्रयोग किया जाता है। जैसे – हे ईश्वर! तू बड़ा दयालु है।
6. निम्न शब्द सदैव एक वचन में ही प्रयुक्त होते हैं। जैसे- जनता, वर्षा, हवा, आग
7. ईकारांत और ऊकारांत शब्दों को बहुवचन बनाने पर ‘ई’ का ‘इ’ तथा ‘ऊ’ का ‘उ’ हो जाता है। जैसे-
स्त्री – स्त्रियाँ
देवी – देवियाँ
नदी – नदियाँ
दवाई – दवाइयाँ
हिन्दू – हिन्दुओं
लू – लुएँ
8. आदर प्रकट करने के लिए बहुवचन का प्रयोग होता है-
विकारी शब्दों (संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण, क्रिया) में विकार उत्पन्न करने वाले कारकों को विकारक कहते हैं। लिंग, वचन, कारक, काल तथा वाच्य से शब्द के रूप में परिवर्तन होता है। लिंग Ling in Hindi | शब्द रूपांतरण | विकारक | लिंग का अर्थ | लिंग Ling के प्रकार | पुल्लिंग स्त्रीलिंग संज्ञा शब्दों की पहचान
लिंग का अर्थ
व्याकरण के अन्तर्गत लिंग उसे कहते हैं, जिसके द्वारा किसी विकारी शब्द के स्त्री या पुरुष जाति का होने का बोध होता है।लिंग शब्द का अर्थ होता है चिन्ह या पहचान।
लिंग Ling के प्रकार
हिन्दी भाषा में लिंग दो प्रकार के होते हैं –
(i) पुल्लिंग : जिसके द्वारा किसी विकारी शब्द की पुरुष जाति का बोध होता है, उसे पुल्लिंग कहते हैं। जैसे – रमेश, डॉक्टर, मेरा, लाल, आत।
(ii) स्त्रीलिंग : जिसके द्वारा किसी विकारी शब्द की स्त्री जाति का बोध होता है, उसे स्त्रीलिंग कहते हैं। जैसे सीता, अध्यापिका, मेरी, काली, आती।
लिंग की पहचान | लिंग Ling in Hindi
लिंग की पहचान शब्दों के व्यवहार से होती है। कुछ शब्द सदा पुल्लिंग रहते हैं तो कुछ शब्द सदा स्त्रीलिंग। कुछ शब्द परम्परा के कारण पुल्लिग या स्त्री लिंग में प्रयुक्त होते हैं।
विस्मयादिबोधक अव्यय | Vismayadibodhak Avyay | अव्यय किसे कहते हैं | अव्यय के प्रकार | विस्मयादिबोधक अव्यय | परिभाषा एवं प्रकार
प्रयोग के आधार पर हिन्दी में शब्दों के दो भेद किए जाते हैं।
विकारी(Vikari Shabad)
विकारी शब्द वे शब्द होते हैं, जिनका रूप लिंग, वचन, कारक और काल के अनुसार परिवर्तित हो जाता है, उन्हें विकारी शब्द कहते हैं।
विकारी शब्दों में समस्त संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण तथा क्रिया शब्द आते हैं।
अविकारी या अव्यय शब्द (Avikari Shabad)
अविकारी या अव्यय शब्द वे शब्द होते हैं, जिनके रूप में लिंग, वचन, कारक, काल के अनुसार कोई विकार उत्पन्न नहीं होता अर्थात् इन शब्दों का रूप सदैव वही बना रहता है।
ऐसे शब्दों को अविकारी या अव्यय शब्द कहते हैं।
अविकारी शब्दों में क्रियाविशेषण, सम्बन्धबोधक अव्यय, समुच्चय बोधक अव्यय तथा विस्मयादिबोधक अव्यय आदि शब्द आते हैं।
विस्तृत विवरण इस प्रकार है-
विस्मयादिबोधक अव्यय (Vismayadibodhak Avyay)
वे अव्यय शब्द जिनका वाक्य से तो कोई संबंध नहीं रहता है, परन्तु वे वक्ता के हर्ष, शोक, विस्मय, तिरस्कार आदि भावों को सूचित करते हैं, विस्मयादिबोधक अव्यय शब्द कहलाते हैं। जैसे –
वाह ! कितना सुन्दर दृश्य है?
हाय, अब मैं क्या करूं?
छि: छि, तुम इतने गिर जाओगे, इसकी तो मैंने कल्पना भी नहीं की थी।
आहा, हम मैच जीत गये।
जी हाँ, मैं जरूर आऊँगा।
Vismayadibodhak Avyay से प्रकट होने वाले मनोविकारों के आधार पर इनके निम्न सात भेद माने जाते है
समुच्चयबोधक अव्यय शब्द | Samuchaya Bodhak Avyay | समुच्चयबोधक अव्यय के प्रकार | samuchaya bodhak avyay ke bhed | samuchaya bodhak avyay bhed
प्रयोग के आधार पर हिन्दी में शब्दों के दो भेद किए जाते हैं –
विकारी
विकारी शब्द वे शब्द होते हैं, जिनका रूप लिंग, वचन, कारक और काल के अनुसार परिवर्तित हो जाता है, उन्हें विकारी शब्द कहते हैं विकारी शब्दों में समस्त संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण तथा क्रिया शब्द आते हैं।
अविकारी या अव्यय शब्द
अविकारी या अव्यय शब्द वे शब्द होते हैं, जिनके रूप में लिंग, वचन, कारक, काल के अनुसार कोई विकार उत्पन्न नहीं होता अर्थात् इन शब्दों का रूप सदैव वही बना रहता है। ऐसे शब्दों को अविकारी या अव्यय शब्द कहते हैं। अविकारी शब्दों में क्रियाविशेषण, सम्बन्धबोधक अव्यय, समुच्चय बोधक अव्यय तथा विस्मयादिबोधक अव्यय आदि शब्द आते हैं। विस्तृत विवरण इस प्रकार है-
Samuchay Bodhak Avyay
समुच्चयबोधक अव्यय शब्द | Samuchaya Bodhak Avyay
वे अव्यय शब्द जो ( क्रिया की विशेषता न बतलाकर ) एक वाक्य का संबंध दूसरे वाक्य से मिलाता है उसे समुच्चय-बोधक अव्यय कहते हैं, जैसे, और, यदि, तो, क्योकि, इसलिए ।
समुच्चयबोधक अव्यय के प्रकार
समानाधिकरण समुच्चयबोधक अव्यय
जिन अव्यय शब्दों के द्वारा मुख्य वाक्यों को जोड़ा जाता है, वे समानाधिकरण समुच्चयबोधक अव्यय शब्द कहलाते हैं। ये पुनः चार प्रकार के हो जाते हैं।
(क) संयोजक – और, व, एवं, तथा आदि।
(ख) विभाजक – या, वा, अथवा, कि, किंवा, नहीं तो, क्या-क्या, न…..न, कि, चाहे..चाहे, नहीं तो, अपितु आदि।
जिन अव्यय शब्दों के द्वारा एक मुख्य वाक्य में एक या अधिक आश्रित उपवाक्य जोड़े जाते हैं, उन्हें व्यधिकरण समुच्चय बोधक अव्यय शब्द कहते हैं। ये भी पुनः चार प्रकार के हो जाते हैं –
(क) कारणवाचक – क्योंकि, जोकि, चूँकि, इसलिए, इस कारण आदि।
सम्बन्ध सूचक अव्यय Sambandh Suchak Avyay | परिभाषा | भेद | उदाहरण | संबंध सूचक किसे कहते हैं | सम्बन्ध सूचक अव्यय के वाक्य प्रयोग के आधार पर हिन्दी में शब्दों के दो भेद किए जाते हैं।
विकारी (Vikari Shabad)
विकारी शब्द वे शब्द होते हैं, जिनका रूप लिंग, वचन, कारक और काल के अनुसार परिवर्तित हो जाता है, उन्हें विकारी शब्द कहते हैं विकारी शब्दों में समस्त संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण तथा क्रिया शब्द आते हैं।
अविकारी या अव्यय शब्द (Avikari Shabad)
अविकारी या अव्यय शब्द वे शब्द होते हैं, जिनके रूप में लिंग, वचन, कारक, काल के अनुसार कोई विकार उत्पन्न नहीं होता अर्थात् इन शब्दों का रूप सदैव वही बना रहता है। ऐसे शब्दों को अविकारी या अव्यय शब्द कहते हैं। अविकारी शब्दों में क्रियाविशेषण, सम्बन्धबोधक अव्यय, समुच्चय बोधक अव्यय तथा विस्मयादिबोधक अव्यय आदि शब्द आते हैं। विस्तृत विवरण इस प्रकार है-
सम्बन्ध सूचक Sambandh Suchak अव्यय
वे अव्यय शब्द जो किसी संज्ञा शब्द (अथवा संज्ञा के समान उपयोग में आनेवाले शब्द) के आगे आकर उसका संबंध वाक्य के किसी दूसरे शब्द के साथ स्थापित करते हैं उसे संबंध सूचक कहते हैं। जैसे –
पानी के बिना जीवन नहीं है।
धन के बिना किसी का काम नही चलता।
रमेश दूर तक गया।
दिन भर घूमना अच्छा नहीं होता।
इन वाक्य में ‘बिना’, ‘तक’ और ‘भर’ सबंधसूचक हैं।
‘बिना’ पद ‘धन’ संज्ञा का संबंध ‘चलता’ क्रिया से मिलाता है।
‘तक’, ‘रमेश’ का संबंध ‘गया’ से मिलाता है;
‘भाग’, ‘दिन’ का संबंध ‘घूमना’ क्रियार्थक संज्ञा के साथ जोड़ता है।
कतिपय कालवाचक और स्थानवाचक अव्यय क्रियाविशेपण भी होते हैं और संबंधसूचक भी – जब वे स्वतंत्र रूप से क्रिया की विशेषता बताते हैं तब उन्हें क्रियाविशेषण कहते हैं, परंतु जब उनका प्रयोग संज्ञा के साथ होता है तब वे संबंधसूचक कहलाते हैं। जैसे-
शिष्य यहाँ रहता है। (क्रिया विशेषण)
शिष्य गुरु के यहाँ रहता है। (संबंध सूचक)
वह काम पहले करना चाहिए। (क्रिया विशेषण)
यह काम जाने से पहले करना चाहिए। (संबंध सूचक)
सम्बन्ध सूचक अव्यय Sambandh Suchak Avyay के भेद
(1) प्रयोग के आधार पर (2) अर्थ के आधार पर (3) व्युत्पत्ति के आधार पर
(1) प्रयोग के अनुसार सम्बन्ध सूचक अव्यय Sambandh Suchak Avyay
प्रयोग के अनुसार संबंधसूचक दो प्रकार के होते हैं-
(अ) संबद्ध संबंधसूचक- संज्ञा की विभक्तियों के आगे आते हैं, जैसे, धन के बिना, नर की नाई, पूजा से पहले, इत्यादि।
(आ) अनुबद्ध संबंधसूचक- संज्ञा के विकृत रूप के साथ आते हैं, जैसे, किनारे तक, सखियों सहित, कटोरा भर, पुत्रों समेत, लड़के सरिखा, इत्यादि।
(2) अर्थ के अनुसार सम्बन्ध सूचक अव्यय Sambandh Suchak Avyay
[विशेष – ऊपर की सूची में जिन शब्दों को कालवाचक संबंधसूचक लिखा है वे किसी किसी प्रसंग में स्थानवाचक अथवा दिशावाचक भी होते है। इसी प्रकार और भी कई एक संबंध सूचक अर्थ के अनुसार एक से अधिक वर्गों में आ सकते हैं।]
(3) व्युत्पत्ति के अनुसार सम्बन्ध सूचक अव्यय Sambandh Suchak Avyay
व्युत्पत्ति के अनुसार संबंध सूचक दो प्रकार के हैं-
(1) मूल संबंध सूचक – हिंदी में मूल संबंध सूचक बहुत कम हैं, जैसे, बिना, पर्यंत, नाई, पूर्वक, इत्यादि।
(2) यौगिक सबधसूचक – किसी संज्ञा, विशेषण, क्रिया, क्रियाविशेषण आदि से बनते हैं, जैसे –
संज्ञा से – पलटे, वास्ते, और, अपेक्षा, नाम, लेखे, विषय, मारफत, इत्यादि।