नहीं है खबर मुझे

नहीं है खबर मुझे

नहीं है खबर मुझे – अरुण स्वामी द्वारा रचित कविता

मैं किस मुकाम पर हूँ नहीं है खबर मुझे,
मुकद्दर ने मारा कैसा खंजर मुझे?
मंजिल पर आके अपनी अजब हादसा हुआ,
मैं धड़कन को भूल गया और मेरा दिल मुझे!

-अरुण स्वामी

नहीं है खबर मुझे
नहीं है खबर मुझे

दिल कहाँ रखा?????

बेदाग जिन्दगी

भटूरे (Bhature)

विज्ञान तथा प्रकृति (Science and Nature)

कविता क्या है?

अतः हमें आशा है कि आपको यह जानकारी बहुत अच्छी लगी होगी। इस प्रकार जी जानकारी प्राप्त करने के लिए आप https://thehindipage.com पर Visit करते रहें।

हिन्दी साहित्य विभिन्न कालखंडों के नामकरण

हिन्दी साहित्य कालखंड नामकरण

कालखंड नामकरण एवं हिन्दी साहित्य काल विभाजन तथा हिंदी साहित्य में प्रचलित काल विभाजन और नामकरण की संपूर्ण जानकारी | हिन्दी साहित्य काल विभाजन एवं कालखंड नामकरण | काल विभाजन और नामकरण की जानकारी | Hindi Sahitya | Kaalkhand | Kaal Vibhajan | Naamkaran

Hindi Sahitya | Kaalkhand | Kaal Vibhajan | Naamkaran

हिन्दी साहित्य के काल-विभाजन को लेकर विद्वानों में मतभेद है,

लेकिन यह मतभेद अधिक गहरा नहीं है मतभेद केवल हिन्दी साहित्य के आरम्भ को लेकर है।

जिसमें मुख्य रुप से दो वर्ग सामने आते हैं पहला वर्ग वह है जो हिंदी साहित्य का प्रारंभ सातवीं शताब्दी ईस्वी से मानता है

दूसरा वर्ग वह है जो हिंदी साहित्य का प्रारंभ दसवीं शताब्दी ईस्वी से स्वीकार करता है।

सातवीं शताब्दी ईस्वी से दसवीं शताब्दी ईस्वी तक का साहित्य अपभ्रंश भाषा में है और अपभ्रंश से ही हिन्दी भाषा का विकास हुआ है।

इसलिए यदि इस कालखंड के भाषा साहित्य एवं साहित्यिक चेतना को यदि समझ लिया जाए तो हिंदी साहित्य की मूल चेतना को समझने में आसानी रहेगी

हिन्दी भाषा एवं साहित्य की मूल चेतना को जानने के लिए इस कालखण्ड की भाषा के स्वरुप एवं साहित्य-धारा को समझना अति आवश्यक है।

इसीलिए पति पर विद्वानों ने अपनी सरकार को भी हिंदी में शामिल कर लिया है और वे हिंदी साहित्य का प्रारंभ सातवीं शताब्दी ईस्वी से मानते हैं जिस प्रकार हिंदी साहित्य के काल विभाजन में न्यूनाधिक मतभेद है

हिन्दी साहित्य काल विभाजन एवं कालखंड नामकरण | काल विभाजन और नामकरण की जानकारी | Hindi Sahitya | Kaalkhand | Kaal Vibhajan | Naamkaran
हिन्दी साहित्य कालखंड नामकरण

उसी प्रकार इसके नामकरण में भी मतभेद है यह मतभेद मुख्यत: दसवीं शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी तक के

आरम्भिक कालखंड (आदिकाल) और सत्रहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी तक के कालखण्ड (रीतिकाल) के नामकरण को लेकर ही अधिक मतभेद है।
हिंदी साहित्य के विभिन्न काल खंडों का नामकरण विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने तर्कानुसार किया है जो निम्नलिखित प्रकार से है।

(अ) दसवी शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी तक के हिन्दी साहित्य कालखंड नामकरण

 ग्रियर्सन – चारण काल

मिश्रबंधु – प्रारंभिक काल

रामचंद्र शुक्ल – वीरगाथा काल

विश्वनाथ प्रसाद मिश्र – वीर काल

महावीर प्रसाद दिवेदी – बीजवपन काल

हजारी प्रसाद द्विवेदी – आदिकाल

राहुल संकृत्यायन – सिद्ध-सामन्त काल

रामकुमार वर्मा – संधि काल और चारण काल

श्यामसुंदर दास – अपभ्रंस काल/वीरकाल

चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ – अपभ्रंस काल

धीरेंद्र वर्मा – अपभ्रंस काल

हरीश – उत्तर अपभ्रंस काल

बच्चन सिंह – अपभ्रंस काल: जातिय साहित्य का उदय

गणपति चंद्र गुप्त – प्रारंभिक काल/शुन्य काल

पृथ्वीनाथ कमल ‘कुलश्रेष्ठ’ – अंधकार काल

रामशंकर शुक्ल – जयकाव्य काल

रामखिलावन पाण्डेय – संक्रमण काल

हरिश्चंद्र वर्मा – संक्रमण काल

मोहन अवस्थी – आधार काल

शम्भुनाथ सिंह – प्राचीन काल

वासुदेव सिंह – उद्भव काल

रामप्रसाद मिश्र – संक्रांति काल

शैलेष जैदी – आविर्भाव काल

चारण काल-

सर्वप्रथम ग्रियर्सन ने हिन्दी साहित्येतिहास का काल विभाजन प्रस्तुत किया

और हिंदी साहित्येतिहास के आरम्भिक काल का नामकरण ‘चारणकाल’ किया है,

परंतु इस नामकरण के पीछे वह कोई ठोस प्रमाण नही दे पाये।

ग्रियर्सन ने चारण काल का प्रारंभ 643 ईसवी से स्वीकार किया है

जबकि विद्वानों के अनुसार 1000 ईसवी तक चारणों की कोई रचना उपलब्ध नहीं होती है

चारणों की जो रचनाएं उपलब्ध होती है वह 1000 ईसवी के बाद की है।

अतः यह नामकरण उपयुक्त नहीं है।

प्रारम्भिक काल-हिन्दी साहित्य कालखंड नामकरण

मिश्रबन्धुओं ने 643 ईसवी से 1387 ईसवी तक के काल को ‘प्रारम्भिक काल’ नाम से अभिहित किया है।

यह नाम किसी साहित्यिक प्रवृत्ति का द्योतक नही है।

यह एक सामान्य संज्ञा है जो हिन्दी भाषा के प्रारम्भ को बताती है।

अत: यह नाम भी तर्कसंगत नही है।

वीरगाथाकाल : हिन्दी साहित्य कालखंड नामकरण

आ. रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास का काल विभाजन करते हुए संवत् 1050 से 1375 विक्रमी तक के कालखंड को हिंदी साहित्य का पहला कालखंड स्वीकार करते हुए हिंदी साहित्य का प्रारंभ संवत् 1000 विक्रमी में स्वीकार किया है

तथा इस कालखंड को ‘वीरगाथा काल’ नाम दिया है।

अपने मत के समर्थन में उन्होंने कहा है-

“आदिकाल की दीर्घ परम्परा के बीच प्रथम डेढ़-दो सौ वर्षों के भीतर तो रचना की किसी विशेष प्रवृत्ति का निश्चय नहीं हो पाता है – धर्म, नीति, श्रृन्गार, वीर सब प्रकार की रचनाएँ दोहों में मिलती है। इस अनिर्दिष्ट लोक-प्रवृत्ति के उपरान्त जब से मुसलमानों की चढ़ाइयाँ आरंभ होती है तब से हम हिन्दी साहित्य की प्रवृत्ति विशेष रूप में बँधती हुई पाते है। राजाश्रित कवि और चारण जिस प्रकार रीति, श्रृन्गार आदि के फुटकल दोहे राजसभा में सुनाया करते थे, उसी प्रकार अपने आश्रयदाता राजाओं के पराक्रम पूर्ण चरितों या गाथाओं का भी वर्णन किया करते थे। यह प्रबन्ध परम्परा ‘रासो’ के नाम से पाई जाती है, जिसे लक्ष्य करके इस काल को हमने ‘वीरगाथा काल’ कहा है।”

शुक्लजी ने इस युग का नामकरण करने के लिए निम्नलिखित बारह ग्रन्थों को आधार बनाया है-
1. विजयपाल रासो
2. हम्मीर रासो
3. कीर्तिलता
4. कीर्तिपताका
5. खुमान रासो
6. बीसलदेव रासो
7. पृथ्वीराज रासो
8. जयचंद प्रकाश
9. जयमयंक जसचन्द्रिका
10. परमाल रासो
11. खुसरो की पहेलियाँ
12. विद्यापति की पदावली

हिन्दी साहित्य : कालखंड नामकरण

जिन बारह रचनाओं के आधार पर शुक्ल जी ने नामकरण किया है उनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है।

हम्मीर रासो, जयचंद्र प्रकाश और जयमयंक जसचन्द्रिका तो नोटिस मात्र ही है।

खुसरो की पहेलियाँ और विद्यापति की पदावली भी वीरगाथात्मक नही है।

परमाल रासो या आल्हाखंड के मूल का आज कही पता नही लगा है।

बीसलदेव रासो और खुमाण रासो भी नये शोधों के आधार पर सोलहवीं शताब्दी में रचित माने गए हैं इसी प्रकार प्रसिद्ध महाकाव्य पृथ्वीराज रासो को भी अर्द्धप्रामाणिक मान लिया गया है।

इसके अतिरिक्त इस काल में केवल वीर काव्य ही नही बल्कि धार्मिक, श्रृंगारिक और लौकिक साहित्य भी प्रचूर मात्रा में रचा गया।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने उन रचनाओं को अप्रामाणिक सिद्ध करते हुए ‘वीरगाथाकाल’ नामकरण को निरर्थक सिद्ध किया है।

सिद्ध सामंत काल

सामाजिक जीवन पर सिद्धों के तथा राजनीतिक जीवन पर सामंतों के वर्चस्व के कारण राहुल सांकृत्यायन ने इस काल का नामकरण ‘सिद्ध सामन्त काल’ किया है।

इस कालखंड के कवियों ने अपने आश्रयदाता सामंतों को प्रसन्न करने के लिए उनका यशोगान किया है तथा सामाजिक जीवन पर दृष्टि डालें तो समाज सिद्ध मत से प्रभावित है।

इस नामकरण पर विद्वानों का मतैक्य नहीं है।

नामकरण से तत्कालीन राजनीतिक वातावरण का ज्ञान होता है, परंतु किसी साहित्यिक प्रवृत्ति का पता नहीं चलता है।
इसके साथ ही नाथ पंथियों का हठयोगिक साहित्य, खुसरो का लौकिक साहित्य विद्यापति की पदावली तथा अन्य साहित्यिक प्रवृत्तियों का इसमें समावेश नहीं होता है अतः यह नाम भी उपयुक्त नहीं है।

बीजवपन काल

भाषा की प्रारंभिक दृष्टि को देखते हुए आ. महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने इस काल का नामकरण ‘बीजवपन काल’ किया है।

परंतु यह नाम भी उपयुक्त नहीं है।

इस नाम से यह आभास होता है कि उस समय साहित्यिक प्रवृत्तियाँ शैशव में थी,

जबकि ऐसा नही है साहित्य उस युग में भी प्रौढ़ता को प्राप्त या अंत: यह नाम उचित नहीं है।

वीरकाल

आ. रामचन्द्र शुक्ल से प्रभावित होकर आ. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र जी ने इस काल का नाम ‘वीरकाल’ किया है।

वास्तव में मिश्रा जी ने इसमें किसी नवीन तथ्य का उद्घाटन नहीं किया है बल्कि यह नाम आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा सुझाए गए वीरगाथा काल नाम का ही परिवर्तित रूप है, अंत: यह नाम भी समीचीन नही है।

सन्धि एवं चारण काल

डॉ. रामकुमार वर्मा ने हिंदी साहित्य के प्रथम कालखंड को दो खण्डों मे विभाजित कर ‘सन्धिकाल’ एवं ‘चारण काल’ नाम दिया है।

इस नामकरण को दो भागों में बाँटने के पीछ कारण था।

संधि काल दो भाषाओं की संधि का काल था

तथा चारणकाल चारण जाति के कवियों द्वारा राजाओं की यशोगाथा को प्रकट करता है

उसमें तत्काीन राजाओ के शौर्य, वीरता एवं साहस का वर्णन है।

उनके जीवन प्रसंगों को अतिशयोक्तिपूर्ण बनाकर वर्णन करना है।

किसी जाति विशेष के नाम पर साहित्य में उस काल का नामकरण उचित नहीं अत: यह नामकरण भी ठीक नहीं है।

अपभ्रंश काल

चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’, श्यामसुंदर दास, धीरेंद्र वर्मा, हरीश, बच्चन सिंह आदि ने हिन्दी साहित्य के प्रथम काल को अपभ्रंश काल के नाम से सम्बोधित किया है।

उन्होंने बताया कि हिन्दी की प्रारम्भिक स्थिति अपभ्रंश भाषा के साहित्य से शुरू होती है,

इसलिए अपभ्रंश काल कहना उचित है ।

आदिकाल

आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने इस काल के साहित्य को अधिकांशतः संदिग्ध और अप्रामाणिक मानते हुए भी उसमें दो विशेषताओं को रेखांकित किया।

नवीन ताजगी और अपूर्व तेजस्विता।

इन दोनों विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए इस काल का नाम उन्होंने ‘आदिकाल’ रखा।

अपने इस मत को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है कि- “वस्तुत: हिन्दी का आदिकाल शब्द एक प्रकार की भ्रामक धारणा की सृष्टि करता है और श्रोता के चित्त में यह भाव पैदा करता है कि यह काल के आदिम मनोभावापन परम्पराविनिर्मुक्त काव्य रूढ़ियों से अछूते साहित्य का काल है। यह ठीक नहीं है यह काल बहुत अधिक परम्परा प्रेमी, रूढ़िग्रस्त और सचेत कवियों का काल है।”

अतः आदिकाल ना किसी एक परंपरा का सूचक ना होकर परंपरा के विकास का सूचक है तथा अपने अंदर सिद्ध, नाथ, रसों, जैन तथा लौकिक एवं फुटकर साहित्य को भी समाहित कर लेता है। यह नाम भाषा और काव्य रूपों के आदि स्वरूप को भी प्रकट करने वाला है अतः हिंदी साहित्य के प्रथम कालखंड के लिए ‘आदिकाल’ नाम ही सर्वाधिक उपयुक्त एवं सर्वमान्य है

(ब) चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक के कालखंड नामकरण

चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक के कालखण्ड में भक्ति की प्रवृत्ति को देखते हुए आ. रामचन्द्र शुक्ल जी ने सं. 1375 से लेकर 1700 वि. तक के कालखण्ड को पूर्व मध्यकाल की संज्ञा से अभिहित किया है।

आलोच्य युग के साहित्य में भक्ति की मुख्य प्रवृत्ति को देखते हुए आ. शुक्ल ने इस कालावधि का नामकरण ‘भक्तिकाल’ भी किया है।

‘भक्तिकाल’ नाम को परवर्ती सभी विद्वानों ने स्वीकार किया है और आज भी भक्तिकाल’ नामकरण सर्वमान्य है।

(स) सत्रहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी तक के कालखण्ड (रीतिकाल) के नामकरण :-

आलोच्य काल के नामकरण को लेकर भी विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है विभिन्न विद्वानों ने अपने अपने तर्कों के आधार पर उक्त कालखंड के विभिन्न नामकरण किए हैं जो निम्नलिखित प्रकार से हैं-

अलंकृतकाल – मिश्रबन्धु

रीतिकाल – आ. रामचन्द्र शुक्ल

कलाकाल – रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल

श्रृंगार काल – पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र

अलंकृतकाल

इस काल की कविता में अलंकारों की प्रधानता को देखते हुए मिश्र बंधुओं ने इसे अलंकृत काल कहा है।

मिश्रबन्धुओं ने इस युग का नामकरण करते हुए कहा है कि – “रीतिकालीन कवियों” ने जितने आग्रह के साथ रचना शैली को अलंकृत करने का प्रयास किया है. उतना अन्य किसी भी काल के कवियों ने नहीं।

इस प्रवृत्ति के कारण यह अलंकृतकाल है।

इस काल को अलंकृतकाल कहने का दूसरा कारण यह है कि इस काल के कवियों ने अलंकार निरूपक ग्रन्थों के लेखन में विशेष रूचि प्रदर्शित की।

परंतु इस काल को ‘अलंकृतकाल’ नाम देना उचित नहीं है क्योंकि यह कविता केवल अलंकृत ही नहीं है इतर काव्यांगों को भी इसमें यथोचित स्थान प्राप्त रहा है। अलंकरण की प्रवृत्ति इस काल की विशेष प्रवृत्ति नहीं है। यह प्रवृत्ति तो हिन्दी के आदिकाल से लेकर आज तक चली आ रही है। दूसरे यह नामकरण कविता के केवल बहिरंग पक्ष का सूचक है। इससे कविता के अंतरंग पक्ष, भाव एवं रस की अवहेलना होती है। आलोच्य काल के कवियों ने अलंकारों की अपेक्षा रस पर अधिक बल दिया है। इसके अतिरिक्त अलंकृतकाल नाम को स्वीकार कर लेने से इस काल की विशेष प्रवृत्ति श्रृंगार और शास्त्रीयता की पूर्ण उपेक्षा हो जाती है।

कलाकाल

रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल’ ने इस काल में सामाजिक सांस्कृतिक तथा साहित्यिक पक्ष में कला वैशिष्ट्य को ध्यान में रखते हुए आलोच्य काल को ‘कलाकाल’ नाम दिया है।

उनका कहना है कि “मुगल सम्राट शाहजहाँ का सम्पूर्ण शासन काल कला वेष्टित था। इस युग में एक ओर स्थापत्य कला का चरम बिन्दु ताजमहल के रूप में ‘काल के गाल का अश्रू’ बनकर प्रकट हुआ तो दूसरी ओर हिन्दी कविता भी कलात्मकता से संयुक्त हुई। इस काल के कवियों ने विषय की अपेक्षा शैली की ओर अधिक ध्यान दिया। उनकी कविता में चित्रकला का भी योग हुए बिना न रह सका। अत:एवं यह कलाकाल है।”

डॉ रमा शंकर शुक्ल ‘रसाल’ द्वारा सुझाए गए कलाकाल नाम से भी मिश्र बंधुओं द्वारा सुझाए गए अलंकृत काल नाम की तरह ही कविता के बाह्य पक्ष की विशेषता का ही बोध होता है और कविता का आंतरिक पक्ष उपेक्षित रह जाता है तथा इस युग की व्यापक श्रृंगारिक चेतना और शास्त्रीयता की पूर्ण अवहेलना हो जाती है।

श्रृंगारकाल

पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इस काल मे श्रृंगार रस की प्रधानता को ध्यान में रखकर इस काल को को ‘श्रृंगारकाल’ की उपमा दी है।

परंतु यह नाम भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि रीतिकालीन कवियों ने श्रृंगार के अतिरिक्त अन्य रसों की कविता भी लिखी है।

श्रृगारिकता के साथ-साथ आलंकारिकता और शास्त्रीयता इस काल की कविता के विशेष गुण हैं भक्तिपरक, नीतिपरक रचनाएँ भी इस युग में लिखी गई है।

इस युग के कवियों का उद्देश्य तो अपने आश्रयदाताओं को प्रसन्न कर अर्थोपार्जन करना था अत: यह नामकरण उचित नहीं है।

रीतिकाल

मूर्धन्य विद्वान आ. रामचन्द्र शुक्ल जी ने एक परम्परा की प्रवृति के आधार पर इस युग का नामकरण ‘रीतिकाल’ किया है।

उनका मत है कि- “इन रीतिग्रन्थों” के कर्ता भावुक, सहृदय और निपुण कवि थे।

उनका उद्देश्य कविता करना था, न कि काव्यांगो का शास्त्रीय पद्धति पर निरुपण करना।

अत: उनके द्वारा बड़ा भारी कार्य यह हुआ कि रसों (विशेषतः श्रृंगार रस) और अलंकारों के बहुत ही सरस और हृदयग्राही उदाहरण अत्यन्त प्रचूर परिमाण में प्राप्त हुए।”

अलंकृत काल

शुक्लजी के इस नामकरण का आधार इस काल में रीतिग्रन्थों और रीति ग्रन्थकारों की सुदीर्घ परम्परा है।

इस नाम को सभी परवर्ती सभी विद्वानों ने लगभग एकमत से स्वीकार किया है।

‘रीतिकाल’ नाम की सार्थकता को स्पष्ट करते हुए डॉ० भगीरथ मिश्र ने ‘रीतिकाल’ नामकरण का अनुमोदन करते हुए कहा है-

“इस युग के नाम के सम्बन्ध में मतभेद मिलता है।

मिश्रबन्धु इसको ‘अलंकृत काल’ कहते हैं।

आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र इसे श्रृंगार काल’ नाम से अभिहित करते हैं तथा डॉ नगेन्द्र इसे रीतियुग कहने के पक्ष में हैं।

प्रत्येक विद्वान के अपने-अपने तर्क हैं और उस आधार पर इन नामों का औचित्य भी ठहरता है।

अलंकार की प्रधान प्रवृत्ति के कारण इसका अलंकृत काल नाम जहाँ औचित्य रखत है, वहीं श्रृंगारिक रचना की प्रधानता के कारण इसे शृंगार-काल कहा जा सकता है।

 

परन्तु उस युग के समग्र काव्य ध्यानपूर्वक देखने पर हमें लगता है कि न तो अलंकरण ही स्वच्छंद है और न श्रृंगार वर्णन ही।

पर ये दोनों एक ही परिपाटी पर चलते हैं रीति में बँधे हैं।

अलंकार के विपरीत उस युग में निरलंकृत भक्ति व रस काव्य भी कम नहीं है और श्रृंगार के विपरीत बीर, नीति और भक्ति काव्य बहुत प्रचुर मात्रा में मिलता है।

पर यह समग्र काव्य अपनी-अपनी परिपाटी का पालन करते हुए लिखा गया है।

चाहे वह भक्ति, बीर, नीति, शृंगार कोई भी काव्य क्यों न हों, एक रीतिबद्धता इस युग में देखने को मिलती है।

बीर काव्य युद्ध वर्णन की पद्धति को अपनाकर चलता अथवा काव्यशास्त्रीय लक्षणों का आधार ग्रहण किए है।

रीतिकाल

इसी प्रकार निर्गुण भक्ति-काव्य विभिन्न अंगों में विभाजित है।

कृष्ण-भक्ति-काव्य रागों या अष्टायाम-पूजा या लीला-पद्धति में ढलकर आया है,

इतना ही नहीं इस युग के काव्य की प्रमुख विशेषता रीतिबद्धता है

ऐसी दशा में इस युग का नाम रीति-युग ही स्वीकार करना अधिक उपयुक्त होगा।

इस नाम से उस युग के समग्र काव्य का स्वरूप स्पश्ट हो जाता है

और यह रीतिबद्धता की विशेषता चेतन या अचेतन रूप में उस युग की समस्त-काव्य-धाराओं पर लागू होती है।

इसलिए मेरे विचार से रीतियुग नाम देना ही उचित है।

“इस प्रकार ‘रीतिकाल’ नामकरण अधिक युक्तियुक्त, सार्थक एवंम् समीचीन है।

(द) 19वीं शताब्दी से अब तक के कालखंड नामकरण

यद्यपि प्रत्येक काल अपने पूर्व काल से अधिक आधुनिक होता है तथापि गद्य का आविर्भाव ही इस आलोच्य काल की सबसे बड़ी विशेषता है।

संवत् 1900 से आरम्भ हुए आधुनिक काल में गद्य का विकास इस काल की सबसे महत्वपूर्ण घटना और आधुनिकता का सूचक है।

यद्यपि इस काल में कविता के क्षेत्र में भी विविध नवीन प्रवृत्तियों का विकास हुआ है,

किंतु जैसा विकास गद्य के विभिन्न अंगों का हुआ है, वैसा कविता का नहीं हो सका है।

को आ. रामचन्द्र शुक्लजी ने गद्य के पूर्ण विकास एवं प्रधानता को देखते हुए ‘गद्य काल’ नाम दिया है।

आ. हजारीप्रसाद द्विवेदी प्रेस के उद्भव को ही आधुनिकता का वाहक मानते है।

श्यामसुन्दर दास इसे ‘नवीन विकास का युग’ कहते है।

हिन्दी साहित्य : कालखंड नामकरण

‘आधुनिक काल’ को आ. शुक्ल जी ने तीन चरणों में विभक्त किया है और इन्हें प्रथम उत्थान, द्वितीय उत्थान तथा तृतीय उत्थान कहा है।

अधिकांश आधुनिक विद्वानो ने इस काल के प्रमुख साहित्यकारों के अवदान के आधार पर इसके उपभागों के नामकरण ‘भारतेन्दु युग’ अथवा ‘पुनर्जागरण काल’, ‘द्विवेदी युग अथवा ‘जागरण-सुधार काल’ आदि किये हैं।

इसके बाद के कालखण्डों को भी विद्वानों ने ‘छायावादी युग’ तथा ‘छायावादोत्तर युग’ में प्रगति, प्रयोग काल, नवलेखन काल नाम दिये हैं।

आधुनिक काल की प्रगति इतनी विशाल और बहुमुखी है कि उसे किसी विशिष्ट वाद या प्रवृत्ति की संकुचित सीमा में नहीं बाँधा जा सकता।

सर्वमान्य मत के अनुसार आलोच्य काल का नाम आधुनिक काल ही उपयुक्त है।

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दिल कहाँ रखा?

दिल कहाँ रखा?

दिल कहाँ रखा? रचनाकार अरुण स्वामी द्वारा रचित प्रसिद्ध कविता

फुरसत में करेंगे तुझसे हिसाब ऐ जिन्दगी,
अभी तो उलझे हैं खुद को सुलझाने में।
कभी इसका दिल रखा कभी उसका दिल रखा,
इसी कशमकश में भूल गए
खुद का दिल कहाँ रखा?????

दिल कहाँ रखा?
दिल कहाँ रखा?

नहीं है खबर मुझे

दिल कहाँ रखा?????

बेदाग जिन्दगी

भटूरे (Bhature)

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हिन्दी साहित्य काल विभाजन

हिन्दी साहित्य काल विभाजन एवं नामकरण

साहित्येतिहास की आवश्यकता

हिन्दी साहित्य काल विभाजन एवं कालखण्डों के नामकरण तथा हिंदी साहित्य में प्रचलित काल विभाजन और नामकरण की संपूर्ण जानकारी

“प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य-परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ‘साहित्य का इतिहास’ कहलाता है।” (आ.शुक्ल)

हिन्दी साहित्य काल विभाजन
हिन्दी साहित्य काल विभाजन

पूर्व काल में घटित घटनाओं, तथ्यों का विवेचन, विश्लेषण एवं मूल्यांकन इतिहास में किया जाता है, और साहित्य में मानव-मन एवं जातीय जीवन की सुखात्मक दुखात्मक ललित भावनाओं की अभिव्यक्ति इस प्रकार की जाती है कि वे भाव सर्वसामान्य के भाव बन जाते हैं।

इससे स्पष्ट होता है कि, विभिन्न परिस्थितियों अनुसार परिवर्तित होने वाली जनता की सहज चित्तवृत्तियों की अभिव्यक्ति साहित्य में की जाती है जिससे साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता रहता है।

विभिन्न परिस्थितियों के आलोक में साहित्य के इसी परिवर्तनशील प्रवृत्ति और साहित्य में अंतर्भूत भावाभिव्यक्ति को प्रस्तुत करना ही साहित्येतिहास कहलाता है।

हिन्दी साहित्य काल विभाजन

आज साहित्य का अध्ययन एवं विश्लेषण केवल साहित्य और साहित्यकार को केंद्र में रखकर नहीं किया जा सकता बल्कि साहित्य का भावपक्ष, कलापक्ष, युगीन परिवेश, युगीन चेतना, साहित्यकार की प्रतिभा, प्रवृत्ति आदि का भी विवेचन विश्लेषण किया जाना चाहिए।

अतः कहा जा सकता है कि साहित्येतिहास का उद्देश्य ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्में साहित्य को वस्तु, कला पक्ष, भावपक्ष, चेतना तथा लक्ष्य की दृष्टि से स्पष्ट करना है साहित्य का बहुविध विकास, साहित्य में अभिव्यक्त मानव जीवन की जटिलता, ऐतिहासिक तथ्यों की खोज, अनेक सम्यक अनुशीलन के लिए साहित्येतिहास की आवश्यकता होती है।

 

“किसी भाषा में उस साहित्य का इतिहास लिखा जाना उस साहित्य की समृद्धि का परिणाम है। साहित्य के इतिहास का लिखा जाना अपनी साहित्यिक निधि की चिंता करना एवं उन साहित्यिकों के प्रति न्याय एवं कृतज्ञता प्रकट करना है जिन्होंने हमारे जातीय एवं राष्ट्रीय जीवन को प्रभावित किया है साहित्य के इतिहास को वह भित्तिचित्र समझिए जिसमें साहित्यिकों के आकृति-चित्र ही नहीं होते, हृदयचित्र और मस्तिष्क-चित्र भी होते हैं। इसके लिए निपुण चित्रकार की आवश्यकता होती है।” (विश्वंभर मानव)

हिन्दी साहित्य का काल विभाजन

जॉर्ज ग्रियर्सन द्वारा किया गया काल – विभाजन :

चारणकाल (700 इ. से 1300 इ. तक)

19 शती का धार्मिक पुनर्जागरण

जयसी की प्रेम कविता

कृष्ण संप्रदाय

मुगल दरबार

तुलसीदास

प्रेमकाव्य

तुलसीदास के अन्य परवर्ती

18 वीं शताब्दी

कंपनी के शासन में हिंदुस्तान

विक्टोरिया के शासन में हिंदुस्तान

इस काल विभाजन में एकरूपता का अभाव है। यह काल विभाजन कहीं कवियों के नाम पर; कहीं शासकों के नाम पर; कहीं शासन तंत्र के नाम पर किया गया है।

इस काल विभाजन में साहित्यिक प्रवृत्तियों और साहित्यिक चेतना का सर्वथा अभाव है।

अनेकानेक त्रुटियां होने के बाद भी काल विभाजन का प्रथम प्रयास होने के कारण ग्रियर्सन का काल विभाजन सराहनीय एवं उपयोगी तथा परवर्ती साहित्येतिहासकारों के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हुआ है।

मिश्र बंधुओं द्वारा किया गया काल-विभाजन :

मिश्र बंधुओं ने अपने साहित्येतिहास ग्रंथ ‘मिश्र बंधु विनोद’ (1913) में नया काल विभाजन प्रस्तुत किया।

यह काल विभाजन भी सर्वथा दोष मुक्त नहीं है, इस काल विभाजन में वैज्ञानिकता का अभाव है परंतु यह काल विभाजन ग्रियर्सन के काल विभाजन से कहीं अधिक प्रौढ़ और विकसित है-

प्रारंभिक काल (सं. 700 से 1444 विक्रमी तक)

माध्यमिक काल (सं. 1445 से 1680 विक्रमी तक)

अलंकृत काल (सं. 1681 से 1889 विक्रमी तक)

परिवर्तन काल (सं. 1890 से 1925 विक्रमी तक)

वर्तमान काल (सं. 1926 से अब तक)

आ. रामचंद्र शुक्ल द्वारा किया गया काल विभाजन :

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ (1929) में हिंदी साहित्य के इतिहास का नवीन काल विभाजन प्रस्तुत किया, यह काल विभाजन पूर्ववर्ती काल विभाजन से अधिक सरल, सुबोध और श्रेष्ठ है।

आचार्य शुक्ल द्वारा किया गया काल विभाजन वर्तमान समय तक सर्वमान्य है-

आदिकाल (वीरगाथा काल, सं. 1050 से 1375 विक्रमी तक)

पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल, सं. 1375 से 1700 विक्रमी तक)

उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल, सं. 1700 से 1900 विक्रमी तक)

आधुनिक काल (गद्य काल, सं. 1900 से आज तक)

डॉ. रामकुमार वर्मा द्वारा किया गया काल-विभाजन :

डॉ रामकुमार वर्मा ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ में काल विभाजन हेतु आचार्य शुक्ल का अनुसरण करते हुए अपना काल विभाजन प्रस्तुत किया है

कालविभाजन के अंतिम चार खंड तो आ. शुक्ल के समान ही है, लेकिन वीरगाथा काल को चारण काल नाम देकर इसके पूर्व एक संधिकाल और जोडकर हिंदी साहित्य का आरंभ सं. 700 से मानते हुए काल-विभाजन प्रस्तुत किया है।

संधिकाल (सं. 750 ते 1000 वि. तक)

चारण काल (सं. 1000 से 1375 वि. तक)

भक्तिकाल (सं. 1375 से 1700 वि. तक)

रीतिकाल (सं. 1700 से 1900 वि. तक)

आधुनिक काल (सं. 1900 से अबतक)

आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा किया गया काल-विभाजन:

आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आ. शुक्ल जी के काल-विभाजन को ही स्वीकार कर केवल संवत् के स्थान पर ईस्वी सन् का प्रयोग किया है।

द्विवेदीजी ने पूरी शताब्दी को काल विभाजन का आधार बनाकर वीरगाथा की अपेक्षा आदिकाल नाम दिया है।

आदिकाल (सन् 1000 ई. से 1400 ई. तक)

पूर्व मध्यकाल (सन् 1400 ई. से 1700 ई. तक)

उत्तर मध्यकाल (सन् 1700 ई. से 1900 ई. तक)

आधुनिक काल (सन् 1900 ई. से अब तक)

बाबू श्यामसुन्दर दास द्वारा किया गया काल-विभाजन:

बाबू श्यामसुन्दर दास द्वारा किया गया काल-विभाजन आ. शुक्ल के काल-विभाजन से साम्य रखता है।

दोनों के काल विभाजन में कोई अधिक भिन्नता नहीं है का काल-विभाजन इस प्रकार है-

आदिकाल (वीरगाथा का युग संवत् 1000 से संवत् 1400 तक)

पूर्व मध्य युग (भक्ति काल युग, संवत् 1400 से संवत् 1700 तक)

उत्तर मध्ययुग (रीति ग्रन्थों का युग, संवत् 1700 से, संवत् 1900 तक)

आधुनिक युग (नवीन विकास का युग, संवत् 1900 से अब तक)

डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त द्वारा किया गया काल-विभाजन:

डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने अपने ग्रन्थ ‘हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास’ में शुक्ल जी के काल विभाजन का ही समर्थन किया है। उनका काल-विभाजन इस प्रकार है-

प्रारम्भिक काल (1184 – 1350 ई.)

पूर्व मध्यकाल (1350 – 1600 ई.)

उत्तर मध्यकाल (1600 – 1857 ई.)

धुनिक काल (1857 ई. अब तक)

डॉ. नगेंद्र द्वारा किया गया काल-विभाजन :

आदिकाल (7 वी सदी के मध्य से 14 वीं शती के मध्यतक)

भक्तिकाल (14 वीं सदी के मध्य से 17 वीं सदी के मध्यतक)

रीतिकाल (17 वीं सदी के मध्य से 19 वीं शती के मध्यतक)

आधुनिक काल (19वीं सदी के मध्य से अब तक)

आधुनिक काल का उप विभाजन

(अ) पुनर्जागरण काल (भारतेन्दु काल) 1877 – 1900 ई.

(ब) जागरण-सुधार काल (द्विवेदी काल) 1900 – 1918 ई.

(स) छायावाद काल 1918 – 1938 ई.

(द) छायावादोत्तर काल –

प्रगति-प्रयोग काल- 1938 – 1953 ई.

नवलेखन काल 1953 ई. से अब तक।

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भटूरे (Bhature)

भटूरे

‘कोरोना’ का प्रकोप चल रहा है। पूरे देश में लाॅकडाउन का चौथा चरण शुरू हो गया है। आज धर्मपत्नी ने ‘टिक-टाॅक’ पर रेसिपी देखकर मुझसे कहा, ‘‘आज भटूरे बनाकर खिलाऊँगी।’’ उसकी यह बात सुनकर मेरे भी मुँह में पानी आ गया और मैंने भी आवेग में आकर कहा, ‘‘मैं भी आज इस रेसिपी बनाने में तुम्हारा हाथ बंटाता हूँ।’’

अब हमने भटूरे बनाने का कार्यक्रम का श्रीगणेश किया। धर्मपत्नी ने मैदा गूंथकर तेल गर्म किया। वह चकला-बेलन पर भटूरे बेलकर कड़ाही में भरे गर्म तेल में डालने लगी और मैंने तलने का काम शुरू किया।

अब बनने लगे तरह-तरह के भटूरे। कोई भटूरा तो फूलकर इतना गोल हो गया कि बाकी भटूरों से हलग हस्ती बनाकर बैठा है। कोई भटूरा इतना पिचक गया कि उसे कितना ही फुलाने का प्रयत्न करें, फूलना ही नहीं चाहता, शायद इस मोह-माया के संसार से विरक्त हो गया है।

कोई भटूरा तला नहीं है कच्चा रह गया है, यूँ लग रहा है दुनियादारी में इसकी पार कैसे पड़ेगी? कोई भटूरा इतना जल गया है कि स्वाद में कड़वा हो गया है, जो भी खाता है बाहर थूक देता है। कोई भटूरा एकदम छोटा रह गया है, अब बड़े-बड़े भटूरों के बीच असहज अनुभव कर रहा है। कोई भटूरा इतना गर्म है कि किसी को छूने भी नहीं दे रहा है। कोई बेचारा इतना ठण्डा है कि खाने में स्वाद ही नहीं आ रहा।

कोई भटूरा इतना कड़क हो गया है कि आम इंसान के बस की बात नहीं कि उसका एक कौर भी तोड़कर खाले। कोई इतना नरम कि हर कोई उसे तोड़कर खा ले।

खैर, इन तरह-तरह के भटूरों को देखकर मैं आजकल के लोगों के बारे में सोच रहा था कि इतने में धर्मपत्नी ने कहा, ‘‘भटूरे ठण्डे हो जाएंगे, अभी खा लो, नहीं तो स्वादिष्ट नहीं रहेंगे।’’

मैंने आनन्दपूर्वक छोले-भटूरे खाये। लाॅकडाउन में घर के अंदर बना होटल जैसा खाना खाकर मन तृप्त हो गया और मैंने छोले-भटूरों के लिए धर्मपत्नी को धन्यवाद दिया। धर्मपत्नी भी प्रशंसा पाकर खुश हो गई।

राज मीत ‘इन्सां’

भटूरे (Bhature)

विज्ञान तथा प्रकृति (Science and Nature)

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विज्ञान तथा प्रकृति (Science and Nature)

विज्ञान तथा प्रकृति (Science and Nature)

विज्ञान तथा प्रकृति (Science and Nature) भौतिक विज्ञान के व्याख्याता राजमीत ‘इंसां’ द्वारा रचित प्रसिद्ध रचनाएं।

प्रकृति एक ऐसा शब्द जो मानव जीवन का आधार है, मानव जीव का पूरक है, मानव जीवन की कल्पना भी प्रकृति के बिना असंभव है। इन सब बातों को समेकित रूप में कहा जा सकता है कि मानव भी प्रकृति का ही एक अंश है या यूं कहें कि मानव भी प्रकृति ही है। अब बर्फ को भला पानी से अलग कैसे कर सकते हैं? पानी से ही बर्फ का अस्तित्व है या यूं कहें कि बर्फ भी असल में पानी ही है।

प्रकृति की परिभाषा क्या है?

अब बात आती है कि प्रकृति की परिभाषा क्या है? प्रकृति को यदि हम निहारने बैठें तो किसी भी स्थूल या सूक्ष्म को प्रकृति से अलग नहीं किया जा सकता। भले बात करें वायु की, भले जल की, भले प्रकाश, अन्न, मिट्टी की, भले पक्षियों, जीव-जंतुओं की, भले कीड़े-मकौड़ों की, भले पहाड़ों, नदियों, चट्टानों की, भले ग्रह-नक्षत्र, सूर्य, पृथ्वी, चाँद, तारों की, भले अणु-परमाणु की, भले किसी बैक्टीरिया, वायरस, जीवाणु की, ये सब प्रकृति के ही अंश है।

विज्ञान तथा प्रकृति Science and Nature
विज्ञान तथा प्रकृति Science and Nature

मेरे मतानुसार ‘‘इस ब्रह्माण्ड में हमारे चारों ओर जो भी हमें देख, सुन या महसूस कर सकते हैं तथा जो भी हम देख, सुन या महसूस नहीं भी कर सकते वह सब प्रकृति है, और हम स्वयं भी प्रकृति ही हैं।’’

अब सवाल आता है कि यह प्रकृति कहाँ से आयी, किसने बनायी, तो इसका जवाब आज तक विज्ञान को तो मिला नहीं है, परंतु हमारे प्राचीन धर्म ग्रंथों, ऋषि-मुनियों ने इस प्रकृति की रचना करने वाले को परमात्मा, ईश्वर, गाॅड, खुदा, रब्ब, अदृश्य शक्ति, प्रकाश पुंज इत्यादि नामों से संबोधित किया है।

विज्ञान तथा प्रकृति Science and Nature : विज्ञान का अर्थ या परिभाषा

अब बात आती है मानव और प्रकृति के संबंध की। जैसा कि बताया जा चुका है कि मानव प्रकृति पर पूरी तरह निर्भर है। मानव की एक और बड़ी विशेषता है कि वह हमेशा अपने आसपास की चीजों, वातावरण का निरीक्षण जरूर करता है और फिर उसका अध्ययन कर उससे फायदा लेने की कोशिश करता है। मानव की इसी जिजीविषा ने ‘विज्ञान’ को जन्म दिया है। विज्ञान की एक सर्वसामान्य सी परिभाषा जो प्रचलित है, और वह सही भी है कि ‘‘प्रकृति का क्रमबद्ध, तार्किक और प्रयोगों से प्रमाणित अध्ययन ही विज्ञान है।’’

आज हम विज्ञान की बात करें तो विज्ञान का आधार अध्ययन है। मनुष्य की प्रत्येक गतिविधि जो उसके जीवन जीने को सरलता प्रदान करती है तथा आवश्यक है, विज्ञान है। एक मनुष्य सब कुछ होते हुए भी नंगे पाँव सड़क पर पैदल चल रहा है तथा दूसरे ने चप्पल पहन रखी है तो दूसरा व्यक्ति विज्ञान की समझ रखने वाला कहा जाएगा।

विज्ञान तथा प्रकृति Science and Nature :  लाभ या नुकसान

वर्तमान में विज्ञान के जितने भी आविष्कारों पर नजर दौड़ायें तो सबका आधार प्रकृति ही है, चाहे वह छोटा आविष्कार हो या बड़ा। मानव ने प्रकृति को ही समझा, प्रकृति से ही संसाधन जुटाए तथा प्रकृति के इसी अध्ययन से आविष्कार कर डाले। अब यह आविष्कार मानव को लाभ पहुंचा रहें हैं या नुकसान, यह बात हम बाद में करेंगे।

आज भले हम सुई को देखें या पानी के जहाज को, घर में लगे पंखे को या एसी को, या सड़क पर दौड़ती कार को, मोबाइल को, एक्स-रे मशीन को देखें या ओवर हैड प्रोजेक्टर को, चन्द्रयान को देखें या सोलर ऊर्जा से चलने वाले उपकरणों को, सब प्रकृति का ही अध्ययन है और प्रकृति से ही बने हैं।

विज्ञान तथा प्रकृति Science and Nature : विकास या विनाश

भौतिकी, रसायन, खगोलिकी, जीव विज्ञान, भूगोल आदि विज्ञान की यह सब शाखाएं प्रकृति के ही अलग-अलग रूपों का अध्ययन है। एक तरफ विज्ञान के ये आविष्कार मानव जाति को एक नया आयाम या सुविधाएं प्रदान कर रहें हैं तो दूसरी ओर विनाश का भी कारण बन रहे हैं। आविष्कार तो आविष्कार है, अब यह हमारे लिए लाभप्रद होगा या हानिकारक यह निर्भर करता है उस आविष्कारक और उसका उपयोग करने वाले मानव की प्रकृति पर। बस यहाँ भी बात प्रकृति की ही आ जाती है। नाभिकीय ऊर्जा से भले बिजली उत्पादन कर देश का विकास कर लो या फिर परमाणु बम बनाकर सृष्टि का विनाश, यह निर्भर करता है मानव प्रकृति पर।

विज्ञान ने मनुष्य जाति को बहुत कुछ दिया है और दे रही है। बेहतर हो, हम विज्ञान का उपयोग मानव जाति के कल्याण के लिए करें। विज्ञान के आविष्कारों से हम उस प्रकृति को और बेहतर बनायें जिस प्रकृति से यह विज्ञान आया है और जो प्रकृति हमारा आधार है। यह सब तभी संभव है जब हम सबकी प्रकृति सकारात्मक रहे।

राजेन्द्र सिंह,
व्याख्याता (भौतिक विज्ञान)

विज्ञान तथा प्रकृति Science and Nature

मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem

मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem

मुस्लिम कवियों में कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem में आसक्त रसखान, रहीम, ताज बीवी, बेगम शीरी, शेख आलम, मौलाना आजाद अजीमाबादी, हजरत नफीस, मिया वाहिद अली, अहमद खां राणा, रशीद, मिया नजीर एवं जफर अली आदि हैं। आज हम जानेंगे मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम के बारे में।

कृष्ण के उदार, चंचल, माखनचोर, छलिया रूप का वर्णन अनगिनत कवियों ने किया है मध्यकालीन सगुण भक्ति के आराध्य देवताओं में भगवान श्री कृष्ण का स्थान सर्वोपरि है।

कन्हैया भारतीय पुराण और इतिहास दोनों में सर्वाधिक वर्णित भी हुए है जो विद्वान महाभारत को इतिहास की घटना मानते है, वे भारतीय इतिहास का सर्वाधिक प्रभावशाली व्यक्ति कृष्ण को ही ठहराते है।(1)

कान्हा के इसी रसिया, छलिया, प्रेमी तथा प्रभावशाली व्यक्तित्व ने ना केवल हिन्दु जाति को अपने मोहपाश में बंद किया वरन् मुस्लिम कवियों ने भी उनकी ‘लाम’ पर मुग्ध हो कर इस्लाम खोया है।

माखनचोर पर अपना सब कुछ वारने वाले ऐसे एक नहीं अनेक कवि हुए है।

मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम
मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम

कृष्ण के रूप सौन्दर्य का जादू केवल राधा रानी या गोपियों के सिर चढ़ कर बोला हो ऐसा नहीं है।

रूप सौन्दर्य और प्रेम पाश तो वो मय है जिसने मुस्लिम देवियों को भी प्रेम रस से सराबोर करके मदमस्त कर दिया है।

कृष्ण की ‘लाम’(2) पर अनेक कवियों ने अपने हृदय हारे है, तो अनेक कवियों ने अपना तन-मन दोनों न्यौछावर किया है।

‘लाम’ ने उनके अनुपम सौन्दर्य में चार चाँद लगाये है तो उनकी इस ‘लाम’ ने मुसलमान कवियों का इस्लाम ही छीन लिया है भूपाल की बेगम शीरी जिन्हें कृष्ण की इस ‘लाम’ ने काफिर बना दिया।

मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem : काफिर बनने की कहानी सुनते है उन्हीं की जुबानी

‘‘काफिर किया मुझको तिरी इस जुल्फ ने काफिर
इस ‘लाम’ ने खोया तिरे, इस्लाम हमारा’’(3)

कृष्ण का रूप माधुर्य शीरी को ऐसा रास आया की वो उसके लिए काफिर हो गई।

ऐसी ही कृष्ण के प्रेम में पगी एक कवयित्री है ताज बेगम

ताज बेगम के बारे में परस्पर अलग-अलग मत प्राप्त होते है आपके 1595(4) में वर्तमान होने का अनुमान है।

इनकी कविताओं में पंजाबी पुट तथा पंजाबी शब्दों की बाहुल्यता को देखते हुए मिश्रबन्धु उन्हें पंजाब अथवा आसपास की स्वीकृत करते हैं।

मिश्र बंधु विनोद में ताज के कई पद भी संकलित है।

एक जनश्रुति के अनुसार ताज दिल्ली की रहने वाली मुगल शहजादी थी।(5)

स्वामी पारसनाथ सरस्वती के आलेख के अनुसार ताज का पूरा नाम ‘ताज बीवी’ था और वे बादशाह शाहजहां की अत्यंत प्रिय बेगम थी लेकिन जितना प्रेम शाहजहाँ ताज से करते थे।

उससे कहीं ज्यादा प्रेम ताज से करती थी उन्होंने लिखा है-

सुनो दिजानी मांडे दिल की कहानी तुम
दस्त ही बिकानी बदनामी भी सहूँगी मैं

देव पूजा ठानी हौ निवाज हूँ भूलानी, तजे
कलमा कुरान सारे गुननि गहूँगी मै।

सांवरा सलोना सिरताज सिर कुल्हे दिये
तेरे नेह दाग में निदाघहै दहूँगी मै

नंद के फरजंद! कुरबान ‘ताज’ सूरत पै
हौ तो तुरकानी हिन्दुआनी है रहूँगी मै(6)

स्वामी पारसनाथ सरस्वती के ‘कल्याण’ में प्रकाशित आलेख में उक्त पद पंजाबी बाहुल्य शब्दावली युक्त प्राप्त होता है।

ताज

श्री बलदेव प्रसाद अग्रवाल के अनुसार ‘ताज’ करौली निवासी थी।

श्री अग्रवाल के अनुसार ताज नहा धोकर मंदिर में भगवान के नित्य दर्शन के पश्चात ही भोजन ग्रहण करती थी।

एक दिन वैष्णवों ने उन्हें मुसलमान होने के कारण विधर्मी मान, मंदिर में दर्शन करने से रोक दिया इससे ताज उस दिन निराहार रह मंदिर के आंगन में ही बैठी रही और कृष्ण के नाम का जाप करती रही।

जब रात हो गई तब ठाकुर जी स्वयं मनुष्य के रूप में, भोजन का थाल लेकर पधारे और कहने लगे तुझे आज थोड़ा सा भी प्रसाद नहीं मिला, ले अब खा।

कल प्रातः काल जब वैष्णव आवें तो उनसे कहना कि तुम लोगों ने मुझे कल ठाकुर जी के दर्शन और प्रसाद का सौभाग्य नहीं दिया।

इससे रात को ठाकुर जी स्वयं मुझे प्रसाद दे गये है और तुम लोगों के लिए संदेश भी दे गये हैं कि ताज को परम वैष्णव समझो।

इसके दर्शन और प्रसाद ग्रहण करने में रुकावट मत डालो।

प्रातःकाल जब वैष्णव आये तब ताज ने सारी घटना कह सुनाई ताज के सामने भोजन का थाल देखकर अत्यन्त चकित हुए वे सभी वैष्णव ताज के पैरों पर गिरकर क्षमा प्रार्थना करने लगे।

तब से ताज मंदिर में पहले दर्शन करती तथा सारे वैष्णव उसके बाद में दर्शन करते।(7)

‘दस्त की बिकानी, बदनामी भी सहूंगी मैं’

‘दस्त की बिकानी, बदनामी भी सहूंगी मैं’ कि घोषणा करने वाली ताज की तुलना मीरा से सहज ही की जा सकती है।

मीरा ने भी ‘लोक-लाज खोई’ कह कर तात्कालिक समाज की मानसिकता को उजागर किया है।

मीरां और ताज दोनों की कन्हैया की प्रेम दीवानी है।

एक ने लोक लाज खोई है तो दुसरी बदनामी सहने को तैयार है परन्तु मीरा को जहां अपनो से प्रताड़ित होना पड़ा है वहीं ताज को पीड़ा देने वाला सारा समाज है।

इसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों शामिल है।

मीरा की पीड़ा शायद इस कारण अधिक है क्योंकि उनको पीड़ा पहुँचाने का काम करने वाले उनके परिवार के ही लोग है।

इसलिए ये कष्ट उनके लिए भारी मानसिक आघात लिये हुए है।

मीरां को केवल परिजनों से ही संघर्ष करना पड़ा परन्तु ताज का संघर्ष मीरां से व्यापक है।

क्योंकि उसे तो घर और बाहर दोनों से संघर्ष करना पड़ा है।

तात्कालिक समाज में जब हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य अपनी चरम सीमा पर था उस समय इस तरह से किसी अन्य धर्म की उपासना करना वास्तव में अंगारों पर चलना था।

परिवार में परिजनों का विरोध और ताने सहना बाहर समाज के कटाक्ष और उपेक्षा का शिकार होना एक स्त्री के लिए कितना भयावह हो सकता है।

उसे तो केवल उसे भोगने वाली वो औरत ही बता सकती है।

कन्हैया के छैल छबीले रूप

ताज के पदों को पढ़ कहीं भी ऐसा आभाष नहीं होता कि उस सामाजिक, धार्मिक, मानसिक प्रताड़ता का रजकणांश भी विपरीत प्रभाव हुआ है।

हाँ ये जरुर कहा जा सकता है कि इस प्रताड़ना से उनका कान्हा के प्रति अनुराग और बढ़ता गया तथा काव्य में निखार आता गया है।

कन्हैया के छैल छबीले रूप पर अपना सब कुछ कुरबान करने वाली ताज उन्हें ही अपना साहब मानती है-
छैल जो छबीला सब रंग में रंगीला बड़ा
चित का अड़ीला सब देवताओं में न्यारा है।
माल गले सोहै, नाक मोती सेत सो है, कान
कुण्डल मनमोहे, मुकुट सीस धारा है।।
दुष्ट जन मारे, संत जन रखवारे ‘ताज’
चित हितवारे प्रेम प्रीतिकार वारा है।
नंन्दजू को प्यारा, जिन कंस को पछारा
वृन्दावन वारा कृष्ण साहेब हमारा है।।

 

ताज के हृदय मे अपने बांके छैल छबीले कृष्ण कन्हैया के लिए कितनी आस्था है।

ये उनके पदो से सहज ही सामने आत है।

अपने प्राण प्यारे नंद दुलारे कृष्ण कन्हैया के प्रेम में बुत परस्ती भी करने को तैयार है।

चित का अड़ीला उनका गोपाल सब देवताओं में न्यारा है जिसके लिए ये मुगलानी हिन्दुआनी हो गई थी।

‘बदनामी भी सहूंगी मैं’ कि घोषणा करने वाली ताज ने वास्तव में कितने कष्ट सहे होंगे इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता है।

मुस्लिम कवियों के राधा-कृष्ण, सीता राम आदि के प्रति प्रेम से उन्हें किन कष्टों को सहन करना पड़ा होता।

इस बात का अनुमान आधुनिक रसखान (जिनका वास्तविक नाम ‘रशीद’ लुप्त हो गया जिनके नाम पर रायबरेली में मार्ग है) के कवि एवं लेखक पुत्र इफ्तिखार अहमद खां ‘राना’ से लेखक आलोचक डाॅ. रामप्रसाद मिश्र की बातचीत से लगाया जा सकता है।

‘राजा’ के अनुसार- उन्हें राम तुलसी प्रेमी होने के कारण कठिनाई होती है। फिर भी रहीम, रसखान, ताज बेगम, नजीर अकबराबादी इत्यादी की परम्परा जीवंत है।(8)

राधा के वल्लभ

जगत के खेवनहार श्रीहरि ने पापी से पापी पर भी अपनी कृपा की है और उन्हें इस संसार सागर से उबारा राधा के वल्लभ ताज के भी वल्लभ प्राण प्यारे प्रियतम हो गये है जो उनको इस संसार की मझधार से पार लगाने वाले है-

ध्रुव से, प्रहलाद, गज, ग्राह से अहिल्या देखि,
सौरी और गीध थौ विभीषन जिन तारे हैं।

पापी अजामील, सूर तुलसी रैदास कहूँ,
नानक, मलूक, ‘ताज’ हरिही के प्यारे हैं।

धनी, नामदेव, दादु सदना कसाई जानि,
गनिका, कबीर, मीरां सेन उर धारे हैं।

जगत की जीवन जहान बीच नाम सुन्यौ,
राधा के वल्लभ, कृष्ण, वल्लभ हमारे हैं।(9)

शेख की कविताओं में भावों की उत्कृष्टता

ताज कृष्ण प्रेम में काफिर होने वाली पहली या आखिरी मुस्लिम औरत नहीं इनके अलावा शेख नामक रंगरेजिन भी है जो कृष्ण की भक्त थी।

ये आलम की पत्नी थी और कपड़े रंगने का काम किया करती थी।

आलम पहले ब्रह्मण थे परन्तु बाद में शेख से प्रेम होने के कारण मुस्लिम हो गये।

हुआ यूं की एक बार आलम ने अपनी पगड़ी शेख को रंगने के लिए दी तो उस पगड़ी के एक छोर मंे एक कागज का टुकड़ा बंधा हुआ था।

जिसमें दोहे का एक चरण लिखा हुआ था शेख ने उसी कागज पर दोहे को पूरा कर दिया और कागज वैसी ही वापिस बांध दिया और रंगी हुई पगड़ी आलम को दे दी।

अपने दोहे की पूर्ति देखकर आलम रंगरेजिन शेख की कला पर मोहित हो गया और दोनों में प्रेम हो गया फलस्वरूप आलम ने इस्लाम कबूल कर लिया शेख और आलम दोनों मिलकर कविताएं करते थे।

 

शेख की कविताओं में भावों की उत्कृष्टता विद्यमान है।

राधारानी जो सौन्दर्य वर्णन शेख ने किया है, उस उत्कृष्टता तक पहुंचने में बड़े बड़े कवि पीछे छूट गये है।

शेख उस अलौकिक अनुपम और शब्दातीत सौन्दर्य का जो शब्द चित्र रचा है वह कदाचित किसी साधारण कवि के वश कि बात नहीं है-

सनिचित चाहे जाकी किंकिनी की झंकार
करत कलासी सोई गति जु विदेह की

शेख भनि आजू है सुफेरि नही काल्ह जैसी
निकसी है राधे की निकाई निधि नेह की

फूल की सी आभा सब सोभा ले सकेलि धरी
फलि ऐहै लाल भूलि जैसे सुधि गेह की

कोटि कवि पचै तऊ बारनिन पावै कवि
बेसरि उतारे छवि बेसरि बेह की(10)

श्रीहरि से सहायता की गुहार

ताज कि तरह ही शेख को भी अपने बंशी बजैया, रास रचैया पार लगैया-कृष्ण कन्हैया पर अटूट विश्वास है कवयित्री श्रीहरि से सहायता की गुहार करती है-

‘सीता सत रखवारे तारा हूँ के गुनतारे
तेरे हित गौतम के तिरियाऊ तरी है

हौ हूं दीनानाथ हौ अनाथ पति साथ बिनु
सुनत अनाधिनि के नाथ सुधि करी है

डोले सुर आसन दुसासन की ओर देखि।
अंचल के ऐंचत उधारी और धरी है।

एक तै अनेक अंग धाई संत सारी संग
तरल तरंग भरी गंग सी है ढरी है।’(11)

सनातन धर्म के प्रति समर्पण : मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem

इस्लाम में अवतारवाद में विश्वास नहीं किया जाता है।

लेकिन उक्त पद में शेख ने कृष्ण को अनेक रूप स्वीकार किये है।

यहां ईश्वर के अनेक रूपों को स्वीकार करने यह सिद्ध हो जाता है कि शेख भले ही मुस्लिम हो लेकिन पूरी तरह से अपने आप को भारतीय मान्यताओं तथा सनातन धर्म के प्रति समर्पित कर लिया है।

चूंकि आलम और शेख रीतिकालीन कवि है इसलिए उनके काव्य पर रीतिकालीन छाप स्पष्ट देखी जा सकती है शेख के मुक्तकों में राधाकृष्ण के प्रेम और विरह के चित्र अधिक प्राप्त होते है।

इन्होंने स्थान-स्थान पर राधा के सौन्दर्य, उनके नाज-नखरे तथा वियोग की स्थिति को चित्रित किया है।

शेख का वर्णन बड़ा ही उम्दा किस्म का है।

 

काव्य के स्थान के अनुसार देखे तो निश्चित रूप से उन्हें उच्च स्थान दिया जा सकता है।

जो कदाचित् कुछ भक्तिकालीन कवियों को भी दुर्लभ है।

ऋतु वर्णन में भी शेख का काव्य उच्च कोटी का है-

‘‘घोर घटा उमड़ी चहूं ओर ते ऐसे में मान न की जे अजानी
तू तो विलम्बति है बिन काज बड़े बूंदन आवत पानी

सेख कहै उठि मोहन पै चलि को सब रात कहोगी कहानी
देखुरी ये ललिता सुलता अब तेऊ तमालन सो लपटानी’’(12)

उच्च कोटी के कवि शेख

शेख की तरह आलम भी उच्च कोटी के कवि थे कविताओं में प्रायः कृष्ण के हर रूप का वर्णन बड़ा ही हृदयहारी बन पड़ा है।

कृष्ण को साधने वाले अनेक कवियों में मौलाना आजाद आजीमाबादी का नाम बड़े आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है।

कृष्ण भक्ति से सराबोर इस कवि को कृष्ण से आगे कृष्ण से अलग कुछ सूझता ही नहीं।

इन्हें कृष्ण की बांसुरी में वो आग नजर आती है जो सारे जहां को रोशन किये हुए है।

ये प्रेम की ठण्डी आग है जिसमें कवि भी जल रहा है।

कन्हैया तो उनके हृदय में बसा हुआ है उसे खोजने के लिए काशी मथुरा जाने की दरकार नहीं है-

‘बजाने वाले के है करिश्में
जो आप है महज बेखुदी में

न राग में है न रंग में है
जो आग है उसकी बांसुरी में है

हुआ न गाफिल रही तलासी
गया न मथुरा गया न काशी

मै क्यों कही की खाक उड़ता
मेरा कन्हैया तो है मुझी में’(13)

रसखान : मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem

रसखान वास्तव में रस की खान है।

कृष्ण की जैसी भक्ति और काव्य रचना रसखान ने की है वह ऊँचाई विरले कवि ही प्राप्त कर सके हैं।

‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ के अनुसार रसखान दिल्ली में निवास करते थे।

उनकी प्रीति एक साहुकार के पुत्र से थी।

उनकी यह आसक्ति वैष्णव भक्तों के प्रोत्साहन से कृष्ण भक्ति में परिवर्तित हो गई।

वैष्णवों द्वारा प्रदत कृष्ण चित्र लिये ये दिल्ली से ब्रज प्रदेश पहुंचे।

कृष्ण दर्शन की लालसा में अनेक मंदिरों की खाक छानते रहे।

अंततः गोविन्द कुण्ड में श्री नाथ जी के मंदिर में भक्त वत्सल भगवान कृष्ण ने इन्हें दर्शन दिये।

तदुपरान्त स्वामी विट्ठलनाथ जी ने अपने मंदिर में रसखान को बुलाया और वहीं वे कृष्ण लीला गान करते हुऐ कृष्ण भक्ति में निष्णात हुए।

इनके जन्म और मृत्यु के बारे में पर्याप्त मतभेद विद्यमान है।

रसखान उस ‘अनिवार’ प्रेम पंथ के यात्री है जो कमल तन्तु से भी कोमल और तलवार की धार से भी तेज जितना ही सीधा उतना ही टेढ़ा है।

 

‘‘कमल तन्तु सौ क्षीणहर कठिन खड़ग को धार
अति सूधो टेढो बहुर प्रेम पंथ अनिवार’’(15)

रसखान प्रेम का सुन्दर विस्तृत चित्रण करते हुए कहते है कि प्रेम वह नहीं है।

जिसमें दो मन मिलते है प्रेम वह है जिसमें दो शरीर एक हो जाए अर्थात् अपना शरीर अपना न होकर कृष्ण का हो जाये और कृष्ण का शरीर अपना हो जाये।

यही प्रेम की परिभाषा रसखान ने दी है-

‘‘दो मन इक होते सुन्यो पै वह प्रेम न आहि
होई जबै इै तन इक सोई प्रेम कहाइ।’’(16)

रसखान का अद्वैत प्रेम

इस प्रकार रसखान ने प्रेम अद्वैत को स्वीकारा है।

जिसमें दो का कोई स्थान नहीं है। आपका कृष्ण प्रेम जगत विख्यात है कृष्ण के प्रेम में रसखान वो सब कुछ बनना चाहते है जिसका संबंध किसी ना किसी रूप में कृष्ण से रहा है।

रसखान का प्रेम निश्छल है निर्विकार है।

जिसमें केवल विशुद्ध अपनापा है लाग लपेट के लिए कोई स्थान नहीं है।

‘‘मानुष हौ तो वही रसखानि, बसौ ब्रज गोकुल गांव के ग्वारन।’’लिखकर रसखान ने अपनी इच्छाओं को जग जाहिर किया है।

जीवन के प्रत्येक रूप में वे श्रीकृष्ण का सामीप्य ही चाहते है।

गोपी बनकर गायों को वन-वन चराना चाहते है।

कृष्ण की मोरपंख का मुकुट और गुंज की माला धारण करना चाहते है।

वो श्री कृष्ण का हर स्वांग कर लेना चाहते है-

‘‘मोर पंख सिर उपर राखिहौ, गुंज की माला गरे पहिरौंगी
ओढि पीताम्बर ले लकुटी बन गोधन ग्वारिन संग फिरोगी

भाव तो ओहि मेरो रसखानि, सो तेरे किये स्वांग करोंगी
या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरान धरौंगी।’’(17)

मौलाना आजाद अजीमाबादी

कृष्ण की जिस बांसुरी में मौलाना आजाद अजीमाबादी को आग नजर आ रही थी।

वही बांसुरी रसखान की गोपियों के लिए सब कामों में बाधा पहुंचाती है।

कही वह सौतन की तरह जी सांसत में लाती है तो गोपिका जल का मटका तक नहीं भर पाती है।

उनके मन में यही होता है कि सारे बांस कट जाये ना रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी

‘‘जल की न घट गरै मग की न पग धरें
घर की न कछु करै बैठी भरै साँसुरी
एकै सुनि लौट गई एकै लोट पोट भई
एक निके दृगन निकसि आये आँसुरी
कहै रसनायक सो ब्रज वनितानि विधि
बधिक कहाये हाय हुई कुल होंसुरी
करिये उपाय बांस डारिये कटाय’’(18)

रसखान का साहित्यिक पक्ष

नहि उपजैगो बाँस नाहि बाजै फेरि बाँसुरी।

रसखान का साहित्यिक पक्ष बहुत ऊँचा है तो इनकी भक्ति भी उच्च कोटि की है।

यकीनन हिन्दी साहित्य का कृष्ण भक्ति काव्य रसखान के बिना अधूरा है।

कृष्ण की बाल लीला वर्णन की तुलना सूर के बाललीला वर्णन से सहज ही की जा सकती है-

धूरी भरे अति सोहत स्याम जू
तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी

खेलत खात फिरे अंगना पग
पैंजनियां कटि पीरी कछौटी

बा छवि को ‘रसखानि’ विलोकति
बारत काम कला निज कोटी

काग के भाग बड़े सजनी
हरि हाथ सौ ले गयो माखन रोटी(19)

धूल से भरे रसखान के बालकृष्ण किसी भी तरह से सूर के बाल गोपाल से कम नहीं है।

सिर पर बनी सुन्दर चोटी बताती है कि सूर के कृष्ण चोटी बढाने के लिए बार-बार दूध पीते है।

अपनी मैया से बार-बार पूछते है- ‘मैया कबहूं बढेगी चोटी पर अजहूं है छोटी’

यह चोटी रसखान तक आते-आते बड़ी हो चुकी है।

उनके सुन्दर रूप पर वे रसखान कामदेव की करोड़ो कलाएं न्यौछावर करने को तैयार है।

रहीम की भाषाशैली : मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem

‘रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून
पानी गये ना ऊबरे मोती मानस चून’’

ऐसा अमर काव्य रचने वाले अब्र्दुरहीम खानखाना बाबर के विश्वस्त साथी और अकबर के संरक्षक बैरम खां के पुत्र थे।

रहीम बहुभाषाविद् थे।

अरबी, फारसी, तुर्की, संस्कृत आदि भाषाओं पर रहीम का अच्छा अधिकार था।

रहीम को साहित्य का जितना ज्ञान था उतने ही कुशल वे सेनानायक भी थे।

उन्होंने कई युद्धों में भाग लिया और विजय प्राप्त की।

हिन्दी साहित्य की अमर निधि माने जाने वाले रहीम के दोहे आम जन में लोकोक्ति की तरह काम में लिये जाते है।

भक्ति और नीति का अमर काव्य रचने वाले रहीम ने युद्धों से समय निकाल कर साहित्य साधना की है।

कहा जाता है कि इनके पास अपार धन था दानी प्रवृत्ति होने के कारण सारा धन समाप्त हो गया।

फलस्वरूप इनका अंतिम समय बड़े कष्ट में बीता अमीरी में साथ देने वाले मित्रों ने मुँह मोड़ लिया लेकिन रहीम को इसका कोई दुःख नहीं था।

 

उन्हें तो बस अपने कृष्ण कन्हैा पर भरोसा था-

‘रहीम को ऊ का करै, ज्वारी चोर लबार
जा के राखनहार है माखन चाखन हार।’(20)

रहीम को जुआरी चोर से कोई भय नहीं है।

उनके रखवाले तो स्वयं माखन चोर कृष्ण है।

रहीम को चकोर रूपी मन रात दिन कृष्ण रूपी चंद्रमा को निहारता है।

उनका मन ठीक उसी तरह से कृष्ण में रम चुका है।

जैसे चकोर का मन चाँद में लगता है-

‘‘तै रहीम मन अपनो कीनो चारो चकोर
निसि बासर लाग्यो रहे कृष्ण चंद की ओर’’(21)

हजरत नफीस

हजरत नफीस को तो कन्हाई की आँखे और मुखड़ा इतना पसंद है कि बस उसे ही देखना चाहते है-

‘कन्हैया की आँखें, हिरण सी नसीली कन्हैया की शोखी, कली-सी रसीली’’

मिया वाहिद अली

मिया वाहिद अली को नंदलाल की ऐसी लगन लगी है कि वे दुनिया छोडने को उतारू है।

कृष्ण की मुस्कान, मुरली की तान, उनकी चाल कंचन की भाल धनुष जैसे सुन्दर नयनों पर वाहिद अपनी लगन लगाये रखना चाहता है-

‘‘सुन्दर सुजान पर मंद मुस्कान पर
बांसुरी की तान पर ठौरन ठगी रहे

मूरति बिसाल पर कंचन की माल पर
खजन सी चाल पर खौरन सजी रहे

भौंहे धनु मैनपर लोने जुग नैन पर
प्रेम भरे बैन पर ‘वाहिद’ पगी रहे

चंचल से तन पर साँवरे बदन पर
नंद के ललन पर लगन लगी रहे।’’(22)

मिया नजीर

आगरा के प्रसिद्ध कवि मिया नजीर का कृष्ण प्रेम बड़ा ही बेनजीर है।

मुरली की धुन ने उनको बेसुध किया।

कान्हा की बाँसुरी की धुन ऐसी है नर-नारी रिसी मुनी सब यह जयहरि जय हरि कह उठे है-

‘‘कितने तो मुरली धुन से हो गये धुनी
कितनों की खुधि बिसर गयी, जिस जिसने धुन सुनी
क्या नर से लेकर नारिया, क्यारिसी और मुनी

तब कहने वाले कह उठे, जय जय हरि हरि
ऐसी बजाई कृष्ण कन्हाइया ने बांसुरी’’(23)

मौलाना जफर अली साहब

सच्चिदानंद स्वरूप श्रीकृष्ण की महिमा, उदारता तथा रूपमाधुरी के वर्णन अगणित मुस्लमान कवियों ने भी किया है।

आधुनिक मुस्लिम कवियों ने भी अनेक ऐसे कवि हुये हैं जिनको श्रीकृष्ण के प्रति अथाह प्रेम है।

अनेक मुसलमान गायक वादक और अभिनेता बिना किसी भेदभाव के कृष्ण के पुजारी है।

पंजाब के मौलाना जफर अली साहब की आरजू भी अब सुन ले-

‘‘अगर कृष्ण की तालीम आम हो जाये
तो काम फितनगारो का तमाम हो जाये

मिट जाये ब्राह्मण और शेख का झगड़ा
जमाना दोनो घरों का गुलाम हो जाये

विदेशी की लड़ाई की छज्जी उड़ जाए
जहाँ पर तेग दुदुम का तमाम हो जाये

वतन की खाक से जर्रा बन जाए चांद
बुलंद इस कदर उसका मुकाम हो जाये

है इस तराने में बांसुरी की गूंज
खुदा करे वह मकबूल आम हो जाए’’(24)

अंततः

कृष्ण भक्ति में रमने वाले ये कवि तो कुछ उदाहरण मात्र है।

इनके अलावा ऐसे सैकड़ों कवि और कवयित्रियां है जिन्होंने कृष्ण से प्रेम किया है।

हिन्दी साहित्य के खजाने में अपना हिस्सा दान किया है।

ऐसे लेखक और कवि वर्तमान संकीर्ण और धार्मिक उन्माद के वातावरण में समन्वय स्थापित करने का काम करते है।

इन कवियों ने बिना किसी लाग लपेट के कृष्ण को अपना आराध्य माना है।

उन्मुक्त भाव से कृष्ण भक्ति करके धार्मिक सहिष्णुता का परिचय दिया है।

आधुनिक हिन्दी साहित्य के जनक भारतेन्दु हरिश्चंद्र का यह कथन उचित प्रतीत होता है कि- ‘‘इन मुस्लमान हरिजजन पै कोटिक हिन्दु वारियै’’

संदर्भ ग्रंथ-

(1)हिन्दी साहित्य का इतिहास, संपादक- डाॅ. नगेन्द्र, प्रकाशक-मयूर पेपर बेक्स, नोएडा
(2)‘लाम’ (ل ) उर्दू का एक अक्षर होता है। जिसकी शक्ल इस प्रकार होती है की पहले एक सीधी खड़ी लकीर खींचकर उसके नीचे के सीरे को बांये तरफ गोलाई के साथ उपर थोड़ा ले जाकर छोड़ दिया जाता है। उसकी शक्ल लगभग बालों की लटों (ل ) की जैसी हो जाती है।
(3)मुस्लिम कवियों का कृष्ण काव्य, बलदेव प्रसाद अग्रवाल, प्रकाशक- बलदेव प्रसाद अग्रवाल एंड संस अजमेर
(4)शिव सिंह सरोज के अनुसार 1652 वि., मिश्र बंधु विनोद के देवीप्रसाद द्वारा अनुमानित 1700 वि. (1643 ई.) का उल्लेख मिलता है।
(5)सानुबंध- मासिक उन्नाव, दिस. 1987 ई. के अंक में बनवारीलाल वैश्य कृत लेख ‘ताज का कृष्णानुराग’

(6)गीताप्रेस-गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण’पत्रिका का अंक भाग संख्या 28 (www.ramkumarsingh.com से प्राप्त आलेख के अनुसार)
(7)मुस्लिम कवियों का कृष्णकाव्य- बलदेव प्रसाद अग्रवाल एंड संस, अजमेर
(8)हिन्दी साहित्य का वस्तुनिष्ठ इतिहास- डाॅ. रामप्रसाद मिश्र, प्रकाशक- सतसाहित्य भंडार, नई दिल्ली।
(9)मुस्लिम कवियों का कृष्णकाव्य- बलदेव प्रसाद अग्रवाल, प्रकाशक- बलदेव प्रसाद अग्रवाल एण्ड संस, अजमेर।
(10)वही
(11)वही
(12)वही
(13)मुस्लिम कवियों की कृष्ण भक्ति- स्वामी पारसनाथ तिवाड़ी, कल्याण पत्रिका, गीताप्रेस गोरखपुर
(14)दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता
(15)रसखान रचनावली- विद्यानिवास मिश्र, प्रकाशक- वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
(16)वही
(17)वही
(18)वही
(19)वही
(20)हिन्दी साहित्य का वस्तुनिष्ठ इतिहास- डाॅ. रामप्रसाद मिश्र, सतसाहित्य भंडार, नई दिल्ली।
(21)वही
(22)स्वामी पारसनाथ सरस्वती- कल्याण पत्रिका, गीताप्रेस गोरखपुर
(23)वही
(24)वही

हाइकु (Haiku) कविता

संख्यात्मक गूढार्थक शब्द

मुसलिम कवियों का कृष्णानुराग

श्री सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या के मतानुसार प्रांतीय भाषाओं और बोलियों का महत्व

अतः हमें आशा है कि आपको यह जानकारी बहुत अच्छी लगी होगी। इस प्रकार जी जानकारी प्राप्त करने के लिए आप https://thehindipage.com पर Visit करते रहें।

हाइकु कविता (Haiku)

हाइकु कविता (Haiku)

हायकु काव्य छंद का इतिहास, अर्थ, हायकु विधा, हायकु कविता कोश, हायकु काव्य शैली, क्षेत्र, भारतीय और जापानी हायकु सहित अन्य पूरी जानकारी

कविता का कैनवास विश्वव्यापी है।

ब्रह्मांड की प्रत्येक वस्तु कविता का क्षेत्र है।

विश्व की अलग-अलग भाषाओं में कविता रचना की अलग-अलग शैलियां और छंद हैं,

परंतु बहुत कम शैलियां या छंद ऐसे हैं जो विश्वव्यापी हुए हैं।

किसी छंद के वैश्वीकरण के लिए उस छंद में विश्व की अन्य भाषाओं में ढलने की क्षमता और प्रभावोत्पादकता होनी चाहिए।

हाइकु जापानी भाषा का एक ऐसा ही छंद है, जिसका प्रसार विश्व की अनेक भाषाओं में हुआ है।

हाइकु के संबंध में कतिपय विद्वानों के मत इस प्रकार हैं-

हायकु काव्य छंद इतिहास
हायकु काव्य छंद इतिहास

(धर्मयुग, 16 अक्टूबर 1966) उद्धृत हाइकु दर्पण के अनुसार

“हाइकु का जन्म जापानी संस्कृति की परम्परा, जापानी जनमानस और सौन्दर्य चेतना में हुआ और वहीं पला है। हाइकु में अनेक विचार-धाराएँ मिलती हैं- जैसे बौद्ध-धर्म (आदि रूप, उसका चीनी और जापानी परिवर्तित रूप, विशेष रूप से जेन सम्प्रदाय) चीनी दर्शन और प्राच्य-संस्कृति। यह भी कहा जा सकता है कि एक “हाइकु” में इन सब विचार-धाराओं की झाँकी मिल जाती है या “हाइकु” इन सबका दर्पण है।”

प्रो० नामवर सिंह[ हाइकु पत्र, 1 फरवरी 1978, उद्धृत हाइकु दर्पण के अनुसार

“Haiku एक संस्कृति है, एक जीवन-पद्धति है।

तीन पंक्तियों के लघु गीत अपनी सरलता, सहजता, संक्षिप्तता के लिए जापानी-साहित्य में विशेष स्थान रखते हैं।

इसमें एक भाव-चित्र बिना किसी टिप्पणी के, बिना किसी अलंकार के प्रस्तुत किया जाता है, और यह भाव-चित्र अपने आप में पूर्ण होता है।”

हाइकु की पहचान

हाइकु मूलतः जापानी छन्द है।

जापानी हाइकु में वर्ण-संख्या और विषय दोनों के बंधन रहे हैं।

हाइकु की मोटी पहचान 5-7-5 के वर्णक्रम की तीन पक्तियों की सत्रह-वर्णी कविता के रूप में है और इसी रूप में वह विश्व की अन्य भाषाओं में भी स्वीकारा गया है।

महत्त्व वर्ण-गणना का इतना नहीं जितना आकार की लघुता का है। यही लघुता इसका गुण भी बनती है और यही इसकी सीमा भी।

जापानी में वर्ण स्वरान्त होते हैं, हृस्व “अ” होता नहीं।

5-7-5 के क्रम में एक विशिष्ट संगीतात्मकता या लय कविता में स्वयं आ जाती है।

तुक का आग्रह नहीं है।

अनुभूति के क्षण की वास्तविक अवधि एक निमिष, एक पल अथवा एक प्रश्वास भी हो सकती है, अतः अभिव्यक्ति की सीमा उतने ही शब्दों तक है जो उस क्षण को उतार पाने के लिए आवश्यक है।

यह भी कहा गया है कि एक साधारण नियमित साँस की लम्बाई उतनी ही होती है, जितनी में सत्रह वर्ण सहज ही बोले जा सकते हैं।

कविता की लम्बाई को एक साँस के साथ जोड़ने की बात के पीछे उस बौद्ध-चिन्तन का भी प्रभाव हो सकता है, जिसमें क्षणभंगुरता पर बल है। -प्रोफेसर सत्यभूषण वर्मा (“हाइकु”भारतीय हाइकु क्लब का लघु पत्र), अगस्त- 1978, सम्पादक- डा० सत्यभूषण वर्मा, से साभार) उद्धृत हाइकु दर्पण

भारत में हायकु

पिछले कुछ वर्षों में हाइकु ने हिंदी में भी अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज करवाई है।

पहले पहल हाइकु कविता अनुवाद के माध्यम से हिंदी पाठकों के सामने आयी।

रवींद्रनाथ टैगोर तथा सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय ने अपनी जापान यात्रा से लौटकर जापानी हाइकु कविता का अनुवाद किया।

कविवर रवींद्रनाथ टैगोर तथा अज्ञेय से प्रभावित होकर हिंदी के अनेक कवियों ने जापानी हाइकु कविता पर अपने हाथ आजमाएं।

हाइकु कविता को भारत में लाने का श्रेय महाकवि रवींद्रनाथ टैगोर को जाता है।

“भारतीय भाषाओं में रवींद्र नाथ ठाकुर ने जापान यात्रा से लौटने के पश्चात 1919 ईस्वी में जापान यात्री में हाइकु की चर्चा करते हुए बांग्ला में दो कविताओं के अनुवाद प्रस्तुत किए यह कविताएं थी-

     पुरोनो पुकुर

     ब्यांगेर लाफ

     जलेर शब्द

तथा

     पचा डाल

     एकटा को

     शरत्काल

दोनों अनुवाद शब्दिक हैं और बाशो की प्रसिद्ध कविताओं के हैं।”(प्रो. सत्यभूषण वर्मा, जापानी कविताएँ, पृष्ठ-29)

हाइकु कविता का इतिहास

हाइकु कविता का इतिहास अत्यंत पुराना है।

यदि जापानी साहित्येतिहास के अध्ययनमें हम पाते हैं कि हाइकु कविता की रचना सैकड़ों वर्ष पूर्व जापान में हो रही थी।

इसके प्रारंभिक कवि यामजाकी सोकान (1465-1553) और आराकीदा मोरिताके (1472-1549) थे 17 वीं शताब्दी में मृतप्राय हो चुकी हाइकु कविता को मात्सूनागा तोईतोकु (1570-1653) ने नवजीवन प्रदान किया।

उन्होंने हाइकु कि तोईतोकु धारा का प्रवर्तन किया।

बाशो और उनका युग

जापानी हाइकु की प्रतिष्ठा को चरमोत्कर्ष पर पहुंचाने और उसका सर्वांगीण विकास करने का श्रेय प्रसिद्ध कवि मात्सुओ बाशो (1644-1694) को जाता है।

लगभग चालीस वर्ष के छोटे से जीवन काल में ही उन्होंने जापानी साहित्य की इतनी सेवा कर दी कि 17वीं शताब्दी के मध्य से 18 वीं शताब्दी के मध्य के जापानी साहित्येतिहास के कालखंड को बाशो युग कहा जाता है।

बाशो ने हाइकु कविता के लिए अपने विचार व्यक्त करते हुए लिखा है कि “जिसने जीवन में तीन से पांच हाइकु रच डालें वह हाइकु कवि है जिसने दस हाइकु की रचना कर डाली वह महाकवि है।” (प्रो. सत्यभूषण वर्मा, जापानी कविताएँ, पृष्ठ-22)

जापानी काव्यशास्त्र के अनुसार बाशो के काव्य मैं मुख्यतः तीन प्रवृत्तियां मिलती है-

अकेलेपन की स्थिति अर्थात वाबि।

अकेलेपन की स्थिति से उत्पन्न संवेदना परक अनुभूति अर्थात साबि।

सहज अभिव्यक्ति अर्थात करीमि।

1686 ईस्वी में बाशो ने अपने सबसे प्रसिद्ध हाइकु की रचना की-

ताल पुराना

कूदा दादुर

पानी का स्वर

(अनुवाद प्रो. सत्यभूषण वर्मा, जापानी हाइकु और आधुनिक हाइकु कविता पृष्ठ-15)

बुसोन और बुसोन का युग

इस युग के श्रेष्ठ हाइकुकार बुसोन हुए हैं, जो कि प्रख्यात चित्रकार भी थे।

डॉ सत्यभूषण वर्मा ने बाशो और बुसोन को जापानी काव्य गगन के सूर्य और चंद्रमा कहा है

इस्सा

बुसोन के बाद जापानी हाइकु साहित्य में प्रमुख का नाम कोबायाशी इस्सा का आता है। इनकी कविताएं जीवन के अधिक निकट है।

शिकि

शिकि पर बुसोन का अधिक प्रभाव था।

इसने बाशो की आलोचना की तथा मित्रों के सहयोग से ‘हाइकाइ’ नामक हाइकु पत्रिका निकाली।

शिकि ने  नयी कविता और उपन्यासों की भी रचना की।

इनकी एक अन्य हाइकु पत्रिका होतोतोगिसु ने जापानी हाइकु कविता को नया आधार और नयी दिशा दी।

इसके बाद बदलते परिवेश और विचारधाराओं के साथ-साथ हाइकु में भी परिवर्तन आए।

नित नए प्रयोग इस कविता में होने लगे।

डॉ. सत्य भूषण वर्मा के अनुसार 1957 ईस्वी में जापान में लगभग 50 मासिक हाइकु पत्रिका में प्रकाशित हो रही थी।……… प्रत्येक पत्रिका के हर अंक में कम से कम 1500 हाइकु रचनाएं थी।(प्रो. सत्यभूषण वर्मा, जापानी हाइकु और आधुनिक हाइकु कविता पृष्ठ-28)

डॉ. शैल रस्तोगी के कथनानुसार

“….छठे दशक के आसपास चुपचाप प्रविष्ट होने वाली इस जापानी काव्य-विधा ने हिंदी कविता में अपना प्रमुख स्थान बना लिया है और कविता के क्षेत्र में एक युगांतर प्रस्तुत किया। अकविता, विचार कविता, बीट कविता, ताजी कविता, ठोस कविता आदि अनेक काव्यांदोलनों के बीच पल्लवित और पुष्पित होती इस काव्य-शैली ने हिंदी कवियों को बड़ी शिद्दत से विमोहित किया; जिससे साहित्य में हाइकु-लेखन को एक सुदृढ़ परंपरा पड़ी और हिंदी कविता जापान से आने वाले रचना प्रभाव से खिल उठी।”

हाइकु कविता के विकास में अमूल्य योगदान

1956 से 1959 ईस्वी के कालखंड में अज्ञेय द्वारा रचित एवं अनूदित व कविताओं के संग्रह ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’ से हिंदी में हाइकु कविता का श्रीगणेश माना जाता है।

अज्ञेय के इस संग्रह में 27 अनूदित और कुछ मौलिक हाइकु संकलित है।

डॉ. प्रभा शर्मा के अनुसार “सन् 1967 ईस्वी में प्रकाशित श्रीकांत वर्मा के कविता संग्रह  ‘माया दर्पण’ में शब्द संयम और मिताक्षरता, बिम्बात्मकता और चित्रात्मकता से युक्त कविताएं संग्रहित हैं, जो हाइकु की पूर्वपीठिका स्वीकार की जानी चाहिए।”

‘आधुनिक हिंदी कविता और विदेशी काव्य रूप’ में डॉ एस नारायण ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक लिखा है कि “डॉ प्रभाकर माचवे ने भी जापान में अपने प्रवास काल में लगभग 250  हाइकुओं के अनुवाद किये।”

डॉ सत्यभूषण वर्मा का मत है कि “हाइकु को एक आंदोलन के रूप में उठाने का प्रयत्न रीवा के आदित्य प्रताप सिंह ने किया।उन्होंने हाइकु और सेनर्यु (व्यंग्य प्रधान हाइकु) के नाम से ढेरों कविताएं लिखी और लिखवायी है।”

इसके साथ-साथ अनेक पत्र-पत्रिकाओं ने भी हाइकु कविता के विकास में अपना अमूल्य योगदान दिया है।

हाइकु कविता का शिल्प सौंदर्य

प्रत्येक भाषा की अपनी रचना शैली होती है, जो दूसरी भाषाओं से पृथक होती है।

सभी भाषाएं ध्वनि विधान, शब्द विधान, स्वर-व्यंजन, उच्चारण, पद क्रम, काल, लिंग, वचन, कारक, क्रिया आदि सभी दृष्टियों में एक दूसरे से सर्वथा भिन्न-भिन्न और विशिष्ट होती हैं।

इन विशेषताओं के कारण ही सभी भाषाओं में काव्य शैलियों भी अलग-अलग होती है।

जापानी और हिंदी दोनों ही भाषाओं में हाइकु कविता का काव्य रूप मुक्तक ही रहा है

यह सर्वविदित है कि हाइकु कविता जापानी भाषा से हिंदी में आई है।

हिंदी में जिस प्रकार इसे एक छंद के रूप में अपनाया गया है, उसी प्रकार इसके शिल्प को भी अपना लिया गया है

हाइकु के शिल्प पर हिंदी में कई प्रश्न हैं, उन प्रश्नों के उत्तर जाने से पहले जापानी तथा हिंदी में हाइकु के शिल्प को समझ लेना आवश्यक है।

प्राचीन काल से ही जापानी मुक्तक काव्य में तीन शैलियां प्रचलित रही है-

ताँका (5 पंक्तियाँ तथा 5,7,5,7,7 वर्णक्रम)

सेदोका (6 पंक्तियाँ तथा 5,7,7,5,7,7 वर्णक्रम)

चोका (पंक्तियाँ अनिश्चित तथा 5,7,5,7 वर्णक्रम)

यह तीनों शैलियां 5-7 संख्या की ओंजि (लघ्वोच्चारणकाल घटक) पर आधारित है।

डॉ. सत्यभूषण वर्मा ने हाइकु भारती पत्रिका में ओंजि को लेकर अपना मत इस प्रकार दिया है- “जापानी लिपि मूलतः चीन की भावाक्षर लिपि से विकसित हुई है; जिसे हिन्दी में सामान्यतः चित्रलिपि कहा जाता है।

अंग्रेजी में इन भावाक्षरों को ‘इडियोग्राफ’ कहा गया है | भावाक्षर किसी ध्वनि को नहीं, एक पूरे शब्द के भाव या अर्थ को व्यक्त करता है|

भारतीय लिपियाँ ध्वनि मूलक हैं जिनमें शब्द को लिखित ध्वनि-चिह्नों में बदलकर उससे अर्थ ग्रहण किया जाता है|

चीनी और जापानी लिपियाँ अर्थमूलक हैं, जिनमें शब्द के लिखित रूप सीधे अर्थ को व्यक्त कर देते हैं।

एक ही भावाक्षर प्रसंग और अन्य भावाक्षर के संयोग से अनेक प्रकार से पढ़ा या उच्चरित किया जा सकता है|

जापानी भावाक्षर को ‘कांजि’ कहा जाता है।

कालांतर में जापान ने चीनी भावाक्षर लिपि को जापानी भाषा की प्रकृति के अनुरूप ढालने के प्रयत्न में इन्हीं भावाक्षरों में अपनी ध्वनि मूलक लिपियों का विकास किया जो ‘हीरागाना और ‘काताकाना’ कहलायीं|

आज की जापानी में ‘कांजि’, ‘हीरागाना’ और ‘काताकाना’ तीनों लिपियों का एक साथ मिश्रित प्रयोग होता है|

रोमन अक्षरों में लिखी गयी जापानी के लिये ‘रोमाजि’ शब्द का प्रयोग होता है|

किसी भी लिखित प्रतीक चिह्न को जापानी में ‘जि’ कहा जाता है|

वह कोई भावाक्षर भी हो सकता है, कानाक्षर भी अथवा कोई अंक भी|

‘ओन’ का अर्थ है ध्वनि, इस प्रकार ‘ओं’ का सीधा सा अर्थ हुआ ध्वनि-चिन्ह जो वर्णया अक्षर का ही पर्याय हो सकता है|” -(उद्धृत डॉ भगवतशरण अग्रवाल हाइकु काव्य विश्वकोश पृष्ठ 19)

ओन, ओंजि एवं सिलेबल्स (Syllables) तथा हायकु कविता का अनुवाद

चूंकि हिंदी में प्रारंभिक हाइकु कविता अनुवाद के माध्यम से आई है।

अनुवाद दो तरह से हुआ पहला- जापानी से सीधे हिंदी में अनुवाद।

दूसरा- जापानी से अंग्रेजी में अनुवाद और पुनः अंग्रेजी से हिंदी में अनुवाद।

इसलिए यह समझना होगा कि जापानी भाषा में जो ओन है,

वह अंग्रेजी और हिंदी में क्या होगा या अंग्रेजी और हिंदी में उसका समानार्थी क्या होगा।

जापानी में जिसे ओन कहा जाता है उसे अंग्रेजी में सिलेबल्स (Syllables) तथा हिंदी में अक्षर कहा जाता है

लेकिन प्रख्यात हाइकुकार डॉ भगवतशरण अग्रवाल उक्त मत से कुछ कम ही सहमत हैं।

इस संबंध में वे लिखते हैं “अनेक समीक्षकों ने ओंजि का अंग्रेजी पर्याय सिलेबल्स माना है जो गलत है।

वास्तव में इसका अंग्रेजी पर्याय मोरा है फिर भी इस संदर्भ में मोरा के स्थान पर सिलेबल्स ही अधिक प्रचलित है।

हिंदी के भाषा वैज्ञानिकों ने सिलेबल्स का पर्याय अक्षर को माना है।”

भले ही विद्वतजन और आलोचक ओन या ओंजि  का अंग्रेजी पर्याय सिलेबल्स और हिंदी पर्याय अक्षर करें;

परंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रत्येक भाषा की बनावट अलग अलग होती है,

इसलिए यह कहना संगत नहीं होगा कि जापानी में लिखे हाइकु में जितने ओन या ओंजि होंगे,

अंग्रेजी में उतने ही सिलेबल्स और हिंदी में उतने ही अक्षर होंगे।

जापानी हाइकु कविता में 17 ओन या ओंजि होते हैं, लेकिन यह देखने में आया है,

कि अंग्रेजी के 12 सिलेबल्स में जापानी के लगभग 17 ओन या ओंजि पूरे हो जाते हैं

लेकिन अंग्रेजी हाइकुकार 17 सिलेबल्स का प्रयोग करते हैं।

हाइकु के शिल्प

हाइकु के शिल्प के संबंध में डॉ भगवतीशरण अग्रवाल लिखते हैं ”हाइकु के शिल्प के संबंध में एक दो और बातें मुझे कहनी है-

प्रथम तो यह कि जापानी काव्य में अक्षरों को नहीं  ओन या ओंजि अर्थात अंग्रेजी में मोरा जिसका हिंदी पर्याय लघ्वोच्चारणकाल है को मान्यता मिली है”

रामेश्वर कम्बोज ‘हिमांशु’ ने जापानी हाइकु और हिन्दी में हाइकु की संरचना में वर्ण या अक्षर गणना को लेकर निम्नलिखित वर्णन किया है

“इस तकनीकी शब्दावली के बाद हाइकु के लिए अक्षर, वर्ण या जापानी भाषा का शब्द ग्रहण करें तो परस्पर पर्याय की समानता तलाशना मुश्किल है|

अक्षर के लिए निकटतम शब्द syllable है लेकिन जापानी में इसके लिए कुछ समतुल्य ‘on’ है,

पूरी तरह पर्याय नहीं; क्योंकि जापानी में ‘on’ का अर्थ syllable से थोड़ा कम है|

जैसे – haibun अंग्रेज़ी में दो अक्षर हैं- हाइ-बन परन्तु जापानी में चार अक्षर या चार ‘on’ हैं -(ha-i-bu-n)-हा-इ-ब-न |”

रामेश्वर कम्बोज ‘हिमांशु ने हिंदी में हाइकु की गणना को स्पष्ट करते हुए कहा है कि”हिन्दी की भाषा वैज्ञानिक शब्दावली में इसे 5-7-5 वर्ण का छन्द कहा जाना चाहिए, न कि 5-7-5 अक्षर का छन्द|

इसका कारण है कि हिन्दी में अक्षर का अर्थ है – वह वाग्ध्वनि जो एक ही स्फोट में उच्चरित हो|

उदहारण के लिए कमला= कम-ला=२, धरती=धर-ती=२, मखमल= मख- मल=२, करवट= कर-वट=२,पानी=पा-नी=२, अपनाना = अप – ना – ना = ३, चल= १, सामाजिक= सा-मा-जिक=३ (ये अक्षर=गणना दी गई है) आ,न , ओ हिन्दी मे वर्ण भी हैं, एक ही स्फोट में बोले जाते हैं -अक्षर भी हैं और सार्थक भी हैं (आ-आना क्रिया का रूप , न निषेध के अर्थ में, ओ-पुकारने के अर्थ में , जैसे ओ भाई! इसी तरह गाना आदि भी हैं।]

हिन्दी हाइकु के सन्दर्भ में

हिन्दी हाइकु के सन्दर्भ में कमला-क-म-ला-3, धरती-ध-र-ती-3, मखमल-म-ख-म-ल-4, करवट- क-र-ब-ट-4 पानी=पा-नी=2, अपनाना=अ-प-ना-ना=4, चल=च-ल=2 सामाजिक= सा-मा-जि-क=4 वर्ण गिने जाएँगेहाइकु के बारे में सीधा और सरल शास्त्रीय नियम है – 5-7-5 = 17 वर्ण (स्वर या स्वरयुक्तवर्ण) न कि अक्षर जैसा कि असावधानीवश लिख दिया जाता है।“

इस मत पर आधारित अनेक उदाहरण हैं;

जिनसे यह मत पुष्ट होता है कि हिंदी हाइकु में 5,7,5 के क्रम में 17 वर्णों का छंद विधान हाइकु है न कि अक्षर क्रम का जैसे-

दीपोत्सव-सा

हम सबका

रिश्ता जगमगाए

 

शीत के दिनों

सर्प-सी फुफकारें

चलें हवाएँ

 

घास-सी बढ़ी

गुलाब-सी खिलती

बेटी डराती

हाइकु तुकांत और अतुकांत दोनों ही हो सकते हैं, हिंदी में दोनों प्रकार के हाइकु लिखे गए हैं।

शिल्प के अंतर्गत छंद यति,  गति, तुक के अतिरिक्त

अलंकार, शब्द-शक्ति, बिंब विधान, प्रतीक विधान, मिथक आदि सभी शिल्प गत विशेषताओं से युक्त होता है हाइकु।

हाइकु (Haiku) कविता

संख्यात्मक गूढार्थक शब्द

मुसलिम कवियों का कृष्णानुराग

श्री सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या के मतानुसार प्रांतीय भाषाओं और बोलियों का महत्व

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