रीतिकाल में काव्यशास्त्र से संबंधित अनेक ग्रंथों की रचना हुई। यह ग्रंथ काव्यशास्त्र के विभिन्न अंगों को लेकर लिखे गए। इनमें से कुछ ग्रंथ सर्वांग निरूपक ग्रंथ थे जबकि कुछ विशेषांग निरूपक थे। इस आलेख में रीतिकालीन छंदशास्त्र संबंधी ग्रंथ की जानकारी।
विशेषांग निरूपक ग्रंथों में ध्वनि संबंधी ग्रंथ, रस संबंधी ग्रंथ, अलंकार संबंधी ग्रंथ, छंद शास्त्र संबंधी ग्रंथ, इत्यादि ग्रंथों का प्रणयन हुआ।
छंद ― छंदशास्त्र की व्यवस्थित परंपरा का सूत्रपात छंदशास्त्र के प्रवर्त्तक पिगलाचार्य के छंद सूत्र’ (ई. पू. 200 के लगभग) से माना जाता है।
रीतिकालीन हिन्दी के छंदशास्त्र संबंधी ग्रंथ
1. छंदमाला – केशवदास (हिंदी में छंदशास्त्र की प्रथम रचना)
रीतिकाल में काव्यशास्त्र से संबंधित अनेक ग्रंथों की रचना हुई। यह ग्रंथ काव्यशास्त्र के विभिन्न अंगों को लेकर लिखे गए। इनमें से कुछ ग्रंथ सर्वांग निरूपक ग्रंथ थे जबकि कुछ विशेषांग निरूपक थे। इस आलेख में अलंकार निरूपक रीतिकालीन ग्रंथ की पूरी जानकारी प्राप्त करेंगे।
विशेषांग निरूपक ग्रंथों में ध्वनि संबंधी ग्रंथ, रस संबंधी ग्रंथ, अलंकार संबंधी ग्रंथ, छंद शास्त्र संबंधी ग्रंथ, इत्यादि ग्रंथों का प्रणयन हुआ।
1. कविप्रिया और रसिकप्रिया ― केशवदास ―
‘कविप्रिया’ में अलंकारों का वर्गीकरण प्रमुख रूप से हुआ है। इसका उद्देश्य काव्य-संबंधी ज्ञान प्रदान करना था अलंकारवादी कवि केशव ने अलंकार का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहा था कि भूषण बिनु न विराजई कविता, वनिता मित्त।
2. भाषाभूषण ― जसवंत सिंह ―
इसमें अलंकारों का लक्षण और उदाहरण 212 दोहों में वर्णित हुआ है। भाषाभूषण की शैली चंद्रालोक की शैली है।
3. अलंकार पंचाशिका (1690 ई.), ललितललाम ― मतिराम ―
अलंकार पंचाशिका कुमायूँ-नरेश उदोतचंद्र के पुत्र ज्ञानचंद्र के लिए लिखी गई थी जबकि ललितललाम बूँदी नरेश भावसिंह की प्रशंसा में सं. 1716 से 45 के बीच लिखा गया। जिसके क्रम व लक्षण को शिवराज भूषण में अक्षरश: अपनाया गया है।
अलंकार निरूपक रीतिकालीन ग्रंथ
4. शिवराज-भूषण ―
भूषण आलंकारिक कवि कहे जाते हैं। इसके पीछे ‘शिवराज-भूषण’ (1653 ई.) रचना है, जो आलंकारिक है।
5. रामालंकार, रामचंद्रभूषण, रामचंद्रामरण (1716 ई. के आसपास) ― गोप ―
गोप विरचित तीनों रचनाएँ चंद्रालोक की पद्धति पर विरचित हैं।
6. अलंकार चंद्रोदय (1729 ई. रचनाकाल) रसिक सुमति ―
इसका आधार ग्रंथ कुवलयानंद है।
7. कर्णाभरण (1740 ई. रचनाकाल) ― गोविन्द ―
इसकी रचना भाषाभूषण की शैली पर हुई है।
8. कविकुलकण्ठाभरण ― दुलह ―
‘कविकुलकण्ठाभरण’ का आधार ग्रंथ चंद्रलोक एवं कुवलयानंद है।
9. भाषाभरण (रचनाकाल 1768 ई) ― बैरीसाल ―
इस ग्रंथ का आधार कुवलयानंद एवं इसकी वर्णन-पद्धति भाषाभूषण के समान है।
10. चेतचंद्रिका (स. 1840-1870 शुक्लजी के अनुसार) ― गोकुलनाथ
11. पद्माभरण ― पद्माकर ―
पद्माकर द्वारा रचित ‘पद्माभरण’ के आधार चंद्रालोक, भाषाभूषण, कविकुलकण्ठाभरण और भाषाभरण इत्यादि रचनाएँ है।
12. याकूब खां का रसभूषण 1718 ई. एवं शिवप्रसाद का रसभूषण 1822 ई ―
अलंकार और रस दोनों के लक्षण और उदाहरण प्रस्तुत किये गए हैं।
13. काव्यरसायन ― देव का ‘काव्यरसायन’ ग्रंथ एक प्रसिद्ध आलंकारिक ग्रंथ है।
रीतिकाल में काव्यशास्त्र से संबंधित अनेक ग्रंथों की रचना हुई। यह ग्रंथ काव्यशास्त्र के विभिन्न अंगों को लेकर लिखे गए। इनमें से कुछ ग्रंथ सर्वांग निरूपक ग्रंथ थे जबकि कुछ विशेषांग निरूपक थे। इस आलेख में जानेंगे रीतिकाल के रस ग्रंथ की पूरी जानकारी।
विशेषांग निरूपक ग्रंथों में ध्वनि संबंधी ग्रंथ, रस संबंधी ग्रंथ, अलंकार संबंधी ग्रंथ, छंद शास्त्र संबंधी ग्रंथ, इत्यादि ग्रंथों का प्रणयन हुआ।
1. रसिकप्रिया ―केशवदास प्रथम रसवादी आचार्य है।
इनकी ‘रसिकप्रिया’ एक प्रसिद्ध रस ग्रंथ है।
2. सुंदर श्रृंगार , 1631 ई. ― सुंदर कवि ―
शाहजहाँ के दरबारी कवि सुंदर ने श्रृंगार रस और नायिका भेद का वर्णन इसमें किया है।
3. श्रृंगार मंजरी ― चिंतामणि ―
हिंदी नायिका-भेद के ग्रंथों में ‘श्रृंगार मंजरी’ का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। ‘कविकुलकल्पतरु’ इनकी रसविषयक रचना है। इस ग्रंथ में उन्होंने अपना उपनाम मनि (श्रीमनि) का प्रयोग 60 बार किया है।
4. सुधानिधि 1634 ई. ― तोष ―
रसवादी आचार्य तोष निधि ने 560 छंदों में रस का निरूपण (सुधानिधि 1634 ई.) सरस उदाहरणों के साथ किया है।
5. रसराज ― मतिराम ―
इस ग्रंथ में नायक-नायिका भेद रूप में श्रृंगार का बड़ा सुंदर वर्णन हुआ है।
6. भावविलास, भवानीविलास, काव्यरसायन― देव ―
देव ने केवल श्रृंगार रस को सब रसों का मूल माना है, जो सबका मूल है। इन्होंने सुख का रस शृंगार को माना। काव्य रसायन में 9 रसों का विवेचन भरतमुनि के नाट्यशास्त्र पर हुआ है।
7. रसिक रसाल 1719 ई. ― कुमारमणि भट्ट
8. रस प्रबोध 1798 सं. (1741 ई.) रसलीन ―
इनकी रसनिरूपण संबंधित रचना ‘रसप्रबोध’ में 1115 दोहो में रस का वर्णन है। रसलीन का मूल नाम सैयद गुलाब नबी था।
15. पद्माकर – ‘जगद्विनोद’ काव्यरसिकों और अभ्यासियों के लिए कंठहार है।
इसकी रचना इन्होंने महाराज प्रतापसिंह के पुत्र जगतसिंह के नाम पर की थी।
16. रसिकगोविन्दानन्दघन ― रसिक गोविंद – काव्यशास्त्र विषयक इनका एकमात्र ग्रंथ है।
17. नवरस तरंग ― बेनी प्रवीन ―
इनका ‘नवरस तरंग’ सबसे प्रसिद्ध श्रृंगार-ग्रंथ है, जिसे शुक्ल ने मनोहर ग्रंथ कहा है। श्रृंगारभूषण, नानाराव प्रकाश-बेनी की अन्य कृतियाँ है।
18. रसिकनंद, रसरंग ― ग्वाल ―
शुक्लर्जी ने लिखा है कि – ‘रीतिकाल की सनक इनमें इतनी अधिक थी कि इन्हे ‘यमुनालहरी’ नामक देवस्तुति में भी नवरस और षड्ऋतु सुझाई पड़ी है।’
19. महेश्वरविलास ― लछिराम ―
महेश्वरविलास नवरस और नायिका-भेद पर आधारित रचना है।
20. रसकुसुमाकर (1894 ई.) ― प्रतापनारायण सिंह –
अयोध्या के महाराज प्रतापनारायण सिंह की ‘रसकुसुमाकर में श्रृंगार रस का सुंदर विवेचन मिलता है।
21. रसकलस (1931 ई.) ― अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ―
हरिऔध की ‘रसकलस’ रचना रीति-परंपरा पर रस-संबंधी एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। हरिऔधजी ने अदभुत रस के अंतर्गत रहस्यवाद की गणना की है। यह इस ग्रंथ की नवीनता है।
रीतिकाल में काव्यशास्त्र से संबंधित अनेक ग्रंथों की रचना हुई। यह ग्रंथ काव्यशास्त्र के विभिन्न अंगों को लेकर लिखे गए। इनमें से कुछ ग्रंथ सर्वांग निरूपक ग्रंथ से थे जबकि कुछ विशेषांग निरूपक थे। रीतिकाल के ध्वनि ग्रंथ।
विशेषांग निरूपक ग्रंथों में ध्वनि संबंधी ग्रंथ, रस संबंधी ग्रंथ, अलंकार संबंधी ग्रंथ, छंद शास्त्र संबंधी ग्रंथ, इत्यादि ग्रंथों का प्रणयन हुआ।
1. कुलपति ― रस रहस्य (1670 ई.) ―
हिंदी रीतिशास्त्र के अंतर्गत ध्वनि के सर्वप्रथम आचार्य कुलपति मिश्र माने जाते हैं।
2. देव ― काव्यरसायन (1743 ई.) ―
देव ने ‘काव्यरसायन’ नामक ध्वनि-सिद्धांत निरूपण संबंधित ग्रंथ लिखा। इसका आधार ध्वन्यालोक ग्रंथ है। इसी ग्रंथ में अभिधा और लक्षणा का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए लिखा- “अभिधा उत्तम काव्य है, मध्य लक्षणालीन ।
अधम व्यंजना रस कुटिल, उलटी कहत नवीन।” ( काव्य रसायन)
इस ग्रंथ पर मम्मट के काव्यप्रकाश का प्रभाव है। इनका काव्य-संबंधी परिभाषा निजी एवं वैशिष्ट्यपूर्ण है।
4. कुमारमणि भट्ट ― रसिक रसाल (1719 ई.) ―
यह काव्यशास्त्र का एक श्रेष्ठ ग्रंथ है।
5. श्रीपति ― काव्यसरोज (1720 ई.) –
यह मम्मट के काव्यप्रकाश पर आधारित ग्रंथ है।
रीतिकाल के ध्वनि ग्रंथ
6. सोमनाथ ― रसपीयूषनिधि (1737 ई.) ―
सोमनाथ ने भरतपुर के महाराज बदनसिंह हेतु रसपीयूषनिधि की रचना की थी।
7. भिखारीदास ― काव्यनिर्णय (1750 ई.)
इसमें 43 प्रकार की ध्वनियों का निरूपण हुआ है।
8. जगत सिंह ― साहित्य सुधानिधि, (1801 ई.) ―
भरत, भोज, मम्मट, जयदेव, विश्वनाथ, गोविन्दभट्ट, भानुदत्त, अप्पय दीक्षित इत्यादि आचार्यों के ग्रंथों का आधार लेकर यह ग्रंथ सृजित हुआ है।
9. रणधीर सिंह ― काव्यरत्नाकर ―
‘काव्यप्रकाश’ और ‘चंद्रलोक’ के आधार पर तथा कुलपति के रस रहस्य’ ग्रंथ का आदर्श ग्रहणकर ‘काव्यरत्नाकर’ की रचना हुई।
रीतिकालीन ध्वनि ग्रंथ
10. प्रताप साहि ― व्यंग्यार्थ कौमुदी ―
यह व्यंग्यार्थ प्रकाशक ग्रंथ है, जिसमें ध्वनि की महत्ता प्रतिपादित हुई है।
11. रामदास ― कविकल्पद्रुम, (1844 ई.) ―
रामदास ने ध्वनि विषयक ग्रंथ ‘कविकल्पद्रुम’ या ‘साहित्यसार लिखा।
12. लछिराम रावणेश्वर ― कल्पतरु (1890) ―
लछिराम ने गिद्धौर नरेश महाराज रावणेश्वर प्रसाद सिंह के प्रसन्नार्थ 1890 ई. में ध्वनि विषयक रावणेश्वर कल्पतरु’ लिखा।
13. कन्हैयालाल पोद्दार ― रसमंजरी ―
यह ‘रस’ से संबंधित रचना है परन्तु इसका ढाँचा ‘ध्वनि’ पर निर्मित हुआ है। यह रचना गद्य में है जबकि इसके उदाहरण पद्यमय है। इस ग्रंथ पर मम्मट के ‘काव्यप्रकाश’ का प्रभाव है।
14. रामदहिन मिश्र ― काव्यालोक ―
यह आधुनिक काल का एक काव्यशास्त्रीय ग्रंथ है।
15. जगन्नाथ प्रसाद भानु ― काव्यप्रभाकर ―
यह आधुनिक काल का एक काव्यशास्त्रीय ग्रंथ है जिसकी रचना 1910 ई. में हुई।
3. बाह्य आक्रमण की प्रतिक्रिया का परिणाम – रामचंद्र शुक्ल
कथन ― “देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिंदू जनता के हृदय में… पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शरणागति में जाने के अलावा दूसरा मार्ग ही क्या था?” ― हिंदी साहित्य का इतिहास
शुक्ल जी की भक्ति डॉ रामकुमार वर्मा ने भी भक्ति आंदोलन को बाह्य आक्रमण की प्रतिक्रिया का परिणाम माना है। उन्होंने लिखा है कि ―
“हिंदुओं में मुसलमानों से लोहा लेने की शक्ति नहीं थी……… इस असहाय अवस्था में उनके पास ईश्वर से प्रार्थना करने के अतिरिक्त कोई साधन नहीं था।“
4. भारतीय परंपरा का स्वतःस्फूर्त विकास – हजारी प्रसाद द्विवेदी
कथन ― “अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है। बौद्ध तत्त्ववाद बौद्ध धर्म लोकधर्म का रूप ग्रहण कर रहा था, जिसका निश्चित चिह्न हम हिंदी-साहित्य में पाते हैं।”
5. भक्तिकाव्य पराजय की क्षति का पूरक-बाबू गुलाबराय
कथन ― “पराजय की मनोवृत्ति मनुष्य को या तो विषय-विलास में लीन करती है या अपनी आध्यात्मिक श्रेष्ठता के प्रदर्शन में क्षतिपूर्ति ढूँढ़ने की प्रेरणा देती है।”
राष्ट्रव्यापी स्वरूप : भक्तिकाल – उदय संबंधी मत
भक्ति आंदोलन का स्वरूप राष्ट्रव्यापी था दक्षिण में अलवार (ये वैष्णव संत थे इनकी कुल संख्या 12 थी, इनमें आंडाल/आंदाल नाम की एक महिला संत भी थी) नयनार (ये शैव संत थे और भगवान शिव को अपना आराध्य मानते थे। इनकी कुल संख्या 63 थी)
आचार्यों द्वारा,
महाराष्ट्र में वारकरी संप्रदाय (ज्ञानेश्वर, नामदेव, एकनाथ, तुकाराम),
उत्तर भारत में रामानंद, वल्लभाचार्य,
बंगाल में चैतन्य,
असम में शंकरदेव,
उड़ीसा में पंचसखा (बलराम, अनंददास, यशोवंतदास, जगन्नाथदास, अच्युतानंद) के द्वारा भक्ति आंदोलन को स्थापित किया तथा आगे बढ़ाया गया।
दक्षिण भारत से भक्ति को उत्तर भारत लाने का श्रेय रामानंद को है।
भक्ति काल को हिंदी साहित्य का स्वर्णकाल कहने वाले विद्वान ― जॉर्ज ग्रियर्सन।
भक्ति काल को हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग कहने वाले विद्वान ― बाबू श्यामसुन्दरदास
कथन ― “जिस युग में कबीर, जायसी, सूर और तुलसी जैसे सुप्रसिद्ध कवियों और महात्माओं की दिव्य वाणी उनके अन्तःकरण से निकलकर देश के कोने-कोने में फैली थी, उसे साहित्य के इतिहास में सामान्यतया भक्तियुग कहते हैं। निश्चय ही यह हिन्दी साहित्य का स्वर्णयुग है।”
इस संदर्भ में डॉ. गंगाप्रसाद पाण्डेय का यह मत भी द्रष्टव्य है –
“यदि भक्तिकाव्य को ही साहित्य मान लिया जाये तो यह काल हिन्दी साहित्य का तथा सारे विश्व साहित्य का निश्चय ही स्वर्णयुग है ।”
प्लेटो का अनुकरण सिद्धांत – Imitation Theory of Plato
यह आलेख प्लेटो का अनुकरण सिद्धांत, प्लेटो का काव्य सिद्धांत, काव्य अनुकरण सिद्धांत, अरस्तु एवं प्लेटो के अनुकरण सिद्धांत में अंतर के बारे जानकारी देगा।
अनुकरण शब्द अंग्रेजी भाषा के ‘इमिटेशन’ (IMITATION) का हिंदी रूपांतरण है।
‘इमिटेशन’ शब्द यूनानी (ग्रीक) भाषा के ‘मिमेसिस’ (MIMESIS) का अंग्रेजी रूपांतरण है।
अनुकरण का सामान्य अर्थ एवं परिभाषा
इसका सामान्य अर्थ– नकल, प्रतिलिपि या प्रतिच्छाया है।
इसका मान्य अर्थ– “अभ्यास के लिए लेखकों और कवियों को उपलब्ध उत्कृष्ट रचनाओं का अध्ययन अनुसरण करना है।”
ग्रीक दार्शनिक एवं विचारक प्लेटो ने अपनी पुस्तक ‘रिपब्लिक’ में काव्य को मूल प्रत्यय के अनुकरण का अनुकरण कहा है।
प्लेटो ने अनुकरण को अलग-अलग अर्थों में प्रयोग किया है। प्लेटो ने इसका प्रयोग सस्ती, घटिया और त्रुटिपूर्ण अनुकृति (नकल) के रूप में किया है।
कहीं अनुकरण को सभी कलाओं की मौलिक विशेषता बताया है तो कहीं कल्पना तथा रचनात्मक शक्ति के अर्थ में प्रयोग किया है।
प्लेटो ने संसार को ईश्वर की अनुकृति (नकल) बताया है तथा काव्य को संसार की अनुकृति (नकल) कहा है।
प्लेटो की मान्यता है कि कवि अनुकृति (नकल) की अनुकृति (नकल) करता है।
डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त- ‘‘प्लेटो ने कविता को अनुकृति बताकर काव्य-मीमांसा के क्षेत्र में एक ऐसे सिद्धांत की प्रतिष्ठा की जो परवर्ती युग में विकसित होकर काव्य-समीक्षा का आधार बना।’’
अनुकरण संबंधी प्लेटो की मान्यताएं
ईश्वर सृष्टा है उसके द्वारा रचित प्रत्यय जगत् ही सत्य है।
वस्तु जगत्, प्रत्यय जगत् की अनुकृति/नकल या छाया है अतः मिथ्या या असत्य है अर्थात सांसारिक वस्तुएं ईश्वरी संसार की नकल करके बनाई गई हैं अतः यह असत्य है।
संसार का सत्य केवल ईश्वरीय या प्रत्यय जगत है।
कला जगत् वस्तु जगत् का अनुकरण है, अतः यह अनुकरण का भी अनुकरण है।
अतः और भी मिथ्या है/असत्य हैं। कलाकार अनुकर्ता (नकल करने वाला) है।
प्लेटो द्वारा काव्य पर लगाए गए आरोप : प्लेटो का अनुकरण सिद्धांत
काव्य अनुकृति (नकल) की अनुकृति (नकल) है।
कवि अज्ञानी तथा अज्ञान का प्रसारक भी है।
काव्य क्षुद्र (हीन) मानवीय भावों और कल्पना पर आधारित होता है।
कलात्मक रचनाएं समाज के लिए अनुपयोगी है।
काव्य है वासनामय भावों को जगाता है।
कवि समाज में अनाचार एवं दुर्बलता का पोषण करने का अपराधी है।
प्लेटो ऐसी कविताओं को महत्त्वपूर्ण, उचित एवं प्रभावोत्पादक मानता है जिसमें वीर पुरुषों की गाथा हो या देवताओं के श्लोक हों।
यूनानी मूल शब्द ‘कथार्सिस’ (Catharsis) का हिंदी रूपांतरण विरेचन शब्द है।
उक्त दोनों शब्द अपनी-अपनी भाषाओं में चिकित्सा शास्त्र के परिभाषिक शब्द है।
विरेचन का अर्थ
‘विरेचन’ का शाब्दिक अर्थ– रेचन, दस्त, अतिसार, प्रवाहिका, साफ हो जाना, खाली होना आदि है।
साहित्य अथवा काव्य कला के संदर्भ में विरेचन का अर्थ है- दूषित विचारों का निष्कासन या शुद्धि।
वस्तुतः विरेचन का अर्थ बाह्य विकारों की उत्तेजना और उसके शमन के द्वारा मन की शुद्धि और शांति है।
भारतीय विद्वानों का मत
डॉ. नगेंद्र-“मनोविकारों का उद्रेक और उसके शमन से उत्पन्न मनःशांति विरेचन है।”
डॉ.बच्चन सिंह-“अरस्तु के अनुसार प्रेक्षकों को आनंद की अनुभूति करना त्रासदी का प्रयोजन है इस दृष्टि से विरेचन सिद्धांत पर भारतीय काव्यशास्त्र के रस सिद्धांत के निकट है।”
डॉ. गणपति चंद्रगुप्त-“विरेचन एक अपूर्ण सिद्धांत है जो केवल दुखांत रचनाओं पर ही लागू होता है किंतु अरस्तु के व्याख्याता इसे परिपूर्ण सिद्धांत के रूप में ग्रहण करके व्याख्या करने का प्रयास करते हैं।”
विरेचन की विशेषताएं
विरेचन और द्रवण त्रासदी द्वारा ही हो सकता है।
घटनाओं तथा नायक के चयन में बड़ी सावधानी अपेक्षित है।
इसके लिए भय और करुणा के भाव के सम्यक नियोजन और प्रदर्शन आवश्यक है।
विरेचन से अरस्तु का अभिप्राय मनोविकारों के उद्रेक और उसके शमन से उत्पन्न मनःशांति तक ही सीमित माना है, जो उचित है।- डॉ. नगेंद्र
विरेचन सिद्धांत : विविध व्याख्या
1. धर्मपरक व्याख्या-
यह विरेचन सिद्धांत की सर्वप्रथम व्याख्या है।
प्रोफेसर गिलबर्ट मर्रे इस प्रकार की व्याख्या करने वाले प्रमुख व्याख्याकार हैं।
डॉ. नगेंद्र के अनुसार “यूनान की धार्मिक संस्थाओं में बाह्य विकारों द्वारा आंतरिक विकारों की शांति उनके शमन का उपाय अरस्तु को ज्ञात था और संभव है वहां से उन्हें विरेचन सिद्धांत की प्रेरणा मिली।”
प्राचीन यूनान में दीयोन्युसथ नामक देवता से संबद्ध उत्सव अपने आप में एक तरह की शुद्धि का प्रकार था।
इस उत्सव में उन्मादकारी संगीत का प्रयोग किया जाता था, उसे सुनकर सुप्त अवांछित मनोविकार शमित हो जाया करते थे।
2. नीतिपरक व्याख्या-
काश्नेई, रेसीन वारनेज आदि ने विरेचन का नीतिपरक अर्थ किया है।
उनके अनुसार मनोविकारों की उत्तेजना द्वारा विभिन्न अंतर्वृत्तियों का समन्वय या मन की शांति और परिष्कृति ही विरेचन है।
डॉ नगेंद्र के अनुसार “विरेचन से अरस्तु का अभिप्राय मनोविकारों के उद्रेक और उसके शमन से उत्पन्न मनःशांति तक ही सीमित माना है जो उचित है।”
3. चिकित्सापरक व्याख्या-
वर्जिज, डेचेज के अनुसार रेचक द्वारा उदर की शुद्धि होती है, उसी प्रकार त्रासदी का विरेचन मन को शुद्ध करता है।
वह त्रास और करुणा को बहिर्गत करता हुआ दर्शकों को विशेष प्रकार की शांति की अनुभूति कराता है।
4. कलापरक/सौंदर्यपरक व्याख्या-
प्रो. बूचर के अनुसार “त्रासदी का कार्य केवल करुणा एवं त्रास के लिए अभिव्यक्ति का माध्यम प्रस्तुत करना नहीं है बल्कि उन्हें एक सुनिश्चित कलात्मक परितोष प्रदान करना है। उन्हें कला के माध्यम से ढालकर परिष्कृत तथा स्पष्ट करना है।
भारतीय काव्यशास्त्र एवं विरेचन सिद्धांत
अनेक आलोचनाओं के बाद भी अरस्तु का विरेचन सिद्धांत अत्यंत उपयोगी है।
विरेचन सिद्धांत की तुलना अभिनवगुप्त के अभिव्यक्तिवाद से की जाती है।
अभिनवगुप्ता तथा अरस्तु दोनों ने ही रसास्वादन अथवा काव्यानंद के मूल में वासनाओं (मानसिक मल) के रेचन की बात स्वीकार की है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल प्रदेश की मुक्त अवस्था के रूप में विरेचन का ही अनुसरण करते हैं।
अरस्तु और अनुकरण (Aristotle and Imitation)-arastu aur anukaran-अनुकरण संबंधी मूल धारणाएं-भारतीय काव्यशास्त्र और अनुकरण-अनुकरण और कलाएं…..
Aristotle के अनुकरण संबंधी विचार प्लेटो से भिन्न है।
अरस्तु अनुकरण का विचार प्लेटो से ही ग्रहण किया, परंतु एक भिन्न रूप में ग्रहण किया है।
Aristotle ने प्लेटो के अनुकरण के त्याज्य, घटिया, सस्ती नकल के रूप को नए रूप और अर्थ में स्वीकार किया है।
अरस्तु अनुकरण का अर्थ हूबहू नकल नहीं मानता है।
Aristotle के अनुसार कला या कविता प्रकृति की पूर्णतया नकल नहीं है।
कवि कला या कविता को जैसे वह हैं वैसे ही प्रस्तुत नहीं करता वरन् वह उसे अच्छे रूप में या हीन रूप में प्रस्तुत करता है।
कला प्रकृति और जीवन का पुनः प्रस्तुतीकरण है।
अरस्तु ने अनुकरण को प्रतिकृति/नकल न मान कर पुनः सृजन अथवा पुनर्निर्माण माना है। उसकी दृष्टि में अनुकरण नकल न होकर सृजन प्रक्रिया है।
अरस्तु की अनुकरण संबंधी मूल धारणाएं
कला प्रकृति की अनुकृति (नकल) है।
कवि को अनुकर्ता (नकल करने वाला) के रूप में तीन प्रकार की विषय वस्तु में से किसी एक का अनुकरण (नकल) करना चाहिए- I. जैसी वे थी या हैं। II. जैसी वे कही या समझी जाती है। III. जैसी वे होनी चाहिए।
अरस्तु के अनुसार कलाकृति के रूप में वह अनुकृति (नकल) महत्त्वपूर्ण है जो वस्तुओं/घटनाओं को जैसी होना चाहिए वैसी चित्रित कर देती है।
हू ब हू अनुकृति (नकल) का संबंध इतिहासकार और इतिहास के साथ होता है। इतिहास का संबंध जो घटित हुआ है उसके साथ होता है। इतिहास विशिष्ट सत्य की अभिव्यक्ति में प्रवृत्त होता है। कलात्मक अनुकृति का संबंध कवि (कलाकार) और काव्यकृति (कलाकृति) के साथ होता है। कवि का संबंध जो घटित हो सकता है उसके साथ होता है। काव्य विश्वात्मक (सत्य) की अभिव्यक्ति में प्रवृत्त होता है
अनुकरण में आत्म तत्व का प्रकाशन निहित होता है। आनंद की उपलब्धि आत्मप्रकाश के बिना संभव नहीं है।
काव्य में कवि अनुकर्ता है। वह प्रकृति के तीन रूपों में किसी एक का अनुकरण करता है- I. प्रतीयमान रूप (जैसा अनुकर्ता को प्रतीत हो अर्थात वस्तु जैसी वास्तव में है या दिखाई देती है। II. संभाव्य रूप अर्थात जैसा वह हो सकती है। III. आदर्श रूप अर्थात जैसा वह होनी चाहिए आदर्श रूप अनुकर्ता की इच्छा और विचार से पोषित कल्पना की सृष्टि होती है अतः अनुकरण भावात्मक एवं कल्पनात्मक पुनःसृजन का पर्याय है, यथार्थ प्रत्यांकन (केवल नकल) नहीं।
कवि के काव्य का माध्यम भाषा को माना है अतः काव्य भाषा के माध्यम से कलात्मक अनुकृति होती है।
अरस्तु के अनुकरण की व्याख्या एवं अनुकरण का अर्थ
एटकिन्सन- प्रायः पुनःसृजन का दूसरा नाम अनुकरण है।
पॉट्स- अनुकरण का अर्थ जीवन का पुनःसृजन बताते हैं।
स्कॉटजेम्स- साहित्य में जीवन का वस्तुपरक अंकन अर्थात जीवन का कलात्मक पुनर्निर्माण है।
डॉ नगेंद्र- अनुकरण का अर्थ यथार्थ प्रत्यांकन (जैसा है वैसा) मात्र नहीं है। वह पुनःसृजन का प्रयास भी है और उसमें भाव तथा कल्पना का यथेष्ट अंतर्भाव भी है।
एबरक्रोंबी- पुनः प्रस्तुतीकरण ही अनुकरण है।
प्रो. बूचर- मूल वस्तु संबंधी मान्यताओं के चार चरणों का उल्लेख किया है-
कलाकृति मूल वस्तु का पुनरुपादन है।
मूल वस्तु का पुनरुत्पादन तो कलाकृति है ही किंतु मौलिक रूप में न होकर उस रूप में है जैसी वह इंद्रियों को प्रतीत होती है।
कलाकृति जीवन के सामान्य पक्ष का अनुकरण करती है।
अनुकरण किसी एक अर्थ का वाचक नहीं वरन् पुनरुत्पादन, मानस बिंब, जीवन सामान्य तथा आदर्श पक्ष इत्यादि कई तथ्यों का यौगिक पूर्ण अर्थ है।
काव्य में अनुकृति का माध्यम
अरस्तु के अनुसार अनुकृति (नकल) का मध्यम काव्य भाषा है, जिसके माध्यम से कलात्मक अनुकृति होती है।
अनुकृति (नकल) के लिए केवल छंद ही माध्यम नहीं है, भाषा का कोई भी रूप काव्य में अनुकृति का माध्यम हो सकता है।
अनुकृति के विषय
काव्य में मानवीय क्रियाकलापों का अनुकरण होता है अतः अनुकरण का विषय व्यक्ति होते हैं।
ये व्यक्ति उच्च कोटि के या हीनतर/निम्न कोटि के हो सकते हैं।
काव्य में अनुकृति की विधि/विधान
अरस्तु ने अनुकृति के विषय के प्रस्तुतीकरण के लिए तीन शैलियों का उल्लेख किया है-
प्रबंधात्मक शैली- पात्रों को जीवित जागृत प्रस्तुत करता है।
अभिव्यंजनात्मक शैली- प्रारंभ से अंत तक एक जैसा रूप रखें।
नाट्य शैली- समस्त पात्रों को नाट्य शैली में प्रस्तुत करे।
अनुकरण और कलाओं का वर्गीकरण
प्लेटो ने कलाओं को दो वर्गों- ललित कला और उपयोगी कला में बांटा है जबकि अरस्तू ने इसे एक ही माना है।
अरस्तु ने ललित कलाओं को अनुकरणात्मक कला का नाम दिया है और इसे उत्कृष्ट कला कहा है।
मानव जीवन के विविध रूप ही इसके विषय है -अरस्तु के अनुसार।
ये मनुष्य के भावों, विचारों और कार्यों को अभिव्यक्त करती है।
काव्य, नृत्य और संगीत अनुकरणात्मक कलाएं हैं। काव्य कला ही श्रेष्ठ कला है।
अरस्तु ने कला की स्वतंत्र सत्ता स्थापित की।
कला को नीति शास्त्र और दर्शनशास्त्र के पिंजरे से मुक्त करवाया और सौंदर्यवाद की प्रतिष्ठा की।
आलोचना : अरस्तु और अनुकरण (Aristotle and Imitation)
वस्तु पर भाव तत्वों पर अधिक बल देता है आंतरिकता पर नहीं।
क्रोचे के अनुसार अनुकरण नकल कला सृजन में कोई महत्त्वपूर्ण वस्तु नहीं है। जबकि अरस्तु के अनुसार अनुकरण ही कला है।
अरस्तु ने अपने अनुकरण सिद्धांत के लिए ‘माईमैसिस’ या ‘इमिटेशन’ शब्द का प्रयोग किया है, किंतु ऐसे शब्द की परिधि में कल्पनात्मक पुनर्निर्माण, पुनःसर्जन, सर्जना के आनंद की स्थिति इत्यादि शब्द समाहित नहीं होता है।
डॉ. नगेंद्र के अनुसार अरस्तु का अनुकरण सिद्धांत अभावात्मक है, अरस्तु ने काव्य को ‘आत्मा का उन्मेष’ के स्थान पर ‘प्रकृति के अनुक्रम’ पर बल दिया है।
अरस्तु ने सभी विषयों को अनुकार्य माना है परंतु भारतीय परिप्रेक्ष्य में अभिव्यंजना का अनुकरण असंभव है।
वर्तमान समय में अनुकरण के स्थान पर ‘कल्पना’ एवं ‘नवोन्मेष’ शब्द प्रचलित है।
प्लेटो और अरस्तु के अनुकरण सिद्धांत में अंतर
प्लेटो के अनुसार ‘अनुकरण’ शब्द का अर्थ ‘हूबहू नकल’ है जबकि अरस्तु ‘अनुकरण’ का अर्थ पुनःसृजन को मानता है।
काव्य कला के प्रति प्लेटो का दृष्टिकोण नैतिक एवं आदर्शवादी है जबकि अरस्तु का काव्य कला के प्रति सौंदर्यवादी दृष्टिकोण है।
प्लेटो के अनुसार कवि अनुकृति (नकल) की अनुकृति करता है जबकि अरस्तु कला को प्रकृति और जीवन का पुनःप्रस्तुतीकरण मानता है।
प्लेटो के अनुसार कवि अनुकर्ता (नकल करने वाला) है जबकि अरस्तु के अनुसार कवि कर्ता है।
भारतीय काव्यशास्त्र और अनुकरण : अरस्तु और अनुकरण (Aristotle and Imitation)
भारतीय काव्यशास्त्र में भरत मुनि ने सर्वप्रथम अपने ‘नाट्य शास्त्र’ में ‘अनुकरण’ शब्द का प्रयोग किया है।
तीनों लोकों के भावों का अनुकीर्तन ही नाटक में है।
अवस्थानुकृतिर्नाट्यम अर्थात अवस्था की विशेष अनुकृति ही नाटक है।- धनंजय (दशरूपक)।
“अरस्तु का दृष्टिकोण भावात्मक रहा है तथा त्रास और करुणा का विवेचन उसकी चरम सिद्धि रही है।” डॉ. नगेंद्र
ग्रियर्सन की पुस्तक ‘ द मॉडर्न वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ़ नॉर्दर्न हिन्दुस्तान’ को ‘बड़ा वृत संग्रह’ कहा है।
‘शिवसिंह सरोज’ व ‘इस्त्वार द ला लितरेत्युर ऐन्दुई-ऐ-ऐन्दुस्तानी’ रचना को ‘वृत संग्रह’ मात्र कहा है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘मिश्रबंधु विनोद’ पुस्तक को ‘बड़ा भारी कवि वृत संग्रह/ प्रकांड कवि वृत्त संग्रह’ तथा मित्र बंधुओं को ‘परिश्रमी संकलनकर्ता’ कहा है।
इन्होनें ‘क्रोचे’ के ‘अभिव्यंजनावाद’ एवं ‘कुंतक’ के ‘वक्रोक्तिवाद’ का तुलनात्मक विवेचन करके अभिव्यंजनावाद को भारतीय वक्रोक्तिवाद का ‘विलायती उत्थान ‘ कहा है।
शुक्ल ने कबीर की भाषा को ‘सधुक्कड़ी भाषा’ कहा।
“साधना के क्षेत्र में जो ब्रह्मा है साहित्य के क्षेत्र में वही रहस्यवाद है।”
आचार्य शुक्ल ने सूफी कवियों की प्रेम पद्धति में ‘प्रेम की पीर’ को महत्त्वपूर्ण माना है।
‘तुलसी’ को हिंदी का सर्वश्रेष्ठ कवि सिद्ध किया है।
सूरदास को ‘जीवनोत्सव का कवि’ कहा तथा इसके भ्रमरगीत को ‘ध्वनि काव्य” की संज्ञा दी।
शुक्ल ‘रासपंचाध्यायी’ रचना पर नंददास को ‘जड़िया कवि’ की उपाधि प्रदान की।
रामचन्द्र शुक्ल के महत्त्वपूर्ण कथन
शुक्ल पद्मावती में रतन सेन द्वारा पद्मावती को प्राप्त करने की इच्छा को प्रेम न कहकर ‘रूप लोभ’ की संज्ञा दी।
“सूरदास किसी चली आती हुई गीति काव्य परंपरा का चाहे वह मौखिक ही रही हो पूर्ण विकास सा प्रतीत होता है।”
“सूरदास की भक्ति का मेरुदंड पुष्टीमार्ग ही है।”
“सूर वात्सल्य और वात्सल्य सूर।”
आचार्य शुक्ल और डॉ. रामकुमार वर्मा ने विद्यापति को ‘शुद्ध श्रृंगारी’ कवि माना है।
घनानंद को ‘लाक्षणिक मूर्तिमत्ता’ और ‘प्रयोग वैचित्र्य का कवि’ तथा ‘साक्षात् रस मूर्ति’ का कवि कहा है।
“हिंदी में लक्षण ग्रंथों की परिपाटी पर रचना करने वाले जो सैकड़ों कवि हुए हैं वह आचार्य कोटि में नहीं आवे, वे कवि ही है।”
“भाषा के लक्ष्य एवं व्यंजक बल की सीमा कहां तक है इसकी पूरी परख घनानंद को ही थी।”
बिहारी के बारे में कहा- “इनके दोहे क्या है रस के छोटे-छोटे छींटेे हैं।”
शुक्ल ने भूषण की भाषा की आलोचना की है।
रामचन्द्र शुक्ल के महत्त्वपूर्ण कथन
बोधा को ‘रसोन्मत’ कवि कहा है।
मैथलीशरण गुप्त को ‘सांमजस्यवादी कवि’ कहा है।
श्रीधर पाठक को ‘स्वच्छंदतावाद’ का प्रवर्तक माना है।
सदासुखलाल नियाज को हिंदी गद्य का प्रवर्तक माना है।
आचार्य शुक्ल ने छायावाद को ‘मधुचर्या’ कहा है।
आचार्य शुक्ल ने छायावाद को ‘अभिव्यंजनावाद का विलायती संस्करण माना है।’
पंत को छायावाद का प्रतिनिधि वह प्रथम कवि माना है।
“यदि प्रबंध काव्य एक विस्तृत वनस्थली है तो मुक्तक एक चुना हुआ गुलदस्ता।”
रामचन्द्र शुक्ल के महत्त्वपूर्ण कथन
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के रीतिकालीन कवियों के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण कथन
“इनकी भाषा ललित और सानुप्रास होती थी”- चिंतामणि त्रिपाठी के लिए।
“भाषा चलती होने पर भी अनुप्रासयुक्त होती थी”- बेनी के लिए।
“इस ग्रंथ को इन्होंने वास्तव में आचार्य के रूप में लिखा है, कवि के रुप में नहीं”- भाषा भूषण ग्रंथ (महाराजा जसवंत सिंह) के लिए।
“इसका एक-एक दोहा हिंदी साहित्य में एक-एक रत्न माना जाता है”- बिहारी सतसई के लिए।
“इसमें तो रस के ऐसे छींटे पडते हैं जिनसे हृदयकलिका थोड़ी देर के लिए खिल उठती है”- बिहारी सतसई के लिए।
“यदि प्रबंध काव्य एक विस्तृत वनस्थली है तो मुक्तक एक चुना हुआ गुलदस्ता है”- बिहारी सतसई के लिए।
“जिस कवि में कल्पना की समाहार शक्ति के साथ भाषा की समाहार शक्ति जितनी अधिक होगी उतनी ही वह मुक्तक की रचना में सफल होगा”- बिहारी के लिए।
“बिहारी की भाषा चलती होने पर भी साहित्यिक है।” बिहारी के लिए।
“कविता उनकी श्रृँगारी है, पर प्रेम की उच्च भूमि पर नहीं पहुंचती, नीचे ही रह जाती है”- बिहारी के लिए ।
“भाषा इनकी बड़ी स्वाभाविक, चलती और व्यंजना पूर्ण होती थी”- मंडन के लिए।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के रीतिकालीन कवियों के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण कथन
“इनका सच्चा कवि हृदय था”- मतिराम के लिए।
“रीतिकाल के प्रतिनिधि कवियों में पद्माकर को छोड़ और किसी कवि में मतिराम की सी चलती भाषा और सरल व्यंजना नहीं मिलती”-मतिराम के लिए।
“उनके प्रति भक्ति और सम्मान की प्रतिष्ठा हिंदू जनता के हृदय में उस समय भी थी और आगे भी बराबर बनी रही या बढ़ती गई”- भूषण के लिए।
“भूषण के वीर रस के उद्गार सारी जनता के हृदय की संपत्ति हुए”- भूषण के लिए।
“जिसकी रचना को जनता का हृदय स्वीकार करेगा उस कवि की कीर्ति तब तक बराबर बनी रहेगी, जब तक स्वीकृति बनी राहेगी”- भूषण के लिए।
“शिवाजी और छत्रसाल की वीरता का वर्णनों को कोई कवियों की झूठी खुशामद नहीं कह सकता”- भूषण के लिए।
“वे हिंदू जाति के प्रतिनिधि कवि हैं।”- भूषण के लिए।
“छंदशास्त्र पर इनका-सा विशद निरूपण और किसी कवि ने नहीं किया है”- सुखदेव मिश्र के लिए।
“ये आचार्य और कवि दोनों रूपों में हमारे सामने आते हैं”- देव के लिए।
“कवित्वशक्ति और मौलिकता देव में खूब थी पर उनके सम्यक स्फूर्ण में उनकी रुचि विशेष प्रायः बाधक हुई है”- देव के लिए।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के रीतिकालीन कवियों के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण कथन
“रीतिकाल के कवियों में ये बड़े ही प्रगल्भ और प्रतिभासंपन्न कवि थे, इसमें संदेह नहीं”- देव के लिए।
“श्रीपति ने काव्य के सब अंगों का निरूपण विशद रीति से किया है।”
“इनकी रचना कलापक्ष में संयत और भावपक्ष में रंजनकारिणी है”- भिखारी दास के लिए।
“ऐसा सर्वप्रिय कवि इस काल के भीतर बिहारी को छोड दूसरा नहीं हुआ है। इनकी रचना की रमणीयता ही इस सर्वप्रियता का एकमात्र कारण है”- पद्माकर के लिए।
“रीतिकाल की सनक इन में इतनी अधिक थी कि इन्हें यमुना लहरी नामक देव स्तुति में भी नवरस और षट् ऋतु सुझाई पड़ी है”- ग्वाल कवि के लिए।
“षट् ऋतुओं का वर्णन इन्होंने विस्तृत किया है पर वही श्रृंगारी उद्दीपन के ढंग का”- ग्वाल कवि के लिए।
“ग्वाल कवि ने देशाटन अच्छा किया था और उन्हें भिन्न-भिन्न प्रांतों की बोलियों का अच्छा ज्ञान हो गया था।”
अब तक पाई गई पुस्तको में यह ‘भाषा योगवासिष्ठ’ ही सबसे पुराना है, जिसमें गद्य अपने परिष्कृत रूप में दिखाई पड़ता है।”
“भाषा योगवासिष्ठ को परिमार्जित गद्य की प्रथम पुस्तक और रामप्रसाद निरंजनी को प्रथम प्रौढ़ गद्य लेखक मान सकते हैं।”
“जिस प्रकार वे अपनी अरबी-फारसी मिली हिंदी को ही उर्दू कहते थे, उसी प्रकार संस्कृत मिली हिंदी को भाखा”- इंशा अल्ला ख़ाँ के लिए।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के रीतिकालीन कवियों के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण कथन
“अभी हिंदी में कविता हुई कहाँ, सूर, तुलसी, बिहारी आदि ने जिसमें कविता की है, वह तो भाखा है, हिंदी नहीं”- बाबू अयोध्याप्रसाद खत्री का कथन।
“आरंभिक काल के चारों लेखकों में इंशा की भाषा सबसे चटकीली, मटकीली, मुहावरेदार और चलती है।”
“असली हिंदी का नमूना लेकर उस समय राजा लक्ष्मणसिंह ही आगे बढ़े।”
“इससे भी बड़ा काम उन्होंने यह किया कि साहित्य को नवीन मार्ग दिखाया और वे उसे शिक्षित जनता के सहचर्य में ले आए”- भारतेंदु हरिश्चंद्र के लिए।
“प्रेमघन में पुरानी परंपरा का निर्वाह अधिक दिखाई पड़ता है”- यहां पुरानी परंपरा से मतलब भाषा से हैं।
“विलक्षण बात यह है कि आधुनिक गद्य साहित्य की परंपरा का प्रवर्तन नाटकों से हुआ।”
“अंग्रेजी ढंग का मौलिक उपन्यास पहले-पहले हिंदी में लाला श्रीनिवास दास का परीक्षा गुरु निकला था।”
भारतेंदु हरिश्चंद्र की भाषा को “हरिश्चंद्री हिंदी” कहा है- आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने।
शुक्ल ने भारतेंदु के नाटक “सत्य हरिश्चंद्र” को बांग्ला से अनुदित नाटक माना है।
“वे सिद्ध वाणी के अत्यंत सरल हृदय कवि थे।”- भारतेंदु हरिश्चंद्र के लिए।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के रीतिकालीन कवियों के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण कथन
“अपनी सर्वतोन्मुखी प्रतिभा के बल से एक ओर तो वे पद्माकर, द्विजदेव की परंपरा में दिखाई पड़ते थे, दूसरी ओर बंग देश के मायकेल एवं हेमचंद्र की श्रेणी में”- भारतेंदु हरिश्चंद्र के लिए।
“प्राचीन और नवीन का ही सुंदर सामंजस्य भारतेंदु की कला का विशेष माधुर्य है।”
“श्रीयुत्पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी ने पहले पहल विस्तृत आलोचना का रास्ता निकाला।”
“आलस्य का जैसा त्याग उपन्यासकारों में देखा गया है वैसा और किसी वर्ग के हिंदी लेखकों में नहीं।”
“पहले मौलिक उपन्यास लेखक जिनके उपन्यासों की सर्वसाधारण में धूम हुई काशी के बाबू देवकीनंदन खत्री थे।”
“ये वास्तव में घटना-प्रधान कथानक या किस्से हैं जिनमें जीवन के विविध पक्षों के चित्रण का कोई प्रयत्न नहीं, इससे ये साहित्य कोटि में नहीं आते हैं।”- देवकीनंदन खत्री के उपन्यासों के लिए।
“उन्होंने साहित्यिक हिंदी ना लिखकर हिंदुस्तानी लिखी जो केवल इसी प्रकार की हल्की रचनाओं में काम दे सकती है।”- देवकीनंदन खत्री के लिए।
“उपन्यासों का ढेर लगा देने वाले दूसरे मौलिक उपन्यासकार पंडित किशोरीलाल गोस्वामी हैं, जिनकी रचनाएं साहित्य कोटी में आती है।”
“साहित्य की दृष्टि से उन्हें हिंदी का पहला उपन्यासकार कहना चाहिए।”- पंडित किशोरीलाल गोस्वामी के लिए।
“यदि इंदुमति किसी बंगला कहानी की छाया नहीं है तो हिंदी की यही पहली मौलिक कहानी ठहरती है। इसके उपरांत ग्यारह वर्ष का समय, फिर दुलाईवाली का नंबर आता है।”
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के रीतिकालीन कवियों के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण कथन
“यदि गद्य कवियों या लेखकों की कसौटी है तो निबंध गद्य की कसौटी है।”
“भाषा की पूर्ण शक्ति का विकास निबंधों में ही सबसे अधिक संभव होता है।”
आचार्य शुक्ल ने ‘उसने कहा था’ कहानी को अद्वितीय कहानी माना है।
“इसके पक्के यथार्थवाद के बीच, सुरुचि की चरम मर्यादा के भीतर, भावुकता का चरम उत्कर्ष अत्यंत निपुणता के साथ संपुटित है। घटना इसकी ऐसी है जैसे बराबर हुआ करती है, पर उसमें भीतर से प्रेम का एक स्वर्गीय स्वरूप झांक रहा है- केवल झांक रहा है। निर्लज्जता के साथ पुकार या कराह नहीं रहा है।”- उसने कहा था कहानी के लिए।
“इसकी घटनाएं ही बोल रही है, पात्रों के बोलने की अपेक्षा नहीं”- उसने कहा था कहानी के लिए।
आचार्य शुक्ल ने महावीर प्रसाद दिवेदी के लेखों को “बातों के संग्रह” कहा है।
“दिवेदी जी के लेखों को पढ़ने से ऐसा जान पड़ता है कि लेखक बहुत मोटी अक्ल के पाठकों के लिए लिख रहा है।”
“पंडित गोविंदनारायण मिश्र के गद्य को समास अनुप्रास में गुँथे शब्दगुच्छों का एक अटाला समझिए।”
“उनके अधिकांश लेख भाषण मात्र है, स्थाई विषयों पर लिखे हुए निबंध नहीं।”- पंडित जगन्नाथप्रसाद चतुर्वेदी के लिए।
“यह बेधड़क कहा जा सकता है कि शैली कि जो विशिष्टता और अर्थ गर्भित वक्रता गुलेरी जी में मिलती है और किसी लेखक में नहीं।”
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के रीतिकालीन कवियों के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण कथन
“समालोचना के दो प्रधान वर्ग होते हैं- निर्णयात्मक और व्याख्यात्मक।”
“इन पुस्तकों को एक मुहल्ले में फैली बातों से दूसरे मुहल्ले वालों को कुछ परिचित कराने के प्रयत्न के रूप में समझना चाहिए, स्वतंत्र समालोचना के रूप में नहीं।”- महावीर प्रसाद द्विवेदी की आलोचनात्मक पुस्तको के लिए।
यदपि द्विवेदी जी ने हिंदी के बड़े-बड़े कवियों को लेकर गंभीर साहित्य समीक्षा का स्थाई साहित्य नहीं प्रस्तुत किया पर नई निकली पुस्तकों की भाषा आदि की खरी आलोचना करके हिंदी साहित्य का बडा भारी उपकार किया। यदि द्विवेदीजी ना उठ खड़े होते तो जैसी अव्यवस्थित व्याकरण विरूद्ध और उटपटांग भाषा चारों ओर दिखाई पड़ती थी, उसकी परंपरा जल्दी ना रूकती। उसके प्रभाव से लेखक सावधान हो गए और जिनमें भाषा की समझ और योग्यता थी उन्होंने अपना सुधार किया।”
“प्रसाद जी ने अपना क्षेत्र प्राचीन हिंदू काल के भीतर चुना और प्रेमी जी ने मुस्लिम काल के भीतर। प्रसाद के नाटकों में स्कंदगुप्त श्रेष्ठ है और प्रेमी के नाटकों में रक्षाबंधन।”
“केवल प्रो नगेंद्र की सुमित्रानंदन पंत पुस्तक ही ठिकाने की मिली”- छायावाद की आलोचना के संबंध में।
“काव्य अधिकतर भावव्यंजनात्मक और वर्णनात्मक है”- अयोध्यासिंह उपाध्याय के लिए।
“गुप्त जी वास्तव में सामंजस्यवादी कवि है; प्रतिक्रिया का प्रदर्शन करने वाले अथवा मद में झूमाने वाले कवि नहीं है। सब प्रकार की उच्चता से प्रभावित होने वाला हृदय उन्हें प्राप्त है। प्राचीन के प्रति पूज्य भाव और नवीन के प्रति उत्साह दोनों इनमें है।”- मैथिली शरण गुप्त के लिए।
“छायावाद का सामान्यतः अर्थ हुआ प्रस्तुत के स्थान पर उसकी व्यंजना करने वाली छाया के रुप में अप्रस्तुत का कथन।”
“छायावाद का केवल पहला अर्थात मूल अर्थ लिखकर तो हिंदी काव्यक्षेत्र में चलने वाली श्री महादेवी वर्मा ही है।”
“उनका जीवन क्या था; जीवन की विषमता का एक छाँटा हुआ दृष्टांत था।”- पंडित सत्यनारायण कविरत्न के लिए।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के रीतिकालीन कवियों के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण कथन
“उसका प्रधान लक्ष्य काव्यशैली की ओर था, वस्तु विधान की ओर नहीं। अर्थभूमि या वस्तुभूमि का तो उसके भीतर बहुत संकोच हो गया।”- छायावाद के लिए।
“हिंदी कविता की नई धारा का प्रवर्तक इन्हीं को- विशेषतः श्री मैथिलीशरण गुप्त और श्री मुकुटधर पांडेय को समझना चाहिए।”- छायावाद के लिए।
“असीम और अज्ञात प्रियतम की प्रति अत्यंत चित्रमय भाषा में अनेक प्रकार के प्रेमोद्गारों तक ही काव्य की गतिविधि प्रायः बंध गई।”- छायावाद के लिए।
“छायावाद शब्द का प्रयोग रहस्यवाद तक ही ना रहकर काव्यशैली के संबंध में भी प्रतीकवाद (सिंबालिज्म) के अर्थ में होने लगा।”
आचार्य शुक्ल ने “छायावाद को चित्रभाषा या अभिव्यंजन पद्धति कहा है।
“छायावाद शब्द का प्रयोग दो अर्थों में समझना चाहिए। एक तो रहस्यवाद के अर्थ में, जहां उसका संबंध काव्य वस्तु से होता है अर्थात जहां कवि उस अनंत और अज्ञात प्रियतम को आलंबन बनाकर अत्यंत चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है। छायावाद शब्द का दूसरा प्रयोग काव्यशैली या पद्धती विशेष की व्यापक अर्थ में हैं।
“पंत, प्रसाद, निराला इत्यादि और सब कवि प्रतीकपद्धति या चित्रभाषा शैली की दृष्टि से ही छायावादी कहलाए।”
“अन्योक्तिपद्धति का अवलंबन भी छायावाद का एक विशेष लक्षण हुआ।”
“छायावाद का चलन द्विवेदी काल की रूखी इतिवृत्तात्मकता की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था।”
“लाक्षणिक और व्यंजनात्मक पद्धति का प्रगल्भ और प्रचुर विकास छायावाद की काव्यशैली की असली विशेषता है।”
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के रीतिकालीन कवियों के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण कथन
“छायावाद की प्रवृत्ति अधिकतर प्रेमगीतात्मक है।”
आचार्य शुक्ल ने जयशंकर प्रसाद की कृति ‘आंसू’ को ‘श्रृंगारी विप्रलंभ’ कहा है।
ज्ञानाश्रयी शाखा और प्रेमाश्रयी शाखा नामकरण आचार्य रामचंद्र शुक्ल की देन है।
“यद्यपि यह छोटा है पर इसकी रचना बहुत सरस और हृदयग्राहिणी है और कवि की भावुकता का परिचय देती है,”- सुदामा चरित (नरोत्तमदास) के लिए।
“वात्सल्य के क्षेत्र में जितना अधिक उद्धाटन सूर ने अपनी बंद आंखों से किया, इतना किसी और कवि ने नहीं। इन क्षेत्रों का तो वे कोना-कोना झांक आए।” सूरदास के लिए।
रामचन्द्र शुक्ल ने भूषण को हिन्दू जाति का प्रतिनिधि कवि कहा है, छत्रशाल और शिवाजी की वीरतापूर्ण रचनाओं के कारण।
आचार्य शुक्ल में घनानंद को साक्षात रस मूर्ति कहा है।
“प्रेम मार्ग का ऐसा प्रवीण और वीर पथिक तथा जंबादानी का दावा रखने वाला ब्रजभाषा का दूसरा कवि नहीं हुआ।”- घनानंद के लिए।
“भाषा के लक्षक एवं व्यंजक बल की सीमा कहां तक है इसकी पूरी परख इन्हीं को थी।”- घनानंद के लिए।
“रीतिकाल के कवियों में यह बड़े ही प्रतिभा संपन्न कवि थे।”- देव के लिए।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के रीतिकालीन कवियों के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण कथन
आचार्य शुक्ल के अनुसार बोधा एक रसिक कवि थे।
हिंदी रीति ग्रंथों की अखंड परंपरा एवं रीति काल का आरंभ आचार्य शुक्ल चिंतामणि से मानते हैं।
केशव को “कठिन काव्य का प्रेत” शुक्ल ने उनकी क्लिष्टता के कारण कहा है।
शुक्ल ने प्रथम आचार्य चिंतामणि को माना है।
रीतिकाल नामकरण आचार्य शुक्ल का दिया हुआ है। उन्होंने मध्यकाल के दूसरे भाग को रीतिकाल कहा है।
आचार्य शुक्ल ने प्रताप नारायण मिश्र और बालकृष्ण भट्ट की तुलना एडिशन और स्टील से की है।
“आलोचना का कार्य है, किसी साहित्यिक रचना की अच्छी तरह परीक्षा करके उसके रूप, गुण और अर्थव्यवस्था का निर्धारण करना”-आचार्य शुक्ल।
भाषा, साहित्य और समाज को एक साथ रखकर मूल्यांकन करने वाले आलोचक माने जाते हैं- आचार्य शुक्ल और रामविलास शर्मा।
चिंतामणि और रसमीमांसा शुक्ल के सैद्धांतिक आलोचना ग्रंथ है।
कविता क्या है?, काव्य में लोकमंगल की साधनावस्था, रसात्मक बोध के विविध रूप, काव्य में प्राकृतिक दृश्य, भारतेंदु हरिश्चंद्र, तुलसी का भक्ति मार्ग, मानस की धर्मभूमि, काव्य में रहस्यवाद आदि शुक्ल के अनमोल रत्न माने जाते हैं।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के रीतिकालीन कवियों के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण कथन
शुक्ल का प्रथम निबंध “साहित्य” है जो 1904 ईस्वी में सरस्वती में प्रकाशित हुआ था।
आचार्य शुक्ल मनोवैज्ञानिक आलोचना के जनक माने जाते हैं।
शुक्ल विचारात्मक निबंधों को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं।
हिंदी आलोचना को साहित्यिक रूप आचार्य शुक्ल ने प्रदान किया।
“हिंदी के पुराने कवियों को समालोचना के लिए सामने लाकर मिश्र बंधुओं ने बेशक बड़ा जरूरी काम किया, उनकी बातें समालोचना कही जा सकती है या नहीं, यह दूसरी बात है।”- आचार्य शुक्ल
आचार्य शुक्ल रसवादी आलोचक माने जाते हैं।
शुक्ल “रस को हृदय की मुक्तावस्था” मानते हैं।
“जिस प्रकार आत्मा की मुक्त अवस्था ज्ञान दसा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्त अवस्था रस दशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती है, उसे कविता कहते हैं,”- आचार्य शुक्ल (कविता क्या है में)
“नाद सौंदर्य से कविता की आयु बढ़ती है”- आचार्य शुक्ल
आचार्य शुक्ल छायावाद के निंदक माने जाते हैं।
रीतिकालीन कवियों के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण कथन
जायसी के पद्मावत को हिंदी का श्रेष्ठ प्रबंध काव्य माना है।
आचार्य ने भक्ति आंदोलन को पराजित मनोवृति का परिणाम और मुस्लिम राज्य की प्रतिष्ठा की प्रतिक्रिया माना है।
आचार्य शुक्ल के अनुसार रीतिकाल को श्रंगारकाल भी कह सकते है।
‘कविता क्या है’, ‘काव्य में लोक मंगल की साधनावस्था’, ‘साधारणीकरण और व्यक्ति वैचियवाद’, आदि निबंध सैद्धांतिक आलोचना के अंतर्गत आते हैं।
भारतेंदु हरिश्चंद्र, तुलसी का भक्ति मार्ग, मानस की धर्म भूमि आदि निबंध व्यावहारिक आलोचना के अंतर्गत आते हैं।
हिन्दी की सैद्धांतिक आलोचना को परिचय और सामान्य विवेचन के धरातल से ऊपर उठाकर गंभीर स्वरुप प्रदान करने का श्रेय शुक्ल जी को ही है।
आचार्य शुक्ल के आदर्श कवि तुलसीदास जी है। उन्होंने जितना अधिक महत्त्व उन्हें दिया तथा जैसा सूक्ष्म विश्लेषण इनके काव्य का किया वैसा वे किसी अन्य कवि का नहीं कर पाए।
श्यामसुंदर दास ने आत्मकथा में यह स्वीकार करते हुए लिखा भी है कि ‘आचार्य शुक्ल ने शब्दसागर बनाया और शब्दसागर ने आचार्य शुक्ल को।’
शुक्ल के इतिहास का ढाँचा चिंतन पर आधारित था।
शुक्ल जी की मृत्यु पर जैसी शोक कविता निराला ने लिखी है, वैसी आज तक किसी की मृत्यु पर नहीं लिखी गई है।
रीतिकालीन कवियों के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण कथन
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कविता क्या है,साहित्य,काव्य में रहस्यवाद आदि निबंधों से सैद्धांतिक समीक्षा का सूत्रपात किया।
शुक्ल ने पहली बार रसविवेचन को मनोवैज्ञानिक आधार दिया।रस मीमांसा में रस के शास्त्रीय विवेचन की मौलिक व्याख्या प्रस्तुत की।
“लोकहृदय में हृदय के लीन होने की दशा का नाम ही रसदशा है।”- शुक्ल
सूरदास को शुक्ल ने प्रेम का ;जिसके अंतर्गत पालन एवं रंजन आते है,कवि माना है और तुलसीदास को करुणा का ;जिसके अंतर्गत लोकरक्षा का भाव आता है।
तुलसीदास शुक्लजी के आदर्श कवि है।तुलसी को ही केंद्रबिंदु में रखकर शुक्लजी ने अपनी आलोचना के मानदंड निश्चित किये।
शुक्लजी के अनुसार रामकथा के भीतर कई स्थल मर्मस्पर्शी है।जिसमें सबसे मर्मस्पर्शी रामवनगमन प्रसंग है।
जायसी को रामचन्द्र शुक्ल ने सूफी कवि होते हुए भी भक्तों की कोटि में परिगणित किया है।
जायसी और सूफी कवियों की जिस विशेषता ने शुक्लजी को सबसे अधिक प्रभावित किया है,वह है- प्रकृति वर्णन।
शुक्लजी श्रीधर पाठक और रामनरेश त्रिपाठी को सही अर्थों में स्वच्छंदतावादी कवि माना है।
आचार्य शुक्लजी छायावाद के आध्यात्मिक रहस्यवादी रूप के विरोधी थे।
रीतिकालीन कवियों के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण कथन
शुक्लजी रहस्यवाद को काव्य के क्षेत्र से बाहर की चीज मानते थे।
आचार्य शुक्ल के इतिहास की सबसे बड़ी उपलब्धि है,उनका काल विभाजन।उन्होंने हिन्दी साहित्य के 900 वर्षों के इतिहास को चार सुस्पष्ट कालखंडों में विभाजित किया है। साथ ही इनका नामकरण भी किया है।
शुक्ल ने केशव को दया विहीन कवि तक कह दिया था।
शुक्लजी ने रीतिमुक्त कवियों को फुटकल कवियों में स्थान दिया था।
आचार्य शुक्ल को हिंदी आलोचना का युग पुरूष कहा जाता है।
“कविता का उद्देश्य हृदय को लोक-सामान्य की भावभूमि पर पहुंचा देना है।” – आ. शुक्ल
‘प्रत्यय बोध, अनुभूति और वेगयुक्त प्रवृत्ति इन तीनों के गूढ संश्लेषण का नाम भाव है।’- आ. शुक्ल
आ. शुक्ल ने लिखा है कि भ्रमरगीत का महत्व एक बात से और बढ गया है। भक्तशिरोमणि सूर ने इसमें सगुणोपासना का निरूपण बडे ही मार्मिक ढंग से – हृदय की अनुभूति के आधार पर तर्क पद्धति पर नहीं – किया है।
‘भक्ति के लिए ब्रह्म का सगुण होना अनिवार्य हैं।’- शुक्ल
शुक्ल ने घनानंद को ब्रजभाषा का मर्मज्ञ कवि बताया है।
रीतिकालीन कवियों के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण कथन
“तुलसीदास उत्तरी भारत की समग्र जनता के हृदय मंदिर में पूर्ण प्रेम प्रतिष्ठा के साथ विराज रहे हैं।”- आचार्य शुक्ल है
“यह एक कवि ही हिंदी को प्रौढ़ साहित्यिक भाषा सिद्ध करने के लिए काफी है।”- तुलसीदास के लिए।
हिंदी कविता की प्रौढ़ता के युग का आरंभ आचार्य शुक्ल तुलसीदास से मानते हैं।
आचार्य शुक्ल तुलसीदास को स्मार्त वैष्णव मानते हैं।
शुक्ल ने पद्मावत की कथा का पूर्वार्द्ध कल्पित और उत्तरार्द्ध ऐतिहासिक माना है।
छायावाद को श्रृगारी कविता आचार्य शुक्ल ने कहा है।
“इसमें कोई संदेह नहीं कि कबीर ने ठीक मौके पर जनता के उस बड़े भाग को संभाला जो नाथ पंथियों के प्रभाव से प्रेम भाव और भक्ति रस से शुन्य, शुष्क पड़ता जा रहा था।”- आचार्य शुक्ल
आचार्य शुक्ल के अनुसार सिद्धों की उद्धृत रचनाओं की भाषा मिश्रित अपभ्रंश या पुरानी हिंदी की काव्य भाषा है।
‘हिन्दी समीक्षा और आचार्य शुक्ल’ के लेखक नामवर सिंह है।
‘शुक्ल जी भारतीय पुनरूत्थान युग की उन परिस्थितयों की उपज थे, जिन्होंने राजनीति में महात्मा गांधी, कविता में रवीन्द्रनाथ ठाकुर, जयशंकर प्रसाद आदि को उत्पन्न किया।’ – नामवर सिंह
रीतिकालीन कवियों के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण कथन
“कथा साहित्य में जो कार्य प्रेमचंद ने किया है, काव्यक्षेत्र में जो कार्य निराला ने किया है; वहीं कार्य आलोचना के क्षेत्र में रामचन्द्र शुक्लजी ने किया है।” रामविलास शर्मा
“आचार्य रामचंद्र शुक्ल हिंदी का गौरव थे समीक्षा क्षेत्र में उनका कोई प्रतिद्वंद्वी ना उनके जीवनकाल में था, ना अब कोई उनके समकक्ष आलोचक है। आचार्य शब्द ऐसे ही कर्त्ता साहित्यकारों के योग्य हैं।”- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन।
भारतीय काव्यालोचन शास्त्र का इतना गंभीर और स्वतंत्र विचारक हिंदी में तो दूसरा हुआ ही नहीं, अन्यान्य भारतीय भाषाओं में भी हुआ है या नहीं, ठीक नहीं कह सकते, शायद नहीं हुआ”- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन।
आचार्य शुक्ल को “हिंदी साहित्य समीक्षा का बालारूण” कहा है- नंददुलारे वाजपेयी ने।
आचार्य शुक्ल को “भवभूति का सम्मानधर्मा आचार्य” कहा है- रामविलास शर्मा ने।
“आज तक की हिंदी समीक्षा में शुक्ल जी आधार स्तंभ है,”- डॉ. भगवत स्वरुप मिश्र।
इनका हृदय कवि का, मस्तिष्क आलोचक का और जीवन अध्यापक का था।”- आचार्य शुक्ल के लिए।
रामचंद्र शुक्ल को हिंदी का एकमात्र आचार्य घोषित किया है- नामवर सिंह ने
“हिंदी समीक्षा को शास्त्रीय और वैज्ञानिक भूमि पर प्रतिष्ठित करने में शुक्ल जी ने युग प्रवर्तक का कार्य किया है। उनका यह कार्य हिंदी के इतिहास में सदैव स्मरणीय रहेगा।”- नंददुलारे वाजपेयी
रामचन्द्र शुक्ल के महत्त्वपूर्ण कथन
प्रसिद्ध कथन
“प्रत्येक देश का साहित्य वहां की जनता की चित्तावृतियों का संचित प्रतिबिंब होता है।”
“हिन्दी साहित्य का आदिकाल संवत 1050 से लेकर संवत 1375 तक अर्थात महाराज भोज के समय से लेकर हम्मीदेव के समय के कुछ पीछे तक माना जा सकता है।”
“जब तक भाषा बोलचाल में थी जब तक वह भाषा या देशभाषा ही कहलाती रही। जब वह भी साहित्य की भाषा हो गई जब उसके लिए अपभ्रंश शब्द का व्यवहार होने लगा।”
“नाथपंथियों के जोगियों की भाषा सधुक्कड़ी थी।”
“सिद्धों की उद्धृत भाषा देश भाषा मिश्रित अपभ्रंश या पुरानी हिन्दी की काव्य भाषा है।”
“कबीर आदि संतों को नाथपंथियों से जिस प्रकार साखी और बानी शब्द मिले, उसी प्रकार साखी और बानी के लिए बहुत कुछ सामग्री और सधुक्कड़ी भाषा थी।”
“वीरगीत के रूप में हमें सबसे पुरानी पुस्तक बीसलदेव रासो मिलती है।”
रामचन्द्र शुक्ल के महत्त्वपूर्ण कथन
“बीसलदेव रासो में काव्य के अर्थ में ‘रसायण’ शब्द बार बार आया है। अतः हमारी समझ में इसी ‘रसायण’ शब्द से होते-होते ‘रासो’ हो गया है।”
“बीसलदेव रासो में आए बारह सौ बहोत्तरा का स्पष्ट अर्थ वि. सं. 1212 है ।”
“यह घटनात्मक काव्य नहीं है, वर्णनात्मक है।” – (बीसलदेव रासो के लिए)
“भाषा की परीक्षा करके देखते हैं तो वह साहित्यिक नहीं है, राजस्थानी है ।” – (बीसलदेव रासो के लिए)
“अपभ्रंश के योग से शुद्ध राजस्थानी भाषा का जो साहित्यिक रूप था, वह डिंगल कहलाता था।”
“इनकी भाषा ललित व सानुप्रास होती थी।” – (चिंतामणि त्रिपाठी के लिए)
“भाषा चलती होने पर भी उनकी भाषा अनुप्रासयुक्त होती थी।” – बेनी के लिए)
“इस ग्रंथ को इन्होंने वास्तव में आचार्य के रूप में लिखा है, कवि के रूप में नहीं। -(भाषाभूषण ग्रंथ, महाराजा जसवंतसिंह के लिए)
“बिहारी की भाषा चलती होने पर भी साहित्यिक है कविता उनकी श्रृंगारी है, पर प्रेम की उच्च भूमि पर नहीं पहुँचती, नीचे ही रह जाती है।” -(बिहारी के लिए)
रामचन्द्र शुक्ल के महत्त्वपूर्ण कथन
“इनका सच्चा कवि हृदय था।” -(मतिराम के लिए)
“उनके प्रेम भक्ति और सम्मान की प्रतिष्ठा हिन्दू जनता के हृदय में उस समय भी थी और आगे भी बराबर बनी रही या बढती रही।” -(भूषण के लिए)
“भूषण के वीर रस के उद्गार सारी जनता के हृदय की संपति हुए ।” (भूषण के लिए)
“शिवाजी और छत्रशाल की वीरता के वर्णनों को कोई कवियों की झूठी खुशामद नहीं कह सकता।” -(भूषण के लिए)
“वे हिन्दू जाति के प्रतिनिधि कवि हैं।” – (भूषण के लिए)
“ये आचार्य और कवि दोनों रूपों में हमारे सामने आते हैं।” – (देव के लिए)
“कवित्व शक्ति और मौलिकता देव में खूब थी, पर उनके सम्यक स्फुर्ण में उनकी रुचि विशेष प्रायः बाधक हुई है।” – (कवि देव के लिए)
“रीतिकाल के कवियों में ये बड़े ही प्रगल्भ और प्रतिभासंपन्न कवि थे, इसमें कोई सन्देह नहीं।” – (कवि देव के लिए)
“श्रीपति ने काव्य के सब अंगों का निरूपण विशद रीति से किया है ।”- (श्रीपति के लिए)
“इनकी रचना कलापक्ष में संयत और भाव पक्ष में रंजनकारिणी।” (भिखारीदास के लिए)
रामचन्द्र शुक्ल के महत्त्वपूर्ण कथन
“ऐसा सर्वप्रिय कवि इस काल के भीतर बिहारी को छोड़ कोई दूसरा नहीं हुआ है । इनकी रचना की रमणीयता ही इस सर्वप्रियता का एकमात्र कारण है।” – (पद्माकर के लिए)
“हृदय की अनुभूति ही साहित्य में रस और भाव कहलाती है।”
“हृदय के प्रभावित होने का नाम ही रसानुभूति है।”
“जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञान दशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रस दशा कहलाती है।”
“हमें अपनी दृष्टि से दूसरे देशों के साहित्य को देखना होगा, दूसरे देशों की दृष्टि से अपने साहित्य को नहीं।”
“प्रेम दूसरों की आँखों से नहीं, अपनी आँखों से देखता है।”
“भक्ति धर्म की रसात्मक अनुभूति है।”
“साहसपूर्ण आनन्द की उमंग का नाम ही उत्साह है ।”
“यदि प्रेम स्वप्न है तो श्रद्धा जागरण है।”
“परिचय प्रेम का प्रवर्तक है।”
“बैर क्रोध का अचार मुरब्बा है।”
आदिकाल के सम्बन्ध में रामचन्द्र शुक्ल के महत्त्वपूर्ण कथन
“इन कालों की रचनाओं की विशेष प्रवृत्ति के अनुसार ही उनका नामकरण किया गया है।”
“हिन्दी साहित्य का आदिकाल संवत् 1050से लेकर संवत् 1375 तक अर्थात महाराज भोज के समय से लेकर हम्मीरदेव के समय के कुछ पीछे तक माना जा सकता है।”
“जब तक भाषा बोलचाल में थी तब तक वह ‘भाषा’ या ‘देशभाषा’ ही कहलाती रही, जब वह भी साहित्य की भाषा हो गई तब उसके लिए ‘अपभ्रंश’ शब्द का व्यहार होने लगा।”
“सिद्धों की उद्धृत रचनाओं की भाषा ‘देशभाषा’ मिश्रित अपभ्रंश या ‘पुरानी हिन्दी ‘ की काव्य भाषा है।”
“सिद्धो में ‘सरह’ सबसे पुराने अर्थात विक्रम संवत् 690 के हैं।”
“कबीर आदि संतों को नाथपंथियों से जिस प्रकार ‘साखी’ और ‘बानी’ शब्द मिले उसी प्रकार साखी और बानी के लिए बहुत कुछ सामग्री और ‘सधुक्कड़ी’ भाषा भी।”
“बीसलदेवरासो में ‘काव्य के अर्थ में रसायण शब्द’ बार-बार आया है। अतः हमारी समझ में इसी ‘रसायण’ शब्द से होते-होते ‘रासो’ हो गया है।”
आदिकाल के सम्बन्ध में रामचन्द्र शुक्ल के महत्त्वपूर्ण कथन
बीसलदेव रासो के बारे में आचार्य शुक्ल ने कहा है, “भाषा की परीक्षा करके देखते हैं तो वह साहित्यिक नहीं है, राजस्थानी है।”
“अपभ्रंश के योग से शुद्ध राजस्थानी भाषा का जो साहित्यिक रूप था वह ‘डिंगल’ कहलाता था।”
चन्दरबरदाई के बारे में आचार्य शुक्ल ने कहा है, “ये हिन्दी के ‘प्रथम महाकवि’ माने जाते हैं और इनका ‘पृथ्वीराज रासो’ हिन्दी का ‘प्रथम महाकाव्य’ है।”
पृथ्वीराज रासो के बारे में आचार्य शुक्ल ने कहा है, “भाषा की कसौटी पर यदि ग्रंथ को कसते हैं तो और भी निराश होना पड़ता है क्योंकि वह बिल्कुल बेठिकाने हैं౼ उसमें व्याकरण आदि की कोई व्यवस्था नहीं है।”
“विद्यापति के पद अधिकतर श्रृंगार के ही है जिनमें नायिका और नायक राधा-कृष्ण है।”
आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं। उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने‘गीत गोविंद’ के पदों को आध्यात्मिक संकेत बताया है, वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी। (विद्यापति के सम्बन्ध में)
“विद्यापति को कृष्ण भक्तों की परम्परा में न समझना चाहिए।”
“मोटे हिसाब से वीरगाथाकाल महाराज हम्मीर की समय तक ही समझना चाहिए।”
भक्तिकाल के सम्बन्ध में रामचन्द्र शुक्ल के महत्त्वपूर्ण कथन
“कबीर ने अपनी झाड़-फटकार के द्वारा हिंदुओं और मुसलमानों की कट्टरता को दूर करने का जो प्रयास किया। वह अधिकतर चिढ़ाने वाला सिद्ध हुआ, हृदय को स्पर्श करने वाला नहीं।”
“इस कहानी के द्वारा कवि ने प्रेममार्ग के त्याग और कष्ट का निरूपण करके साधक के भगवत प्रेम का स्वरूप दिखाया है।” (कुतबन कृत मृगावती के बारे में)
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार, मलिक मुहम्मद जायसी के गुरु थे ౼शेख मोहिदी (मुहीउद्दीन)
“प्रेमगाथा की परम्परा में पद्मावत सबसे प्रौढ़ और सरस है।”
“यहीं प्रेममार्गी सूफी कवियों की प्रचुरता की समाप्ति समझनी चाहिए।” (शेख नबी के बारे में)
“सूफ़ी आख्यान काव्यों की अखंडित परम्परा की यहीं समाप्ति मानी जा सकती है।” (नूर मुहम्मद कृत अनुराग बांसुरी के बारे में)
भक्तिकाल के सम्बन्ध में रामचन्द्र शुक्ल के महत्त्वपूर्ण कथन
“नूर मुहम्मद को हिन्दी भाषा में कविता करने के कारण जगह-जगह इसका सबूत देना पड़ा है कि वे इस्लाम के पक्के अनुयायी थे।”
“इस परम्परा में मुसलमान कवि हुए हैं। केवल एक हिन्दू मिला है।” (आचार्य शुक्ल ने सूरदास की तरफ़ इशारा किया है)
“जनता पर चाहे जो प्रभाव पड़ा हो पर उक्त गद्दी के भक्त शिष्यों ने सुन्दर-सुन्दर पदों द्वारा जो मनोहर प्रेम संगीत धारा बहाई उसने मुरझाते हुए हिंदू जीवन को सरस और प्रफुल्लित किया।”౼श्री बल्लभाचार्य जी के लिए
“सूर की बड़ी भारी विशेषता है नवीन प्रसंगों की उद्भावना।”
“ये बड़े भारी कृष्णभक्त और गोस्वामी विट्ठलनाथ जी के बड़े कृपापात्र शिष्य थे।” (रसखान के बारे में)
“इन भक्तों का हमारे साहित्य पर बड़ा भारी उपकार है।” (कृष्णभक्त कवियों के लिए)
भक्तिकाल के सम्बन्ध में रामचन्द्र शुक्ल के महत्त्वपूर्ण कथन
आचार्य शुक्ल ने केशवदास को भक्ति काल में सम्मिलित किया है।
रामचरितमानस को ‘लोगों के हृदय का हार’ कहा है। (आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने)
“गोस्वामी जी की भक्ति पद्धति की सबसे बड़ी विशेषता है उसकी सर्वांगपूर्णता।”
“रामचरितमानस में तुलसी केवल कवि रूप में ही नहीं, उपदेशक के रूप में भी सामने आते हैं।”
“प्रेम और श्रृंगार का ऐसा वर्णन जो बिना किसी लज्जा और संकोच के सबके सामने पढ़ा जा सके, गोस्वामी जी का ही है।”
“हम निसंकोच कह सकते हैं कि यह एक कवि ही हिन्दी को प्रौढ़ साहित्यिक भाषा सिद्ध करने के लिए काफी है।” (तुलसीदास के लिए)
भ्रमरगीत का महत्व एक बात से और बढ़ गया है। भक्तशिरोमणि सूर ने इसमें सगुणोपासना का निरूपण बड़े ही मार्मिक ढंग से हृदय की अनुभूति के आधार पर तर्क पद्धति पर नहीं౼किया है।
‘सूरसागर’ में जगह-जगह दृष्टिकूट वाले पद मिलते हैं। यह भी विद्यापति का अनुकरण है।
जायसी का विरह-वर्णन हिन्दी साहित्य में एक अद्वितीय वस्तु है। (जायसी ग्रंथावली)
भक्तिकाल के सम्बन्ध में रामचन्द्र शुक्ल के महत्त्वपूर्ण कथन
प्रबन्ध क्षेत्र में तुलसीदास का जो सर्वोच्च आसन है, उसका कारण यह है कि वीरता, प्रेम आदि जीवन का कोई एक ही पक्ष न लेकर तुलसी ने संपूर्ण जीवन को लिया है| जायसी का क्षेत्र तुलसी की अपेक्षा में परिमित है, पर प्रेम वंदना उनकी अत्यन्त गूढ़ है। (जायसी ग्रंथावली’ की भूमिका)
यह शील और शील का, स्नेह और स्नेह का तथा नीति और नीति का मिलन है। इस मिलन के संघटित उत्कर्ष की दिव्य प्रभा देखने योग्य, यह झाँकी अपूर्व है। (गोस्वामी तुलसीदास)
शुक्ल जी ने तुलसी और जायसी के समकक्ष ही सूरदास को माना है। यदि हम मनुष्य जीवन के संपूर्ण क्षेत्र को लेते हैं तो सूरदास की दृष्टि परिमित दिखाई पड़ती है, पर यदि उनके चुने हुए क्षेत्रों (श्रृंगार तथा वात्सल्य) को लेते हैं, तो उनके भीतर उनकी पहुँच का विस्तार बहुत अधिक पाते हैं। उन क्षेत्रों में इतना अंतर्दृष्टि विस्तार और किसी कवि का नहीं है। (भ्रमरगीत सार की भूमिका)
रामचन्द्र शुक्ल के महत्त्वपूर्ण कथन
रामचन्द्र शुक्ल के हिंदी साहित्य के इतिहास संबंधी महत्त्वपूर्ण कथन
गद्य संबंधी महत्त्वपूर्ण कथन
गद्य का आविर्भाव आधुनिक काल की सबसे प्रधान घटना है।
संवत् 1860 (1803 ई.) के लगभग हिंदी-गद्य का प्रवर्तन तो हुआ पर उसके साहित्य की अखंड परंपरा उस समय से नहीं चली। साहित्य के योग्य स्वच्छ सुव्यवस्थित भाषा में लिखी कोई पुस्तक संवत् 1941 के पूर्व नहीं मिलती। संवत् 1860 और 1915 के बीच का काल गद्य रचना की दृष्टि से प्रायः शून्य ही मिलता है।
गद्य की एक साथ परंपरा चलाने वाले चार लेखकों में आधुनिक हिंदी का पूरा-पूरा आभास मुशी सदासुखलाल और सदल मिश्र की भाषा में मिलता है। व्यवहारोपयोगी इन्हीं की भाषा ठहरती है। इन दो में मुंशी सदासुख की साधु भाषा अधिक महत्त्व की है। मुंशी सदासुख ने लखनी भी चारों से पहले उठायी, अतः गद्य का प्रवर्तन करनेवालों में उनका विशेष स्थान समझना चाहिये।
राजा शिवप्रसाद और भारतेंदु के समय तक हिंदी-उर्दू का झगडा चलता रहा। गार्सा-द-तासी (पेरिस में हिंदुस्तानी या उर्दू के अध्यापक) ने भी फ्रांस में बैठे-बैठे योग दिया।
गद्य संबंधी महत्त्वपूर्ण कथन
गार्सा–द-तासी ने संवत् 1909 ई. के आसपास हिंदी और उर्दू दोनों का रहना आवश्यक समझा और यह कहा- यद्यपि मैं खुद उर्दू का बड़ा पक्षपाती हूँ लेकिन मेरे विचार से हिंदी को विभाषा या बोली कहना उचित नहीं।
गार्सा-द-तासी मजहबी कट्टरपन की प्रेरणा से सैयद अहमद की भरपेट तारीफ करके उर्दू का पक्षग्रहण कर कहते हैं- “इस वक्त हिंदी की हैसियत भी एक बोली (डायलेक्ट) की सी रह गई है जो हर गाँव में अलग-अलग ढंग से बोली जाती है।”
उन्होंने (भारतेंदु) जिसप्रकार गद्य की भाषा को परिमार्जित करके उसे बहुत ही चलता मधुर और स्वच्छ रूप दिया, उसी प्रकार हिंदी-साहित्य को भी नये मार्ग पर ला खड़ा किया वह वर्तमान हिंदी गद्य के प्रवर्तक माने गये।
मुंशी सदासुख लाल की भाषा साधु होते हुए भी पंडिताऊ लिये थी।
लल्लूलाल में ब्रजभाषापन और सदलमिश्र में पूरबीपन था।
राजा शिवप्रसाद का उर्दूपन शब्दों तक ही परिमित न था वाक्यविन्यास तक में घुसा था।
गद्य संबंधी महत्त्वपूर्ण कथन
राजा लक्ष्मणसिंह की भाषा विशुद्ध और मधुर अवश्य थी पर आगरा की बोलचाल का पुट उसमें कम न था।
भाषा का निखरा हुआ सामान्य रूप भारतेंदु की कला के साथ प्रकट हुआ।
भारतेन्दु ने पद्य की ब्रजभाषा का बहुत संस्कार किया। पुराने पड़े हुए शब्दों को हटाकर काव्यभाषा में भी वे बहुत कुछ चलतापन और सफाई लाये। इससे भी बड़ा काम उन्होंने यह किया कि साहित्य को नवीन मार्ग दिखाया और वे उसे शिक्षित जनता के साहचर्य में लाये।
जब भारतेन्दु अपनी मँजी हुई परिष्कृत भाषा सामने लाये तब हिंदी बोलने वाली जनता को गद्य के लिए खड़ीबोली का प्रकृत साहित्यिक रूप मिल गया और भाषा के स्वरूप का प्रश्न नहीं रह गया। प्रस्तावकाल समाप्त हुआ और भाषा का स्वरूप स्थिर हुआ।
भारतेन्दु में हम दो प्रकार की शैलियों का व्यवहार पाते हैं। उनकी भावावेश की शैली दूसरी है और तथ्य निरूपण की दूसरी।
प्रतापनारायण मिश्र की प्रकृति विनोदशील थी। अतः, उनकी भाषा बहुत स्वच्छंद गति से बोलचाल की चपलता और भावभंगिमा लिये चलती है। हास्य-विनोद की उमंग में वह कभी-कभी मर्यादा का अतिक्रमण करती, पूरबी कहावतों और मुहावरों की बौछार भी छोड़ती चली है।
गद्य संबंधी महत्त्वपूर्ण कथन
प्रेमघन के लेखों में गद्य काव्य के पुराने ढंग की झलक, रंगीन इमारत की चमक दमक बहुत कुछ मिलती है। बहुत से वाक्यखंडों की लड़िया से गुंथे हुए उनके वाक्य अत्यन्त लंबे होते थे-इतने लम्बे की उनका अन्वय कठिन होता था।
पदविन्यास में तथा कहीं-कहीं वाक्यों के बीच विरामस्थलों पर भी अनुप्रास देख इंशा और लल्लूलाल का स्मरण होता है। इस दृष्टि से देखें तो प्रेमघन में पुरानी परंपरा का निर्वाह अधिक दिखाई पड़ता है।
बालकृष्ण भट्ट की भाषा अधिकतर वैसी ही होती थी जैसी खरी-खरी सुनाने के काम में लायी जाती है। जिन लेखों में उनकी चिड़चिड़ाहट झलकती है वे विशेष मनोरंजक हैं। भाषा उनकी चटपटी, तीखी और चमत्कारपूर्ण होती थी।
ठाकुर जगमोहन की शैली शब्द शोधन और अनुप्रास की प्रवृत्ति के कारण चौधरी बदरीनारायण की शैली से मिलती-जुलती है। उनकी भाषा में जीवन की मधुर भारतीय रंगस्थलियों की मार्मिक ढंग से हृदय में जमाने वाले प्यारे शब्दों का चयन अपनी अलग विशेषता रखता है।
रामचन्द्र शुक्ल के हिंदी साहित्य के इतिहास संबंधी महत्त्वपूर्ण कथन
उपन्यास संबंधी महत्त्वपूर्ण कथन
अंग्रेजी ढंग का मौलिक उपन्यास पहले पहले हिंदी में लाला श्रीनिवासदास का परीक्षा गुरु निकला था। उसके पीछे राधाकृष्णदास ने निस्सहाय हिंदू और बालकृष्ण भट्ट ने नूतन ब्रह्मचारी तथा ‘सौ अजान एक सुजान, नामक छोटे-छोटे उपन्यास लिखे।
हरिश्चंद्र ने बंगभाषा के एक उपन्यास के अनुवाद में हाथ लगाया था पर पूरा न कर सके थे।
बाबू गजाधर सिंह ने बंगविजेता और दुर्गेशनंदिनी का अनुवाद किया। संस्कृत की कादम्बरी की कथा भी उन्होंने बंगला के आधार पर लिखी।
राधाकृष्णदास, कार्तिक प्रसाद खत्री, रामकृष्ण वर्मा आदि ने बंगला के उपन्यासों के अनुवाद की जो परंपरा चलायी, वह बहुत दिनों तक चलती रही।
पहले मौलिक उपन्यास लेखक. जिनके उपन्यासों की सर्वसाधारण में धूम रही काशी के बाबू देवकीनंदन खत्री थे।
………. इनके उपन्यासों का लक्ष्य केवल घटना वैचित्र्य रहा, रससंचार, भावविभूति या चरित्र चित्रण नहीं। ये वास्तव में घटना प्रधान कथानक या किस्से हैं. जिनमें जीवन के विविध पक्षों के चित्रण का कोई प्रयत्न नहीं, इसलिए ये साहित्य की कोटि में नहीं आते। (देवकीनंदन खत्री के उपन्यासों के संबंध में)
उपन्यास संबंधी महत्त्वपूर्ण कथन
देवकीनंदन खत्री ने राजा शिव प्रसाद वाली उस पिछली आमफहम भाषा का बिल्कुल अनुसरण किया जो एकदम उर्दू की ओर झुक गई थी, ठीक नहीं।… उन्होंने साहित्यिक हिंदी न लिखकर ‘हिंदुस्तानी’ लिखी।
उपन्यासों का ढेर लगा देने वाले दूसरे मौलिक उपन्यासकार पं किशोरीलाल । गोस्वामी है, जिनकी रचनाएं साहित्य कोटि में आती हैं।
……… संवत् 1955 में उन्होंने उपन्यास मासिक पत्र निकाला और द्वितीय उत्थानकाल के भीतर 65 छोटे-बड़े उपन्यास लिखकर प्रकाशित किये अतः साहित्य की दृष्टि से इन्हें हिंदी का पहला उपन्यासकार कहना चाहिये। (पंडित किशोरी लाल गोस्वामी के संबंध में)
किशोरीलाल गोस्वामी के बहुत से उपन्यासों (यथा-चपला) का प्रभाव नवयुवकों पर बुरा पड़ सकता है। उनमें उच्च वासनायें व्यक्त करने वाले दृश्यों की अपेक्षा निम्नकोटि की वासनाएँ प्रकाशित करनेवाले दृश्य अधिक भी हैं और चटकीले भी।
एक बात और खटकती है। वह है उनका भाषा के साथ मजाक। कुछ दिन पीछे किशोरीलाल गोस्वामी को उर्दू लिखने का शौक हुआ। उर्दू भी ऐसी-वैसी नहीं, उर्दू-ए-मु-अल्ला। इस शौक कुछ आगे-पीछे उन्होंने राजा शिवप्रसाद का जीवन चरित्र लिखा, जो सरस्वती के आरंभ के 3 अंकों (भाग 1, संख्या-2, 3. 4) में निकला। उर्दू जबान और शेर सखुन की बेंढगी नकल से उनके बहुत से उपन्यासों का साहित्यिक गौरव घट गया।
प्रसिद्ध कवि और गद्य लेखक हरिऔध के दो उपन्यास ‘ठेठ हिंदी का ठाट और ‘अधखिला फूल’ भाषा के नमूने की दृष्टि से लिखी गई हैं, औपन्यासिक कौशल की दृष्टि से नहीं।
उपन्यास संबंधी महत्त्वपूर्ण कथन
उनकी सबसे पहली लिखी पुस्तक ‘वेनिस का बाँका’ में जैसे भाषा संस्कृतपन की सीमा पर पहुँची हुई थी वैसे ही इन दोनों में ठेठपन की हद दिखाई देती हैं। (अयोध्यासिंह उपाध्याय की रचनाओं के संबंध में)
लज्जाराम मेहता अखबारनबीसी के बीच-बीच में पुरानी हिंदू-मर्यादा. हिंदू धर्म और हिंदू पारिवारिक व्यवस्था की सुंदरता और समीचीनता दिखाने के लिए छोटे-बड़े उपन्यास भी लिखे। पर ये दोनों महाशय वास्तव में उपन्यासकार नहीं। उपाध्याय जी कवि है और मेहता जी पुराने अखबारनवीस।”
काव्यकोटि में आनेवाले भावप्रधान उपन्यास जिनमें भावों या मनोविकार की प्रगल्भ और वेगवती व्यंजना का लक्ष्य प्रधान हो (चरित्र-चित्रण या घटना वैचित्र्य का लक्ष्य नहीं) हिंदी में न देख ब्रजभाषा में काफी देख बाबू ब्रजनदन सहाय ने दो उपन्यास इस ढग के प्रस्तुत किये-1 सौंदर्योपासक 2 राधाकांत
बाबू रामकृष्ण वर्मा ने ………चित्तौर चातकी (1952) का बंगभाषा से अनुवाद किया। ‘चित्तौर चातकी’ चित्तौड़ के राजवंश की मर्यादा के विरुद्ध समझी गई और इसका इतना विरोध हुआ कि सब कॉपियाँ गंगा में फेंक दी गई।
बाबू गोपालराम (गहमर) बंग भाषा के गार्हस्थ उपन्यासों के अनुवाद में तत्पर मिलते हैं। भाषा इनकी चटपटी और वक्रतापूर्ण हैं। ये गुण लाने के लिए कहीं-कहीं उन्होंने पूरबी शब्दों एवं मुहावरों का बेधड़क प्रयोग किया है। उनके लिखने का ढंग बहुत मनोरंजक है।
रामचन्द्र शुक्ल के हिंदी साहित्य के इतिहास संबंधी महत्त्वपूर्ण कथन
कहानी संबंधी महत्त्वपूर्ण कथन
यदि इंदुमती किसी बंगला कहानी की छाया नहीं है तो यह हिंदी की पहली मौलिक कहानी ठहरती है। इसके उपरांत ग्यारह वर्ष का समय फिर दुलाईवाली का नंबर आता है।
बंगभाषा से अनुवाद करनेवालों में इंडियन प्रेस के मैनेजर गिरिजाकुमार घोष हिंदी कहानियों में अपना नाम पार्वतीनंदन देते थे।
सरस्वती में प्रकाशित कुछ मौलिक कहानियों हैं-1. इंदुमती (1900 ई. पू. 337 किशोरी लाल गोस्वामी), 2. गुलबहार (1902 ई. किशोरीलाल गोस्वामी). 3, प्लेग की चुडैल (1902 ई. मास्टर भगवानदास मिरजापुर), 4. ग्यारह वर्ष का समय ( 1903 ई. रामचंद्र शुक्ल), 5 पंडित और पंडितानी (1903 ई. गिरिजादत्त वाजपेयी), 6. दुलाईवाली (1904, बंगमहिला)।
सूर्यपुरा के राजा राधिका रमणप्रसाद सिंह जी हिंदी के एक अत्यन्त भावुक और भाषा की शक्तियों पर अद्भुत अधिकार रखनेवाले पुराने लेखक हैं।
गुलेरी की अद्वितीय कहानी ‘उसने कहा था’ (1915, सरस्वती में प्रकाशित) में पक्के यथार्थवाद के बीच, सुरुचि की चरम मर्यादा के भीतर, भावुकता का चरम उत्कर्ष अत्यन्त निपुणता के साथ संपुटित है। प्रेम का एक स्वर्गीय स्वरूप झांक रहा है। कहीं भी प्रेमी की निर्लज्जता, प्रगत्मता वेदना की बीभत्स विवृत्ति नहीं है। इसकी घटनाएँ ही बोल रही है, पात्रों के बोलने की अपेक्षा नहीं।
रामचंद्र शुक्ल जी ने विविध प्रणालियों पर लिखी गई कहानियों का विवरण दिया है-
सादे ढंग से केवल कुछ अत्यन्त व्यंजक घटनाएँ और थोडी बातचीत लाकर क्षिप्र गति से किसी एक गभीर संवेदना या मनोभाव में पर्यवसित होनेवाली कहानी। यथा-उसने कहा था (गुलेरी), निंदिया लागी और पेंसिल स्केच (भगवती प्रसाद वाजपेयी)।
परिस्थितियों के अंतर्गत प्रकृति चित्रण, परिस्थितियों के विशद् मार्मिक, कभी-कभी रमणीय, अलंकृत वर्णनों और व्याख्यानों के साथ किसी मार्मिक परिस्थिति में पर्यवसित होनेवाली कहानी। जैसे-चंडीप्रसाद हृदयेश की उन्मादिनी और शांति निकेतन कहानी।
घटना और संवाद दोनों में गूढ व्यंजना एवं रमणीय कल्पना का सुंदर समन्वय यथा- प्रसाद जी और रायकृष्णदास की कहानियों।
किसी तथ्य का प्रतीक खडा करनेवाली लाक्षणिक कहानी। यथा- पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र का भुनगा।
भिन्न-भिन्न वर्गों के संस्कार का स्वरूप सामने रखनेवाली कहानी। जैसे-शतरंज के खिलाड़ी (प्रेमचंद). दान (ऋषभचरण जैन)
किसी मधुर या मार्मिक प्रसंग कल्पना के सहारे किसी ऐतिहासिक कालखंड का खंडचित्र दिखानेवाली कहानी। यथा-गहुला (रायकृष्णदास), आकाशदीप (प्रसाद)।
कहानियों का विवरण
राजनीतिक आंदोलनों में सम्मिलित नवयुवकों के स्वदेश प्रेम त्याग, साहस, जीवनोत्सर्ग का चित्र खडा करनेवाली। जैसे-उसकी माँ (पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र)
देश की सामाजिक और आर्थिक व्यवस्था से पीडित जनसमुदाय की दुर्दशा सामने लाने वाली कहानी। यथा- निंदिया लागी (भगवती प्रसाद वाजपेयी) अपना-अपना भाग्य (जैनेन्द्र)।
सभ्यता और संस्कृति की किसी व्यवस्था के विकास का आदिम रूप झलकाने वाली। यथा- अंतःपुर का आरंभ (रायकृष्णदास), चंबेली की कली (श्रीमत् समंत), बाहुबलि (जैनेन्द्र कुमार) ।
समाज के पाखंडपूर्ण पापाचार के चटकीले चित्र सामने लानेवाली कहानियाँ, जैसे-उग्र की कहानियाँ।
उग्र की भाषा बड़ी अनूठी चपलता और आकर्षक वैचित्र्य के साथ चलती है उस ढंग की भाषा उन्ही के उपन्यासों और चाँदनी ऐसी कहानियों में मिल सकती है।
रामचन्द्र शुक्ल के हिंदी साहित्य के इतिहास संबंधी महत्त्वपूर्ण कथन
नाटक संबंधी महत्त्वपूर्ण कथन
विलक्षण बात है कि आधुनिक गद्य-साहित्य की परंपरा का प्रवर्त्तन नाटकों से हुआ। भारतेंदु से पहले नाटक के नाम से जो दो चार ब्रजभाषा में लिखे गए थे उनमें महाराज विश्वनाथ सिंह के आनंद रघुनंदन नाटक को छोड़कर और किसी में नाटकत्व न था।
भारतेंदु, प्रतापनारायण मिश्र. बदरीनारायण चौधरी उद्योग करके अभिनय का प्रबंध किया करते थे और कभी-कभी स्वयं भी पार्ट लेतें थे।
पं शीतलाप्रसाद त्रिपाठी कृत ‘जानकीमंगल’ नाटक का जो धूमधाम से अभिनय हुआ तथा उसमें भारतेंदु ने पार्ट किया था यह अभिनय देखने के लिए काशी नरेश महाराजा ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह भी पधारे थे और इसका विवरण 8 मई, 1868 के इंडियन मेल में प्रकाशित हुआ था ।
प्रतापनारायण मिश्र का अपने पिता से अभिनय के लिए मूँछ मुडाने की आज्ञा माँगना प्रसिद्ध ही है।
संवत् 1925 में भारतेंदु ने ‘विद्यासुंदर’ नाटक बंगला से अनुवाद करके प्रकाशित किया। इस अनुवाद में ही उन्होंने हिंदी गद्य के बड़े सुडौल रूप का आभास दिया।
नाटक संबंधी महत्त्वपूर्ण कथन
संवत् 1930 में भारतेन्दु ने हरिश्चंद्र मैगजीन नाम की एक मासिक पत्रिका निकाली थी जिसका नाम 8 संख्याओं के उपरांत हरिश्चंद्र चंद्रिका हो गया। हिंदी गद्य का ठीक परिष्कृत रूप पहले -पहल इसी चंद्रिका में प्रकट हुआ। जिस प्यारी हिंदी को देश ने अपनी विभूति समझा, जिसको जनता ने उत्कंठापूर्वक दौड़कर अपनाया, उसका दर्शन इसी पत्रिका में हुआ। भारतेंदु ने नयी सुधरी हुई हिंदी का उदय इसी समय से माना है।
उन्होंने ‘कालचक्र’ नामक अपनी पुस्तक में नोट किया है कि हिंदी नई चाल में ढली, 1973 ई. (भारतेंदु हरिश्चंद्र के संबंध में)
भारतेंदु हरिश्चंद्र की भाषा को हरिश्चद्री हिंदी रामचंद्र शुक्ल ने कहा है।
सं. 1930 (1873 ई.) में भारतेंदु ने अपना पहला मौलिक नाटक ‘वैदिकी हिसा हिंसा न भवति’ नाम का प्रहसन लिखा जिसमें धर्म और उपासना के नाम से समाज में प्रचलित अनेक अनाचारों का जघन्य रूप दिखाते हुए उन्होंने राजा शिवप्रसाद को लक्ष्य करके खुशामदियों और केवल अपनी मानवृद्धि की फिक्र में रहने वालों पर छींटे छोड़े।
नाटक संबंधी महत्त्वपूर्ण कथन
गद्य रचना के अंतर्गत भारतेन्दु का ध्यान सर्वप्रथम नाटकों की ओर गया। अपनी ‘नाटक’ नाम की पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि हिंदी में मौलिक नाटक उनके पहले दो लिखे गये थे- महाराज विश्वनाथ सिंह का ‘आनंदरघुनंदन’ नाटक और बाबू गोपालचंद्र का ‘नहुष’ नाटक।
प्रतापनारायण मिश्र यद्यपि लेखन कला में भारतेन्दु को ही आदर्श मानत थे परन्तु उनकी शैली में बहुत कुछ विभिन्नता भी लक्षित होती हैं।
भारतेंदु सिद्ध वाणी के अत्यन्त सरस हृदय कवि थे। प्राचीन और नवीन का सुंदर सामंजस्य भारतेन्दु की कला का विशेष माधुर्य है।
अपने समय के सब लेखकों में भारतेंदु की भाषा साफ-सुथरी और व्यवस्थित होती थी। उसमें शब्दों के रूप भी एक प्रणाली पर मिलते हैं और वाक्य भी सुसम्बद्ध पाये जाते हैं।
प्रतापनारायण मिश्र इतने मनमौजी थे कि आधुनिक सभ्यता और शिष्टता की कम परवाह करते थे। कभी लावनी बाजों में जाकर शामिल हो जाते थे कभी मेलों और तमाशों में बंद इक्के पर बैठ जाते दिखाई देते थे।
मिश्र के समान भट्ट जी भी स्थान-स्थान पर कहावतों का प्रयोग करते थे पर उनका झुकाव मुहावरों की ओर अधिक रहता था।
देशदशा, समाजसुधार, नागरी हिंदी प्रचार, साधारण मनोरंजन इत्यादि । सब विषयों पर प्रतापनाराण मिश्र की लेखनी चलती थी…………..यद्यपि उनकी प्रवृत्ति हास्यविनोद की ओर अधिक रहती थी पर जब कभी कुछ गंभीर विषयों पर लिखते थे तब संयत और साधु भाषा का व्यवहार करते थे।
नाटक संबंधी महत्त्वपूर्ण कथन
प्रतापनारायण मिश्र में विनोदप्रियता विशेष थी इससे उनकी वाणी में वक्रता की मात्रा प्रायः रहती थी। इसके लिए वे पूरबीपन की परवाह न करके अपने बैसवारे की ग्राम्य कहावतें और शब्द भी बेधड़क रख दिया करते थे। कैसा ही विषय हो पर उसमें विनोद और मनोरंजन की सामग्री ढूँढ लेते थे।
पं. प्रतापनारायण मिश्र और बालकृष्ण भट्ट ने हिंदी गद्य-साहित्य में वही काम किया जो अंग्रेजी गद्य-साहित्य में एडीसन और स्टील ने किया था।
बालकृष्ण भट्ट को मुहावरों की सूझ बहुत अच्छी थी। आँख, कान, नाक इत्यादि शीर्षक देकर उन्होंने कई लेखो में बड़े ढंग के साथ मुहावरों की झडी बांध दी है।
व्यंग्य और वक्रता बालकृष्ण भट्ट के लेखों में भी भरी रहती थी और वाक्य भी कुछ बड़े-बड़े होते हैं।
ठीक खड़ीबोली के आदर्श का निर्वाह बालकृष्ण भट्ट ने कभी नहीं किया। पूरबी प्रयोग बराबर मिलते हैं। उनके लिखने के ढंग से यह जान पड़ता है कि वे अंग्रेजी पढ़े-लिखे नवशिक्षित लोगों को हिंदी की ओर आकर्षित करने के लिए लिख रहे हैं ।….. इसीप्रकार फारसी-अरबी के लफ्ज ही नही, बड़े-बड़े फिकरे तक भट्ट जी अपनी मौज में आकर रखा करते थे ।
बालकृष्ण भट्ट की शैली में एक निरालापन झलकता है। प्रतापनारायण के हास्यविनोद से भट्टजी के हास्यविनोद में यह विशेषता है कि वह कुछ चिड़चिड़ापन लिये रहता था। पदविन्यास भी कभी उसका बहुत ही चोखा और अनूठा होता था।
नाटक संबंधी महत्त्वपूर्ण कथन
बालकृष्ण भट्ट से सं. 1943 में श्रीनिवासदास के ‘संयोगिता स्वयंवर’ नाटक की ‘सच्ची समालोचना’ भी और पत्रों में उसकी प्रशंसा ही प्रशसा देखकर की थी। उसी वर्ष बदरीनारायण चौधरी ने बहुत ही विस्तृत समालोचना अपनी पत्रिका में निकाली थी। इस दृष्टि से सम्यक समालोचना का हिंदी में सूत्रपात करनेवाले इन्हीं दो लेखकों को समझना चाहिये।
उनकी हर एक बात में रईसी टपकती थी। बातचीत का ढंग उनका बहुत ही निराला और अनूठा था। ये भारतेन्दु के घनिष्ठ मित्रों में थे और वेश । भी उन्हीं सा रखते थे।
इनकी (प्रेमघन) शैली विलक्षण थी। ये गद्य रचना को एक कला के रूप में ग्रहण करनेवाले कलम की कारीगरी समझनेवाले लेखक थे और कभी-कभी ऐसे पेचीले मजमून बाँधते थे कि पाठक एक-एक डेढ़-डेढ़ कॉलम के लंबे वाक्य में उलझा रहता था।
अनुप्रास और अनूठे पदविन्यास की और उनका (प्रेमघन) ध्यान रहता था। किसी बात को साधारण ढंग से कहे जाने को वह लिखना नहीं कहते थे। वे कोई लेख लिखकर जब तक कई बार उसका परिष्कार और मार्जन नहीं कर लेते थे तबतक छपने नहीं देते थे। ये लिखने में भारतेंदु के उतावलेपन की शिकायत अक्सर किया करते थे।
भाषा अनुप्रासमयी और चुहचुहाती हुई होने पर भी उनका पदविन्यास व्यर्थ के आडंबर में नहीं होता था । उनके लेख अर्थगर्भित और सूक्ष्म विचारपूर्ण होते थे लखनऊ की उर्दू का जो आदर्श था वही बदरीनारायण चौधरी प्रेमघन की हिंदी का था।
नाटक संबंधी महत्त्वपूर्ण कथन
आनंदकादंबिनी प्रेमघन जी ने अपने ही उमड़ते हुए विचारों और भावों को अंकित करने के लिए निकाली थी। औरों के लेख उनमें नहीं होते थे। भारतेंदु ने एक बार उनसे कहा था कि जनाब यह किताब नहीं कि आप अकेले ही हर काम फरमाया करते हैं, बल्कि अखबार है कि जिसमें अनेक जनलिखित लेख होना आवश्यक है और यह जरुरत भी नहीं कि सब एक तरह के लिक्खाड़ हों।
समालोचना का सूत्रपात हिंदी में एक प्रकार से बालकृष्ण भट्ट और बदरीनारायण चौधरी साहेब ने किया। समालोच्य पुस्तक के विषयों का अच्छी तरह विवेचन करके उसके गुण-दोष के विस्तृत निरूपण की चाल उन्होंने चलायी। बाबू गदाधर सिंह ने बंगविजेता का जो अनुवाद किया था उसकी आलोचना और लाला श्रीनिवास के संयोगिता स्वयंवर की बड़ी विस्तृत और कठोर समालोचना चौधरीजी ने कादंबिनी के 21 पृष्ठो में निकाली।
प्रेमघन ने कई नाटक लिखे। भारत सौभाग्य’ कांग्रेस के अवसर पर खेले जाने के लिए सन् 1888 ई. में लिखा गया था यह नाटक विलक्षण है। पात्र इतने अधिक है कि अभिनय दुसाध्य और भाषा भी रंगबिरंगी है।
कांदबिनी में समाचार तक कभी-कभी बड़ी रंगीन भाषा में लिखे जाते थे। पीछे जो इनका साप्ताहिक पत्र ‘नागरी नीरद’ निकला उसके शीर्षक भी वर्षा के खासे रूपक हुए। जैसे-संपादकीय सम्मति समीर, हास्यहरितांकुर, नियमनिर्घोष इत्यादि ।
भारतेंदु के समसामयिक लेखकों में लाला श्रीनिवास का विशेष स्थान था। वे खड़ीबोली के बोलचाल के शब्द और मुहावरे अच्छे लाते थे।
उपर्युक्त चारों लेखकों (भारतेंदु, प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, प्रेमघन) में प्रतिभाशालियों का मनमौजीपन था पर लाला श्रीनिवास व्यवहार में दक्ष और संसार का ऊँचा-नीचा समझने वाले पुरुष थे। उनकी भाषा संयत और साफ-सुथरी तथा रचना बहुत कुछ सोद्देश्य होती थी।
नाटक संबंधी महत्त्वपूर्ण कथन
भारतेंदु के मित्रों में कई बातों में उन्हीं की सी तबियत रखनेवाले मध्यप्रदेश (राघवगढ़) के राजकुमार ठाकुर जगमोहन सिंह हिंदी के एक प्रेमपथिक कवि और माधुर्यपूर्ण गद्य लेखक थे। प्राचीन संस्कृत साहित्य के अभ्यास और विंध्याटवी के रमणीय प्रदेश में निवास करने के कारण विविध भावमयी प्रकृति के रूपमाधुर्य की जैसी सच्ची परख, जैसी सच्ची अनुभूति इनमें भी वैसी उस काल के किसी कवि में नहीं।
बाबू हरिश्चंद्र, प्रतापनारायण मिश्र आदि कवियों और लेखकों की दृष्टि और हृदय की पहुँच मानव क्षेत्र तक थी। ठाकुर जगमोहन सिंह ने नरक्षेत्र के सौंदर्य को प्रकृति के और क्षेत्रों के सौंदर्य के मेल में देखा है। प्राचीन संस्कृति साहित्य के रुचिसंस्कार के साथ भारतभूमि की प्यारी रूपरेखा को मन में बसानेवाले वे पहले हिंदी लेखक थे।
जाति के कायस्थ बाबू तोताराम अलीगढ़ से भारतबंधु पत्र निकालनेवाले ‘भाषा संवर्धिनी सभा के संस्थापक होने के साथ-साथ हरिश्चंद्र के लेखकों में थे।………..जब तक रहे हिंदी के प्रचार और उन्नति में रहे।
अंबिकादत्त व्यास संस्कृत के प्रतिभाशाली विद्वान, हिंदी के अच्छे कवि और सनातन धर्म के बड़े उत्साही उपदेशक थे। इनके धर्म संबंधी व्याख्यानों की धूम रहा करती थी।
इन्होंने (अंबिकादत्त व्यास) बिहारी के पदों को विस्तृत करने के लिए ‘बिहारी-विहार नाम का एक बड़ा काव्यग्रंथ लिखा।
नाटक संबंधी महत्त्वपूर्ण कथन
पं. मोहनलाल विष्णुलाल पण्ड्या गिरती दशा में हरिश्चंद्रिका को संभाला था। कविराज श्यामलदान ने जब अपने ‘पृथ्वीचरित्र’ ग्रंथ में ‘पृथ्वीराजरासो’ को जाली ठहराया था तब इन्होंने ‘रासो संरक्षा’ लिखकर उसे असल सिद्ध करने का प्रयत्न किया था।
भीमसेन शर्मा (दयानंद के दाहिने हाथ) ने ‘आर्यसिद्धांत’ नामक एक मासिक पत्र निकाला था। ‘संस्कृत भाषा की अद्भुत शक्ति नामक एक लेख लिखकर इन्होंने अरबी-फारसी शब्दों को भी संस्कृत बना डालने की राय बड़ी जोर-शोर से दी थी-जैसे दुश्मन को दु:श्मन, सिफारिश को क्षिप्राशीष।
फ्रेडरिक पिंकाट इंग्लैण्ड में बैठे-बैठे हिंदी में लेख और पुस्तकें लिखते और पत्र-व्यवहार करते थे। उनकी……..बालदीपक बिहार के स्कूलों में पढ़ाई जाती थी। इनकी भाषा उनके पत्रों की भाषा की अपेक्षा अधिक मुहावरेदार है।
जयशंकर प्रसाद और हरिकृष्ण प्रेमी दोनों की दृष्टि ऐतिहासिक काल की ओर रही है। प्रसाद ने अपना क्षेत्र प्राचीन हिंदूकाल के भीतर चुना और प्रेम जी ने मुसलिम काल के भीतर।
प्रसाद के नाटकों में ‘स्कंदगुप्त’ श्रेष्ठ है और प्रेमी के नाटकों में ‘रक्षाबंधन’ । हरिकृष्ण प्रेमी के कथोपकथन प्रसाद के कथोपकथनों से अधिक नायकोपयुक्त है।
प्रेमी जी के ‘रक्षाबंधन’ मेवाड़ की महारानी कर्मवती का हुमायूँ को भाई कहकर राखी भेजना.. यह कथावस्तु हिंदू-मुसलिम भेदभाव की शांति सूचित करती है।
प्रसाद जी के ‘धुवस्वामिनी नाटक में एक संभ्रांत राजकुल की स्त्री का विवाह संबंध मोक्ष सामने लाया गया है जो वर्तमान सामाजिक आंदोलन का अंग है।
नाटक संबंधी महत्त्वपूर्ण कथन
लक्ष्मीनारायण मिश्र ने अपने नाटकों द्वारा स्त्रियों की स्थिति आदि कुछ सामाजिक प्रश्न तो सामने रखे ही है, यूरोप में प्रवर्तित ‘यथा तथ्यवाद का खरा रूप दिखाने का यत्न किया है।
नाटक का जो नया स्वरूप लक्ष्मीनारायण जी यूरोप से लाये हैं उसमें काव्यत्व का अवयव भरसक नहीं आने पाया है। उनके नाटकों में न चित्रमय और भावुकता से लदे भाषण हैं, न गीत या कविताएँ। खरी-खरी बात कहने का जोश कहीं-कहीं अवश्य है।
ऐतिहासिक नाटक रचना में जो स्थान प्रसाद और हरिकृष्ण प्रेमी का है पौराणिक नाटक रचना में वही स्थान उदयशंकर भट्ट का है।
चतुरसेन शास्त्री ने ‘अमर राठोर’ और ‘उत्सर्ग’ नामक नाटकों में कथावस्तु को अपने अनुकूल गढ़ने में निपुणता दिखाई है। अंग्रेज़ कवि शैली के ढंग पर सुमित्रानंनदन पंत ने ‘ज्योत्सना’ नामक एक रूपक लिखा है। कैलाशनाथ भटनागर का ‘भीम प्रतिज्ञा’ भी विद्यार्थियों के योग्य अच्छा नाटक है।
रामचन्द्र शुक्ल के हिंदी साहित्य के इतिहास संबंधी महत्त्वपूर्ण कथन
निबंध संबंधी महत्त्वपूर्ण कथन
यदि गद्य कवियों या लेखकों की कसौटी है तो निबंध गद्य की कसौटी।
भाषा की पूर्ण शक्ति का विकास निबंधों में ही सबसे अधिक संभव है।
आधुनिक पाश्चात्य लक्षणों के अनुसार निबंध उसी को कहना चाहिए जिसमें व्यक्तित्व अर्थात् व्यक्तिगत विशेषता हो।
भारतेंदु के समय से ही निबंधों की परंपरा हमारी भाषा में चल पड़ी थी ।
द्वितीय उत्थानकाल के आरभ में ही निबंध का रास्ता दिखाने वाले दो अनुवाद ग्रंथ प्रकाशित हुए बेकन विचार रत्नावली’ (लार्ड बेकन के कुछ निबंधों का अनुवाद) और निबंध मालादर्श (चिपलूणकर के मराठी निबंधों का अनुवाद)। पहली पुस्तक पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी की है और दूसरी पं गंगा प्रसाद अग्निहोत्री की।
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 1903 ई. में सरस्वती के संपादन का भार लिया. इनके लेखों में अधिकतर ‘बातों के संग्रह के रूप में ही है। भाषा के नूतन शक्ति चमत्कार के साथ-साथ नये-नये विचारों की उद्भावना वाले निबंध बहुत कम मिलते हैं स्थायी निबंधों की श्रेणी में दो चार ही लेख जैसे कवि और कविता, प्रतिभा आदि आ सकते हैं।
निबंध संबंधी महत्त्वपूर्ण कथन
द्विवेदी जी के लेख विचारात्मक श्रेणी में आयेंगे पर इनमें विचार की वह गूढ़ गुम्फित परंपरा नहीं मिलती जिससे पाठक की बुद्धि उत्तेजित होकर किसी नयी विचार पद्धति पर दौड़ पड़े।
शुद्ध विचारात्मक निबंधों का चरम उत्कर्ष वही कहा जा सकता है जहाँ एक पैराग्राफ में विचार दबा-दबाकर कसे गये हों और एक-एक वाक्य किसी संबद्ध विचारखंड को लिये हो।
द्विवेदी जी के लेखों को पढ़ने से ऐसा जान पड़ता है कि लेखक बहुत मोटी अक्ल के पाठकों के लिए लिख रहा है।
द्विवेजी जी की व्यास शैली विपक्षी को कायल करने के प्रयत्न में बड़े काम की है। ‘क्या हिंदी नाम की कोई भाषा ही नहीं’ (सरस्वती, 1913 ई.) और आर्य समाज का कोप (सरस्वती, 1914) इसके अच्छे उदाहरण है।
पं. माधव प्रसाद मिश्र बड़े तेजस्वी, सनातन धर्म समर्थक, भारतीय संस्कृति की रक्षा के सतत् अभिलाषी विद्वान् थे। इनकी लेखनी में बड़ी शक्ति थी। जो कुछ लिखते थे, बड़े जोश के साथ लिखते थे इसलिए इनकी शैली बड़ी प्रगल्भ होती थी।
माधव प्रसाद मिश्र के मार्मिक और ओजस्वी लेखों को जिन्होंने पढा होगा उनके हृदय में उनकी मधुर स्मृति अवश्य बनी होगी उनके निबंध अधिकतर भावात्मक होते थे और धाराशैली पर चलते थे।
निबंध संबंधी महत्त्वपूर्ण कथन
जहाँ किसी ने कहीं कोई ऐसी बात लिखी जो इन्हें (माधव प्रसाद मिश्र) सनाधन धर्म के संस्कारों के विरुद्ध अथवा प्राचीन ग्रंथकारों के और कवियों के गौरव को कम करने वाली लगी कि इनकी लेखनी चल पड़ती थी। इनके विरोध में तर्क, आवेश, भावुकता सबकुछ का एक अदभुत मिश्रण रहता था। ‘वेबर का भ्रम’ इसी झोक में लिखा गया था।
माधव प्रसाद मिश्र ने महावीर प्रसाद द्विवेदी के ‘नैषध चरितचर्या और श्रीधर पाठक के गुनवंत हेमंत (जिसकी द्विवेदी ने बड़ी प्रशंसा की थी) को लगे हाथों लिया था।
“वेश्योपकार पत्र का संपादन (गौड़ ब्राह्मण होने के कारण मारवाड़ियों से प्रेम और इनके हितार्थ), तथा देवकीनंदन खत्री की सहायता से काशी से सुदर्शन’ नामक मासिक पत्र का 1900 ई. में प्रकाशन इन्होंने किया। सुदर्शन’ में इनके लेख प्रायः सब विषयों पर निकलते थे।… लोक सामान्य स्थायी विषयों पर मिश्र जी के 2 लेख मिलते हैं-धृति और क्षमा।
(माधव प्रसाद मिश्र के संबंध में)
जोश आने पर माधव प्रसाद मिश्र बड़े शक्तिशाली लेख लिखते थे। समालोचक संपादक प. चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने इसीसे एक बार लिखा था- “मिश्र जी बिना किसी अभिनिवेश के लिख नहीं सकते। यदि हमें उनसे लेख पाने हैं तो सदा एक-न-एक टंटा उनसे छेड़ ही रक्खा करें।”
निबंध संबंधी महत्त्वपूर्ण कथन
बालमुकुन्दगुप्त बहुत ही चलते-पुरजे और विनोदशील लेखक थे। अतः कभी छेड़छाड़ कर बैठते थे।… इनकी भाषा बहुत चलती सजीव और विनोदपूर्ण होती थी। किसी प्रकार का विषय हो, गुप्तजी की लेखनी उसपर विनोद का रंग चढ़ा देती थी। वे अपने विचारों को विनोदपूर्ण वर्गों के भीतर ऐसा लपेटकर रखते थे कि उनका आभास बीच-बीच में मिलता था। उनके विनोदपूर्ण वर्णनात्मक विधान के भीतर विचार और भाव लुके-छिपे रहते थे।
गद्य के संबंध में इनकी धारणा प्राचीनों के गद्यकाव्य की सी थी। लिखते समय बाण और दंडी इनके ध्यान में रहा करते थे।…. पं. गोविंद नारायण मिश्र के गद्य को सयास अनुप्रास में गुँथे शब्दगुच्छों का एक अटाला समझिए।
बाबू श्यामसुंदर दास जैसे हिंदी के अच्छे लेखक हैं वैसे ही बहुत अच्छे वक्ता भी। आपकी भाषा इस विशेषता के लिए प्रसिद्ध है उसमें अरबी फारसी विदेशी शब्द नहीं आते। आधुनिक सभ्यता के विधानों के बीच की लिखा-पढ़ी के ढंग पर हिंदी को ले चलने में आपकी लेखनी ने बहुत कुछ योग दिया है।
बाबू श्यामसुंदर साहेब ने बड़ा भारी काम लेखकों के लिए सामग्री प्रस्तुत करने का किया है। हिंदी पुस्तको की खोज के विधान के द्वारा आपने साहित्य का इतिहास, कवियों के चरित और उन पर प्रबंध आदि लिखने का मसाला इकट्ठा करके रख दिया।
……आधुनिक हिंदी के नये-पुराने लेखकों के संक्षिप्त जीवनवृत्त ‘हिंदी कोविद रत्नमाला दो भागों में अपने संगृहीत किये हैं। शिक्षोपयोगी तीन पुस्तकें भाषाविज्ञान, हिंदी भाषा और साहित्य तथा साहित्यालोचन भी आपने लिखी या संकलित की है। (बाबू श्यामसुंदर दास के संबंध में)
निबंध संबंधी महत्त्वपूर्ण कथन
गुलेरी जी एक बहुत ही अनूठी लेखन शैली लेकर साहित्यक्षेत्र में उतरे थे। ऐसा गंभीर और पांडित्यपूर्ण हास जैसा इनके लेखों में रहता है और कहीं देखने में न आया। अनेक गूढ़ शास्त्रीय विषयों तथा कथा प्रसंगा की ओर विनोदपूर्ण संकेत करती हुई उनकी वाणी चलती थी।
….यह बेधड़क कहा जा सकता है कि शैली की जो विशिष्टता और अर्थगर्भित वक्रता गुलेरी जी में मिलती है, किसी में नहीं। इनके स्मित हास की सामग्री विविध क्षेत्रों से ली गई है।
अध्यापक पूर्णसिंह में विचारों और भावों को एक अनूठे ढंग से मिश्रित करने वाली एक नयी शैली मिलती है। उनकी लाक्षणिकता हिंदी गद्य साहित्य के लिए एक नई चीज थी। भाषा की बहुत कुछ उड़ान उसकी बहुत कुछ शक्ति लाक्षणिकता में देखी जाती है। भाषा और भाव की एक नई विभूति उन्होंने सामने रखी।
यूरोप के जीवन क्षेत्र की अशांति से उत्पन्न आध्यात्मिकता की, किसानों और मजदूरों की महत्त्व भावना की जो लहरें उठीं उनमें वे बहुत दूर तक बहे। उनके निबंध (सरदार पूर्णसिंह) भावात्मक कोटि में ही आयेंगे
गुलाबराय की एक छोटी सी पुस्तक है जिसमें कई विषयों पर बहुत छोटे-छोटे अभ्यासपूर्ण निबंध है इन्हीं में एक ‘कुरूपता’ भी है। समासशैली पर ऐसे विचारात्मक निबंध लिखने वाले, जिनमें बहुत ही चुस्त भाषा के भीतर एक पूरी अर्थपरंपरा कसी हो, अधिक लेखक हमें न मिले।
रामचन्द्र शुक्ल के हिंदी साहित्य के इतिहास संबंधी महत्त्वपूर्ण कथन
आलोचना संबंधी महत्त्वपूर्ण कथन
समालोचना के दो प्रधान मार्ग होते हैं-निर्णयात्मक (जुडिशियल मेथड) और व्याख्यात्मक (इंडक्टिव क्रिटिसिज्म)।
हिंदी साहित्य में समालोचना पहले-पहल केवल गुण-दोष दर्शन के रूप में प्रकट हुई। लेखों के रूप में इसका सूत्रपात हरिश्चंद्र के समय हुआ था।
लेख के रूप में पुस्तकों की विस्तृत समालोचना बदरीनारायण चौधरी ने अपनी ‘आनंद कादंबिनी’ में शुरू की थी।
किसी ग्रंथकार के गुण-दोष दिखलाने के लिए कोई पुस्तक भारतेंदु के समय नहीं निकली थी। इसप्रकार की पहली पुस्तक पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी की हिंदी कालिदास की आलोचना थी। इसमें लाला सीताराम के अनुवाद किये हुए नाटकों की भाषा और भाव संबंधी दोष बड़े विस्तार से दिखाये गये थे। यह अनुवादों की समालोचना थी। इसमें दोषों का उल्लेख था, गुण नहीं ढूँढे गये।
आलोचना संबंधी महत्त्वपूर्ण कथन
इसके उपरांत द्विवेदी जी ने विक्रमांक देव चरितचर्या, नैषधचरितचर्चा और ‘कालिदास की निरंकुशता’ (विशेषता परिचायक समीक्षाएँ) निकाली। ‘कालिदास की निरंकुशता’ पुस्तक हिंदी वालों के क्या, संस्कृत वालों के फायदे के लिए लिखी गई थी। इन पुस्तकों को एक मुहल्ले में फैली बातों से दूसरे मुहल्ले वालों को परिचित कराने के प्रयत्न समझना चाहिये, स्वतंत्र समालोचना नहीं।
पद्मसिंह शर्मा ने बिहारी पर एक अच्छी आलोचनात्मक पुस्तक निकाली। आर्यासप्तशती’ और गाथा सप्तशती के बहुत से पद्यों के साथ बिहारी के दोहों का पूरा-पूरा मेल दिखाकर शर्मा जी ने बड़ी विद्वता के साथ एक चली आती हुई साहित्यिक परम्परा के बीच बिहारी को रखकर दिखाया। हिंदी के दूसरे कवियो के मिलते-जुलते पद्यों की बिहारी की दोहों के साथ तुलना करके शर्मा जी ने तारत्मिक आलोचना का शौक पैदा किया। इस पुस्तक में शर्मा जी ने उस आक्षेपों का बहुत कुछ परिहास किया जो देव को ऊँचा सिद्ध करने के लिए बिहारी पर किये गये थे।
देव और बिहारी के झगड़े को लेकर पहली पुस्तक पं. कृष्णबिहारी मिश्र के मैदान में आई। मिश्रबंधुओं की अपेक्षा पं. कृष्णबिहारी मिश्र साहित्यिक आलोचना के कहीं अधिक अधिकारी कहे जा सकते हैं।
देव और बिहारी के उत्तर में लाला भगवानदीन ने बिहारी और देव नाम की पुस्तक निकाली जिसमें उन्होंने मिश्रबंधुओं के भद्दे आक्षेपों का उचित शब्दों में जवाब देकर पं. कृष्णबिहारी मिश्र जी बातों पर भी पूरा विचार किया।
डॉ. नगेन्द्र की ‘सुमित्रानंदन पंत पुस्तक ही ठिकाने की मिली है।