रीतिकाल में काव्यशास्त्र से संबंधित अनेक ग्रंथों की रचना हुई। यह ग्रंथ काव्यशास्त्र के विभिन्न अंगों को लेकर लिखे गए। इनमें से कुछ ग्रंथ सर्वांग निरूपक ग्रंथ से थे जबकि कुछ विशेषांग निरूपक थे। रीतिकाल के ध्वनि ग्रंथ।
विशेषांग निरूपक ग्रंथों में ध्वनि संबंधी ग्रंथ, रस संबंधी ग्रंथ, अलंकार संबंधी ग्रंथ, छंद शास्त्र संबंधी ग्रंथ, इत्यादि ग्रंथों का प्रणयन हुआ।
1. कुलपति ― रस रहस्य (1670 ई.) ―
हिंदी रीतिशास्त्र के अंतर्गत ध्वनि के सर्वप्रथम आचार्य कुलपति मिश्र माने जाते हैं।
2. देव ― काव्यरसायन (1743 ई.) ―
देव ने ‘काव्यरसायन’ नामक ध्वनि-सिद्धांत निरूपण संबंधित ग्रंथ लिखा। इसका आधार ध्वन्यालोक ग्रंथ है। इसी ग्रंथ में अभिधा और लक्षणा का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए लिखा- “अभिधा उत्तम काव्य है, मध्य लक्षणालीन ।
अधम व्यंजना रस कुटिल, उलटी कहत नवीन।” ( काव्य रसायन)
इस ग्रंथ पर मम्मट के काव्यप्रकाश का प्रभाव है। इनका काव्य-संबंधी परिभाषा निजी एवं वैशिष्ट्यपूर्ण है।
4. कुमारमणि भट्ट ― रसिक रसाल (1719 ई.) ―
यह काव्यशास्त्र का एक श्रेष्ठ ग्रंथ है।
5. श्रीपति ― काव्यसरोज (1720 ई.) –
यह मम्मट के काव्यप्रकाश पर आधारित ग्रंथ है।
रीतिकाल के ध्वनि ग्रंथ
6. सोमनाथ ― रसपीयूषनिधि (1737 ई.) ―
सोमनाथ ने भरतपुर के महाराज बदनसिंह हेतु रसपीयूषनिधि की रचना की थी।
7. भिखारीदास ― काव्यनिर्णय (1750 ई.)
इसमें 43 प्रकार की ध्वनियों का निरूपण हुआ है।
8. जगत सिंह ― साहित्य सुधानिधि, (1801 ई.) ―
भरत, भोज, मम्मट, जयदेव, विश्वनाथ, गोविन्दभट्ट, भानुदत्त, अप्पय दीक्षित इत्यादि आचार्यों के ग्रंथों का आधार लेकर यह ग्रंथ सृजित हुआ है।
9. रणधीर सिंह ― काव्यरत्नाकर ―
‘काव्यप्रकाश’ और ‘चंद्रलोक’ के आधार पर तथा कुलपति के रस रहस्य’ ग्रंथ का आदर्श ग्रहणकर ‘काव्यरत्नाकर’ की रचना हुई।
रीतिकालीन ध्वनि ग्रंथ
10. प्रताप साहि ― व्यंग्यार्थ कौमुदी ―
यह व्यंग्यार्थ प्रकाशक ग्रंथ है, जिसमें ध्वनि की महत्ता प्रतिपादित हुई है।
11. रामदास ― कविकल्पद्रुम, (1844 ई.) ―
रामदास ने ध्वनि विषयक ग्रंथ ‘कविकल्पद्रुम’ या ‘साहित्यसार लिखा।
12. लछिराम रावणेश्वर ― कल्पतरु (1890) ―
लछिराम ने गिद्धौर नरेश महाराज रावणेश्वर प्रसाद सिंह के प्रसन्नार्थ 1890 ई. में ध्वनि विषयक रावणेश्वर कल्पतरु’ लिखा।
13. कन्हैयालाल पोद्दार ― रसमंजरी ―
यह ‘रस’ से संबंधित रचना है परन्तु इसका ढाँचा ‘ध्वनि’ पर निर्मित हुआ है। यह रचना गद्य में है जबकि इसके उदाहरण पद्यमय है। इस ग्रंथ पर मम्मट के ‘काव्यप्रकाश’ का प्रभाव है।
14. रामदहिन मिश्र ― काव्यालोक ―
यह आधुनिक काल का एक काव्यशास्त्रीय ग्रंथ है।
15. जगन्नाथ प्रसाद भानु ― काव्यप्रभाकर ―
यह आधुनिक काल का एक काव्यशास्त्रीय ग्रंथ है जिसकी रचना 1910 ई. में हुई।
हम पढ रहे हैं हालावाद, अर्थ, परिभाषा, प्रमुख हालावादी कवि, हालावाद का समय, विशेषताएं, हालावाद पर कथन, हालावादी काव्य पर विद्वानों के कथन।
गणपतिचन्द्र गुप्त ने उत्तर छायावाद/छायावादोत्तर काव्य को तीन काव्यधाराओं में व्यक्त किया है-
राष्ट्रीय चेतना प्रधान
व्यक्ति चेतना प्रधान
समष्टि चेतना प्रधान में बांटा है। इनमें से व्यक्ति चेतना प्रधान काव्य को ही हालवादी काव्य कहा गया है।
हालावाद का अर्थ/हालावाद की परिभाषा
हाला का शाब्दिक अर्थ है- ‘मदिरा’, ‘सोम’ शराब’ आदि। बच्चन जी ने अपनी हालावादी कविताओं में इसे गंगाजल, हिमजल, प्रियतम, सुख का अभिराम स्थल, जीवन के कठोर सत्य, क्षणभंगुरता आदि अनेक प्रतीकों के रूप में प्रयोग किया है।
हालावाद हिन्दी शब्दकोश के अनुसार— साहित्य, विशेषतः काव्य की वह प्रवृत्ति या धारा, जिसमें हाला या मदिरा को वर्ण्य विषय मानकर काव्यरचना हुई हो। साहित्य की इस धारा का आधार उमर खैयाम की रुबाइयाँ रही हैं।
हालावादी काव्य का संबंध ईरानी साहित्य से है जिस का भारत में आगमन अनूदित साहित्य के माध्यम से हुआ।
जब छायावादी काव्य की एक धारा स्वच्छंदत होकर व्यक्तिवादी-काव्य में विकसित हुआ। इस नवीन काव्य धारा में पूर्णतया वैयक्तिक चेतनाओं को ही काव्यमय स्वरों और भाषा में संजोया-संवारा गया है।
Halawad
डॉ.नगेन्द्र ने छायावाद के बाद और प्रगतिवाद के पूर्व की कविता को ‘वैयक्तिक कविता’ कहा है। डॉ. नगेन्द्र के अनुसार, “वैयक्तिक कविता छायावाद की अनुजा और प्रगतिवाद की अग्रजा है, जिसने प्रगतिवाद के लिए एक मार्ग प्रशस्त किया। यह वैयक्तिक कविता आदर्शवादी और भौतिकवादी,दक्षिण और वामपक्षीय विचारधाराओं के बीच का एक क्षेत्र है।”
इस नवीन काव्य धारा को ‘वैयक्तिक कविता’ या ‘हालावाद’ या ‘नव्य-स्वछंदतावाद’ या ‘उन्मुक्त प्रेमकाव्य’ या ‘प्रेम व मस्ती के काव्य’ आदि उपमाओं से अभिहित किया गया है। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उत्तर छायावाद को छायावाद का दूसरा उन्मेष कहा है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने उत्तर छायावाद/छायावादोत्तर काव्य को “स्वछन्द काव्य धारा” कहा है।
हालावाद के जनक
हरिवंश राय बच्चन हालावाद के प्रवर्तक माने जाते है। हिन्दी साहित्य में हालावाद का प्रचलन बच्चन की मधुशाला से माना जाता है। हालावाद नामकरण करने का श्रेय रामेश्वर शुक्ल अंचल को प्राप्त है।
1.निशा निमंत्रण 2.एकांत-संगीत 3.आकुल-अंतर 4.दो चट्टाने 5.हलाहल 6.मधुबाला 7.मधुशाला 8.मधुकलश 9.मिलन-यामिनी 10.प्रणय-पत्रिका 11.आरती और अंगारे 12.धार के इधर-उधर 13.विकल विश्व 14.सतरंगिणी 15.बंगाल का अकाल 16.बुद्ध और नाचघर.17.कटती प्रतिमाओं की आवाज।
भगवती चरण वर्मा(1903-1980 )
काव्य रचनाएं:
1. मधुवन 2. प्रेम-संगीत 3.मानव 4.त्रिपथगा 5. विस्मृति के फूल।
रामेश्वर शुक्ल अंचल(1915-1996)
काव्य-रचनाएं
1.मधुकर 2.मधूलिका 3. अपराजिता 4.किरणबेला 5.लाल-चूनर 6. करील 7. वर्षान्त के बादल 8.इन आवाजों को ठहरा लो।
नरेंद्र शर्मा(1913-1989):
काव्य रचनाएं
1.प्रभातफेरी 2.प्रवासी के गीत 3.पलाश वन 4.मिट्टी और फूल 5.शूलफूल 6.कर्णफूल 7.कामिनी 8.हंसमाला 9.अग्निशस्य 10.रक्तचंदन 11.द्रोपदी 12.उत्तरजय।
हालावाद का समय
हालावाद का समय 1933 से 1936 तक माना जाता है।
छायावाद और हालावाद/छायावादोत्तर काव्य में अंतर
छायावादी तथा छायावादोत्तर काव्य की मूल प्रवृत्ति व्यक्ति निश्ड है फिर भी दोनों में अंतर है डॉ तारकनाथ बाली के अनुसार- “छायावादी व्यक्ति-चेतना शरीर से ऊपर उठकर मन और फिर आत्मा का स्पर्श करने लगती है जबकि इन कवियों में व्यक्तिनिष्ठ चेतना प्रधानरूप से शरीर और मन के धरातल पर ही व्यक्त होती रही है। इन्होंने प्रणय को ही साध्य के रूप में स्वीकार करने का प्रयास किया है । छायावादी काव्य जहाँ प्रणय को जीवन की यथार्थ-विषम व्यापकता से संजोने का प्रयास करता है वहाँ प्रेम और मस्ती का यह काव्य या तो यथार्थ से विमुख होकर प्रणय में तल्लीन दिखायी देता है, या फिर जीवन की व्यापकता को प्रणय की सीमाओं में ही खींच लाता है।” (हिंदी साहित्य का इतिहास सं. डॉ. नगेन्द्र)
छायावादी काव्य की प्रणयानुभूतियां आत्मा को स्पर्श करने वाली हैं। छायावादियों का प्रेम शनैः -शनैः सूक्ष्म से स्थूल की ओर, शरीर से अशरीर की ओर तथा लौकिक से अलौकिकता की ओर अग्रसर होता है, जबकि छायावादोत्तर (हालवादी) काल के कवियों के यहां प्रेम केंद्रीय शक्ति की तरह है।
हालावाद/छायावादोत्तर काव्य की प्रमुख विशेषताएं
जीवन के प्रति व्यापक दृष्टि का अभाव
आध्यात्मिक अमूर्तता तथा लौकिक संकीर्णता का विरोध
धर्मनिरपेक्षता
जीवन सापेक्ष दृष्टिकोण
द्विवेदी युगीन नैतिकता और छायावादी रहस्यात्मकता का परित्याग
स्वानुभूति और तीव्र भावावेग
उल्लास और उत्साह
जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण
जीवन का लक्ष्य स्पष्ट
भाषा एवं शिल्प
काव्य भाषा- छायावाद की भाषा में जो सूक्ष्मता और वक्रता है वह छायावादोत्तर काव्य में नहीं है।इसका कारण यह है कि इस काव्य में भावनाओं की वैसी जटिलता और गहनता नहीं है, जैसी छायावाद में थीं। लेकिन छायावाद की तरह यह काव्य भी मूलतः स्वच्छंदतावादी काव्य है, इसलिए इसकी भाषा में बौद्धिकता का अभाव है तथा मुख्य बल भाषा की सुकुमारता, माधुर्य और लालित्य पर है। छायावादोत्तर काव्य सीधी-सरल पदावली द्वारा जीवन की अनुभूतियों को व्यक्त करने का प्रयास करता है। छायावादोत्तर काल के कवियों का भाषा के क्षेत्र में सबसे बड़ा योगदान था- काव्य भाषा को बोलचाल की भाषा के नजदीक लाना। यह काम न तो द्विवेदी युग में हुआ था और न ही छायावाद में। यद्यपि इन कवियों ने भी आमतौर पर तत्सम प्रधान शब्दावली का ही प्रयोग किया परन्तु समास बहुलता, संस्कृतनिष्ठता से उन्होंने छुटकारा पा लिया। साथ ही जहाँ आवश्यक हुआ, वहाँ तद्भव, देशज और उर्दू शब्दों का भी प्रयोग किया।
Halawad
काव्य शिल्प – इस काव्यधारा ने भी मुख्यत: मुक्तक रचना की ओर ही अपना ध्यान केन्द्रित किया मुक्तक रचना में भी इन कवियों की प्रवृत्ति गीत रचना की और अधिक थी। इसका एक कारण तो इनका रोमानी प्रवृत्ति का होना था, दूसरा कारण संभवत: यह था कि इनमें से अधिकांश कवि अपनी रचनाओं को सभाओं, गोष्ठियों और कवि सम्मेलनों में पेश करते थे। इस काव्यधारा के गीतों में छायावाद जैसी रहस्यात्मकता और संकोच नहीं है बल्कि अपनी हृदयगत भावनाओं को कवियों ने बेबाक ढंग से प्रस्तुत किया है। यहाँ भी कवि का “मैं” उपस्थित है। इस दौर के गीतिकाव्य की विशेषता का उल्लेख करते हुए डॉ रामदरश मिश्र कहते हैं, “वैयक्तिक गीतिकविता की अभिव्यक्तिमूलक सादगी उसकी एक बहुत बड़ी देन है कवि सीधे-सादे शब्दों, परिचिंत चित्रों और सहज कथन भंगिमा के द्वारा अपनी बात बड़ी सफाई से कह देता है।” डॉ. रामदरश मिश्र
हालावादी काव्य पर विद्वानों के कथन
“व्यक्तिवादी कविता का प्रमुख स्वर निराशा का है, अवसाद का है, थकान का है, टूटन का है, चाहे किसी भी परिप्रेक्ष्य में हो।” -डॉ. रामदरश मिश्र
डॉ. हेतु भारद्वाज ने हालावादी काव्य को “क्षयी रोमांस और कुण्ठा का काव्य” कहा है।
डॉ. बच्चन सिंह ने हालावाद को “प्रगति प्रयोग का पूर्वाभास” कहा है।
“मधुशाला की मादकता अक्षय है”-सुमित्रानंदन पंत
” मधुशाला में हाला, प्याला, मधुबाला और मधुशाला के चार प्रतीकों के माध्यम से कवि ने अनेक क्रांतिकारी, मर्मस्पर्शी, रागात्मक एवं रहस्यपूर्ण भावों को वाणी दी है।” -सुमित्रानंदन पंत
हालावादी काव्य को हजारी प्रसाद द्विवेदी ने “मस्ती, उमंग और उल्लास की कविता” कहा है।
हालावादी कवियों ने “अशरीरी प्रेम के स्थान पर शरीरी प्रेम को तरजीह दी है।”
संदर्भ-
हिन्दी साहित्य का इतिहास – डॉ नगेन्द्र
हिन्दी साहित्य का इतिहास – आ. शुक्ल
इग्नू पाठ्यसामग्री
हालावाद | अर्थ | परिभाषा | प्रमुख हालावादी कवि | हालावाद का समय | विशेषताएं | हालावाद पर कथन | हालावादी काव्य पर विद्वानों के कथन |
अपभ्रंश में 29 मात्रओं का एक रासा या रास छंद प्रचलित था।
विद्वानों ने दो प्रकार के ‘रास’ काव्यों का उल्लेख किया है- कोमल और उद्धृत।
प्रेम के कोमल रूप और वीर के उद्धत रुप का सम्मिश्रण पृथ्वीराज रासो में है।
‘रासो’ साहित्य हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि है।
शब्द ‘रासो’ की व्युत्पत्ति के संबंध में विद्वानों में मतैक्य का अभाव है।
क्या है रासो साहित्य?
रासो शब्द का अर्थ बताइए?
विभिन्न विद्वानों ने इस संबंध में अनेक मत दिए हैं जिनमें से प्रमुख मत इस प्रकार से हैं-
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार बीसलदेव रासो में प्रयुक्त ‘रसायन’ शब्द ही कालान्तर में ‘रासो’ बना।
गार्सा द तासी के अनुसार ‘रासो’ की उत्पत्ति ‘राजसूय’ शब्द से है।
रामचन्द्र वर्मा के अनुसार इसकी उत्पत्ति ‘रहस्य’ से हुई है।
मुंशी देवीप्रसाद के अनुसार ‘रासो’ का अर्थ है कथा और उसका एकवचन ‘रासो’ तथा बहुवचन ‘रासा’ है।
ग्रियर्सन के अनुसार ‘रायसो’ की उत्पत्ति राजादेश से हुई है।
गौरीशंकर ओझा के अनुसार ‘रासा’ की उत्पत्ति संस्कत ‘रास’ से हुई है।
पं० मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या के अनुसार ‘रासो’ की उत्पत्ति संस्कत ‘रास’ अथवा ‘रासक’ से हुई है।
मोतीलाल मेनारिया के अनुसार जिस ग्रंथ में राजा की कीर्ति, विजय, युद्ध तथा तीरता आदि का विस्तत वर्णन हो, उसे ‘रासो’ कहते हैं।
विश्वनाथप्रसाद मिश्र के अनुसार ‘रासो’ की व्युत्पत्ति का आधार ‘रासक’ शब्द है।
कुछ विद्वानों के अनुसार राजयशपरक रचना को ‘रासो’ कहते हैं।
विभिन्न विद्वानों ने इस संबंध में अनेक मत दिए हैं जिनमें से प्रमुख मत इस प्रकार से हैं-
बैजनाथ खेतान के अनुसार ‘रासो या ‘रायसों’ का अर्थ है झगड़ा, पचड़ा या उद्यम और उसी ‘रासो’ की उत्पत्ति है।
के० का० शास्त्री तथा डोलरराय माकंड के अनुसार ‘रास’ या ‘रासक मूलतः नत्य के साथ गाई जाने वाली रचनाविशेष है।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार ‘रासो’ तथा ‘रासक’ पर्याय हैं और वह मिश्रित गेय-रूपक हैं।
कुछ विद्वानों के अनुसार गुजराती लोक-गीत-नत्य ‘गरबा’, ‘रास’ का ही उत्तराधिकारी है।
डॉ० माताप्रसाद गुप्त के अनुसार विविध प्रकार के रास, रासावलय, रासा और रासक छन्दों, रासक और नाट्य-रासक, उपनाटकों, रासक, रास तथा रासो-नृत्यों से भी रासो प्रबन्ध-परम्परा का सम्बन्ध रहा है. यह निश्चय रूप से नहीं कहा जा सकता। कदाचित् नहीं ही रहा है।
मं० र० मजूमदार के अनुसार रासाओं का मुख्य हेतु पहले धर्मोपदेश था और बाद में उनमें कथा-तत्त्व तथा चरित्र-संकीर्तन आदि का समावेश हुआ।
विजयराम वैद्य के अनुसार ‘रास’ या ‘रासो’ में छन्द, राग तथा धार्मिक कथा आदि विविध तत्व रहते हैं।
डॉ० दशरथ शर्मा के अनुसार रास के नृत्य, अभिनय तथा गेय-वस्तु-तीन अंगों से तीन प्रकार के रासो (रास, रासक-उपरूपक तथा श्रव्य-रास) की उत्पत्ति हुई।
विभिन्न विद्वानों ने इस संबंध में अनेक मत दिए हैं जिनमें से प्रमुख मत इस प्रकार से हैं-
हरिबल्लभ भायाणी ने सन्देश रासक में और विपिनबिहारी त्रिवेदी ने पृथ्वीराज रासो में ‘रासा’ या ‘रासो’ छन्द के प्रयुक्त होने की सूचना दी है।
कुछ विद्वानों के अनुसार रसपूर्ण होने के कारण ही रचनाएँ, ‘रास’ कहलाई।
‘भागवत’ में ‘रास’ शब्द का प्रयोग गीत नृत्य के लिए हुआ है।
‘रास’ अभिनीत होते थे, इसका उल्लेख अनेक स्थान पर हुआ है। (जैसे-भावप्रकाश, काव्यानुशासन तथा साहितय-दर्पण आदि।)
हिन्दी साहित्य कोश में ‘रासो’ के दो रूप की ओर संकेत किया गया है गीत-नत्यपरक (पश्चिमी राजस्थान तथा गुजरात में समद्ध होने वाला) और छंद-वैविध्यपरक (पूर्वी राजस्थान तथा शेष हिन्दी में प्रचलित रूप।)
‘रासो’ शब्द की व्युत्पत्ति, अर्थ, रासो साहित्य, विभिन्न प्रमुख मत, क्या है रासो साहित्य?, रासो शब्द का अर्थ एवं पूरी जानकारी।
इस आलेख में कामायनी के विषय में कथन, Kamayani पर महत्त्वपूर्ण कथन, Kamayani पर किसने क्या कहा? कामायनी पर विभिन्न साहित्यकारों एवं आलोचकों के विचार आदि के बारे में जानकारी देने का प्रयास किया गया है।
कामायनी पर महत्त्वपूर्ण कथन
Kamayani पर किसने क्या कहा?
कामायनी को छायावाद का उपनिषद किसने कहा?
Kamayani पर विभिन्न साहित्यकारों एवं आलोचकों के विचार
कामायनी पर महत्वपूर्ण कथन
जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित महाकाव्य कामायनी के संबंध में प्रमुख आलोचकों एवं साहित्यकारों के प्रमुख कथन-
कामायनी के बारे में संपूर्ण संक्षिप्त जानकारी प्राप्त करने के लिए यहाँ क्लिक कीजिए
नगेन्द्र- कामायनी मानव चेतना का महाकाव्य है। यह आर्ष ग्रन्थ है।
मुक्तिबोध- कामायनी फैंटेसी है।
इन्द्रनाथ मदान- कामायनी एक असफल कृति है।
नन्द दुलारे वाजपेयी- कामायनी नये युग का प्रतिनिधि काव्य है।
सुमित्रानन्दन पंत- कामायनी ताजमहल के समान है
नगेन्द्र- कामायनी एक रूपक है
श्यामनारायण पाण्डे- कामायनी विश्व साहित्य का आठवाँ महाकाव्य है
रामधारी सिंह दिनकर- कामायनी दोष रहित, दोष सहित रचना है
डॉ नगेन्द्र- कामायनी समग्रतः में समासोक्ति का विधान लक्षित करती है
नामवार सिंह- कामायनी आधुनिक सभ्यता का प्रतिनिधि महाकाव्य है
हरदेव बाहरी- कामायनी आधुनिक हिन्दी साहित्य का सर्वोत्तम महाकाव्य है
रामरतन भटनागर- कामायनी मधुरस से सिक्त महाकाव्य है
विश्वंभर मानव- कामायनी विराट सांमजस्य की सनातन गाथा है
कामायनी का कवि दूसरी श्रेणी का कवि है -हजारी प्रसाद द्विवेदी
कामायनी वर्तमान हिन्दी कविता में दुर्लभ कृति है- हजारी प्रसाद द्विवेदी
रामचन्द्र शुक्ल- कामायनी में प्रसाद ने मानवता का रागात्मक इतिहास प्रस्तुत किया है जिस प्रकार निराला ने तुलसीदास के मानस विकास का बड़ा दिव्य और विशाल रंगीन चित्र खींचा है
शांति प्रिय द्विवेदी- कामायनी छायावाद का उपनिषद् है
रामस्वरूप चतुर्वेदी- कामायनी को कंपोजिशन की संज्ञा देने वाले
बच्चन सिंह- मुक्तिबोध का कामायनी संबंधी अध्ययन फूहड़ मार्क्सवाद का नमूना है
Kamayani Par Kathan
मुक्तिबोध- कामायनी जीवन की पुनर्रचना है
नगेन्द्र- कामायनी मनोविज्ञान की ट्रीटाइज है
रामस्वरूप चतुर्वेदी- कामायनी आधुनिक समीक्षक और रचनाकार दोनों के लिए परीक्षा स्थल है
रामनाथ सुमन- कामायनी आधुनिक हिंदी कविता का रामचरित मानस है
आचार्य नंददुलारे वाजपेयी- कामायनी में प्रसाद ने मानवता का रागात्मक इतिहास प्रस्तुत किया है कामायनी मानवता का रागात्मक इतिहास एवं नवीन युग का महाकाव्य है
नामवर सिंह- कामायनी में नारी की लज्जा का जो भव्य चित्रण हुआ, वह सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में दुर्लभ है।
निराला- कामायनी संपूर्ण जीवन चरित्र है, यह मानवीय कमजोरियों पर मानव की विजय की गाथा है।
नामवर सिंह- मानस ने वाल्मीकि रामायण और कामायनी ने मानस के पाठकों के लिए बदल दिया है
आ. रामचंद्र शुक्ल- यदि मधुचर्या का अतिरेक और रहस्य की प्रवृति बाधक नहीं होती तो कामायनी के भीतर मानवता की योजना शायद अधिक पूर्ण और सुव्यवस्थित रूप में चित्रित होती।
नामवर सिंह- कामायनी मार्क्सवाद की प्रस्तुती हैं।
रामधारी सिंह दिनकर- कामामनी नारी की गरिमा का महाकाव्य है।
डॉ धीरेन्द्र वर्मा- कामामनी एक विशिष्ट शैली का महाकाय है, शिल्प की प्रौढ़ता कामायनी की मुख्य विशेषता है।
धर्मवीर भारती की जीवनी, साहित्य, कविताएं, कहानी, उपन्यास, निबंध, नाटक, यात्रा विवरण, पत्र-पत्रिकाओं का संपादन, पुरस्कार एवं मान-सम्मान तथा विशेष तथ्य आदि
जन्म- 25 दिसंबर 1926
जन्म भूमि- इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश
मृत्यु -4 सितंबर, 1997
मृत्यु स्थान- मुम्बई, महाराष्ट्र
अभिभावक – चिरंजीवलाल वर्मा, चंदादेवी
पति/पत्नी- कांता कोहली, पुष्पलता शर्मा (पुष्पा भारती)
आधुनिक काल के साहित्यकार रांगेय राघव के जीवन-परिचय के साथ-साथ हम इनके साहित्य, काव्य, उपन्यास, कहानी, भाषा शैली, पुरस्कार एवं अन्य तथ्य सहित पूरी जानकारी प्राप्त करेंगे।
पूरा नाम- तिरूमल्लै नंबकम् वीरराघव आचार्य (टी.एन.बी.आचार्य)
जन्म -17 जनवरी, 1923
जन्म भूमि- आगरा, उत्तर प्रदेश
मृत्यु -12 सितंबर, 1962
मृत्यु स्थान- मुंबई, महाराष्ट्र
अभिभावक -श्री रंगनाथ वीर राघवाचार्य श्रीमती वन-कम्मा
पत्नी – सुलोचना
कर्म-क्षेत्र -उपन्यासकार, कहानीकार, कवि, आलोचक, नाटककार और अनुवादक
अजेय खंडहर-1944 ( किस रचना को निम्न तीन शीर्षकों में बांटा गया है – 1. झंकार 2. ललकार 3. हुँकार)
पिघलते पत्थर-1946 (मुक्तक काव्य)
मेधावी-1947
राह के दीपक-1947
पांचाली-1955
रूपछाया
जीवन-परिचय एवं साहित्य : रांगेय राघव के उपन्यास
घरौंदा-1946
विषाद मठ
मुरदों का टीला (मोहनजोदड़ो का गणतंत्र)-1948
सीधा साधा रास्ता
हुजूर
चीवर-1951
प्रतिदान
अँधेरे के जुगनू (आंचलिक श्रेणी का उपन्यास )-1953
काका
उबाल
पराया
आँधी की नावें
अँधेरे की भूख
बोलते खंडहर
कब तक पुकारूँ (ब्रज के नटों के जीवन का वर्णन)
पक्षी और आकाश
बौने और घायल फूल
राई और पर्वत
बंदूक और बीन
राह न रुकी
जब आवेगी काली घटा-1958
छोटी सी बात
पथ का पाप
धरती मेरा घर
आग की प्यास
कल्पना
प्रोफेसर
दायरे
पतझर
आखिरी आवाज
रांगेय राघव के जीवनी प्रधान उपन्यास
डॉ. रांगेय राघव जी ने 1950 ई. के पश्चात् कई जीवनी प्रधान उपन्यास लिखे हैं, इनका पहला उपन्यास सन् 1951-1953 ई. के बीच प्रकाशित हुआ।
भारती का सपूत -जो भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की जीवनी पर आधारित है।
लखिमा की आंखें -जो विद्यापति के जीवन पर आधारित है।
मेरी भव बाधा हरो -जो बिहारी के जीवन पर आधारित है।
रत्ना की बात- जो तुलसी के जीवन पर आधारित है।
लोई का ताना -जो कबीर- जीवन पर आधारित है।
धूनी का धुंआं -जो गोरखनाथ के जीवन पर कृति है।
यशोधरा जीत गई (1954)-जो गौतम बुद्ध पर लिखा गया है।
देवकी का बेटा’ -जो कृष्ण के जीवन पर आधारित है।
रांगेय राघव के कहानी संग्रह
साम्राज्य का वैभव
देवदासी
समुद्र के फेन
अधूरी मूरत
जीवन के दाने
अंगारे न बुझे
ऐयाश मुरदे
इन्सान पैदा हुआ
पाँच गधे
एक छोड़ एक
रांगेय राघव की कहानियाँ
गदल ( राजस्थानी परिवेश से प्रेम की निगूढ़ अभिव्यक्ति)
रांगेय राघव के नाटक
स्वर्णभूमि की यात्रा
रामानुज
विरूढ़क
रांगेय राघव के रिपोर्ताज
तूफ़ानों के बीच
रांगेय राघव की आलोचनाएं
भारतीय पुनर्जागरण की भूमिका
भारतीय संत परंपरा और समाज
संगम और संघर्ष
प्राचीन भारतीय परंपरा और इतिहास
प्रगतिशील साहित्य के मानदंड
समीक्षा और आदर्श
काव्य यथार्थ और प्रगति
काव्य कला और शास्त्र
महाकाव्य विवेचन
तुलसी का कला शिल्प
आधुनिक हिंदी कविता में प्रेम और शृंगार
आधुनिक हिंदी कविता में विषय और शैली
गोरखनाथ और उनका युग
रांगेय राघव के सम्मान एवं पुरस्कार
हिंदुस्तानी अकादमी पुरस्कार (1947)
डालमिया पुरस्कार (1954)
उत्तर प्रदेश शासन पुरस्कार (1957 तथा 1959)
राजस्थान साहित्य अकादमी पुरस्कार (1961)
महात्मा गाँधी पुरस्कार (1966)
रांगेय राघव संबंधी विशेष तथ्य
इन्हे हिंदी का शेक्सपीयर कहा जाता है|
प्रसिद्ध लेखक राजेंद्र यादव ने कहा है – ‘‘उनकी लेखकीय प्रतिभा का ही कमाल था कि सुबह यदि वे आद्यैतिहासिक विषय पर लिख रहे होते थे तो शाम को आप उन्हें उसी प्रवाह से आधुनिक इतिहास पर टिप्पणी लिखते देख सकते थे।”
दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक विभास चन्द्र वर्मा ने कहा कि आगरा के तीन ‘र‘ का हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान है और ये हैं रांगेय राघव, रामविलास शर्मा और राजेंद्र यादव। वर्मा ने कहा कि रांगेय राघव हिंदी के बेहद लिक्खाड़ लेखकों में शुमार रहे हैं। उन्होंने क़रीब क़रीब हर विधा पर अपनी कलम चलाई और वह भी बेहद तीक्ष्ण दृष्टि के साथ।
उन्हें हिन्दी का पहला मसिजीवी क़लमकार भी कहा जाता है जिनकी जीविका का साधन सिर्फ़ लेखन था।
1942 में अकालग्रस्त बंगाल की यात्रा के बाद एक रिपोर्ताज लिखा- तूफ़ानों के बीच।
आधुनिक काल के साहित्यकार रांगेय राघव के जीवन-परिचय के साथ-साथ हम इनके साहित्य, काव्य, उपन्यास, कहानी, भाषा शैली, पुरस्कार एवं अन्य तथ्य सहित पूरी जानकारी प्राप्त की।
एकान्तवासी योगी- 1886 ई- अंग्रेजी साहित्य के गोल्डस्मिथ द्वारा रचित ‘हरमीट’ का हिंदी अनुवाद|
ऊजड़ ग्राम- 1889 ई.- गोल्डस्मिथ द्वारा रचित ‘डेजर्टिड विलिज’ का हिंदी अनुवाद|
श्रान्त पथिक-1902 ई.- गोल्डस्थिम द्वारा रचित ‘ट्रेवलर’ का हिंदी अनुवाद|
ऋतुसंहार ( संस्कृत के कालीदास की नाट्य रचना का अनुवाद)
(ख) मौलिक प्रबंधात्मक रचनाएं
जगत सचाई सार- 1887 ई.
काश्मीर सुषमा- 1904 ई.
आराध्य-शोकांजलि- 1906-( यह रचना इन्होंने अपने पिता की मृत्यु पर लिखी|)
जार्ज वंदना- 1912
भक्ति-विभा- 1913
गोखले प्रशस्ति- 1915
देहरादून- 1915
गोपिका गीत- 1916
भारत-गीत- 1928
मनोविनोद
वनाष्टक
बालविधवा
भारतोत्थान
भारत-प्रशंसा
गुनवंत हेमंत
स्वर्ग-वीणा नोट:- ‘जगत सचाई सार’,’ सुथरे साइयों के सधुक्कड़ी’ ढंग पर लिखा गया है यथा:-
“जगत है सच्चा, तनिक न कच्चा, समझो बच्चा इसका भेद|” यह 51 पदों की लम्बी कविता है|
– ‘स्वर्ग वीणा’ मे परोक्ष सत्ता के रहस्य संकेत मिलते है|
श्रीधर पाठक के बारे में विशेष तथ्य
श्रीधर पाठक जी भारतेंदु हरिश्चंद्र का महावीर प्रसाद द्विवेदी दोनों के समकालीन रहे|
अपने समय के कवियों में प्रकृति का वर्णन पाठक जी ने सबसे अधिक किया, इससे हिंदी प्रेमियों में यह ‘प्रकृति के उपासक कवि’ नाम से प्रसिद्ध हुए|
गांव को काव्यवस्तु के रूप में लाने का श्रेय है पाठक जी को दिया जाता है|
रामचंद्र शुक्ल के अनुसार आधुनिक खड़ी बोली पद्य की पहली पुस्तक ‘एकांतवासी योगी’ मानी जाती है|, जो लावनी या ख्याल के ढंग पर लिखी गई है|
यह आधुनिक खडी बोली के प्रथम कवि माने जाते हैं|
श्रीधर पाठक की जीवनी, साहित्य, रचनाएं, प्रबन्धात्मक काव्य, मौलिक प्रबन्धात्मक रचनाएं तथा श्रीधर पाठक से संबंधित विशेष तथ्य
श्रीकांत वर्मा की जीवनी एवं साहित्य, काव्य रचनाएं, उपन्यास, कहानी, साक्षात्कार, भाषाशैली, रचनावली, पुरस्कार एवं सम्मान तथा विशेष तथ्य
जन्म- 18 सितम्बर, 1931
जन्म भूमि- बिलासपुर, छत्तीसगढ़
मृत्यु- 26 मई, 1986
मृत्यु स्थान- न्यूयार्क (जीवन के अंतिम क्षणों में श्रीकांत वर्मा जी को अनेक बीमारियों ने घेर रखा था। अमेरिका में वे कैंसर का इलाज कराने के लिए गए थे। 26 मई, 1986 को न्यूयार्क में उनका निधन हुआ।)
अभिभावक – राजकिशोर वर्मा
काल- नई कविता आन्दोलन के कवि
श्रीकांत वर्मा का साहित्य
श्रीकांत वर्मा की काव्य रचनाएं
भटका मेघ (1957),
मायादर्पण (1967),
दिनारंभ (1967),
जलसाघर (1973),
मगध (1983)
और गरुड़ किसने देखा (1986)
श्रीकांत वर्मा के उपन्यास
दूसरी बार (1968)
श्रीकांत वर्मा के कहानी संग्रह
झाड़ी (1964),
संवाद (1969),
घर (1981),
दूसरे के पैर (1984),
अरथी (1988),
ठंड (1989),
वास (1993)
और साथ (1994)
श्रीकांत वर्मा के यात्रा वृत्तांत
संकलन – प्रसंग।
श्रीकांत वर्मा के संकलन
जिरह (1975)
श्रीकांत वर्मा का साक्षात्कार
बीसवीं शताब्दी के अंधेरे में (1982)।
अनुवाद – ‘फैसले का दिन’ रूसी कवि आंद्रे बेंज्नेसेंस्की की कविता का अनुवाद।
श्रीकांत वर्मा के पुरस्कार एवं सम्मान : श्रीकांत वर्मा जीवनी साहित्य
‘तुलसी पुरस्कार’ (1973) – मध्य प्रदेश सरकार।
‘आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी पुरस्कार’ (1983)
‘शिखर सम्मान’ (1980)
‘कुमार आशान राष्ट्रीय पुरस्कार’ (1984) – केरल सरकार।
‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ (1987) – ‘मगध’ नामक कविता संग्रह के लिए मरणोपरांत।
श्रीकांत वर्मा के विशेष तथ्य : श्रीकांत वर्मा जीवनी साहित्य
1954 में उनकी भेंट गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ से हुई। उनकी प्रेरणा से बिलासपुर में श्रीकांत वर्मा ने नवलेखन की पत्रिका ‘नयी दिशा’ का संपादन करना शुरू किया।
1956 से नरेश मेहता के साथ प्रख्यात साहित्यिक पत्रिका ‘कृति’ का दिल्ली से संपादन एवं प्रकाशन कार्य किया।
ये 1976 में राज्य सभा में निर्वाचित हुए थे।
वर्ष 1965 से 1977 तक उन्होंने ‘टाइम्स ऑफ़ इण्डिया’ से निकलने वाली पत्रिका ‘दिनमान’ में संवाददाता की हैसियत से कार्य किया।
बाद के समय में श्रीकांत वर्मा कांग्रेस की राजनीति में सक्रिय हो गए और उन्हें ‘दिनमान’ से अलग होना पड़ा। 1969 में वे तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के काफ़ी क़रीब आये।
वे कांग्रेस के महासचिव भी बनाये गये थे। 1976 में वे मध्य प्रदेश से राज्य सभा में निर्वाचित हुए। इसके बाद 1980 में कांग्रेस प्रचार समीति के अध्यक्ष नियुक्त हुए। राजीव गाँधी के शासन काल में उन्हें 1985 में महासचिव के पद से हटा दिया गया।
कुंवर नारायण का जीवन-परिचय, साहित्यिक-परिचय भाषा शैली, कविता कोश, रचनाएं, खंडकाव्य, मान-सम्मान एवं विशेष तथ्य आदि की जानकारी
जन्म- 19 सितम्बर, 1927
मृत्यु- 15 नवंबर 2017
जन्म भूमि- फैजाबाद, उत्तर प्रदेश
कर्म-क्षेत्र- कवि, लेखक
युग- प्रयोगवाद व नई कविता युग के कवि
कुंवर नारायण की रचनाएं : कुंवर नारायण जीवन-परिचय साहित्यिक-परिचय
कुंवर नारायण की कविताएं या कविता संग्रह
चक्रव्यूह (1956),
तीसरा सप्तक (1959),
परिवेश : हम-तुम(1961),
अपने सामने (1979),
कोई दूसरा नहीं(1993),
इन दिनों(2002)।
कुंवर नारायण के खण्डकाव्य
आत्मजयी (1965)
वाजश्रवा के बहाने (2007)
कुंवर नारायण कहानी संग्रह
आकारों के आसपास (1973)
कुंवर नारायण के समीक्षा विचार
आज और आज से पहले(1998)
मेरे साक्षात्कार (1999)
साहित्य के कुछ अन्तर्विषयक संदर्भ (2003)
कुंवर नारायण के संकलन
कुंवर नारायण-संसार(चुने हुए लेखों का संग्रह) 2002,
कुँवर नारायण उपस्थिति (चुने हुए लेखों का संग्रह)(2002),
नारायण चुनी हुई कविताएँ (2007),
कुँवर नारायण- प्रतिनिधि कविताएँ (2008)
इन दिनों
कुंवर नारायण के पुरस्कार एवं सम्मान : कुंवर नारायण जीवन-परिचय साहित्यिक-परिचय
ज्ञानपीठ पुरस्कार-2005
साहित्य अकादमी पुरस्कार-1995
व्यास सम्मान
कुमार आशान पुरस्कार,
प्रेमचंद पुरस्कार,
राष्ट्रीय कबीर सम्मान,
शलाका सम्मान,
मेडल ऑफ़ वॉरसा यूनिवर्सिटी,
पोलैंड और रोम के अन्तर्राष्ट्रीय प्रीमियो फ़ेरेनिया सम्मान
पद्मभूषण -2009
कुंवर नारायण के विशेष तथ्य : कुंवर नारायण जीवन-परिचय साहित्यिक-परिचय
‘चक्रव्यूह’ इनका सबसे पहला काव्य संग्रह है|
‘आत्मजयी’ प्रबंध काव्य श्रेणी की रचना है| यह ‘कठोपनिषद्’ के यम-नचिकेता संवाद पर आधारित है इसमे नचिकेता प्रबुद्ध नयी चेतना का प्रतीक है जबकि ‘बाजश्रवा’ पुराने मूल्यों की वाहक पीढी़ का प्रतीक है|
‘वाजश्रवा के बहाने’ कृति में अपनी विधायक संवेदना के साथ जीवन के आलोक को रेखांकित किया है। यह कृति आज के इस बर्बर समय में भटकती हुई मानसिकता को न केवल राहत देती है, बल्कि यह प्रेरणा भी देती है कि दो पीढ़ियों के बीच समन्वय बनाए रखने का समझदार ढंग क्या हो सकता है।
‘कोई दुसरा नहीं’ रचना – 1995 साहित्य आकादमी पुरस्कार मिला|
हिंदी में सम्पूर्ण योगदान के लिए 2005 ई. में ‘भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार’ मिला|