27- “चू मन तूतिए-हिन्दुम, अर रास्त पुर्सी।
जे मन हिन्दुई पुर्ख, ता नाज गोयम।”— अमीर खुसरो (इसका अर्थ यह है— मैं हिंदुस्तान की तूती हूँ, अगर तुम वास्तव में मुझसे कुछ पूछना चाहते हो तो हिन्दवी में पूछो जिसमें मैं कुछ अद्भुत बातें बता सकूँ।)
काव्य रचना के साथ-साथ आदिकाल में गद्य साहित्य रचना के भी प्रयास लक्षित होते हैं जिनमें कुवलयमाला, राउलवेल, उक्ति-व्यक्ति-प्रकरण, वर्ण रत्नाकर उल्लेखनीय रचनाएं हैं।
कुवलयमाला — उद्योतनसूरि (9 वीं सदी)
“कुवलयमाला कथा में ऐसे प्रसंग हैं, जिनमें बोलचाल की तात्कालिक भाषा के नमूने मिलते हैं।”— आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
राउलवेल — रोड कवि 10 वीं शती
राउलवेल का अर्थ — राजकुल का विलास वेल/ वेलि का अर्थ = श्रृंगार व कीर्ति के सहारे ऊपर की ओर उठने वाली काव्य रूपी लता।
संपादन:- डाॅ• हरिबल्लभ चुन्नीलाल भयाणी
प्रकाशन ‘भारतीय विद्या पत्रिका’ से
यह एक शिलांकित कृति है।
मध्यप्रदेश के (मालवा क्षेत्र) धार जिले से प्राप्त हुई है और वर्तमान में मुम्बई के ‘प्रिन्स ऑफ वेल्स संग्रहालय’ में सुरक्षित है।
यह हिन्दी की प्राचीनतम (प्रथम) चम्पू काव्य (गद्य-पद्य मिश्रित) की कृति है।
हिन्दी में नख-शिख सौन्दर्य वर्णन का आरम्भ इसी ग्रंथ से होता है।
यह वेल/वेलि/ बेलि काव्य परम्परा की प्राचीनतम कृति है।
इसमें हिन्दी की सात बोलियों ( भाषाओं ) के शब्द मिलते हैं जिसमें राजस्थानी की प्रधानता है ।
इसमें नायिका सात नायिकाओं के नख-शिख सौन्दर्य का वर्णन मिलता है।
आदिकाल में गद्य साहित्य
“इस शिलालेख (राउलवेल) का विषय कलचरि राजवंश के किसी सामंत की सात नायिकाओं का नखशिख वर्णन है। प्रथम नखशिख की नायिका का ठीक पता नहीं चलता। दूसरे नखशिख की नायिका महाराष्ट्र की और तीसरे नखशिख की नायिका पश्चिमी राजस्थान अथवा गुजरात की है। चौथे नखशिख में किसी टक्किणी का वर्णन है । पाँचवें नखशिख का सम्बन्ध किसी गौड़ीया से है और छठे नखशिख का सम्बन्ध दो मालवीयाओं से है। ये सारी नायिकायें इस सामंत की नव विवाहितायें हैं ।”― डाॅ• माता प्रसाद गुप्त
डाॅ• माता प्रसाद गुप्त के सम्पादन इसका एक संस्करण प्रकाशित हुआ। इन्होंने ‘इसका’ समय 10-11 वीं शताब्दी तथा इसकी भाषा को सामान्यतः दक्षिणी कौशली माना है।
बच्चन सिंह ने इसका रचयिता ‘ रोउ/ रोड’ कवि को माना है।
उक्तिव्यक्ति प्रकरण — दामोदर शर्मा (बारहवीं शती)
यह बनारस के महाराजा गोविंद चंद्र के सभा पंडित दामोदर शर्मा की रचनाएं है।
यह पाँच भागों में विभाजित व्याकरण ग्रंथ है।
रचनाकार ने इसकी भाषा अपभ्रंश बताई है।
डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने इसकी भाषा पुरानी कौशली माना है।
रचना का उद्देश्य राजकुमारों को कान्यकुब्
ज और काशी प्रदेश में प्रचलित तात्कालिक भाषा ‘संस्कृत’ सिखाना था।
वर्ण रत्नाकर — ज्योतिश्वर ठाकुर (14वी शताब्दी)
रचना 8 केलों (सर्ग) में विभाजित है।
इसे मैथिली का शब्दकोश भी कहा जाता है।
इसका ढांचा विश्वकोशात्मक है।
डॉ सुनीति कुमार चटर्जी तथा पंडित बबुआ मिश्र द्वारा संपादित कर रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल से प्रकाशित करवाई गई।
विविध तथ्य
पृथ्वीचंद्र की ‘मातृकाप्रथमाक्षरादोहरा’ को प्रथम बावनी काव्य माना जाता है।
‘डिंगल’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग जोधपुर के कविराजा बाँकीदास की ‘कुकवि बत्तीसी’ (सं. 1817 वि.) में हुआ है।
‘जगत्सुंदरी प्रयोगमाला’ एक वैद्यक ग्रंथ है। इसके रचयिता अज्ञात हैं।
दोहा-चौपाई छंद में ‘भगवद्गीता’ का अनुवाद करने वाला हिंदी का प्रथम कवि भुवाल (10वीं शती) हैं।
जैन साहित्य ( Jain Sahitya ) की जानकारी – जैन साहित्य ( Jain Sahitya ) की विशेषताएं, प्रमुख जैन कवि एवं आचार्य, जैन साहित्य का वर्गीकरण एवं जैन साहित्य की रास परंपरा आदि के बारे में इस पोस्ट में विस्तृत जानकारी मिलेगी।
हिंदी कविता के माध्यम से पश्चिम क्षेत्र (राजस्थान, गुजरात) दक्षिण क्षेत्र में जैन साधु ने अपने मत का प्रचार किया।
जैन कवियों की रचनाएं आचार, रास, फागु, चरित आदि विभिन्न शैलियों में प्राप्त होती है।
‘आचार शैली’ के जैन काव्यों में घटनाओं के स्थान पर उपदेशत्मकथा को प्रधानता दी गई है।
फागु और चरितकाव्य शैली की सामान्यता के लिए प्रसिद्ध है।
‘रास’ शब्द संस्कृत साहित्य में क्रीड़ा और नृत्य से संबंधित था।
भरत मुनि ने इसे ‘क्रीडनीयक’ कहा है।
अभिनव गुप्त ने ‘रास’ को एक प्रकार का रूपक बना है।
‘रास’ शब्द लोकजीवन में श्रीकृष्ण की लीलाओं के लिए रूढ़ हो गया था, जो आज भी प्रचलित है।
जैन साधुओं ने ‘रास’ को एक प्रभावशाली रचना शैली का रूप प्रदान किया।
जैन तीर्थंकरों के जीवन चरित्र तथा विष्णु अवतारों की कथा जैन आदर्शों के आवरण में ‘रास’ नाम से पद्यबद्ध की गई।
‘रास’ परंपरा से संबंधित महत्त्वपूर्ण तथ्य
‘रिपुदारणरास’ (संस्कृत भाषा) (डॉ. दशरथ ओझा ने इसका समय 905 ई. माना है।) – ‘रास’ परंपरा का प्राचीनतम ग्रंथ
‘उपदेशरसायनरास’ – ‘रास’ परंपरा का अपभ्रंश में प्रथम ग्रंथ
‘भरतेश्वर बाहुबली रास’ (1184 ई) – ‘रास’ परंपरा का हिंदी में प्रथम ग्रंथ
‘संदेश रासक’ (यह ग्रंथ जैन साहित्य से संबंधित नहीं बल्कि जन काव्य है।) – ‘रास’ परंपरा का प्रथम धर्मेतर रास ग्रंथ
शालिभद्र सूरि-II – ‘रास’ परंपरा का हिंदी का प्रथम ऐतिहासिक रास ‘पंचपांडव चरित रास (1350 ई.)
जैन मत संबंधी रचनाएँ दो तरह की हैं
प्रायः दोहों में रचित ‘मुक्तक काव्य’ में अंतस्साधना, धर्म सम्मत व्यवहार व आचरण, उपदेश, नीति कर्मकांड, वर्ण व्यवस्था आदि से संबंधित खंडन मंडन की प्रवृत्ति पायी जाती है।
जैन तीर्थंकरों तथा पौराणिक जैन साधकों की प्रेरणादायी जीवन कथा या लोक प्रचलित हिंदू कथाओं को आधार बनाकर जैन मत का प्रचार करने के लिये ‘चरित काव्य’ आदि लिखे गए हैं।
कृष्ण काव्य को जैन साहित्य में ‘हरिवंश पुराण’ कहा गया है।
जैन साहित्य ( Jain Sahitya ) की विशेषताएं
वर्ण्य विषय की विविधता (अलौकिकता के आवरण में प्रेमकथा, नीति, भक्ति इत्यादि)।
बाह्यचारों (कर्मकाण्ड़ रूढ़ियों तथा परम्पराओं) का विरोध।
चित्त शुद्धि पर बल।
घटनाओं के स्थान पर उपदेशत्मकता का प्राधान्य।
उपदेश मूलकता।
शांत रस की प्रधानता।
काव्य रूपों में विविधता (आचार, रास, फागु, चरित विविध शैलियां)।
अलंकार योजना (अर्थालंकारों में रूपक, उत्प्रेक्षा, व्यक्तिरेक, उल्लेख, अनन्वय, निदर्शना, विरोधाभास, स्वभावोक्ति, भ्रान्ति, सन्देह आदि शब्दालंन्कारों में श्लेष, यमक, और अनुप्रास की बहुलता है।)।
प्रमुख जैन कवि एवं आचार्य
आचार्य देव सेन
इनकी प्रमुख रचना ‘श्रावकाचार’ (933 ई.) है।
‘श्रावकाचार’ 250 दोहों का एक खंडकाव्य है, जिसमें श्रावकधर्म (गृहस्थ धर्म) का वर्णन है।
‘श्रावकाचार’ को हिंदी का प्रथम ग्रंथ माना जाता है।
अन्य रचनाएं
नयचक्र (लघुनयचक्र) ― सबसे प्रसिद्ध रचना
वृहद्नयचक्र (यह मूलतः दोहाबंध (अपभ्रंश भाषा) में था, किंतु बाद में माइल्ल धवल ने गाथाबंध (प्राकृत भाषा) में कर दिया।)
दर्शन सार
आराधना सार
तत्व सार
भाव संग्रह
सावयधम्म दोहा
शालिभद्र सूरि
शालिभद्र सूरि ने 1184 ईस्वी में ‘भरतेश्वर बाहुबली रास’ नामक ग्रंथ की रचना की।
यह 205 छंदों का खंडकाव्य है, जिसमें भगवान ऋषभ के पुत्र भरतेश्वर तथा बाहुबली के युद्ध का वर्णन है।
इसका संपादन मुनि जिनविजय ने किया है
मुनि जिनविजय ने ‘भरतेश्वर बाहुबली रास’ को जैन साहित्य की रास परंपरा का प्रथम ग्रंथ माना है।
शालिभद्र सूरि के ‘बुद्धि रास’ का संग्रह उनके शिष्य सिवि ने किया था।
शालिभद्र सूरि को गणपति चंद्रगुप्त ने हिंदी का प्रथम कवि माना है।
आसगु कवि
इनके द्वारा 1200 ई. में जालौर में ‘चंदनबाला रास’ नामक 35 छंदों के लघु खंडकाव्य की रचना की गई।
‘चंदनबाला रास’ चंपा नगरी के राजा दधिवाहन की पुत्री चंदनबाला की करुण कथा वर्णित है।
कथा के अंत में चंदनबाला का उद्धार भगवान महावीर द्वारा किया गया वर्णित है।
अंगीरस — करुण।
अन्य रचना — जीव दया रास।
जिनधर्मसूरि
इन्होंने 1209 ईस्वी में ‘स्थूलिभद्र रास’ नामक ग्रंथ की रचना की।
इस ग्रंथ में स्थूलिभद्र तथा कोशा नामक वेश्या की प्रेम कथा वर्णित है।
कोशा वेश्या के पास भोगलिप्त रहने वाले स्थूलिभद्र को कवि ने जैन धर्म की दीक्षा लेने के बाद मोक्ष का अधिकारी सिद्ध किया है।
इसकी भाषा अपभ्रंश प्रभावित हिंदी है।
सुमति गणि
सुमति गणि ने 1213 ई. में ‘नेमिनाथ रास’ की रचना की।
58 छंदों की इस रचना में नेमिनाथ तथा कृष्ण का वर्णन है।
इसकी भाषा अपभ्रंश प्रभावित राजस्थानी हिंदी है।
विजयसेन सूरि
उन्होंने 1231 ई. में ‘रेवंतगिरिरास’ नामक ग्रंथ लिखा।
इस ग्रंथ में नेमिनाथ की प्रतिमा तथा रेवंतगिरी नामक तीर्थ का वर्णन है।
विनयचंद्र सूरि
इनकी रचना ‘नेमिनाथ चउपई’ है।
चौपाई छंद में ‘बारहमासा’ का वर्णन इसी ग्रंथ से आरंभ माना जाता है।
अन्य रास काव्य एवं कवि
आबूरास (1232 ई.)— पल्हण
गय सुकुमार रास (14वीं शती) — देल्हण
पुराण-सार — चंद्रमुनि
योगसार — योगचंद्र मुनि
फागु काव्य
‘फागु’ बसंत ऋतु, होली आदि के अवसर पर गाया जाने वाला मादक गीत होता है।
सर्वाधिक प्राचीन फागु-ग्रंथ जिनचंद सूरि कृत ‘जिनचंद सूरि फागु’ (1284 ई.) को माना जाता है। इसमें 25 छंद हैं।
‘स्थूलिभद्र फागु’ को इस काव्य परंपरा का सर्वाधिक सुंदर ग्रंथ माना गया है।
‘विरह देसावरी फागु‘ व ‘श्रीनेमिनाथ फागु‘ राजशेखर सूरि कृत इसी परंपरा के अन्य प्रसिद्ध ग्रंथ हैं।
वज्रयानी सिद्धों के भोग प्रधान योग साधना की प्रतिक्रिया स्वरुप विकसित नाथ मत में जो साहित्य जन भाषा में लिखा है, हिंदी के नाथ साहित्य ( Nath Sahitya ) की सीमा में आता है। ‘ नाथ साहित्य एक परिचय ’ में हम जानेंगे-
सब नाथों में प्रथम आदिनाथ स्वयं शिव माने जाते हैं।
नाथ पंथ को चलाने वाले मत्स्येंद्रनाथ और गोरखनाथ थे।
गोरखनाथ द्वारा परिवर्तित योगी संप्रदाय को बारहपंथी भी कहा जाता है।
इस मत के योगी कान फड़वा कर मुद्रा धारण करते हैं, इसलिए इन्हें ‘कनफटा योगी’ या ‘भाकताफटा योगी’ भी कहा जाता है।
नाथों की संख्या – नाथ साहित्य ( Nath Sahitya ) एक परिचय
संपूर्ण नाथ साहित्य गोरखनाथ के साहित्य पर आधारित है।
नाथ साहित्य संवाद रूप में है।
मत्स्येंद्रनाथ/मछेंद्रनाथ तथा गोरक्षनाथ/ गोरखनाथ सिद्धों में भी गिने जाते हैं।
मच्छिंद्रनाथ चौथे बौधित्सव अवलोकितेश्वर के नाम से भी प्रसिद्ध हुए।
नाथों की साधना ‘हठयोग’ की साधना है।
हठयोग के ‘सिद्ध सिद्धांत पद्धती’ ग्रंथ के अनुसार ‘ह’ का अर्थ ‘सूर्य’ तथा ‘ठ’ का अर्थ ‘चंद्रमा’ माना गया है।
गोरखनाथ ने ‘षट्चक्र पद्धति’ आरंभ की।
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने चौरंगीनाथ को पूरनभगत कहा है।
जलंधरनाथ बालनाथ के नाम से तथा नागार्जुन रसायनी के नाम से प्रसिद्ध थे।
नाथ पंथ का प्रभाव पश्चिमी भारत (राजपूताना, पंजाब) में था।
नाथ पंथ की विशेषताएं – नाथ साहित्य एक परिचय
बाह्याचार, कर्मकांड, तीर्थाटन, जात-पात, ईश्वर उपासना के बाह्य विधानों का विरोध।
अंतः साधना पर बल।
चित्त शुद्धि और सदाचार में विश्वास।
गुरू महिमा।
नारी निन्दा।
भोग-विलास की कड़ी निन्दा।
गृहस्थ के प्रति अनादर का भाव।
इंद्रिय निग्रह, वैराग्य, शून्य समाधि, नाड़ी साधना, कुंडलिनी जागरण, इंगला, पिंगला, सुषुम्ना, षट्चक्र इत्यादि की साधना पर बल दिया।
उलटबांसी, रहस्यात्मकता, प्रतीक और रूपकों का प्रयोग।
सधुकड़ी भाषा का प्रयोग।
जनभाषा का परिष्कार।
गोरखनाथ – नाथ साहित्य एक परिचय
नाथ पंथ और हठयोग के प्रवर्तक गोरखनाथ थे।
गुरु गोरखनाथ के संपूर्ण जीवन परिचय एवं सभी रचनाओं एवं साहित्य को जानने के लिएयहाँ क्लिक कीजिए।
गोरखनाथ के समय को लेकर विद्वानों में मतैक्य है—
राहुल सांकृत्यायन — 845 ई.
हजारीप्रसाद द्विवेदी — 9वीं शती
पीतांबरदत्त बड़थ्वाल — 11वीं शती
रामचंद्र शुक्ल, रामकुमार वर्मा — 13वीं शती
यह मत्स्येंद्रनाथ के शिष्य थे।
गोरखनाथ आदिनाथ शिव को अपना पहला गुरु मानते थे।
मिश्रबंधुओं ने गोरखनाथ को हिंदी का ‘पहला गद्य लेखक’ माना है।
गोरखनाथ का नाथ योग ही वामाचार का विरोधी शुद्ध योग मार्ग बना।
डॉ. पीतांबर दत्त बड़थ्वाल ने गोरखनाथ के 14 ग्रंथों को प्रामाणिक मानकर उनकी वाणियों का संग्रह ‘गोरखवाणी’ (1930) शीर्षक से प्रकाशित करवाया। यह 14 ग्रंथ निम्नांकित हैं—
1. शब्द
2. पद
3. शिष्या दर्शन
4. प्राणसंकली
5. नरवैबोध
6. आत्मबोध
7. अभयमात्रा योग
8. पंद्रहतिथि
9. सप्तवार
10. मछिंद्र गोरखबोध
11. रोमावली
12. ज्ञान तिलक
13. ग्यान चौंतीसा
14. पंचमात्रा।
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इनकी 28 पुस्तकों का उल्लेख किया है।
गोरखनाथ का मुख्य स्थान गोरखपुर है।
“शंकराचार्य के बाद इतना- प्रभावशाली और इतना महिमान्वित भारतवर्ष में दूसरा नहीं हुआ। भारतवर्ष के कोने-कोने में उनके अनुयायी आज भी पाये जाते हैं। भक्ति आंदोलन के पूर्व सबसे शक्तिशाली धार्मिक आंदोलन गोरखनाथ का भक्ति मार्ग ही था। गोरखनाथ अपने सबसे बड़े नेता थे।” —आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी।
मछेंद्रनाथ
यह जाति से मछुआरे थे।
मीननाथ, मीनानाथ, मीनपाल, मछेंद्रपाल आदि नामों से प्रसिद्ध हुए।
यह जालंधर नाथ के शिष्य तथा गोरखनाथ के गुरु थे।
मत्स्येंद्रनाथ वाममार्ग मार्ग पर चलने लगे तब गोरखनाथ ने इनका उद्धार किया।
मत्स्येंद्रनाथ की 4 पुस्तकें हैं।
उनके पदों का संकलन आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘नाथ सिद्धों की वाणियां’ शीर्षक से किया है।
“नाथ पंथ या नाथ संप्रदाय के सिद्धमत, सिद्धमार्ग, योगमार्ग, योग संप्रदाय, अवधूत मत, अवधूत संप्रदाय आदि नाम भी प्रसिद्ध है।”—आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी।
“गोरखनाथ के नाथ पंथ का मूल भी बौद्धों की यही वज्रयान शाखा है। चौरासी सिद्धों में गोरखनाथ गोरक्षपा भी गिन लिए गए हैं। पर यह स्पष्ट है कि उन्होंने अपना मार्ग अलग कर लिया।”—आ.शुक्ल।
आदिकालीन हिंदी साहित्य की उपलब्ध सामग्री के दो रूप हैं- प्रथम वर्ग में वे रचनाएं आती हैं, जिनकी भाषा तो हिंदी है, परंतु वह अपभ्रंश के प्रभाव से पूर्णत: मुक्त नहीं हैं, और द्वितीय प्रकार की रचनाएं वे हैं, जिनको अपभ्रंश के प्रभाव से मुक्त हिंदी की रचनाएं कहा जा सकता है। आदिकाल की उपलब्ध सामग्री इस प्रकार है-
अपभ्रंश प्रभावित हिंदी रचनाएं इस प्रकार हैं-
(1) सिद्ध साहित्य
(2) श्रावकाचार
(3) नाथ साहित्य
(4) राउलवेल (गद्य-पद्य)
(5) उक्तिव्यक्तिप्रकरण (गद्य)
(6) भरतेश्वर-बाहुबलीरास
(7) हम्मीररासो
(8) वर्णरत्नाकर (गद्य)।
निम्नांकित रचनाएं अपभ्रंश के प्रभाव से मुक्त हिंदी की रचनाएं मानी जा सकती हैं-
सिद्धों ने बौद्ध धर्म के वज्रयान तत्वों का प्रचार करने के लिए जो साहित्य जन भाषा में लिखा है, हिंदी के सिद्ध साहित्य की सीमा में आता है। महापंडित राहुल और प्रबोध चंद्र बागची सांकृत्यायन ने 84 सिद्धों के नामों का उल्लेख किया है। जिसमें सिद्ध सरहपा से यह साहित्य आरंभ होता है।
सिद्धों के नाम के अंत में आदर्शसूचक ‘पा’ जुड़ता है।
हिंदी में ‘संधा/संध्या’ भाषा का प्रयोग सिद्धों द्वारा शुरू किया गया।
हिंदी में ‘प्रतीकात्मक शैली’ का प्रयोग सिद्धों द्वारा शुरू किया गया।
प्रथम बौद्ध सिद्ध तथा सिद्धों में प्रथम सरहपा (सातवीं-आठवीं शताब्दी) थे।
सिद्धों में विवाह प्रथा के प्रति अनास्था तथा गृहस्थ जीवन में आस्था का विरोधाभास मिलता है।
सिद्ध कवियों में महामुद्रा या शक्ति योगिनी का अर्थ स्त्री सेवन से है।
इनकी साधना पंच मकार (मांस, मैथुन, मत्स्य, मद्य, मुद्रा) की है।
उन्होंने बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा का प्रचार किया तथा तांत्रिक विधियों को अपनाया।
बंगाल, उड़ीसा, असम और बिहार इनके प्रमुख क्षेत्र थे।
नालंदा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय इनकी साधना के केंद्र थे।
वज्रयान का केंद्र ‘श्री पर्वत’ रहा है।
मैथिली ग्रंथ ‘वर्ण रत्नाकर’ में 84 सिद्धों के नाम मिलते हैं।
सिद्धों की भाषा ‘संधा/संध्या’ भाषा नाम मुनिदत्त और अद्वयवज्र नें दिया।
सिद्ध साहित्य ‘दोहाकोश’ और ‘चर्यापद’ दो रूपों में मिलता है।
‘दोहों’ में खंडन-मंडन का भाव है जबकि ‘चर्यापदों’ में सिद्धों की अनुभूति तथा रहस्य भावनाएं हैं।
चर्चाएं संधा भाषा की दृष्टिकूटों में रचित है, जिनके अधूरे अर्थ हैं।
‘दोहाकोश’ का संपादन प्रबोध चंद्र बागची ने किया है।
महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ने सिद्धों की रचनाओं का संग्रह बँगला अक्षरों में ‘बौद्धगान ओ दूहा’ के नाम से निकाला था।
वज्रयान में ‘वज्र’ शब्द हिंदू विचार पद्धति से लिया गया है। यह अमृत्व का साधन था।
‘दोहा’ और ‘चर्यापद’ संत साहित्य में क्रमशः ‘साखी’ और ‘शब्द’ में रूपांतरित हुए।
संत साहित्य का बीज सिद्ध साहित्य में विद्यमान है।
इनके चर्यागीत विद्यापति, सूर के गीतिकाव्य का आधार है।
डॉ राहुल सांकृत्यायन ने 84 सिद्धों में 4 महिला सिद्धों का भी उल्लेख किया है।
सिद्धों की संध्या भाषा नाथों की वाणी से पुष्ट होकर कबीर की के साथ-साथ नानक मलूकदास में प्रवाहित हुई।
सिद्ध साहित्य की विशेषताएं-
(1) सहजता जीवन पर बल
(2) गुरू महिमा
(3) बाह्याडम्बरों और पाखण्ड विरोध
(4) वैदिक कर्मकांडों की आलोचना
(5) रहस्यात्मक अनुभूति
(6) शांत और श्रृंगार रसों की प्रधानता
(7) जनभाषा का प्रयोग
(8) छन्द प्रयोग
(9) साहित्य के आदि रूप की प्रामाणिक सामग्री
(10) तंत्र साधना पर बल
(11) जाति व वर्ण व्यवस्था का विरोध
(12) पंच मकार (मांस, मदिरा मछ्ली, मुद्रा, मैथुन) की साधना
प्रमुख सिद्ध कवि
1. सरहपा (आठवीं शताब्दी)
राहुल सांकृत्यायन के अनुसार सरहपा सबसे प्राचीन और प्रथम बौद्ध सिद्ध हैं।
सरहपाद, सरोजवज्र, राहुलभद्र, सरोरुह, सरोवज्र, पद्म, पद्मवज्र इत्यादि कई नामों से प्रसिद्ध थे।
ये नालंदा विश्वविद्यालय में छात्र और अध्यापक थे।
इन्होंने ‘कड़वकबद्ध शैली’ (दोहा-चौपाई शैली) की शुरुआत की।
इनके 32 ग्रंथ माने जाते हैं, जिनमें से ‘दोहाकोश’ अत्यंत प्रसिद्ध है।
इनकी आक्रामकता, उग्रता और तीखापन कालांतर में कबीर में दिखाई देता है।
डॉ वी. भट्टाचार्य ने सरहपा को बंगला का प्रथम कवि माना है।
इनकी भाषा अपभ्रंश से प्रभावित हिंदी है।
पाखंड विरोध, गुरु सेवा का महत्त्व, सहज मार्ग पर बल इन के काव्य की विशेषता है।
“आक्रोश की भाषा का सबसे पहला प्रयोग सरहपा में दिखाई पड़ता है।”— डॉ. बच्चन सिंह
2. शबरपा
इनका जन्म 780 ई. में माना जाता है।
शबरों का सा जीवन व्यतीत करने के कारण शबरपा कहलाए।
इन्होंने सरहपा से ज्ञान दीक्षा ली।
‘चर्यापद’ इन की प्रसिद्ध रचना है।
क्रियापद एक और कार का गीत है जो प्रायः अनुष्ठानों के समय गाया जाता है।
माया-मोह का विरोध, सहज जीवन पर बल और इसे ही महासुख की प्राप्ति का पंथ बताया है।
3. लूइपा (8वी सदी)
यह शबरपा के शिष्य थे
84 सिद्धों में इनका स्थान सबसे ऊंचा माना जाता है।
यह राजा धर्मपाल के समकालीन थे।
रहस्य भावना इन के काव्य की विशेषता है।
उड़ीसा के राजा दरिकपा और मंत्री इनके शिष्य बन गए।
4. डोम्भिपा (840 ई.)
यह विरूपा के शिष्य थे।
इनके 21 ग्रंथ बताए जाते हैं, जिनमें ‘डोंबी गीतिका’, ‘योगचर्या’, ‘अक्षरद्वीकोपदेश’ प्रसिद्ध है।
5. कण्हपा (9वी शताब्दी)
कर्नाटक के ब्राह्मण परिवार में 820 ई. में जन्म हुआ।
यह जलंधरपा के शिष्य थे।
इन्होंने 74 ग्रंथों की रचना की जिनमें अधिकांश दार्शनिक विचारों के हैं।
रहस्यात्मक गीतों के कारण जाने जाते हैं।
“यह पांडित्य एवं कवित्व में बेजोड़ थे।”— डॉ राहुल सांकृत्यायन
“कण्हपा की रचनाओं में उपदेश की भाषा तो पुरानी टकसाली हिंदी है, पर गीत की भाषा पुरानी बिहारी या पूरबी बोली मिली है। यही भेद हम आगे चलकर कबीर की ‘साखी’, रमैनी’ (गीत) की भाषा में पाते हैं। साखी की भाषा तो खड़ी बोली राजस्थानी मिश्रित सामान्य भाषा ‘सधुक्कड़ी’ है पर रमैनी के पदों की भाषा में काव्य की ब्रजभाषा और कहीं-कहीं पूरबी बोली भी है। “— आ. शुक्ल।
6. कुक्कुरीपा
यह चर्पटिया के शिष्य थे।
उन्होंने 16 ग्रंथों की रचना की।
‘योगभवनोंपदेश’ प्रमुख रचना है।
आदिकालीन अपभ्रंश साहित्य के अंतर्गत आदिकालीन अपभ्रंश के प्रमुख कवि और उनकी रचनाएं पढने के साथ-साथ आदिकालीन अपभ्रंश साहित्य की विशेषताएं एवं प्रमुख प्रवृत्तियां आदि भी जानेंगे।
डॉ. हरदेव बाहरी ने सातवीं शती से ग्यारहवीं शती के अंत तक के काल को ‘अपभ्रंश का स्वर्णकाल’ माना है।
अपभ्रंश में तीन प्रकार के बंध मिलते हैं-
1. दोहा बंध 2. पद्धड़िया बंध 3. गेय पद बंध।
पद्धरी एक छंद विशेष है, जिसमें 16 मात्राएँ होती है। इसमें लिखे जाने वाले काव्यों को पद्धड़िया बंद कहा गया है।
अपभ्रंश का चरित काव्य पद्धड़िया बंध में लिखा गया है।
चरित काव्यों में पद्धड़िया छंद की आठ-आठ पंक्तियों के बाद धत्ता दिया रहता है, जिसे ‘कड़वक‘ कहते हैं।
जोइन्दु (योगेन्दु) छठी शती
रचनाएँ 1. परमात्म प्रकाश तथा 2. योगसार।
उक्त रचनाओं से ही अपभ्रंश से दोहे की शुरुआत मिलती है।
जोइन्दु से दोहा छंद का आरंभ माना गया है।
स्वयंभू (783 ई.)
स्वयंभू को जैन परंपरा का प्रथम कवि माना जाता है।
इनके तीन ग्रंथ माने जाते हैं-
1. पउम चरिउ (अपूर्ण)― 5 कांड तथा 83 संधियों वाला विशाल महाकाव्य है। यह अपभ्रंश का आदिकाव्य माना जाता है।
‘पउम चरिउ’ के अंत में राम को मुनीन्द्र से उपदेश के बाद निर्वाण प्राप्त करते दिखाया गया है।
2. रिट्ठेमणि चरिउ (कृष्ण काव्य)
3. स्वयंभू छंद।
उपाधि― कविराज – स्वयं द्वारा
छंदस् चूड़ामणि – त्रिभुवन
अपभ्रंश का वाल्मीकि – डॉ राहुल सांकृत्यायन
अपभ्रंश का कालिदास – डॉ हरिवल्लभ चुन्नीलाल भयाणी
‘पउम चरिउ’ को स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन ने पूरा किया।
अपभ्रंश में कृष्ण काव्य के आरंभ का श्रेय भी स्वयंभू को ही दिया जाता है।
स्वयंभू ने चतुर्मुख को पद्धड़िया छंद का प्रवर्तक और श्रेष्ठ कवि कहा है।
स्वयंभू ने अपनी भाषा को ‘देशीभाषा’ कहा है।
पुष्यदंत
यह राम काव्य के दूसरे प्रसिद्ध कवि थे।
ये मूलतः शैव थे, परंतु बाद में अपने आश्रयदाता के अनुरोध से जैन हो गए थे।
इनके समय को लेकर विवाद है। शिवसिंह सेंगर ने सातवीं शताब्दी और हजारीप्रसाद द्विवेदी ने नौवीं शताब्दी माना। अंतः साक्ष्य के आधार पर
सामान्यतः 972 ई. (10वीं शती) इनका समय माना जाता है।
रचनाएँ-
1. तिरसठी महापुरिस गुणालंकार (महापुराण) – इसमें में 63 महापुरुषों का जीवन चरित है।
2. णयकुमारचरिउ (नागकुमार चरित्र)
3. जसहर-चरिउ (यशधर चरित्र)।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इनके दो और ग्रंथों का उल्लेख किया है—
1. आदि पुराण
2. उत्तर पुराण
इन दोनों को चौपाइयों में रचित बताया है।
चरित काव्यों में चौपाई छंद का प्रयोग किया है।
अपभ्रंश में यह 15 मात्राओं का छंद था।
उपाधियाँ—
अभिमान मेरु/सुमेरु – स्वयं द्वारा
काव्य रत्नाकार – स्वयं द्वारा
कविकुल तिलक – स्वयं द्वारा
अपभ्रंश का भवभूति – डॉ. हरिवल्लभ चुन्नीलाल भयाणी।
इन्हें अपभ्रंश का व्यास/वेदव्यास कहा जाता है।
इन्हें ‘सरस्वती निलय’ भी कहा जाता है।
यह स्वभाव से अक्खड़ थे तथा इनमें सांप्रदायिकता के प्रति जबरदस्त आग्रह था।
शिवसिंह सेंगर ने इन्हें ‘भाखा की जड़‘ कहा है।
धनपाल
दसवीं शती (933ई.) में ‘भविसयत्तकहा‘ की रचना की।
इन्हें मुंज ने ‘सरस्वती‘ की उपाधि दी थी।
‘भविसयत्तकहा’ का संपादन डॉ. याकोबी ने किया था।
जिनदत्त सूरि
इन्होंने अपने ग्रंथ ‘उपदेशरसायनरास’ (1114 ई.) से रास काव्य परंपरा का प्रवर्तन किया।
यह 80 पद्यों का नृत्य गीत रासलीला काव्य है।
अब्दुल रहमान (अद्दहमाण)
रचना- ‘संदेशरासक’ — देशी भाषा में किसी मुसलमान कवि द्वारा रचित प्रथम ग्रंथ था।
‘संदेशरासक’ में विक्रमपुर की एक वियोगिनी की व्यथा वर्णित हुई है।
इस खंडकाव्य का समय 12वीं शती उत्तरार्द्ध या 13वीं शती पूर्वार्द्ध माना गया है।
यह प्रथम जनकाव्य है।
विश्वनाथ त्रिपाठी ने इसकी भाषा को ‘संक्रातिकालीन भाषा’ कहा है।
मुनि रामसिंह
इन्हे अपभ्रंश का सर्वश्रेष्ठ रहस्यवादी कवि माना जाता है।
रचना- ‘पाहुड़ दोहा’
हेमचंद्र
इनका वास्तविक नाम चंगदेव था।
प्राकृत का पाणिनि कहा जाता है।
इन्होंने गुजरात के सोलंकी शासक सिद्धराज जयसिंह के आग्रह पर ‘हेमचंद्र शब्दानुशासन’ शीर्षक से व्याकरण ग्रंथ लिखा।
इस ग्रंथ में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश तीनों भाषाओं का समावेश है।
अन्य रचनाएं – कुमारपाल चरित्र (प्राकृत) पुरुष चरित्र
देशीनाम माला।
आदिकालीन अपभ्रंश साहित्य
सोमप्रभ सूरि
रचना – ‘कुमारपालप्रतिबोध’ (1184 ई.) गद्यपद्यमय संस्कृत प्राकृत काव्य है।
मेरुतुंग
रचना – ‘प्रबंध चिंतामणि’ (1304 ई.)
संस्कृत भाषा का ग्रंथ है, किंतु इसमें ‘दूहा विद्या’ विवाद-प्रसंग मिलता है।
प्राकृत पैंगलम
इसमें विद्याधर, शारंगधर, जज्जल, बब्बर आदि कवियों की रचनाएँ मिलती हैं।
इसका संग्रह 14वीं शती के अंत लक्ष्मीधर ने किया था।
‘प्राकृत पैंगलम‘ में वर्णित 8 छंदों के आधार पर आचार्य शुक्ल ने ‘हम्मीर रासो‘ की कल्पना की व इसके रचयिता शारंगधर को माना है।
डॉ राहुल सांकृत्यायन ने ‘हम्मीर रासो’ के रचयिता जज्जल नमक कवि को माना है।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार ‘हम्मीर’ शब्द किसी पात्र का नाम ना होकर विशेषण है जो अमीर का विकृत रूप है।
डॉक्टर बच्चन सिंह ने शारंगधर को अनुमानतः ‘कुंडलिया छंद’ का प्रथम प्रयोक्ता माना है।
इस पोस्ट में आदिकाल Aadikal का सामान्य परिचय, हिंदी का प्रथम कवि, हिंदी का प्रथम ग्रंथ, आदिकाल से संबंधित विभिन्न विद्वानों के प्रमुख कथन एवं महत्त्वपूर्ण कथन शामिल हैं।
अपभ्रंश काल — डॉ. धीरेंद्र वर्मा, डॉ. चंद्रधर शर्मा गुलेरी
अपभ्रंश काल (जातीय साहित्य का उदय) — डॉ. बच्चन सिंह
उद्भव काल — डॉ. वासुदेव सिंह
सर्वमान्य मत के अनुसार आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा सुझाए गए नाम ‘आदिकाल’ को स्वीकार किया गया है।
हिंदी का प्रथम कवि
महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने ‘सरहपा/ सरहपाद’ को हिंदी का प्रथम कवि स्वीकार किया है। सामान्यतया उक्त मत को स्वीकार किया जाता है।
हिंदी का प्रथम कवि कौन हो सकता है, इस संबंध में अन्य विद्वानों के मत इस प्रकार हैं—
1. स्वयंभू (8वीं सदी) ― डॉ. रामकुमार वर्मा।
2. सरहपा (769 ई.) ― राहुल सांकृत्यायन व डॉ. नगेन्द्र
3. पुष्य या पुण्ड (613 ई./सं. 670) ― शिवसिंह सेंगर
4. राजा मुंज (993 ई/ सं. 1050)- चंद्रधर शर्मा गुलेरी
5. अब्दुर्रहमान (11वीं सदी) ― डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी
6. शालिभद्र सूरि (1184 ई.) ― डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त
7. विद्यापति (15वीं सदी) ― डॉ. बच्चन सिंह
हिंदी का प्रथम ग्रंथ
जैन श्रावक देवसेन कृत ‘श्रावकाचार’ को हिंदी का प्रथम ग्रंथ माना जाता है। इसमें 250 दोहों में श्रावक धर्म (गृहस्थ धर्म) का वर्णन है। इसकी रचना 933 ई. में स्वीकार की जाती है।
आदिकालीन साहित्य की विशेषताएं/प्रवृतियां—
1. वीरता की प्रवृत्ति
2. श्रृंगारिकता
3. युद्धों का सजीव वर्णन
4. आश्रय दाताओं की प्रशंसा
5. राष्ट्रीयता का अभाव
6. वीर एवं श्रृंगार रस की प्रधानता
7. ऐतिहासिक चरित काव्यों की प्रधानता
8. जन जीवन के चित्रण का अभाव
9. प्रकृति का आलंबन रूप
10. डिंगल और पिंगल दो काव्य शैलियां
11. संदिग्ध प्रामाणिकता
12. ‘रासो’ शीर्षक की प्रधानता
13. प्रबंध एवं मुक्तक काव्य रूप
14. छंद वैविध्य
15. भाषा ― अपभ्रंश डिंगल खड़ी बोली तथा मैथिली का प्रयोग
16. विविध अलंकारों का समावेश
अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य
आदिकाल में भाषाई आधार पर मुख्यतः दो प्रकार की रचनाएं प्राप्त होती हैं, जिन्हें अपभ्रंश की और देशभाषा अर्थात बोलचाल की भाषा इन दो भागों में वर्गीकृत किया जाता है। इसी आधार पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने आदिकाल का विभाजन किया है।
इसके अंतर्गत केवल 12 ग्रंथों को ही साहित्यिक मानते हुए उसका वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार से किया है―
देश भाषा काव्य― खुमानरासो, बीसलदेव रासो, पृथ्वीराज रासो, जय चंद्रप्रकाश, जय मयंक जस चंद्रिका, परमाल रासो, खुसरो की पहेलियां और विद्यापति पदावली।
उपयुक्त 12 पुस्तकों के आधार पर ही ‘आदिकाल’ का नामकरण ‘वीरगाथा काल’ करते हुए आचार्य शुक्ल लिखते हैं- “इनमें से अंतिम दो तथा बीसलदेव रासो को छोड़कर सब ग्रंथ वीरगाथात्मक ही हैं, अतः ‘आदिकाल’ का नाम ‘वीरगाथा काल’ ही रखा जा सकता है।”
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने अपभ्रंश के लिए ‘प्राकृतभाषा हिंदी’, ‘प्राकृतिक की अंतिम अवस्था’ और ‘पुरानी हिंदी’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया है।
आदिकाल Aadikal का सामान्य परिचय
तात्कालिक बोलचाल की भाषा को विद्यापति ने ‘देशभाषा’ कहा है। विद्यापति की प्रेरणा से ही आचार्य शुक्ल ने ‘देशभाषा’ शब्द का प्रयोग किया है।
आचार्य शुक्ल ने आदिकाल को ‘अनिर्दिष्ट लोक प्रवृत्ति का युग’ की संज्ञा दी है।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने आदिकाल को ‘अत्यधिक विरोधी और व्याघातों’ का युग कहा है।
हजारीप्रसाद द्विवेदी, गणपतिचंद्र गुप्त इत्यादि प्रबुद्ध विद्वान स्वीकार करते हैं कि अपभ्रंश और हिंदी के मध्य निर्णायक रेखा खींचना अत्यंत दुष्कर कार्य है अतः हिंदी साहित्य की शुरुआत भक्तिकाल से ही माननी चाहिए।
आदिकाल से संबंधित विभिन्न विद्वानों के प्रमुख कथन
“जब तक भाषा बोलचाल में थी तब तक वह भाषा या देशभाषा ही कहलाती रही, जब वह भी साहित्य की भाषा हो गयी तब उसके लिये ‘अपभ्रंश’ शब्द का व्यवहार होने लगा।”― आ. शुक्ल।
“अपभ्रंश नाम पहले पहल बलभी के राजा धारसेन द्वितीय के शिलालेख में मिलता है, जिसमें उसने अपने पिता गुहसेन (वि.सं. 650 के पहले) को संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों का कवि कहा है।”― आ. शुक्ल।
“अपभ्रंश की पुस्तकों में कई तो जैनों के धर्म-तत्त्व निरूपण ग्रंथ हैं जो साहित्य की कोटि में नहीं आतीं और जिनका उल्लेख केवल यह दिखाने के लिये ही किया गया है कि अपभ्रंश भाषा का व्यवहार कब से हो रहा था। “― आ. शुक्ल।
“उनकी रचनाएँ (सिद्धों व नाथों की) तांत्रिक विधान, योगसाधना, आत्मनिग्रह, श्वास-निरोध, भीतरी चक्रों और नाड़ियों की स्थिति, अंतर्मुख साधना के महत्त्व इत्यादि की सांप्रदायिक शिक्षा मात्र हैं, जीवन की स्वाभाविक अनुभूतियों और दशाओं से उनका कोई संबंध नहीं। अतः वे शुद्ध साहित्य के अंतर्गत नहीं आतीं। उनको उसी रूप में ग्रहण करना चाहिये जिस रूप में ज्योतिष, आयुर्वेद आदि के ग्रंथ “― आ. शुक्ल।
आदिकाल से संबंधित विभिन्न विद्वानों के प्रमुख कथन
सिद्धों व नाथों की रचनाओं का वर्णन दो कारणों से किया है- भाषा और सांप्रदायिक प्रवृत्ति और उसके संस्कार की परंपरा। “कबीर आदि संतों को नाथपंथियों से जिस प्रकार ‘साखी’ और ‘बानी’ शब्द मिले उसी प्रकार ‘साखी’ और ‘बानी’ के लिये बहुत कुछ सामग्री और ‘सधुक्कड़ी’ भाषा भी।”― आ. शुक्ल।
“चरित्रकाव्य या आख्यान काव्य के लिये अधिकतर चौपाई, दोहे की पद्धति ग्रहण की गई है।… चौपाई-दोहे की यह परंपरा हम आगे चलकर सूफियों की प्रेम कहानियों में तुलसी के ‘रामचरितमानस’ में तथा ‘छत्रप्रकाश’, ‘ब्रजविलास’, सबलसिंह चौहान के ‘महाभारत’ इत्यादि अनेक अख्यान काव्यों में पाते हैं।”― आ. शुक्ल।
“इसी से सिद्धों ने ‘महासुखवाद’ का प्रवर्तन किया। ‘महासुह’ (महासुख) वह दशा बताई गई जिसमें साधक शून्य में इस प्रकार विलीन हो जाता है जिस प्रकार नमक पानी में। इस दशा का प्रतीक खड़ा करने के लिये ‘युगनद्ध’ (स्त्री-पुरुष का आलिंगनबद्ध जोड़ा) की भावना की गई।”― आ. शुक्ल।
आदिकाल से संबंधित विभिन्न विद्वानों के प्रमुख कथन
“प्रज्ञा और उपाय के योग से महासुख दशा की प्राप्ति मानी गई। इसे आनंद-स्वरूप ईश्वरत्व ही समझिये। निर्माण के तीन अवयव ठहराए गए- शून्य, विज्ञान और महासुख।… निर्वाण के सुख का स्वरूप ही सहवाससुख के समान बताया गया।”― आ. शुक्ल।
‘अपने मत का संस्कार जनता पर डालने के लिये वे (सिद्ध) संस्कृत रचनाओं के अतिरिक्त अपनी बानी (रचनाएँ) अपभ्रंश मिश्रित देशभाग में भी बराबर सुनाते रहे।’― आ. शुक्ल।
“सिद्ध सरहपा की उपदेश की भाषा तो पुरानी टकसाली हिंदी हैं, पर गीत की भाषा पुरानी बिहारी या पूरबी बोली मिली है। कबीर की ‘साखी’ की भाषा तो खड़ी बोली राजस्थानी मिश्रित सामान्य भाषा ‘सधुक्कड़ी’ है, पर रमैनी के पदों में काव्य की ब्रजभाषा और कहीं-कहीं पूरबी बोली भी है।” ― आ. शुक्ल।
सिद्धों ने ‘संधा’ भाषा-शैली का प्रयोग किया है। यह अंत:साधनात्मक अनुभूतियों का संकेत करने वाली प्रतीकात्मक भाषा शैली है।― आ. शुक्ल।
“गोररखनाथ का नाथपंथ बौद्धों की वज्रयान शाखा से ही निकला है। नाथों ने वज्रयानी सिद्धों के विरुद्ध मद्य, माँस व मैथुन के त्याग पर बल देते हुए ब्रह्मचर्य पर जोर दिया। साथ ही शारीरिक-मानसिक शुचिता अपनाने का संदेश दिया।”― आ. शुक्ल।
आदिकाल का सामान्य परिचय
“सब बातों पर विचार करने से हमें ऐसा प्रतीत होता है कि जलंधर ने ही सिद्धों से अपनी परंपरा अलग की और पंजाब की ओर चले गए। वहाँ काँगड़े की पहाड़ियों तथा स्थानों में रमते रहे। पंजाब का जलंधर शहर उन्हीं का स्मारक जान पड़ता है।”― आ. शुक्ल।
“राजा भोज की सभा में खड़े होकर राजा की दानशीलता का लंबा-चौड़ा वर्णन करके लाखों रुपये पाने वाले कवियों का समय बीत चुका था। राजदरबारों में शास्त्रार्थों की वह धूम नहीं रह गई थी। पांडित्य के चमत्कार पर पुरस्कार का विधान भी ढीला पड़ गया था। उस समय तो जो भाट या चारण किसी राजा के पराक्रम, विजय, शत्रुकन्या-हरण आदि का अत्युक्तिपूर्ण आलाप करता या रणक्षेत्रों में जाकर वीरों के हृदय में उत्साह की उमंगें भरा करता था, वही सम्मान पाता था।”― आ. शुक्ल।
“उस समय जैसे ‘गाथा’ कहने से प्राकृत का बोध होता था वैसे ही ‘दोहा’ या ‘दूहा’ कहने से अपभ्रंश का पद्य समझा जाता था।”―आ. शुक्ल।
“दोहा या दूहा अपभ्रंश का अपना छंद है। उसी प्रकार जिस प्रकार गाथा प्राकृत का अपना छंद है।”― हजारीप्रसाद द्विवेदी
आदिकाल का सामान्य परिचय
“इस प्रकार दसवीं से चौदहवीं शताब्दी का काल, जिसे हिंदी का आदिकाल कहते हैं, भाषा की दृष्टि से अपभ्रंश का ही बढ़ाव है।”― हजारीप्रसाद द्विवेदी (‘हिंदी साहित्य का आदिकाल’)
“डिंगल कवियों की वीर-गाथाएँ, निर्गुणिया संतों की वाणियाँ, कृष्ण भक्त या रागानुगा भक्तिमार्ग के साधकों के पद, राम-भक्त या वैधी भक्तिमार्ग के उपासकों की कविताएँ, सूफी साधना से पुष्ट मुसलमान कवियों के तथा ऐतिहासिक हिंदी कवियों के रोमांस और रीति काव्य- ये छहों धाराएँ अपभ्रंश कविता का स्वाभाविक विकास है।”― हजारीप्रसाद द्विवेदी
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की प्रमुख पद्धतियाँ चार रही हैं। साहित्य, समाज, विज्ञान, संस्कृति, भूगोल, मानव विकास आदि सभी क्षेत्रों इतिहास और विकास को समझने के लिए उसका विश्लेषण करना आवश्यक है।
विश्लेषण करने वाले विद्वानों का पृथक-पृथक दृष्टिकोण होता है। साहित्येतिहास लेखन में भी साहित्येतिहासकारों का अपना दृष्टिकोण रहा है। यह दृष्टिकोण मुख्य रूप से चार प्रकार के हैं, जिन्हें साहित्येतिहास लेखन की पद्धति या प्रणाली कहा जाता है।
यह पद्धति या प्रणाली वर्णानुक्रम प्रणाली, कालानुक्रमी प्रणाली, वैज्ञानिक प्रणाली और विधेयवादी प्रणाली हो सकती है इसके अतिरिक्त विद्वानों ने कुछ गौण प्रणालियों का भी जिक्र किया है।
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की चार पद्धतियाँ
1 वर्णानुक्रम पद्धति
इस पद्धति में रचनाकारों का विवरण उनके नाम के प्रथम वर्ण के क्रम से दिया जाता है। उदाहरण के लियेए सूरदासए भिखारीदास और जयशंकर प्रसाद का समय भले ही भिन्न हो किंतु उनका क्रम इस प्रकार होगा जयशंकर प्रसादए भिखारीदासए सूरदास। यह पद्धति शब्दकोश लेखन की तरह होती है। अतः इसे ऐतिहासिक दृष्टि से असंगत माना जाता है क्योंकि यह इतिहास लेखन नहीं, बल्कि शब्दकोश लेखन है।
गार्सा द तासी ने इस्तवार द ला लितरेत्यूर ऐन्दुई ए ऐन्दुस्तानी और शिवसिंह सेंगर शिवसिंह सरोज ने अपने ग्रंथों में इसका प्रयोग किया है।
2 कालानुक्रमी पद्धति
इसमें रचनाकारों का विवरण उनके काल; समयद्ध के क्रम से दिया जाता है। रचनाकार की जन्मतिथि को आधार बनाया जाता है। सभी रचनाकारों की जन्मतिथि या जन्मवर्ष का सटीक पता लगाना भी एक दुष्कर कार्य है। ऐसी स्थिति में एक मोटा-मोटा अनुमान भर लगाया जाता है, इस स्थिति में यह पद्धति उपयोगी नहीं है।
साहित्येतिहासकार का उद्देश्य केवल कवियों का परिचय कराना नहीं होता वरन् तात्कालिक परिस्थितियों को सामने लाना भी होता है, जिसके कारण वह विशिष्ट साहित्य रचा गया। इस दृष्टिकोण से भी यह पद्धति उपयोगी नहीं है।
इस पद्धति से लिखे ग्रंथ भी वर्णानुक्रम पद्धति की तरह कवि वृत्त-संग्रह मात्र होते हैं।
जॉर्ज ग्रियर्सन ने अपने इतिहास ग्रंथ द मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ नॉर्दन हिंदुस्तान और मिश्रबंधुओं ने अपने इतिहास ग्रंथ मिश्र इंदु विनोद में इस पद्धति का प्रयोग किया है।
ग्रियर्सन के साहित्येतिहास ग्रन्थ में विधेयवादी पद्धति के कुछ आरंभिक सूत्र भी मिलने लगते हैं। इस संबंध में डॉ नलिन विलोचन शर्मा का निम्नलिखित मत महत्त्वपूर्ण है― हिंदी के विधेयवादी साहित्येतिहास के आदम प्रवर्तक शुक्ल जी नहीं प्रत्युत ग्रियर्सन हैं।
3 वैज्ञानिक पद्धति
यह पद्धति के मुख्यतः शोध पर आधारित है। इसमें साहित्येतिहासकार निरपेक्ष एवं तटस्थ रहकर वैज्ञानिक तरीके से तथ्य संकलन कर उसे क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत करता है।
हिंदी साहित्य में डॉ गणपति चंद्रगुप्त ने अपना साहित्येतिहास ग्रंथ हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास इसी पद्धति के आधार पर लिखा है।
इतिहास लेखन में सिर्फ तथ्य संकलन की ही नहीं, बल्कि उनकी व्याख्या एवं विश्लेषण की भी आवश्यकता होती है। जो कि इस पद्धति में नहीं हो पाता है अतः इस पद्धति को भी अनुपयुक्त माना जाता है।
4 विधेयवादी पद्धति
इस पद्धति में साहित्य की व्याख्या कार्य-कारण सिद्धांत के आधार पर होती है। इस पद्धति के जनक फ्रेंच विद्वान इपालित अडोल्फ़ तेन (Taine) ने इसे सुव्यवस्थित सिद्धांत के रूप में स्थापित किया।
तेन ने इस पद्धति को तीन शब्दों के माध्यम से स्पष्ट किया- जाति (Race), वातावरण (Milieu) आरक्षण विशेष (Moment)।
इस पद्धति के अनुसार, “किसी भी साहित्य के इतिहास को समझने के लिये उससे संबंधित जातीय परंपराओं, राष्ट्रीय और सामाजिक वातावरण एवं सामयिक परिस्थितियों का अध्ययन विश्लेषण आवश्यक है।”
इस पद्धति में साहित्य इतिहास की प्रवृत्तियों का विश्लेषण युगीन परिस्थितियों के संदर्भ में किया जाता है।
इसे इतिहास-लेखन की व्यापक, स्पष्ट एवं विकसित पद्धति माना गया है, क्योंकि इसके द्वारा साहित्य की विकास प्रक्रिया को बहुत कुछ स्पष्ट किया जा सकता है।
हिंदी में सर्वप्रथम रामचंद्र शुक्ल ने इस पद्धति का सूत्रपात किया।
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की प्रमुख पद्धतियाँ
इस संदर्भ में आचार्य शुक्ल लिखते हैं―“प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्तियों का संचित प्रतिबिंब होता है। …… आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य परंपरा के साथ उसका सामंजस्य बिठाना ही साहित्य कहलाता है।”
उनके बाद रामस्वरूप चतुर्वेदी, बच्चन सिंह आदि विख्यात साहित्येतिहासकारों ने इस प्रणाली को आगे बढ़ाया।
रामस्वरूप चतुर्वेदी का कथन यहां स्मरणीय है- “कवि का काम यदि ‘दुनिया में ईश्वर के कामों को न्यायोचित ठहराना है’ तो साहित्य के इतिहासकार का काम है कवि के कामों को साहित्येतिहास की विकास प्रक्रिया में न्यायोचित दिखा सकना।” –(संदर्भ: ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ सं. डॉ. नगेंद्र, डॉ. हरदयाल)
कतिपय अन्य प्रणालियां
कुछ अन्य विद्वानों ने साहित्येतिहास लेखन की कुछ अन्य प्रणालियों का भी जिक्र किया है जो निम्नलिखित हैं―
नारीवादी पद्धति
हिन्दी साहित्य में सुमन राजे ने श्हिन्दी साहित्य का आधा इतिहासश् नारीवादी पद्धति के आधार पर लिखा है।
समाजशास्त्रीय पद्धति
समाजशास्त्रीय पद्धति कार्ल मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत पर आधारित है।
इन पद्धतियों के अतिरिक्त साहित्य के इतिहास लेखन की कई और आधुनिक पद्धतियाँ हैं जिनमें रूपवादी, संरचनावादी, उत्तर संरचनावादी और उत्तर आधुनिकतावादी प्रमुख है।
उक्त सभी पद्धतियों में प्रथम चार पद्धतियां विशेष महत्वपूर्ण हैं जिन के आधार पर हिंदी साहित्य में विशेष काम हुआ है।
रीतिकाल में काव्यशास्त्र से संबंधित अनेक ग्रंथों की रचना हुई। यह ग्रंथ काव्यशास्त्र के विभिन्न अंगों को लेकर लिखे गए। इनमें से कुछ ग्रंथ सर्वांग निरूपक ग्रंथ थे जबकि कुछ विशेषांग निरूपक थे। इस आलेख में नायक-नायिका भेद संबंधी रीतिकालीन काव्य-ग्रंथ की पूरी जानकारी मिलेगी।
विशेषांग निरूपक ग्रंथों में ध्वनि संबंधी ग्रंथ, रस संबंधी ग्रंथ, अलंकार संबंधी ग्रंथ, छंद शास्त्र संबंधी ग्रंथ, इत्यादि ग्रंथों का प्रणयन हुआ।
1. हिततरंगिनी (1541 ई.) ― कृपाराम
2. साहित्य लहरी (1550 ई.) – सूरदास
3. रस मंजरी (1591 ई.) – नंददास
4. रसिकप्रिया (1591 ई.) – केशवदास
5. बरवे नायिका भेद (1600 ई.) – रहीम
6. सुंदर श्रृंगार निर्णय (1631 ई) – सुंदर
7. सुधानिधि (1634 ई.) – तोष
8. कविकुलकल्पतरु (1680 ई) – चितामणि
9 भाषा भूषण (1650 ई) – जसवन्त सिंह
10. रसराज (1710 ई) – मतिराम
11. रसिक रसाल (1719 ई.) – कुमारमणि शास्त्री
12. भावविलास, रसविलास, भवानीविलास एवं सुखसागर तरंग (18वीं शती का उत्तराद्धी – देव
13. रस प्रबोध (1742 ई.) – रसलीन
14. श्रृंगार निर्णय (1750 ई.)- भिखारीदास
15. दीप प्रकाश (1808 ई.) – ब्रह्मदत्त
16. जगद्विनोद (1810 ई.) – पद्माकर
17. नवरस तरंग (1821 ई.) – बेनी प्रवीन
18. व्यंग्यार्थ कौमुदी (1825 ई.) –प्रतापसाहि
19. रसिक विनोद (1846 ई.) ― चन्द्रशेखर वाजपेयी
20. रस मोदक हजारा (1848 ई.) – स्कन्दगिरि
नायक-नायिका भेद संबंधी रीतिकालीन काव्य-ग्रंथ
21. श्रृंगार दर्पण (1872 ई.)– नन्दराम
22. महेश्वर विलास (1879 ई.) – लछिराम
23. रस कुसुमाकर (1872 ई.) –प्रतापनारायण सिंह
24. रसमौर (1897 ई.) – दौलतराम
25. रसवाटिका (1903 ई.) – गंगाप्रसाद अग्निहोत्री
26. भानु काव्य प्रभाकर (1910 ई.) – जगन्नाथप्रसाद
27. हिन्दी काव्य में नवरस (1926 ई.) – बाबूराम बित्थरियाका
28. रूपक रहस्य (1931 ई.) – श्यामसुंदरदास
29. रसकलश (1931 ई.) – हरिऔध
30. नवरस (1934 ई.) – गुलाबराय
31. साहित्यसागर (1937 ई.) – बिहारीलाल भट्ट
32. काव्यकल्पद्रुम (1941 ई.) – कन्हैयालाल पोद्दार
33. ‘ब्रजभाषा साहित्य नायिका-भेद’ (1948 7ई.) – प्रभुदयाल मीतल
उक्त ग्रंथों में से कतिपय ग्रंथों में नायिका भेद के अतिरिक्त ‘रस’ का भी वर्णन मिलता है, लेकिन प्रमुखता नायिका भेद की ही रही है अतः यहां पर वह ग्रंथ भी शामिल किए गए हैं जिनमें नायिका भेद तथा रस दोनों का वर्णन मिलता है