चट्टानें अथवा शैल Rocks के प्रकार, विशेषताएं एवं उदाहरण की पूरी जानकारी।
जिन पदार्थो से भूपर्पटी बनी है, उन्हें शैल कहते हैं। शैलें विभिन्न प्रकार की होती हैं । भूपर्पटी पर मिलने वाले सभी पदार्थ जो धातु नहीं होती चाहे वे ग्रेनाइट की तरह कठोर, चीका मिट्टी की तरह मुलायम अथवा बजरी के समान बिखरी हुई हों शैल कहलाती हैं। शैलें विभिन्न रंग, भार और कठोरता लिए होती है।
चट्टानें अथवा शैल के प्रकार
शैलें अपने गुण, कणों के आकार और उनके बनने की प्रक्रिया के आधार पर विभिन्न प्रकार की होती हैं। निर्माण क्रिया की दृष्टि से शैलों के तीन वर्ग हैं-
आग्नेय या प्राथमिक चट्टान/शैल
अवसादी या परतदार चट्टान/शैल
कायंतरित या रूपांतरित चट्टान/शैल
आग्नेय या प्राथमिक चट्टान: चट्टानें शैल प्रकार विशेषताएं
Igneous (“इगनियस”) अंग्रेजी भाषा का शब्द है जो कि लैटिन भाषा के इग्निस शब्द से बना है जिसका अर्थ अग्नि होता है। अर्थात वह शैल जिनकी उत्पत्ति अग्नि से हुई है, उन्हें आग्नेय शैल कहते हैं। अर्थात आग्नेय शैलें अति तप्त चट्टानी तरल पदार्थ, जिसे मैग्मा कहते हैं, के ठण्डे होकर जमने से बनती हैं।
पृथ्वी की प्रारम्भिक भूपर्पटी आग्नेय शैलों से बनी है, अतः अन्य सभी शैलों का निर्माण आग्नेय शैलों से ही हुआ है। इसी कारण आग्नेय शैलों को जनक या मूल शैल भी कहते हैं।
भूगर्भ के सबसे ऊपरी 16 किलोमीटर की मोटाई में आग्नेय शैलों का भाग लगभग 95 प्रतिशत है।
आग्नेय शैलें सामान्यतया कठोर, भारी, विशालकाय और रवेदार होती हैं।
चट्टानें शैल प्रकार विशेषताएं
निर्माण-स्थल के आधार पर आग्नेय शैलों को दो वर्गों में बाँटा गया है –
(i) बाह्य या बहिर्भेदी (ज्वालामुखी) आग्नेय शैल
(ii) आन्तरिक या अन्तर्भेदी आग्नेय शैल।
(i) बाह्य आग्नेय शैलें:
धरातल पर लावा के ठण्डा होकर जमने से बनी है। इन्हें ज्वालामुखी शैल भी कहते हैं। गेब्रो और बैसाल्ट बाह्य आग्नेय शैलों के सामान्य उदाहरण हैं। भारत के दक्कन पठार की “रेगुर” अथवा काली मिट्टी लावा से बनी है।
(ii) आन्तरिक आग्नेय शैल:
इन शैलों की रचना मैग्मा (लावा) के धरातल के नीचे जमने से होती है। ग्रेनाइट और डोलोमाइट आंतरिक आग्नेय शैल के सामान्य उदाहरण हैं।
रासायनिक गुणों के आधार पर आग्नेय शैलों को दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है- अम्लीय और क्षारीय शैल। ये क्रमशः अम्लीय और क्षारीय लावा के जमने से बनती है।
अम्लीय आग्नेय शैल:
ऐसी शैलों में सिलीका की मात्रा 65 प्रतिशत होती है। इनका रंग बहुत हल्का होता है। ये कठोर और मजबूत शैल है ग्रेनाइट इसी प्रकार की शैल का उदाहरण है।
क्षारीय आग्नेय शैल: ऐसी शैलों में लोहा और मैगनीशियम की अधिकता है। इनका रंग गहरा और काला होता है। गैब्रो, बैसाल्ट तथा डोलेराइट क्षारीय शैलों के उदाहरण हैं।
आग्नेय चट्टानों की विशेषताएं: चट्टानें शैल प्रकार विशेषताएं
यह चट्टाने लावा के धीरे-धीरे ठंडा होने से बनती है, इसलिए रवेदार और दानेदार होती है।
इन में धात्विक खनिज सर्वाधिक मात्रा में पाए जाते हैं।
यह अत्यधिक कठोर होती है जिससे वर्षा का जल इनमें प्रवेश नहीं कर पाता और रासायनिक अपक्षय की क्रिया कम होती है।
यह चट्टाने लावा के ठंडे होने से बनती है, जिसके कारण इनमें जीवा अवशेष नहीं पाए जाते हैं।
इन चट्टानों में परते नहीं पाई जाती हैं।
अवसादी या परतदार चट्टान:
अवसादी अर्थात् Sedimentary (सेडीमेंटेरी) शब्द की व्युत्पत्ति लैटिन भाषा के शब्द सेडिमेंटस से हुई है जिसका अर्थ है, व्यवस्थित होना।
इन शैलों की रचना अवसादों के एक के ऊपर एक जमा होने के परिणाम स्वरूप होती है। इन शैलों में परतें होती हैं। अतः इन्हें परतदार शैल भी कहते हैं।
इन शैलों की परतों के बीच जीवाश्म भी मिलते हैं
जीवाश्म प्रागैतिहासिक काल के पेड़ – पौधों अथवा पशुओं के अवशेष हैं, जो अवसादी शैलों की परतों के बीच में दबकर ठोस रूप धारण कर चुके हैं।
संसार के सभी जलोढ़ निक्षेप भी अवसादों के एकीकृत रूप हैं।
अतः सभी नदी द्रोणियां विशेषकर उनके मैदान तथा डेल्टा अवसादों के जमाव से बने हैं।
इनमें सिंधु-गंगा का मैदान और गंगा-ब्रह्मपुत्र का डेल्टा सबसे उत्तम उदाहरण है।
धरातल पर विभिन्न शैलों पर बाह्य कारकों के प्रभाव से विभिन्न पदार्थों की परत बनती जाती है और सघनता के कारण यह परतें शैल में परिवर्तित हो जाती है इस प्रक्रिया को शिलीभवन (Lithification) कहते हैं।
संसार के विशालकाय वलित पर्वतों जैसे हिमालय, एण्डीज आदि की रचना शैलों से हुई है।
बलुआ पत्थर, शैल, चूना पत्थर और डोलोमाइट यांत्रिक अवसादी शैलें हैं।
कोयला और चूना पत्थर जैविक/कार्बनिक मूल की अवसादी शैलें हैं।
सेंधा नमक, जिप्सम, शोरा आदि सब रासायनिक प्रकार की शैलें है।
कायंतरित या रूपांतरित चट्टान: चट्टानें शैल प्रकार विशेषताएं
अवसादी अथवा आग्नेय शैलों पर अत्याधिक ताप से या दाब पड़ने के कारण रूपान्तरित शैलें बनती हैं।
उच्च ताप और उच्च दाब, पूर्ववर्ती शैलों के रंग, कठोरता, गठन तथा खनिज संघटन में परिवर्तन कर देते हैं।
इस परिवर्तन की प्रक्रिया को रूपान्तरण कहते हैं।
इस प्रक्रिया द्वारा बनी शैल को रूपांतरित शैल कहते हैं।
स्लेट, नीस-शीस्ट, संगमरमर और हीरा रूपान्तरित शैलों के उदाहरण हैं।
यह चट्टानी अपनी मूल चट्टान से अधिक मजबूत और कठोर होती हैं।
रूपांतरण के कारण इन चट्टानों में जीवावशेष नष्ट हो जाते हैं अतः इन में जीवाश्म लगभग नहीं पाए जाते हैं।
कायांतरण की प्रक्रिया में शैलों के कुछ कण या खनिज सतहों या रेखाओं के रूप में व्यवस्थित हो जाते हैं।
इस व्यवस्था को पत्रण (Foliation) या रेखांकन कहते हैं।
कभी-कभी खनिज या विभिन्न समूहों के कण पतली से मोटी सतह में इस प्रकार व्यवस्थित होते हैं, कि वे हल्के एवं गहरे रंगों में दिखाई देते हैं।
कायांतरित शैलों में ऐसी संरचनाओं को बैंडिंग कहते हैं।
शैल अथवा चट्टानों से संबंधित विज्ञान को पैट्रोलॉजी कहते हैं।
कठोरता-
दस चुने हुए खनिजों में से दस तक की श्रेणी में कठोरता मापना।
पवनें Pawane Winds परिभाषा, प्रकार, विशेषताएं, गर्म पवनें, ठण्डी पवनें, विश्व एवं भारत की प्रमुख स्थानीय पवनें, वायुदाब प्रवणता आदि पवनों के बारे में जानकारी
एक स्थान से एक निश्चित दिशा की ओर चलती हुई वायु को पवन कहते हैं।
पवन हमेशा उच्च वायुदाब से निम्न वायुदाब की ओर चलती है।
वायुदाब के अन्तर के कारण क्षैतिज रूप में चलने वाली वायु को पवन कहते हैं।
जब वायु ऊर्ध्वाधर रूप में गतिमान होती है तो उसे वायुधारा कहते हैं।
पवने और वायुधाराएं मिलकर वायुमंडल की परिसंचरण व्यवस्था बनाती हैं।
वायुदाब प्रवणता एवं पवने
किन्हीं दो स्थानों के बीच वायुदाब के अंतर को दाब प्रवणता कहते हैं। यह प्रवणता क्षैतिज दिशा में होती है। दाब प्रवणता को बैरोमैट्रिक ढाल भी कहते हैं।
वायुदाब की प्रवणता और पवन की गति में बहुत निकट का संबंध है। दो स्थानों के बीच वायुदाब का जितना अधिक अन्तर होगा, उतनी ही पवन की गति अधिक होगी इसके विपरीत यदि वायुदाब की प्रवणता मन्द होगी तो पवन की गति भी कम होगी।
कोरिओलिस प्रभाव और पवनें
पृथ्वी की परिभ्रमण/घूर्णन गति के कारण पवनें विक्षेपित हो जाती हैं, इसे कोरियोलिस बल कहते हैं। तथा इस बल के प्रभाव को कोरियोलिस प्रभाव कहते हैं। इस प्रभाव के कारण पवनें उत्तरी गोलार्द्ध मंे अपनी दाहिनी ओर तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में अपनी बाईं ओर विक्षेपित हो जाती हैं। इस प्रभाव को फेरल नाक वैज्ञानिक ने सिद्ध किया था। इसलिए इसे फेरल का नियम भी कहते हैं।
वैश्विक स्तर पर पवनों के निम्न प्रकार होते हैं- (पवनें – परिभाषा, प्रकार एवं विशेषताएं)
भूमण्डलीय या स्थाई पवने/प्रचलित पवने/सनातनी पवने।
आवर्ती पवनें/सामयिक पवने/मौसमी पवने/अस्थाई पवने।
स्थानीय पवने।
भूमण्डलीय या स्थाई पवने-
सामान्यतया पवने सदैव उच्च वायुदाब से निम्न वायुदाब की ओर चलती है लेकिन पृथ्वी के घूर्णन से उत्पन्न कोरिओलिस बल के कारण यह पवने सीधी नहीं चलती अपितु अपने प्रभाव मार्ग से मुड़ जाती हैं।
इनके तीन उपविभाग हैं-
(i) पूर्वी पवनें या व्यापारिक पवनें
(ii) पश्चिमी पवनें या पछुआ पवनें
(iii) ध्रुवीय पूर्वी पवनें या ध्रुवीय पवनें
(i) पूर्वी पवनें या व्यापारिक पवनें:
पूर्वी पवनें या व्यापारिक पवनें उपोष्ण उच्च वायुदाब क्षेत्रों से विषुवतीय निम्न वायुदाब क्षेत्र की ओर चलती है। इन्हें ट्रेड विंड’ भी कहते हैं। ‘ट्रेड’ जर्मन भाषा का शब्द हैं जिसका अर्थ है ‘पथ’। ‘ट्रेड के चलने का अर्थ है नियमित रूप से एक ही पथ पर निरन्तर एक ही दिशा से चलना। अतः इन्हें सन्मार्गी पवनें भी कहते हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में पूर्वी या सन्मार्गी पवनें उत्तर-पूर्व दिशा से तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिण-पूर्व दिशा से चलती हैं। सन्मार्गी पवनें उष्ण कटिबंध में मुख्यतया पूर्व दिशा से चलती हैं अतः इन्हें उष्ण कटिबन्धीय पूर्वी पवनें भी कहते हैं।
व्यापारिक पवने उत्तरी गोलार्द्ध में उत्तर पूर्व से दक्षिण पश्चिम की ओर यह अपने दाएं और मुड़ेंगी तथा दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिण पूर्व से उत्तर पश्चिम की ओर यह अपने बांयीं ओर मुड़ेंगी।
(नोट: फैरोल के नियम के अनुसार बॉयस हैंडले का नियम इसके विपरीत है)
(ii) पश्चिमी पवनें या पछुआ पवनें-
पश्चिमी या पछुआ पवनें उपोष्ण उच्च वायुदाब की पेटी से अधोध्रुवीय निम्न वायुदाब की पेटी की ओर चलती हैं। कोरिओलिस बल के कारण ये पवनें उत्तरी गोलार्द्ध में अपने दायीं ओर को मुड़कर चलती हैं और यहाँ इनकी दिशा दक्षिण-पश्चिम होती है। दक्षिणी गोलार्द्ध में ये बाईं ओर मुड़कर चलती है और यहाँ इनकी दिशा उत्तर-पश्चिम होती है। मुख्य दिशा पश्चिम होने के कारण इन्हें पश्चिमी पवनें कहते हैं।
मौसम की परिवर्तनशीलता ही इनकी विशेषता है। (पवनें – परिभाषा, प्रकार एवं विशेषताएं)
40 डिग्री दक्षिणी अक्षांश – गरजती चालीसा/दहाड़ती चालीसा
50 डिग्री दक्षिणी अक्षांश – प्रचंड पचासा भयंकर पचासा/डरावनी पचासा
60 डिग्री दक्षिणी अक्षांश – चीखता साठा
(iii) ध्रुवीय पूर्वी पवनें या ध्रुवीय पवनें
ये पवनें ध्रुवीय उच्च वायुदाब क्षेत्र से अधोधुवीय निम्न वायुदाब क्षेत्र की ओर चलती हैं। उत्तरी गोलार्द्ध में इनकी दिशा उत्तर-पूर्व से दक्षिण पश्चिम की ओर, दक्षिण गोलार्द्ध में दक्षिण-पूर्व से उत्तर पश्चिम की ओर होती है।
आवर्ती पवनें/सामयिक पवने/मौसमी पवने/अस्थाई पवने- (पवनें – परिभाषा, प्रकार एवं विशेषताएं)
इन पवनों की दिशा ऋतु परिवर्तन के साथ बदलती रहती है। मानसून पवने बहुत ही महत्वपूर्ण आवर्ती पवनें हैं।
मानसून पवनें
‘मानसून’ शब्द की उत्पत्ति अरबी भाषा के शब्द ‘मौसम’ से हुई है, जिसका अर्थ है ‘मौसम’। जो पवनें ऋतु परिवर्तन के साथ अपनी दिशा उलट लेती हैं, उन्हें मानसून पवनें कहते हैं। ग्रीष्म ऋतु में मानसून पवनें समुद्र से स्थल की ओर तथा शीत ऋतु में स्थल से समुद्र की ओर चलती हैं।
स्थानीय पवनें –
कुछ पवनें ऐसी भी हैं जो स्थानीय मौसम को प्रभावित करती हैं। सामान्यतः स्थानीय पवनें छोटे क्षेत्र को प्रभावित करती हैं। ये क्षोभमण्डल के निम्नभाग तक ही सीमित रहती हैं कुछ स्थानीय पवनों का वर्णन नीचे दिया जा रहा है । यह मुख्यता चार प्रकार की हैं-
(i) समुद्र-समीर एवं स्थल-समीर
समुद्र-समीर और स्थल- समीर समुद्र तटों और झीलों के आस-पास के क्षेत्रों में चला करती हैं। दिन के समय स्थल भाग समुद्र या झील की अपेक्षा शीघ्र और अधिक गर्म हो जाता है। इस कारण स्थल भाग पर स्थानीय निम्न वायुदाब विकसित हो जाता है और इसके विपरीत समुद्र या झील की सतह पर उच्च वायुदाब होता है। वायुदाबों में अन्तर होने के कारण समुद्र से स्थल की ओर वायु चलती है। इसे समुद्र-समीर कहते हैं। समुद्र-समीर दोपहर से कुछ पहले चलना आरंभ करती है और इसकी तीव्रता दोपहर और दोपहर बाद सबसे अधिक होती है। इन शीतल पवनों का तटीय भागों के मौसम पर समकारी प्रभाव पड़ता है।
रात के समय स्थल भाग शीघ्र ठंडा हो जाता है, इसके परिणामस्वरूप स्थल भाग पर उच्च वायुदाब होता है और समुद्री-भाग पर अपेक्षाकृत निम्न वायुदाब, अतः पवनें स्थल-भाग से समुद्र की ओर चला करती है ऐसी पवनों को स्थल-समीर कहते हैं।
(ii) घाटी समीर एवं पर्वतीय समीर :
दिन के समय पर्वतीय ढाल घाटी की अपेक्षा अधिक गर्म हो जाते हैं इससे ढालों पर वायुदाब कम और घाटी तल पर वायुदाब अधिक होता है अतः दिन के समय घाटी तल से वायु मन्द गति से पर्वतीय ढालों की ओर चला करती है। इसे घाटी-समीर कहते हैं।
सूर्यास्त के बाद पर्वतीय ढालों पर तेजी से ताप का विकिरण हो जाता है। अतः पर्वतीय ढालों पर घाटी तल की अपेक्षा शीघ्रता से उच्च वायुदाब विकसित हो जाता है। अतः पर्वतीय ढालों की ठंडी और भारी वायु नीचे घाटी तल की ओर बहने लगती है। इसे पर्वतीय- समीर कहते हैं। घाटी-समीर और पर्वतीय-समीर को क्रमशः एनाबेटिक तथा केटाबेटिक समीर भी कहते हैं।
(iii) गर्म पवनें (पवनें – परिभाषा, प्रकार एवं विशेषताएं)
लू. फोहन और चिनूक प्रमुख गर्म प्रकार की स्थानीय पवने हैं।
(1) लू
लू अति गर्म तथा शुष्क पवनें हैं जो मई तथा जून के महीनों में भारत के उत्तरी मैदानों और पाकिस्तान में चला करती हैं इन पवनों की दिशा पश्चिम से पूर्व है ओर ये सामान्यतया दोपहर के बाद चलती हैं। इन पवनों का तापमान 450 सें. से 50 से. के बीच होता है। जिसे वस्तुत: तापलहरी भी कहा जाता है।
(2) फोहन/फॉन
आल्प्स पर्वत माला के पवनाविमुख (उत्तरी) ढालों पर नीचे की ओर उतरने वाले तीव्र, झोंकेदार, शुष्क और गर्म स्थानीय पवन को फोहन कहते हैं। स्थानीय वायुदाब प्रवणता के कारण वायु आलस पर्वत के दक्षिणी ढलानों पर चढ़ती है। चढ़ते समय इन ढलानों पर कुछ वर्षा भी करती है। परन्तु पर्वतमाला को पार करने के बाद ये पवनें उत्तरी ढलानों पर गर्म पवन के रूप में नीचे उतरती हैं इनका तापमान 15 डिग्री से. से 20 डिग्री से. तक होता है और ये पर्वतों पर पड़ी हिम को पिघला देती है इनसे चारागाह पशुओं के चरने योग्य बन जाते हैं और अंगूरों को शीघ्र पकने में इनसे सहायता मिलती है।
(3) चिनूक
संयुक्त राज्य अमरीका और कनाड़ा में रॉकी पर्वतमाला के पूर्वी ढालों पर नीचे उतरती गर्म पवन को चिनूक कहते हैं। स्थानीय भाषा में चिनूक शब्द का अर्थ है हिम भक्षक’ क्योंकि वे हिम को समय से पूर्व पिघलाने में समर्थ हैं अतः ये घास स्थलों को हिमरहित बना देती हैं, जिससे चारागाहों पर पर्याप्त मात्रा में घास उपलब्ध हो जाती है।
(4) सिरोंको (Sirocco):
यह गर्म शुष्क तथा रेत से भरी हवा है जो सहारा के रेगिस्तानी भाग से उत्तर की ओर भूमध्यसागर होकर इटली और स्पेन में प्रविष्ट होती है। यहाँ इनसे होने वाली वर्षा को रक्त वर्षा (Blood Rain) के नाम से जाना जाता है, क्योंकि यह अपने साथ सहारा क्षेत्र के लाल रेत को भी लाता है। इनका वनस्पतियों, कृषि व फलों के बागों पर विनाशकारी प्रभाव पड़ता है। मिस्र, लीबिया, ट्यूनीशिया में सिरॉको का स्थानीय नाम क्रमशः खमसिन, गिबली, चिली. है। स्पेन तथा कनारी त मेडिरा द्वीपों में सिरॉको का स्थानीय नाम क्रमश: लेवेश व लेस्ट है।
(5) ब्लैक रोलर:
ये उत्तरी अमेरिका के विशाल मैदानों में चलने वाली गर्म एवं धूलभरी शुष्क हवाएँ हैं।
(6) योमा:
यह जापान में सेंटाएना के समान ही चलने वाली गर्म व शुष्क हवा है।
(7) टेम्पोरल:
यह मध्य अमेरिका में चलने वाली मानसूनी हवा है।
(8) सिमूम:
अरब के रेगिस्तान में चलने वाली गर्म व शुष्क हवा जिससे रेत की आंधी आती है दृश्यता समाण हो जाती है।
(9) सामुन:
यह ईरान व इराक के कान में चलने वाली स्थानीय हवा है जो फोहन के समान विशेषताएँ रखती है।
(10) शामल:
यह इराक, ईरान और अरब के मरुस्थलीय क्षेत्र में चलने वाली गर्म, शुष्क व रेतीली पवनें है।
(11) सीस्टन:
यह पूर्वी ईरान में ग्रीष्मकाल में प्रवाहित होने वाली तीव्र उत्तरी पवन है।
(12) हबूब:
उत्तरी सूडान में मुख्यतः खारतूम के समीप चलने वाली यह धूलभरी आँधियाँ है जिनसे दृश्यता कम हो जाती है ओर कभी-कभी तड़ित झंझा (Thunder storm) सहित भारी वर्षा होती है।
(13) काराबुरान:
यह मध्य एशिया के तारिम बेसिन में उत्तर पूर्व की ओर प्रवाहित होने वाली धूल भरी आधियाँ हैं।
(14) कोइम्यैंग:
फोहन के समान जावा द्वीप (इंडोनेशिया) में चलने वाली पवनें हैं, जो तंबाकू आदि फसलों को नुकसान पहुँचाती है।
(15) हरमट्टन:
सहारा रेगिस्तान में उत्तर-पूर्व तथा पूर्वी दिशा से पश्चिमी दिशा में चलने वाली यह गर्म तथा शुष्क हवा है, जो अफ्रीका के पश्चिमी तट की उष्ण तथा आर्द्र हवा में शुष्कता लाती है, जिससे मौसम सुहावना व स्वास्थ्यप्रद हो जाता है। इसी कारण गिनी तट पर इसे ‘डॉक्टर’ हवा कहा जाता है।
(16) ब्रिकफिल्डर:
आस्ट्रेलिया के विक्टोरिया प्रांत में चलने वाली यह उष्ण व शुष्क हवा है।
(17) नार्वेस्टर:
यह उत्तर न्यूजीलैंड में चलने वाली गर्म व शुष्क हवा है।
(18) सेंटाएना:
यह कैलिफोर्निया में चलने वाली गर्म व शुष्क हवा है।
(19) जोन्डा:
ये अर्जेंटीना और उरूवे में एडीज से मैदानी भागों की ओर चलने वाली शुष्क पवनें है इसे शीत फोहन भी कहा जाता है।
पवनें परिभाषा प्रकार विशेषताएं
(iv) ठंडी पवनें:
ठंडी पवनें शीत ऋतु में हिमाच्छादित पर्वतों पर उत्पन्न होती है और ढाल के अनुरूप घाटी की ओर नीचे उतरती हैं। भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में इनके अलग-अलग नाम हैं। इनमें से प्रमुख मिस्ट्रल पवन हैं।
(1) मिस्टूल :
यह ठंडी ध्रुवीय हवाएँ है जो रोन नदी को घाटी से होकर चलती है एवं रूमसागर (भूमध्य सागर) के उत्तर पश्चिम भाग विशेषकर स्पेन में फ्रास को प्रभावित करती है। इसके आने से तापमान हिमांक के नीचे गिर जाता है।
(2) बोरा :
मिस्टूल के समान ही यह भी एक शुष्क व अत्यधिक ठंडी हवा है एवं एड्रियाटिक सागर के पूर्वी किनारों पर चलती है इससे मुख्यत: इटली व यूगोस्लाविया प्रभावित होते है।
(3) ब्लिजर्ड या हिम झंझावात :
ये बर्फ के कणों से युक्त ध्रुवीय हवाएँ हैं। इससे साइबेरियाई क्षेत्र, कनाडा, सं.रा अमेरिका प्रभावित होता है। इनके आगमन से तापमान हिमांक से नीचे गिर जाता है। रूस के टुंड्रा प्रदेश एवं साइबेरिया क्षेत्र में ब्लिजर्ड का स्थानीय नाम क्रमश: पुरगा व बुरान है।
(4) नार्टे:
ये संयुक्त राज्य अमेरिका में शीत ऋतु में प्रवाहित होने वाली ध्रुवीय पवनें हैं दक्षिणी सं.रा. अमेरिका में शीत ऋतु में प्रवाहित होने वाली ध्रुवीय पवनों को नार्दर या नार्दर्न पवनें कहा जाता है।
(5) पैंपेरो:
ये अर्जेंटीना, चिली व उरुग्वे में बहने वाली तीव्र ठंडी ध्रुवीय हवाएँ हैं।
(6) ग्रेगाले:
ये द. यूरोप के भूमध्यसागरीय क्षेत्रों के मध्यवर्ती भाग में बहने वाली शीतकालीन पवनें हैं।
(7) जूरन:
ये जूरा पर्वत (स्विटजरलैंड) से जेनेवा झील (इटली) तक रात्रि के समय चलने वाली शीतल व शुष्क पवनें हैं।
(8) मैस्ट्रो:
ये भूमध्यसागरीय क्षेत्र के मध्यवर्ती भागों में चलने वाली उत्तर पश्चिमी पवनें हैं।
(9) पुना:
यह एंडीज क्षेत्र में चलने वाली ठंडी पवन हैं।
(10) पापागायो:
यह मैक्सिको के तट पर चलने वाली शुष्क और शीतल उत्तर-पूर्व पवनें हैं।
(11) पोनन्त:
ये भूमध्यसागरीय क्षेत्र में विशेषकर कोर्सिक एवं भूमध्यसागरीय फ्रांस में चलने वाली ठंडी पश्चिमी हवाएँ हैं।
(12) वीरासेन:
ये पेरू तथा चिली के पश्चिमी तट पर चलने वाली समुद्री पवनें हैं।
(13) दक्षिणी बर्स्टर:
ये न्यू साउथ बेल्स (आस्ट्रेलिया) में चलने वाली तेज व शुष्क ठंडी पवनें हैं।
(14) बाईज:
यह फ़ांस में प्रभावी रहने वाली अत्यंत ठंडी शुष्क पवन है।
(15) लेबांटर:
यह दक्षिणी स्पेन में प्रभावी रहने वाली शक्तिशाली पूर्वी ठंडी पवनें हैं।
वायुमण्डल का संघटन, वायुमण्डल की संरचना, वायुमण्डल की परतें, वायुमण्डल की गैसें एवं वायुमण्डल का रासायनिक संगठन आदि की पूरी जानकारी
वायु अनेक गैसों का मिश्रण है। वायु पृथ्वी को चारों ओर से घेरे हुए है। वायु के इस घेरे को ही वायुमण्डल कहते हैं। वायुमण्डल हमारी पृथ्वी का अभिन्न अंग है जो पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के कारण पृथ्वी से जुड़ा हुआ है।
वायुमण्डल का संघटन (वायुमण्डल – संघटन, संरचना और परतें)
वायुमण्डल विभिन्न प्रकार की गैसों, जलवाष्प और धूलकणों से बना है। वायुमण्डल का संघटन स्थिर नहीं है यह समय और स्थान के अनुसार बदलता रहता है।
(क) वायुमण्डल की गैसें
जलवाष्प एवं धूलकण सहित वायुमण्डल विभिन्न प्रकार की गैसों का मिश्रण है। नाइट्रोजन और ऑक्सीजन वायुमण्डल की दो प्रमुख गैसें हैं। 99% भाग इन्हीं दो गैसों से मिलकर बना है। 120 किमी की ऊँचाई पर ऑक्सीजन की मात्रा नगण्य हो जाती है। इसी प्रकार, कार्बन डाईऑक्साइड एवम् जलवाष्प पृथ्वी को सतह से 90 किमी की ऊँचाई तक ही पाये जाते हैं।
कार्बन डाईऑक्साइड मौसम विज्ञान की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण गैस है, क्योंकि यह सौर विकिरण के लिए पारदर्शी है, लेकिन पार्थिव विकिरण के लिए अपारदर्शी है। यह सौर विकिरण के एक अंश को सोख लेती है तथा इसके कुछ भाग को पृथ्वी की सतह की ओर प्रतिबिबित कर देती हैं।
वायुमण्डल की शुष्क और शुद्ध वायु में गैसों की मात्रा
गैसेंमात्रा (प्रतिशत में)
नाइट्रोजन 78.1
आक्सीजन 20.9
आर्गन 0.9
कार्बन-डाई-आक्साइड 0.03
हाइड्रोजन 0.01
नियॉन 0.0018
हीलियम 0.0005
ओजोन 0.00006
(ख) जलवाष्प
वायुमंडल में जलवाष्प की औसत मात्रा 2% है। ऊंचाई के साथ-साथ जलवाष्प की मात्रा में कमी आती है यह अधिकतम 4% तक हो सकती है। वायुमंडल के संपूर्ण जलवाष्प का 90% भाग 8 किलोमीटर की ऊंचाई तक सीमित है। जलवाष्प की सबसे अधिक मात्रा उष्ण-आर्द्र क्षेत्रों में पाई जाती है तथा शुष्क क्षेत्रों में यह सबसे कम मिलती है। सामान्यतः निम्न अक्षांशों से उच्च अक्षांशों की ओर इसकी मात्रा कम होती जाती है इसी प्रकार ऊँचाई के बढ़ने के साथ इसकी मात्रा कम होती जाती है।
वायुमण्डल संघटन संरचना परतें
(ग) धूल कण
धूलकण अधिकतर वायुमण्डल के निचले स्तर में मिलते हैं। ये कण धूल, धुआँ, समुद्री लवण, उल्काओं के कण आदि के रूप में पाये जाते हैं। धूलकणों का वायुमण्डल में विशेष महत्त्व है। ये धूलकण जलवाष्प के संघनन में सहायता करते हैं संघनन के समय जलवाष्प जलकणों के रूप में इन्हीं धूल कणों के चारों ओर संघनित हो जाती है, जिससे बादल बनते हैं | और वर्षण सम्भव हो पाता है।
वायुमण्डल की परतें- (वायुमण्डल – संघटन, संरचना और परतें)
क्षोभ मंडल या परिवर्तन मंडल या ट्रापास्फेयर –
इस परत की धरातल से औसत ऊंचाई पर 13 किलोमीटर है।
क्षोभमंडल की मोटाई भूमध्य रेखा/ विषुवत रेखा पर सबसे अधिक 18 किलोमीटर है, क्योंकि तेज वायुप्रवाह के कारण ताप का अधिक ऊँचाई तक संवहन किया जाता है।
ध्रुवों पर 8 से 10 किलोमीटर है।
इस मंडल में ऊंचाई निश्चित नहीं है।
तापमान कम हो तो नीचे आ जाती है और अधिक हो तो ऊपर चली जाती है।
ध्रुवों पर 8 किलोमीटर रहती है।
मौसम संबंधी परिवर्तन तथा सजीवों के निवास स्थान के रूप में यह परत विख्यात है।
इसी मंडल को परिवर्तन मंडल एवं संवहन मंडल भी कहते हैं।
बादलों का बनना, गर्जना, तडित चमकना, वर्षा होना, आंधी तूफान आना आदि सभी इसी मंडल अथवा परत में होते हैं।
इस संस्तर में प्रत्येक 165 मीटर की ऊंचाई पर 1 डिग्री सेल्सियस तापमान घटता है जिससे ताप की सामान्य ह्रास दर कहा जाता है।
*क्षोभ सीमा/ट्रांकोपास-
क्षोभमंडल और समतापमंडल को अलग करने वाले भाग को क्षोभसीमा कहते हैं। विषुवत् वृत्त के ऊपर क्षोभ सीमा में हवा का तापमान -80° से. और ध्रुव के ऊपर -45° से होता है। इसकी ऊंचाई डेढ़ से दो किलोमीटर तक होती है।
इस सीमांत पर तथा इसके ऊपर तापमान गिरना बंद हो जाता है।
इस सीमांत में संवहनीक धाराएं नहीं चलती है।
यहां पर तापमान स्थिर होने के कारण इसे क्षोभ सीमा कहते हैं।
समताप मंडल/स्ट्रेटोस्फयर –
इस परत में तापमान के परिवर्तन समाप्त हो जाते हैं तथा संपूर्ण परत की मोटाई में तापमान लगभग समान पाया जाता है।
क्षोभ सीमा से ऊपर 50 किलोमीटर तक फैले समताप मंडल में मौसम एकदम शांत रहता है अतः वायुयान उड़ाने के लिए उपयुक्त परत है।
समतापमंडल का एक महत्त्वपूर्ण लक्षण यह है कि इसमें ओजोन परत पायी जाती है। इस मंडल में 20 किलोमीटर से 35 किलोमीटर तक की ऊंचाई पर बनने वाली ओजोन परत हानिकारक पराबैंगनी किरणों से हमारी रक्षा करती है।
समताप मंडल की ऊपरी सीमा पर औसत तापमान 0 डिग्री सेल्सियस हो जाता है।
मध्य मंडल/ मैसोस्फेयर-
मध्यमंडल, समतापमंडल के ठीक ऊपर 80 कि मी. की ऊँचाई तक फैला होता है।
इस संस्तर में भी ऊँचाई के साथ-साथ तापमान कमी होने लगती है और 80 किलोमीटर की ऊँचाई तक पहुँचकर यह माइनस 100° से. हो जाता है।
जो पृथ्वी का न्यूनतम तापमान है इसके आगे तापमान पुनः बढ़ने लगता है।
आयन मंडल/आयनॉस्फेयर (वायुमण्डल – संघटन, संरचना और परतें)
यहां गैंसें आयनिक अर्थात बिखराव की अवस्था में पाई जाती है।
मध्य सीमा के ऊपर 80 से 400 किलोमीटर की ऊंचाई तक फैले आयन मंडल में विद्युत आवेशित कण पाए जाते हैं, जिन्हें आयन कहते हैं इसीलिए इस मंडल को आयनमंडल कहतज हैं।
इस मंडल द्वारा रेडियो तरंगे परावर्तित की जाती है।
इसी मंडल के कारण उत्तरी ध्रुवीय ज्योति तथा दक्षिणी ध्रुव या ज्योति निर्मित होती है।
रेडियो की लघु तरंगे आयन मंडल की F परत से मध्य तिरंगे E परत से तथा दीर्घ तरंगें D परत से परावर्तित होकर आती है।
इस परत के अस्तित्व का आभास सर्वप्रथम रेडियो तरंगों द्वारा हुआ।
इसकी ऊपरी सीमा का तापमान 1100 डिग्री सेंटीग्रेड हो जाता है।
इस मंडल को थर्मोस्फीयर फिर भी कहते हैं।
बहिर्मंडल/एसोस्फेयर/आयतन मंडल –
इस की ऊपरी सीमा नहीं है फिर भी कुछ वैज्ञानिकों ने इसकी ऊंचाई एक हजार किलोमीटर तक मानी है।
इस परत में कृत्रिम उपग्रह स्थापित किए जाते हैं।
वायुमण्डल का रासायनिक संगठन (वायुमण्डल – संघटन, संरचना और परतें)
इस आधार पर वायुमंडल को दो मंडलों में बांटा गया है।
सममंडल (होमोस्फेयर)
विषम मंडल (थर्मोस्फेयर)
क्षोभमंडल, समतापमंडल तथा मध्यमंडल को संयुक्त रूप से सममंडल या होमोस्फेयर कहते हैं।
आयन मंडल तथा बहिर्मंडल को संयुक्त रूप से विषममंडल या तापमंडल या थर्मोस्फेयर कहा जाता है।
क्षोभसीमा (ट्रोफोस्फेयर)
समताप सीमा (स्ट्रेटोपास)
मध्य सीमा (मेसोपास)
सीमा क्रमशः क्षोभ मंडल, समताप मंडल और मध्य मंडल की ऊपरी सीमा पर डेढ़ से ढाई किलोमीटर मोटा संक्रमण क्षेत्र है।
वायुदाब की परिभाषा, समदाब रेखा (ISOBAR), वायुदाब पेटियां, विषुवत रेखीय, भूमध्यरेखीय, उच्च एवं निम्न वायुदाब पेटियां, ध्रुवीय पेटियां आदि की पूर्ण जानकारी
पृथ्वी के चारों ओर फैला वायुमंडल अपने भार के कारण पृथ्वी के धरातल पर जो दबाव डालता है उसे वायुमंडलीय दाब या वायुदाब कहते हैं
सागर या स्थल के प्रति इकाई क्षेत्र में वायु जो भार डालती है उसे वायुदाब कहते हैं।
वायुदाब का अध्ययन सर्वप्रथम ऑटोफिन ग्युरिक ने किया।
बैरोमीटर/फोर्टिन बैरोमीटर/नीद्रव बैरोमीटर/साधारण वायुदाब मापी नामक यंत्र से वायुदाब को मापा जाता है।
वायुदाब मापने की इकाई मिलीबार/पास्कल/किलोपास्कल है।
समुद्र तल पर पृथ्वी का औसत वायुदाब 1013.25 मिलीबार/किलोपास्कल (KP) होता है।
धरातल से ऊपर जाने पर प्रत्येक 10 मीटर की ऊंचाई पर एक मिली बार की दर से वायु दाब घटता जाता है।
पवने उच्च वायुदाब से निम्न वायुदाब की ओर चलती है।
सूत्र = Pα1/T
P = दाब
T = तापमान
α = समानुपती
सबसे अधिक वायुदाब इर्किटस्क (साइबेरिया) 1075.2 मिलीबार है।
धरातल से प्रत्येक 165 मीटर की ऊंचाई पर 1 डिग्री सेंटीग्रेड की दर से तापमान घटता है इसे सामान्य ताप ह्रास ताप पतन की दर कहते हैं।
सागर तल पर समान वायुदाब वाले क्षेत्रों को मिलाने वाली रेखा समदाब रेखा कहलाती है।
वायुदाब पेटियां
ग्लोब पर सात वायुदाब पेटियां बनती हैं जिनके चार प्रकार होते हैं।
इनमें से उत्पत्ति की प्रक्रिया के आधार पर वायुदाब की पेटियों को दो वृत्त समूहों में विभाजित किया जाता है-
1 तापजन्य- यह दो प्रकार की हैं-
i विषुवत रेखीय/भूमध्य रेखीय निम्न वायुदाब पेटी
ii ध्रुवीय उच्च वायुदाब पेटी
2 गतिजन्य- भी दो प्रकार की होती हैं-
i उपोषण कटिबंधीय उच्च वायुदाब पेटी या घोड़े का अक्षांश (अश्व अक्षांश)
ii उपध्रुवीय निम्न वायुदाब पेटी
वायुदाब परिभाषा पेटियां ISOBAR
1- विषुवत रेखीय/भूमध्यरेखीय निम्न वायुदाब पेटी–
इस पेटी का विस्तार भूमध्य रेखा के 5 डिग्री उत्तर से 5 डिग्री दक्षिण अक्षांशों तक विस्तृत है।
यहां वर्षभर सूर्य की किरणें सीधी पड़ती हैं।
अतः तापमान सदैव ऊँचा तथा वायुदाब कम रहता है।
भूमध्य रेखा पर पृथ्वी का घूर्णन वेग सर्वाधिक होता है।
जिससे यहां अपकेन्द्रीय बल सर्वाधिक होता है।
यहां जलवाष्प की अधिकता तथा वायु का घनत्व कम रहता है।
इस क्षेत्र में धरातल पर हवाओं में गति कम होने तथा क्षेतीजीय पवन प्रवाह के कारण शांत वातावरण रहता है, इसलिए इसे डोलड्रम या शांत पेटी या शांत कटिबंध कहते हैं।
कटिबंध में प्रतिदिन वर्षा होती है
अतः इसका भी प्रभाव वायुदाब पर पड़ता है अतः यहां उर्ध्वाधर पवने रहती हैं।
इस क्षेत्र में दोनों गोलार्द्धों में स्थित उपोषण कटिबंध से आने वाली व्यापारिक पवनों का मिलन या अभिसरण होता है अतः इस मेखला को अंतःउष्ण कटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (ITCZ) भी कहते हैं।
2- उपोषण कटिबंधीय उच्च वायुदाब पेटी या घोड़े का अक्षांश (अश्व अक्षांश)-
विषुवत रेखा के दोनों ओर 30 डिग्री से 35 डिग्री अक्षांशों के मध्य यह पेटी स्थित है।
यहां प्रायः वर्ष भर उच्च तापमान, उच्च वायुदाब एवं मेघ रहित आकाश पाया जाता है।
इस पेटी की मुख्य विशेषता यह है कि विश्व के सभी उष्ण मरुस्थल इसी पेटी में महाद्वीपों के पश्चिमी किनारों पर स्थित हैं।
यह पेटी उच्च वायुदाब तथा तापमान से संबंधित ने होकर पृथ्वी की दैनिक गति से संबंधित है (वायुदाब के अवतलन से संबंधित) अधिकांश मरुस्थल इसी पेटी में आते हैं।
इस कटिबंध में नीचे उतरती हुई वायु काफी दबाव डालती है जिस कारण से इस क्षेत्र को घोड़े का अक्षांश या अश्व अक्षांश के नाम से भी जाना जाता है।
अधोध्रुवीय/उपध्रुवीय निम्न वायुदाब पेटी-वायुदाब, परिभाषा, पेटियां, ISOBAR
यह पेटी 60 डिग्री से 65 डिग्री उत्तरी व दक्षिणी अक्षांशों के मध्य स्थित है।
यहां निम्न तापमान तथा निम्न वायुदाब पाया जाता है। जिसका कारण पृथ्वी की घूर्णन गति है।
पृथ्वी के घूर्णन से उत्पन्न अपकेंद्रीय बल के कारण दोनों गोलार्द्धों में इस पेटी का निर्माण होता है, जो की गतिजन्य वायुदाब पेटी है।
चक्रवात और तूफानों का जन्म इसी पेटी में होता है।
उत्तरी और दक्षिणी गोलार्धों में इन्हें क्रमशः उत्तरी अधोध्रुवीय निम्नदाब पेटी और दक्षिणी अधोध्रुवीय निम्नदाब पेटी कहते हैं।
इन पेटियों में ध्रुवों और उपोष्ण उच्च दाब क्षेत्रों में पवनें आकर मिलती हैं और ऊपर उठती हैं।
इन आने वाली पवनों के तापमान और आर्द्रता में बहुत अन्तर होता है।
इस कारण यहाँ चक्रवात या निम्न वायुदाब की दशायें बनती हैं।
निम्न वायुदाब के इस अभिसरण क्षेत्र को ध्रुवीय वाताग्र भी कहते हैं।
ध्रुवीय उच्च वायुदाब पेटी-
ध्रुवीय प्रदेशों में तापमान की कमी के कारण इस पेटी का निर्माण होता है जो कि एक तापजन्य पेटी है। इस पेटी में गुरुत्वाकर्षण बल सर्वाधिक होता है।
स्थलीय भागों में दिन में न्यूनतम वायुदाब और सागरों में उच्च वायुदाब तथा रात्रि में इसके विपरीत स्थिति होती है।
ध्रुवीय क्षेत्रों में सूर्य कभी सिर के ऊपर नहीं होता।
यहाँ सूर्य की किरणों का आपतन कोण न्यूनतम होता है इस कारण यहां सबसे कम तापमान पाये जाते हैं।
निम्न तापमान होने के कारण वायु सिकुड़ती है और उसका घनत्व बढ़ जाता है, जिससे यहां उच्च वायुदाब का क्षेत्र बनता है उत्तरी गोलार्द्ध में इसे उत्तर ध्रुवीय उच्च वायुदाब पेटी और दक्षिणी गोलार्द्ध में दक्षिण ध्रुवीय उच्च वायुदाब पेटी कहा जाता है।
इन पेटियों से पवनें अधोध्रुवीय निम्न वायुदाब पेटियों की ओर चलती हैं।
उपर्युक्त वायुदाब चित्र में वायुदाब पेटियां दिखाई गई है जिसका निर्माण सूर्य की दिन की आदर्श स्थिति अर्थात विषुवत रेखा पर होती है तो संपूर्ण पृथ्वी पर 21 मार्च और 23 सितंबर को यह स्थिति निर्मित होती है, जिसे वायुदाब की आदर्श स्थिति कहा जाता है।
अंततः – वायुदाब, परिभाषा, पेटियां, ISOBAR
वायुदाब पेटियों की प्रस्तुत व्यवस्था एक सामान्य तस्वीर प्रदर्शित करती है।
वास्तव में वायुदाब पेटियों की यह स्थिति स्थायी नहीं है।
सूर्य की आभासी गति कर्क वृत्त और मकर वृत्त की ओर होने के परिणाम स्वरूप ये पेटियाँ जुलाई में उत्तर की ओर, और जनवरी में दक्षिण की ओर खिसकती रहती हैं।
तापीय विषुवत रेखा जो सर्वाधिक तापमान की पेटी है, वह भी विषुवत वृत्त से उत्तर और दक्षिण की ओर खिसकती रहती है।
तापीय विषुवत रेखा के ग्रीष्म ऋतु में उत्तर की ओर और शीत ऋतु में दक्षिण की ओर खिसकने के परिणाम स्वरूप सभी वायुदाब पेटियां भी अपनी औसत स्थिति से थोड़ा उत्तर या थोड़ा दक्षिण की ओर खिसकती रहती हैं।
जो सर्वाधिक तापमान की पेटी है, वह भी विषुवत वृत्त से उत्तर और दक्षिण की ओर खिसकती रहती है।
तापीय विषुवत रेखा के ग्रीष्म ऋतु में उत्तर की ओर और शीत ऋतु में दक्षिण की ओर खिसकने के परिणाम स्वरूप सभी वायुदाब पेटियां भी अपनी औसत स्थिति से थोड़ा उत्तर या थोड़ा दक्षिण की ओर खिसकती रहती हैं।