मीराबाई का जीवन परिचय

मीराबाई का जीवन परिचय

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जन्म – 1498

जन्म भूमि – कुडकी, पाली, राजस्थान,

बचपन का नाम पेमल

मृत्यु – 1547 (मीरा में भगवान श्रीकृष्ण की मूर्ति में समा गयी।)

अभिभावक- रत्नसिंह

पति- कुंवर- भोजराज ( उदयपुर के महाराणा सांगा के पुत्र)

गुरु/शिक्षक संत रविदास (माना जाता है कि इन्होंने जीव गोस्वामी से दीक्षा ली थी)

डॉ नगेंद्र ने इन्हें संप्रदाय निरपेक्ष भक्त कवयित्री कहा है।

कर्म भूमि- वृन्दावन

काल- भक्तिकाल

विषय – कृष्णभक्ति

Meerabai का जीवन परिचय
Meerabai का जीवन परिचय

मीराबाई की प्रमुख रचनाएं

मीराबाई ने चार ग्रन्थों की भी रचना की थी-

‘बरसी का मायरा’

‘गीत गोविंद टीका’

‘राग गोविंद’

‘राग सोरठ’

मीराबाई की पदावली : मीराबाई का जीवन परिचय

मीराबाई के गीतों का संकलन “मीराबाई की पदावली” नामक ग्रन्थ में किया गया है, जिसमें निम्नलिखित खंड प्रमुख हैं-

नरसी जी का मायरा

मीराबाई का मलार या मलार राग

गर्बा गीता या मीराँ की गरबी

फुटकर पद

सतभामानु रूसण या सत्यभामा जी नुं रूसणं

रुक्मणी मंगल

नरसिंह मेहता की हुंडी

चरित

विशेष तथ्य

प्रियादास ने संवत् 1769 वि. में भक्तमाल की टीका ‘भक्तिरस बोधिनी’ में लिखा है कि मीरा की जन्म भूमि मेड़ता थी।

नागरीदास ने लिखा है कि मेड़ता की मीराबाई का विवाह राणा के अनुज से हुआ था।

कर्नल टॉड ने ‘एनलस एण्ड एंटिक्वटीज ऑफ़ राजस्थान’ में मीरा का विवाह राणा कुम्भा से लिखा है।

पंडित गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने अपने उदयपुर राज्य के इतिहास में लिखा है कि महाराणा साँगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज का विवाह मेड़ता के राव वीरमदेव के छोटे भाई रत्नसिंह की पुत्री मीराबाई के साथ संवत् 1573 वि. में हुआ था।

स्मरण रहे कि कर्नल टॉड अथवा उन्हीं के आधार पर जिन विद्वानों ने मीरा को कुम्भा की पत्नी माना है, वे दन्त कथाओं के आधार पर गलती कर गए हैं।

सर्वप्रथम विलियम क्रुक ने बताया कि वास्तव में मीराबाई राणा कुम्भा की पत्नी नहीं थीं, वरन् साँगा के पुत्र भोजराज की पत्नी थीं।

पण्डित रामचन्द्र शुक्ल ने अपने इतिहास में लिखा है कि- ‘इनका जन्म संवत् 1573 वि. में चौकड़ी नाम के एक गाँव में हुआ था और विवाह उदयपुर के कुमार भोजराज के साथ हुआ था।’

डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने इनका जन्म सन् 1498 ई. (संवत् 1555 वि.) के लगभग माना है।

मीरा की भक्ति माधुर्य- भाव की भक्ति है।

वह अपने इष्टदेव कृष्ण की भावना प्रियतम या पति के रुप में करती थी।

उनका मानना था कि इस संसार में कृष्ण के अलावा कोई पुरुष है ही नहीं।

कृष्ण के रुप की दीवानी थी।

“मीराबाई रैदास को अपना गुरु मानते हुए कहती हैं-

‘गुरु मिलिया रैदास दीन्ही ज्ञान की गुटकी।’

मीराबाई और तुलसीदास का पत्र-व्यवहार

मीरा ने तुलसीदास को पत्र लिखा था-

“स्वस्ति श्री तुलसी कुलभूषण दूषन- हरन गोसाई।
बारहिं बार प्रनाम करहूँ अब हरहूँ सोक- समुदाई।।
घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई।
साधु- सग अरु भजन करत माहिं देत कलेस महाई।।
मेरे माता- पिता के समहौ, हरिभक्तन्ह सुखदाई।
हमको कहा उचित करिबो है, सो लिखिए समझाई।।”

मीराबाई के पत्र का जबाव तुलसी दास ने इस प्रकार दिया-

“जाके प्रिय न राम बैदेही।
सो नर तजिए कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेहा।।
नाते सबै राम के मनियत सुह्मद सुसंख्य जहाँ लौ।
अंजन कहा आँखि जो फूटे, बहुतक कहो कहां लौ।।”

मीराबाई की काव्य शैली एवं भाषा शैली : मीराबाई का जीवन परिचय

मीरा के काव्य की भाषा सामान्यतः राजस्थानी मिश्रित ब्रिज है।

उनके पदों पर गुजराती का विशेष पुट है।

खड़ी बोली और पंजाबी का भी उनकी कविता पर पर्याप्त प्रभाव दिखाई देता है।

संगीत और छंद विधान की दृष्टि से मीरा का काव्य उच्च कोटि का है उनके पद विभिन्न राग रागिनियों में बद्ध है।

भावना प्रधान होने के कारण मीरा के काव्य में अलंकारों की सायास योजना कहीं दिखाई नहीं देती है।

आदिकाल के प्रमुख साहित्यकार

भक्तिकाल के प्रमुख साहित्यकार

आधुनिक-काल के साहित्यकार

सूरदास का जीवन परिचय

सूरदास का जीवन परिचय

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जन्मकाल- 1478 ई. (1535 वि.)

जन्मस्थान- सीही ग्राम ( नगेन्द्र के अनुसार) आधुनिक शौधों के अनुसार इनका जन्म स्थान मथुरा के निकट ‘रुनकता’ नामक ग्राम माना गया है।

मृत्युकाल- 1583 ई. (1640 वि.) पारसोली गाँव में

सूरदास के जन्म स्थान के संबंध में विद्वानों में मतभेद है आचार्य शुक्ल, डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी, बाबू श्यामसुंदर दास के अनुसार इनका जन्म और रुनकता का गऊघाट है, जबकि डॉ नगेंद्र, गणपति चंद्रगुप्त तथा वार्ता साहित्य के अनुसार सूरदास जी का जन्म स्थान सीही है।

सूरदास जी के बारे में जानकारी का प्रमुख स्रोत चौरासी वैष्णवन की वार्ता है।

गुरु का नाम- वल्लभाचार्य

गुरु से भेंट- 1509-10 ई. में (पारसोली नामक गाँव में)

काव्य भाषा- ब्रज

सूरदास का साहित्यिक परिचय

सूरदास की रचनाएं

डॉक्टर दीन दयालु गुप्त के अनुसार सूरदास जी की 25 रचनाएं हैं।

नागरीप्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित हस्तलिखित पुस्तकों की विवरण तालिका में सूरदास के 16 ग्रंथों का उल्लेख है।

सूरसागर

यह सूरदास की सर्वश्रेष्ठ कृति मानी जाती है।

इसका मुख्य उपजीव्य (आधार स्रोत) श्रीमद् भागवतपुराण के दशम स्कंद का 46 वां व 47 वां अध्याय माना जाता है।

भागवत पुराण की तरह इस का विभाजन भी ‘बारह स्कंधो’ में किया गया है।

इसके दसवें स्कंद में सर्वाधिक पद रचे गए है।

सूरसागर के 400 पदों का संपादन आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘भ्रमरगीत सार’ नाम से किया है

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है-” सूरसागर किसी चली आती हुई गीती काव्य परंपरा का, चाहे वह मौखिक ही रही हो, पूर्ण विकास सा प्रतीत होता है।”

नगेन्द्र ने इस रचना को ‘अन्योक्ति’ एवं ‘उपालम्भ काव्य’ कहकर पुकारा है।

साहित्यलहरी

यह नायिका भेद और अलंकार से संबंधित 118 दृष्ट कूट पदों (लक्ष्मण के साथ उदाहरण देना) का ग्रंथ है।

यह इनका रीतिपरक यह माना जाता है|

इसमें दृष्टकूट पदों में राधा कृष्ण की लीलाओं का वर्णन किया गया है।

अलंकार निरुपण दृष्टि से भी इस ग्रंथ का अत्यधिक महत्त्व माना जाता है।

साहित्य लहरी की रचना सूर्य नंद दास को नायिका भेद की शिक्षा देने के लिए की थी यह ग्रंथ अनुपलब्ध है।

सूरसारावली

यह इनकी विवादित या अप्रमाणिक रचना मानी जाती है।

इसमें ज्ञान वैराग्य में भक्ति से संबंधित वर्णन मिलता है 1107 संतों की इस रचना में संसार को होली का रूपक माना गया है।

विशेष तथ्य

सूरदास जी को ‘ खंजननयन, भावाधिपति, वात्सल्य रस सम्राट, जीवनोत्सव का कवि, पुष्टिमार्ग का जहाज’ आदि नामों से भी जाना जाता है।

आचार्य रामचंद्र शुकल ने इनको-‘वात्सल्य रस सम्राट’ व ‘जीवनोत्सव का कवि’ कहा है।

गोस्वामी विट्ठलनाथजी ने इनकी मृत्यु पर ‘ पुष्टिमार्ग का जहाज’ कहकर पुकारा था।

इनकी मृत्यु पर उन्होंने लोगों को संबोधित करते हुए कहा था- ” पुष्टिमार्ग को जहाज जात है सो जाको कछु लेना होय सो लेउ।”

हिंदी साहित्य जगत में ‘भ्रमरगीत’ परंपरा का समावेश सूरदास द्वारा ही किया हुआ माना जाता है।

कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह चंदबरदाई के वंशज कवि माने गए हैं।

आचार्य शुक्ल ने कहा है- “सूरदास की भक्ति पद्धति का मेरुदंड पुष्टीमार्ग ही है।”

सूर साहित्य गीतिकाव्य है।

सूरदास जी ने भक्ति पद्धति के 11 रूपों का वर्णन किया है।

हिंदी साहित्य जगत में सूरदास जी सूर्य के समान, तुलसीदास जी चंद्रमा के समान, केशव दास जी तारे के समान तथा अन्य सभी कवि जुगनुओं (खद्योत) के समान यहां-वहां प्रकाश फैलाने वाले माने जाते हैं| यथा:-
“सूर सूर तुलसी ससि, उडूगन केशवदास|
और कवि खद्योत सम, जहँ तहँ करत प्रकाश।”

सूर के भाव चित्रण में वात्सल्य भाव को श्रेष्ठ कहा जाता है।

विद्वानों के कथन-

“सूर्य अपनी आंखोंसे वात्सल्य का कोना कोना छान आए हैं।”- आचार्य शुक्ल

“जब दूर अपने विषय का वर्णन करते हैं तो मानो अलंकार शास्त्र हाथ जोड़कर उनके पीछे दौड़ा करता है, अपमाओं की बाढ़ आ जाती है, रूपकों की वर्षा होने लगती है, संगीत के प्रवाह में कवि स्वयं बह जाता है।” आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

“वात्सल्य और श्रंगार के क्षेत्र का जितना अधिक उद्घाटन सूर ने बंद आंखों से किया है उतना किसी कवि ने नहीं किया।” आचार्य शुक्ल

‘महाकवि सूरदास’ नामक आलोचना – आ. नंददुलारे वाजपेयी

‘सूर साहित्य’ – आ. हजारीप्रसाद द्विवेदी

‘त्रिवेणी’ (जायसी तुलसी सूर पर आलोचनात्मक ग्रंथ) – आचार्य रामचंद्र शुक्ल

आदिकाल के प्रमुख साहित्यकार

भक्तिकाल के प्रमुख साहित्यकार

आधुनिक-काल के साहित्यकार

तुलसीदास Tulsidas

तुलसीदास Tulsidas जी की जीवनी एवं साहित्य रचनाएं

इस पोस्ट में हम तुलसीदास Tulsidas जी की जीवनी, साहित्य, रचनाएं एवं विशेष कथन संबंधी पूरी जानकारी प्राप्त करेंगे।

पूरा नाम -गोस्वामी तुलसीदास

बचपन का नाम- रामबोला

जन्म- सन 1532 (संवत- 1589)

जन्म भूमि- राजापुर, उत्तर प्रदेश (आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार)

कुछ इतिहासकार इनका जन्म स्थान ‘सोरों’ क्षेत्र (उत्तर प्रदेश) को मानते हैं सर्वप्रथम श्री गौरी शंकर द्विवेदी ने स्वरचित ‘सुकवि सरोज’ (1927 ईस्वी) पुस्तक में इनका संबंध ‘सोरो’ क्षेत्र से स्थापित किया था|

पंडित रामनरेश त्रिपाठी ने भी इनका जन्म स्थान ‘सोरों’ स्वीकार किया है|

लाला सीताराम, गौरीशंकर द्विवेदी, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामनरेश त्रिपाठी, रामदत्त भारद्वाज, गणपतिचन्द्र गुप्त के अनुसार– तुलसीदास का जन्म स्थान – सूकर खेत (सोरों) (जिला एटा)

बेनीमाधव दास, महात्मा रघुवर दास, शिव सिंह सेंगर, रामगुलाम द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार तुलसीदास का जन्म स्थान– राजापुर (जिला बाँदा)

मृत्यु- सन 1623 (संवत- 1680)

मृत्यु स्थान- काशी

तथ्य:-
“संवत् सोरह सौ असी, असी गंग के तीर।
श्रवण शुक्ल सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर।”

अभिभावक – आत्माराम दुबे और हुलसी

पालन-पोषण- दासी चुनियां एवं बाबा नरहरिदास

भक्ति पद्धति- दास्य भाव

पत्नी – रत्नावली (दीनबंधु पाठक की पुत्री)

अपनी पत्नी की प्रेरणा से ही इन को ज्ञान की प्राप्ति हुई मानी जाती है पत्नी के दवारा बोले गए निम्न कथनों को सुनकर ही यह राम भक्ति की ओर उन्मुख हुए थे:-
“लाज न आवत आपको, दौरे आयहु साथ।
धिक-धिक एसे प्रेम को, कहा कहौं मैं नाथ।
अस्थि चर्म मय देह मम, तामैं एसी प्रीति।
तैसी जौं श्रीराम महँ, होती न तौ भवभीति ।।”

कर्म भूमि- बनारस

कर्म-क्षेत्र -कवि, समाज सुधारक

विषय – सगुण राम भक्ति

भाषा -अवधी, ब्रज

गुरु -नरहरिदास व शेष सनातन
नोट:- नरहरिदास ने ही इनका नाम रामबोला से बदलकर तुलसी रखा।

गोस्वामी तुलसीदास की गुरु परम्परा का क्रम

राघवानन्द
   ⇓

रामानन्द
   ⇓

अनन्तानन्द
   ⇓

नरहर्यानंद (नरहरिदास)
   ⇓

तुलसीदास

तुलसीदास जीवनी साहित्य रचनाएं
तुलसीदास जीवनी साहित्य रचनाएं

TULSIDAS के विषय में जानकारी के स्रोत

भक्तमाल- नाभा दास

भक्तमाल टीका- प्रियदास

दो सौ वैष्णव की वार्ता- गोकुलनाथ

गोसाई चरित्र और मूल गोसाई चरित्र- वेणी माधव दास

तुलसी चरित्र- बाबा रघुनाथ दास

घट रामायण- तुलसी साहिब हाथरस वाले

इनमें से वेणी माधव दास की रचना सबसे प्रामाणिक एवं महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।

तुलसीदास का साहित्य परिचय

गोस्वामी तुलसीकृत 12 ग्रन्थों को ही प्रामाणिक माना जाता है। इसमें 5 बड़े और 7 छोटे हैं।

तुलसी की पाँच लघु कृतियों – ’वैराग्य संदीपनी’, ’रामलला नहछू’, ’जानकी मंगल’, ’पार्वती मंगल’ और ’बरवै रामायण’ को ’पंचरत्न’ कहा जाता है।

कृष्णदत्त मिश्र ने अपनी पुस्तक ’गौतम चन्द्रिका’ में तुलसीदास की रचनाओं के ’अष्टांगयोग’ का उल्लेख किया है।
ये आठ अंग निम्न हैं –
(1) रामगीतावली,
(2) पदावली,
(3) कृष्ण गीतावली,
(4) बरवै,
(5) दोहावली,
(6) सुगुनमाला,
(7) कवितावली
(8) सोहिलोमंगल।

तुलसीदास की प्रथम रचना वैराग्य संदीपनी तथा अन्तिम रचना कवितावली को माना जाता है। कवितावली के परिशिष्ट में हनुमानबाहुक भी संलग्न है (इसकी रचना तुलसी ने बाहु रोग से मुक्ति के लिए की)। किन्तु अधिकांश विद्वान रामलला नहछू को प्रथम कृति मानते हैं।

सांगरूपक तुलसी जी का प्रिय अलंकार है।

Tulsidas

इन्होंने ‘हनुमान बाहुक’ की रचना अपने किसी अनिष्ट निवारण के लिए की थी वर्तमान में अधिकतर विद्वान इस रचना को ‘कवितावली’ रचना का ही एक भाग मानते हैं।

सर्वप्रथम पंडित राम गुलाम दिवेदी ने इसे ‘कवितावली’ रचना का भाग माना था।

पंडित राम गुलाब द्विवेदी में इनके द्वारा रचित 12 रचनाओं का उल्लेख किया है।

बाबा बेनी माधव दास ने स्वरचित ‘मूल गोसाई चरित’ रचना में इनके ग्रंथों की संख्या 13 मानी है तथा इन 13 में ‘कवितावली’ का नाम उल्लेख प्राप्त नहीं होता है।

ठाकुर शिवसिंह सेंगर ने स्वरचित ‘शिवसिंह सरोज’ रचना में तुलसी द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या 18 मानी है।

एनसाइक्लोपीडिया ऑव् रिलीजन एण्ड एथिक्स- 12 ग्रंथ (प्रमाणिक रूप से स्वीकृत) मानें है।

मिश्रबंधुओं ने स्व रचित ‘हिंदी नवरत्न’ रचना में तुलसी द्वारा रचित 25 ग्रंथों का उल्लेख किया है जिनमें 13 अप्रमाणिक एवं 12 प्रमाणिक माने गए हैं।

नागरी प्रचारणी सभा, काशी की खोज रिपोर्ट ‘तुलसी’ नामक कवि की 37 रचनाओं का उल्लेख किया गया है, परंतु 1923 ईस्वी में सभा ने तुलसीदास के केवल 12 ग्रंथों को प्रमाणिक मान कर उनका प्रकाशन ‘तुलसी ग्रंथावली’ (खंड 1 व 2) के रुप में किया है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल एवं लाला सीता राम नें भी तुलसीदास की 12 रचनाओं को प्रमाणिक माना है।

गोस्वमी तुलसीदास रामानुजाचार्य के ’श्री सम्प्रदाय’ और विशिष्टाद्वैतवाद से प्रभावित थे। इनकी भक्ति भावना ’दास्य भाव’ की थी।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ’रामचरितमानस’ को ’लोकमंगल की साधनावस्था’ का काव्य माना है।

जीवनी एवं साहित्य रचनाएं

इस पोस्ट में हम तुलसीदास जी की जीवनी, साहित्य, रचनाएं एवं विशेष कथन संबंधी पूरी जानकारी प्राप्त कर रहे हैं-

तुलसीदास की रचनाएं

गोस्वामी तुलसीदास की रचनाओं का संक्षिप्त परिचय निम्न हैं –
(जिन रचनाओं में राम व मंगल शब्द आते है वे अवधी में है शेष ब्रज भाषा में है।)

अवधी भाषा में रचित

1574 ई. रामचरित मानस (सात काण्ड)

1586 ई. पार्वती मंगल 164 हरिगीतिका छन्द

1586-ई. जानकी मंगल 216 छन्द

1586 ई. रामलला नहछु 20 सोहर छन्द

1612 ई. बरवै रामायण 69 बरवै छन्द

1612 ई. रामाज्ञा प्रश्नावली 49-49 दोहों के सात सर्ग

ब्रज भाषा में रचित

1578 ई गीतावली 330 छन्द

1583 ई. दोहावली 573 दोहे

1583 ई. विनय पत्रिका 276 पद

1589 ई. कृष्ण गीतावली 61 पद

1612 ई. कवितावली 335 छन्द

1612 ई. वैराग्य संदीपनी 62 छन्द

रामचरितमानस

रामचरितमानस की रचना संवत् 1631 (1574 ई.) में चैत्र शुक्ल रामनवमी (मंगलवार) को हुआ।

इसकी रचना में कुल 2 वर्ष 7 महीने 26 दिन लगे।

’रामचरितमानस’ पर सर्वाधिक प्रभाव ’अध्यात्म रामायण’ का पड़ा है।

तुलसीदास ने सर्वप्रथम ’मानस’ को रसखान को सुनाया था।

’रामचरितमानस’ की प्रथम टीका अयोध्या के बाबा रामचरणदास ने लिखी।

भाषा- अवधी

रचना शैली- चौपाई+दोहा/सोरठा शैली

प्रधान रस व अलंकार- शांत रस व अनुप्रास अंलकार

काव्य स्वरूप-प्रबंधात्मक काव्यांर्तगत ‘महाकाव्य’

कथा विभाजन

सात काण्डों में-

बाल कांड

अयोध्या कांड

अरण्य कांड

किष्किन्धा कांड

सुन्दर कांड

लंका कांड

उत्तर कांड

इस रचना को उत्तर भारत की बाइबिल कहा जाता है।

अयोध्याकाण्ड’ को रामचरितमानस का हृदयस्थल कहा जाता है। इस काण्ड की चित्रकूट सभा को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने एक आध्यात्मिक घटना की संज्ञा प्रदान की।

चित्रकूट सभा में वेदनीति, लोकनीति एवं राजनीति तीनों का समन्वय दिखाई देता है।

रामचरितमानस की रचना गोस्वामीजी ने ’वान्तः सुखाय के साथ-साथ लोकहित एवं लोकमंगल के लिए किया है।

’रामचरितमानस’ के मार्मिक स्थल निम्नलिखित हैं –

राम का अयोध्या त्याग और पथिक के रूप में वन गमन,

चित्रकूट में राम और भरत का मिलन,

शबरी का आतिथ्य,

लक्ष्मण को शक्ति लगने पर राम का विलाप,

भरत की प्रतीक्षा आदि।

तुलसी ने ’रामचरितमानस’ की कल्पना मानसरोवर के रूपक के रूप में की है। जिसमें 7 काण्ड के रूप में सात सोपान तथा चार वक्ता के रूप में चार घाट हैं।

सप्तसोपान मानस के चारों घाटों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है-

रामयश जल से परिपूर्ण रामचरितमानस

काकभुशुंडि-गरुड़-संवाद
उपासना घाट : पनघट

शिव-पार्वती-संवाद
ज्ञानघाट : राजघाट (प्रथम वक्ता : श्रोता)

तुलसी-संत-संवाद
प्रजापति घाट गायघाट

याज्ञवल्क्य-भरद्वाज-संवाद
कर्मघाट : पंचायती घाट

विनयपत्रिका

रचनाकाल- 1582 ई. (1639 वि.), मिथिला यात्रा प्रस्थान के समय

कुलपद- 279

भाषा- ब्रज

प्रधान रस- शांत

रचना शैली- गीति शैली

इस रचना में इनके स्वयं के जीवन के बारे में भी उल्लेख प्राप्त होता है अंत: कुछ इतिहासकार कहते हैं- “तुलसी के राम को जानने के लिए रामचरितमानस पढ़ना चाहिए तथा स्वयं तुलसी को जानने के लिए विनय पत्रिका”।

इस ग्रंथ की रचना तुलसी ने राम के दरबार में भेजने के लिए की थी, जिसका उद्देश्य ‘कली काल से मुक्ति प्राप्त करना’ था।

इसमें 21 रागों का प्रयोग हुआ है।

गीतावली रचनाएं

रचनाकाल- 1571 ई.

कुल पद- 328

विभाजन- सात कांडो में

रचना शैली- गीतिकाव्य शैली

प्रधान रस- श्रृंगार रस (वात्सल्य युक्त)

बाबा बेनी माधव दास द्वारा रचित मूल गोसाई चरित के अनुसार यह तुलसीदास की प्रथम रचना मानी जाती है।

इस ग्रंथ का आरंभ राम के जन्मोत्सव से होता है।

इस रचना के अनेक पदों में सूरसागर की समानता देखने को मिलती है।

इसमें 21 रागों का प्रयोग हुआ है।

कवितावली रचनाएं

रचनाकाल-1612 ई. लगभग

कुल पद- 325 छंद

भाषा- ब्रज

शैली- कवित, सवैया शैली

रचना स्थल- सीतावट के तट पर

काव्य विभाजन – सात कांड

प्रधान रस- वीर ,रौद्र व भयानक रस

कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह तुलसीदास की अंतिम रचना मानी जाती है।

इस रचना में लंका दहन का उत्कृष्टतम वर्णन किया गया है जिसको देखकर यह कहा जाता है कि उन्होंने अपने जीवन में कभी भयंकर आग अवश्य देखी थी।

कवितावली में बनारस (काशी) के तत्कालीन समय में फैले महामारी का वर्णन उत्तराकाण्ड में किया गया है।

रामलला नहछू

1582 ई

भाषा-अवधी

यह सोहर छंद में रचित रचना मानी जाती है।

कुल 20 छंद है।

इस रचना में राम का नहछु (विवाह के अवसर पर महिलाओं द्वारा गाया जाने वाले गीत) वर्णित हैं।

वैराग्य-संदीपनी

1612 ई.

भाषा-ब्रज

इस में कुल 62 छंद हैं जिनको 3 प्रकार के छंदों (दोहा, सोरठा व चौपाई) में लिखा गया है।

बरवै रामायण

1612 ई.

भाषा-अवधी

कुल छंद-69 (सभी ‘बरवै’छंद)

कांड-सात

इस रचना के प्रारंभ में तुलसीदास जी द्वारा रस एवं अलंकार निरूपण का प्रयास भी किया गया है।

यह रचना इनके परम मित्र ‘रहीमदास’ के आग्रह पर रची मानी जाती है।

पार्वती मंगल

1582 ई.

भाषा-अवधी

कुल छंद-164 ( इसमें 148 में अरुण या मंगल छंद का व 16 में हरिगीतिका छंद प्रयुक्त हुआ है।)

इसमें शिव पार्वती विवाह का वर्णन है।

जानकीमंगल

1582 ई.

भाषा:- अवधी

कुल छंद-216 ( इसमें 192 अरुण व शेष 24 में हरिगीतिका छंद प्रयुक्त हुआ है)

इसमें राम व सीता के विवाह का वर्णन किया गया है।

रामललानहछू, पार्वती मंगल, , जानकी-मंगल इन तीनों ग्रंथों की रचना इन्होंने मिथिला यात्रा में की थी।

रामज्ञा प्रश्नावली

1612 ई.

भाषा:-ब्रज व अवधी

’रामाज्ञा प्रश्न’ एक ज्योतिष ग्रन्थ है।

यह ग्रंथ 7 सर्गो में विभाजित है प्रत्येक सर्ग में सात सप्तक हैं और प्रत्येक सप्तक में 7 दोहे हैं इस प्रकार को 343 छंद है।

इसके प्रत्येक दोहे से शुभ अशुभ संकेत निकलता है जिसे प्रश्नकर्ता अपने प्रश्न का उत्तर पा लेता है।

यह रचना पंडित गंगाराम ज्योतिषी के आग्रह पर रची मानी जाती हैं।

दोहावली : तुलसीदास जीवनी साहित्य रचनाएं

1583 ई.

भाषा:-ब्रज

कुल दोहे- 573

इसमें जातक के माध्यम से प्रेम की अनन्यता का चित्रण किया गया है।

कृष्ण गीतावली

1571 ई.

भाषा- ब्रज

इस रचना में सूरदास की भ्रमरगीत परंपरा का निर्वहन हुआ है।

यह रचना राम गीतावली के समकालीन मानी जाती है।

इस में कुल 61 पद हैं।

तुलसीदास एवं इनके साहित्य संबंधी विद्वानों के कथन

इस पोस्ट में हम तुलसीदास जी की जीवनी, साहित्य, रचनाएं एवं विशेष कथन संबंधी पूरी जानकारी

हरिऔध- कविता कर के तुलसी न लसे, कविता लसी पा तुलसी की कला।

भिखारीदास- तुलसी गंग दुजौ भए सुकविन के सरदार, इनके काव्यन में मिली भाषा विविध प्रकार।

रहीम- रामचरितमानस विमल, सन्तन जीवन प्रान। हिन्दुवन को वेद सम, यवनहिं प्रकट कुरान।

“सुरतिय,नरतिय,नागतिय,सब चाहति अस कोय। गोद लिए हुलसी फिरै, तुलसी सो सुत होय ।” -इस पद में प्रथम पंक्ति ‘तुलसीदास’ जी द्वारा एवं द्वितीय पंक्ति उनके घनिष्ठ मित्र ‘रहीम दास’ जी द्वारा रचित है।

लाला भगवानदीन और बच्चन सिंह ने तुलसीदास को ‘‘रूपकों का बादशाह’’ कहा है।

नाभादास ने इन्हें ‘कलिकाल का वाल्मीकि’ एवं ‘भक्तिकाल का सुमेरु’ कहा है।

स्मिथ- ‘‘मुगलकाल का सबसे महान व्यक्ति’’ (अकबर से भी महान एवं अपने युग का महान पुरुष) कहा है।

ग्रियर्सन के अनुसार- ‘बुद्धदेव के बाद सबसे बड़ा लोक-नायक।’

रामविलास शर्मा के अनुसार – “तुलसीदास हिंदी के जातीय कवि है।”

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल-
“अनुप्रास का बादशाह” कहा है।
“तुलसीदास जी उत्तर भारत की समग्र जनता के हृदय में पूर्ण प्रेम-प्रतिष्ठा के साथ विराजमान है।”
“तुलसीदास को ‘स्मार्त वैष्णव’ मानते हैं।”

Tulsidas

“हिन्दी काव्य की प्रौढ़ता के युग का आरम्भ गोस्वामी तुलसीदास द्वारा हुआ।”
‘‘यह एक कवि ही हिंदी को प्रौढ़ साहित्यिक भाषा सिद्ध करने के लिए काफी है। इनकी वाणी की पहुँच मनुष्य के सारे भावों व्यवहारों तक है।’’
“एक ओर तो वह व्यक्तिगत साधना के मार्ग में विरागपूर्ण शुद्ध भगवद्भजन का उपदेश करती है दूसरी ओर लोक पक्ष में आकर पारिवारिक और सामाजिक कर्तव्यों का सौन्दर्य दिखाकर मुग्ध करती है।’’
तुलसी के साहित्य को “विरुद्धों का सांमजस्य” कहा है।
“तुलसीदास जी रामानंद सम्प्रदाय की वैरागी परम्परा में नही जान पड़ते। रामानंद की परम्परा में सम्मिलित करने के लिए उन्हें नरहरिदास का शिष्य बताकर जो परम्परा मिलाई गई है वह कल्पित प्रतीत होती है।”
“हिंदी काव्य गगन के सूर्य।”
“भारतीय जनता के प्रतिनिधि कवि।”
“उस युग में किसी को तुलसी के समान सूक्ष्मदर्शिनी और सारग्राहिणी दृष्टि नहीं मिली।”

उदयभानु सिंह ने – “उत्प्रेक्षाओ का बादशाह” कहा है।

मधुसूदन सरस्वती- ‘आनन्द कानन (आनंद वन का वृक्ष)।’

ग्रियर्सन ने – “बुद्धदेव के बाद सबसे बड़ा लोकनायक” कहा है।

अमृतलाल नागर- “मानस का हंस।”

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार-
“लोकनायक वही होता है,जो समन्वय का अपार धैर्य लेकर आया हो। तुलसी का संपूर्ण काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है। इनका काव्य जीवन दो कोटियों को मिलाने वाला काव्य है।”
“तुलसी का सम्पूर्ण काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है।’’
‘‘उस युग में किसी को तुलसी के समान सूक्ष्मदर्शिनी और सारग्राहिणी दृष्टि नहीं मिली।’’

बाबू गुलाबराय ने तुलसी को ‘सुमेरू कवि गोस्वामी तुलसीदास’ एवं ’विश्वविश्रुत’ कहा है।

इस पोस्ट में आज हमने तुलसीदास जी की जीवनी, साहित्य, रचनाएं एवं विशेष कथन संबंधी पूरी जानकारी प्राप्त की।

रसखान- https://thehindipage.com/bhaktikaal-ke-sahityakaar/raskhan/

विकिपीडिया लिंक- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B2%E0%A4%B8%E0%A5%80%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B8

रसखान

रसखान जीवनी और साहित्य

रसखान के जीवन परिचय, जीवनी और संपूर्ण साहित्य, सवैया, कवित्त, सोरठे, दोहे एवं विशेष तथ्यों पर इस आलेख में प्रकाश डाला गया है।

आशा है कि आपको यह आलेख पसंद आएगा।

इसके अलावा आप कोमेंट में अपने सुझाव अवश्य दें।

जीवनी

पूरा नाम- सैय्यद इब्राहीम (रसखान)

जन्म- सन् 1533 से 1558 बीच (लगभग)

जन्म भूमि- पिहानी, हरदोई ज़िला, उत्तर प्रदेश

कर्म भूमि- महावन (मथुरा)

मृत्यु- सन् 1628 के आसपास

विषय- सगुण कृष्णभक्ति
नोट:- हिंदी कृष्ण भक्त मुस्लिम कवियों में रसखान का स्थान सबसे ऊपर है।

रसखान जीवनी और साहित्य
रसखान जीवनी और साहित्य

 

रसखान जीवनी और साहित्य

रचनाएं

रसखान जीवनी, संपूर्ण साहित्य, सवैया, कवित्त, सोरठे, दोहे एवं विशेष तथ्यों पर इस आलेख में प्रकाश डाला गया है।

सुजान रसखान- स्फुट पदो का संग्रह है, जिसमे 181 सवैये, 17 कवित्त, 12 दोहे तथा 4 सोरठे है|

प्रेमवाटिका- इसमें 53 दोहे है|

दानलीला- इसमे 11 दोहे है|

अष्टयाम

रसखान : जीवनी और साहित्य

विशेष तथ्य

शिवसिंह सरोज तथा हिंदी साहित्य के प्रथम इतिहास तथा ऐतिहासिक तथ्यों एवं अन्य पुष्ट प्रमाणों के आधार पर रसखान की जन्म-भूमि पिहानी ज़िला हरदोई माना जाए।

अब्राहम जार्ज ग्रियर्सन ने लिखा है सैयद इब्राहीम उपनाम रसखान कवि, हरदोई ज़िले के अंतर्गत पिहानी के रहने वाले, जन्म काल 1573 ई.।

यह पहले मुसलमान थे। बाद में वैष्णव होकर ब्रज में रहने लगे थे। इनका वर्णन ‘भक्तमाल’ में है।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने जिन मुस्लिम हरिभक्तों के लिये कहा था, “इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिन्दू वारिए” उनमें रसखान का नाम सर्वोपरि है।

जन्म- स्थान तथा जन्म काल की तरह रसखान के नाम एवं उपनाम के संबंध में भी अनेक मत प्रस्तुत किए गए हैं।

हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने अपनी पुस्तक में रसखान के दो नाम लिखे हैं:- सैय्यद इब्राहिम और सुजान रसखान, जबकि सुजान रसखान की एक रचना का नाम है। हालांकि रसखान का असली नाम सैयद इब्राहिम था और “खान’ उसकी उपाधि थी।

रसखान के जीवन परिचय, साहित्य, संपूर्ण साहित्य, सवैया, कवित्त, सोरठे, दोहे एवं विशेष तथ्यों पर इस आलेख में प्रकाश डाला गया है।

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तुलसीदास- https://thehindipage.com/bhaktikaal-ke-sahityakaar/tulsidas/

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