प्रियप्रवास इनका श्रेष्ठ महाकाव्य है यह खड़ी बोली हिंदी का प्रथम महाकाव्य माना जाता है इसमें कुल 17 सर्ग हैं।
इसकी नायिका राधा लोकनायिका एवं लोकसेविका के रूप में चित्रित है।
प्रियप्रवास रचना के लिए इनको मंगला प्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ था।
इसका (प्रियप्रवास) का मूल नाम ब्रजांगना विलाप था। यह संपूर्ण काव्य संस्कृत के वर्णवृंतो पर आधारित है।
अपनी अपूर्व साहित्य साधना के कारण इनको कवि सम्राट भी कहा जाता है।
वैदेही वनवास मूलतः वाल्मीकि रामायण पर आधारित है इसमें राम के द्वारा सीता के निर्वासन की कथा 18 सर्गो में वर्णित है।
प्रियप्रवास मूलतः वियोग श्रृंगार का ग्रंथ है वियोग वात्सल्य का चित्रण भी इस में प्रमुखता से हुआ है राधा के विरह का निरूपण चतुर्थ सर्ग में मिलता है।
रसकलश एक रीति ग्रंथ रचना है इसमें रस एवं रस स्वरूप, नायिका भेद व ऋतु वर्णन किया गया है यह ब्रज भाषा में लिखी गई रचना है।
गणपति चंद्र गुप्त ने इनको आधुनिक काल का सूरदास कहा है।
इनका प्रियप्रवास महाकाव्य अपनी काव्यगत विशेषताओं के कारण हिंदी महाकाव्यों में माइल-स्टोन माना जाता है।
निराला जी का इनके बारे में कथन- “इनकी यह एक सबसे बड़ी विशेषता है कि ये हिंदी के सार्वभौम कवि हैं। खड़ी बोली, उर्दू के मुहावरे, ब्रजभाषा, कठिन-सरल सब प्रकार की कविता की रचना कर सकते हैं।”
हरिऔध जी हिंदी साहित्य सम्मेलन के दो बार सभापति रह चुके हैं और सम्मेलन द्वारा विद्या वाचस्पति की उपाधि से सम्मानित किये जा चुके हैं।
चुभते चौपदे, चोखे चौपदे तथा बोलचाल मुहावरेदार भाषा में है।
जैनेन्द्र कुमार Jainendra Kumar -जीवन परिचय-साहित्यिक परिचय-जैनेन्द्र कुमार की प्रमुख रचनाएं-भाषा शैली-पुरस्कार एवं मान-सम्मान-विशेष तथ्य
जीवन परिचय
जन्म : 2 जनवरी, 1905 (अलीगढ़)
निधन : 24 दिसंबर, 1988 (दिल्ली)
मूल नाम- आनंदी लाल
पत्नी- भगवती देवी
काल- आधुनिक काल (मनोविश्लेषणवादी उपन्यासकार)
जैनेन्द्र कुमार की साहित्यिक परिचय
जैनेन्द्र कुमार की प्रमुख रचनाएं
उपन्यास
परख (1929, पात्र : सत्यधन, कट्टो, गरिमा, बिहारी)
सुनीता (1935, पात्र : सुनीता, श्रीकान्त और हरिप्रसन्न)
त्यागपत्र (1937, पात्र : मृणाल, प्रमोद, शीला)
कल्याणी (1939, पात्र : डॉ. असरानी)
विवर्त (1953, भुवनमोहिनी, जितेन)
सुखदा (1952)
व्यतीत (1953, पात्र : अनीता)
जयवर्धन (1956)
मुक्तिबोध (1966, पात्र : सहाय, राजेश्वरी, नीलिमा)
अनन्तर (1968, पात्र : अपराजिता, प्रसाद, रामेश्वरी)
अनामस्वामी (1974, पात्र : वसुन्धरा, कुमार, शंकर उपाध्याय)
दशार्क (1985, वेश्या समस्या पर, पात्र : सरस्वती, रंजना)
कहानी संग्रह : जैनेन्द्र कुमार Jainendra Kumar
फाँसी (1929)
वातायन (1930)
नीलम देश की राजकन्या (1933)
एक रात (1934)
दो चिड़ियाँ (1935)
पाजेब (1942)
जयसंधि (1949)
जैनेन्द्र की कहानियाँ (सात भाग)
जैनेंद्र कुमार की कहानियाँ (2000)
निबंध संग्रह : जैनेन्द्र कुमार Jainendra Kumar
प्रस्तुत प्रश्न (1936)
जड़ की बात (1945)
पूर्वोदय (1951)
साहित्य का श्रेय और प्रेय (1953)
मंथन (1953)
सोच-विचार (1953)
काम, प्रेम और परिवार (1953)
समय और हम (1962)
परिप्रेक्ष (1964)
राष्ट्र और राज्य
सूक्तिसंचयन
इस्ततः (1962)
संस्मरण : जैनेन्द्र कुमार Jainendra Kumar
ये और वे (1954)
मेरे भटकाव
जैनेन्द्र कुमार की मौत पर (स्वयं पर)
आलोचनात्मक ग्रंथ
कहानी : अनुभव और शिल्प’ (1967)
प्रेमचन्द एक कृती व्यक्तित्व (1967)
जीवनी
अकाल पुरुष गांधी (1968)
अनूदित ग्रंथ
मंदालिनी (नाटक, 1935)
प्रेम में भगवान (कहानी-संग्रह, 1937)
पाप और प्रकाश (नाटक, 1953)
सह-लेखन
तपोभूमि (उपन्यास, ऋषभचरण जैन के साथ, 1932)
संपादित ग्रंथ
साहित्य चयन (निबंध-संग्रह, 1951)
विचारवल्लरी (निबंध-संग्रह, 1952)
जैनेन्द्र कुमार Jainendra Kumar के पुरस्कार एवं मान-सम्मान
हिन्दुस्तानी अकादमी पुरस्कार, 1929 में ‘परख’ (उपन्यास) के लिए
भारत सरकार शिक्षा मंत्रालय पुरस्कार, 1952 में ‘प्रेम में भगवान’ (अनुवाद) के लिए
1966 में साहित्य अकादमी पुरस्कार ‘मुक्तिबोध’ (लघु उपन्यास) के लिए
पद्म भूषण, 1971
साहित्य अकादमी फैलोशिप, 1974
हस्तीमल डालमिया पुरस्कार (नई दिल्ली)
उत्तर प्रदेश राज्य सरकार (समय और हम,1970)
उत्तर प्रदेश सरकार का शिखर सम्मान ‘भारत-भारती’
मानद डी. लिट् (दिल्ली विश्वविद्यालय, 1973, आगरा विश्वविद्यालय,1974)
हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग (साहित्य वाचस्पति,1973)
विद्या वाचस्पति (उपाधि : गुरुकुल कांगड़ी)
साहित्य अकादमी की प्राथमिक सदस्यता
प्रथम राष्ट्रीय यूनेस्को की सदस्यता
भारतीय लेखक परिषद् की अध्यक्षता
दिल्ली प्रादेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन का सभापतित्व।
जैनेन्द्र कुमार Jainendra Kumar संबंधी विशेष तथ्य
इन्होंने महात्मा गाँधी के साथ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के असहयोग आंदोलन में भाग लिया। जेल भी गए।
ये फ्रायड के मनोविज्ञान से प्रभावित उपन्यासकार हैं।
इनके उपन्यास नायिका प्रधान उपन्यास माने जाते हैं।
हिन्दी साहित्य का इतिहास’ में गोपाल राय जी लिखते हैं- “उनके उपन्यासों की कहानी अधिकतर एक परिवार की कहानी होती है और वे शहर की गली और कोठरी की सभ्यता में ही सिमट कर व्यक्ति-पात्रों की मानसिक गहराइयों में प्रवेश करने की कोशिश करते हैं।”
लेखक प्रताप नारायण मिश्र का जीवन परिचय, प्रताप नारायण मिश्र का साहित्यिक परिचय, प्रताप नारायण मिश्र के निबंध, रचनाएं, कविताएं
प्रताप नारायण मिश्र का जीवन परिचय
जन्म- 24 सितम्बर, 1856
जन्म स्थान- बैजेगांव,जिला- उन्नाव, उत्तर प्रदेश
मृत्यु- 6 जुलाई, 1894
अभिभावक – पण्डित संकटादीन
काल- आधुनिक काल (भारतेंदु युग के कवि)
भाषा- हिन्दी, उर्दू, बंगला, फ़ारसी, अंग्रेज़ी और संस्कृत।
प्रसिद्धि – लेखक, कवि, पत्रकार, निबन्धकार, नाटककार।
प्रताप नारायण मिश्र का साहित्यिक परिचय
रचनाएं
काव्य
कानपुर माहात्म्य
तृप्यन्ताम्
तारापति पचीसी
दंगल खण्ड
प्रार्थना शतक
प्रेम पुष्पावली
फाल्गुन माहात्म्य
ब्रैडला स्वागत
मन की लहर
युवराज कुमार स्वागतन्ते
लोकोक्ति शतक
शोकाश्रु
श्रृंगार विलास
श्री प्रेम पुराण
होली है
दीवाने
बरहमन
रसखान शतक
बुढ़ापा
प्रताप लहरी
हिंदी की हिमायत
नवरात्र के पद उपर्युक्त रचनाओं में से ‘तृप्यन्ताम्’, ‘तारापति पचीसी’, ‘प्रेम पुष्पावली’, ‘ब्रैडला स्वागत’, ‘मन की लहर’, ‘युवराजकुमार स्वागतन्तें’, ‘शोकाश्रु’, ‘प्रेम पुराण’ तथा ‘होली’ ‘प्रताप नारायण मिश्र कवितावली’ में संगृहीत हैं।
नाटक
कलि कौतुक (रूपक) 1886 – पाखंडियो एवं दुराचारियों से दुर रहने के लिए प्रेरित करने वाला नाटक
गो-संकट – 1886
जुआरी खुआरी (प्रहसन, अपूर्ण)
हठी हमीर – अलाउद्दीन की रणथम्भौर पर चढ़ाई का वृत्तांत लेकर लिखा गया नाटक ‘संगीत शाकुन्तल’ (‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्’ के आधार पर रचित गीति रूपक), -लावनी के ढंग पर गाने योग्य खड़ी बोली में पदबद्ध नाटक
भारत दुर्दशा (रूपक) 1902
कलि प्रभाव (गीतिरूपक)
दूध का दूध और पानी का पानी (भाण, अपूर्ण)।
उपन्यास (अनूदित)
अमरसिंह
इन्दिरा
कपाल कुंडला
देवी चौधरानी
युगलांगुलीय
राजसिंह राधारानी
नोट- इनके सभी उपन्यास प्रसिद्ध कथाकार बंकिम चन्द्र के उपन्यासों के अनुवाद हैं।
प्रेम बाण के सैलानी
‘प्रताप नारायण ग्रंथावली भाग एक’ – इसमें मिश्र जी के लगभग 200 निबन्ध संगृहीत हैं।
आत्मकथा
प्रताप चरित्र (अपूर्ण) – यह प्रताप नारायण ग्रंथावली भाग एक में संकलित है।
जीवनी
आर्यचरितामृत-1884 – बंगला से हिंदी मे अनुदित
यात्रावृत
विलायतयात्रा – हिंदी प्रदीप पत्र मेम नवंबर-1897 में प्रकाशित
प्रताप नारायण मिश्र संबंधी विशेष तथ्य
उन्होंने ब्राह्मण नामक पत्रिका (1883 ई.,मासिक पत्रिका,कानपुर से) का संपादन कार्य किया था|
अपने ब्राह्मण पत्रिका के ग्राहकों से चंदा मांगते मांगते थक जाने पर इन्हें कभी इन शब्दों से यात्रा करनी पड़ी थी- “आठ मास बीते जजमान| अब तौं करौ दच्छिना दान||”
किसी नाटक में अभिनय करने के लिए उन्होंने अपने पिता से मूंछ मुंडवाने की आज्ञा भी ली थी|
अपनी ‘हरगंग’ कविता के कारण इनको सर्वाधिक प्रसिद्धि प्राप्त हुई|
यह हिंदी के बड़े हिमायती थे| ‘हिंदी- हिंदू- हिंदुस्तान’ का नारा इनके द्वारा ही दिया गया था|
हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार यह सहज चटुल शैली के पुरस्कर्ता माने जाते हैं|
यह कानपुर की साहित्यक संस्था ‘रसिक समाज’ से भी जुड़े हुए थे|
इन्होंने ‘लावणी व आल्हा’ जैसी लोक प्रचलित शैलियों का भी काव्य में प्रयोग किया था|
आचार्य रामचंद्र शुकल ने इनको ‘हिंदी का एडिसन’ कहा है|
मिश्र जी की भारतेन्दु हरिश्चन्द्र में अनन्य श्रद्धा थी। वह स्वयं को उनका शिष्य कहते थे तथा देवता के समान उनका स्मरण करते थे। भारतेन्दु जैसी रचना शैली, विषयवस्तु और भाषागत विशेषताओं के कारण ही प्रताप नारायण मिश्र को ‘प्रतिभारतेन्दु’ या ‘द्वितीयचन्द्र’ आदि कहा जाने लगा था।
Trilochana Shastri त्रिलोचन शास्त्री – जीवन परिचय – त्रिलोचन शास्त्री का साहित्य – रचनाएं – त्रिलोचन शास्त्री की काव्य कला – प्रसिद्ध काव्य
त्रिलोचन शास्त्री का जीवन परिचय
मूल नाम – वासुदेव सिंह
जन्म -20 अगस्त, 1917 सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश
मृत्यु -9 दिसम्बर, 2007 गाज़ियाबाद, उत्तर प्रदेश
विद्यालय -काशी हिन्दू विश्वविद्यालय
शिक्षा -एम.ए. (अंग्रेज़ी) एवं संस्कृत में ‘शास्त्री’ की डिग्री
विद्या- गद्य व पद्य
प्रसिद्धि -कवि तथा लेखक
काल- आधुनिक काल
युग- प्रगतिवादी युग
साहित्यिक आन्दोलन -प्रगतिशील धारा यथार्थवाद
त्रिलोचन शास्त्री का साहित्य
रचनाएँ
त्रिलोचन शास्त्री Trilochana Shastri के कविता संग्रह
धरती (1945)
गुलाब और बुलबुल (1956)
दिगंत (1957)
ताप के ताए हुए दिन (1980)
शब्द (1980)
उस जनपद का कवि हूँ (1981)
अरधान (1984)
तुम्हें सौंपता हूँ (1985)
मेरा घर
चैती
अनकहनी भी
काव्य और अर्थबोध
अरधान
अमोला मेरा घर
फूल नाम है एक (1985)
सबका अपना अपना आकाश-1987
जीने की कला (2004)
संपादित
मुक्तिबोध की कविताएँ
कहानी संग्रह
देशकाल
डायरी
दैनंदिनी
त्रिलोचन शास्त्री Trilochana Shastri के पुरस्कार एवं सम्मान
त्रिलोचन शास्त्री को 1989-90 में हिंदी अकादमी ने शलाका सम्मान से सम्मानित किया था।
हिंदी साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए उन्हे ‘शास्त्री’ और ‘साहित्य रत्न’ जैसे उपाधियों से सम्मानित किया जा चुका है।
1982 में ताप के ताए हुए दिन के लिए उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी मिला था।
उत्तर प्रदेश हिंदी समिति पुरस्कार,
हिंदी संस्थान सम्मान,
मैथिलीशरण गुप्त सम्मान,
शलाका सम्मान,
भवानी प्रसाद मिश्र राष्ट्रीय पुरस्कार,
सुलभ साहित्य अकादमी सम्मान,
भारतीय भाषा परिषद सम्मान
त्रिलोचन शास्त्री Trilochana Shastri संबंधी विशेष तथ्य
इन्हें हिंदी सॉनेट (अंग्रेजी छंद) का साधक (स्थापित करने वाला कवि) माना जाता है। उन्होंने इस छंद को भारतीय परिवेश में ढाला और लगभग 550 सॉनेट की रचना की।
इन्होंने ‘प्रभाकर’, ‘वानर’, ‘हंस’, ‘आज’ और ‘समाज’ जैसी पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया।
ये जीवन में निहित मंद लय के कवि हैं|
इन्हें हिंदी के अनेक शब्द कोशों के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है|
“उनकी राष्ट्रीयता चेतना और व्यापकता सांस्कृतिक दृष्टि, उनकी वाणी का ओज और काव्यभाषा के तत्त्वों पर बल, उनका सात्त्विक मूल्यों का आग्रह उन्हें पारम्परिक रीति से जोड़े रखता है।” -अज्ञेय
“हमारे क्रान्ति-युग का सम्पूर्ण प्रतिनिधित्व कविता में इस समय दिनकर कर रहा है। क्रान्तिवादी को जिन-जिन हृदय-मंथनों से गुजरना होता है, दिनकर की कविता उनकी सच्ची तस्वीर रखती है।” -रामवृक्ष बेनीपुरी
“दिनकर जी सचमुच ही अपने समय के सूर्य की तरह तपे। मैंने स्वयं उस सूर्य का मध्याह्न भी देखा है और अस्ताचल भी। वे सौन्दर्य के उपासक और प्रेम के पुजारी भी थे। उन्होंने ‘संस्कृति के चार अध्याय’ नामक विशाल ग्रन्थ लिखा है, जिसे पं. जवाहर लाल नेहरू ने उसकी भूमिका लिखकर गौरवन्वित किया था। दिनकर बीसवीं शताब्दी के मध्य की एक तेजस्वी विभूति थे।” -नामवर सिंह
लेखिका चित्रा मुद्गल-Chitra Mudgal – जीवन परिचय – साहित्य – रचनाएं – कहानी संग्रह – कहानियाँ – व्यक्तित्व – बालकथा – पुरस्कार एवं सम्मान
जीवन परिचय
जन्म- 10 सितंबर 1944 को चेन्नई, तमिलनाडु में हुआ था।
शिक्षा- प्रारंभिक शिक्षा पैतृक गांव उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में स्थित निहाली खेड़ा और उच्च शिक्षा मुंबई विश्वविद्यालय में हुई।
काल-आधुनिक काल
विधा- गद्य
विवाह:- 17 फरवरी 1965 को प्रखर कथाकार-कवि-पत्रकार श्री अवधनारायण मुद्गल से।
चित्रा मुद्गल का साहित्य
चित्रा जी पहली कहानी स्त्री-पुरुष संबंधों पर थी।
पहली कहानी सफेद सेनारा (1964) में प्रकाशित हुई।
उनके अब तक तेरह कहानी संग्रह, तीन उपन्यास, तीन बाल उपन्यास, चार बाल कथा संग्रह, पांच संपादित पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
रचनाएं : लेखिका चित्रा मुद्गल-Chitra Mudgal
उपन्यास
एक जमीन अपनी
आवां
गिलिगडु
कहानी संग्रह
भूख
जहर ठहरा हुआ
लाक्षागृह
अपनी वापसी
इस हमाम में
ग्यारह लंबी कहानियाँ
जिनावर
लपटें
जगदंबा बाबू गाँव आ रहे हैं
मामला आगे बढ़ेगा अभी
केंचुल
आदि-अनादि
लघुकला संकलन
बयान
कथात्मक रिपोर्ताज
तहकानों मे बंद
लेख
बयार उनकी मुठ्ठी में
बाल उपन्यास
जीवक
माधवी कन्नगी
मणिमेख
नवसाक्षरों के लिए – जंगल
बालकथा संग्रह
दूर के ढोल
सूझ बूझ
देश-देश की लोक कथाएँ
नाट्य रूपांतर
पंच परमेश्वर तथा अन्य नाटक, सद्गगति तथा अन्य नाटक, बूढ़ी काकी तथा अन्य नाटक
पुरस्कार एवं सम्मान : लेखिका चित्रा मुद्गल-Chitra Mudgal
व्यास सम्मान
इंदु शर्मा कथा सम्मान
साहित्य भूषण
वीर सिंह देव सम्मान
चित्रा मुद्गल संबंधी विशेष तथ्य : लेखिका चित्रा मुद्गल-Chitra Mudgal
2003 में तेरहवां व्यास सम्मान पाने वाली देश की प्रथम लेखिका हैं। उन्हें ये सम्मान उपन्यास ‘आवां’ के लिए दिया गया।
उपन्यास ‘आवां’ आठ भाषाओं में अनूदित तथा देश के 6 प्रतिष्ठित सम्मानों से अलंकृत है।
चित्रा मुद्गल को उदयराज सिंह स्मृति पुरस्कार से सन् 2010 में सम्मानित किया गया।
बहुचर्चित उपन्यास ‘एक ज़मीन अपनी’ के लिए सहकारी विकास संगठन मुंबई द्वारा फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ सम्मान से सम्मानित।
गरीब, पीड़ित और शोषित महिलाओं के हितों की रक्षा करने वाली संस्था ‘जागरण’ की 1965 से 1972 तक सक्रिय सदस्य रहीं।
मुंबई की एक मजदूर यूनियन, कामगार आघाही की भी सक्रिय कार्यकर्ता रहीं।
सन् 1979 से 1983 तक महिलाओं को स्वावलंबन का पाठ पढ़ानेवाली संस्था ‘स्वाधार’ की सक्रिय कार्यकर्ता रहीं।
राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद की ‘वूमेन स्टडीज़ यूनिट’ की कुछ महत्त्वपूर्ण पुस्तक योजनाओं जैसे दहेज-दावानल, बेगम हज़रत महल, स्त्री समता आदि में 1986 से 1990 तक
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल Aachrya Ramchandra Shukla जीवन-परिचय साहित्य परिचय निबंध संग्रह आलोचना ग्रंथ भाषा शैली हिंदी साहित्य काल विभाजन
जीवन-परिचय
जन्म- 4 अक्टूबर, 1884
जन्म भूमि – अगोना, बस्ती ज़िला, उत्तर प्रदेश
मृत्यु -1941 ई.
अभिभावक- पं. चंद्रबली शुक्ल
कर्म भूमि- वाराणसी
कर्म क्षेत्र- साहित्यकार, निबंध सम्राट, आलोचक, लेखक
साहित्य परिचय
रचनाएं
कहानी
ग्याहर वर्ष का समय,1903 ई (सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित)
आलोचना ग्रंथ
जायसी ग्रंथावली 1925
भ्रमरगीतसार 1926
हिंदी साहित्य का इतिहास,1929
काव्य में रहस्यवाद-1929
रस मीमांसा (सैद्धान्तिक समीक्षा)
महाकवि सूरदास (व्यावहारिक समीक्षा)
विश्व प्रपंच (दर्शन)
गोस्वामी तुलसीदास,1933
साधारणीकरण और व्यक्ति वैचित्र्यवाद
रसात्मक बोध के विविध रूप
निबंध
चिंतामणि (चार खण्ड)
इनके समस्त निबंधों को चिंतामणि के दो भागों में संकलित किया गया था चिंतामणि का प्रथम भाग 1939 वह द्वितीय भाग 1945 ईसवी में प्रकाशित हुआ था। वर्तमान में इसके चार खंड उपलब्ध हैं।
चिंतामणि के प्रथम भाग में संकलित निबंध (सत्रह)
भाव या मनोविकार
उत्साह
श्रद्धा- भक्ति
करुणा
लज्जा और ग्लानि
लोभ और प्रीति
घृणा
ईर्ष्या
भय
क्रोध
कविता क्या है
भारतेंदु हरिश्चंद्र
तुलसी का भक्ति मार्ग
‘मानस’ की धर्म भूमि
काव्य में लोकमंगल की साधनावस्था
साधारणीकरण और व्यक्ति वैचित्र्यवाद (आलोचना विद्या)
रसात्मक बोध के विविध रूप (आलोचना विद्या)
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के 400 से अधिक महत्त्वपूर्ण कथनों के लिएयहाँ क्लिक कीजिए
भाग दो में
प्राकृतिक दृश्य
काव्य में रहस्यवाद
काव्य में अभिव्यंजनावाद
चिंतामणि को पहले ‘विचार-विथि’ नाम से प्रकाशित करवाया गया था।
चिंतामणि रचना के लिए इनको ‘देव पुरस्कार’ प्राप्त हुआ था।
ये हिंदी में ‘कलात्मक निबंधों’ के जनम दाता माने जाते हैं।
इनको ‘निबंध सम्राट’ के नाम से जाना जाता है।
चिंतामणि भाग-3 (1983 ई.)
इसके संपादक डॉ. नामवरसिंह हैं। इस कृति में कुल 21 निबंध है।
चिंतामणि भाग-4 (2002 ई.)
इसके संपादक डॉ. कुसुम चतुर्वेदी और डॉ. ओमप्रकाश सिंह है। इस रचना में कुल 47 निबंध है।
इतिहास ग्रंथ
हिंदी साहित्य का इतिहास
(सच्चे अर्थों में हिंदी साहित्य का सर्वप्रथम परंपरागत इतिहास)
रचनाकाल- 1929 ई.
प्रकाशक- नागरी प्रचारणी सभा, काशी
जनवरी, 1929 में यह पुस्तक ‘नागरी प्रचारणी सभा, काशी’ द्वारा प्रकाशित ग्रंथ ‘हिंदी शब्दसागर की भूमिका’ (‘हिंदी साहित्य का विकास’ नाम से) के रूप में प्रकाशित हुई थी।
इसी वर्ष के मध्य में उस भूमिका के आरंभ एवं अंत में बहुत सी बातें बढ़ाकर आचार्य शुक्ल ने इसे स्वतंत्र पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया।
1940 ईस्वी में इसका परिवर्तित एवं संशोधित संस्करण प्रकाशित करवाया गया।
(हिंदी शब्द सागर के निर्माण में निम्न तीन विद्वानों का योगदान महत्त्वपूर्ण माना जाता है- बाबू श्यामसुंदर दास, रामचंद्र शुक्ल, रामचंद्र वर्मा)
‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ ग्रंथ की प्रमुख विशेषताएं : आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जीवन-परिचय
सच्चे अर्थों में हिंदी साहित्य का इतिहास लेखन की परंपरा का विकास आचार्य रामचंद्र शुक्ल के द्वारा ही किया गया।
इस पुस्तक में लगभग 1000 कवियों के जीवन चरित्र का विवेचन किया गया है|
कवियों की संख्या की अपेक्षा उनके साहित्यिक मूल्यांकन को महत्व प्रदान किया गया है अर्थात हिंदी साहित्य के विकास में विशेष योगदान देने वाले कवियों को ही इसमें शामिल किया गया है कम महत्व वाले कवियों को इसमें जगह नहीं मिली है।
इसमें प्रत्येक काल या शाखा की सामान्य प्रवृत्तियों का वर्णन कर लेने के बाद उससे संबंध प्रमुख कवियों का वर्णन किया गया है।
कवियों के काव्य निरुपण में आधुनिक समालोचनात्मक दृष्टिकोण को अपनाया गया है।
कवियों एवं लेखकों की रचना शैली का वैज्ञानिक विश्लेषण किया गया है।
उस युग में आने वाले अन्य कवियों का विवरण उसके बाद फुटकल खाते में दिया गया है।
केदारनाथ पाठक ने इस रचना के लेखन में शुक्ल जी को अपूर्व सहयोग प्रदान किया था।
इस रचना के लेखन में शुक्ल जी ने निम्न रचनाओं से विशेष साहित्य सामग्री ग्रहण की थी-
मिश्रबंधु विनोद- मिश्रबंधु
हिंदी कोविद् रत्नमाला- श्यामसुंदरदास
कविता कौमुदी- रामनरेश त्रिपाठी
ब्रजमाधुरी सार- वियोगी हरी
काल विभाजन : आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जीवन-परिचय
आचार्य शुक्ल ने हिंदी साहित्य के 900 वर्षों के इतिहास को निम्न चार सुस्पष्ट काल खंडों में वर्गीकृत किया है, जो आज तक भी लगभग सभी इतिहासकारों द्वारा मान्य किया जा रहा है, यथा-
वीरगाथाकाल (आदिकाल)- वि.स. 1050 से वि.स. 1375 तक ( 993-1318 ई.) वीरगाथाकाल के दो भाग-
(I) अपभ्रंस काल या प्राकृताभाषा हिंदी काल (1050-1200 वि.) (II) वीरगाथाकाल (1200-1375 वि.)
पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल)- वि.स. 1375 से वि.स. 1700 (1318-1643 ई)
उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल)- वि.स. 1700 से वि.स. 1900 तक (1643-1843 ई.)
गद्य काल (आधुनिक काल)-वि.स. 1900 सें वि.स 1984 (1843-1927 ई.)
रामचंद्र शुक्ल ने वीरगाथा काल के नामकरण के लिए निम्न 12 ग्रंथों का आधार लिया था-
सन् 1909 से 1910 ई. के लगभग वे ‘हिन्दी शब्द सागर’ के सम्पादन में सहायक के रूप में काशी आ गये, यहीं पर काशी नागरी प्रचारिणी सभा के विभिन्न कार्यों को करते हुए उनकी प्रतिभा चमकी।
‘नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ का सम्पादन भी उन्होंने कुछ दिनों तक किया था।
सन् 1937 ई. में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभागाध्यक्ष नियुक्त हुए एवं इस पद पर रहते हुए ही सन् 1941 ई. में उनकी श्वास के दौरे में हृदय गति बन्द हो जाने से मृत्यु हो गई।
शुक्ल जी ने हिंदी साहित्य का पहला क्रमबद्ध इतिहास तैयार किया और साहित्यक आलोचना की पद्धति विकसित की।
चिंतन और विश्लेषण परक निबंधकार के रूप में भी उनका स्थान शीर्ष पर है।
कविता, नाटक, कहानी आदि सर्जनात्मक विद्याओं में भी उनका उल्लेखनीय योगदान है।
गोस्वामी तुलसीदास, जायसी ग्रंथावली एवं भ्रमरगीत सार इन तीनों ग्रंथों की भूमिका त्रिवेणी में संकलित है।
त्रिवेणी में तीन महाकवियों सूरदास तुलसीदास और जायसी की समीक्षाएँ प्रस्तुत की हैं।
‘काव्य में रहस्यवाद’ इनकी सर्वप्रथम सैद्धांतिक आलोचना मानी जाती है।
‘रस मीमांसा’ रचना में इन्होंने सिद्धांत के विभिन्न पक्षों की नई व्याख्या प्रस्तुत की है।
जिन्होंने आलोचना के तीनों रूपों सैद्धांतिक, व्यावहारिक एवं ऐतिहासिक पर अपनी लेखनी चलाई है।
शुक्ल ने भूषण की भाषा की आलोचना की है।
“काव्य में रहस्यवाद” निबंध पर इन्हें हिंदुस्तानी एकेडमी से 500 रुपये का पुरस्कार।
‘चिंतामणि’ पर हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा 1200 रुपये का मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ था।
“काव्य में रहस्यवाद” निबंध पर इन्हें हिन्दुस्तानी अकादमी से 500 रुपये का तथा चिंतामणि पर हिन्दी साहित्य सम्मलेन, प्रयाग द्वारा 1200 रुपये का मंगला प्रशाद पारितोषिक प्राप्त हुआ था।
शुक्ल ने जोसेफ़ एडिसन के ‘प्लेजर्स ऑफ़ इमेजिनेशन’ का ‘कल्पना का आनन्द’ नाम से एवं राखलदास वन्द्योपाध्याय के ‘शशांक’ उपन्यास का भी हिन्दी में रोचक अनुवाद किया।
विशेष तथ्य
रामचन्द्र शुक्ल ने ‘जायसी ग्रन्थावली’ तथा ‘बुद्धचरित’ की भूमिका में क्रमश: अवधी तथा ब्रजभाषा का भाषा-शास्त्रीय विवेचन करते हुए उनका स्वरूप भी स्पष्ट किया है।
उन्होंने सैद्धान्तिक समीक्षा पर लिखा, जो उनकी मृत्यु के पश्चात् संकलित होकर ‘रस मीमांसा’ नाम की पुस्तक में विद्यमान है तथा तुलसी, जायसी की ग्रन्थावलियों एवं ‘भ्रमर गीतसार’ की भूमिका में लम्बी व्यावहारिक समीक्षाएँ लिखीं, जिनमें से दो ‘गोस्वामी तुलसीदास ‘ तथा ‘महाकवि सूरदास ‘ अलग से पुस्तक रूप में भी प्रकाशित हैं।
दर्शन के क्षेत्र में भी उनकी ‘विश्व प्रपंच’ पुस्तक उपलब्ध है। यह पुस्तक ‘रिडल ऑफ़ दि युनिवर्स’ का अनुवाद है, पर उसकी लम्बी भूमिका शुक्ल जी के द्वारा किया गया मौलिक प्रयास है।
उन्होंने ‘आलम्बनत्व धर्म का साधारणीकरण’ माना।
काव्य शैली के क्षेत्र में उनकी सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थापना ‘बिम्ब ग्रहण’ को श्रेष्ठ मानने सम्बन्धी है।
शुक्ल ने काव्य को कर्मयोग एवं ज्ञानयोग के समकक्ष रखते हुए ‘भावयोग’ कहा, जो मनुष्य के हृदय को मुक्तावस्था में पहुँचाता है।
वे कविताएँ भी लिखते थे। उनका एक काव्य संग्रह ‘मधुस्रोत’ है।
शुक्ल जी ‘हिंदी शब्दसागर’ के सहायक संपादक नियुक्त किए गए। ‘हिंदी शब्दसागर’ के प्रधान संपादक श्यामसुंदर दास थे। ‘हिंदी शब्दसागर’ का प्रकाशन 11 खंडों में हुआ।
शुक्ल जी ने ‘शब्दसागर की भूमिका’ के लिए ‘हिंदी साहित्य का विकास’ लिखा उसी तरह श्यामसुंदर दास ने ‘हिंदी भाषा का विकास’ लिखा। श्यामसुंदर दास की यह इच्छा थी कि दोनों भूमिकाएँ संयुक्त रूप से प्रकाशित हों और लेखक के रूप में दोनों का नाम छपे। शुक्ल जी ने इसका घोर विरोध किया। यह कहा जाता है कि सभा में लाठी के बल पर रात में अयोध्यासिंह उपाध्याय ने जाकर इतिहास पर शुक्ल जी का नाम छपवाया।
हँसो हँसो जल्दी हँसो (आपातकाल सें संबंधित कविताओं का संग्रह)
कुछ पते कुछ चिट्ठियाँ, 1989
एक समय था
कहानी संग्रह
रास्ता इधर से है
जो आदमी हम बना रहे है
नाटक
बरनन वन (शेक्सपियर द्वारा रचित’मैकबेथ’ नाटक का अनुवाद)
निबंध संग्रह
दिल्ली मेरा परदेस
लिखने का कारण
ऊबे हुए सुखी
वे और नहीं होंगे जो मारे जाएँगे
भँवर लहरें और तरंग
पत्र-पत्रिकाओं में लेखन और संपादन
रघुवीर सहाय ‘नवभारत टाइम्स’, दिल्ली में विशेष संवाददाता रहे। ‘दिनमान’ पत्रिका के 1969 से 1982 तक प्रधान संपादक रहे।
उन्होंने 1982 से 1990 तक स्वतंत्र लेखन किया।
पुरस्कार एवं सम्मान : रघुवीर सहाय जीवन परिचय
साहित्य अकादमी पुरस्कार,1984 (लोग भूल गए हैं)
प्रसिद्ध पंक्तियां : रघुवीर सहाय जीवन परिचय
“तोड़ो तोड़ो तोड़ो
ये पत्थर ये चट्टानें
ये झूठे बंधन टूटें
तो धरती का हम जानें
सुनते हैं मिट्टी में रस है जिससे उगती दूब है
अपने मन के मैदानों पर व्यापी कैसी ऊब है
आधे आधे गाने”
“राष्ट्रगीत में भला कौन वह
भारत-भाग्य-विधाता है
फटा सुथन्ना पहने जिसका
गुन हरचरना गाता है.”
“पतझर के बिखरे पत्तों पर चल आया मधुमास,
बहुत दूर से आया साजन दौड़ा-दौड़ा
थकी हुई छोटी-छोटी साँसों की कम्पित
पास चली आती हैं ध्वनियाँ
आती उड़कर गन्ध बोझ से थकती हुई सुवास”
“निर्धन जनता का शोषण है
कह कर आप हँसे
लोकतंत्र का अंतिम क्षण है
कह कर आप हँसे
सबके सब हैं भ्रष्टाचारी
कह कर आप हँसे
चारों ओर बड़ी लाचारी
कह कर आप हँसे
कितने आप सुरक्षित होंगे
मैं सोचने लगा
सहसा मुझे अकेला पा कर
फिर से आप हँसे”
विष्णु प्रभाकर Vishnu Prabhakar जीवन परिचय – साहित्यिक परिचय – रचनाएं – कहानियाँ – एकांकी – नाटक – बाल साहित्य – भाषा शैली – पुरस्कार एवं सम्मान
जीवन परिचय
अन्य नाम – विष्णु दयाल
जन्म -21 जून, 1912
जन्म भूमि- मीरापुर, ज़िला मुज़फ़्फ़रनगर, उत्तर प्रदेश
मृत्यु -11 अप्रैल, 2009
मृत्यु स्थान -नई दिल्ली (प्रभाकर जी ने अपनी वसीयत में मृत्यूपरांत अपने संपूर्ण अंगदान करने की इच्छा व्यक्त की थी। इसीलिए उनका अंतिम संस्कार नहीं किया गया, बल्कि उनकी पार्थिव देह को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान को सौंप दिया गया।)
अभिभावक -दुर्गा प्रसाद (पिता), महादेवी (माता)
पत्नी – सुशीला
काल: -आधुनिक काल
विधा: -गद्य
विषय:- कहानी, उपन्यास, नाटक
साहित्यिक परिचय
रचनाएं : विष्णु प्रभाकर Vishnu Prabhakar
कविता संग्रह
चलता चला जाऊँगा
कहानी संग्रह
‘संघर्ष के बाद’
‘धरती अब भी धूम रही है’
‘मेरा वतन’,
‘खिलौने’, 1981
‘एक और कुंती’,1985
‘जिन्दगी: एक रिहर्सल’ 1986
‘आदि और अन्त’,
‘एक आसमान के नीचे’,
‘अधूरी कहानी’,
‘कौन जीता कौन हारा’,
‘तपोवन की कहानियाँ’,
‘पाप का घड़ा’,
‘मोती किसके’
एक कहानी का जन्म
रहमान का बेटा
जिंदगी के थपेड़े
सफर के साथी
खंडित पूजा
साँचे और कला
पुल टूटने से पहले
आपकी कृपा
उपन्यास
(ऐतिहासिक/व्यक्तिवादी उपन्यासकार)
‘ढलती रात’,
‘स्वप्नमयी’,
‘अर्द्धनारीश्वर’, 1992 (इस उपन्यास पर 1993 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला)
‘होरी’,
‘कोई तो’,
‘निशिकान्त’, 1955
‘तट के बंधन’,
‘स्वराज्य की कहानी’
‘संकल्प-1993
तट के बंधन
दर्पण का व्यक्ति
परछाई
कोई तो
आत्मकथा
‘क्षमादान’ और ‘पंखहीन’ नाम से उनकी आत्मकथा 3 भागों में राजकमल प्रकाशन से 2004 में प्रकाशित हो चुकी है।
‘पंछी उड़ गया’, 2004
‘मुक्त गगन में’ 2004
नाटक : विष्णु प्रभाकर Vishnu Prabhakar
‘समाधि’,
‘सत्ता के आर-पार’, 1981
‘नवप्रभात’,
‘डॉक्टर’,
‘लिपस्टिक की मुस्कान’,
अब और नही,
टूट्ते परिवेश,
गान्धार की भिक्षुणी और
‘रक्तचंदन’,
‘युगे युगे क्रान्ति’,
‘बंदिनी’
‘श्वेत कमल’
– ‘डॉक्टर’ एक मनोवैज्ञानिक सामाजिक नाटक है,जिसमें डॉ. अनीला के संदर्भ में भावना और नैतिक कर्तव्य का संघर्ष दिखाया गया है |
-‘बंदिनी’ प्रभात कुमार मुखोपाध्याय द्वारा रचित कहानी ‘देवी’ का नाट्य रूपान्तरण है|
एकांकी
प्रकाश और परछाई,
इंसान,
बारह एंकाकी,
क्या वह दोषी था,
दस बजे रात,
ये रेखाएँ ये दायरे,
ऊँचा पर्वत गहरा सागर
जीवनी : विष्णु प्रभाकर Vishnu Prabhakar
आवारा मसीहा (नाथूराम शर्मा प्रेम के कहने से शरच्चंद्र पर आवारा मसीहा नामक जीवनी लिखी। इसे लिखने में 14 वर्ष का समय लगा। यह जीवनी 1974 में प्रकाशित हुई। इसके 3 भाग है-
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय, जीवन परिचय, साहित्यिक परिचय, रचनाएं, कविताएं, कहानियाँ, काव्य विशेषताएं, भाषा शैली, पुरस्कार एवं सम्मान
जीवन परिचय
जन्म- 7 मार्च 1911 कुशीनगर, देवरिया, उत्तर प्रदेश, भारत
मृत्यु- 4 अप्रैल 1987 दिल्ली, भारत
उपनाम- अज्ञेय
बचपन का नाम- सच्चा
ललित निबंधकार नाम- कुट्टिचातन
रचनाकार नाम- अज्ञेय (जैनेन्द्र-प्रेमचंद द्वारा दिया गया)
पिता- पंडित हीरानन्द शास्त्री
माता- कांति देवी
कार्यक्षेत्र- कवि, लेखक
भाषा- हिन्दी
काल- आधुनिक काल
विधा- कहानी, कविता, उपन्यास, निबंध
विषय- सामाजिक, यथार्थवादी
आन्दोलन- नई कविता, प्रयोगवाद
1930 से 1936 तक इनका जीवन विभिन्न जेलों में कटा।
1943 से 1946 ईसवी तक सेना में नौकरी की।
आपने क्रांतिकारियों के लिए बम बनाने का कार्य भी किया और बम बनाने के अपराध में जेल गए।
इसके बाद उन्होंने ऑल इंडिया रेडियो में नौकरी की।
सन् 1971-72 में जोधपुर विश्वविद्यालय में ‘तुलनात्मक साहित्य’ के प्रोफेसर।
1976 में छह माह के लिए हइडेलबर्ग जर्मनी के विश्वविद्यालय में अतिथि प्रोफेसर।
इनका जीवन यायावरी एवं क्रांतिकारी रहा जिसके कारण वह किसी एक व्यवस्था में बंद कर नहीं रह सके।
साहित्यिक परिचय
कलिष्ट शब्दों का प्रयोग करने के कारण आचार्य शुक्ल ने इन्हें ‘कठिन गद्य का प्रेत’कहा है।
इनको व्यष्टि चेतना का कवि भी कहा जाता है।
‘हरी घास पर क्षणभर’ इनकी प्रौढ़ रचना मानी जाती है इसमें बुलबुल श्यामा, फुदकी, दंहगल, कौआ जैसे विषयों को लेकर कवि ने अपनी अनुभूति का परिचय दिया है।
इंद्रधनुष रौंदे हुए रचना में नए कवियों की भावनाओं को अभिव्यक्त किया गया है।
उनका लगभग समग्र काव्य सदानीरा (दो खंड) नाम से संकलित हुआ है।
इन्होंने गधे जैसे जानवर को भी काव्य का विषय बनाया।
इनके काव्य की मूल प्रवृतियां आत्म-स्थापन या अपने आपको को थोपने की रही है अर्थात इन्होंने स्वयं का गुणगान करके दूसरों को तुच्छ सिद्ध करने का प्रयास किया है।
इनकी कविताओं में प्रकृति, नारी, कामवासना आदि विभिन्न विषयों का निरूपण हुआ है किंतु वहां भी यह अपनी ‘अहं और दंभ ‘को छोड़ नहीं पाए हैं।
असाध्य वीणा कविता चीनी (जापानी) लोक कथा पर आधारित है, जो ‘ओकाकुरा’ की पुस्तक ‘दी बुक ऑफ़ टी’ में ‘टेमिंग ऑफ द हार्प’ शीर्षक से संग्रहित है। यह एक लम्बी रहस्यवादी कविता है जिस पर जापान में प्रचलित बौद्धों की एक शाखा जेन संप्रदाय के ‘ध्यानवाद’ या ‘अशब्दवाद’ का प्रभाव परिलक्षित होता है। यह कविता अज्ञेय के काव्य संग्रह ’आँगन के पार द्वार’ (1961) में संकलित है। आँगन के पार द्वार कविता के तीन खण्ड है –
1. अंतः सलिला
2. चक्रान्त शिला
3. असाध्य वीणा
कहानियाँ
विपथगा 1937,
परम्परा 1944,
कोठरीकी बात 1945,
शरणार्थी 1948,
जयदोल 1951
उपन्यास
शेखर एक जीवनी- प्रथम भाग 1941, द्वितीय भाग 1944
नदी के द्वीप 1951
अपने – अपने अजनबी 1961
यात्रा वृतान्त
अरे यायावर रहेगा याद? 1943
एक बूँद सहसा उछली 1960
निबंध संग्रह
सबरंग,
त्रिशंकु, 1945
आत्मनेपद, 1960
आधुनिक साहित्य: एक आधुनिक परिदृश्य,
आलवाल,
भवन्ती 1971 (आलोचना)
अद्यतन 1971 (आलोचना)
संस्मरण
स्मृति लेखा
डायरियां
भवंती
अंतरा
शाश्वती
नाटक
उत्तरप्रियदर्शी
संपादित ग्रंथ
आधुनिक हिन्दी साहित्य (निबन्ध संग्रह) 1942
तार सप्तक (कविता संग्रह) 1943
दूसरा सप्तक (कविता संग्रह)1951
नये एकांकी 1952
तीसरा सप्तक (कविता संग्रह), सम्पूर्ण 1959
रूपांबरा 1960
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय : पत्र पत्रिकाओं का संपादन
विशाल भारत (कोलकता से)
सैनिक (आगरा से)
दिनमान (दिल्ली)
प्रतीक (पत्रिका) (इलाहाबाद)
नवभारत टाईम्स
1973-74 में जयप्रकाश नारायण के अनुरोध पर ‘एवरी मेंस वीकली’ का संपादन।
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय द्वारा कहे गए प्रमुख कथन
‘‘प्रयोगवादी कवि किसी एक स्कूल के कवि नहीं हैं, सभी राही हैं, राही नहीं, राह के अन्वेषी हैं।’’ -तार सप्तक की भूमिका में
‘‘प्रयोगवाद का कोई वाद नहीं है, हम वादी नहीं रहे, नहीं हैं। न प्रयोग अपने आप में इष्ट या साध्य है। इस प्रकार कविता का कोई वाद नहीं।’’ -दूसरा सप्तक की भूमिका में
‘‘प्रयोग दोहरा साधन है।’’
‘‘प्रयोगशील कवि मोती खोजने वाले गोताखोर हैं।’’
‘‘हमें प्रयोगवादी कहना उतना ही गलत है, जितना कहना कवितावादी।’’
‘‘काव्य के प्रति एक अन्वेषी का दृष्टिकोण ही उन्हें (तार सप्तक के कवियों को) समानता के सूत्र में बांधता है।’’
‘‘प्रयोगशील कविता में नये सत्यों, कई यथार्थताओं का जीवित बोध भी है, उन सत्यों के साथ नये रागात्मक संबंध भी और उनको पाठक या सहृदय तक पहुँचाने यानी साधारणीकरण की शक्ति है।’’
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय : पुरस्कार एवं सम्मान
आंगन के पार द्वार रचना के लिए इनको 1964 ई. में साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ।
‘कितनी नावों में कितनी बार’ रचना के लिए इनको 1978 ईस्वी में भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त हुआ।
1979 में ज्ञानपीठ पुरस्कार राशि के साथ अपनी राशि जोड़कर ‘वत्सल निधि’ की स्थापना।
1983 में यूगोस्लाविया के कविता-सम्मान गोल्डन रीथ से सम्मानित।
1987 में ‘भारत-भारती’ सम्मान की घोषणा।
सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय संबंधी विशेष तथ्य
प्रयोगवाद के प्रवर्तन का श्रेय अज्ञेय को है।
अज्ञेय अस्तित्ववाद में आस्था रखने वाले कवि हैं।
अज्ञेय को प्रयोगवाद तथा नयी कविता का शलाका पुरुष भी कहा जाता है।
असाध्य वीणा एक लंबी कविता है। इसका मूल भाव अहं का विसर्जन है।
असाध्य वीणा चीनी लोक कथा ‘टेमिंग आफ द हाॅर्प’ की भारतीय परिवेश में प्रस्तुति है।
‘एक चीड़ का खाका’ जापानी छंद हायकू में लिखा हुआ है।
‘बावरा अहेरी’ की प्रारंभिक पंक्तियों पर फारसी के प्रसिद्ध कवि उमर खैय्याम की रूबाइयों का प्रभाव माना जाता है।
‘बावरा अहेरी’ इनके जीवन दर्शन को प्रतिबिंबित करने वाली रचना है।
‘असाध्य वीणा’ कविता में मौन भी है अद्वैत भी है यह इनकी प्रतिनिधि कविता मानी जाती है यह कविता जैन बुद्धिज्म पर आधारित मानी जाती है।
प्रयोगवाद का सबसे ज्यादा विरोध करने वाले अज्ञेय ही थे।
डाॅ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इनको ‘‘बीसवीं सदी का बाणभट्ट’’ कहा है।
जैनेंद्र के उपन्यास ‘त्यागपत्र’ का ‘दि रिजिग्नेशन’ नाम से अंग्रेजी अनुवाद किया।