हिन्दी साहित्य विभिन्न कालखंडों के नामकरण

हिन्दी साहित्य कालखंड नामकरण

कालखंड नामकरण एवं हिन्दी साहित्य काल विभाजन तथा हिंदी साहित्य में प्रचलित काल विभाजन और नामकरण की संपूर्ण जानकारी | हिन्दी साहित्य काल विभाजन एवं कालखंड नामकरण | काल विभाजन और नामकरण की जानकारी | Hindi Sahitya | Kaalkhand | Kaal Vibhajan | Naamkaran

Hindi Sahitya | Kaalkhand | Kaal Vibhajan | Naamkaran

हिन्दी साहित्य के काल-विभाजन को लेकर विद्वानों में मतभेद है,

लेकिन यह मतभेद अधिक गहरा नहीं है मतभेद केवल हिन्दी साहित्य के आरम्भ को लेकर है।

जिसमें मुख्य रुप से दो वर्ग सामने आते हैं पहला वर्ग वह है जो हिंदी साहित्य का प्रारंभ सातवीं शताब्दी ईस्वी से मानता है

दूसरा वर्ग वह है जो हिंदी साहित्य का प्रारंभ दसवीं शताब्दी ईस्वी से स्वीकार करता है।

सातवीं शताब्दी ईस्वी से दसवीं शताब्दी ईस्वी तक का साहित्य अपभ्रंश भाषा में है और अपभ्रंश से ही हिन्दी भाषा का विकास हुआ है।

इसलिए यदि इस कालखंड के भाषा साहित्य एवं साहित्यिक चेतना को यदि समझ लिया जाए तो हिंदी साहित्य की मूल चेतना को समझने में आसानी रहेगी

हिन्दी भाषा एवं साहित्य की मूल चेतना को जानने के लिए इस कालखण्ड की भाषा के स्वरुप एवं साहित्य-धारा को समझना अति आवश्यक है।

इसीलिए पति पर विद्वानों ने अपनी सरकार को भी हिंदी में शामिल कर लिया है और वे हिंदी साहित्य का प्रारंभ सातवीं शताब्दी ईस्वी से मानते हैं जिस प्रकार हिंदी साहित्य के काल विभाजन में न्यूनाधिक मतभेद है

हिन्दी साहित्य काल विभाजन एवं कालखंड नामकरण | काल विभाजन और नामकरण की जानकारी | Hindi Sahitya | Kaalkhand | Kaal Vibhajan | Naamkaran
हिन्दी साहित्य कालखंड नामकरण

उसी प्रकार इसके नामकरण में भी मतभेद है यह मतभेद मुख्यत: दसवीं शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी तक के

आरम्भिक कालखंड (आदिकाल) और सत्रहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी तक के कालखण्ड (रीतिकाल) के नामकरण को लेकर ही अधिक मतभेद है।
हिंदी साहित्य के विभिन्न काल खंडों का नामकरण विभिन्न विद्वानों ने अपने-अपने तर्कानुसार किया है जो निम्नलिखित प्रकार से है।

(अ) दसवी शताब्दी से चौदहवीं शताब्दी तक के हिन्दी साहित्य कालखंड नामकरण

 ग्रियर्सन – चारण काल

मिश्रबंधु – प्रारंभिक काल

रामचंद्र शुक्ल – वीरगाथा काल

विश्वनाथ प्रसाद मिश्र – वीर काल

महावीर प्रसाद दिवेदी – बीजवपन काल

हजारी प्रसाद द्विवेदी – आदिकाल

राहुल संकृत्यायन – सिद्ध-सामन्त काल

रामकुमार वर्मा – संधि काल और चारण काल

श्यामसुंदर दास – अपभ्रंस काल/वीरकाल

चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ – अपभ्रंस काल

धीरेंद्र वर्मा – अपभ्रंस काल

हरीश – उत्तर अपभ्रंस काल

बच्चन सिंह – अपभ्रंस काल: जातिय साहित्य का उदय

गणपति चंद्र गुप्त – प्रारंभिक काल/शुन्य काल

पृथ्वीनाथ कमल ‘कुलश्रेष्ठ’ – अंधकार काल

रामशंकर शुक्ल – जयकाव्य काल

रामखिलावन पाण्डेय – संक्रमण काल

हरिश्चंद्र वर्मा – संक्रमण काल

मोहन अवस्थी – आधार काल

शम्भुनाथ सिंह – प्राचीन काल

वासुदेव सिंह – उद्भव काल

रामप्रसाद मिश्र – संक्रांति काल

शैलेष जैदी – आविर्भाव काल

चारण काल-

सर्वप्रथम ग्रियर्सन ने हिन्दी साहित्येतिहास का काल विभाजन प्रस्तुत किया

और हिंदी साहित्येतिहास के आरम्भिक काल का नामकरण ‘चारणकाल’ किया है,

परंतु इस नामकरण के पीछे वह कोई ठोस प्रमाण नही दे पाये।

ग्रियर्सन ने चारण काल का प्रारंभ 643 ईसवी से स्वीकार किया है

जबकि विद्वानों के अनुसार 1000 ईसवी तक चारणों की कोई रचना उपलब्ध नहीं होती है

चारणों की जो रचनाएं उपलब्ध होती है वह 1000 ईसवी के बाद की है।

अतः यह नामकरण उपयुक्त नहीं है।

प्रारम्भिक काल-हिन्दी साहित्य कालखंड नामकरण

मिश्रबन्धुओं ने 643 ईसवी से 1387 ईसवी तक के काल को ‘प्रारम्भिक काल’ नाम से अभिहित किया है।

यह नाम किसी साहित्यिक प्रवृत्ति का द्योतक नही है।

यह एक सामान्य संज्ञा है जो हिन्दी भाषा के प्रारम्भ को बताती है।

अत: यह नाम भी तर्कसंगत नही है।

वीरगाथाकाल : हिन्दी साहित्य कालखंड नामकरण

आ. रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के इतिहास का काल विभाजन करते हुए संवत् 1050 से 1375 विक्रमी तक के कालखंड को हिंदी साहित्य का पहला कालखंड स्वीकार करते हुए हिंदी साहित्य का प्रारंभ संवत् 1000 विक्रमी में स्वीकार किया है

तथा इस कालखंड को ‘वीरगाथा काल’ नाम दिया है।

अपने मत के समर्थन में उन्होंने कहा है-

“आदिकाल की दीर्घ परम्परा के बीच प्रथम डेढ़-दो सौ वर्षों के भीतर तो रचना की किसी विशेष प्रवृत्ति का निश्चय नहीं हो पाता है – धर्म, नीति, श्रृन्गार, वीर सब प्रकार की रचनाएँ दोहों में मिलती है। इस अनिर्दिष्ट लोक-प्रवृत्ति के उपरान्त जब से मुसलमानों की चढ़ाइयाँ आरंभ होती है तब से हम हिन्दी साहित्य की प्रवृत्ति विशेष रूप में बँधती हुई पाते है। राजाश्रित कवि और चारण जिस प्रकार रीति, श्रृन्गार आदि के फुटकल दोहे राजसभा में सुनाया करते थे, उसी प्रकार अपने आश्रयदाता राजाओं के पराक्रम पूर्ण चरितों या गाथाओं का भी वर्णन किया करते थे। यह प्रबन्ध परम्परा ‘रासो’ के नाम से पाई जाती है, जिसे लक्ष्य करके इस काल को हमने ‘वीरगाथा काल’ कहा है।”

शुक्लजी ने इस युग का नामकरण करने के लिए निम्नलिखित बारह ग्रन्थों को आधार बनाया है-
1. विजयपाल रासो
2. हम्मीर रासो
3. कीर्तिलता
4. कीर्तिपताका
5. खुमान रासो
6. बीसलदेव रासो
7. पृथ्वीराज रासो
8. जयचंद प्रकाश
9. जयमयंक जसचन्द्रिका
10. परमाल रासो
11. खुसरो की पहेलियाँ
12. विद्यापति की पदावली

हिन्दी साहित्य : कालखंड नामकरण

जिन बारह रचनाओं के आधार पर शुक्ल जी ने नामकरण किया है उनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है।

हम्मीर रासो, जयचंद्र प्रकाश और जयमयंक जसचन्द्रिका तो नोटिस मात्र ही है।

खुसरो की पहेलियाँ और विद्यापति की पदावली भी वीरगाथात्मक नही है।

परमाल रासो या आल्हाखंड के मूल का आज कही पता नही लगा है।

बीसलदेव रासो और खुमाण रासो भी नये शोधों के आधार पर सोलहवीं शताब्दी में रचित माने गए हैं इसी प्रकार प्रसिद्ध महाकाव्य पृथ्वीराज रासो को भी अर्द्धप्रामाणिक मान लिया गया है।

इसके अतिरिक्त इस काल में केवल वीर काव्य ही नही बल्कि धार्मिक, श्रृंगारिक और लौकिक साहित्य भी प्रचूर मात्रा में रचा गया।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी ने उन रचनाओं को अप्रामाणिक सिद्ध करते हुए ‘वीरगाथाकाल’ नामकरण को निरर्थक सिद्ध किया है।

सिद्ध सामंत काल

सामाजिक जीवन पर सिद्धों के तथा राजनीतिक जीवन पर सामंतों के वर्चस्व के कारण राहुल सांकृत्यायन ने इस काल का नामकरण ‘सिद्ध सामन्त काल’ किया है।

इस कालखंड के कवियों ने अपने आश्रयदाता सामंतों को प्रसन्न करने के लिए उनका यशोगान किया है तथा सामाजिक जीवन पर दृष्टि डालें तो समाज सिद्ध मत से प्रभावित है।

इस नामकरण पर विद्वानों का मतैक्य नहीं है।

नामकरण से तत्कालीन राजनीतिक वातावरण का ज्ञान होता है, परंतु किसी साहित्यिक प्रवृत्ति का पता नहीं चलता है।
इसके साथ ही नाथ पंथियों का हठयोगिक साहित्य, खुसरो का लौकिक साहित्य विद्यापति की पदावली तथा अन्य साहित्यिक प्रवृत्तियों का इसमें समावेश नहीं होता है अतः यह नाम भी उपयुक्त नहीं है।

बीजवपन काल

भाषा की प्रारंभिक दृष्टि को देखते हुए आ. महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने इस काल का नामकरण ‘बीजवपन काल’ किया है।

परंतु यह नाम भी उपयुक्त नहीं है।

इस नाम से यह आभास होता है कि उस समय साहित्यिक प्रवृत्तियाँ शैशव में थी,

जबकि ऐसा नही है साहित्य उस युग में भी प्रौढ़ता को प्राप्त या अंत: यह नाम उचित नहीं है।

वीरकाल

आ. रामचन्द्र शुक्ल से प्रभावित होकर आ. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र जी ने इस काल का नाम ‘वीरकाल’ किया है।

वास्तव में मिश्रा जी ने इसमें किसी नवीन तथ्य का उद्घाटन नहीं किया है बल्कि यह नाम आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा सुझाए गए वीरगाथा काल नाम का ही परिवर्तित रूप है, अंत: यह नाम भी समीचीन नही है।

सन्धि एवं चारण काल

डॉ. रामकुमार वर्मा ने हिंदी साहित्य के प्रथम कालखंड को दो खण्डों मे विभाजित कर ‘सन्धिकाल’ एवं ‘चारण काल’ नाम दिया है।

इस नामकरण को दो भागों में बाँटने के पीछ कारण था।

संधि काल दो भाषाओं की संधि का काल था

तथा चारणकाल चारण जाति के कवियों द्वारा राजाओं की यशोगाथा को प्रकट करता है

उसमें तत्काीन राजाओ के शौर्य, वीरता एवं साहस का वर्णन है।

उनके जीवन प्रसंगों को अतिशयोक्तिपूर्ण बनाकर वर्णन करना है।

किसी जाति विशेष के नाम पर साहित्य में उस काल का नामकरण उचित नहीं अत: यह नामकरण भी ठीक नहीं है।

अपभ्रंश काल

चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’, श्यामसुंदर दास, धीरेंद्र वर्मा, हरीश, बच्चन सिंह आदि ने हिन्दी साहित्य के प्रथम काल को अपभ्रंश काल के नाम से सम्बोधित किया है।

उन्होंने बताया कि हिन्दी की प्रारम्भिक स्थिति अपभ्रंश भाषा के साहित्य से शुरू होती है,

इसलिए अपभ्रंश काल कहना उचित है ।

आदिकाल

आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने इस काल के साहित्य को अधिकांशतः संदिग्ध और अप्रामाणिक मानते हुए भी उसमें दो विशेषताओं को रेखांकित किया।

नवीन ताजगी और अपूर्व तेजस्विता।

इन दोनों विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए इस काल का नाम उन्होंने ‘आदिकाल’ रखा।

अपने इस मत को स्पष्ट करते हुए उन्होंने कहा है कि- “वस्तुत: हिन्दी का आदिकाल शब्द एक प्रकार की भ्रामक धारणा की सृष्टि करता है और श्रोता के चित्त में यह भाव पैदा करता है कि यह काल के आदिम मनोभावापन परम्पराविनिर्मुक्त काव्य रूढ़ियों से अछूते साहित्य का काल है। यह ठीक नहीं है यह काल बहुत अधिक परम्परा प्रेमी, रूढ़िग्रस्त और सचेत कवियों का काल है।”

अतः आदिकाल ना किसी एक परंपरा का सूचक ना होकर परंपरा के विकास का सूचक है तथा अपने अंदर सिद्ध, नाथ, रसों, जैन तथा लौकिक एवं फुटकर साहित्य को भी समाहित कर लेता है। यह नाम भाषा और काव्य रूपों के आदि स्वरूप को भी प्रकट करने वाला है अतः हिंदी साहित्य के प्रथम कालखंड के लिए ‘आदिकाल’ नाम ही सर्वाधिक उपयुक्त एवं सर्वमान्य है

(ब) चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक के कालखंड नामकरण

चौदहवीं शताब्दी से सत्रहवीं शताब्दी तक के कालखण्ड में भक्ति की प्रवृत्ति को देखते हुए आ. रामचन्द्र शुक्ल जी ने सं. 1375 से लेकर 1700 वि. तक के कालखण्ड को पूर्व मध्यकाल की संज्ञा से अभिहित किया है।

आलोच्य युग के साहित्य में भक्ति की मुख्य प्रवृत्ति को देखते हुए आ. शुक्ल ने इस कालावधि का नामकरण ‘भक्तिकाल’ भी किया है।

‘भक्तिकाल’ नाम को परवर्ती सभी विद्वानों ने स्वीकार किया है और आज भी भक्तिकाल’ नामकरण सर्वमान्य है।

(स) सत्रहवीं शताब्दी से उन्नीसवीं शताब्दी तक के कालखण्ड (रीतिकाल) के नामकरण :-

आलोच्य काल के नामकरण को लेकर भी विद्वानों में पर्याप्त मतभेद है विभिन्न विद्वानों ने अपने अपने तर्कों के आधार पर उक्त कालखंड के विभिन्न नामकरण किए हैं जो निम्नलिखित प्रकार से हैं-

अलंकृतकाल – मिश्रबन्धु

रीतिकाल – आ. रामचन्द्र शुक्ल

कलाकाल – रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल

श्रृंगार काल – पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र

अलंकृतकाल

इस काल की कविता में अलंकारों की प्रधानता को देखते हुए मिश्र बंधुओं ने इसे अलंकृत काल कहा है।

मिश्रबन्धुओं ने इस युग का नामकरण करते हुए कहा है कि – “रीतिकालीन कवियों” ने जितने आग्रह के साथ रचना शैली को अलंकृत करने का प्रयास किया है. उतना अन्य किसी भी काल के कवियों ने नहीं।

इस प्रवृत्ति के कारण यह अलंकृतकाल है।

इस काल को अलंकृतकाल कहने का दूसरा कारण यह है कि इस काल के कवियों ने अलंकार निरूपक ग्रन्थों के लेखन में विशेष रूचि प्रदर्शित की।

परंतु इस काल को ‘अलंकृतकाल’ नाम देना उचित नहीं है क्योंकि यह कविता केवल अलंकृत ही नहीं है इतर काव्यांगों को भी इसमें यथोचित स्थान प्राप्त रहा है। अलंकरण की प्रवृत्ति इस काल की विशेष प्रवृत्ति नहीं है। यह प्रवृत्ति तो हिन्दी के आदिकाल से लेकर आज तक चली आ रही है। दूसरे यह नामकरण कविता के केवल बहिरंग पक्ष का सूचक है। इससे कविता के अंतरंग पक्ष, भाव एवं रस की अवहेलना होती है। आलोच्य काल के कवियों ने अलंकारों की अपेक्षा रस पर अधिक बल दिया है। इसके अतिरिक्त अलंकृतकाल नाम को स्वीकार कर लेने से इस काल की विशेष प्रवृत्ति श्रृंगार और शास्त्रीयता की पूर्ण उपेक्षा हो जाती है।

कलाकाल

रमाशंकर शुक्ल ‘रसाल’ ने इस काल में सामाजिक सांस्कृतिक तथा साहित्यिक पक्ष में कला वैशिष्ट्य को ध्यान में रखते हुए आलोच्य काल को ‘कलाकाल’ नाम दिया है।

उनका कहना है कि “मुगल सम्राट शाहजहाँ का सम्पूर्ण शासन काल कला वेष्टित था। इस युग में एक ओर स्थापत्य कला का चरम बिन्दु ताजमहल के रूप में ‘काल के गाल का अश्रू’ बनकर प्रकट हुआ तो दूसरी ओर हिन्दी कविता भी कलात्मकता से संयुक्त हुई। इस काल के कवियों ने विषय की अपेक्षा शैली की ओर अधिक ध्यान दिया। उनकी कविता में चित्रकला का भी योग हुए बिना न रह सका। अत:एवं यह कलाकाल है।”

डॉ रमा शंकर शुक्ल ‘रसाल’ द्वारा सुझाए गए कलाकाल नाम से भी मिश्र बंधुओं द्वारा सुझाए गए अलंकृत काल नाम की तरह ही कविता के बाह्य पक्ष की विशेषता का ही बोध होता है और कविता का आंतरिक पक्ष उपेक्षित रह जाता है तथा इस युग की व्यापक श्रृंगारिक चेतना और शास्त्रीयता की पूर्ण अवहेलना हो जाती है।

श्रृंगारकाल

पं. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने इस काल मे श्रृंगार रस की प्रधानता को ध्यान में रखकर इस काल को को ‘श्रृंगारकाल’ की उपमा दी है।

परंतु यह नाम भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि रीतिकालीन कवियों ने श्रृंगार के अतिरिक्त अन्य रसों की कविता भी लिखी है।

श्रृगारिकता के साथ-साथ आलंकारिकता और शास्त्रीयता इस काल की कविता के विशेष गुण हैं भक्तिपरक, नीतिपरक रचनाएँ भी इस युग में लिखी गई है।

इस युग के कवियों का उद्देश्य तो अपने आश्रयदाताओं को प्रसन्न कर अर्थोपार्जन करना था अत: यह नामकरण उचित नहीं है।

रीतिकाल

मूर्धन्य विद्वान आ. रामचन्द्र शुक्ल जी ने एक परम्परा की प्रवृति के आधार पर इस युग का नामकरण ‘रीतिकाल’ किया है।

उनका मत है कि- “इन रीतिग्रन्थों” के कर्ता भावुक, सहृदय और निपुण कवि थे।

उनका उद्देश्य कविता करना था, न कि काव्यांगो का शास्त्रीय पद्धति पर निरुपण करना।

अत: उनके द्वारा बड़ा भारी कार्य यह हुआ कि रसों (विशेषतः श्रृंगार रस) और अलंकारों के बहुत ही सरस और हृदयग्राही उदाहरण अत्यन्त प्रचूर परिमाण में प्राप्त हुए।”

अलंकृत काल

शुक्लजी के इस नामकरण का आधार इस काल में रीतिग्रन्थों और रीति ग्रन्थकारों की सुदीर्घ परम्परा है।

इस नाम को सभी परवर्ती सभी विद्वानों ने लगभग एकमत से स्वीकार किया है।

‘रीतिकाल’ नाम की सार्थकता को स्पष्ट करते हुए डॉ० भगीरथ मिश्र ने ‘रीतिकाल’ नामकरण का अनुमोदन करते हुए कहा है-

“इस युग के नाम के सम्बन्ध में मतभेद मिलता है।

मिश्रबन्धु इसको ‘अलंकृत काल’ कहते हैं।

आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र इसे श्रृंगार काल’ नाम से अभिहित करते हैं तथा डॉ नगेन्द्र इसे रीतियुग कहने के पक्ष में हैं।

प्रत्येक विद्वान के अपने-अपने तर्क हैं और उस आधार पर इन नामों का औचित्य भी ठहरता है।

अलंकार की प्रधान प्रवृत्ति के कारण इसका अलंकृत काल नाम जहाँ औचित्य रखत है, वहीं श्रृंगारिक रचना की प्रधानता के कारण इसे शृंगार-काल कहा जा सकता है।

 

परन्तु उस युग के समग्र काव्य ध्यानपूर्वक देखने पर हमें लगता है कि न तो अलंकरण ही स्वच्छंद है और न श्रृंगार वर्णन ही।

पर ये दोनों एक ही परिपाटी पर चलते हैं रीति में बँधे हैं।

अलंकार के विपरीत उस युग में निरलंकृत भक्ति व रस काव्य भी कम नहीं है और श्रृंगार के विपरीत बीर, नीति और भक्ति काव्य बहुत प्रचुर मात्रा में मिलता है।

पर यह समग्र काव्य अपनी-अपनी परिपाटी का पालन करते हुए लिखा गया है।

चाहे वह भक्ति, बीर, नीति, शृंगार कोई भी काव्य क्यों न हों, एक रीतिबद्धता इस युग में देखने को मिलती है।

बीर काव्य युद्ध वर्णन की पद्धति को अपनाकर चलता अथवा काव्यशास्त्रीय लक्षणों का आधार ग्रहण किए है।

रीतिकाल

इसी प्रकार निर्गुण भक्ति-काव्य विभिन्न अंगों में विभाजित है।

कृष्ण-भक्ति-काव्य रागों या अष्टायाम-पूजा या लीला-पद्धति में ढलकर आया है,

इतना ही नहीं इस युग के काव्य की प्रमुख विशेषता रीतिबद्धता है

ऐसी दशा में इस युग का नाम रीति-युग ही स्वीकार करना अधिक उपयुक्त होगा।

इस नाम से उस युग के समग्र काव्य का स्वरूप स्पश्ट हो जाता है

और यह रीतिबद्धता की विशेषता चेतन या अचेतन रूप में उस युग की समस्त-काव्य-धाराओं पर लागू होती है।

इसलिए मेरे विचार से रीतियुग नाम देना ही उचित है।

“इस प्रकार ‘रीतिकाल’ नामकरण अधिक युक्तियुक्त, सार्थक एवंम् समीचीन है।

(द) 19वीं शताब्दी से अब तक के कालखंड नामकरण

यद्यपि प्रत्येक काल अपने पूर्व काल से अधिक आधुनिक होता है तथापि गद्य का आविर्भाव ही इस आलोच्य काल की सबसे बड़ी विशेषता है।

संवत् 1900 से आरम्भ हुए आधुनिक काल में गद्य का विकास इस काल की सबसे महत्वपूर्ण घटना और आधुनिकता का सूचक है।

यद्यपि इस काल में कविता के क्षेत्र में भी विविध नवीन प्रवृत्तियों का विकास हुआ है,

किंतु जैसा विकास गद्य के विभिन्न अंगों का हुआ है, वैसा कविता का नहीं हो सका है।

को आ. रामचन्द्र शुक्लजी ने गद्य के पूर्ण विकास एवं प्रधानता को देखते हुए ‘गद्य काल’ नाम दिया है।

आ. हजारीप्रसाद द्विवेदी प्रेस के उद्भव को ही आधुनिकता का वाहक मानते है।

श्यामसुन्दर दास इसे ‘नवीन विकास का युग’ कहते है।

हिन्दी साहित्य : कालखंड नामकरण

‘आधुनिक काल’ को आ. शुक्ल जी ने तीन चरणों में विभक्त किया है और इन्हें प्रथम उत्थान, द्वितीय उत्थान तथा तृतीय उत्थान कहा है।

अधिकांश आधुनिक विद्वानो ने इस काल के प्रमुख साहित्यकारों के अवदान के आधार पर इसके उपभागों के नामकरण ‘भारतेन्दु युग’ अथवा ‘पुनर्जागरण काल’, ‘द्विवेदी युग अथवा ‘जागरण-सुधार काल’ आदि किये हैं।

इसके बाद के कालखण्डों को भी विद्वानों ने ‘छायावादी युग’ तथा ‘छायावादोत्तर युग’ में प्रगति, प्रयोग काल, नवलेखन काल नाम दिये हैं।

आधुनिक काल की प्रगति इतनी विशाल और बहुमुखी है कि उसे किसी विशिष्ट वाद या प्रवृत्ति की संकुचित सीमा में नहीं बाँधा जा सकता।

सर्वमान्य मत के अनुसार आलोच्य काल का नाम आधुनिक काल ही उपयुक्त है।

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हिन्दी साहित्य काल विभाजन

हिन्दी साहित्य काल विभाजन एवं नामकरण

साहित्येतिहास की आवश्यकता

हिन्दी साहित्य काल विभाजन एवं कालखण्डों के नामकरण तथा हिंदी साहित्य में प्रचलित काल विभाजन और नामकरण की संपूर्ण जानकारी

“प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है, तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता चला जाता है। आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य-परंपरा के साथ उनका सामंजस्य दिखाना ‘साहित्य का इतिहास’ कहलाता है।” (आ.शुक्ल)

हिन्दी साहित्य काल विभाजन
हिन्दी साहित्य काल विभाजन

पूर्व काल में घटित घटनाओं, तथ्यों का विवेचन, विश्लेषण एवं मूल्यांकन इतिहास में किया जाता है, और साहित्य में मानव-मन एवं जातीय जीवन की सुखात्मक दुखात्मक ललित भावनाओं की अभिव्यक्ति इस प्रकार की जाती है कि वे भाव सर्वसामान्य के भाव बन जाते हैं।

इससे स्पष्ट होता है कि, विभिन्न परिस्थितियों अनुसार परिवर्तित होने वाली जनता की सहज चित्तवृत्तियों की अभिव्यक्ति साहित्य में की जाती है जिससे साहित्य के स्वरूप में भी परिवर्तन होता रहता है।

विभिन्न परिस्थितियों के आलोक में साहित्य के इसी परिवर्तनशील प्रवृत्ति और साहित्य में अंतर्भूत भावाभिव्यक्ति को प्रस्तुत करना ही साहित्येतिहास कहलाता है।

हिन्दी साहित्य काल विभाजन

आज साहित्य का अध्ययन एवं विश्लेषण केवल साहित्य और साहित्यकार को केंद्र में रखकर नहीं किया जा सकता बल्कि साहित्य का भावपक्ष, कलापक्ष, युगीन परिवेश, युगीन चेतना, साहित्यकार की प्रतिभा, प्रवृत्ति आदि का भी विवेचन विश्लेषण किया जाना चाहिए।

अतः कहा जा सकता है कि साहित्येतिहास का उद्देश्य ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्में साहित्य को वस्तु, कला पक्ष, भावपक्ष, चेतना तथा लक्ष्य की दृष्टि से स्पष्ट करना है साहित्य का बहुविध विकास, साहित्य में अभिव्यक्त मानव जीवन की जटिलता, ऐतिहासिक तथ्यों की खोज, अनेक सम्यक अनुशीलन के लिए साहित्येतिहास की आवश्यकता होती है।

 

“किसी भाषा में उस साहित्य का इतिहास लिखा जाना उस साहित्य की समृद्धि का परिणाम है। साहित्य के इतिहास का लिखा जाना अपनी साहित्यिक निधि की चिंता करना एवं उन साहित्यिकों के प्रति न्याय एवं कृतज्ञता प्रकट करना है जिन्होंने हमारे जातीय एवं राष्ट्रीय जीवन को प्रभावित किया है साहित्य के इतिहास को वह भित्तिचित्र समझिए जिसमें साहित्यिकों के आकृति-चित्र ही नहीं होते, हृदयचित्र और मस्तिष्क-चित्र भी होते हैं। इसके लिए निपुण चित्रकार की आवश्यकता होती है।” (विश्वंभर मानव)

हिन्दी साहित्य का काल विभाजन

जॉर्ज ग्रियर्सन द्वारा किया गया काल – विभाजन :

चारणकाल (700 इ. से 1300 इ. तक)

19 शती का धार्मिक पुनर्जागरण

जयसी की प्रेम कविता

कृष्ण संप्रदाय

मुगल दरबार

तुलसीदास

प्रेमकाव्य

तुलसीदास के अन्य परवर्ती

18 वीं शताब्दी

कंपनी के शासन में हिंदुस्तान

विक्टोरिया के शासन में हिंदुस्तान

इस काल विभाजन में एकरूपता का अभाव है। यह काल विभाजन कहीं कवियों के नाम पर; कहीं शासकों के नाम पर; कहीं शासन तंत्र के नाम पर किया गया है।

इस काल विभाजन में साहित्यिक प्रवृत्तियों और साहित्यिक चेतना का सर्वथा अभाव है।

अनेकानेक त्रुटियां होने के बाद भी काल विभाजन का प्रथम प्रयास होने के कारण ग्रियर्सन का काल विभाजन सराहनीय एवं उपयोगी तथा परवर्ती साहित्येतिहासकारों के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हुआ है।

मिश्र बंधुओं द्वारा किया गया काल-विभाजन :

मिश्र बंधुओं ने अपने साहित्येतिहास ग्रंथ ‘मिश्र बंधु विनोद’ (1913) में नया काल विभाजन प्रस्तुत किया।

यह काल विभाजन भी सर्वथा दोष मुक्त नहीं है, इस काल विभाजन में वैज्ञानिकता का अभाव है परंतु यह काल विभाजन ग्रियर्सन के काल विभाजन से कहीं अधिक प्रौढ़ और विकसित है-

प्रारंभिक काल (सं. 700 से 1444 विक्रमी तक)

माध्यमिक काल (सं. 1445 से 1680 विक्रमी तक)

अलंकृत काल (सं. 1681 से 1889 विक्रमी तक)

परिवर्तन काल (सं. 1890 से 1925 विक्रमी तक)

वर्तमान काल (सं. 1926 से अब तक)

आ. रामचंद्र शुक्ल द्वारा किया गया काल विभाजन :

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ (1929) में हिंदी साहित्य के इतिहास का नवीन काल विभाजन प्रस्तुत किया, यह काल विभाजन पूर्ववर्ती काल विभाजन से अधिक सरल, सुबोध और श्रेष्ठ है।

आचार्य शुक्ल द्वारा किया गया काल विभाजन वर्तमान समय तक सर्वमान्य है-

आदिकाल (वीरगाथा काल, सं. 1050 से 1375 विक्रमी तक)

पूर्व मध्यकाल (भक्तिकाल, सं. 1375 से 1700 विक्रमी तक)

उत्तर मध्यकाल (रीतिकाल, सं. 1700 से 1900 विक्रमी तक)

आधुनिक काल (गद्य काल, सं. 1900 से आज तक)

डॉ. रामकुमार वर्मा द्वारा किया गया काल-विभाजन :

डॉ रामकुमार वर्मा ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास’ में काल विभाजन हेतु आचार्य शुक्ल का अनुसरण करते हुए अपना काल विभाजन प्रस्तुत किया है

कालविभाजन के अंतिम चार खंड तो आ. शुक्ल के समान ही है, लेकिन वीरगाथा काल को चारण काल नाम देकर इसके पूर्व एक संधिकाल और जोडकर हिंदी साहित्य का आरंभ सं. 700 से मानते हुए काल-विभाजन प्रस्तुत किया है।

संधिकाल (सं. 750 ते 1000 वि. तक)

चारण काल (सं. 1000 से 1375 वि. तक)

भक्तिकाल (सं. 1375 से 1700 वि. तक)

रीतिकाल (सं. 1700 से 1900 वि. तक)

आधुनिक काल (सं. 1900 से अबतक)

आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा किया गया काल-विभाजन:

आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आ. शुक्ल जी के काल-विभाजन को ही स्वीकार कर केवल संवत् के स्थान पर ईस्वी सन् का प्रयोग किया है।

द्विवेदीजी ने पूरी शताब्दी को काल विभाजन का आधार बनाकर वीरगाथा की अपेक्षा आदिकाल नाम दिया है।

आदिकाल (सन् 1000 ई. से 1400 ई. तक)

पूर्व मध्यकाल (सन् 1400 ई. से 1700 ई. तक)

उत्तर मध्यकाल (सन् 1700 ई. से 1900 ई. तक)

आधुनिक काल (सन् 1900 ई. से अब तक)

बाबू श्यामसुन्दर दास द्वारा किया गया काल-विभाजन:

बाबू श्यामसुन्दर दास द्वारा किया गया काल-विभाजन आ. शुक्ल के काल-विभाजन से साम्य रखता है।

दोनों के काल विभाजन में कोई अधिक भिन्नता नहीं है का काल-विभाजन इस प्रकार है-

आदिकाल (वीरगाथा का युग संवत् 1000 से संवत् 1400 तक)

पूर्व मध्य युग (भक्ति काल युग, संवत् 1400 से संवत् 1700 तक)

उत्तर मध्ययुग (रीति ग्रन्थों का युग, संवत् 1700 से, संवत् 1900 तक)

आधुनिक युग (नवीन विकास का युग, संवत् 1900 से अब तक)

डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त द्वारा किया गया काल-विभाजन:

डॉ. गणपतिचन्द्र गुप्त ने अपने ग्रन्थ ‘हिन्दी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास’ में शुक्ल जी के काल विभाजन का ही समर्थन किया है। उनका काल-विभाजन इस प्रकार है-

प्रारम्भिक काल (1184 – 1350 ई.)

पूर्व मध्यकाल (1350 – 1600 ई.)

उत्तर मध्यकाल (1600 – 1857 ई.)

धुनिक काल (1857 ई. अब तक)

डॉ. नगेंद्र द्वारा किया गया काल-विभाजन :

आदिकाल (7 वी सदी के मध्य से 14 वीं शती के मध्यतक)

भक्तिकाल (14 वीं सदी के मध्य से 17 वीं सदी के मध्यतक)

रीतिकाल (17 वीं सदी के मध्य से 19 वीं शती के मध्यतक)

आधुनिक काल (19वीं सदी के मध्य से अब तक)

आधुनिक काल का उप विभाजन

(अ) पुनर्जागरण काल (भारतेन्दु काल) 1877 – 1900 ई.

(ब) जागरण-सुधार काल (द्विवेदी काल) 1900 – 1918 ई.

(स) छायावाद काल 1918 – 1938 ई.

(द) छायावादोत्तर काल –

प्रगति-प्रयोग काल- 1938 – 1953 ई.

नवलेखन काल 1953 ई. से अब तक।

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मैथिल कोकिल विद्यापति Maithil Kokil Vidyapati

मैथिल कोकिल विद्यापति Maithil Kokil Vidyapati

मैथिल कोकिल विद्यापति Maithil Kokil Vidyapati जीवन-परिचय, उपाधियाँ, रचनाएँ, विद्यापति श्रृंगारिक या भक्त कवि, प्रमुख पंक्तियां, प्रमुख कथन

जीवन-परिचयमैथिल कोकिल विद्यापति Maithil Kokil Vidyapati

विद्यापति के जीवन के संबंध में विद्वानों में पर्याप्त मत भेद है। विद्वानों ने शोध और खोजों से जो रूप रेखा बताई है, वह उनकी रचनाओं में प्राप्त अन्तःसाक्ष्यों और अन्य साक्ष्यों या किंवदंतियों पर आधारित है। रचनाओं में प्राप्त इन्हीं संकेतों और बहि:साक्ष्य के आधार पर विद्यापति का जीवन चरित्र इस प्रकार था-

मैथिल कोकिल विद्यापति जीवन-परिचय
मैथिल कोकिल विद्यापति जीवन-परिचय

जन्म आदि

कवि शेखर, विद्यापति को बिहार और बंगाल में ही नहीं, संपूर्ण हिंदी-क्षेत्र में असाधारण लोकप्रियता प्राप्त हुई, किंतु दुर्भाग्यवश उनके जीवन-मरण-काल के संबंध में विद्वज्जन एकमत नहीं हैं-

डॉ जयकांत मिश्र ने उनका जन्म 1350 ई. में,

डॉ. सुभद्र झा ने 1352 में,

महामहोपाध्याय पं. हरप्रसाद शास्त्री ने 1357 ई. में,

डॉ.नागेन्द्र नाथ गुप्त ने 1358 ई. में,

डॉ.बाबूराम सक्सेना ने अनुमानतः 1360 ई. में,

डॉ.उमेश मिश्र ने 1368 ई. में और

डॉ.विमानबिहारी मजूमदार ने 1380 ई. में माना है।

मृत्यु

डॉ.सुभद्र झा ने उनका मरणकाल 1448 ई.,

डॉ.जयकांत मिश्र ने 1450 ई.,

डॉ.विमानबिहारी मजूमदार ने 1460 ई. के लगभग और

डॉ. उमेश मिश्र ने 1475 ई. माना है। अतः यह कहा जा सकता है कि विद्यापति 1350 ई. से 1460 ई. के मध्य विद्यमान थे।

वंश परम्परा

विद्यापति के पूर्वजों का परिचय तत्कालीन शिलालेखों, ताम्रपत्रों और पंजी प्रबन्धों से प्राप्त होता है। इनका समस्त कुल पूर्वज विद्वता से परिपूर्ण था, तथा सभी ने किसी न किसी ग्रंथ का प्रणयन किया था।

डा. सुभद्र झा ने लिखा है- “विद्वानों के ऐसे यशस्वी परिवार में कवि विद्यापति का जन्म हुआ जो अपने परम्परागत विद्या ज्ञान के लिए प्रसिद्ध था।”

कवि कुल शेखर विद्यापति के पूर्वज मैथिल ब्राह्मण थे। इनके मूल वंश का नाम विसईबार था। इनके पूर्वज अपने आश्रयदाताओं के यहां उच्च पदों पर आसीन रहे हैं, अतः इनके पूर्वजों को ठाकुर की उपाधि प्राप्त हुई।

विद्यापति के वंश के आदि पुरुष विश्व प्रसिद्ध कथा पंचतंत्र के लेखक पंडित विष्णु शर्मा थे। कवि की वंशावली इस प्रकार से है-

राज्याश्रय

विद्यापति के पूर्वजों का मिथिला के राजाओं से अच्छा संबंध था।

विद्यापति का अधिकांश जीवन मिथिला के राजाओं के आश्रय में बीता।

सभी राजाओं और रानियों ने विद्यापति का खूब आदर किया। परंतु राजा शिवसिंह से विद्यापति का घनिष्ठ संबंध रहा। विद्यापति शिवसिंह को साक्षात नारायण और रानी लक्ष्मी देवी (लखिमा देवी) को लक्ष्मी मानते थे।

शिवसिंह ने विद्यापति को विपसी ग्राम दिया। इसके अतिरिक्त विद्यापति ओइनवार वंशीय राजा देवी सिंह, कीर्ति सिंह तथा भैरवसिंह के राजाश्रय में रहे।

विद्यापति की उपाधियाँ: मैथिल कोकिल विद्यापति Maithil Kokil Vidyapati

कवि विद्यापति में अद्भुत कवित्व शक्ति थी, जिससे मुग्ध होकर लोगों ने उन पर उपाधियों की वर्षा की।

कीर्ति सिंह के शासनकाल में वे अल्पवयस्क होने के कारण ‘खेलन कवि’ के नाम से प्रसिद्ध रहे।

राजा शिवसिंह ने उन्हे “अभिनवजयदेव’ और “महाराज पंडित” की उपाधियाँ प्रदान की।

इन उपाधियों के अतिरिक्त उन्हे “सुकवि कंठहार, राजपंडित, सरस कवि, कवि रत्न, कवि शेखर, नवकविशेखर, कवि कंठहार, सुकवि, नवजयदेव आदि उपाधियाँ भी प्राप्त हुई।

काव्य प्रतिभा एवं सरस वर्णन से ओत प्रोत होकर बादशाह नसरत शाह ने विद्यापति को “कवि शेखर’ की उपाधि प्रदान की।

रचनाएँ

विद्यापति संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, मैथिली, ब्रजबुलि, बंगला और हिंदी के महापंडित थे। उन्होंने संस्कृत में कई ग्रंथ लिखे। इनकी रचनाएँ संस्कृत, अवहट्ट और मैथिली भाषाओं में प्राप्त होती है। रचनाओं का विवरण इस प्रकार है-

संस्कृत की रचनाएँ

भूपरिक्रमा

पुरुषपरीक्षा

लिखनावली

शैव सर्वस्वसार

शैवसर्वस्वसार-प्रमाणभूत पुराणसंग्रह

गंगावाक्यावली

विभागसार

दानवाक्यावली

दुर्गाभक्तितरंगिणी

गया पत्तलक

वर्षकृत्य

मफिमंजरी

अवहट्ट की रचनाएँ

कीर्तिलता

कीर्तिपताका

मैथिली की रचनाएँ

पदावली

गोरक्ष विजय (नाटक)

विद्यापति श्रृंगारिक या भक्त कवि

भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में श्रृंगारिक काव्य पदावली की रचना करने के कारण कुछ विद्वान इन्हें श्रृंगारिक कवि समझते हैं तो कुछ विद्वान इन्हें भक्त कवि समझते हैं। विद्यापति के श्रृंगारिक या भक्त कवि होने पर विद्वानों में पर्याप्त मतभेद विद्यमान है यह मतभेद इस प्रकार हैं-

श्रृंगारिक कवि मानने वाले विद्वान

महामहोपाध्याय पंडित हरप्रसाद शास्त्री

आचार्य रामचंद्र शुक्ल

सुभद्र झा

डॉ रामकुमार वर्मा

रामवृक्ष बेनीपुरी

भक्त कवि मानने वाले विद्वान

बाबू बृज नंदन सहाय

बाबू श्याम सुंदर दास

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

रहस्यवादी कवि मानने वाले विद्वान

जॉर्ज ग्रियर्सन

डॉ नागेंद्र नाथ गुप्त

जनार्दन मिश्र

विद्यापति की प्रमुख पंक्तियां

“देसिल बअना सब जन मिट्ठा। तें तैं सन जंपओ अवहट्ठा।”

“रज्ज लुद्ध असलान बुद्धि बिक्कम बले हारल। पास बइसि बिसवासि राय गयनेसर मारल ॥”

“मारत राणरोल पडु, मेइरि हा हा सद्द हुअ।सुरराय नयर नरअर-रमणी बाम नयन पप्फुरिअ धुअ॥”

“कतहुँ तुरुक बरकर। बार जाए ते बेगार धर॥धरि आनय बाभन बरुआ। मथा चढाव इ गाय का चरुआ।हिन्दू बोले दूरहि निकार। छोटउ तुरुका भभकी मार।”

“जइ सुरसा होसइ मम भाषा।जो जो बन्झिहिसो करिहि पसंसा॥”

“जाति अजाति विवाह अधम उत्तम का पारक।”

“पुरुष कहाणी हौं कहौं जसु पंत्थावै पुन्नु।”

“बालचंद विज्जावहू भाषा।दुहु नहि लग्गइ दुज्जन हासा॥”

“खने खने नयन कोन अनुसरई।खने खने वसंत धूलि तनु भरई।”

” सुधामुख के विहि निरमल बाला।अपरूप रूप मनोभव-मंगल, त्रिभुवन विजयी माला॥

“सरस वसंत समय भला पावलि दछिन पवन वह धीरे, सपनहु रूप बचन इक भाषिय मुख से दूरि करु चीरे॥”

विद्यापति के लिए प्रमुख कथन

‘जातीय कवि’ -डॉ बच्चन सिंह

‘श्रृंगार रस के सिद्ध वाक् कवि’ -आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

‘आध्यात्मिक रंग के चश्मे आजकल बहुत सस्ते हो गए हैं उन्हें चढ़ाकर जैसे कुछ लोगों ने गीत गोविंद को अध्यात्मिक संकेत बताया है वैसे ही विद्यापति के इन पदों को भी’ -आचार्य शुक्ल

अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य

महामहोपाध्याय पंडित हरप्रसाद शास्त्री ने विद्यापति को पंचदेव उपासक माना है।

हिंदी में सर्वप्रथम विशुद्ध गेयपद लिखने का श्रेय विद्यापति को है।

विद्यापति हिंदी के प्रथम कृष्ण भक्त कवि हैं तथा कृष्ण गीति परंपरा का प्रवर्तक माना जाता है।

यह शैव मतानुयायी थे।

सर्वप्रथम जाॅर्ज ग्रियर्सन ने अपनी पुस्तक मैथिली क्रिस्टोपैथी में पदावली को भक्ति परक रचना माना है।

डॉ रामकुमार वर्मा ने पदावली की श्रृगारिक्ता की तुलना खजुराहो के मंदिर से की है।

निराला ने पदावली के श्रृंगारिक पदों की मादकता को नागिन की लहर कहा है।

कीर्ति लता की रचना भृंग-भृंगी संवाद के रूप में हुई है।

स्रोत

  1. विद्यापति-शिव प्रसादसिंह
  2. विद्यापति-विमानबिहारी मजूमदार
  3. विद्यापति के सुभाषित–कमल नारायण झा ‘कमलेश’
  4. विद्यापति पदावली डॉ. नागेंद्र नाथ गुप्त
  5. हिंदी साहित्य का इतिहास – डॉ नगेंद्र
  6. हिंदी साहित्य का इतिहास – आचार्य शुक्ल

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विज्ञान तथा प्रकृति (Science and Nature)

विज्ञान तथा प्रकृति (Science and Nature)

विज्ञान तथा प्रकृति (Science and Nature) भौतिक विज्ञान के व्याख्याता राजमीत ‘इंसां’ द्वारा रचित प्रसिद्ध रचनाएं।

प्रकृति एक ऐसा शब्द जो मानव जीवन का आधार है, मानव जीव का पूरक है, मानव जीवन की कल्पना भी प्रकृति के बिना असंभव है। इन सब बातों को समेकित रूप में कहा जा सकता है कि मानव भी प्रकृति का ही एक अंश है या यूं कहें कि मानव भी प्रकृति ही है। अब बर्फ को भला पानी से अलग कैसे कर सकते हैं? पानी से ही बर्फ का अस्तित्व है या यूं कहें कि बर्फ भी असल में पानी ही है।

प्रकृति की परिभाषा क्या है?

अब बात आती है कि प्रकृति की परिभाषा क्या है? प्रकृति को यदि हम निहारने बैठें तो किसी भी स्थूल या सूक्ष्म को प्रकृति से अलग नहीं किया जा सकता। भले बात करें वायु की, भले जल की, भले प्रकाश, अन्न, मिट्टी की, भले पक्षियों, जीव-जंतुओं की, भले कीड़े-मकौड़ों की, भले पहाड़ों, नदियों, चट्टानों की, भले ग्रह-नक्षत्र, सूर्य, पृथ्वी, चाँद, तारों की, भले अणु-परमाणु की, भले किसी बैक्टीरिया, वायरस, जीवाणु की, ये सब प्रकृति के ही अंश है।

विज्ञान तथा प्रकृति Science and Nature
विज्ञान तथा प्रकृति Science and Nature

मेरे मतानुसार ‘‘इस ब्रह्माण्ड में हमारे चारों ओर जो भी हमें देख, सुन या महसूस कर सकते हैं तथा जो भी हम देख, सुन या महसूस नहीं भी कर सकते वह सब प्रकृति है, और हम स्वयं भी प्रकृति ही हैं।’’

अब सवाल आता है कि यह प्रकृति कहाँ से आयी, किसने बनायी, तो इसका जवाब आज तक विज्ञान को तो मिला नहीं है, परंतु हमारे प्राचीन धर्म ग्रंथों, ऋषि-मुनियों ने इस प्रकृति की रचना करने वाले को परमात्मा, ईश्वर, गाॅड, खुदा, रब्ब, अदृश्य शक्ति, प्रकाश पुंज इत्यादि नामों से संबोधित किया है।

विज्ञान तथा प्रकृति Science and Nature : विज्ञान का अर्थ या परिभाषा

अब बात आती है मानव और प्रकृति के संबंध की। जैसा कि बताया जा चुका है कि मानव प्रकृति पर पूरी तरह निर्भर है। मानव की एक और बड़ी विशेषता है कि वह हमेशा अपने आसपास की चीजों, वातावरण का निरीक्षण जरूर करता है और फिर उसका अध्ययन कर उससे फायदा लेने की कोशिश करता है। मानव की इसी जिजीविषा ने ‘विज्ञान’ को जन्म दिया है। विज्ञान की एक सर्वसामान्य सी परिभाषा जो प्रचलित है, और वह सही भी है कि ‘‘प्रकृति का क्रमबद्ध, तार्किक और प्रयोगों से प्रमाणित अध्ययन ही विज्ञान है।’’

आज हम विज्ञान की बात करें तो विज्ञान का आधार अध्ययन है। मनुष्य की प्रत्येक गतिविधि जो उसके जीवन जीने को सरलता प्रदान करती है तथा आवश्यक है, विज्ञान है। एक मनुष्य सब कुछ होते हुए भी नंगे पाँव सड़क पर पैदल चल रहा है तथा दूसरे ने चप्पल पहन रखी है तो दूसरा व्यक्ति विज्ञान की समझ रखने वाला कहा जाएगा।

विज्ञान तथा प्रकृति Science and Nature :  लाभ या नुकसान

वर्तमान में विज्ञान के जितने भी आविष्कारों पर नजर दौड़ायें तो सबका आधार प्रकृति ही है, चाहे वह छोटा आविष्कार हो या बड़ा। मानव ने प्रकृति को ही समझा, प्रकृति से ही संसाधन जुटाए तथा प्रकृति के इसी अध्ययन से आविष्कार कर डाले। अब यह आविष्कार मानव को लाभ पहुंचा रहें हैं या नुकसान, यह बात हम बाद में करेंगे।

आज भले हम सुई को देखें या पानी के जहाज को, घर में लगे पंखे को या एसी को, या सड़क पर दौड़ती कार को, मोबाइल को, एक्स-रे मशीन को देखें या ओवर हैड प्रोजेक्टर को, चन्द्रयान को देखें या सोलर ऊर्जा से चलने वाले उपकरणों को, सब प्रकृति का ही अध्ययन है और प्रकृति से ही बने हैं।

विज्ञान तथा प्रकृति Science and Nature : विकास या विनाश

भौतिकी, रसायन, खगोलिकी, जीव विज्ञान, भूगोल आदि विज्ञान की यह सब शाखाएं प्रकृति के ही अलग-अलग रूपों का अध्ययन है। एक तरफ विज्ञान के ये आविष्कार मानव जाति को एक नया आयाम या सुविधाएं प्रदान कर रहें हैं तो दूसरी ओर विनाश का भी कारण बन रहे हैं। आविष्कार तो आविष्कार है, अब यह हमारे लिए लाभप्रद होगा या हानिकारक यह निर्भर करता है उस आविष्कारक और उसका उपयोग करने वाले मानव की प्रकृति पर। बस यहाँ भी बात प्रकृति की ही आ जाती है। नाभिकीय ऊर्जा से भले बिजली उत्पादन कर देश का विकास कर लो या फिर परमाणु बम बनाकर सृष्टि का विनाश, यह निर्भर करता है मानव प्रकृति पर।

विज्ञान ने मनुष्य जाति को बहुत कुछ दिया है और दे रही है। बेहतर हो, हम विज्ञान का उपयोग मानव जाति के कल्याण के लिए करें। विज्ञान के आविष्कारों से हम उस प्रकृति को और बेहतर बनायें जिस प्रकृति से यह विज्ञान आया है और जो प्रकृति हमारा आधार है। यह सब तभी संभव है जब हम सबकी प्रकृति सकारात्मक रहे।

राजेन्द्र सिंह,
व्याख्याता (भौतिक विज्ञान)

विज्ञान तथा प्रकृति Science and Nature

प्रथम महाकवि चंदबरदाई | Mahakavi Chandbardai

चंदबरदाई का जीवन परिचय

प्रथम महाकवि चंदबरदाई | Mahakavi Chandbardai का जीवन परिचय, Chandbardai के अन्य नाम, पृथ्वीराज रासो के संस्करण, प्रमुख पंक्तियाँ, तथ्य, कथन

आचार्य शुक्ल के अनुसार उनका जन्म लाहोर में हुआ था। कहा जाता है कि पृथ्वीराज और चंदवरदाई का जन्म एक दिन हुआ था। परंतु मिश्र बंधुओं के अनुसार पृथ्वीराज चौहान और चंदबरदाई की आयु में अंतर था। इनकी जन्म तिथि एक ही थी या नहीं थी इस संबंध में मिश्र बंधु कुछ नहीं लिखते हैं लेकिन आयु गणना उन्होंने अवश्य की है जिसके आधार पर उनका अनुमान है कि चंद पृथ्वीराज से कुछ बड़े थे। चंद ने अपने जन्म के बारे में रासों में कोई वर्णन नहीं किया है, परंतु उन्होंने पृथ्वीराज का जन्म संवत् 1205 विक्रमी में बताया है।

प्रथम महाकवि चंदबरदाई | Mahakavi Chandbardai : अन्य नाम

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के मतानुसार कवि चंदवरदाई हिंदी साहित्य के प्रथम महाकवि है, उनका महान ग्रंथ पृथ्वीराजरासोहिंदी का प्रथम महाकाव्य है। आदिकाल के उल्लेखनीय कवि चंदबरदाई ने पृथ्वीराज रासो में अपना जीवन दिया है, रासो अनुसार चंद भट्ट जाति के जगात नामक गोत्र के थे। मुनि जिनविजय द्वारा खोज निकाले गए जैन प्रबंधों में उनका नाम चंदवरदिया दिया है और उन्हें खारभट्ट कहा गया है।

चंद, पृथ्वीराज चौहान के न केवल राजकवि थे, वरन् उनके सखा और सामंत भी थे और जीवन भर दोनों साथ रहे। चंद षड्भाषा, व्याकरण, काव्य, साहित्य, छंद शास्त्र, ज्योतिष, पुराण आदि अनेक विधाओं के जानकार विद्वान थे। उन पर जालंधरी देवी का इष्ट था। चंदवरदाई की जीवनी के संबंध में सूर की “साहित्यलहरी” में सुरक्षित सामग्री है।

सूर की वंशावली

‘सूरदास’ की साहित्य लहरी की टीका मे एक पद ऐसा आया है जिसमे सूर की वंशावली दी है। वह पद यह है-

प्रथम ही प्रथु यज्ञ ते भे प्रगट अद्भुत रूप।

ब्रह्म राव विचारि ब्रह्मा राखु नाम अनूप॥

पान पय देवी दियो सिव आदि सुर सुखपाय।

कह्यो दुर्गा पुत्र तेरो भयो अति अधिकाय॥

पारि पायॅन सुरन के सुर सहित अस्तुति कीन।

तासु बंस प्रसंस में भौ चंद चारु नवीन॥

भूप पृथ्वीराज दीन्हों तिन्हें ज्वाला देस।

तनय ताके चार, कीनो प्रथम आप नरेस॥

दूसरे गुनचंद ता सुत सीलचंद सरूप।

वीरचंद प्रताप पूरन भयो अद्भुत रूप॥

रंथभौर हमीर भूपति सँगत खेलत जाय।

तासु बंस अनूप भो हरिचंद अति विख्याय॥

आगरे रहि गोपचल में रह्यो ता सुत वीर।

पुत्र जनमे सात ताके महा भट गंभीर॥

कृष्णचंद उदारचंद जु रूपचंद सुभाइ।

बुद्धिचंद प्रकाश चौथे चंद भै सुखदाइ॥

देवचंद प्रबोध संसृतचंद ताको नाम।

भयो सप्तो दाम सूरज चंद मंद निकाम॥

महामहोपाध्याय पंडित हरप्रसाद शास्त्री के अनुसार नागौर राजस्थान में अब भी चंद के वंशज रहते हैं। अपनी राजस्थान यात्रा के दौरान नागौर से चंद के वंशज श्री नानूराम भाट से शास्त्री जी को एक वंश वृक्ष प्राप्त हुआ है जिसका उल्लेख आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी अपने हिंदी साहित्य का इतिहास नामक ग्रंथ में किया है जो इस प्रकार है-

इन दोनो वंशावलियो के मिलाने पर मुख्य भेद यह प्रकट होता है कि नानूगम ने जिनको जल्लचंद की वंश-परंपरा मे बताया है, उक्त पद मे उन्हे गुणचंद की परंपरा में कहा है। बाकी नाम प्रायः मिलते हैं। (उद्धृत-हिंदी साहित्य का – आचार्य रामचंद्र शुक्ल)

प्रथम महाकवि चंदबरदाई | Mahakavi Chandbardai : पृथ्वीराज रासो के संस्करण

प्रथम संस्करण-वृहत् संस्करण– 69 समय 16306 छंद (नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित तथा हस्तलिखित प्रतियां उदयपुर संग्रहालय में सुरक्षित हैं)

द्वितीय संस्करण– मध्य संस्करण7000 छंद (अबोहर और बीकानेर में प्रतियाँ सुरक्षित है।)

तृतीय संस्करण-लघु संस्करण– 19 समय 3500 छंद (हस्तलिखित प्रतियाँ बीकानेर में सुरक्षित है।)

चतुर्थ संस्करणलघूत्तम संस्करण – 1300 छंद (डॉ. माता प्रसाद गुप्ता तथा डॉ दशरथ ओझा इसे ही मूल रासो ग्रंथ मानते हैं।)

‘पृथ्वीराज रासो’ की प्रामाणिकता-अप्रामाणिकता में विद्वानों के बीच मतभेद है जो निम्नलिखित है-

1- प्रामाणिक मानने वाले विद्वान- जेम्सटॉड, मिश्रबंधु, श्यामसुन्दर दास, मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या , डॉ दशरथ शर्मा

2- अप्रामाणिक मानने वाले विद्वान- आचार्य रामचंद्र शुक्ल, मुंशी देवी प्रसाद, कविराज श्यामल दास, गौरीशंकर हीराचंद ओझा, डॉ वूल्लर, कविवर मुरारिदान

3- अर्द्ध-प्रामाणिक मानने वाले विद्वान- मुनि जिनविजय, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, डॉ सुनीति कुमार चटर्जी, डॉ दशरथ ओझा

4- चौथा मत डॉ. नरोत्तम दास स्वामी का है। उन्होंने सबसे अलग यह बात कही है कि चंद ने पृथ्वीराज के दरबार में रहकर मुक्तक रूप में रासो की रचना की थी। उनके इस मत से कोई विद्वान सहमत नहीं है।

प्रमुख पंक्तियाँ

(1) “राजनीति पाइये। ज्ञान पाइये सुजानिए॥

उकति जुगति पाइयै। अरथ घटि बढ़ि उन मानिया॥”

(2) “उक्ति धर्म विशालस्य। राजनीति नवरसं॥

खट भाषा पुराणं च। कुरानं कथितं मया॥”

(3) “कुट्टिल केस सुदेस पोह परिचिटात पिक्क सद।

कामगंध बटासंध हंसगति चलति मंद मंद॥”

(4) “रघुनाथ चरित हनुमंत कृत, भूप भोज उद्धरिय जिमि।

पृथ्वीराज सुजस कवि चंद कृत, चंद नंद उद्धरिय तिमि॥”

(5) “मनहुँ कला ससिमान कला सोलह सो बनिय”

(6) “पुस्तक जल्हण हत्थ दे, चलि गज्जन नृप काज।”

चंदबरदाई का जीवन परिचय : चंदबरदाई के लिए महत्त्वपूर्ण कथन

“चन्दबरदाई हिन्दी के प्रथम महाकवि माने जाते हैं और इनका ‘पृथ्वीराज रासो’ हिन्दी का प्रथम महाकाव्य है।” -आचार्य रामचन्द्र शुक्ल

“हिन्दी का वास्तविक प्रथम महाकवि चन्दबरदाई को ही कहा जा सकता है।” –मिश्रबंधु

“यह ग्रन्थ मानो वर्तमान काल का ऋग्वेद है। जैसे ऋग्वेद अपने समय का बड़ा मनोहर ऐसा इतिहास बताता है जो अन्यत्र अप्राप्य है उसी प्रकार रासो भी अपने समय का परम दुष्प्राप्य इतिहास विस्तार-पूर्वक बताता है।” –मिश्रबंधु

“यह (पृथ्वीराज रासो) एक राजनीतिक महाकाव्य है, दूसरे शब्दों में राजनीति की महाकाव्यात्मक त्रासदी है।” –डॉ. बच्चन सिंह

‘पृथ्वीराज रासो’ की रचना शुक-शकी संवाद के रूप में हुई है। –हजारी प्रसाद द्विवेदी

चंदबरदाई से संबंधित महत्त्वपूर्ण तथ्य

1. रासो’ में 68 प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया गया है। मुख्य छंद -कवित्त, छप्पय, दूहा, तोमर, त्रोटक, गाहा और आर्या हैं। (राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी के अनुसार 72 प्रकार के छंदों का प्रयोग हुआ है)

2. चन्दबरदाई को ‘छप्पय छंद‘ का विशेषज्ञ माना जाता है।

3. डॉ. वूलर ने सर्वप्रथम कश्मीरी कवि जयानक कृत ‘पृथ्वीराजविजय’ (संस्कृत) के आधार पर सन् 1875 में ‘पृथ्वीराज रासो’ को अप्रामाणिक घोषित किया।

4. पृथ्वीराज रासो’ को चंदबरदाई के पुत्र जल्हण ने पूर्ण किया।

5. मोहनलाल विष्णु लाल पंड्या ने अनंद संवत की कल्पना के आधार पर हर पृथ्वीराज रासो को प्रामाणिक माना है।

6. रासो की तिथियों में इतिहास से लगभग 90 से 100 वर्षों का अंतर है।

7. इसका प्रकाशन नागरी प्रचारिणी सभा काशी तथा रॉयल एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल से हुआ।

8. कयमास वध पृथ्वीराज रासो का एक महत्वपूर्ण समय है।

9. कनवज्ज युद्ध सबसे बड़ा समय है।

10. पृथ्वीराज रासो की शैली पिंगल है।

11. कर्नल जेम्स टॉड ने इसके लगभग 30,000 छंदों का अंग्रेजी में अनुवाद किया था।

12. इस ग्रंथ में चौहानों को अग्निवंशी बताया गया है।

13. इस ग्रंथ में पृथ्वीराज चौहान के 14 विवाहों का उल्लेख है।

चंदबरदाई का जीवन परिचय, चंदबरदाई के अन्य नाम, पृथ्वीराज रासो के संस्करण, प्रमुख पंक्तियाँ, महत्त्वपूर्ण तथ्य, महत्त्वपूर्ण कथन

स्रोत

पृथ्वीराज रासो, हिन्दी नवरत्न –मिश्रबंधु, हिन्दी साहित्य का इतिहास – आ. शुक्ल, हिन्दी साहित्य का इतिहास –डॉ नगेन्द्र

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महाकवि पुष्पदंत Mahakavi Pushpdant

महाकवि पुष्पदंत

महाकवि पुष्पदंत Mahakavi Pushpdant का परिचय, पुष्पदंत की रचनाएँ, पुष्पदंत के उपनाम और उपाधियाँ, महाकवि पुष्पदंत | Mahakavi Pushpdant | के लिए प्रमुख कथन आदि की जानकारी

परिचय

अपभ्रंश भाषा में अनेक नामचीन कवि हुए हैं; जिनमें से पुष्पदंत एक प्रमुख नाम है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने पुष्पदंत को अपभ्रंश के श्रेष्ठ कवियों में स्वयम्भू के बाद दूसरे स्थान पर रखा है।

पुष्पदंत ने स्वयं अपने विषय में अपनी रचनाओं में जानकारी दी है। उनके ग्रंथों में उनके माता-पिता, आश्रयदाता, वास-स्थान, स्वभाव, कुल-गोत्र आदि की जानकारी प्राप्त हो जाती है। इनके परवर्ती कवियों ने भी इनका नाम बड़े आदर और सम्मान से लिया है। आधुनिक शोध एवं खोजों से भी पुष्पदंत के विषय में पर्याप्त जानकारी मिलती है।

महाकवि पुष्पदंत का परिचय एवं रचनाएँ
महाकवि पुष्पदंत का परिचय एवं रचनाएँ

मातापिता एवं कुलगोत्र

पुष्पदंत के पिता का नाम केशव भट्ट और माता का नाम मुग्धादेवी था।आप काश्यप गोत्र के ब्राह्मण थे और पहले शैव मतावलम्बी थे तथा किसी भैरव नामक राजा (शैव मतावलम्बी) की प्रशंसा में काव्य का प्रणयन भी किया था।अंतः साक्ष्य के आधार पर कह सकते हैं कि पुष्पदंत 10 वीं शताब्दी में वर्तमान थे।

निवास स्थान

कवि पुष्पदंत का निवास मान्यखेट (दक्षिण भारत) में राष्ट्रकूट शासक कृष्ण तृतीय के प्रधानमंत्री भरत तथा उसके पश्चात गृह मंत्री नन्न के आश्रय में था। भरत के अनुरोध पर ही पुष्पदंत जिन भक्ति की ओर प्रवृत्त हो काव्य सृजन में रत हुए। पुष्पदंत ने संन्यास विधि से शरीर त्यागा।

महाकवि पुष्पदंत के उपनाम और उपाधियां (महाकवि पुष्पदंत का परिचय एवं रचनाएँ)

पुष्पदंत का घरेलू नाम खंडू अथवा खंड था। इनकी अनेक उपाधियाँ थी जो उनके ग्रंथों उसे हमें प्राप्त होती –

महापुराण में प्राप्त उपाधियां

महाकवि, कविवर, सकल कलाकार, सर्वजीव निष्कारण मित्र, सिद्धि विलासिनी, मनहरदूत, काव्य पिंड, गुण-मणि निधान, काव्य रत्नरत्नाकर, शशि लिखित नाम, वर-वाच विलास, काव्यकार,सरस्वती निलय, तिमिरौन्सारण।

ण्यकुमार चरिउ से-

विशाल चित्त, गुण गण महंत, वागेश्वरी देवानिकेत, भवय जीव-पंकरुह भानु।

जसहर चरिउ से- सरस्वती निलय।

महाकवि पुष्पदंत की रचनाएँ (महाकवि पुष्पदंत का परिचय एवं रचनाएँ)

निम्नलिखित तीन ग्रंथों को पुष्पदंत की प्रामाणिक रचनाएं माना जाता है-

तिसट्ठि महापुरिस गुणालंकार (महापुराण)

ण्यकुमार चरिउ (नागकुमार चरित्र)

जसहर चरिउ (यशोधर चरित्र)

महापुराण

यह पुष्पदंत की प्रथम रचना मानी जाती है, जिसे उन्होंने राष्ट्रकूट राजा कृष्ण तृतीया के मंत्री भरत के आश्रय में उन्हीं की प्रेरणा से मान्य खेत में लिखा था। अंतः साक्ष्यों के अनुसार पुष्पदंत ने 959 ईस्वी में इसे लिखना आरंभ किया तथा 965 ईस्वी में यह ग्रंथ पूर्ण हुआ। संपूर्ण ग्रंथ में 102 संधियाँ 1960 कड़वक तथा 27107 पद हैं। महापुराण में तिरसठ महापुरुषों का जीवन चरित्र वर्णित है।

ण्यकुमार चरिउ

यह नौ संधियों का खंडकाव्य है, जिसकी रचना महापुराण के बाद हुई है। अंतः साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि पुष्पदंत ने इसकी रचना मंत्री नन्न के आश्रय में की थी। इस ग्रंथ में नाग कुमार के चरित्र द्वारा श्री पंचमी के उपवास का फल बताया गया है।

जसहर चरिउ

जसहरचरिउ पुष्पदंत की अंतिम रचना मानी जाती है। जिसे उन्होंने नन्न के आश्रय में लिखा था। यह चार संधियों की लघु रचना है, जिसमें यशोधर का चरित्र वर्णित किया गया है।

महाकवि पुष्पदंत के लिए प्रमुख कथन (महाकवि पुष्पदंत का परिचय एवं रचनाएँ)

पुष्पदंत मनुष्य थोड़े ही है, सरस्वती उनका पीछा नहीं छोड़ती” –हरिषेण।

“अपभ्रंश का भवभूति”- डॉ हरिवल्लभ चुन्नीलाल भयाणी।

“बाण के बाद राजनीति का इतना उग्र आलोचक दूसरा लेखक नहीं हुआ। सचमुच मेलपाटी के उस उद्यान में हुई अमात्य भरत और पुष्पदन्त की भेंट भारतीय साहित्य की बहुत बड़ी घटना है। यह अनुभूति और कल्पना की अक्षय धारा है, जिससे अपभ्रंश साहित्य का उपवन हरा-भरा हो उठा। मंत्री भरत माली थे और कृष्ण वर्ण कुरूप पुष्पदन्त कवि-मनीषी, के स्नेह के आलवाल में कवि श्री का काव्य-कुसुम मुकुलित हुआ।” –डॉ. देवेंद्र कुमार जैन।

स्रोत

1 महापुराण

2 ण्यकुमार चरिउ

3 जसहर चरित

4 महाकवि पुष्पदन्त–राजनारायण पाण्डेय

5 जैन साहित्य और इतिहास – नाथूराम प्रेमी

6 अपभ्रंशभाषा और साहित्य – डॉ. देवेंद्र कुमार जैन

इन्हें भी अवश्य पढें-

स्वयम्भू

गोरखनाथ

सिद्ध सरहपा

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कवि स्वयम्भू | Kavi Svayambhu

अपभ्रंश का कवि स्वयम्भू | Kavi Svayambhu

कवि स्वयम्भू | Kavi Svayambhu अपभ्रंश के प्रथम कवि का जीवन-परिचय, रचनाएं, उपाधियाँ, स्वयंभू का काल निर्धारण, स्वयम्भू का अर्थ आदि

स्वयम्भू : काल निर्धारण – अपभ्रंश के प्रथम कवि स्वयम्भू का जीवन-परिचय एवं रचनाएं

कवि स्वयंभू की जन्मतिथि के विषय में निश्चित ज्ञान नहीं है और नही अभी तक उनके जन्म स्थान, कुल परंपरा, कार्यस्थान, कार्य विधि तथा अन्य घटनाओं के बारे में कोई विशेष जानकारी प्राप्त हो पायी है।

स्वयंभू कृत पउमचरिउ में एक स्थान पर तथा रिट्ठणेमिचरिउ में दो स्थानों पर कुछ तिथियों, महीनों, नक्षत्रों का उल्लेख अवश्य मिलता है, परंतु कहीं भी वर्ष का उल्लेख नहीं होता है, अतः काल निर्णय करना अत्यंत कठिन है। पउमचरिउ तथा रिट्ठणेमिचरिउ में स्वयंभू ने भरत, व्यास, पिंगलाचार्य, इंद्राचार्य, भामह, दंडी, श्रीहर्ष, बाण, चतुर्मुख, रविषेण आदि पूर्वगामी कवियों की प्रशंसा की है, जिनमें से रविषेण सबसे अंतिम थे। रविषेण की कृति पद्म चरित्र का रचनाकाल ईस्वी सन् 676 से 677 में माना जाता है और स्वयम्भू ने स्वीकार किया है कि उन्होंने रविसेणारिय पसाएँ  अर्थात रविषेणाचार्य के प्रसाद से रामकथा रूपी नदी का अवगाहन किया है। इससे स्वयम्भू का समय 676 से 677 के बाद का ही निश्चित होता है। यह स्वयम्भू के काल की पूर्व सीमा ठहरती है।

इस तरह स्वयंभू के परवर्ती कवियों ने स्वयंभू के प्रति कृतज्ञता प्रकट की है। ऐसे कवियों में पुष्पदंत कालक्रम में सबसे पहले हैं। उन्होंने अपने महापुराण में दो स्थानों पर स्वयंभू को बड़े आदर के साथ स्मरण किया है। पुष्पदंत के महापुराण की रचना 959- 60 ईसवी में प्रारंभ हुई, अतः स्वयंभू इस समय से पूर्व हो चुके थे, इसलिए स्वयंभू की उत्तर सीमा 959- 60 के आसपास ठहरती है। स्वयम्भू की पूर्व सीमा 676- 77 तथा उत्तर सीमा 959- 60 तक के 300 वर्षों के सुदीर्घ कालखंड में एक निश्चित समय निर्धारित करना अत्यंत दुष्कर कार्य है। एक अन्य मत के अनुसार स्वयंभू 783 ईसवी के आसपास वर्तमान थे।

कवि स्वयम्भू | Kavi Svayambhu का जीवन-परिचय

स्वयम्भू जैन मतावलम्बी थे।

इनके पिता का नाम मारुतदेव तथा माता का नाम पद्मिनी था

काव्य कला का ज्ञान इन्होंने अपने पिता से ही लिया था।

स्वयम्भू ने अपने किसी पुत्र का उल्लेख नहीं किया है, किंतु त्रिभुवन को निर्विवाद रूप से उनका पुत्र माना जाता है।

जन्म स्थान के संबंध में कोई पुष्ट प्रमाण तो नहीं मिलता परंतु अंतः साक्ष्य के आधार पर कहा जा सकता है, कि स्वयंभू कर्नाटक प्रदेश के निवासी रहे होंगे। लेकिन उनकी भाषा से यह अनुमान लगाया जाता है, कि स्वयंभू का जन्म उत्तर भारत या मध्य भारत में हुआ होगा और बाद में वे दक्षिण गए होंगे। यह अनुमान महापंडित राहुल सांकृत्यायन के मत पर आधारित है।

कवि स्वयम्भू | Kavi Svayambhu की उपाधियाँ

त्रिभुवन ने उन्हें स्वयंभूदेव, कविराज, कविराज चक्रवर्तिन विद्वान और छंदस् चूड़ामणि आदि उपाधियों से अलंकृत किया है।

पउमचरिउ में स्वयंभू ने अपने आप को कविराज कहकर संबोधित किया है।

डॉ हरिवल्लभ चुन्नीलाल भयाणी ने इन्हें अपभ्रंश का कालिदास और डॉ राहुल सांकृत्यायन ने इन्हें अपभ्रंश का वाल्मीकि कहा है।

स्वयम्भू कवि की रचनाएं – अपभ्रंश के प्रथम कवि स्वयम्भू का जीवन-परिचय एवं रचनाएं

स्वयंभू की तीन कृतियां निर्विवाद रूप से स्वीकार की जाती हैं- पउमचरिउ (पद्मचरित्र), रिट्ठणेमिचरिउ तथा स्वयम्भू छंद।

पउमचरिउ

पउमचरिउ में राम कथा है।

राम का एक पर्याय पद्म भी है, अतः स्वयंभू ने पद्मचरित्र नाम दिया।

कथा के अंत में राम को मुनींद्र से उपदेश ग्रहण कर निर्वाण प्राप्त करते हुए दिखाया गया है।

ऐसा करके कवि ने जैन धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करनी चाही है।

पउमचरिउ पांच कांड और 90 संधियों में विभाजित महाकाव्य है-

(1) विद्याधर कांड में 20,

(2) अयोध्या कांड में 22,

(3) सुंदरकांड में 14,

(4) युद्ध कांड में 21,

(5) उत्तरकांड में 13 संधियाँ हैं।

संधियाँ कडवकों में विभाजित है।

ग्रंथ में कुल 1269 कडवक है।

पउमचरिउ की 23वी और 46 वी में संधि के प्रारंभ में कवि ने पुनः मंगलाचरण लिखे हैं।

पउमचरिउ को स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवनस्वयंभू ने पूर्णता प्रदान की। इसकी 84 से 90 संधियाँ त्रिभुवन की रचना है।

रिट्ठणेमिचरिउ

आकार की दृष्टि से यह ग्रंथ स्वयंभू के अन्य सभी ग्रंथों से विशाल है इसमें 18000 श्लोक तथा चार कांड और 120 संधियाँ हैं।

इसमें आयी कृष्ण तथा कौरव पांडव की कथा के कारण इसके रिट्ठणेमिचरिउ, हरिवंश पुराण, भारत पुराण आदि कई नाम मिलते हैं।

रिट्ठणेमिचरिउ को भी स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन ने पूर्ण किया।

स्वयंभू छंद

इसमें 8 अध्याय हैं। प्रत्येक अध्याय के अंत में स्वयंभू छंद शब्द मिलता है।

ग्रंथ के प्रथम तीन अध्याय में प्राकृत छंदों तथा अंतिम पांच अध्यायों में अपभ्रंश के छंदों का विवेचन किया गया है।

इसके अतिरिक्त कुछ प्रमाणों के आधार पर सिरिपंचमी चरिउ तथा सुद्धयचरिय इनकी दो अन्य रचनाएं स्वीकार की जाती है।

दो अलग-अलग मतों के अनुसार स्वयंभू को एक व्याकरण ग्रंथ तथा एक अलंकार और कोश ग्रंथ का रचयिता भी कहा जाता है।

स्वयंभू के लिए प्रमुख कथन

“हमारे इसी युग में नहीं, हिन्दी कविता के पांचो युगों (1-सिद्ध-सामन्त युग, 2-सूफी-युग, 3-भक्त-युग, 4-दरबारी-युग, 5-नव जागरण-युग) के जितने कवियों को हमने यहाँ संग्रहीत किया है, उनमें यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि स्वयंभू सबसे बड़ा कवि था। वस्तुतः वह भारत के एक दर्जन अमर कवियों में से एक था।” –डॉ. राहुल सांकृत्यायन

अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य – अपभ्रंश के प्रथम कवि स्वयम्भू का जीवन-परिचय एवं रचनाएं

डॉ रामकुमार वर्मा ने स्वयंभू को हिंदी का प्रथम कवि माना है।

स्वयम्भू ने अपनी भाषा को देसी भाषा कहां है।

स्वयम्भू ने चतुर्मुख को पद्धड़िया बंध का प्रवर्तक तथा श्रेष्ठ कवि कहा है।

पद्धरी 16 मात्रा का मात्रिक छंद है। इस छंद के नाम पर इस पद्धति पर लिखे जाने वाले काव्यों को पद्धड़िया बंध कहा गया है।

स्रोत

महाकवि स्वयंभू- डॉ संकटा प्रसाद उपाध्याय

हिंदी काव्य धारा –डॉ राहुल सांकृत्यायन

पउमचरिउ (प्रस्तावना)- डॉ हरिवल्लभ चुन्नीलाल भयाणी

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गोरखनाथ Gorakhnath

गोरखनाथ Gorakhnath जीवन परिचय एवं रचनाएं

गोरखनाथ Gorakhnath का जीवन परिचय, रचनाएं, जन्म के बारे में विभिन्न मत, गोरखनाथ के बारे में साहित्यकारों के विभिन्न मत एवं गोरखनाथ जी की उक्तियाँ आदि की जानकारी।

परिचय

सिद्ध संप्रदाय का विकसित और परिवर्तित रूप ही नाथ संप्रदाय है। ‘नाथ’  शब्द के अनेक अर्थ है, शैव मत के विकास के बाद ‘नाथ’ शब्द शिव के लिए प्रयुक्त होने लगा। नाथ संप्रदाय में इस शब्द की जो व्याख्या की गई है उसके अनुसार ‘ना’ का अर्थ है ‘अनादिरूप’ तथा ‘थ’ का अर्थ है ‘स्थापित होना’। एक अन्य मत के अनुसार नाथ शब्द की व्याख्या की गई है, जिसमें ‘नाथ’ शब्द ‘मुक्तिदान’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।

गोरखनाथ जीवन परिचय रचनाएं
गोरखनाथ जीवन परिचय रचनाएं

ना- नाथ ब्रह्म (जो मोक्ष देता है)

थ – स्थापित करना (अज्ञान के सामर्थ्य को स्थापित करना)

नाथ – जो ज्ञान को दूर कर मुक्त दिलाता है।

नाथपंथी शिवोपासक हैं, और अपनी साधना में तंत्र मंत्र एवं योग को महत्त्व देते हैं, इसलिए इन्हें योगी भी कहा जाता है। माना जाता है कि नाथ पंथ सहजयान का विकसित रूप है। विकास परंपरा में भी नाथों का स्थान सिद्धों के बाद ही आता है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार नाथों का समय नौवीं शताब्दी का मध्य है। उनके मत से अधिकतर विद्वान सहमत भी हैं।

नाथ साहित्य के बारे में विस्तार से जानने के लिए यहाँ क्लिक कीजिए – नाथ साहित्य एक परिचय

गोरखनाथ का समय

विद्वानों ने मत्स्येंद्रनाथ का काल नौवीं शती का अंतिम चरण तथा गोरखनाथ का समय है।

दसवीं शती स्वीकार किया है, जबकि अन्य नाथों की प्रवृत्ति सीमा 12वीं 13वीं शताब्दी मानी जाती है।

नाथों की संख्या नौ मानी जाती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार अभी लोग नवनाथ और चौरासी सिद्ध कहते सुने जाते हैं।

नौ नाथो में आदिनाथ (शिव), मत्स्येंद्रनाथ (मच्छिंद्रनाथ), गोरखनाथ, चर्पटनाथ, चौरंगीनाथ आदि प्रमुख है।

नाथ एक विशेष वेशभूषा धारण करते थे जिसमें मेखला, शृंगी, गूदड़ी, खप्पर, कर्णमुद्रा, झोला आदि होते थे।

यह कान चीरकर कुंडल पहनते थे, इसलिए कनफटा योगी कहलाते थे।

नाथ पंथ के प्रवर्तक आदिनाथ या स्वयं शिव माने जाते हैं।

उनके शिष्य मत्स्येंद्रनाथ और इनके शिष्य गोरखनाथ थे।

यह पहले बौद्ध थे, बाद में नाथपंथी हो गए और योग मार्ग चलाया।जिसे हठयोग के नाम से जाना जाता है।

हठयोगियों के सिद्ध सिद्धांत पद्धति ग्रंथ के अनुसार-

ह- सूर्य

ठ – चंद्रमा

हठयोग – सूर्य और चंद्रमा का संयोग।

हठयोग की साधना शरीर पर आधारित है। कुंडलिनी को जगाने के लिए आसन, मुद्रा, प्राणायाम और समाधि का सहारा लिया जाता है।

गोरखनाथ का जीवन परिचय (गोरखनाथ जीवन परिचय एवं रचनाएं)

व्यक्तित्व एवं कृतित्व

जन्म एवं जन्म स्थान

गोरक्षनाथ की उत्पत्ति के दो रुप में मिलते हैं। व्यक्तित्व के रुप में गोरक्षनाथ शिवावतार है।

महाकाल योग शास्त्र में शिव ने स्वयं स्वीकार किया है कि मै ‘योगमार्ग का प्रचारक गोरक्ष हूँ।

हठयोग प्रदीपिका में उल्लेख है कि स्वयं आदिनाथ शिव ने योग-मार्ग के प्रचार हेतु गोरक्ष का रुप लिया था।

‘गोरक्ष सिद्धान्त संग्रह मे गोरखनाथ को ईश्वर की संतान के रूप में संबोधित किया गया है।

बंगीय काव्य ‘गोरक्ष-विजय’ के अनुसार गोरखनाथ आदिनाथ शिव की जटाओं से प्रकट हुए थे।

नेपाल दरबार ग्रंथालय से प्राप्त गोरक्ष सहस्रनाम के अनुसार गोरखनाथ दक्षिण मे बड़ब नामक देश में महामन्त्र के प्रसाद से उत्पन्न हुए थे।

तहकीकाक चिश्ती नामक पुस्तक से प्राप्त वर्णन के अनुसार शिव के एक भक्त ने सन्तानोत्पत्ति की इच्छा से शिव-धूनी से भस्म प्राप्त कर अपनी पत्नी को ग्रहण करने के लिए दिया पर लोक-लज्जा के भय से उस स्त्री ने उस भस्म को फेंक दिया। चामत्कारिक रूप से उसी स्थान पर एक हष्ट-पुष्ट बालक उत्पन्न हुआ। शिव ने उसका नाम गोरक्ष रखा। वर्तमान समय में भी गोरक्षनाथ को नाथ योगी लोग शिव-गोरक्ष के रुप में ही मान्यता देते है।

‘योग सम्प्रदाय विष्कृति’ के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ ने एक सच्चरित्र धर्मनिष्ट निस्संतान ब्राह्मण दंपत्ति को पुत्र प्राप्ति की इच्छा से भस्म प्रदान की, इसी भस्म से गोरखनाथ उत्पन्न हुए। गोरखनाथ के जन्म स्थान के सम्बन्ध में पर्याप्त मतभेद है।

महार्थमंजरी के त्रिवेन्द्रम संस्करण से ज्ञात होता है कि वे चोल देश के निवासी थे उनके पिता का नाम माधव और गुरु का नाम महाप्रकाश था।

अवध की परम्परा में गोरक्षनाथ जायस नगर के एक पवित्र ब्राह्मण कुल में उत्पन्न माने जाते हैं।

विभिन्न मतानुसार

ब्रिग्स ने गोरक्ष को पंजाब का मूल निवासी बताया है।

ग्रियर्सन ने उनका पश्चिमी हिमालय का निवासी होना स्वीकार किया है

डॉ० मोहन सिंह पेशावर के निकट रावलपिंडी जिले के एक ग्राम ‘गोरखपुर’ को उनकी मातृभूमि बताते है।

डा० रांगेय राघव का मत है कि गोरखनाथ का जन्मस्थान पेशावर का उत्तर-पश्चिमी पंजाब है।

पं० परशुराम चतुर्वेदी का अनुमान है कि गोरख का जन्म पश्चिमी भारत अथवा पंजाब प्रांत के किसी स्थान में हुआ था और उनका कार्य-क्षेत्र नेपाल, उत्तरी भारत आसाम, महाराष्ट्र एवं सिन्ध तक फैला हुआ था।

नेपाल पुस्तकालय से उपलब्ध ग्रन्थ योग सम्प्रदाय विष्कृति के अनुसार गोरक्ष की जन्मभूमि गोदावरी नदी के तट पर स्थित ‘चन्द्रगिरि’ नामक स्थान है।

डॉ० अशोक प्रभाकर का मत है कि महाराष्ट्र मे त्रियादेश की स्थापना बताकर तथा नाथ पंथ की कुछ गुफाओं व प्रतीकों को आधार बनाकर गोरखनाथ की जन्मभूमि महाराष्ट्र में स्थित ‘चन्द्रगिरि’ को बताते है।

अक्षय कुमार बनर्जी का मत है कि मत्स्येन्द्र गोरक्ष आदि ने सर्वप्रथम हिमालय प्रदेश-नेपाल, तिब्बत आदि देशों में अपनी योग साधना आरम्भ की और सम्भवतः इन्हीं स्थानो में वे प्रथम देव सदृश पूजे गये उनका स्थान देवाधिदेव पशुपतिनाथ शिव को छोड़कर अन्य सभी देवताओं से ऊँचा था।

तिब्बत व नेपाल के क्षेत्र से ही योग साधना का आन्दोलन पूर्व में कामरूप (आसाम) बंगाल, मनीपुर तथा निकटवर्ती क्षेत्रों में फैला। पश्चिम में कश्मीर, पंजाब पश्चिमोत्तर प्रदेश, यहाँ तक कि काबुल और फारस तक पहुँचा उत्तर प्रदेश हिमालय के समीप होने के कारण अधिक प्रभावित हुआ। दक्षिण पश्चिम और दक्षिण पूर्व में भी गोरखनाथ तथा अन्यान्न नाथ योगियों की शिक्षाएं तथा उनके चमत्कार की कथाएँ पुष्प की सुगंध की तरह चहूँ ओर बिखर गयीं।

गोरखनाथ के जन्म के समय के बारे में निश्चित नहीं कहा जा सकता है-

गोरखनाथ का समय डॉ राहुल सांकृत्यायन ने 845 ईस्वी माना है।

डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी उन्हें नवी शताब्दी का मानते हैं।

डॉ पीतांबरदत्त बड़थ्वाल ने 11वीं शताब्दी का स्वीकार करते हैं।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल तथा डॉ रामकुमार वर्मा इन्हें 13वीं शताब्दी का मानते हैं।

आधुनिक खोजों के अनुसार गोरखनाथ ने ईसा की तेरहवीं सदी के आरंभ में अपना साहित्य लिखा था।

गोरखनाथ की रचनाएं (गोरखनाथ जीवन परिचय एवं रचनाएं)

इनके ग्रंथों की संख्या 40 मानी जाती है, परंतु डॉ पीतांबर दत्त बड़थ्वाल ने इनकी 14 रचनाओं को प्रमाणिक मानकर गोरखवाणी नाम से उनका संपादन किया है। डॉ बड़थ्वाल द्वारा संपादित पुस्तकों की सूची इस प्रकार है– (1) शब्द, (2) पद, (3) शिष्या दर्शन. (4) प्राणसंकली. (5) नरवैबोध, (6) आत्मबोध, (7) अभयमुद्रा योग, (8) पंद्रह तिथि, (9) सप्तवार, (10) मछिन्द्र गोरखबोध, (11) रोमावली, (12) ज्ञान तिलक, (13) ज्ञान चौतीसा, (14) पंचमात्रा।

मिश्र बंधु

डॉ बड़थ्वाल के अतिरिक्त मिश्र बंधुओं ने गोरखनाथ के 9 संस्कृत ग्रंथों का परिचय दिया है– (1) गोरक्षशतक, (2) चतुरशीत्यासन, (3) ज्ञानामृत, (4) योगचिन्तामणि, (5) योग महिला, (6) योग मार्तण्ड, (7) योग सिद्धांत पद्धति, (8) विवेक मार्तण्ड (9) सिद्ध-सिद्धान्त पद्धति

योगनाथ स्वामी

ने गोरखनाथ की 20 संस्कृत ग्रन्थों की सूची दी है- (1) अमनस्क योग (2) अमरौधा शासनम्, (3)सिद्ध-सिद्धान्त पद्धति,(4) गोरक्षसिद्धान्त संग्रह, (5) सिद्ध-सिद्धान्त संग्रह, (6) महार्थ मंजरी, (7) विवेक मार्तण्ड, (8) गोरक्ष पद्धति, (9) गोरक्ष संहिता, (10) योगबीज, (11) योग चिन्तामणि, (12) हठयोग संहिता, (13) श्रीनाथ-सूत्र, (14) योगशास्त्र (15)चतुश्षीत्यासन, (16) गोरक्ष चिकित्सा, (17) गोरक्ष पंच, (18)गोरक्ष गीता, (19) गोरक्ष कौमुदी, (20) गोरक्ष कल्प।

डॉ० हजारी प्रसाद द्विवेदी

ने गोरखनाथ 28 ग्रंथों की का उल्लेख किया है, द्विवेदी जी ने लिखा है कि उन पुस्तकों में अधिकांश के रचयिता गोरखनाथ नहीं थे–1.अमनस्कयोग 2. अमरौधशासनम् 3. अवधूत गीता 4. गोरक्ष कल्प 5. गोरक्षकौमुदी 6. गोरक्ष गीता 7. गोरक्ष चिकित्सा 8. गोरक्षपंचय 9. गोरक्षपद्धति 10. गोरक्षशतक 11. गोरक्ष शास्त्र 12.गोरक्ष संहिता 13. चतुरशीत्यासन 14. ज्ञान प्रकाश 15. ज्ञान शतक  16. ज्ञानामृत योग 17. नाड़ीज्ञान प्रदीपिका 18. महार्थ मंजरी 19. योगचिन्तामणि 20. योग मार्तण्ड 21.योगबीज 22. योगशास्त्र 23. योगसिद्धांत पद्धति 24. विवेक मार्तण्ड 25. श्रीनाथ-सूत्र 26. सिद्ध-सिद्धान्तपद्धति 27. हठयोग 28. हठ संहिता।

डॉ० नागेन्द्रनाथ उपाध्याय

ने गोरखनाथ के 15 ग्रंथो की सूची प्रस्तुत की है लेकिन इनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है- 1. अमरौधशासनम् 2. अवधूत गीता 3. गोरक्ष गीता 4.गोरक्षशतक 5. विवेक मार्तण्ड 6. महार्थमंजरी 7. सिद्ध-सिद्धान्त पद्धति 8.  चतुरशीत्यासन्  9. ज्ञानामृत 10. योग महिमा 11. योग-सिद्धान्त पद्धति 12. गोरक्ष कथा 13. गोरक्ष सहस्रनाम 14. गोरक्षपिष्टिका 15. योगबीज

गोरखनाथ मंदिर की जानकारी के लिए क्लिक कीजिए- https://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%97%E0%A5%8B%E0%A4%B0%E0%A4%96%E0%A4%A8%E0%A4%BE%E0%A4%A5_%E0%A4%AE%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A4%BF%E0%A4%B0

गोरखनाथ की प्रसिद्ध उक्तियाँ

(1) “नौ लख पातरि आगे नाचें, पीछे सहज अखाड़ा।

ऐसे मन लौ जोगी खेले, तब अंतरि बसै भंडारा ॥”

(2) “अंजन माहि निरंजन भेट्या, तिल मुख भेट्या तेल।

मूरति मांहि अमूरति परस्या भया निरंतरि खेल ॥”

(3) “नाथ बोल अमृतवाणी । बरसेगी कवाली पाणी॥

गाड़ी पडरवा बांधिले खूँटा। चलै दमामा वजिले काँटा॥”

(4) “गुर कोमहिला निगुरा न रहिला, गुरु बिन ज्ञान न पायला रे भाईला।”

(5) “अवधू रहिया हाटे बाटे रूप विरस की छाया।

तजिवा काम क्रोध लोभ मोह संसार की माया॥”

(6) “स्वामी तुम्हई गुरु गोसाई। अम्हे जो सिव सबद एक बुझिबा।।

निरारंवे चेला कूण विधि रहै। सतगुरु होइ स पुछया कहै ॥”

(7) “अभि-अन्तर को त्याग माया”

(8) “दुबध्या मेटि सहज में रहैं”

(9) “जोइ-जोइ पिण्डे सोई-ब्रह्माण्डे”

प्रमुख कथन (गोरखनाथ जीवन परिचय एवं रचनाएं)

शंकराचार्य के बाद इतना प्रभावशाली और इतना महिमान्वित भारतवर्ष में दूसरा नहीं हुआ। भारतवर्ष के कोने-कोने में उनके अनुयायो आज भी पाये जाते हैं। भक्ति आन्दोलन के पूर्व सबसे शक्तिशाली धार्मिक आन्दोलन गोरखनाथ का भक्ति मार्ग हो था। गोरखनाथ अपने युग के सबसे बड़े नेता थेआचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

“गोरख जगायो जोग भक्ति भगाए लोग” – तुलसीदास

अन्य महत्वपूर्ण तथ्य

1 नाथ साहित्य के प्रारंभ करता गोरखनाथ थे।

2 गोरखनाथ के गुरु का नाम मत्स्येंद्रनाथ था।

3 हिंदी साहित्य में षट्चक्र वाला योग मार्ग गोरखनाथ ने चलाया।

4 मिश्रबंधुओं ने गोरखनाथ को हिंदी का प्रथम गद्य लेखक माना है।

स्रोत

  • इग्नू स्नातकोत्तर (हिंदी) पाठ्य सामग्री
  • हिंदी साहित्य का इतिहास – डॉ नगेंद्र
  • नाथ संप्रदाय – डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी
  • गोरक्षनाथ और उनका युग – डॉ रांगेय राघव
  • अमनस्क योग –  श्री योगीनाथ स्वामी
  • नाथ संप्रदाय का इतिहास दर्शन एवं साधना प्रणाली – डॉ कल्याणी मलिक
  • गोरक्षनाथ एंड कनफटा योगीज –  ब्रिग्स
  • योगवाणी फरवरी 1977
  • नाथ और संत साहित्य तुलनात्मक अध्ययन – डॉ नागेंद्रनाथ उपाध्याय

गोरखनाथ का जीवन परिचय, रचनाएं, जन्म के बारे में विभिन्न मत, गोरखनाथ के बारे में साहित्यकारों के विभिन्न मत एवं गोरखनाथ जी की उक्तियाँ आदि की जानकारी।

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सिद्ध सरहपा Siddh Sarhapa – प्रथम हिन्दी कवि

सिद्ध सरहपा Siddh Sarhapa : व्यक्तित्व एवं कृतित्व

सिद्ध सरहपा Siddh Sarhapa प्रथम हिन्दी कवि के व्यक्तित्व एवं कृतित्व, जीवन परिचय, रचनाएं, भाषा शैली, 84 सिद्धों के नाम एवं प्रमुख कथन

हिंदी साहित्य का आरंभिक कवि सरहपा को माना जाता है।

यह 84 सिद्धों में प्रथम माने जाते हैं।

सरहपा के बारे में चर्चा करने से पहले सिद्ध संप्रदाय की संक्षिप्त जानकारी आवश्यक है।

सामान्य रूप से जब कोई साधक साधना में प्रवीण हो जाता है और विलक्षण सिद्धियां प्राप्त कर लेता है तथा उन सिद्धियों से चमत्कार दिखाता है, उसे सिद्ध कहते हैं।

प्रथम हिन्दी कवि-सिद्ध सरहपा
प्रथम हिन्दी कवि-सिद्ध सरहपा

लगभग आठवीं शताब्दी में बौद्ध धर्म से सिद्ध संप्रदाय का विकास हुआ था।

बहुत संप्रदाय विघटित होकर दो शाखाओं- हीनयान तथा महायान में बँट गया।

कालांतर में महायान पुनः दो उपशाखाओं में विभाजित हुआ-

(क) वज्रयान

(ख) सहजयान

इन्हीं शाखाओं के अनुयाई साधकों को सिद्ध कहा गया है।

वज्रयानियों का केंद्र श्री पर्वत रहा है।

सिद्धों के समय को लेकर विद्वानों में मतभेद है।

महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने सिद्धों का समय सातवीं शताब्दी स्वीकार किया है।

डॉ रामकुमार वर्मा ने इनका समय संवत् 797 से 1257 तक माना है।

जबकि आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इनका समय दसवीं शताब्दी स्वीकार किया है।

सिद्धों की संख्या

संख्या 84 मानी जाती है।

तंत्र साधना में 84 का गूढ़ तांत्रिक अर्थ तथा विशेष महत्व होता है।

योग तथा तंत्र में आसन भी 84 माने गए हैं।

84 सिद्धों का संबंध 84 लाख योनियों से भी माना जाता है।

काम शास्त्र में 84 आसन भी स्वीकार किए गए हैं।

हिंदी साहित्य कोश के अनुसार 12 राशियों तथा 7 नक्षत्रों का गुणनफल भी 84 होता है।

उस समय प्रत्येक संप्रदाय 84 की संख्या को महत्व देता था।

सिद्धों का 84 ही होने का कोई पुष्ट प्रमाण नहीं मिलता है।

डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा उपलब्ध करवाई गई 84 सिद्धों की सूची इस प्रकार है-

संख्या

(1) लुइपा – कायस्थ, (2) लीलापा, (3) विरूपा, (4) डोम्बिपा – क्षत्रिय, (5) शबरपा- क्षत्रिय, (6) सरहपा – ब्राह्मण, (7) कंकालीपा – शूद्र, (8) मीनपा- मछुआ, (9) गोरक्षपा, (10) चोरंगिपा – राजकुमार, (11) वीणापा – राजकुमार, (12) शान्तिपा – ब्राह्मण, (13) तंतिपा तँतवा, (14) चमारिपा – चर्मकार, (15) खड्गपा – शूद्र, (16) नागार्जुन – ब्राह्मण, (17) कण्हपा – कायस्थ, (18) कर्णरिपा, (19) थगनपा – शूद्र, (20) नारोपा – ब्राह्मण,

(21) शलिपा – शूद्र, (22) तिलोपा-ब्राह्मण, (23) छत्रपा-शूद्र, (24) भद्रपा- ब्राह्मण, (25) दोखंधिपा, (26) अजोगिपा – गृहपति, (27) कालपा, (28) धम्मिपा –  धोबी, (29) कंकणपा –  राजकुमार, (30) कमरिपा, (31) डेंगिपा – ब्राह्मण, (32) भदेपा, (33) तंधेपा – शूद्र, (34) कुक्कुरिपा – ब्राह्मण, (35) कुचिपा – शूद्र, (36) धर्मपा – ब्राह्मण, (37) महीपा – शूद्र, (38) अचितपा – लकड़हारा, (39) भलहपा क्षत्रिय, (40) नलिनपा, (41) भुसुकिपा – राजकुमार,

(42) इन्द्रभूति – राजा, (43) मेकोपा – वणिक्, (44) कुठालिपा, (45) कमरिपा – लोहार, (46) जालंधरपा – ब्राह्मण, (47) राहुलपा- शूद्र(48) मेदनीपा(49) धर्वरिपा, (50) धोकरिपा – शूद्र, (51) पंकजपा – ब्राह्मण, (52) घंटापा – क्षत्रिय, (53) जोगीपा डोम, (54) चेकुलपा-  शूद्र, (55) गुंडरिपा – चिड़मार, (56) लुचिकपा – ब्राह्मण, (57) निर्गुणपा – शूद्र, (58) जयानन्त – ब्राह्मण, (59) चर्पटीपा – कहार, (60) चम्पकपा, (61) भिखनपा – शूद्र, (62) भलिपा – कृष्ण घृत वणिक्, (63) कुमरिपा, (64) चवरिपा, (65) मणिभद्रा – (योगिनी) गृहदासी, (66) मेखलापा (योगिनी) गृहपति कन्या, (67) कनपलापा (योगिनी) गृहपति कन्या, (68) कलकलपा – शूद्र, (69) कंतालीपा – दर्जी, (70) धहुलिपा – शूद्र, (71) उधलिपा – वैश्य, (72) कपालपा – शूद्र, (73) किलपा – राजकुमार,(74) सागरपा–राजा(75) सर्वभक्षपा – शूद्र, (76) नागबोधिपा- ब्राह्मण,(77) दारिकपा- राजा, (78) पुतुलिपा- शूद्र, (79) पनहपा- चमार, (80) कोकालिपा – राजकुमार, (81) अनंगपा -शूद्र, (82) लक्ष्मीकरा – (योगिनी) राजकुमारी, (83) समुदपा, (84) भलिपा – ब्राह्मण । सिद्धों के नाम के साथ आदर सूचक शब्द ‘पा’ जुड़ता है।

डॉ रामकुमार वर्मा सरहपा को हिंदी का प्रथम कवि स्वीकार करते हुए, उनकी कविता में हिंदी कविता के आदि रूप का अस्तित्व स्वीकार किया है। उनके मत से अन्य प्रमुख साहित्यकार भी सहमत नजर आते हैं।

प्रथम हिन्दी कवि-सिद्ध सरहपा व्यक्तित्व एवं कृतित्व

सरहपा सिद्धों में प्रथम सिद्ध माने जाते हैं। इन्होंने ही सिद्ध संप्रदाय का प्रवर्तन किया।

कतिपय विद्वान मानते हैं कि सरहपा ने ही महामुद्रा साधना का प्रथम अभ्यास किया तथा इसमें सिद्धि प्राप्त की।

सरहपा के जन्म तथा मृत्यु के विषय में पर्याप्त जानकारी का अभाव है लेकिन कुछ साक्ष्यों के आधार पर उनके समय का अनुमान लगाया जाता है।

डॉ राहुल सांकृत्यायन के मतानुसार सरहपा आठवीं शताब्दी (769) के लगभग वर्तमान थे।

डॉ ग्रियर्सन, शिव सिंह सेंगर, मिश्र बंधु,चंद्रधर शर्मा गुलेरी, हजारी प्रसाद द्विवेदी तथा डॉ रामकुमार वर्मा राहुल जी से दूर तक सहमत हैं।

सरहपा के कई नाम सरोरुह, वज्र, सरोवज्र, पद्म, पद्मवज्र तथा राहुलभद्र आदि मिलते हैं।

सिद्धि प्राप्त करने से पूर्व इनका नाम राहुल भद्रथा, बाद में सरहपा हुआ।

तिब्बत में प्रचलित के किंवदंती के अनुसार सरहपा का जन्म उड़ीसा में हुआ था।

डॉ राहुल सांकृत्यायन ‘दोहाकोश’ की भूमिका में सरहपा का जन्म स्थान राज्ञी नामक गांव को माना है, परंतु वर्तमान में इस नाम का कोई गांव नहीं है।

विद्वानों का मत है कि यह गांव शायद बिहार के भागलपुर के आस-पास रहा होगा।

इन्हे वेद वेदांगों में बचपन से ही विशेष रुचि थी।

मध्यप्रदेश में इन्होंने  त्रिपिटकों का अध्ययन किया और बौद्ध धर्म में दीक्षित होकर नालंदा आ गए, वहां से महाराष्ट्र पहुंचे और महामुद्रा योग में सिद्धि प्राप्त कर सिद्ध कहलाए।

सरहपा  और उनके  समकालीन साहित्य पर अनेक विद्वानों ने शोध कार्य किया है जिनमें मिशेल, हरमन याकोबी, चन्द्रमोहन घोष, महामहोपाध्याय पण्डित विधुशेखर शास्त्री, महामहोपाध्याय पं. हरप्रसाद शास्त्री, डॉ. प्रबोधचन्द्र बागची, मुनि जिनविजय, डॉ शहीदुल्ला, महापण्डित राहुल सांकृत्यायन आदि मुख्य हैं।

इनके प्रयासों से ही आज इस काल का साहित्य थोड़ा बहुत हमें उपलब्ध है।

सिद्ध सरहपा Siddh Sarhapa की रचनाएं

सरहपा ने लगभग 32 ग्रंथों की रचना कीजिनमें से दोहाकोश इनकी श्रेष्ठ रचना मानी जाती है।

दोहाकोश की भूमिका में राहुल सांकृत्यायन ने 7 कृतियों की एक सूची दी है, जिन्हें सरहपा की रचनाएं कहा जा सकता है।

इसके अतिरिक्त दोहाकोश की भूमिका में ही राहुल जी ने सरहपा की संभावित 16 अन्य कविताओं की सूची भी दी है।

सिद्ध सरहपा Siddh Sarhapa के लिए प्रमुख कथन

“आज की भाषा में अबनार्मल प्रतिभा के धनी थे मूड आने पर वह कुछ गुनगुनाने लगते। शायद उन्होंने स्वयं इन पदों को लेखबद्ध नहीं किया। यह काम उनके साथ रहने वाले सरह के भक्तों ने किया। यही कारण है, जो ‘दोहा-कोश के छन्दों के क्रम और संख्या में इतना अन्तर मिलता है। सरह जैसे पुरुष से यह आशा नहीं रखनी चाहिए कि वह अपनी धर्म की दूकान चलाएगा, पर, आगे वह चली और खूब चली, इसे कहने की आवश्यकता नहीं।”महापंडित राहुल सांकृत्यायन

“जब उन्हें वहाँ का जीवन दमघोंटू लगने लगा, तो उन्होंने सब कुछ को लात मारी, भिक्षुओं का बाना छोड़ा, अपनी नहीं, किसी दूसरी छोटी जाति की तरुणी को लेकर खुल्लमखुल्ला सहजयान का रास्ता पकड़ा।”महापंडित राहुल सांकृत्यायन

“सिद्ध-सामंत युग की कविताओं की सृष्टि आकाश में नहीं हुई है वे हमारे देश की ठोस धरती की उपज हैं। इन कवियों ने जो खास-खास शैली भाव को लेकर कविताएँ की, वे देश की तत्कालीन परिस्थितियों के कारण ही।”  –महापंडित राहुल सांकृत्यायन

“आक्रोश की भाषा का पहला प्रयोग सरहपा में ही दिखाई देता है।“डॉ. बच्चन सिंह

सरहपा की प्रमुख पंक्तियाँ

  1. पंडिअ सअल सत्त बक्खाणइ। देहहि रुद्ध बसंत न जाणइ।

अमणागमण ण तेन विखंडिअ। तो विणिलज्जइ भणइ हउँ पंडिय।।

  1. जहि मन पवन संचरइ, रवि ससि नाहि पवेश।

तहि वत चित्त विसाम करु, सरेहे कहिअ उवेश।।

  1. घोर अधारे चंदमणि जिमि उज्जोअ करेइ।

परम महासुह एषु कणे दुरिअ अशेष हरेइ।।

प्रथम हिन्दी कवि-सिद्ध सरहपा के व्यक्तित्व एवं कृतित्व, जीवन परिचय, रचनाएं, भाषा शैली, 84 सिद्धों के नाम एवं प्रमुख कथन के बारे में जानकारी

स्रोत पुस्तकें

दोहकोश

इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय स्नातकोत्तर (हिंदी)की पाठ्य सामग्री

हिंदी साहित्य का इतिहास- डॉ नगेंद्र

हिंदी साहित्य का दूसरा इतिहास – डॉ बच्चन सिंह

हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली (खंड 3)

इन्हें भी अवश्य पढें-

महाकवि पुष्पदंत

स्वयम्भू

गोरखनाथ

सिद्ध सरहपा

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मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem

मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem

मुस्लिम कवियों में कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem में आसक्त रसखान, रहीम, ताज बीवी, बेगम शीरी, शेख आलम, मौलाना आजाद अजीमाबादी, हजरत नफीस, मिया वाहिद अली, अहमद खां राणा, रशीद, मिया नजीर एवं जफर अली आदि हैं। आज हम जानेंगे मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम के बारे में।

कृष्ण के उदार, चंचल, माखनचोर, छलिया रूप का वर्णन अनगिनत कवियों ने किया है मध्यकालीन सगुण भक्ति के आराध्य देवताओं में भगवान श्री कृष्ण का स्थान सर्वोपरि है।

कन्हैया भारतीय पुराण और इतिहास दोनों में सर्वाधिक वर्णित भी हुए है जो विद्वान महाभारत को इतिहास की घटना मानते है, वे भारतीय इतिहास का सर्वाधिक प्रभावशाली व्यक्ति कृष्ण को ही ठहराते है।(1)

कान्हा के इसी रसिया, छलिया, प्रेमी तथा प्रभावशाली व्यक्तित्व ने ना केवल हिन्दु जाति को अपने मोहपाश में बंद किया वरन् मुस्लिम कवियों ने भी उनकी ‘लाम’ पर मुग्ध हो कर इस्लाम खोया है।

माखनचोर पर अपना सब कुछ वारने वाले ऐसे एक नहीं अनेक कवि हुए है।

मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम
मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम

कृष्ण के रूप सौन्दर्य का जादू केवल राधा रानी या गोपियों के सिर चढ़ कर बोला हो ऐसा नहीं है।

रूप सौन्दर्य और प्रेम पाश तो वो मय है जिसने मुस्लिम देवियों को भी प्रेम रस से सराबोर करके मदमस्त कर दिया है।

कृष्ण की ‘लाम’(2) पर अनेक कवियों ने अपने हृदय हारे है, तो अनेक कवियों ने अपना तन-मन दोनों न्यौछावर किया है।

‘लाम’ ने उनके अनुपम सौन्दर्य में चार चाँद लगाये है तो उनकी इस ‘लाम’ ने मुसलमान कवियों का इस्लाम ही छीन लिया है भूपाल की बेगम शीरी जिन्हें कृष्ण की इस ‘लाम’ ने काफिर बना दिया।

मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem : काफिर बनने की कहानी सुनते है उन्हीं की जुबानी

‘‘काफिर किया मुझको तिरी इस जुल्फ ने काफिर
इस ‘लाम’ ने खोया तिरे, इस्लाम हमारा’’(3)

कृष्ण का रूप माधुर्य शीरी को ऐसा रास आया की वो उसके लिए काफिर हो गई।

ऐसी ही कृष्ण के प्रेम में पगी एक कवयित्री है ताज बेगम

ताज बेगम के बारे में परस्पर अलग-अलग मत प्राप्त होते है आपके 1595(4) में वर्तमान होने का अनुमान है।

इनकी कविताओं में पंजाबी पुट तथा पंजाबी शब्दों की बाहुल्यता को देखते हुए मिश्रबन्धु उन्हें पंजाब अथवा आसपास की स्वीकृत करते हैं।

मिश्र बंधु विनोद में ताज के कई पद भी संकलित है।

एक जनश्रुति के अनुसार ताज दिल्ली की रहने वाली मुगल शहजादी थी।(5)

स्वामी पारसनाथ सरस्वती के आलेख के अनुसार ताज का पूरा नाम ‘ताज बीवी’ था और वे बादशाह शाहजहां की अत्यंत प्रिय बेगम थी लेकिन जितना प्रेम शाहजहाँ ताज से करते थे।

उससे कहीं ज्यादा प्रेम ताज से करती थी उन्होंने लिखा है-

सुनो दिजानी मांडे दिल की कहानी तुम
दस्त ही बिकानी बदनामी भी सहूँगी मैं

देव पूजा ठानी हौ निवाज हूँ भूलानी, तजे
कलमा कुरान सारे गुननि गहूँगी मै।

सांवरा सलोना सिरताज सिर कुल्हे दिये
तेरे नेह दाग में निदाघहै दहूँगी मै

नंद के फरजंद! कुरबान ‘ताज’ सूरत पै
हौ तो तुरकानी हिन्दुआनी है रहूँगी मै(6)

स्वामी पारसनाथ सरस्वती के ‘कल्याण’ में प्रकाशित आलेख में उक्त पद पंजाबी बाहुल्य शब्दावली युक्त प्राप्त होता है।

ताज

श्री बलदेव प्रसाद अग्रवाल के अनुसार ‘ताज’ करौली निवासी थी।

श्री अग्रवाल के अनुसार ताज नहा धोकर मंदिर में भगवान के नित्य दर्शन के पश्चात ही भोजन ग्रहण करती थी।

एक दिन वैष्णवों ने उन्हें मुसलमान होने के कारण विधर्मी मान, मंदिर में दर्शन करने से रोक दिया इससे ताज उस दिन निराहार रह मंदिर के आंगन में ही बैठी रही और कृष्ण के नाम का जाप करती रही।

जब रात हो गई तब ठाकुर जी स्वयं मनुष्य के रूप में, भोजन का थाल लेकर पधारे और कहने लगे तुझे आज थोड़ा सा भी प्रसाद नहीं मिला, ले अब खा।

कल प्रातः काल जब वैष्णव आवें तो उनसे कहना कि तुम लोगों ने मुझे कल ठाकुर जी के दर्शन और प्रसाद का सौभाग्य नहीं दिया।

इससे रात को ठाकुर जी स्वयं मुझे प्रसाद दे गये है और तुम लोगों के लिए संदेश भी दे गये हैं कि ताज को परम वैष्णव समझो।

इसके दर्शन और प्रसाद ग्रहण करने में रुकावट मत डालो।

प्रातःकाल जब वैष्णव आये तब ताज ने सारी घटना कह सुनाई ताज के सामने भोजन का थाल देखकर अत्यन्त चकित हुए वे सभी वैष्णव ताज के पैरों पर गिरकर क्षमा प्रार्थना करने लगे।

तब से ताज मंदिर में पहले दर्शन करती तथा सारे वैष्णव उसके बाद में दर्शन करते।(7)

‘दस्त की बिकानी, बदनामी भी सहूंगी मैं’

‘दस्त की बिकानी, बदनामी भी सहूंगी मैं’ कि घोषणा करने वाली ताज की तुलना मीरा से सहज ही की जा सकती है।

मीरा ने भी ‘लोक-लाज खोई’ कह कर तात्कालिक समाज की मानसिकता को उजागर किया है।

मीरां और ताज दोनों की कन्हैया की प्रेम दीवानी है।

एक ने लोक लाज खोई है तो दुसरी बदनामी सहने को तैयार है परन्तु मीरा को जहां अपनो से प्रताड़ित होना पड़ा है वहीं ताज को पीड़ा देने वाला सारा समाज है।

इसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों शामिल है।

मीरा की पीड़ा शायद इस कारण अधिक है क्योंकि उनको पीड़ा पहुँचाने का काम करने वाले उनके परिवार के ही लोग है।

इसलिए ये कष्ट उनके लिए भारी मानसिक आघात लिये हुए है।

मीरां को केवल परिजनों से ही संघर्ष करना पड़ा परन्तु ताज का संघर्ष मीरां से व्यापक है।

क्योंकि उसे तो घर और बाहर दोनों से संघर्ष करना पड़ा है।

तात्कालिक समाज में जब हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य अपनी चरम सीमा पर था उस समय इस तरह से किसी अन्य धर्म की उपासना करना वास्तव में अंगारों पर चलना था।

परिवार में परिजनों का विरोध और ताने सहना बाहर समाज के कटाक्ष और उपेक्षा का शिकार होना एक स्त्री के लिए कितना भयावह हो सकता है।

उसे तो केवल उसे भोगने वाली वो औरत ही बता सकती है।

कन्हैया के छैल छबीले रूप

ताज के पदों को पढ़ कहीं भी ऐसा आभाष नहीं होता कि उस सामाजिक, धार्मिक, मानसिक प्रताड़ता का रजकणांश भी विपरीत प्रभाव हुआ है।

हाँ ये जरुर कहा जा सकता है कि इस प्रताड़ना से उनका कान्हा के प्रति अनुराग और बढ़ता गया तथा काव्य में निखार आता गया है।

कन्हैया के छैल छबीले रूप पर अपना सब कुछ कुरबान करने वाली ताज उन्हें ही अपना साहब मानती है-
छैल जो छबीला सब रंग में रंगीला बड़ा
चित का अड़ीला सब देवताओं में न्यारा है।
माल गले सोहै, नाक मोती सेत सो है, कान
कुण्डल मनमोहे, मुकुट सीस धारा है।।
दुष्ट जन मारे, संत जन रखवारे ‘ताज’
चित हितवारे प्रेम प्रीतिकार वारा है।
नंन्दजू को प्यारा, जिन कंस को पछारा
वृन्दावन वारा कृष्ण साहेब हमारा है।।

 

ताज के हृदय मे अपने बांके छैल छबीले कृष्ण कन्हैया के लिए कितनी आस्था है।

ये उनके पदो से सहज ही सामने आत है।

अपने प्राण प्यारे नंद दुलारे कृष्ण कन्हैया के प्रेम में बुत परस्ती भी करने को तैयार है।

चित का अड़ीला उनका गोपाल सब देवताओं में न्यारा है जिसके लिए ये मुगलानी हिन्दुआनी हो गई थी।

‘बदनामी भी सहूंगी मैं’ कि घोषणा करने वाली ताज ने वास्तव में कितने कष्ट सहे होंगे इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता है।

मुस्लिम कवियों के राधा-कृष्ण, सीता राम आदि के प्रति प्रेम से उन्हें किन कष्टों को सहन करना पड़ा होता।

इस बात का अनुमान आधुनिक रसखान (जिनका वास्तविक नाम ‘रशीद’ लुप्त हो गया जिनके नाम पर रायबरेली में मार्ग है) के कवि एवं लेखक पुत्र इफ्तिखार अहमद खां ‘राना’ से लेखक आलोचक डाॅ. रामप्रसाद मिश्र की बातचीत से लगाया जा सकता है।

‘राजा’ के अनुसार- उन्हें राम तुलसी प्रेमी होने के कारण कठिनाई होती है। फिर भी रहीम, रसखान, ताज बेगम, नजीर अकबराबादी इत्यादी की परम्परा जीवंत है।(8)

राधा के वल्लभ

जगत के खेवनहार श्रीहरि ने पापी से पापी पर भी अपनी कृपा की है और उन्हें इस संसार सागर से उबारा राधा के वल्लभ ताज के भी वल्लभ प्राण प्यारे प्रियतम हो गये है जो उनको इस संसार की मझधार से पार लगाने वाले है-

ध्रुव से, प्रहलाद, गज, ग्राह से अहिल्या देखि,
सौरी और गीध थौ विभीषन जिन तारे हैं।

पापी अजामील, सूर तुलसी रैदास कहूँ,
नानक, मलूक, ‘ताज’ हरिही के प्यारे हैं।

धनी, नामदेव, दादु सदना कसाई जानि,
गनिका, कबीर, मीरां सेन उर धारे हैं।

जगत की जीवन जहान बीच नाम सुन्यौ,
राधा के वल्लभ, कृष्ण, वल्लभ हमारे हैं।(9)

शेख की कविताओं में भावों की उत्कृष्टता

ताज कृष्ण प्रेम में काफिर होने वाली पहली या आखिरी मुस्लिम औरत नहीं इनके अलावा शेख नामक रंगरेजिन भी है जो कृष्ण की भक्त थी।

ये आलम की पत्नी थी और कपड़े रंगने का काम किया करती थी।

आलम पहले ब्रह्मण थे परन्तु बाद में शेख से प्रेम होने के कारण मुस्लिम हो गये।

हुआ यूं की एक बार आलम ने अपनी पगड़ी शेख को रंगने के लिए दी तो उस पगड़ी के एक छोर मंे एक कागज का टुकड़ा बंधा हुआ था।

जिसमें दोहे का एक चरण लिखा हुआ था शेख ने उसी कागज पर दोहे को पूरा कर दिया और कागज वैसी ही वापिस बांध दिया और रंगी हुई पगड़ी आलम को दे दी।

अपने दोहे की पूर्ति देखकर आलम रंगरेजिन शेख की कला पर मोहित हो गया और दोनों में प्रेम हो गया फलस्वरूप आलम ने इस्लाम कबूल कर लिया शेख और आलम दोनों मिलकर कविताएं करते थे।

 

शेख की कविताओं में भावों की उत्कृष्टता विद्यमान है।

राधारानी जो सौन्दर्य वर्णन शेख ने किया है, उस उत्कृष्टता तक पहुंचने में बड़े बड़े कवि पीछे छूट गये है।

शेख उस अलौकिक अनुपम और शब्दातीत सौन्दर्य का जो शब्द चित्र रचा है वह कदाचित किसी साधारण कवि के वश कि बात नहीं है-

सनिचित चाहे जाकी किंकिनी की झंकार
करत कलासी सोई गति जु विदेह की

शेख भनि आजू है सुफेरि नही काल्ह जैसी
निकसी है राधे की निकाई निधि नेह की

फूल की सी आभा सब सोभा ले सकेलि धरी
फलि ऐहै लाल भूलि जैसे सुधि गेह की

कोटि कवि पचै तऊ बारनिन पावै कवि
बेसरि उतारे छवि बेसरि बेह की(10)

श्रीहरि से सहायता की गुहार

ताज कि तरह ही शेख को भी अपने बंशी बजैया, रास रचैया पार लगैया-कृष्ण कन्हैया पर अटूट विश्वास है कवयित्री श्रीहरि से सहायता की गुहार करती है-

‘सीता सत रखवारे तारा हूँ के गुनतारे
तेरे हित गौतम के तिरियाऊ तरी है

हौ हूं दीनानाथ हौ अनाथ पति साथ बिनु
सुनत अनाधिनि के नाथ सुधि करी है

डोले सुर आसन दुसासन की ओर देखि।
अंचल के ऐंचत उधारी और धरी है।

एक तै अनेक अंग धाई संत सारी संग
तरल तरंग भरी गंग सी है ढरी है।’(11)

सनातन धर्म के प्रति समर्पण : मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem

इस्लाम में अवतारवाद में विश्वास नहीं किया जाता है।

लेकिन उक्त पद में शेख ने कृष्ण को अनेक रूप स्वीकार किये है।

यहां ईश्वर के अनेक रूपों को स्वीकार करने यह सिद्ध हो जाता है कि शेख भले ही मुस्लिम हो लेकिन पूरी तरह से अपने आप को भारतीय मान्यताओं तथा सनातन धर्म के प्रति समर्पित कर लिया है।

चूंकि आलम और शेख रीतिकालीन कवि है इसलिए उनके काव्य पर रीतिकालीन छाप स्पष्ट देखी जा सकती है शेख के मुक्तकों में राधाकृष्ण के प्रेम और विरह के चित्र अधिक प्राप्त होते है।

इन्होंने स्थान-स्थान पर राधा के सौन्दर्य, उनके नाज-नखरे तथा वियोग की स्थिति को चित्रित किया है।

शेख का वर्णन बड़ा ही उम्दा किस्म का है।

 

काव्य के स्थान के अनुसार देखे तो निश्चित रूप से उन्हें उच्च स्थान दिया जा सकता है।

जो कदाचित् कुछ भक्तिकालीन कवियों को भी दुर्लभ है।

ऋतु वर्णन में भी शेख का काव्य उच्च कोटी का है-

‘‘घोर घटा उमड़ी चहूं ओर ते ऐसे में मान न की जे अजानी
तू तो विलम्बति है बिन काज बड़े बूंदन आवत पानी

सेख कहै उठि मोहन पै चलि को सब रात कहोगी कहानी
देखुरी ये ललिता सुलता अब तेऊ तमालन सो लपटानी’’(12)

उच्च कोटी के कवि शेख

शेख की तरह आलम भी उच्च कोटी के कवि थे कविताओं में प्रायः कृष्ण के हर रूप का वर्णन बड़ा ही हृदयहारी बन पड़ा है।

कृष्ण को साधने वाले अनेक कवियों में मौलाना आजाद आजीमाबादी का नाम बड़े आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है।

कृष्ण भक्ति से सराबोर इस कवि को कृष्ण से आगे कृष्ण से अलग कुछ सूझता ही नहीं।

इन्हें कृष्ण की बांसुरी में वो आग नजर आती है जो सारे जहां को रोशन किये हुए है।

ये प्रेम की ठण्डी आग है जिसमें कवि भी जल रहा है।

कन्हैया तो उनके हृदय में बसा हुआ है उसे खोजने के लिए काशी मथुरा जाने की दरकार नहीं है-

‘बजाने वाले के है करिश्में
जो आप है महज बेखुदी में

न राग में है न रंग में है
जो आग है उसकी बांसुरी में है

हुआ न गाफिल रही तलासी
गया न मथुरा गया न काशी

मै क्यों कही की खाक उड़ता
मेरा कन्हैया तो है मुझी में’(13)

रसखान : मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem

रसखान वास्तव में रस की खान है।

कृष्ण की जैसी भक्ति और काव्य रचना रसखान ने की है वह ऊँचाई विरले कवि ही प्राप्त कर सके हैं।

‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ के अनुसार रसखान दिल्ली में निवास करते थे।

उनकी प्रीति एक साहुकार के पुत्र से थी।

उनकी यह आसक्ति वैष्णव भक्तों के प्रोत्साहन से कृष्ण भक्ति में परिवर्तित हो गई।

वैष्णवों द्वारा प्रदत कृष्ण चित्र लिये ये दिल्ली से ब्रज प्रदेश पहुंचे।

कृष्ण दर्शन की लालसा में अनेक मंदिरों की खाक छानते रहे।

अंततः गोविन्द कुण्ड में श्री नाथ जी के मंदिर में भक्त वत्सल भगवान कृष्ण ने इन्हें दर्शन दिये।

तदुपरान्त स्वामी विट्ठलनाथ जी ने अपने मंदिर में रसखान को बुलाया और वहीं वे कृष्ण लीला गान करते हुऐ कृष्ण भक्ति में निष्णात हुए।

इनके जन्म और मृत्यु के बारे में पर्याप्त मतभेद विद्यमान है।

रसखान उस ‘अनिवार’ प्रेम पंथ के यात्री है जो कमल तन्तु से भी कोमल और तलवार की धार से भी तेज जितना ही सीधा उतना ही टेढ़ा है।

 

‘‘कमल तन्तु सौ क्षीणहर कठिन खड़ग को धार
अति सूधो टेढो बहुर प्रेम पंथ अनिवार’’(15)

रसखान प्रेम का सुन्दर विस्तृत चित्रण करते हुए कहते है कि प्रेम वह नहीं है।

जिसमें दो मन मिलते है प्रेम वह है जिसमें दो शरीर एक हो जाए अर्थात् अपना शरीर अपना न होकर कृष्ण का हो जाये और कृष्ण का शरीर अपना हो जाये।

यही प्रेम की परिभाषा रसखान ने दी है-

‘‘दो मन इक होते सुन्यो पै वह प्रेम न आहि
होई जबै इै तन इक सोई प्रेम कहाइ।’’(16)

रसखान का अद्वैत प्रेम

इस प्रकार रसखान ने प्रेम अद्वैत को स्वीकारा है।

जिसमें दो का कोई स्थान नहीं है। आपका कृष्ण प्रेम जगत विख्यात है कृष्ण के प्रेम में रसखान वो सब कुछ बनना चाहते है जिसका संबंध किसी ना किसी रूप में कृष्ण से रहा है।

रसखान का प्रेम निश्छल है निर्विकार है।

जिसमें केवल विशुद्ध अपनापा है लाग लपेट के लिए कोई स्थान नहीं है।

‘‘मानुष हौ तो वही रसखानि, बसौ ब्रज गोकुल गांव के ग्वारन।’’लिखकर रसखान ने अपनी इच्छाओं को जग जाहिर किया है।

जीवन के प्रत्येक रूप में वे श्रीकृष्ण का सामीप्य ही चाहते है।

गोपी बनकर गायों को वन-वन चराना चाहते है।

कृष्ण की मोरपंख का मुकुट और गुंज की माला धारण करना चाहते है।

वो श्री कृष्ण का हर स्वांग कर लेना चाहते है-

‘‘मोर पंख सिर उपर राखिहौ, गुंज की माला गरे पहिरौंगी
ओढि पीताम्बर ले लकुटी बन गोधन ग्वारिन संग फिरोगी

भाव तो ओहि मेरो रसखानि, सो तेरे किये स्वांग करोंगी
या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरान धरौंगी।’’(17)

मौलाना आजाद अजीमाबादी

कृष्ण की जिस बांसुरी में मौलाना आजाद अजीमाबादी को आग नजर आ रही थी।

वही बांसुरी रसखान की गोपियों के लिए सब कामों में बाधा पहुंचाती है।

कही वह सौतन की तरह जी सांसत में लाती है तो गोपिका जल का मटका तक नहीं भर पाती है।

उनके मन में यही होता है कि सारे बांस कट जाये ना रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी

‘‘जल की न घट गरै मग की न पग धरें
घर की न कछु करै बैठी भरै साँसुरी
एकै सुनि लौट गई एकै लोट पोट भई
एक निके दृगन निकसि आये आँसुरी
कहै रसनायक सो ब्रज वनितानि विधि
बधिक कहाये हाय हुई कुल होंसुरी
करिये उपाय बांस डारिये कटाय’’(18)

रसखान का साहित्यिक पक्ष

नहि उपजैगो बाँस नाहि बाजै फेरि बाँसुरी।

रसखान का साहित्यिक पक्ष बहुत ऊँचा है तो इनकी भक्ति भी उच्च कोटि की है।

यकीनन हिन्दी साहित्य का कृष्ण भक्ति काव्य रसखान के बिना अधूरा है।

कृष्ण की बाल लीला वर्णन की तुलना सूर के बाललीला वर्णन से सहज ही की जा सकती है-

धूरी भरे अति सोहत स्याम जू
तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी

खेलत खात फिरे अंगना पग
पैंजनियां कटि पीरी कछौटी

बा छवि को ‘रसखानि’ विलोकति
बारत काम कला निज कोटी

काग के भाग बड़े सजनी
हरि हाथ सौ ले गयो माखन रोटी(19)

धूल से भरे रसखान के बालकृष्ण किसी भी तरह से सूर के बाल गोपाल से कम नहीं है।

सिर पर बनी सुन्दर चोटी बताती है कि सूर के कृष्ण चोटी बढाने के लिए बार-बार दूध पीते है।

अपनी मैया से बार-बार पूछते है- ‘मैया कबहूं बढेगी चोटी पर अजहूं है छोटी’

यह चोटी रसखान तक आते-आते बड़ी हो चुकी है।

उनके सुन्दर रूप पर वे रसखान कामदेव की करोड़ो कलाएं न्यौछावर करने को तैयार है।

रहीम की भाषाशैली : मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem

‘रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून
पानी गये ना ऊबरे मोती मानस चून’’

ऐसा अमर काव्य रचने वाले अब्र्दुरहीम खानखाना बाबर के विश्वस्त साथी और अकबर के संरक्षक बैरम खां के पुत्र थे।

रहीम बहुभाषाविद् थे।

अरबी, फारसी, तुर्की, संस्कृत आदि भाषाओं पर रहीम का अच्छा अधिकार था।

रहीम को साहित्य का जितना ज्ञान था उतने ही कुशल वे सेनानायक भी थे।

उन्होंने कई युद्धों में भाग लिया और विजय प्राप्त की।

हिन्दी साहित्य की अमर निधि माने जाने वाले रहीम के दोहे आम जन में लोकोक्ति की तरह काम में लिये जाते है।

भक्ति और नीति का अमर काव्य रचने वाले रहीम ने युद्धों से समय निकाल कर साहित्य साधना की है।

कहा जाता है कि इनके पास अपार धन था दानी प्रवृत्ति होने के कारण सारा धन समाप्त हो गया।

फलस्वरूप इनका अंतिम समय बड़े कष्ट में बीता अमीरी में साथ देने वाले मित्रों ने मुँह मोड़ लिया लेकिन रहीम को इसका कोई दुःख नहीं था।

 

उन्हें तो बस अपने कृष्ण कन्हैा पर भरोसा था-

‘रहीम को ऊ का करै, ज्वारी चोर लबार
जा के राखनहार है माखन चाखन हार।’(20)

रहीम को जुआरी चोर से कोई भय नहीं है।

उनके रखवाले तो स्वयं माखन चोर कृष्ण है।

रहीम को चकोर रूपी मन रात दिन कृष्ण रूपी चंद्रमा को निहारता है।

उनका मन ठीक उसी तरह से कृष्ण में रम चुका है।

जैसे चकोर का मन चाँद में लगता है-

‘‘तै रहीम मन अपनो कीनो चारो चकोर
निसि बासर लाग्यो रहे कृष्ण चंद की ओर’’(21)

हजरत नफीस

हजरत नफीस को तो कन्हाई की आँखे और मुखड़ा इतना पसंद है कि बस उसे ही देखना चाहते है-

‘कन्हैया की आँखें, हिरण सी नसीली कन्हैया की शोखी, कली-सी रसीली’’

मिया वाहिद अली

मिया वाहिद अली को नंदलाल की ऐसी लगन लगी है कि वे दुनिया छोडने को उतारू है।

कृष्ण की मुस्कान, मुरली की तान, उनकी चाल कंचन की भाल धनुष जैसे सुन्दर नयनों पर वाहिद अपनी लगन लगाये रखना चाहता है-

‘‘सुन्दर सुजान पर मंद मुस्कान पर
बांसुरी की तान पर ठौरन ठगी रहे

मूरति बिसाल पर कंचन की माल पर
खजन सी चाल पर खौरन सजी रहे

भौंहे धनु मैनपर लोने जुग नैन पर
प्रेम भरे बैन पर ‘वाहिद’ पगी रहे

चंचल से तन पर साँवरे बदन पर
नंद के ललन पर लगन लगी रहे।’’(22)

मिया नजीर

आगरा के प्रसिद्ध कवि मिया नजीर का कृष्ण प्रेम बड़ा ही बेनजीर है।

मुरली की धुन ने उनको बेसुध किया।

कान्हा की बाँसुरी की धुन ऐसी है नर-नारी रिसी मुनी सब यह जयहरि जय हरि कह उठे है-

‘‘कितने तो मुरली धुन से हो गये धुनी
कितनों की खुधि बिसर गयी, जिस जिसने धुन सुनी
क्या नर से लेकर नारिया, क्यारिसी और मुनी

तब कहने वाले कह उठे, जय जय हरि हरि
ऐसी बजाई कृष्ण कन्हाइया ने बांसुरी’’(23)

मौलाना जफर अली साहब

सच्चिदानंद स्वरूप श्रीकृष्ण की महिमा, उदारता तथा रूपमाधुरी के वर्णन अगणित मुस्लमान कवियों ने भी किया है।

आधुनिक मुस्लिम कवियों ने भी अनेक ऐसे कवि हुये हैं जिनको श्रीकृष्ण के प्रति अथाह प्रेम है।

अनेक मुसलमान गायक वादक और अभिनेता बिना किसी भेदभाव के कृष्ण के पुजारी है।

पंजाब के मौलाना जफर अली साहब की आरजू भी अब सुन ले-

‘‘अगर कृष्ण की तालीम आम हो जाये
तो काम फितनगारो का तमाम हो जाये

मिट जाये ब्राह्मण और शेख का झगड़ा
जमाना दोनो घरों का गुलाम हो जाये

विदेशी की लड़ाई की छज्जी उड़ जाए
जहाँ पर तेग दुदुम का तमाम हो जाये

वतन की खाक से जर्रा बन जाए चांद
बुलंद इस कदर उसका मुकाम हो जाये

है इस तराने में बांसुरी की गूंज
खुदा करे वह मकबूल आम हो जाए’’(24)

अंततः

कृष्ण भक्ति में रमने वाले ये कवि तो कुछ उदाहरण मात्र है।

इनके अलावा ऐसे सैकड़ों कवि और कवयित्रियां है जिन्होंने कृष्ण से प्रेम किया है।

हिन्दी साहित्य के खजाने में अपना हिस्सा दान किया है।

ऐसे लेखक और कवि वर्तमान संकीर्ण और धार्मिक उन्माद के वातावरण में समन्वय स्थापित करने का काम करते है।

इन कवियों ने बिना किसी लाग लपेट के कृष्ण को अपना आराध्य माना है।

उन्मुक्त भाव से कृष्ण भक्ति करके धार्मिक सहिष्णुता का परिचय दिया है।

आधुनिक हिन्दी साहित्य के जनक भारतेन्दु हरिश्चंद्र का यह कथन उचित प्रतीत होता है कि- ‘‘इन मुस्लमान हरिजजन पै कोटिक हिन्दु वारियै’’

संदर्भ ग्रंथ-

(1)हिन्दी साहित्य का इतिहास, संपादक- डाॅ. नगेन्द्र, प्रकाशक-मयूर पेपर बेक्स, नोएडा
(2)‘लाम’ (ل ) उर्दू का एक अक्षर होता है। जिसकी शक्ल इस प्रकार होती है की पहले एक सीधी खड़ी लकीर खींचकर उसके नीचे के सीरे को बांये तरफ गोलाई के साथ उपर थोड़ा ले जाकर छोड़ दिया जाता है। उसकी शक्ल लगभग बालों की लटों (ل ) की जैसी हो जाती है।
(3)मुस्लिम कवियों का कृष्ण काव्य, बलदेव प्रसाद अग्रवाल, प्रकाशक- बलदेव प्रसाद अग्रवाल एंड संस अजमेर
(4)शिव सिंह सरोज के अनुसार 1652 वि., मिश्र बंधु विनोद के देवीप्रसाद द्वारा अनुमानित 1700 वि. (1643 ई.) का उल्लेख मिलता है।
(5)सानुबंध- मासिक उन्नाव, दिस. 1987 ई. के अंक में बनवारीलाल वैश्य कृत लेख ‘ताज का कृष्णानुराग’

(6)गीताप्रेस-गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण’पत्रिका का अंक भाग संख्या 28 (www.ramkumarsingh.com से प्राप्त आलेख के अनुसार)
(7)मुस्लिम कवियों का कृष्णकाव्य- बलदेव प्रसाद अग्रवाल एंड संस, अजमेर
(8)हिन्दी साहित्य का वस्तुनिष्ठ इतिहास- डाॅ. रामप्रसाद मिश्र, प्रकाशक- सतसाहित्य भंडार, नई दिल्ली।
(9)मुस्लिम कवियों का कृष्णकाव्य- बलदेव प्रसाद अग्रवाल, प्रकाशक- बलदेव प्रसाद अग्रवाल एण्ड संस, अजमेर।
(10)वही
(11)वही
(12)वही
(13)मुस्लिम कवियों की कृष्ण भक्ति- स्वामी पारसनाथ तिवाड़ी, कल्याण पत्रिका, गीताप्रेस गोरखपुर
(14)दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता
(15)रसखान रचनावली- विद्यानिवास मिश्र, प्रकाशक- वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली
(16)वही
(17)वही
(18)वही
(19)वही
(20)हिन्दी साहित्य का वस्तुनिष्ठ इतिहास- डाॅ. रामप्रसाद मिश्र, सतसाहित्य भंडार, नई दिल्ली।
(21)वही
(22)स्वामी पारसनाथ सरस्वती- कल्याण पत्रिका, गीताप्रेस गोरखपुर
(23)वही
(24)वही

हाइकु (Haiku) कविता

संख्यात्मक गूढार्थक शब्द

मुसलिम कवियों का कृष्णानुराग

श्री सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या के मतानुसार प्रांतीय भाषाओं और बोलियों का महत्व

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