रसखान के जीवन परिचय, जीवनी और संपूर्ण साहित्य, सवैया, कवित्त, सोरठे, दोहे एवं विशेष तथ्यों पर इस आलेख में प्रकाश डाला गया है।
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जीवनी
पूरा नाम- सैय्यद इब्राहीम (रसखान)
जन्म- सन् 1533 से 1558 बीच (लगभग)
जन्म भूमि- पिहानी, हरदोई ज़िला, उत्तर प्रदेश
कर्म भूमि- महावन (मथुरा)
मृत्यु- सन् 1628 के आसपास
विषय- सगुण कृष्णभक्ति नोट:- हिंदी कृष्ण भक्त मुस्लिम कवियों में रसखान का स्थान सबसे ऊपर है।
रसखान जीवनी और साहित्य
रचनाएं
रसखान जीवनी, संपूर्ण साहित्य, सवैया, कवित्त, सोरठे, दोहे एवं विशेष तथ्यों पर इस आलेख में प्रकाश डाला गया है।
सुजान रसखान- स्फुट पदो का संग्रह है, जिसमे 181 सवैये, 17 कवित्त, 12 दोहे तथा 4 सोरठे है|
प्रेमवाटिका- इसमें 53 दोहे है|
दानलीला- इसमे 11 दोहे है|
अष्टयाम
रसखान : जीवनी और साहित्य
विशेष तथ्य
शिवसिंह सरोज तथा हिंदी साहित्य के प्रथम इतिहास तथा ऐतिहासिक तथ्यों एवं अन्य पुष्ट प्रमाणों के आधार पर रसखान की जन्म-भूमि पिहानी ज़िला हरदोई माना जाए।
अब्राहम जार्ज ग्रियर्सन ने लिखा है सैयद इब्राहीम उपनाम रसखान कवि, हरदोई ज़िले के अंतर्गत पिहानी के रहने वाले, जन्म काल 1573 ई.।
यह पहले मुसलमान थे। बाद में वैष्णव होकर ब्रज में रहने लगे थे। इनका वर्णन ‘भक्तमाल’ में है।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने जिन मुस्लिम हरिभक्तों के लिये कहा था, “इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिन्दू वारिए” उनमें रसखान का नाम सर्वोपरि है।
जन्म- स्थान तथा जन्म काल की तरह रसखान के नाम एवं उपनाम के संबंध में भी अनेक मत प्रस्तुत किए गए हैं।
हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने अपनी पुस्तक में रसखान के दो नाम लिखे हैं:- सैय्यद इब्राहिम और सुजान रसखान, जबकि सुजान रसखान की एक रचना का नाम है। हालांकि रसखान का असली नाम सैयद इब्राहिम था और “खान’ उसकी उपाधि थी।
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गोरखनाथ Gorakhnath का जीवन परिचय, रचनाएं, जन्म के बारे में विभिन्न मत, गोरखनाथ के बारे में साहित्यकारों के विभिन्न मत एवं गोरखनाथ जी की उक्तियाँ आदि की जानकारी।
परिचय
सिद्ध संप्रदाय का विकसित और परिवर्तित रूप ही नाथ संप्रदाय है। ‘नाथ’ शब्द के अनेक अर्थ है, शैव मत के विकास के बाद ‘नाथ’ शब्द शिव के लिए प्रयुक्त होने लगा। नाथ संप्रदाय में इस शब्द की जो व्याख्या की गई है उसके अनुसार ‘ना’ का अर्थ है ‘अनादिरूप’ तथा ‘थ’ का अर्थ है ‘स्थापित होना’। एक अन्य मत के अनुसार नाथ शब्द की व्याख्या की गई है, जिसमें ‘नाथ’ शब्द ‘मुक्तिदान’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
ना- नाथ ब्रह्म (जो मोक्ष देता है)
थ – स्थापित करना (अज्ञान के सामर्थ्य को स्थापित करना)
नाथ – जो ज्ञान को दूर कर मुक्त दिलाता है।
नाथपंथी शिवोपासक हैं, और अपनी साधना में तंत्र मंत्र एवं योग को महत्त्व देते हैं, इसलिए इन्हें योगी भी कहा जाता है। माना जाता है कि नाथ पंथ सहजयान का विकसित रूप है। विकास परंपरा में भी नाथों का स्थान सिद्धों के बाद ही आता है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार नाथों का समय नौवीं शताब्दी का मध्य है। उनके मत से अधिकतर विद्वान सहमत भी हैं।
विद्वानों ने मत्स्येंद्रनाथ का काल नौवीं शती का अंतिम चरण तथा गोरखनाथ का समय है।
दसवीं शती स्वीकार किया है, जबकि अन्य नाथों की प्रवृत्ति सीमा 12वीं 13वीं शताब्दी मानी जाती है।
नाथों की संख्या नौ मानी जाती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार अभी लोग नवनाथ और चौरासी सिद्ध कहते सुने जाते हैं।
नौ नाथो में आदिनाथ (शिव), मत्स्येंद्रनाथ (मच्छिंद्रनाथ), गोरखनाथ, चर्पटनाथ, चौरंगीनाथ आदि प्रमुख है।
नाथ एक विशेष वेशभूषा धारण करते थे जिसमें मेखला, शृंगी, गूदड़ी, खप्पर, कर्णमुद्रा, झोला आदि होते थे।
यह कान चीरकर कुंडल पहनते थे, इसलिए कनफटा योगी कहलाते थे।
नाथ पंथ के प्रवर्तक आदिनाथ या स्वयं शिव माने जाते हैं।
उनके शिष्य मत्स्येंद्रनाथ और इनके शिष्य गोरखनाथ थे।
यह पहले बौद्ध थे, बाद में नाथपंथी हो गए और योग मार्ग चलाया।जिसे हठयोग के नाम से जाना जाता है।
हठयोगियों के सिद्ध सिद्धांत पद्धति ग्रंथ के अनुसार-
ह- सूर्य
ठ – चंद्रमा
हठयोग – सूर्य और चंद्रमा का संयोग।
हठयोग की साधना शरीर पर आधारित है। कुंडलिनी को जगाने के लिए आसन, मुद्रा, प्राणायाम और समाधि का सहारा लिया जाता है।
गोरखनाथ का जीवन परिचय (गोरखनाथ जीवन परिचय एवं रचनाएं)
व्यक्तित्व एवं कृतित्व
जन्म एवं जन्म स्थान
गोरक्षनाथ की उत्पत्ति के दो रुप में मिलते हैं। व्यक्तित्व के रुप में गोरक्षनाथ शिवावतार है।
महाकाल योग शास्त्र में शिव ने स्वयं स्वीकार किया है कि मै ‘योगमार्ग का प्रचारक गोरक्ष हूँ।
हठयोग प्रदीपिका में उल्लेख है कि स्वयं आदिनाथ शिव ने योग-मार्ग के प्रचार हेतु गोरक्ष का रुप लिया था।
‘गोरक्ष सिद्धान्त संग्रह मे गोरखनाथ को ईश्वर की संतान के रूप में संबोधित किया गया है।
बंगीय काव्य ‘गोरक्ष-विजय’ के अनुसार गोरखनाथ आदिनाथ शिव की जटाओं से प्रकट हुए थे।
नेपाल दरबार ग्रंथालय से प्राप्त गोरक्ष सहस्रनाम के अनुसार गोरखनाथ दक्षिण मे बड़ब नामक देश में महामन्त्र के प्रसाद से उत्पन्न हुए थे।
तहकीकाक चिश्ती नामक पुस्तक से प्राप्त वर्णन के अनुसार शिव के एक भक्त ने सन्तानोत्पत्ति की इच्छा से शिव-धूनी से भस्म प्राप्त कर अपनी पत्नी को ग्रहण करने के लिए दिया पर लोक-लज्जा के भय से उस स्त्री ने उस भस्म को फेंक दिया। चामत्कारिक रूप से उसी स्थान पर एक हष्ट-पुष्ट बालक उत्पन्न हुआ। शिव ने उसका नाम गोरक्ष रखा। वर्तमान समय में भी गोरक्षनाथ को नाथ योगी लोग शिव-गोरक्ष के रुप में ही मान्यता देते है।
‘योग सम्प्रदाय विष्कृति’ के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ ने एक सच्चरित्र धर्मनिष्ट निस्संतान ब्राह्मण दंपत्ति को पुत्र प्राप्ति की इच्छा से भस्म प्रदान की, इसी भस्म से गोरखनाथ उत्पन्न हुए। गोरखनाथ के जन्म स्थान के सम्बन्ध में पर्याप्त मतभेद है।
महार्थमंजरी के त्रिवेन्द्रम संस्करण से ज्ञात होता है कि वे चोल देश के निवासी थे उनके पिता का नाम माधव और गुरु का नाम महाप्रकाश था।
अवध की परम्परा में गोरक्षनाथ जायस नगर के एक पवित्र ब्राह्मण कुल में उत्पन्न माने जाते हैं।
विभिन्न मतानुसार
ब्रिग्स ने गोरक्ष को पंजाब का मूल निवासी बताया है।
ग्रियर्सन ने उनका पश्चिमी हिमालय का निवासी होना स्वीकार किया है
डॉ० मोहन सिंह पेशावर के निकट रावलपिंडी जिले के एक ग्राम ‘गोरखपुर’ को उनकी मातृभूमि बताते है।
डा० रांगेय राघव का मत है कि गोरखनाथ का जन्मस्थान पेशावर का उत्तर-पश्चिमी पंजाब है।
पं० परशुराम चतुर्वेदी का अनुमान है कि गोरख का जन्म पश्चिमी भारत अथवा पंजाब प्रांत के किसी स्थान में हुआ था और उनका कार्य-क्षेत्र नेपाल, उत्तरी भारत आसाम, महाराष्ट्र एवं सिन्ध तक फैला हुआ था।
नेपाल पुस्तकालय से उपलब्ध ग्रन्थ योग सम्प्रदाय विष्कृति के अनुसार गोरक्ष की जन्मभूमि गोदावरी नदी के तट पर स्थित ‘चन्द्रगिरि’ नामक स्थान है।
डॉ० अशोक प्रभाकर का मत है कि महाराष्ट्र मे त्रियादेश की स्थापना बताकर तथा नाथ पंथ की कुछ गुफाओं व प्रतीकों को आधार बनाकर गोरखनाथ की जन्मभूमि महाराष्ट्र में स्थित ‘चन्द्रगिरि’ को बताते है।
अक्षय कुमार बनर्जी का मत है कि मत्स्येन्द्र गोरक्ष आदि ने सर्वप्रथम हिमालय प्रदेश-नेपाल, तिब्बत आदि देशों में अपनी योग साधना आरम्भ की और सम्भवतः इन्हीं स्थानो में वे प्रथम देव सदृश पूजे गये उनका स्थान देवाधिदेव पशुपतिनाथ शिव को छोड़कर अन्य सभी देवताओं से ऊँचा था।
तिब्बत व नेपाल के क्षेत्र से ही योग साधना का आन्दोलन पूर्व में कामरूप (आसाम) बंगाल, मनीपुर तथा निकटवर्ती क्षेत्रों में फैला। पश्चिम में कश्मीर, पंजाब पश्चिमोत्तर प्रदेश, यहाँ तक कि काबुल और फारस तक पहुँचा उत्तर प्रदेश हिमालय के समीप होने के कारण अधिक प्रभावित हुआ। दक्षिण पश्चिम और दक्षिण पूर्व में भी गोरखनाथ तथा अन्यान्न नाथ योगियों की शिक्षाएं तथा उनके चमत्कार की कथाएँ पुष्प की सुगंध की तरह चहूँ ओर बिखर गयीं।
गोरखनाथ के जन्म के समय के बारे में निश्चित नहीं कहा जा सकता है-
गोरखनाथ का समय डॉ राहुल सांकृत्यायन ने 845 ईस्वी माना है।
डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी उन्हें नवी शताब्दी का मानते हैं।
डॉ पीतांबरदत्त बड़थ्वाल ने 11वीं शताब्दी का स्वीकार करते हैं।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल तथा डॉ रामकुमार वर्मा इन्हें 13वीं शताब्दी का मानते हैं।
आधुनिक खोजों के अनुसार गोरखनाथ ने ईसा की तेरहवीं सदी के आरंभ में अपना साहित्य लिखा था।
गोरखनाथ की रचनाएं (गोरखनाथ जीवन परिचय एवं रचनाएं)
इनके ग्रंथों की संख्या 40 मानी जाती है, परंतु डॉ पीतांबर दत्त बड़थ्वाल ने इनकी 14 रचनाओं को प्रमाणिक मानकर गोरखवाणी नाम से उनका संपादन किया है। डॉ बड़थ्वाल द्वारा संपादित पुस्तकों की सूची इस प्रकार है– (1) शब्द, (2) पद, (3) शिष्या दर्शन. (4) प्राणसंकली. (5) नरवैबोध, (6) आत्मबोध, (7) अभयमुद्रा योग, (8) पंद्रह तिथि, (9) सप्तवार, (10) मछिन्द्र गोरखबोध, (11) रोमावली, (12) ज्ञान तिलक, (13) ज्ञान चौतीसा, (14) पंचमात्रा।
मिश्र बंधु
डॉ बड़थ्वाल के अतिरिक्त मिश्र बंधुओं ने गोरखनाथ के 9 संस्कृत ग्रंथों का परिचय दिया है– (1) गोरक्षशतक, (2) चतुरशीत्यासन, (3) ज्ञानामृत, (4) योगचिन्तामणि, (5) योग महिला, (6) योग मार्तण्ड, (7) योग सिद्धांत पद्धति, (8) विवेक मार्तण्ड (9) सिद्ध-सिद्धान्त पद्धति
ने गोरखनाथ 28 ग्रंथों की का उल्लेख किया है, द्विवेदी जी ने लिखा है कि उन पुस्तकों में अधिकांश के रचयिता गोरखनाथ नहीं थे–1.अमनस्कयोग 2. अमरौधशासनम् 3. अवधूत गीता 4. गोरक्ष कल्प 5. गोरक्षकौमुदी 6. गोरक्ष गीता 7. गोरक्ष चिकित्सा 8. गोरक्षपंचय 9. गोरक्षपद्धति 10. गोरक्षशतक 11. गोरक्ष शास्त्र 12.गोरक्ष संहिता 13. चतुरशीत्यासन 14. ज्ञान प्रकाश 15. ज्ञान शतक 16. ज्ञानामृत योग 17. नाड़ीज्ञान प्रदीपिका 18. महार्थ मंजरी 19. योगचिन्तामणि 20. योग मार्तण्ड 21.योगबीज 22. योगशास्त्र 23. योगसिद्धांत पद्धति 24. विवेक मार्तण्ड 25. श्रीनाथ-सूत्र 26. सिद्ध-सिद्धान्तपद्धति 27. हठयोग 28. हठ संहिता।
डॉ० नागेन्द्रनाथ उपाध्याय
ने गोरखनाथ के 15 ग्रंथो की सूची प्रस्तुत की है लेकिन इनकी प्रामाणिकता संदिग्ध है- 1. अमरौधशासनम् 2. अवधूत गीता 3. गोरक्ष गीता 4.गोरक्षशतक 5. विवेक मार्तण्ड 6. महार्थमंजरी 7. सिद्ध-सिद्धान्त पद्धति 8. चतुरशीत्यासन् 9. ज्ञानामृत 10. योग महिमा 11. योग-सिद्धान्त पद्धति 12. गोरक्ष कथा 13. गोरक्ष सहस्रनाम 14. गोरक्षपिष्टिका 15. योगबीज
“शंकराचार्य के बाद इतना प्रभावशाली और इतना महिमान्वित भारतवर्ष में दूसरा नहीं हुआ। भारतवर्ष के कोने-कोने में उनके अनुयायो आज भी पाये जाते हैं। भक्ति आन्दोलन के पूर्व सबसे शक्तिशाली धार्मिक आन्दोलन गोरखनाथ का भक्ति मार्ग हो था। गोरखनाथ अपने युग के सबसे बड़े नेता थे” – आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
“गोरख जगायो जोग भक्ति भगाए लोग” – तुलसीदास
अन्य महत्वपूर्ण तथ्य
1 नाथ साहित्य के प्रारंभ करता गोरखनाथ थे।
2 गोरखनाथ के गुरु का नाम मत्स्येंद्रनाथ था।
3 हिंदी साहित्य में षट्चक्र वाला योग मार्ग गोरखनाथ ने चलाया।
4 मिश्रबंधुओं ने गोरखनाथ को हिंदी का प्रथम गद्य लेखक माना है।
स्रोत –
इग्नू स्नातकोत्तर (हिंदी) पाठ्य सामग्री
हिंदी साहित्य का इतिहास – डॉ नगेंद्र
नाथ संप्रदाय – डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी
गोरक्षनाथ और उनका युग – डॉ रांगेय राघव
अमनस्क योग – श्री योगीनाथ स्वामी
नाथ संप्रदाय का इतिहास दर्शन एवं साधना प्रणाली – डॉ कल्याणी मलिक
गोरक्षनाथ एंड कनफटा योगीज – ब्रिग्स
योगवाणी फरवरी 1977
नाथ और संत साहित्य तुलनात्मक अध्ययन – डॉ नागेंद्रनाथ उपाध्याय
गोरखनाथ का जीवन परिचय, रचनाएं, जन्म के बारे में विभिन्न मत, गोरखनाथ के बारे में साहित्यकारों के विभिन्न मत एवं गोरखनाथ जी की उक्तियाँ आदि की जानकारी।
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मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem
मुस्लिम कवियों में कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem में आसक्त रसखान, रहीम, ताज बीवी, बेगम शीरी, शेख आलम, मौलाना आजाद अजीमाबादी, हजरत नफीस, मिया वाहिद अली, अहमद खां राणा, रशीद, मिया नजीर एवं जफर अली आदि हैं। आज हम जानेंगे मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम के बारे में।
कृष्ण के उदार, चंचल, माखनचोर, छलिया रूप का वर्णन अनगिनत कवियों ने किया है मध्यकालीन सगुण भक्ति के आराध्य देवताओं में भगवान श्री कृष्ण का स्थान सर्वोपरि है।
कन्हैया भारतीय पुराण और इतिहास दोनों में सर्वाधिक वर्णित भी हुए है जो विद्वान महाभारत को इतिहास की घटना मानते है, वे भारतीय इतिहास का सर्वाधिक प्रभावशाली व्यक्ति कृष्ण को ही ठहराते है।(1)
कान्हा के इसी रसिया, छलिया, प्रेमी तथा प्रभावशाली व्यक्तित्व ने ना केवल हिन्दु जाति को अपने मोहपाश में बंद किया वरन् मुस्लिम कवियों ने भी उनकी ‘लाम’ पर मुग्ध हो कर इस्लाम खोया है।
माखनचोर पर अपना सब कुछ वारने वाले ऐसे एक नहीं अनेक कवि हुए है।
कृष्ण के रूप सौन्दर्य का जादू केवल राधा रानी या गोपियों के सिर चढ़ कर बोला हो ऐसा नहीं है।
रूप सौन्दर्य और प्रेम पाश तो वो मय है जिसने मुस्लिम देवियों को भी प्रेम रस से सराबोर करके मदमस्त कर दिया है।
कृष्ण की ‘लाम’(2) पर अनेक कवियों ने अपने हृदय हारे है, तो अनेक कवियों ने अपना तन-मन दोनों न्यौछावर किया है।
‘लाम’ ने उनके अनुपम सौन्दर्य में चार चाँद लगाये है तो उनकी इस ‘लाम’ ने मुसलमान कवियों का इस्लाम ही छीन लिया है भूपाल की बेगम शीरी जिन्हें कृष्ण की इस ‘लाम’ ने काफिर बना दिया।
मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem : काफिर बनने की कहानी सुनते है उन्हीं की जुबानी
‘‘काफिर किया मुझको तिरी इस जुल्फ ने काफिर इस ‘लाम’ ने खोया तिरे, इस्लाम हमारा’’(3)
कृष्ण का रूप माधुर्य शीरी को ऐसा रास आया की वो उसके लिए काफिर हो गई।
ऐसी ही कृष्ण के प्रेम में पगी एक कवयित्री है ताज बेगम।
ताज बेगम के बारे में परस्पर अलग-अलग मत प्राप्त होते है आपके 1595(4) में वर्तमान होने का अनुमान है।
इनकी कविताओं में पंजाबी पुट तथा पंजाबी शब्दों की बाहुल्यता को देखते हुए मिश्रबन्धु उन्हें पंजाब अथवा आसपास की स्वीकृत करते हैं।
मिश्र बंधु विनोद में ताज के कई पद भी संकलित है।
एक जनश्रुति के अनुसार ताज दिल्ली की रहने वाली मुगल शहजादी थी।(5)
स्वामी पारसनाथ सरस्वती के आलेख के अनुसार ताज का पूरा नाम ‘ताज बीवी’ था और वे बादशाह शाहजहां की अत्यंत प्रिय बेगम थी लेकिन जितना प्रेम शाहजहाँ ताज से करते थे।
उससे कहीं ज्यादा प्रेम ताज से करती थी उन्होंने लिखा है-
सुनो दिजानी मांडे दिल की कहानी तुम दस्त ही बिकानी बदनामी भी सहूँगी मैं
देव पूजा ठानी हौ निवाज हूँ भूलानी, तजे कलमा कुरान सारे गुननि गहूँगी मै।
नंद के फरजंद! कुरबान ‘ताज’ सूरत पै हौ तो तुरकानी हिन्दुआनी है रहूँगी मै(6)
स्वामी पारसनाथ सरस्वती के ‘कल्याण’ में प्रकाशित आलेख में उक्त पद पंजाबी बाहुल्य शब्दावली युक्त प्राप्त होता है।
ताज
श्री बलदेव प्रसाद अग्रवाल के अनुसार ‘ताज’ करौली निवासी थी।
श्री अग्रवाल के अनुसार ताज नहा धोकर मंदिर में भगवान के नित्य दर्शन के पश्चात ही भोजन ग्रहण करती थी।
एक दिन वैष्णवों ने उन्हें मुसलमान होने के कारण विधर्मी मान, मंदिर में दर्शन करने से रोक दिया इससे ताज उस दिन निराहार रह मंदिर के आंगन में ही बैठी रही और कृष्ण के नाम का जाप करती रही।
जब रात हो गई तब ठाकुर जी स्वयं मनुष्य के रूप में, भोजन का थाल लेकर पधारे और कहने लगे तुझे आज थोड़ा सा भी प्रसाद नहीं मिला, ले अब खा।
कल प्रातः काल जब वैष्णव आवें तो उनसे कहना कि तुम लोगों ने मुझे कल ठाकुर जी के दर्शन और प्रसाद का सौभाग्य नहीं दिया।
इससे रात को ठाकुर जी स्वयं मुझे प्रसाद दे गये है और तुम लोगों के लिए संदेश भी दे गये हैं कि ताज को परम वैष्णव समझो।
इसके दर्शन और प्रसाद ग्रहण करने में रुकावट मत डालो।
प्रातःकाल जब वैष्णव आये तब ताज ने सारी घटना कह सुनाई ताज के सामने भोजन का थाल देखकर अत्यन्त चकित हुए वे सभी वैष्णव ताज के पैरों पर गिरकर क्षमा प्रार्थना करने लगे।
तब से ताज मंदिर में पहले दर्शन करती तथा सारे वैष्णव उसके बाद में दर्शन करते।(7)
‘दस्त की बिकानी, बदनामी भी सहूंगी मैं’
‘दस्त की बिकानी, बदनामी भी सहूंगी मैं’ कि घोषणा करने वाली ताज की तुलना मीरा से सहज ही की जा सकती है।
मीरा ने भी ‘लोक-लाज खोई’ कह कर तात्कालिक समाज की मानसिकता को उजागर किया है।
मीरां और ताज दोनों की कन्हैया की प्रेम दीवानी है।
एक ने लोक लाज खोई है तो दुसरी बदनामी सहने को तैयार है परन्तु मीरा को जहां अपनो से प्रताड़ित होना पड़ा है वहीं ताज को पीड़ा देने वाला सारा समाज है।
इसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों शामिल है।
मीरा की पीड़ा शायद इस कारण अधिक है क्योंकि उनको पीड़ा पहुँचाने का काम करने वाले उनके परिवार के ही लोग है।
इसलिए ये कष्ट उनके लिए भारी मानसिक आघात लिये हुए है।
मीरां को केवल परिजनों से ही संघर्ष करना पड़ा परन्तु ताज का संघर्ष मीरां से व्यापक है।
क्योंकि उसे तो घर और बाहर दोनों से संघर्ष करना पड़ा है।
तात्कालिक समाज में जब हिन्दू-मुस्लिम वैमनस्य अपनी चरम सीमा पर था उस समय इस तरह से किसी अन्य धर्म की उपासना करना वास्तव में अंगारों पर चलना था।
परिवार में परिजनों का विरोध और ताने सहना बाहर समाज के कटाक्ष और उपेक्षा का शिकार होना एक स्त्री के लिए कितना भयावह हो सकता है।
उसे तो केवल उसे भोगने वाली वो औरत ही बता सकती है।
कन्हैया के छैल छबीले रूप
ताज के पदों को पढ़ कहीं भी ऐसा आभाष नहीं होता कि उस सामाजिक, धार्मिक, मानसिक प्रताड़ता का रजकणांश भी विपरीत प्रभाव हुआ है।
हाँ ये जरुर कहा जा सकता है कि इस प्रताड़ना से उनका कान्हा के प्रति अनुराग और बढ़ता गया तथा काव्य में निखार आता गया है।
कन्हैया के छैल छबीले रूप पर अपना सब कुछ कुरबान करने वाली ताज उन्हें ही अपना साहब मानती है- छैल जो छबीला सब रंग में रंगीला बड़ा चित का अड़ीला सब देवताओं में न्यारा है। माल गले सोहै, नाक मोती सेत सो है, कान कुण्डल मनमोहे, मुकुट सीस धारा है।। दुष्ट जन मारे, संत जन रखवारे ‘ताज’ चित हितवारे प्रेम प्रीतिकार वारा है। नंन्दजू को प्यारा, जिन कंस को पछारा वृन्दावन वारा कृष्ण साहेब हमारा है।।
ताज के हृदय मे अपने बांके छैल छबीले कृष्ण कन्हैया के लिए कितनी आस्था है।
ये उनके पदो से सहज ही सामने आत है।
अपने प्राण प्यारे नंद दुलारे कृष्ण कन्हैया के प्रेम में बुत परस्ती भी करने को तैयार है।
चित का अड़ीला उनका गोपाल सब देवताओं में न्यारा है जिसके लिए ये मुगलानी हिन्दुआनी हो गई थी।
‘बदनामी भी सहूंगी मैं’ कि घोषणा करने वाली ताज ने वास्तव में कितने कष्ट सहे होंगे इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता है।
मुस्लिम कवियों के राधा-कृष्ण, सीता राम आदि के प्रति प्रेम से उन्हें किन कष्टों को सहन करना पड़ा होता।
इस बात का अनुमान आधुनिक रसखान (जिनका वास्तविक नाम ‘रशीद’ लुप्त हो गया जिनके नाम पर रायबरेली में मार्ग है) के कवि एवं लेखक पुत्र इफ्तिखार अहमद खां ‘राना’ से लेखक आलोचक डाॅ. रामप्रसाद मिश्र की बातचीत से लगाया जा सकता है।
‘राजा’ के अनुसार- उन्हें राम तुलसी प्रेमी होने के कारण कठिनाई होती है। फिर भी रहीम, रसखान, ताज बेगम, नजीर अकबराबादी इत्यादी की परम्परा जीवंत है।(8)
राधा के वल्लभ
जगत के खेवनहार श्रीहरि ने पापी से पापी पर भी अपनी कृपा की है और उन्हें इस संसार सागर से उबारा राधा के वल्लभ ताज के भी वल्लभ प्राण प्यारे प्रियतम हो गये है जो उनको इस संसार की मझधार से पार लगाने वाले है-
ध्रुव से, प्रहलाद, गज, ग्राह से अहिल्या देखि, सौरी और गीध थौ विभीषन जिन तारे हैं।
पापी अजामील, सूर तुलसी रैदास कहूँ, नानक, मलूक, ‘ताज’ हरिही के प्यारे हैं।
जगत की जीवन जहान बीच नाम सुन्यौ, राधा के वल्लभ, कृष्ण, वल्लभ हमारे हैं।(9)
शेख की कविताओं में भावों की उत्कृष्टता
ताज कृष्ण प्रेम में काफिर होने वाली पहली या आखिरी मुस्लिम औरत नहीं इनके अलावा शेख नामक रंगरेजिन भी है जो कृष्ण की भक्त थी।
ये आलम की पत्नी थी और कपड़े रंगने का काम किया करती थी।
आलम पहले ब्रह्मण थे परन्तु बाद में शेख से प्रेम होने के कारण मुस्लिम हो गये।
हुआ यूं की एक बार आलम ने अपनी पगड़ी शेख को रंगने के लिए दी तो उस पगड़ी के एक छोर मंे एक कागज का टुकड़ा बंधा हुआ था।
जिसमें दोहे का एक चरण लिखा हुआ था शेख ने उसी कागज पर दोहे को पूरा कर दिया और कागज वैसी ही वापिस बांध दिया और रंगी हुई पगड़ी आलम को दे दी।
अपने दोहे की पूर्ति देखकर आलम रंगरेजिन शेख की कला पर मोहित हो गया और दोनों में प्रेम हो गया फलस्वरूप आलम ने इस्लाम कबूल कर लिया शेख और आलम दोनों मिलकर कविताएं करते थे।
शेख की कविताओं में भावों की उत्कृष्टता विद्यमान है।
राधारानी जो सौन्दर्य वर्णन शेख ने किया है, उस उत्कृष्टता तक पहुंचने में बड़े बड़े कवि पीछे छूट गये है।
शेख उस अलौकिक अनुपम और शब्दातीत सौन्दर्य का जो शब्द चित्र रचा है वह कदाचित किसी साधारण कवि के वश कि बात नहीं है-
सनिचित चाहे जाकी किंकिनी की झंकार करत कलासी सोई गति जु विदेह की
शेख भनि आजू है सुफेरि नही काल्ह जैसी निकसी है राधे की निकाई निधि नेह की
फूल की सी आभा सब सोभा ले सकेलि धरी फलि ऐहै लाल भूलि जैसे सुधि गेह की
कोटि कवि पचै तऊ बारनिन पावै कवि बेसरि उतारे छवि बेसरि बेह की(10)
श्रीहरि से सहायता की गुहार
ताज कि तरह ही शेख को भी अपने बंशी बजैया, रास रचैया पार लगैया-कृष्ण कन्हैया पर अटूट विश्वास है कवयित्री श्रीहरि से सहायता की गुहार करती है-
‘सीता सत रखवारे तारा हूँ के गुनतारे तेरे हित गौतम के तिरियाऊ तरी है
हौ हूं दीनानाथ हौ अनाथ पति साथ बिनु सुनत अनाधिनि के नाथ सुधि करी है
डोले सुर आसन दुसासन की ओर देखि। अंचल के ऐंचत उधारी और धरी है।
एक तै अनेक अंग धाई संत सारी संग तरल तरंग भरी गंग सी है ढरी है।’(11)
सनातन धर्म के प्रति समर्पण : मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem
इस्लाम में अवतारवाद में विश्वास नहीं किया जाता है।
लेकिन उक्त पद में शेख ने कृष्ण को अनेक रूप स्वीकार किये है।
यहां ईश्वर के अनेक रूपों को स्वीकार करने यह सिद्ध हो जाता है कि शेख भले ही मुस्लिम हो लेकिन पूरी तरह से अपने आप को भारतीय मान्यताओं तथा सनातन धर्म के प्रति समर्पित कर लिया है।
चूंकि आलम और शेख रीतिकालीन कवि है इसलिए उनके काव्य पर रीतिकालीन छाप स्पष्ट देखी जा सकती है शेख के मुक्तकों में राधाकृष्ण के प्रेम और विरह के चित्र अधिक प्राप्त होते है।
इन्होंने स्थान-स्थान पर राधा के सौन्दर्य, उनके नाज-नखरे तथा वियोग की स्थिति को चित्रित किया है।
शेख का वर्णन बड़ा ही उम्दा किस्म का है।
काव्य के स्थान के अनुसार देखे तो निश्चित रूप से उन्हें उच्च स्थान दिया जा सकता है।
जो कदाचित् कुछ भक्तिकालीन कवियों को भी दुर्लभ है।
ऋतु वर्णन में भी शेख का काव्य उच्च कोटी का है-
‘‘घोर घटा उमड़ी चहूं ओर ते ऐसे में मान न की जे अजानी तू तो विलम्बति है बिन काज बड़े बूंदन आवत पानी
सेख कहै उठि मोहन पै चलि को सब रात कहोगी कहानी देखुरी ये ललिता सुलता अब तेऊ तमालन सो लपटानी’’(12)
उच्च कोटी के कवि शेख
शेख की तरह आलम भी उच्च कोटी के कवि थे कविताओं में प्रायः कृष्ण के हर रूप का वर्णन बड़ा ही हृदयहारी बन पड़ा है।
कृष्ण को साधने वाले अनेक कवियों में मौलाना आजाद आजीमाबादी का नाम बड़े आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है।
कृष्ण भक्ति से सराबोर इस कवि को कृष्ण से आगे कृष्ण से अलग कुछ सूझता ही नहीं।
इन्हें कृष्ण की बांसुरी में वो आग नजर आती है जो सारे जहां को रोशन किये हुए है।
ये प्रेम की ठण्डी आग है जिसमें कवि भी जल रहा है।
कन्हैया तो उनके हृदय में बसा हुआ है उसे खोजने के लिए काशी मथुरा जाने की दरकार नहीं है-
‘बजाने वाले के है करिश्में जो आप है महज बेखुदी में
न राग में है न रंग में है जो आग है उसकी बांसुरी में है
हुआ न गाफिल रही तलासी गया न मथुरा गया न काशी
मै क्यों कही की खाक उड़ता मेरा कन्हैया तो है मुझी में’(13)
रसखान : मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem
कृष्ण की जैसी भक्ति और काव्य रचना रसखान ने की है वह ऊँचाई विरले कवि ही प्राप्त कर सके हैं।
‘दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता’ के अनुसार रसखान दिल्ली में निवास करते थे।
उनकी प्रीति एक साहुकार के पुत्र से थी।
उनकी यह आसक्ति वैष्णव भक्तों के प्रोत्साहन से कृष्ण भक्ति में परिवर्तित हो गई।
वैष्णवों द्वारा प्रदत कृष्ण चित्र लिये ये दिल्ली से ब्रज प्रदेश पहुंचे।
कृष्ण दर्शन की लालसा में अनेक मंदिरों की खाक छानते रहे।
अंततः गोविन्द कुण्ड में श्री नाथ जी के मंदिर में भक्त वत्सल भगवान कृष्ण ने इन्हें दर्शन दिये।
तदुपरान्त स्वामी विट्ठलनाथ जी ने अपने मंदिर में रसखान को बुलाया और वहीं वे कृष्ण लीला गान करते हुऐ कृष्ण भक्ति में निष्णात हुए।
इनके जन्म और मृत्यु के बारे में पर्याप्त मतभेद विद्यमान है।
रसखान उस ‘अनिवार’ प्रेम पंथ के यात्री है जो कमल तन्तु से भी कोमल और तलवार की धार से भी तेज जितना ही सीधा उतना ही टेढ़ा है।
‘‘कमल तन्तु सौ क्षीणहर कठिन खड़ग को धार अति सूधो टेढो बहुर प्रेम पंथ अनिवार’’(15)
रसखान प्रेम का सुन्दर विस्तृत चित्रण करते हुए कहते है कि प्रेम वह नहीं है।
जिसमें दो मन मिलते है प्रेम वह है जिसमें दो शरीर एक हो जाए अर्थात् अपना शरीर अपना न होकर कृष्ण का हो जाये और कृष्ण का शरीर अपना हो जाये।
यही प्रेम की परिभाषा रसखान ने दी है-
‘‘दो मन इक होते सुन्यो पै वह प्रेम न आहि होई जबै इै तन इक सोई प्रेम कहाइ।’’(16)
रसखान का अद्वैत प्रेम
इस प्रकार रसखान ने प्रेम अद्वैत को स्वीकारा है।
जिसमें दो का कोई स्थान नहीं है। आपका कृष्ण प्रेम जगत विख्यात है कृष्ण के प्रेम में रसखान वो सब कुछ बनना चाहते है जिसका संबंध किसी ना किसी रूप में कृष्ण से रहा है।
रसखान का प्रेम निश्छल है निर्विकार है।
जिसमें केवल विशुद्ध अपनापा है लाग लपेट के लिए कोई स्थान नहीं है।
‘‘मानुष हौ तो वही रसखानि, बसौ ब्रज गोकुल गांव के ग्वारन।’’लिखकर रसखान ने अपनी इच्छाओं को जग जाहिर किया है।
जीवन के प्रत्येक रूप में वे श्रीकृष्ण का सामीप्य ही चाहते है।
गोपी बनकर गायों को वन-वन चराना चाहते है।
कृष्ण की मोरपंख का मुकुट और गुंज की माला धारण करना चाहते है।
वो श्री कृष्ण का हर स्वांग कर लेना चाहते है-
‘‘मोर पंख सिर उपर राखिहौ, गुंज की माला गरे पहिरौंगी ओढि पीताम्बर ले लकुटी बन गोधन ग्वारिन संग फिरोगी
भाव तो ओहि मेरो रसखानि, सो तेरे किये स्वांग करोंगी या मुरली मुरलीधर की अधरान धरी अधरान धरौंगी।’’(17)
मौलाना आजाद अजीमाबादी
कृष्ण की जिस बांसुरी में मौलाना आजाद अजीमाबादी को आग नजर आ रही थी।
वही बांसुरी रसखान की गोपियों के लिए सब कामों में बाधा पहुंचाती है।
कही वह सौतन की तरह जी सांसत में लाती है तो गोपिका जल का मटका तक नहीं भर पाती है।
उनके मन में यही होता है कि सारे बांस कट जाये ना रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी
‘‘जल की न घट गरै मग की न पग धरें घर की न कछु करै बैठी भरै साँसुरी एकै सुनि लौट गई एकै लोट पोट भई एक निके दृगन निकसि आये आँसुरी कहै रसनायक सो ब्रज वनितानि विधि बधिक कहाये हाय हुई कुल होंसुरी करिये उपाय बांस डारिये कटाय’’(18)
रसखान का साहित्यिक पक्ष
नहि उपजैगो बाँस नाहि बाजै फेरि बाँसुरी।
रसखान का साहित्यिक पक्ष बहुत ऊँचा है तो इनकी भक्ति भी उच्च कोटि की है।
यकीनन हिन्दी साहित्य का कृष्ण भक्ति काव्य रसखान के बिना अधूरा है।
कृष्ण की बाल लीला वर्णन की तुलना सूर के बाललीला वर्णन से सहज ही की जा सकती है-
धूरी भरे अति सोहत स्याम जू तैसी बनी सिर सुन्दर चोटी
खेलत खात फिरे अंगना पग पैंजनियां कटि पीरी कछौटी
बा छवि को ‘रसखानि’ विलोकति बारत काम कला निज कोटी
काग के भाग बड़े सजनी हरि हाथ सौ ले गयो माखन रोटी(19)
धूल से भरे रसखान के बालकृष्ण किसी भी तरह से सूर के बाल गोपाल से कम नहीं है।
सिर पर बनी सुन्दर चोटी बताती है कि सूर के कृष्ण चोटी बढाने के लिए बार-बार दूध पीते है।
अपनी मैया से बार-बार पूछते है- ‘मैया कबहूं बढेगी चोटी पर अजहूं है छोटी’।
यह चोटी रसखान तक आते-आते बड़ी हो चुकी है।
उनके सुन्दर रूप पर वे रसखान कामदेव की करोड़ो कलाएं न्यौछावर करने को तैयार है।
रहीम की भाषाशैली : मुस्लिम कवियों का कृष्ण-प्रेम Muslim Kaviyon ka Krishan Prem
‘रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून पानी गये ना ऊबरे मोती मानस चून’’
ऐसा अमर काव्य रचने वाले अब्र्दुरहीम खानखाना बाबर के विश्वस्त साथी और अकबर के संरक्षक बैरम खां के पुत्र थे।
रहीम बहुभाषाविद् थे।
अरबी, फारसी, तुर्की, संस्कृत आदि भाषाओं पर रहीम का अच्छा अधिकार था।
रहीम को साहित्य का जितना ज्ञान था उतने ही कुशल वे सेनानायक भी थे।
उन्होंने कई युद्धों में भाग लिया और विजय प्राप्त की।
हिन्दी साहित्य की अमर निधि माने जाने वाले रहीम के दोहे आम जन में लोकोक्ति की तरह काम में लिये जाते है।
भक्ति और नीति का अमर काव्य रचने वाले रहीम ने युद्धों से समय निकाल कर साहित्य साधना की है।
कहा जाता है कि इनके पास अपार धन था दानी प्रवृत्ति होने के कारण सारा धन समाप्त हो गया।
फलस्वरूप इनका अंतिम समय बड़े कष्ट में बीता अमीरी में साथ देने वाले मित्रों ने मुँह मोड़ लिया लेकिन रहीम को इसका कोई दुःख नहीं था।
उन्हें तो बस अपने कृष्ण कन्हैा पर भरोसा था-
‘रहीम को ऊ का करै, ज्वारी चोर लबार जा के राखनहार है माखन चाखन हार।’(20)
रहीम को जुआरी चोर से कोई भय नहीं है।
उनके रखवाले तो स्वयं माखन चोर कृष्ण है।
रहीम को चकोर रूपी मन रात दिन कृष्ण रूपी चंद्रमा को निहारता है।
उनका मन ठीक उसी तरह से कृष्ण में रम चुका है।
जैसे चकोर का मन चाँद में लगता है-
‘‘तै रहीम मन अपनो कीनो चारो चकोर निसि बासर लाग्यो रहे कृष्ण चंद की ओर’’(21)
हजरत नफीस
हजरत नफीस को तो कन्हाई की आँखे और मुखड़ा इतना पसंद है कि बस उसे ही देखना चाहते है-
‘कन्हैया की आँखें, हिरण सी नसीली कन्हैया की शोखी, कली-सी रसीली’’
मिया वाहिद अली
मिया वाहिद अली को नंदलाल की ऐसी लगन लगी है कि वे दुनिया छोडने को उतारू है।
कृष्ण की मुस्कान, मुरली की तान, उनकी चाल कंचन की भाल धनुष जैसे सुन्दर नयनों पर वाहिद अपनी लगन लगाये रखना चाहता है-
‘‘सुन्दर सुजान पर मंद मुस्कान पर बांसुरी की तान पर ठौरन ठगी रहे
मूरति बिसाल पर कंचन की माल पर खजन सी चाल पर खौरन सजी रहे
भौंहे धनु मैनपर लोने जुग नैन पर प्रेम भरे बैन पर ‘वाहिद’ पगी रहे
चंचल से तन पर साँवरे बदन पर नंद के ललन पर लगन लगी रहे।’’(22)
मिया नजीर
आगरा के प्रसिद्ध कवि मिया नजीर का कृष्ण प्रेम बड़ा ही बेनजीर है।
मुरली की धुन ने उनको बेसुध किया।
कान्हा की बाँसुरी की धुन ऐसी है नर-नारी रिसी मुनी सब यह जयहरि जय हरि कह उठे है-
‘‘कितने तो मुरली धुन से हो गये धुनी कितनों की खुधि बिसर गयी, जिस जिसने धुन सुनी क्या नर से लेकर नारिया, क्यारिसी और मुनी
तब कहने वाले कह उठे, जय जय हरि हरि ऐसी बजाई कृष्ण कन्हाइया ने बांसुरी’’(23)
मौलाना जफर अली साहब
सच्चिदानंद स्वरूप श्रीकृष्ण की महिमा, उदारता तथा रूपमाधुरी के वर्णन अगणित मुस्लमान कवियों ने भी किया है।
आधुनिक मुस्लिम कवियों ने भी अनेक ऐसे कवि हुये हैं जिनको श्रीकृष्ण के प्रति अथाह प्रेम है।
अनेक मुसलमान गायक वादक और अभिनेता बिना किसी भेदभाव के कृष्ण के पुजारी है।
पंजाब के मौलाना जफर अली साहब की आरजू भी अब सुन ले-
‘‘अगर कृष्ण की तालीम आम हो जाये तो काम फितनगारो का तमाम हो जाये
मिट जाये ब्राह्मण और शेख का झगड़ा जमाना दोनो घरों का गुलाम हो जाये
विदेशी की लड़ाई की छज्जी उड़ जाए जहाँ पर तेग दुदुम का तमाम हो जाये
वतन की खाक से जर्रा बन जाए चांद बुलंद इस कदर उसका मुकाम हो जाये
है इस तराने में बांसुरी की गूंज खुदा करे वह मकबूल आम हो जाए’’(24)
अंततः
कृष्ण भक्ति में रमने वाले ये कवि तो कुछ उदाहरण मात्र है।
इनके अलावा ऐसे सैकड़ों कवि और कवयित्रियां है जिन्होंने कृष्ण से प्रेम किया है।
हिन्दी साहित्य के खजाने में अपना हिस्सा दान किया है।
ऐसे लेखक और कवि वर्तमान संकीर्ण और धार्मिक उन्माद के वातावरण में समन्वय स्थापित करने का काम करते है।
इन कवियों ने बिना किसी लाग लपेट के कृष्ण को अपना आराध्य माना है।
उन्मुक्त भाव से कृष्ण भक्ति करके धार्मिक सहिष्णुता का परिचय दिया है।
आधुनिक हिन्दी साहित्य के जनक भारतेन्दु हरिश्चंद्र का यह कथन उचित प्रतीत होता है कि- ‘‘इन मुस्लमान हरिजजन पै कोटिक हिन्दु वारियै’’
संदर्भ ग्रंथ-
(1)हिन्दी साहित्य का इतिहास, संपादक- डाॅ. नगेन्द्र, प्रकाशक-मयूर पेपर बेक्स, नोएडा (2)‘लाम’ (ل ) उर्दू का एक अक्षर होता है। जिसकी शक्ल इस प्रकार होती है की पहले एक सीधी खड़ी लकीर खींचकर उसके नीचे के सीरे को बांये तरफ गोलाई के साथ उपर थोड़ा ले जाकर छोड़ दिया जाता है। उसकी शक्ल लगभग बालों की लटों (ل ) की जैसी हो जाती है। (3)मुस्लिम कवियों का कृष्ण काव्य, बलदेव प्रसाद अग्रवाल, प्रकाशक- बलदेव प्रसाद अग्रवाल एंड संस अजमेर (4)शिव सिंह सरोज के अनुसार 1652 वि., मिश्र बंधु विनोद के देवीप्रसाद द्वारा अनुमानित 1700 वि. (1643 ई.) का उल्लेख मिलता है। (5)सानुबंध- मासिक उन्नाव, दिस. 1987 ई. के अंक में बनवारीलाल वैश्य कृत लेख ‘ताज का कृष्णानुराग’
(6)गीताप्रेस-गोरखपुर से प्रकाशित ‘कल्याण’पत्रिका का अंक भाग संख्या 28 (www.ramkumarsingh.com से प्राप्त आलेख के अनुसार) (7)मुस्लिम कवियों का कृष्णकाव्य- बलदेव प्रसाद अग्रवाल एंड संस, अजमेर (8)हिन्दी साहित्य का वस्तुनिष्ठ इतिहास- डाॅ. रामप्रसाद मिश्र, प्रकाशक- सतसाहित्य भंडार, नई दिल्ली। (9)मुस्लिम कवियों का कृष्णकाव्य- बलदेव प्रसाद अग्रवाल, प्रकाशक- बलदेव प्रसाद अग्रवाल एण्ड संस, अजमेर। (10)वही (11)वही (12)वही (13)मुस्लिम कवियों की कृष्ण भक्ति- स्वामी पारसनाथ तिवाड़ी, कल्याण पत्रिका, गीताप्रेस गोरखपुर (14)दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता (15)रसखान रचनावली- विद्यानिवास मिश्र, प्रकाशक- वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली (16)वही (17)वही (18)वही (19)वही (20)हिन्दी साहित्य का वस्तुनिष्ठ इतिहास- डाॅ. रामप्रसाद मिश्र, सतसाहित्य भंडार, नई दिल्ली। (21)वही (22)स्वामी पारसनाथ सरस्वती- कल्याण पत्रिका, गीताप्रेस गोरखपुर (23)वही (24)वही