रसखान के जीवन परिचय, जीवनी और संपूर्ण साहित्य, सवैया, कवित्त, सोरठे, दोहे एवं विशेष तथ्यों पर इस आलेख में प्रकाश डाला गया है।
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जीवनी
पूरा नाम- सैय्यद इब्राहीम (रसखान)
जन्म- सन् 1533 से 1558 बीच (लगभग)
जन्म भूमि- पिहानी, हरदोई ज़िला, उत्तर प्रदेश
कर्म भूमि- महावन (मथुरा)
मृत्यु- सन् 1628 के आसपास
विषय- सगुण कृष्णभक्ति नोट:- हिंदी कृष्ण भक्त मुस्लिम कवियों में रसखान का स्थान सबसे ऊपर है।
रसखान जीवनी और साहित्य
रचनाएं
रसखान जीवनी, संपूर्ण साहित्य, सवैया, कवित्त, सोरठे, दोहे एवं विशेष तथ्यों पर इस आलेख में प्रकाश डाला गया है।
सुजान रसखान- स्फुट पदो का संग्रह है, जिसमे 181 सवैये, 17 कवित्त, 12 दोहे तथा 4 सोरठे है|
प्रेमवाटिका- इसमें 53 दोहे है|
दानलीला- इसमे 11 दोहे है|
अष्टयाम
रसखान : जीवनी और साहित्य
विशेष तथ्य
शिवसिंह सरोज तथा हिंदी साहित्य के प्रथम इतिहास तथा ऐतिहासिक तथ्यों एवं अन्य पुष्ट प्रमाणों के आधार पर रसखान की जन्म-भूमि पिहानी ज़िला हरदोई माना जाए।
अब्राहम जार्ज ग्रियर्सन ने लिखा है सैयद इब्राहीम उपनाम रसखान कवि, हरदोई ज़िले के अंतर्गत पिहानी के रहने वाले, जन्म काल 1573 ई.।
यह पहले मुसलमान थे। बाद में वैष्णव होकर ब्रज में रहने लगे थे। इनका वर्णन ‘भक्तमाल’ में है।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने जिन मुस्लिम हरिभक्तों के लिये कहा था, “इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिन्दू वारिए” उनमें रसखान का नाम सर्वोपरि है।
जन्म- स्थान तथा जन्म काल की तरह रसखान के नाम एवं उपनाम के संबंध में भी अनेक मत प्रस्तुत किए गए हैं।
हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने अपनी पुस्तक में रसखान के दो नाम लिखे हैं:- सैय्यद इब्राहिम और सुजान रसखान, जबकि सुजान रसखान की एक रचना का नाम है। हालांकि रसखान का असली नाम सैयद इब्राहिम था और “खान’ उसकी उपाधि थी।
रसखान के जीवन परिचय, साहित्य, संपूर्ण साहित्य, सवैया, कवित्त, सोरठे, दोहे एवं विशेष तथ्यों पर इस आलेख में प्रकाश डाला गया है।
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सरदार वल्लभ भाई पटेल, जीवनी, योगदान, शिक्षा, स्टेच्यू आॅफ यूनिटी, भारत का एकीकरण एवं स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदारी आदि पूरी जानकारी।
सरदार सरदार वल्लभ भाई पटेल का जन्म 31 अक्टूबर 1875 गुजरात के नाडियाद जिले के करमसद गाँव में एक किसान परिवार में हुआ था।
उनके पिता का नाम झवेर भाई और माता का नाम लाडबा देवी था।
सरदार पटेल अपने तीन भाई बहनों में सबसे छोटे और चौथे नंबर पर थे।
सरदार वल्लभ भाई पटेल : शिक्षा
पटेल जी की प्रारंभिक शिक्षा नादियाड में हुई।
प्रारंभिक शिक्षा समाप्त करने के बाद आप बड़ौदा के हाई स्कूल में अध्ययन करने के लिए आये।
विद्यालय में सरदार पटेल पढ़ाई-लिखाई में एक औसत दर्जे के छात्र थे।
मैट्रिक में वह बिल्कुल साधारण छात्रों की तरह ही पास हुए।
इससे आगे की शिक्षा दिला पाना उनके पिता के लिए संभव नहीं था इसलिए मैट्रिक पास कर लेने के बाद वल्लभभाई ने अपने बूते पर कुछ करने का सोचा और गोधरा में मुख्तारी का काम शुरू कर दिया।
वह बैरिस्टर बनना चाहते थे।
किन्तु जब तक समय और परिस्थितियाँ अनुकूल न हों, तब तक के लिए उन्होंने प्रतीक्षा करना उचित समझा।
कुछ दिनों तक गोधरा में मुख्तारी करने के बाद वल्लभभाई बोरसद चले आए और फ़ौजदारी मुकदमों में वकालत करने लगे जहां उन्हें अत्यधिक सफलता मिली।
उन्होंने इतना धन एकत्र कर लिया कि विलायत जा सकते थे।
उन्होंने पहले अपने बड़े भाई को विलायत भेजा।
उनके लौटने के बाद यह स्वयं विलायत गये और उस समय पर अपनी बैरिस्टर की पढ़ाई पूरी कर भारत लौट आए।
सरदार वल्लभ भाई पटेल : स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदारी
पहले पहल सरदार पटेल ने महात्मा गांधी की अहिंसा की नीति को बेकार की बातें मानते थे,
परंतु गांधी जी से मिलने के बाद उनसे प्रेरित होकर स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया था।
पहले पहल गोधरा में एक राजनीतिक सम्मेलन में बेगार प्रथा को हटाने के सम्बन्ध में गाँधीजी और पटेल का साथ हुआ था।
बेगार प्रथा को हटाने के लिए एक समिति बनाई गयी थी।
उस कमेटी के मंत्री वल्लभभाई चुने गये थे पटेल ने कुछ दिनों में बेगार प्रथा को समाप्त करवा दिया।
खेड़ा आन्दोलन
1918 में खेड़ा क्षेत्र सूखे की चपेट में था और वहां के किसानों ने अंग्रेजी सरकार से कर में राहत देने की मांग की।
पर अंग्रेज सरकार ने इस मांग को स्वीकार नहीं किया, तो सरदार पटेल, महात्मा गांधी और अन्य लोगों ने किसानों का नेतृत्व किया और उन्हें कर न देने के लिए प्ररित किया।
अंत में सरकार को झुकना पड़ा और किसानों को कर में राहत दे दी गई।
सरदार की उपाधि
सरदार पटेल को सरदार नाम, बारडोली सत्याग्रह के दौरान मिला, एक बार वल्लभभाई ने अपनी ओर संकेत करते हुए कहा था “बारडोली में केवल एक ही सरदार है, उसकी आज्ञा का पालन सब लोग करते हैं।”
बात सच थी, फिर भी कहीं मजाक में कही गयी थी।
तब से ही वह सरदार कहलाने लगे। यह उपनाम उनके नाम के साथ सदा के लिए जुड़ गया।
योगदान
असहयोग आंदोलन के समय उन्होंने अपने बच्चों को सरकारी स्कूल से निकाल लिया।
उन्होंने गुजरात विद्यापीठ की स्थापना की और इसके लिए दस लाख रुपये भी एकत्रित किए।
1922 में गांधी जी को 6 साल की जेल हो गयी। गांधीजी की अनुपस्थिति में गुजरात में पटेल जी ने ही राजनीतिक आंदोलन का संचालन किया। 930 में राजनीतिक कारणों से सरदार पटेल को गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें तीस महीने की सजा हुई।
कांग्रेस के अध्यक्ष
जेल से बाहर आते ही, 1931 में, भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के कराची अधिवेशन में, पटेल अध्यक्ष चुने गए।
बोरसद के सत्याग्रह और नागपुर के झंडा सत्याग्रह में उन्हें अपार सफलता प्राप्त हुई।
भारत का एकीकरण
स्वतंत्रता के समय भारत में लगभग 600 (562) देसी रियासतें थीं।
इनका क्षेत्रफल भारत का 40 प्रतिशत था।
देश की आजादी के साथ ही ये रियासतें भी अंग्रेजों से आजाद हो गई और अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखना चाहती थी।
सरदार पटेल और वीपी मेनन के समझाने बुझाने के परिणामस्वरूप तीन को छोडकर शेष सभी राजवाडों ने स्वेच्छा से भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
केवल जम्मू एवं कश्मीर, जूनागढ तथा हैदराबाद स्टेट के राजाओं ने ऐसा करना नहीं स्वीकारा।
जूनागढ सौराष्ट्र के पास एक छोटी रियासत थी और चारों ओर से भारतीय भूमि से घिरी थी।
वह पाकिस्तान के समीप नहीं थी।
वहाँ के नवाब ने 15 अगस्त 1947 को पाकिस्तान में विलय की घोषणा कर दी।
राज्य की अधिकांश जनता हिंदू थी और भारत विलय चाहती थी।
नवाब के विरुद्ध बहुत विरोध हुआ तो भारतीय सेना जूनागढ़ में प्रवेश कर गयी।
नवाब भागकर पाकिस्तान चला गया और 9 नवम्बर 1947 को जूनागढ भारत में मिल गया।
फरवरी 1948 में वहाँ जनमत संग्रह कराया गया, जो भारत में विलय के पक्ष में रहा।
हैदराबाद भारत की सबसे बड़ी रियासत थी, जो चारों ओर से भारतीय भूमि से घिरी थी।
वहाँ के निजाम ने पाकिस्तान के प्रोत्साहन से स्वतंत्र राज्य का दावा किया और अपनी सेना बढ़ाने लगा।
वह ढेर सारे हथियार आयात करता रहा। पटेल चिंतित हो उठे।
अन्ततः भारतीय सेना 13 सितंबर 1948 को हैदराबाद में प्रवेश कर गयी।
तीन दिनों के बाद निजाम ने आत्मसमर्पण कर दिया और नवंबर 1948 में भारत में विलय का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
अनुच्छेद 370 और 35(अ) समाप्त
नेहरू ने काश्मीर को यह कहकर अपने पास रख लिया कि यह समस्या एक अन्तरराष्ट्रीय समस्या है।
कश्मीर समस्या को संयुक्त राष्ट्रसंघ में ले गये और अलगाववादी ताकतों के कारण कश्मीर की समस्या दिनोदिन बढ़ती गयी।
अंततोगत्वा 5 अगस्त 2019 को प्रधानमंत्री मोदी जी और गृहमंत्री अमित शाह जी के प्रयास से कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाला अनुच्छेद 370 और 35(अ) समाप्त हुआ।
कश्मीर भारत का अभिन्न अंग बन गया और सरदार पटेल का भारत को अखण्ड बनाने का स्वप्न साकार हुआ।
31 अक्टूबर 2019 को जम्मू-कश्मीर तथा लद्दाख के रूप में दो केन्द्र शासित प्रेदश अस्तित्व में आये।
अब जम्मू-कश्मीर केन्द्र के अधीन रहेगा और भारत के सभी कानून वहाँ लागू होंगे।
पटेल जी को कृतज्ञ राष्ट्र की यह सच्ची श्रद्धांजलि है।
आजादी के बाद ज्यादातर प्रांतीय समितियां सरदार पटेल के पक्ष में थीं।
गांधी जी की इच्छा थी, इसलिए सरदार पटेल ने खुद को प्रधानमंत्री पद की दौड़ से दूर रखा और जवाहर लाल नेहरू को समर्थन दिया।
दो अगस्त 1946 को पहली बार केंद्र में बनी लोकप्रिय सरकार में उन्हें गृहमंत्री और सूचना विभाग के मंत्री बनाया गया।
स्वतंत्रता के बाद उन्हें पहले की भांति गृह और सूचना विभाग में मंत्री बनाया गया तथा उपप्रधानमंत्री का पद सौंपा गया, जिसके बाद उनकी पहली प्राथमिकता देसी रियासतों तो भारत में शामिल करना था।
सरदार वल्लभ भाई पटेल : भारत का लौह पुरूष, भारत का बिस्मार्क और बर्फ से ढका हुआ ज्वालामुखी
आजादी के समय ऐसी लगभग 600 रियासतें थी इस कार्य को उन्होंने बगैर किसी बड़े लड़ाई झगड़े के किया।
परंतु हैदराबाद के ऑपरेशन पोलो के लिए सेना भेजनी पड़ी।
चूंकि भारत के एकीकरण में सरदार पटेल का योगदान अत्यंत महत्त्वपूर्ण था, इसलिए उन्हें भारत का लौह पुरूष और भारत का बिस्मार्क कहा गया।
सरदार पटेल शक्ति के पुंज थे। विपत्ति के सामने उनके इरादे चट्टान की भांति अजय हो जाते थे।
मौलाना शौकत अली ने उन्हें बर्फ से ढका हुआ ज्वालामुखी कहा है।
उनके लिए इससे अच्छी दूसरी उपमा ढूंढ पाना कठिन है।
15 दिसंबर 1950 को लौहपुरुष सदा के लिए चिरनिद्रा में सो गये।
सरदार वल्लभ भाई पटेल का सम्मान
अहमदाबाद के हवाई अड्डे का नामकरण सरदार वल्लभभाई पटेल अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र रखा गया है।
गुजरात के वल्लभ विद्यानगर में सरदार पटेल विश्वविद्यालय
सन 1991 में मरणोपरान्त भारत रत्न से सम्मानित
भारत के राजनीतिक एकीकरण के लिए सरदार वल्लभ भाई पटेल के योगदान को चिरस्थाई बनाए रखने के लिए उनके जनमतिथि 31 अक्टूबर को राष्ट्रीय एकता दिवस में मनाया जाता है।
इसका आरम्भ भारत के प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने सन 2014 में किया।
इसी दिन को राष्ट्रीय अखंडता दिवस के रूप में भी मनाया जाता है।
इस दिन राष्ट्रीय एकता के लिए ‘रन फॉर यूनिटी’ का संपूर्ण देश में आयोजन किया जाता है।
स्टैच्यू ऑफ यूनिटी
240 मीटर ऊँची इस प्रतिमा का आधार 58 मीटर का है।
मूर्ति की ऊँचाई 182 मीटर है, जो स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी से लगभग दोगुनी ऊँची है।
31 अक्टूबर 2013 को सरदार पटेल की 137वीं जयंती के अवसर पर गुजरात के तात्कालिक मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गुजरात के नर्मदा जिले में सरदार पटेल के एक नए स्मारक का शिलान्यास किया।
यहाँ लौहे से निर्मित सरदार वल्लभ भाई पटेल की एक विशाल प्रतिमा लगाने का निश्चय किया गया, अतः इस स्मारक का नाम ‘एकता की मूर्ति’ (स्टैच्यू ऑफ यूनिटी) रखा गया है।
यह प्रतिमा को एक छोटे चट्टानी द्वीप ‘साधू बेट’ पर स्थापित किया गया है जो केवाडिया में सरदार सरोवर बांध के सामने नर्मदा नदी के बीच स्थित है।
2018 में तैयार इस प्रतिमा को प्रधानमंत्री मोदी जी ने 31 अक्टूबर 2018 को राष्ट्र को समर्पित किया।
यह प्रतिमा 5 वर्षों में लगभग 3000 करोड़ रुपये की लागत से तैयार हुई है।
ऐसे थे अपने देश के लौहपुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल।
सरदार वल्लभ भाई पटेल, जीवनी, योगदान, शिक्षा, स्टेच्यू आॅफ यूनिटी, भारत का एकीकरण एवं स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदारी आदि पूरी जानकारी।
डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम APJ Abdul Kalaam | जीवन परिचय | Biography | चर्चित पुस्तकें | Books | मिसाइल मैन | World Student Day |
मिसाइल मैन, भारत रत्न, भारत के प्रथम नागरिक (राष्ट्रपति), परमाणु वैज्ञानिक, शिक्षाविद्, विद्यार्थी, आदि कई विरुदों से विभूषित डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम APJ Abdul Kalam (डॉ अवुल पाकिर जैनुलआब्दीन अब्दुल कलाम) भारतीय गणतंत्र के 11वें राष्ट्रपति थे। इन सबके बावूजद भी कलाम ने स्वयं को हमेशा एक ‘लर्नर’ ही माना।
प्रारंभिक जीवन : डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम
राष्ट्रपति बनने तक के सफर में इन्होंने खूब परिश्रम किया। बचपन में पढ़ाई करने के लिए अखबार भी बांटे और अन्य काम भी किये।
अबुल पाकिर जैनुलआब्दीन अब्दुल कलाम का जन्म तमिलनाडु के धनुषकोडी (रामेश्वरम) शहर में 15 अक्टूबर 1931 को हुआ।
उनके पिता जैनुलाब्दीन संयुक्त परिवार में रहते थे।
इनके पाँच बटे पाँच बेटियां थी। जिस घर में इनका परिवार रहता था उसमें तीन परिवार रहते थे।
कलाम के पिता की आर्थिक हालत ठीक नहीं थी।
वे मछुआरों को नाव किराए पर देते थे और उसी से अपना गुजर-बसर चलाते थे।
कलाम भी बचपन से ही परिवार को आर्थिक सहायता देने के लिए छोटे-मोटे काम करते थे, जिससे अखबार वितरण का काम प्रमुख है।
इनके पिता अधिक पढ़े लिखे नहीं पढ़ाई के महत्त्व को बहुत अच्छी तरह से जानते थे इसलिए उन्होंने अपने बच्चों को संस्कारित किया।
पिता के संस्कारों अब्दुल कलाम पर गहरा प्रभाव पड़ा जो उनके चरित्र में नजर आता है।
इनकी माता एक साधारण गृहणी थी परंतु मानवता में उनकी गहरी आस्था थी जिसके साफ झलक अब्दुल कलाम के व्यक्तित्व मैं झलकती है।
शिक्षा दीक्षा
अब्दुल कलाम ने अपनी प्राथमिक शिक्षा की शुरुआत रामेश्वरम के प्राथमिक विद्यालय शुरु की।
पढ़ाई के दिनों में वे सामान्य विद्यार्थी थे, लेकिन उनमें सीखने की तीव्र भूख थी।
रामनाथपुरम स्वार्ट्ज मैट्रिकुलेशन स्कूल से स्कूल की पढ़ाई पूरी कर अब्दुल कलाम ने तिरुचिरापल्ली के सेंट जोसेफ कॉलेज में प्रवेश किया और 1954 में भौतिक विज्ञान में स्नातक की उपाधि प्राप्त की।
1955 उन्होंने मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी के एयरोस्पेस इंजीनियरिंग ब्रांच में प्रवेश लिया तथा 1960 में अपनी पढ़ाई पूरी की।
वैज्ञानिक जीवन
एक वैज्ञानिक के तौर पर अपने करियर की शुरुआत करने पर स्वयं श्री कलाम ने अपनी पुस्तक में लिखा कि – “यह मेरा पहला चरण था; जिसमें मैंने तीन महान शिक्षकों- विक्रम साराभाई, प्रोफेसर सतीश धवन और ब्रह्म प्रकाश से नेतृत्व सीखा।
मेरे लिए यह सीखने और ज्ञान के अधिग्रहण के समय था।”
मद्रास से अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद से कलाम रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (DRDO) में वैज्ञानिकों के पद पर कार्य करना शुरू किया।
DRDO में कलाम ने एक छोटा होवरक्राफ्ट डिजाइन किया था तथा भारतीय सेना के लिए एक छोटा हेलीकॉप्टर बनाया।
DRDO में वे अपने काम से पूर्णतया संतुष्ट नहीं थे।
1969 में उनका स्थानांतरण हो गया और वे भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) में आ गए।
यहां उनकी टीम ने देश का पहला स्वदेशी रूप से डिजाइन और निर्मित उपग्रह प्रक्षेपण यान तैयार किया और रोहिणी नामक उपग्रह को पृथ्वी की कक्षा में स्थापित करने में सफलता प्राप्त की।
IGMDP का शुभारंभ और मिसाइलमैन
1980 में भारतीय रक्षा मंत्रालय ने डीआरडीओ के नेतृत्व में अन्य मंत्रालयों के साथ मिलकर इंटीग्रेटेड गाइडेड मिसाइल डेवलपमेंट प्रोग्राम (IGMDP) का शुभारंभ किया।
इस परियोजना की जिम्मेदारी कलाम को दी गई।
उन्हीं के नेतृत्व में देश ने अग्नि और पृथ्वी जैसी मिसाइलों का सफल परीक्षण किया।
इसी के साथ डॉ. ए. पी. जे. अब्दुल कलाम “मिसाइल मैन” बन गये।
श्री कलाम 1992 से 1999 तक रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन के सचिव तथा प्रधानमंत्री के मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार भी रहे।
भारत गौरव पोकरण परमाणु परीक्षण
2000 वर्षों के इतिहास में भारत पर 600 वर्षों तक अन्य लोगों ने शासन किया है।
यदि आप विकास चाहते हैं तो देश में शांति की स्थिति होना आवश्यक है और शांति की स्थापना शक्ति से होती है।
इसी कारण प्रक्षेपास्त्रों को विकसित किया गया ताकि देश शक्ति सम्पन्न हो।
अपनी सोच के कारण डॉ कलाम भारत को हमेशा परमाणु शक्ति संपन्न करने में प्रयासरत रहे।
2 मई 1998 में राजस्थान के पोकरण में भारत द्वारा किए गए दूसरे सफल परमाणु परीक्षण करने वाली टीम के नायक भी श्री कलाम ही थे।
बहुत ही गुप्त रूप से किए गए इस परीक्षण में भारत को एकाएक परमाणु संपन्न राष्ट्र घोषित कर दिया।
एक बार पुनः भारत को विश्व शक्ति बनाने की ओर यह पहला कदम था।
देश को परमाणु शक्ति बनाने में कलाम की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण रही।
कलाम राजू स्टेंट
वर्ष 1998 मैं कलाम ने जाने-माने कार्डियोलॉजिस्ट डॉ सोमा राजू के साथ मिलकर बहुत कम खर्च में कोरोनरी स्टेंट विकसित किया, जिसका नाम कलाम राजू स्टेंट रखा गया।
इसी प्रकार उक्त दोनों महानुभावों ने ग्रामीण क्षेत्र में स्वास्थ्य देखभाल के लिए टेबलेट पीसी भी डिजाइन किया इसका नाम भी इन्हीं दोनों के नाम पर कलाम राजू टेबलेट रखा गया।
राष्ट्रपति
25 जुलाई 2002 में भारतीय गणतंत्र के दसवें राष्ट्रपति के रूप में डॉ के आर नारायणन का कार्यकाल समाप्त होने वाला था।
देश के नये राष्ट्रपति के चुनाव की तैयारियां शुरू हुई।
श्री अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली तात्कालिक एन डी ए सरकार ने कलाम को अपना उम्मीदवार घोषित किया
कांग्रेस का भी समर्थन मिला।
18 जुलाई 2002 को वे भारत के 11 राष्ट्रपति चुने गए तथा इनका पाँच वर्षीय गरिमामयी कार्यकाल 25 जुलाई 2007 को समाप्त हुआ।
राष्ट्रपति पद से मुक्ति के बाद
25 जुलाई 2007 को राष्ट्रपति के दायित्व से मुक्त होने के बाद आप सार्वजनिक जीवन में लौट आए।
कलाम ने भारतीय प्रबंधन संस्थान शिलांग, भारतीय प्रबंधन संस्थान अहमदाबाद, भारतीय प्रबंध संस्थान इंदौर, भारतीय विज्ञान संस्थान बेंगलुरु के मानद फेलो तथा विजिटिंग प्रोफेसर के रूप में कार्य किया।
इसके साथ ही भारतीय अंतरिक्ष विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान तिरुवंतपुरम के कुलाधिपति, अन्ना विश्वविद्यालय में एयरोस्पेस इंजीनियरिंग के प्रोफेसर बने।
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, अन्ना विश्वविद्यालय तथा अंतरराष्ट्रीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान हैदराबाद में सूचना प्रौद्योगिकी विषय पढा़या।
अन्य अनेक विश्वविद्यालय तथा संस्थाओं में सैकड़ों व्याख्यान दिए।
कलाम की युवाओं के लिए दस बिंदुओं की शपथ : डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम APJ Abdul Kalaam
मैं अपनी शिक्षा पूरी करूगा व कार्य समर्पण के साथ करूंगा और मैं इनमें श्रेष्ठ (अग्रणी) बनूंगा।
अब से आगे बढ़कर, मैं कल से कम से कम दस लोगों को पढ़ना और लिखना सिखाउंगा. जो पढ़ लिख नहीं सकते।
कम से कम दस पौधे लगाऊंगा और पूरी जिम्मेदारी से वृद्धि करूँगा।
मैं निश्चित रूप से अपने मुसीबत में पड़े साथियों के दु:ख कम करने की कोशिश करूंगा।
ग्रामीण या शहरी क्षेत्रों की यात्रा करूंगा तथा कम से कम पांच लोगों को नशा तथा जुए से पूर्णतः मुक्ति दिलाऊंगा।
मैं ईमानदार रहूंगा और भ्रष्टाचार से मुक्त समाज बनाने की पूरी कोशिश करूंगा।
एक सजग नागरिक बनने का कार्य करूंगा तथा अपने परिवार को कर्मठ बनाऊंगा।
मैं किसी धर्म, जाति या भाषा में अंतर का समर्थन नहीं करूगा।
हमेशा ही मानसिक और शारीरिक चुनौती प्राप्त विकलांगों से मित्रवत् रहूंगा तथा वे हमारी तरह सामान्य महसूस कर सके ऐसा बनाने के लिए कठिन परिश्रम करूँगा।
मैं अपने देश तथा अपने देश के लोगों की सफलता पर गर्वोत्सव मनाऊंगा।
डॉ. कलाम की उपलब्धियां : डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम
वर्ष 1962 में स्वदेशी मिसाईल एस एलवी-3 का निर्माण
जुलाई 1980 में रोहिणी उपग्रह को पृथ्वी के समीप स्थापित करना
वर्ष 1998 में पोखरण में न्यूक्लियर बम को परमाणु ऊर्जा के साथ मिलाकर विस्फोट किया
और इसके साथ ही भारत ने परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में अपना स्थान हासिल किया।
चर्चित पुस्तकें : डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम APJ Abdul Kalaam
1997-2007
इंडिया 2020: ए विजन फॉर द न्यू मिलेनियम (India 2020: A Vision for the New Millennium) प्रकाशन वर्ष: 1998
विंग्स ऑफ फायर: एन ऑटोबायोग्राफी (Wings of Fire: An Autobiography) प्रकाशन वर्ष: 1999
इगनाइटेड माइंड्स: अनलीजिंग द पॉवर विदिन इंडिया (Ignited Minds: Unleasing the Power Within India) प्रकाशन वर्ष: 2002
द ल्यूमिनस स्पार्क्स: ए बायोग्राफी इन वर्स एंड कलर्स (The Luminous Sparks: A Biography in Verse and Colours) प्रकाशन वर्ष: 2004
गाइडिंग सोल्स: डायलॉग्स ऑन द पर्पस ऑफ लाइफ (Guiding Souls: Dialogues on the Purpose of Life) प्रकाशन वर्ष: 2005 सह-लेखक: अरूण तिवारी
मिशन ऑफ इंडिया: ए विजन ऑफ इंडियन यूथ (Mission of India: A Vision of Indian Youth) प्रकाशन वर्ष: 2005
यू आर बोर्न टू ब्लॉसम: टेक माई जर्नी बियोंड (You Are Born to Blossom: Take My Journey Beyond) प्रकाशन वर्ष: 2011
सह-लेखक: अरूण तिवारी
द साइंटिफिक इंडियन: ए ट्वेंटी फर्स्ट सेंचुरी गाइड टू द वर्ल्ड अराउंड अस (The Scientific India: A Twenty First Century Guide to the World Around Us) प्रकाशन वर्ष: 2011 सह-लेखक: वाई. एस. राजन
फेलियर टू सक्सेस: लीजेंडरी लाइव्स (Failure to Success: Legendry Lives) प्रकाशन वर्ष: 2011 सह-लेखक: अरूण तिवारी
टारगेट 3 बिलियन (Target 3 Billion) प्रकाशन वर्ष: 2011 सह-लेखक: श्रीजन पाल सिंह
यू आर यूनिक: स्केल न्यू हाइट्स बाई थॉट्स एंड एक्शंस (You Are Unique: Scale New Heights by Thoughts and Actions)
प्रकाशन वर्ष: 2012 सह-लेखक: एस. कोहली पूनम
टर्निंग पॉइंट्स: ए जर्नी थ्रू चैलेंजेस (Turning Points: A Journey Through Challenges) प्रकाशन वर्ष: 2012
2013-2015
इन्डोमिटेबल स्प्रिट (Indomitable Spirit) प्रकाशन वर्ष: 2013
स्प्रिट ऑफ इंडिया (Spirit of India) प्रकाशन वर्ष: 2013 भारतीय पुरस्कार एवं सम्मान प्राप्तकर्ताओं की सूची
थॉट्स फॉर चेंज: वी कैन डू इट (Thoughts for Change: We Can Do It) प्रकाशन वर्ष: 2013 सह-लेखक: ए. सिवाथानु पिल्लई
माई जर्नी: ट्रांसफॉर्मिंग ड्रीम्स इन्टू एक्शंस (My Journey: Transforming Dreams into Actions) प्रकाशन वर्ष: 2013
गवर्नेंस फॉर ग्रोथ इन इंडिया (Governance for Growth in India) प्रकाशन वर्ष: 2014
मैनीफेस्टो फॉर चेंज (Manifesto For Change) प्रकाशन वर्ष: 2014 सह-लेखक: वी. पोनराज
फोर्ज योर फ्यूचर: केन्डिड, फोर्थराइट, इन्स्पायरिंग (Forge Your Future: Candid, Forthright, Inspiring) प्रकाशन वर्ष: 2014
बियॉन्ड 2020: ए विजन फॉर टुमोरोज इंडिया (Beyond 2020: A Vision for Tomorrow’s India) प्रकाशन वर्ष: 2014
द गायडिंग लाइट: ए सेलेक्शन ऑफ कोटेशन फ्रॉम माई फेवरेट बुक्स (The Guiding Light: A Selection of Quotations from My Favourite Books) प्रकाशन वर्ष: 2015
रिग्नाइटेड: साइंटिफिक पाथवेज टू ए ब्राइटर फ्यूचर (Reignited: Scientific Pathways to a Brighter Future) प्रकाशन वर्ष: 2015 सह-लेखक: श्रीजन पाल सिंह
द फैमिली एंड द नेशन (The Family and the Nation) प्रकाशन वर्ष: 2015 सह-लेखक: आचार्य महाप्रज्ञा
ट्रांसेडेंस माई स्प्रिचुअल एक्सपीरिएंसेज (Transcendence My Spiritual Experiences) प्रकाशन वर्ष: 2015 सह-लेखक: अरूण तिवारी
पुरस्कार, सम्मान एवं उपलब्धियां : डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम APJ Abdul Kalaam
डॉ एपीजे अब्दुल कलाम के 79 में जन्म दिवस पर संयुक्त राष्ट्र संघ विद्यार्थी ने दिवस मना कर उन्हें सम्मानित किया तथा उनके जन्मदिवस को विश्व विद्यार्थी दिवस घोषित किया। इसी दिन विश्व हाथ धुलाई दिवस भी मनाया जाता है।
1981 में, डॉ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम को भारत सरकार ने पद्म भूषण से सम्मानित किया.
1990 में, पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया.
1997 में, भारत रत्न जैसे सर्वाेच्च नागरिक पुरस्कार से सम्मानित किया गया. भारत के सर्वाेच्च पद पर नियुक्ति से पहले भारत रत्न पाने वाले कलाम देश के केवल तीसरे राष्ट्रपति हैं. इससे पहले यह सर्वपल्ली राधाकृष्णन और जाकिर हुसैन के नाम है।
1997 में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय एकता पुरस्कार
1998 में, वीर सावरकर पुरस्कार से सम्मानित किया गया.
2000 में, अलवरस रिसर्च सेंटर, चेन्नई ने उन्हें रामानुजन पुरस्कार प्रदान किया.
2007 में, ब्रिटेन रॉयल सोसाइटी द्वारा किंग चार्ल्स द्वितीय मेडल से सम्मानित किया गया.
2008 में, उन्हें सिंगापुर के नान्यांग तकनीकी विश्वविद्यालय से डॉक्टर ऑफ इंजीनियरिंग (ऑनोरिस कौसा) की उपाधि प्रदान की गई थी.
2009 में, अमेरिका एएसएमई फाउंडेशन (ASME Foundation) द्वारा हूवर मेडल से सम्मानित किया गया
2010 में, वाटरलू विश्वविद्यालय ने डॉ. कलाम को डॉक्टर ऑफ इंजीनियरिंग के साथ सम्मानित किया.
2011 में, वह आईईईई (IEEE) के मानद सदस्य बने.
2013 में, उन्हें राष्ट्रीय अंतरिक्ष सोसाइटी द्वारा वॉन ब्रौन पुरस्कार से सम्मानित किया गया.
2014 में, एडिनबर्ग विश्वविद्यालय, ब्रिटेन द्वारा डॉक्टर ऑफ साइंस उपाधि से नवाजा गया था.
डॉ. कलाम लगभग 40 विश्वविद्यालयों के मानद डॉक्टरेट के प्राप्तकर्ता थे.
विश्व छात्र दिवस, युवा पुनर्जागरण दिवस एवं डाकटिकट
2015 में, संयुक्त राष्ट्र ने डॉ. कलाम के जन्मदिन को “विश्व छात्र दिवस” के रूप में मान्यता दी
डॉ. कलाम की मृत्यु के बाद, तमिलनाडु सरकार द्वारा 15 अक्टूबर जो कि उनका जन्म दिवस है को राज्य भर में युवा पुनर्जागरण दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की गई.
इसके अलावा, राज्य सरकार ने उनके नाम पर “डॉ एपीजे अब्दुल कलाम पुरस्कार” की स्थापना की.
इस पुरस्कार के तहत 8 ग्राम का स्वर्ण पदक और 5 लाख रुपये नगद दिया जाता है.
यह पुरस्कार उन लोगों को दिया जाता है, जो वैज्ञानिक विकास, मानविकी और छात्रों के कल्याण को बढ़ावा देने का काम करते हैं.
यही नहीं, 15 अक्टूबर, 2015 को डॉ. कलाम के जन्म की 84वीं वर्षगांठ पर, भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी नई दिल्ली में डीआरडीओ भवन में डॉ. कलाम की याद में डाक टिकट जारी किया.
वे हमेशा तेज कदमों से चलते थे। उनके स्वभाव के कारण उनके अंगरक्षकों को भी कई बार परेशानी का सामना करना पड़ता था।
27 जुलाई 2015 को जिस समय उनकी मृत्यु हुई उस समय भी वे आईआईएम शिलांग में व्याख्यान दे रहे थे।
वे वहीं मंच पर अचानक से गिर पड़े और गोलोक गमन किया।
अंत में हृदय से उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए उन्हीं की कविता के साथ इस आलेख को संपन्न करता हूं –
ज्ञान का दीप जलाए रहूंगा, हे भारतीय युवक, ज्ञानी-विज्ञानी, मानवता के प्रेमी. संकीर्ण तुच्छ लक्ष्य की लालसा पाप है, बड़े है, जिन्हें पूरा करने के लिए, मैं बड़ी मेहनत करेगा, मेरा भारत महान हो, यह प्रेरणा का भाव अमूल्य है. इसी धरती दीप जलाऊंगा, ज्ञान का दीप जलाए रखना, जिससे मेरा भारत महान हो, मेरा भारत महान हो।
डाॅ. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम जीवन परिचय, शिक्षा, वैज्ञानिक जीवन, राष्ट्रपति जीवन, चर्चित पुस्तकें, युवाओं के लिए संदेश, विश्व विद्यार्थी दिवस, विश्व हाथ धुलाई दिवस।
मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या Mokshagundam Visvesvaraya – आधुनिक भारत के निर्माता
भारतीय इंजीनियर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या – Mokshagundam Visvesvaraya के संपूर्ण जीवन परिचय के साथ-साथ अभियंता दिवस, उनकी शिक्षा, कार्य, पुरस्कार एवं सम्मान के बारे में पूरी जानकारी जानेंगे।
एक 6 वर्षीय बालक अपने घर के बरामदे में खड़ा बारिश का दृश्य देख रहा था बालक के घर के पास बहने वाली नाली का पानी उमड़ घुमड़ रहा था।
उसमें छोटे-छोटे भंवर उठ रहे थे और कहीं कहीं और सोनाली ने प्रपात का रूप ले रखा था बहाव अपने साथ कई छोटे-बड़े कंकड़ मित्रों को भी बधाई ले जा रहा था।
अचानक कुछ अवश्य मालिक ने देखा कि ताड़ पत्र की छतरी हाथ में लिए एक आकृति खड़ी है बालक उस आकृति को भलीभांति पहचानता था उसके कपड़े फटे हुए थे वह एक झोपड़ी में रहती थी उसके बच्चे कभी स्कूल नहीं जाते थे।
वह गरीब थी मैं छोटा सा बालक बड़ी गंभीरता से प्रकृति और गरीबी के कारणों को जानने का प्रयास करता।
अपने अध्यापकों से वाद-विवाद करता परिवार वालों से जानने का प्रयास करता यह बालक था आधुनिक भारत का निर्माता सर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया हम भारत के औद्योगिक विकास में इनकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण थी।
मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या जीवन परिचय
आइए अब जानते हैं भारतीय इंजीनियर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या के संपूर्ण जीवन परिचय के साथ-साथ अभियंता दिवस, उनकी शिक्षा, कार्य, पुरस्कार एवं सम्मान के बारे में पूरी जानकारी-
विश्वेश्वरैया के पूर्वज आंध्र प्रदेश के कुरनूल जिले के मोक्षगुंडम गांव के निवासी थे।
सैकड़ों वर्ष पूर्व इनका परिवार तात्कालिक मैसूर राज्य (वर्तमान कर्नाटक) के कोलार जिले के मुद्देनाहल्ली गांव में आ बसे।
यह गांव वर्तमान बेंगलुरु शहर से 60 किलोमीटर दूर है।
इसी गांव में मोक्षगुंडम श्रीनिवास शास्त्री और वेंकटलक्ष्म्मा के घर 15 सितंबर 1860 को विश्वेश्वर्या का जन्म हुआ।
यह दशक भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण है क्योंकि इसी दशक में रवींद्र नाथ टैगोर (1861), प्रफुल्ल चंद्र राय (1861), मोतीलाल नेहरू 1861, मदनमोहन मालवीय (1861), स्वामी विवेकानंद (1863), आशुतोष मुखर्जी (1864), लाला लाजपत राय (1865), गोपाल कृष्ण गोखले (1866) और महात्मा गांधी (1869) जैसे महापुरुषों का जन्म हुआ।
दक्षिण भारतीय परंपरा के अनुसार यहां के लोग अपने बच्चों के नाम के साथ अपने पैतृक गांव का नाम भी जोड़ते हैं, अतः विश्वेश्वरिया के नाम के साथ भी उनका पैतृक गांव मोक्षगुंडम का नाम उनके माता-पिता ने जोड़ दिया और उनका नामकरण हुआ मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया। मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया आगे चलकर सर एम वी के नाम से विख्यात हुए।
शिक्षा
आइए अब जानते हैं भारतीय इंजीनियर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या के संपूर्ण जीवन परिचय के साथ-साथ अभियंता दिवस, उनकी शिक्षा, कार्य, पुरस्कार एवं सम्मान के बारे में पूरी जानकारी-
विश्वेश्वर्या जो 5 वर्ष के थे तभी उनका परिवार चिकबल्लापुर आ गया चिकबल्लापुर में ही इनकी आरंभिक शिक्षा हुई हाईस्कूल तक की शिक्षा उन्होंने इसी गांव के विद्यालय से प्राप्त की पिता की मृत्यु के बाद यह बेंगलुरु अपने मामा के पास चले आए उस समय इनकी आयु 12 वर्ष थी।
यहां आकर विश्वेश्वर्या ने सेंट्रल कॉलेज में प्रवेश लिया और 1880 में बीए की परीक्षा विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण की इसके बाद विश्वेश्वर्या इंजीनियरिंग की पढ़ाई करना चाहते थे लेकिन घरेलू परिस्थितियों इस बात की आज्ञा नहीं देती थी कि यह इंजीनियरिंग कॉलेज में जा सके सौभाग्य से ने मैसूर राज्य से छात्रवृत्ति मिल गई और उन्होंने पुणे के साइंस कॉलेज में प्रवेश ले लिया।
यहां उन्होंने सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की 1883 में मुंबई विश्वविद्यालय के समस्त कॉलेजों में सर्वोच्च अंक प्राप्त कर विश्वेश्वरैया ने इंजीनियरिंग की डिग्री भी प्राप्त कर ली। इस सफलता पर उन्हें उस समय का प्रतिष्ठित जेम्स बोर्कले मेडल भी प्राप्त हुआ।
प्रथम नियुक्ति
1884 में विश्वेश्वरय्या की नियुक्ति मुंबई प्रेसिडेंसी सरकार के लोक निर्माण विभाग में नासिक में हुई।
मुंबई प्रेसिडेंसी में आप 1908 ईस्वी तक रहे।
इस समयावधि में विश्वेश्वरैया ने पूना (पुणे), कोल्हापुर, धारवाड़, बेलगाम बीजापुर आदि कई शहरों की जलापूर्ति योजना तैयार की।
नियमित कार्यों के साथ-साथ विश्वेश्वरैया बाढ़ नियंत्रण, बांध सुदृढ़ीकरण, जलापूर्ति, नगरीय विकास, सार्वजनिक निर्माण, सड़क, भवन इत्यादि के निर्माण की महत्वाकांक्षी योजनाओं से जुड़े रहे।
सक्खर में स्वच्छ जल
1892 में जब सक्खर (सिंध) नगर परिषद सक्खर शहर की जलापूर्ति योजना में असमर्थ हो गयी थी।
तो विश्वेश्वरैया ने ही सक्खर शहर को स्वच्छ जलापूर्ति करवायी।
यह उनकी ही बुद्धि का परिणाम था कि सिंधु नदी के पास ही एक कुआं खोदकर उसमें रेत की कई परतें बिछाई गई और उसे एक सुरंग द्वारा नदी से जोड़ दिया गया।
सुरंग से कुएं में आने वाला पानी स्वतः ही रेत से रिस-रिस कर फिल्टर हो जाता।
जिसे पंप द्वारा पहाड़ की चोटी पर ले जाया गया और वहां से शहर में जलापूर्ति की गयी।
पुणे में विश्वेश्वरैया
पुणे में विश्वेश्वरैया ने सिंचाई की नई पद्धति जिसे सिंचाई की ब्लॉक पद्धति कहा जाता है प्रारंभ की।
जिससे नहर के पानी की बर्बादी को रोका जा सके।
1901 में विश्वेश्वरैया ने बांधों की जल भंडारण क्षमता में वृद्धि के लिए विशेष प्रकार के जलद्वारों का निर्माण किया।
इन विशेष जलद्वारों से बांध में 25 प्रतिशत अधिक पानी भंडारण किया जा सकता था।
आज इन्हें विश्वेश्वरय्या फाटक कहते हैं। विश्वेश्वरैया ने इनका पेटेंट अपने नाम से करवाया।
इन फाटकों का पहला प्रयोग मुथा नदी की बाढ़ पर नियंत्रण के लिए खडकवासला में किया गया।
इस सफल प्रयोग के बाद तिजारा बांध ग्वालियर, कृष्णसागर बांध मैसूर और अन्य बड़े बांधों में इन जलद्वारों का सफल प्रयोग किया गया।
अदन बंदरगाह की छावनी में पानी की समस्या
1906 अदन बंदरगाह के सैनिक छावनी पीने के पानी की भारी कमी थी।
इस समस्या के निवारण के लिए विश्वेश्वरिया को वहां भेजा गया।
विश्वेश्वरैया ने अदन से 97 किलोमीटर दूर उत्तर की ओर पहाड़ी क्षेत्र की खोज की जहां पर्याप्त वर्षा होती थी।
क्षेत्र में बहने वाली नदी के तल में बंद मुंह वाले कुएँ बनाए गए और वर्षा जल को एकत्र कर पम्पों द्वारा अदन बंदरगाह तक पहुंचाया गया।
हैदराबाद में सेवाएं
1907-08 तक मुंबई प्रेसिडेंसी में सेवाएं देने के बाद 1909 में हैदराबाद के निजाम का एक अनुरोध विश्वेश्वरय्या को प्राप्त हुआ।
इस अनुरोध पर उन्होंने बाढ़ से नष्ट हुए हैदराबाद शहर का पुनर्निर्माण तथा भविष्य में बाढ़ से बचने की विशेष योजना तैयार की।
मैसूर राज्य के चीफ इंजीनियर और दीवान
मुंबई प्रेसिडेंसी के सेवा में रहते हुए 1907 में कुछ समय के लिए विश्वेश्वरिया तीन सुपरीटेंडेंट इंजीनियरों का उत्तर दायित्व संभाल रहे थे
परंतु वे जानते थे कि यहां रहते हुए वे चीफ इंजीनियर के पद पर कभी नहीं पहुंच सकते।
क्योंकि यह पद केवल अंग्रेजों के लिए ही सुरक्षित था।
1907 में उन्होंने राजकीय सेवा से त्यागपत्र दे दिया और विदेश भ्रमण के लिए चले गए।
1909 में विश्वेश्वरैया को मैसूर राज्य से चीफ इंजीनियर पद के लिए आमंत्रित किया गया।
उन्होंने सरकार से पहले यह आश्वासन लिया कि उनकी योजनाएं पूरी करने में कोई उच्चाधिकारी अकारण ही बाधा नहीं डालेगा।
सरकार द्वारा आश्वस्त किए जाने के बाद 1909 में विश्वेश्वरैया ने चीफ इंजीनियर का कार्यभार संभाल लिया।
इसके साथ ही उन्हें रेल सचिव भी नियुक्त किया गया।
कार्यभार संभालते ही विश्वेश्वरैया ने राज्य में सिंचाई और बिजली की तरफ ध्यान दिया
और रेलों का जाल बिछाने के लिए एक महत्वकांक्षी योजना तैयार की।
1912 में विश्वेश्वर्या को मैसूर राज्य का दीवान बना दिया गया किसी इंजीनियर का इस पद पर पहुंचना पहली बार हुआ था।
इसलिए यह लोगों में एक आश्चर्य का विषय भी था।
मैसूर राज्य में शिक्षा
मैसूर राज्य के दीवान पद पर रहते हुए विश्वेश्वरैया ने अनेक योजनाएं पूरी की।
इसके साथ ही उन्होंने राज्य की शिक्षा की तरफ भी पर्याप्त ध्यान दिया।
उन्हीं के प्रयासों से मैसूर विश्वविद्यालय की स्थापना हुई जो देसी रियासतों में पहला विश्वविद्यालय था।
मैसूर में औद्योगिकरण
विश्वेश्वरैया के अथक प्रयासों से मैसूर राज्य में रेशम, चंदन के तेल, साबुन, धातु, चमड़ा रंगने आदि के कारखाने लगे।
भद्रावती में लौह इस्पात कारखाने की योजना भी विश्वेश्वरिया की ही देन है।
उन्हीं के प्रयासों से अक्टूबर 1913 में बैंक ऑफ मैसूर की स्थापना हुयी।
दीवान का पद त्याग
1917-18 में जब विश्वेश्वरैया की ख्याति अपने चरमोत्कर्ष पर थी तब उनके विरोधी राज्य में तरह-तरह की अफवाहें उड़ा रहे थे।
उन्होंने राजा तथा दीवान के बीच अविश्वास का वातावरण उत्पन्न कर दिया था।
जिसके कारण 1918 में विश्वेश्वरैया ने दीवान का पद छोड़ दिया।
दीवान का पद छोड़ने के बाद विश्वेश्वरैया स्वतंत्र रहकर कार्य करने लगे।
1923 में उन्होंने भद्रावती के लोहे के कारखाने का अध्यक्ष बनना स्वीकार किया, बेंगलुरु के लिए पेयजल योजना तैयार की।
1927 में कृष्णराजा सागर बांध से संबंधित नहरों व सुरंगों का काम पूरा किया।
हीराकुंड बांध और विश्वेश्वरैया
1937 में उड़ीसा में आई विनाशकारी बाढ़ से दुखी होकर महात्मा गांधी ने विश्वेश्वरैया से अनुरोध किया कि वे उड़ीसा जाकर बाढ़ से रोकथाम संबंधी कार्य करें।
1938 में विशेष औरैया में महा नदी के डेल्टा का गहन अध्ययन किया।
और अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी इसी रिपोर्ट के आधार पर हीराकुंड बांध का निर्माण हुआ।
भारत की प्रथम बहुउद्देश्यीय परियोजना
1902 में शिवसमुद्रम झरने पर बिजली घर लगाया गया। लेकिन योजना लगभग असफल रही।
मैसूर सरकार के सामने कोलार की खानों को पर्याप्त बिजली देने की चुनौती आ गयी।
इस समय मैसूर राज्य के चीफ इंजीनियर विश्वेश्वरैया थै जो बिजली विभाग के सचिव भी थे।
उन्होंने एक महत्वकांक्षी योजना तैयार की। इसके अंतर्गत कावेरी नदी पर एक बहुत बड़ा जलाशय बनाने की योजना थी।
यह परियोजना लगभग 253 करोड रुपए की थी।
सबसे बड़ी समस्या इसे वित्त विभाग से मंजूरी दिलवाने की थी।
उसके बाद भी अनेक समस्याएं आ रही, लेकिन सभी समस्याओं पर विजय प्राप्त कर 1911 में बांध की नींव डाली गयी।
केवल नींव डालना ही काफी नही था, बहुत सी मानवीय और प्राकृतिक आपदाएं इस परियोजना में आती रही।
लेकिन फिर भी विश्वेश्वरैया जी ने समय पर परियोजना को पूरा कर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया।
कावेरी नदी पर कृष्णा राजा सागर बांध बन जाने से कर्नाटक कि एक लाख एकड़ भूमि पर सिंचाई होने लगी चीनी के मिलें, रुई की मिलें, सूती कपड़े की मिलें लगाई गयी।
बिजली बनाने के लिए विशाल बिजलीघर लगाया गया, जिससे कोलार की खानों की बिजली आवश्यकता पूरी करने के बाद भी अनेक उद्योगों को बिजली दी गयी।
अनेक शहरों में पेयजल योजनाओं को पूरा इसी जलाशय के माध्यम से किया गया।
अन्य कार्य
देश में उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए विश्वेश्वरैया ने अखिल भारतीय निर्माता संघ की स्थापना की सन 1941 से 1956 तक वहीं संघ के अध्यक्ष रहे।
अनेक सरकारी व गैर सरकारी समितियों से जुड़े रहे 1922 में वे नई दिल्ली नगर निर्माण कमेटी के सदस्य बने उसी वर्ष उन्हे सर्वदलीय प्रतिनिधि राजनीतिक कॉन्फ्रेंस की अध्यक्षता करने का मौका मिला।
विश्वेश्वरैया जी ने लगभग 70 वर्षों तक देश की सेवा की।
1960 में उनका जन्म शताब्दी वर्ष पूरे देश में धूमधाम के साथ मनाया गया।
पुरस्कार एवं सम्मान
आइए अब जानते हैं भारतीय इंजीनियर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या के संपूर्ण जीवन परिचय के साथ-साथ अभियंता दिवस, उनकी शिक्षा, कार्य, पुरस्कार एवं सम्मान के बारे में पूरी जानकारी-
7 सितंबर 1955 के दिन विश्वेश्वरैया को देश के सर्वोच्च नागरिक से भारत रत्न से अलंकृत किया गया।
इससे पूर्व भी इन्हे अनेक पुरस्कार प्राप्त हो चुके थे परंतु भारत रत्न के साथ-साथ जो सबसे महत्वपूर्ण सम्मान भारत सरकार द्वारा प्रदान किया गया वह था।
इनके जन्म दिवस 15 सितंबर को राष्ट्रीय अभियंता दिवस के रूप में बनाए जाने की घोषणा करना।
अन्य पुरस्कार
सन् 1911 में दिल्ली दरबार में उन्हें कम्पैनियन ऑफ इंडियन इम्पायर (सी० आई० ई०) के खिताब से सम्मानित किया गया था।
मैसूर राज्य में वाइसराय की यात्रा के बाद सन् 1915 में वे नाइट कमांडर ऑफ दी आर्डर ऑफ दी इंडियन इम्पायर (के० सी० आई० ई०) से सम्मानित किए गए थे।
इस प्रकार वे सर विश्वेश्वरैया बने।
विश्वेश्वरैया को आठ विश्वविद्यालयों से मानद उपाधियाँ प्राप्त हुईं।
बम्बई और मैसूर विश्वविद्यालयों से एल-एल० डी०
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय और आंध विश्वविद्यालय से डी० लिट्०
कोलकाता, पटना, इलाहाबाद और जादवपुर विश्वविद्यालयों द्वारा उन्हें डी० एस० की मानद उपाधियाँ दी गईं।
उन्होंने समय-समय पर अनेक विश्वविद्यालयों के दीक्षांत-भाषण भी दिए
रायल एशियाटिक सोसायटी, काउंसिल ऑफ बंगाल, कलकत्ता द्वारा फरवरी 1958 में विश्वेश्वरैया को दुर्गा प्रसाद खेतान स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ।
वे सन् 1887 में ही इंस्टीट्यूट ऑफ सिविल इंजीनियर्स के सह सदस्य बन गए थे। सन् 1904 में सदस्य।
सन् 1952 में उनका नाम इंस्टीट्यूट की सूची में बगैर शुल्क के रखना तय हुआ।
इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियर्स (भारत) के तो वे सन् 1943 से सम्मानित आजीवन सदस्य थे।
इंडियन साइंस कांग्रेस एसोसिएशन के सम्मानित सदस्य
इंस्टीट्यूट ऑफ टाउन प्लानिंग (भारत) के सम्मानित फैलो भी रहे।
भारत के विश्व प्रसिद्ध संस्थान इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस बंगलौर की कोर्ट के लगातार 9 वर्षों तक अध्यक्ष रहे।
टाटा आयरन और स्टील कम्पनी के लगभग 28 वर्षों तक डायरेक्टर रहे।
उन्होंने जनवरी 1923 में लखनऊ में हुए इंडियन कांग्रेस के अधिवेशन की अध्यक्षता की।
विश्वेश्वरैया के जन्म शताब्दी पर भारत सरकार ने एक विशेष डाक टिकट जारी किया।
मृत्यु
अपने 102 वर्ष के लंबे जीवन काल में इन्होंने छोटे-बड़े अनेक कार्य किए और 1962 में उन्होंने अपनी भौतिक दे को त्याग कर परलोक गमन किया।
आशा है कि आपको भारतीय इंजीनियर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरय्या के संपूर्ण जीवन परिचय के साथ-साथ अभियंता दिवस, उनकी शिक्षा, कार्य, पुरस्कार एवं सम्मान के बारे में पूरी जानकारी पसंद आयी होगी।
सर्वपल्ली राधाकृष्णन Sarvepalli Radhakrishnan | 5 सितंबर | 5 September | राष्ट्रीय शिक्षक दिवस | National Teacher’s Day
बंदऊँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥ अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारू॥ भावार्थ- मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि, सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो सम्पूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है॥
तमिलनाडु के सर्वपल्ली गांव का एक ब्राह्मण परिवार वर्षों पहले आजीविका की तलाश में मद्रास वर्तमान चेन्नई से लगभग 60 किलोमीटर दूर धार्मिक स्थल तिरुत्तनी में आ बसा।
इस ब्राह्मण परिवार में 5 सितंबर 1888 में पिता सर्वपल्ली वीरा स्वामी तथा माता सीतम्मा के यहां एक तेजस्वी पुत्र जन्म लिया।
वीरस्वामी के पूर्वज सर्वपल्ली ग्राम से तिरुत्तनी में आए थे लेकिन वह अपने पूर्व ग्राम का नाम अपने से अलग नहीं कर पाए इसलिए वे सभी अपने नाम से पूर्व अपने पूर्व ग्राम का नाम भी जोड़ते थे इसलिए इस तेजस्वी बालक का नाम रखा गया सर्वपल्ली राधाकृष्णन।
राधा कृष्ण के भाई बहनों में दूसरे स्थान पर थे। राधाकृष्णन के पिता अधिक धनवान नहीं थे।
उनके जीवनचर्या सुखपूर्वक चल रही थी। वह विद्यानुरागी, ईश्वर भक्त और धर्म आचरण करने वाले उदार ब्राह्मण थे। जिसका अत्यधिक प्रभाव राधाकृष्णन पर भी पड़ा।
प्रारंभिक जीवन एवं शिक्षा दीक्षा : सर्वपल्ली राधाकृष्णन Sarvepalli Radhakrishnan
राधाकृष्णन का प्रारंभिक जीवन तिरूत्तनी और तिरुपति जैसे धार्मिक स्थलों पर बीता। गांव तथा परिवार के धार्मिक विचारों ने बालक राधाकृष्णन को पर्याप्त प्रभावित किया।
इनके पिता धार्मिक प्रवृत्ति के ब्राह्मण थे, फिर भी इन्होंने राधाकृष्णन को 1896 में लूथर्न मिशन स्कूल तिरुपति में प्रवेश दिलाया जो कि क्रिश्चियन मिशनरी स्कूल था।
सन् 1900 में आप पढ़ने के लिए वेल्लूर चले गये और इसके बाद क्रिश्चियन कॉलेज मद्रास में शिक्षा प्राप्त की।
राधाकृष्णन ने 1902 में मैट्रिक तथा 1904 में कला संकाय प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण कर उच्च अध्ययन के लिए छात्रवृत्ति प्राप्त की।
1911 में राधाकृष्णन ने दर्शन शास्त्र में एम. ए. की उपाधि भी प्राप्त कर ली।
वैवाहिक जीवन : सर्वपल्ली राधाकृष्णन जीवनी 5सितंबर राष्ट्रीय शिक्षक दिवस
तात्कालिक परिस्थितियों और परंपराओं के अनुसार ही राधाकृष्णन् का विवाह अल्पायु में ही 1903 में शिवाकामू से हो गया।
राधाकृष्णन्-शिवाकामू दंपत्ति को अपने वैवाहिक जीवन में पांच पुत्रियां और एक पुत्र की प्राप्ति हुई।
शैक्षिक जीवन
डॉ राधाकृष्णन् ने अपने शिक्षक जीवन की शुरुआत 20 वर्ष की अवस्था में 1960 में की।
आप सर्वप्रथम प्रेसिडेंसी कॉलेज मद्रास में दर्शनशास्त्र के सहायक अध्यापक के रूप में नियुक्त हुए।
1917 तक यहां सेवाएं देते हुए आपकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी।
तत्कालिक मैसूर राज्य के दीवान और प्रसिद्ध इंजीनियर मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया के आमंत्रण पर आप 1918 में मैसूर चले गये।
श्री विश्वेश्वरैया ने इन्हें महाराजा कॉलेज मैसूर में दर्शनशास्त्र का प्रोफेसर नियुक्त किया।
डॉक्टर राधाकृष्णन् 1921 तक मैसूर में रहे। जहां इनका काम अत्यंत सराहनीय रहा।
सर्वपल्ली राधाकृष्णन और कोलकाता विश्वविद्यालय
सुविख्यात शिक्षा शास्त्री सर आशुतोष मुखर्जी ने कलकत्ता विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर विभाग की स्थापना की।
इस विभाग की एक पीठ जॉर्ज पंचम प्रोफेसर ऑफ फिलॉसफी में श्री मुखर्जी ने डॉक्टर राधाकृष्णन को नियुक्त किया।
सन 1921 से 1931 तक आप कोलकाता विश्वविद्यालय में रहे।
सर्वपल्ली राधाकृष्णन और आंध्र विश्वविद्यालय
सन 1931 में राधाकृष्णन कलकत्ता विश्वविद्यालय से आंध्र विश्वविद्यालय में कुलपति नियुक्त हुए 1932 से 1941 तक डॉ राधाकृष्णन आंध्र विश्वविद्यालय तथा ऑक्सफोर्ड में स्पालडिंग चेयर ऑफ ईस्टर्न एंड एथिक्स के प्रोफेसर रहे।
यह उनकी विद्वत्ता के कारण ही संभव हो सका कि एक व्यक्ति एक साथ दो जगह पर नियुक्त हो।
डॉ राधाकृष्णन और काशी हिंदू विश्वविद्यालय
सन 1939 में सर्वपल्ली डॉ राधाकृष्णन् काशी हिंदू विश्वविद्यालय में स्वैच्छा से अवैतनिक सेवा देने लगे।
अब वे कलकत्ता विश्वविद्यालय, ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय एवं काशी विश्वविद्यालय तीनों में अपनी सेवाएं दे रहे थे।
किसी भी विद्वान के लिए बहुत ही दुर्लभ क्षण होता है कि वह एक साथ ही तीन तीन विश्व प्रसिद्ध शिक्षण संस्थानों में अपनी सेवाएं दे रहा हो। यह क्रम 1948 तक सतत् चलता रहा।
सर्वपल्ली डॉक्टर राधाकृष्णन और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय
ऑक्सफोर्ड में रहते हुए राधाकृष्णन ने अनेक व्याख्यान दिए। आपके द्वारा दिए गए व्याख्यानमाला के संबंध में हिवर्ट जनरल ने लिखा “भारत के बाहर हमारे विश्वविद्यालय में व्याख्यान देखकर आपने हमारा गौरव बढ़ाया है।”
राजनीतिक जीवन
सर्वपल्ली राधाकृष्णन की कार्यकुशलता, अनुभव, बुद्धिमत्ता और प्रतिभा थी कि राजनीति से प्रत्यक्ष संबंध में होने के बाद भी स्वतन्त्रता के बाद इन्हें संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया। वे 1947 से 1949 तक इसके सदस्य रहे।
राधा कृष्ण आयोग 1948
स्वतंत्रता के पश्चात भारत सरकार ने विश्वविद्यालय शिक्षा की समीक्षा के लिए सर्वपल्ली डॉक्टर राधाकृष्णन् की अध्यक्षता में राधाकृष्णन् आयोग अथवा विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग का गठन किया।
आयोग ने अपनी रिपोर्ट अगस्त 1949 में दी। यूजीसी की स्थापना राधाकृष्णन् आयोग की ही देन है।
रूस में भारत के राजदूत
1950 में राधाकृष्णन् की विद्वता और योग्यता को देखकर भारत सरकार ने उन्हें रूस में भारत का राजदूत नियुक्त किया वह समय शीतयुद्ध का समय था और उसका दृष्टिकोण भारत के प्रति सकारात्मक नहीं था परंतु डॉ. राधाकृष्णन के कुशल नेतृत्व ने रूसी नेताओं को ऐसा मोहित किया कि सुषुप्त पड़े मैत्री संबंध प्रगाढ़ मैत्री में बदल गये।
के सी व्हियर ने डॉ राधाकृष्णन् के बारे में लिखा कि “मास्को में राधाकृष्णन् के राजदूत नियुक्त होने का विशेष अर्थ था। वहां वे पूर्णतया सफल राजदूत के रूप में विश्व के समक्ष आए।”
उप राष्ट्रपति सर्वपल्ली डॉ राधाकृष्णन् : सर्वपल्ली राधाकृष्णन Sarvepalli Radhakrishnan
सन 1952 में सर्वपल्ली डॉ राधाकृष्णन् स्वतंत्र भारत के प्रथम उपराष्ट्रपति निर्वाचित हुए।
आप दो बार इस पद के लिए निर्वाचित हुए और 1962 तक इस पद को सुशोभित किया।
उपराष्ट्रपति पद के साथ-साथ आप दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे।
उपराष्ट्रपति के रूप में आपकी कार्यशैली की बहुत सराहना की गयी।
राष्ट्रपति: डॉ. राधाकृष्णन्
भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद का चयन इस सर्वोच्च पद के लिए दो बार हुआ।
डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद 1962 तक भारत के राष्ट्रपति रहे।
इसी समयावधि में सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन् उपराष्ट्रपति रहे डॉ. राजेंद्र प्रसाद के बाद राधाकृष्णन् राष्ट्रपति निर्वाचित हुए।
12 मई 1962 को आपने विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के राष्ट्रपति के रूप में शपथ ली।
इस अवसर पर बर्टेण्ड रसेल ने कहा- “फिलोसोफी सम्मानित हुई समस्त विश्व के शांतिप्रिय विवेकशील समाज ने इस चुनाव का अभिनंदन किया है।”
सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जीवनी, शैक्षिक जीवन, राष्ट्रपति जीवन, 5 सितंबर को राष्ट्रीय शिक्षक दिवस, पुरस्कार, उपलब्धियां एवं अन्य संपूर्ण जानकारी
व्याख्यान
डॉ राधाकृष्णन द्वारा दिए गए प्रमुख व्याख्यान
1926 में डॉ राधाकृष्णन ने आक्सफोर्ड के मैनचेस्टर कालेज में “दी हिन्दू न्यू आफ लाइफ” पर व्याख्यान दिया जिसमें उन्होंने हिन्दू धर्म को एक प्रगतिशील ऐतिहासिक प्रवाह के रूप में प्रतिस्थापित किया। उनके अनुसार हिन्दू धर्म आज भी गतिशील है, जिसमें दोष परम्परा और सत्य के अन्तर को भुला देने के कारण है।
डॉ राधाकृष्णन ने ब्रिटिश साम्राज्य के विश्वविद्यालयों के सम्मेलन में भाग लेते हुए अपनी प्रतिभा से पाश्चात्य जनमानस को आश्चर्यचकित किया।
1929 में डॉ राधाकृष्णन ने एन “आइडियालिस्ट न्यू आफ लाइफ” शीर्षक से व्याख्यान लन्दन तथा मैनचेस्टर विश्वविद्यालय में दिया। इस व्याख्यान मे उन्होंने सत्य के विषय में हिन्दू धर्म की अवधारणा प्रस्तुत कि जिसका पाश्चात्य जगत के अनेक विद्वानों ने समर्थन किया।
आक्सफोर्ड में उनके अनेक भाषण ईस्ट एण्ड वेस्ट इन रिलीजन’ के नाम से प्रकाशित हुए।
लन्दन की प्रतिष्ठित ब्रिटिश ऐकेडमी ने उन्हें गौतम बुद्ध पर भी भाषण देने हेतु आमंत्रित किया तथा उन्हें अपनी संस्था का सदस्य भी बनाया।
डॉ राधाकृष्णन ने कोलंबिया विश्वविद्यालय की शताब्दी समारोह के अवसर पर भारतीय संस्कृति के महत्व को स्पष्ट करते हुए अपने व्याख्यान दिया।
साहित्य सृजना : सर्वपल्ली राधाकृष्णन Sarvepalli Radhakrishnan
एन आडियालिस्ट व्यू ऑफ लाइफ ईस्ट एण्ड वेस्ट इन रिलीजन 1932
दी हार्ट ऑफ हिन्दुस्तान 1933
फ्रीडम एण्ड कल्चर 1936
कन्टेम्पररी इंडियन फिलॉसफी 1936
रिलीजन इन ट्राजिशन 1936
‘गौतम बुद्ध 1937
‘महात्मा गांधी 1938
इण्डिया एण्ड चाइना 1939
‘एजुकेशन, पॉलिटिक्स एण्ड वॉर’ 1944
‘इज दिस पीस 1944
‘रिलीजन एण्ड सोसायटी’ 1945
‘भगवद्गीता 1947
‘ग्रेट इण्डियन्स’ 1948
‘दी यूनिवर्सिटी एजुकेशन कमीशन रिपोर्ट 1949
द धर्मपद 1949
‘एन एन्थोलोजी ऑफ राधाकृष्णन राइटिंग 1950
‘दी रिलीजन ऑफ दी स्प्रिट एण्ड वर्ल्डस नीड, 1952
‘फ्रेगमेण्टस ऑफ कन्वेंशन 1952
हिस्ट्री ऑफ फिलासफी इन ईस्ट एण्ड वेस्ट (दो वाल्यूम) 1952
दि प्रिंसिपल उपनिषद्स 1953
ईस्ट एण्ड वेस्ट, ‘सम रिफलेक्शन्स’ 1955
रिकवरी ऑफ फेथ 1956
ए सोर्स बुक इन इंडियन फिलॉस्फी (राधाकृष्णन तथा चार्ल्स मूर द्वारा सम्पादित) 1957
दी ब्रह्मसूत्र दी फिलासफी आफ स्प्रिचुअल लाइफ 1960
दी कॉन्सेप्ट आफ मेन 1960
फेलोशिप आफ फेशस 1961
आन नेहरू 1965
रिलीजन इन ए चेजिंग वर्ल्ड 1967
रिलीजन एण्ड कल्चर 1969
आवर हेरीटेज 1970
लिविंग विद ए परपज 1976
टू नालेज 1978
उपर्युक्त पुस्तकों के अतिरिक्त “राधाकृष्णन रीडर एन एनथालाजी” नामक ग्रन्थ का प्रकाशन भारतीय विद्या भवन द्वारा 1969 में किया गया है।
इसके अतिरिक्त उनके भाषणों तथा लेखों का प्रकाशन भारत सरकार द्वारा किया गया।
पुरस्कार सम्मान एवं उपलब्धियां : सर्वपल्ली राधाकृष्णन Sarvepalli Radhakrishnan
सर्वपल्ली डॉक्टर राधाकृष्णन एक महान शिक्षाविद थे देश-विदेश के अनेक विश्वविद्यालयों में उन्होंने शिक्षक के रूप में कार्य किया।
1908 से 1917 तक मद्रास प्रेसिडेंसी कॉलेज में सहायक प्राध्यापक रहे।
1918 से 1921 तक महाराजा कॉलेज मैसूर में दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर रहे।
1921 से 1948 कोलकाता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे।
सन् 1931 से 36 तक आन्ध्र विश्वविद्यालय के वाइस चांसलर रहे।
ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में 1936 से 1952 तक प्राध्यापक रहे।
कलकत्ता के अन्तर्गत आने वाले जॉर्ज पंचम कॉलेज के प्रोफेसर के रूप में 1937 से 1941 तक कार्य किया।
सन् 1939 से 48 तक काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के चांसलर रहे।
1953 से 1962 तक दिल्ली विश्वविद्यालय के चांसलर रहे।
1946 में युनेस्को में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।
एक शिक्षक के रूप में इनके अतुलनीय योगदान को देखते हुए भारत सरकार ने उनके जन्मदिन 5 सितंबर को राष्ट्रीय शिक्षक दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया।
भारत रत्न
एक महान दार्शनिक और महान शिक्षक के रूप में इनकी उपलब्धियों और योगदान को देखते हुए 1954 में भारत सरकार ने इन्हें भारत के सबसे बड़े नागरिक सम्मान भारत रत्न से अलंकृत किया।
निधन
17 अप्रैल 1975 को लंबी बीमारी के बाद इस महान दार्शनिक और शिक्षक ने इस भौतिक संसार से सदा सदा के लिए विदा ले ली।
सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जीवनी, शैक्षिक जीवन, राष्ट्रपति जीवन, 5सितंबर को राष्ट्रीय शिक्षक दिवस, पुरस्कार, उपलब्धियां एवं अन्य संपूर्ण जानकारी
मेजर ध्यानचंद Major Dhayanchand जीवन परिचय पुरस्कार एवं सम्मान तथा संपूर्ण जानकारी
“हमारी टीम से खेलो हम तुम्हें जर्मनी की नागरिकता और जर्मन सेना में जनरल का पद देंगे।”
1936 के बर्लिन ओलंपिक में हॉकी के फाइनल मैच में भारत से मिली करारी हार के बाद जर्मन तानाशाह हिटलर ने यह शब्द हॉकी के जादूगर ध्यानचंद से कहे थे।
ध्यानचंद ने बड़ी निर्भीकता से जर्मन नागरिकता और सेना का पद ठुकरा दिया और भारतीय स्वाभिमान को और अधिक दृढ़ कर दिया।
जीवन परिचय : मेजर ध्यानचंद Major Dhayanchand जीवन परिचय पुरस्कार एवं सम्मान तथा संपूर्ण जानकारी
भारतीय हॉकी के आदिपुरुष मेजर ध्यानचंद का जन्म 29 अगस्त 1905 को उत्तर प्रदेश के प्रयागराज में हुआ।
ध्यानचंद के पिता ब्रिटिश भारतीय सेना में थे, इसलिए स्थानांतरण के कारण एक शहर से दूसरे शहर जाते रहते थे।
ध्यानचंद के जन्म के कुछ समय बाद ही उनके पिता का स्थानांतरण झांसी हो गया और वे झांसी में बस गये।
हॉकी से परिचय : मेजर ध्यानचंद Major Dhayanchand जीवन परिचय पुरस्कार एवं सम्मान तथा संपूर्ण जानकारी
कहा जाता है कि शुरुआत में ध्यानचंद की हॉकी में कोई विशेष रूचि नहीं थी
लेकिन डॉ. विभा खरे के अनुसार ध्यानचंद बचपन से ही हॉकी की ओर आकर्षित थे।
उनके इसी आकर्षण को देखकर उनके पिता ने उन्हें हॉकी खेलने के लिए प्रेरित किया।
उनके खेल से प्रभावित होकर एक अंग्रेज ने उन्हें सेना में भर्ती होने के लिए प्रेरित किया।
उसी अंग्रेज की प्रेरणा पाकर 1922 में ध्यानचंद तात्कालिक ब्रिटिश भारतीय सेना में एक सिपाही के रूप में इकतालीस वी पंजाब रेजिमेंट में शामिल हो गए, जहां उन्हें भोला तिवारी नामक कोच मिले।
तिवारी कोच से ध्यानचंद ने हॉकी के कई मंत्र सीखे, लेकिन हॉकी का असली मंत्र ध्यानचंद के मस्तिष्क में ही था।
वह मैदान की वास्तविक स्थिति और खिलाड़ियों की सही पोजीशन बहुत जल्दी भाँप जाते थे।
पहली अंतरराष्ट्रीय श्रृंखला
ध्यानचंद 1922 में सेना में भर्ती हुए और वहीं से हॉकी की शुरुआत की।
1926 में पहली बार ध्यानचंद को न्यूजीलैंड जाने का अवसर प्राप्त हुआ।
मौका था भारतीय हॉकी टीम का न्यूजीलैंड दौरा।
इस दौरे पर जाने के लिए ध्यानचंद की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, फिर भी वे खुशी-खुशी जैसी व्यवस्था हुई उसी के साथ गए।
इस श्रृंखला में कुल 5 मैच खेले गए थे।
जिनमें से सभी में भारत ने विजयश्री प्राप्त की।
पूरी श्रृंखला में भारतीय दल द्वारा साठ गोल किए गए जिसमें से पैंतीस अकेले ध्यानचंद ने किये थे।
ओलंपिक की यात्रा : मेजर ध्यानचंद Major Dhayanchand जीवन परिचय पुरस्कार एवं सम्मान तथा संपूर्ण जानकारी
1928 का एम्सटर्डम ओलंपिक
वर्ष 1928 में एम्सटर्डम (नीदरलैंड) में ओलंपिक खेलों का आयोजन हुआ।
भारतीय हॉकी टीम ने पहली बार ओलंपिक में भाग लिया।
भारत की शुरुआत बहुत ही भव्य रही।
उसने अपने पहले ही मैच में ऑस्ट्रेलिया को 6-0 से हराया।
इसके बाद बेल्जियम को 9-0 के अंतर से डेनमार्क को 5-0 के अंतर से स्विट्जरलैंड को 6-0 के अंतर से हराकर एक तरफा जीत प्राप्त की।
फाइनल में हॉलैंड को 3-0 से हराकर अपनी जीत का डंका पूरी दुनिया में बजा दिया।
स्वर्ण पदक विजेता भारतीय दल की विजय के नायक ध्यानचंद ही थे।
फाइनल मैच में ध्यानचंद ने दो गोल किए।
1932 का लॉस एंजलिस ओलंपिक
1932 में ओलंपिक खेलों का आयोजन अमेरिका की खूबसूरत शहर लॉस एंजिलिस में हुआ।
भारतीय दल ने इस बार पिछले ओलंपिक से भी जबरदस्त हॉकी खेली और पहले ही मैच में जापान को 11-0 के बड़े अंतर से हराया।
जिसमें ध्यानचंद ने चार गोल किए।
इसी ओलंपिक के में भारतीय टीम ने फाइनल में मेजबान अमेरिका को 24-1 के विशाल अंतर से हराया जो आज भी एक विश्व कीर्तिमान है।
इस मैच की कवरेज करते हुए लॉस एंजेलिस के एक अखबार ने लिखा कि- “भारतीय दल ध्यानचंद और रूप सिंह के रूप में एक ऐसा तूफान लाया है, जिसने नचा-नचा कर अमेरिकी खिलाड़ियों को मैदान के बाहर ला पटका और खाली मैदान पर भारतीय खिलाड़ियों ने मनचाहे गोल किए।”
अखबार ने यह भी लिखा कि- “भारतीय हॉकी टीम तो पूर्व से आया तूफान थी। उसने अपने वेग से अमेरिकी टीम के ग्यारह खिलाड़ियों को कुचल दिया।”
1936 का बर्लिन ओलंपिक
1936 में ओलंपिक खेलों का आयोजन जर्मनी के बर्लिन शहर में हुआ।
भारतीय टीम का डंका पहले ही सारी दुनिया में बज चुका था, लेकिन जर्मनी के साथ अपने अभ्यास मैच में भारतीय टीम 4-1 से पराजित हो गई।
यह भारतीय टीम के लिए इतनी जबरदस्त थी कि पूरी टीम सारी रात सो नहीं सकी।
इस हार के लिए ध्यान चंद अपनी आत्मकथा ‘गोल’ में लिखते हैं-
“मैं जब तक जीवित रहूँगा। इस हार को कभी नहीं भूलूंगा। इस हार ने हमें इतना हिला कर रख दिया कि हम पूरी रात सो नहीं पाए। हमने तय किया कि इनसाइड राइट पर खेलने के लिए आईएनएस दारा को तुरंत भारत से हवाई जहाज़ से बर्लिन बुलाया जाए।”
जर्मनी के ख़िलाफ फ़ाइनल मैच
जर्मनी के ख़िलाफ फ़ाइनल मैच 14 अगस्त 1936 को खेला जाना था, लेकिन उस दिन बहुत बारिश हो गई, इसलिए मैच 15 अगस्त को खेला गया।
मैच से पहले भारतीय टीम के मैनेजर पंकज गुप्ता ने अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का झंडा निकाला (उस समय भारत का कोई ध्वज नहीं था क्योंकि उस समय भारत परतंत्र था।अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का ध्वज ही राष्ट्रीयता का प्रतीक था।)
सभी खिलाड़ियों ने उसे सेल्यूट किया।
40,000 लोगों की क्षमता वाला बर्लिन का स्टेडियम बड़ौदा के महाराजा, भोपाल की बेगम और जर्मन तानाशाह हिटलर सरीखे महत्वपूर्ण लोगों तथा जन सामान्य से खचाखच भरा हुआ था।
भारत ने जर्मनी को 8-1 के बड़े अंतर से हराया
इसमें तीन गोल ध्यानचंद ने किए।
अगले दिन एक अख़बार मॉर्निंग पोस्ट ने लिखा-
“बर्लिन लंबे समय तक भारतीय टीम को याद रखेगा. भारतीय टीम ने इस तरह की हॉकी खेली मानो वो स्केटिंग रिंक पर दौड़ रहे हों। उनके स्टिक वर्क ने जर्मन टीम को अभिभूत कर दिया.”
ऑस्ट्रेलिया न्यूजीलैंड का दौरा 1934
1934 में ऑस्ट्रेलिया-न्यूजीलैंड के दौरे के दौरान भारतीय टीम ने कुल 48 मैच खेले।
(कहीं-कहीं इस दौरे का वर्ष 1935 भी बताया जाता है।)
पूरी टीम ने 584 गोल किये।
ध्यानचंद के खेल में इतनी विविधता, तीव्रता और गति थी कि अकेले ध्यानचंद ने 200 गोल किये।
गोलों की विशाल संख्या देखकर ऑस्ट्रेलिया के महान क्रिकेटर डॉन बैडमेन आश्चर्यचकित होकर बोले कि-
“ये किसी क्रिकेट खिलाड़ी द्वारा बनाए गए दोहरे शतक की संख्या तो नहीं है।”
ध्यानचंद जी के बारे में ऑस्ट्रेलियन प्रेस की टिप्पणी ने तो पूरे विश्व में तहलका मचा दिया था कि-
“देखने में सामान्य सा दिखने वाला खिलाड़ी एक सक्रिय क्रिस्टल की तरह रहता है और किसी भी परिस्थिति से निपटने की उसमें जन्मजात क्षमता है। उसके पास बाज की आंखें और चीते की गति है।”
पुरस्कार एवं सम्मान :मेजर ध्यानचंद Major Dhayanchand जीवन परिचय पुरस्कार एवं सम्मान तथा संपूर्ण जानकारी
भारत सरकार द्वारा सन् 1956 में पद्मभूषण।
सन् 1989 में मरणोपरांत ध्यानचंद के नाम से डाक टिकट।
8 मार्च सन् 2002 को राष्ट्रीय स्टेडियम दिल्ली का पुनः नामकरण ध्यानचंद जी के नाम पर।
झांसी के पूर्व सांसद पंडित विश्वनाथ शर्मा की मांग – मेजर ध्यानचंद जी के जन्म दिवस 29 अगस्त को ‘खेल दिवस’ घोषित किया जाए।
1994 में तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव की सरकार ने 29 अगस्त को विधिवत् राष्ट्रीय खेल दिवस घोषित कर दिया।
उपनाम
ध्यान चंद जी को ‘हॉकी के जादूगर’ के नाम से जाना जाता है
उन्हें यह उपाधि कब और किसने दी इसकी तो कोई सही और निश्चित जानकारी नहीं है
लेकिन इतना अवश्य है कि एमस्टर्डम में एक मैच के दौरान उनकी स्टिक को तोड़कर देखा गया था कि कहीं उसमें कोई मैग्नेट तो नहीं है।
यह सिर्फ एक घटना नहीं है।
ऐसी कई और घटनाएं हैं जब उनकी हॉकी स्टिक की जांच की जाती थी।
ऐसी ही घटनाएं उन्हें हॉकी का जादूगर कहने के लिए काफी हैं।
अंतिम समय
20 नवंबर 1979 को मेजर ध्यानचंद जी अचानक बीमार पड़ गये, उन्हें दिल्ली ले जाया गया। उपचार के बावजूद ध्यानचंद जी ने 3 दिसंबर 1979 को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में इस भौतिक संसार से सदा-सदा के लिए विदा ले ली।
अनेक किंवदंतियां इस महान हॉकी खिलाड़ी के साथ जुड़ी हुई है, जो इसे और भी महान बनाती है। वर्ष 2017 से इन्हें भारत रत्न दिये जाने की मांग लगातार बढ़ती जा रही है।
वर्तमान NDA सरकार से बात की अपेक्षा की जाती है कि वह जनता की इस माह को अवश्य पूरा करेगी।
Google के CEO सुंदर पिचई Sundar Pichai का जीवन परिचय, परिवार, शिक्षा, व्यक्तिगत जीवन तथा संघर्षशील जीवन से सफलता की पूरी प्रेरणाप्रद कहानी
Google के CEO सुंदर पिचई Sundar Pichai
आईटी और तकनीक के सार्वभौमिक पटल पर पहुंचने वाले सुंदर पिचई को कौन नहीं जानता।
सुंदर पिचई को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है।
उनकी अथाह एवं अपार सफलता ही उनकी वास्तिवक पहचान है।
सुंदर पिचई की सफलता की कहानी सभी के लिए एक प्रेरणा है।
चेन्नई में साधारण सा जीवन जीने वाले सुंदर आज सफलता की सभी पराकाष्ठाएं भी लांघ चुके हैं या फिर ये कहना भी कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि सफलता का पर्याय हैं ‘सुंदर पिचई’।
सुंदर पिचई जीवन परिचय : परिवार तथा व्यक्तिगत जीवन
चेन्नई में 10 जून 1972 में जन्मे सुंदर पिचई का मूल नाम पिचई सुंदराजन है, किंतु उन्हें सुंदर पिचई के नाम से जाना जाता है।
सुंदर पिचई का जन्म मदुरै, तमिलनाडु, भारत के तमिल परिवार में हुआ।
उनकी मां का नाम लक्ष्मी था, जो कि एक स्टेनोग्राफर थीं।
इनके पिता का नाम रघुनाथ पिचई था।
वे ब्रिटिशसमूह के जीईसी में एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर थे।
सुंदर पिचई के पिता कामैन्युफैक्चरिंग प्लांट था, जहां इलेक्ट्रिक कॉम्पोनेंट बनाए जाते थे।
सुंदर की पत्नी का नाम अंजलि तथा बच्चों के नाम काव्या एवं किरण है।
शिक्षा
सुंदर पिचई चेन्नईमें रहते थे और एक सामान्य जीवन जीते थे।
सुन्दर ने जवाहर नवोदय विद्यालय, अशोक नगर, चेन्नई में अपनी दसवीं तथा वना वाणी स्कूल, चेन्नई से बारहवीं कक्षा पूरी की।
सुंदर पिचई इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफटेक्नोलॉजी (IIT), खड़कपुर से मेटलर्जिकल इंजीनियरिंग (धातुकर्मइंजीनियरिंग) की पढ़ाई की।
इन्होंने एम.एस. (कम्प्यूटर साइंस) में स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय से की।
पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के व्हार्टन स्कूल से एमबीएकिया, जहां उन्हे एक विद्वान साइबेल स्कॉलर के लिए नामित किया गया।
सुंदर पिचई जीवन परिचय : संघर्षशील जीवन से सफलता तक
मैक्किंतॉश् में कंसल्टेंट
कमजोर आर्थिक परिस्थितयों के कारण सुंदर पिचई 1995 में स्टैनफोर्ड में बतौर पेइंग गेस्ट रहते थे।
कम पैसे के कारण सुंदर पिचई पुरानी चीजें इस्तेमाल कर लेते थे, लेकिन पढ़ाई के प्रति कभी लापरवाही नहीं दिखाई।
परिस्थितियों के कारण इन्होंने पीएचडी का सपना त्याग कर इन्हें अप्लायड मटीरियल्स इंक में प्रोडक्ट मैनेजर के पद पर नौकरी की।
प्रसिद्ध कंपनी मैक्किंतॉश् में कंसल्टेंट का काम भी किया।
गूगल क्रोम में भूमिका
1 अप्रैल 2004 को वे गूगल में आए।
सुंदर कापहला प्रोजेक्ट प्रोडक्ट मैनेजमेंट और इनोवेशन शाखा में गूगल के सर्चटूलबार को बेहतर बनाकर दूसरे ब्रॉउजर के ट्रैफिक को गूगल पर लाना था।
इसी दौरान उन्होंने सुझाव दिया कि गूगल को अपना ब्राउजर लांच करना चाहिए।
सुंदर पिचई ने 2004 में गूगल ज्वाइन किया था। उस समय वे प्रोडक्ट और इनोवेशनऑफिसर थे।
सुंदर सीनियर वाइस प्रेसीडेंट (एंड्रॉइड, क्रोम और ऐप्स डिविजन)रह चुके हैं।
पिछले साल अक्टूबर में उन्हें गूगल का सीनियर वीपी (प्रोडक्टचीफ) बनाया गया था।
एंड्रॉइड ऑपरेटिंग सिस्टम के डेवलपमेंट और 2008 में लांच हुए गूगल क्रोम में उनकी बड़ी भूमिका रही है।
सीनियर वाइसप्रेसीडेंट
प्रोडक्ट मैनेजर के पद पर रहते हुए सुंदर पिचई नेगूगल ज्वाइन किया था, तो इंटरनेट यूजर्स के लिए शोध कियाकि यूजर्सजो इन्स्टॉल करना चाहते हैं, वे जल्दी इन्स्टॉल हो जाए।
हालांकि यह काम ज्यादा मजेदार नहीं था, फिर भी उन्होंने खुद को साबित करने के लिए अन्य कंपनियों से बेहतर संबंध बनाएं, ताकि टूलबार को बेहतर बनाया जाए।
उन्हें प्रोडक्ट मैनेजमेंट का डायरेक्टर बना दिया गया। 2011 में जब लैरी पेज गूगल के सीईओ बने, तो उन्होंने तुरंत पिचई को प्रमोट करते हुए सीनियर वाइसप्रेसीडेंट बना दिया गया था।
क्रोम ऑपरेटिंग सिस्टम
इसी एक आइडिया से वे गूगल के संस्थापक लैरीपेज की नजरों में आ गए।
इसी आइडिया से उन्हें असली पहचान मिलनी शुरू हुई।
2008 से लेकर 2013 के दौरान सुंदर पिचई के नेतृत्व में क्रोम ऑपरेटिंग सिस्टम की सफल लांचिंग हुई और उसके बाद एंड्रॉइड मार्केट प्लेस से उनका नाम दुनिया भर में हो गया।
सुंदर ने ही गूगल ड्राइव, जीमेल ऐप और गूगल वीडियो कोडेक बनाए हैं।
सुंदर द्वारा बनाए गए क्रोम ओएस और एंड्रॉइड एप ने उन्हें गूगल के शीर्ष पर पहुंचा दिया।
पिछले साल एंड्रॉइड डिविजन उनके पास आया और उन्होंने गूगल के अन्य व्यवसाय को आगे बढ़ाने में भी अपना योगदान दिया।
अन्य
वह 2004 में गूगल में आए।
जहाँ वे गूगल के उत्पाद जिसमें गूगल क्रोम, क्रोमओएस शामिल है।
शुरुआत में वह गूगल के सर्च बार पर छोटी टीम के साथ काम करते रहे।
इसके बाद उन्होंने गूगल के कई और प्रोडक्ट पर भी काम किया है।
उन्होंने जीमेल और गूगल मैप्स जैसे अन्य अनुप्रयोगों के विकास की देखरेख की।
इसके बाद वह गूगल ड्राइव परियोजना का हिस्सा बने।
फिर इसके बाद वह अन्य उत्पाद जैसे जीमेल और गूगल मानचित्र, आदि का हिस्सा बने।
इसके बाद वह 19 नवम्बर 2009 में क्रोम ओएस और क्रोमबूक आदि के जाँच कर दिखाये। वह इसे 2011 में सार्वजनिक किया।
यह 13 मार्च 2013 को एंडरोइड के परियोजना से जुड़े। अप्रैल 2011 से 30 जुलाई 2013 तक जीवा सॉफ्टवेयर के निर्देशक बने थे।
अंतत: – सुंदर पिचई जीवन परिचय
गूगल ने अपनी कंपनी का नाम अल्फ़ाबेट में बदल दिया।
सुंदर पिचई वर्तमान में अमेरिकी व्यवसायी हैं, जो अल्फाबेट कंपनीके सीईओ तथा उसकी सहायक कंपनी गूगल एलएलसी के सीईओ हैं।
इसके बाद लेरी पेज ने गूगल खोज नामक कंपनी का सीईओ सुंदर पिचई को बना दिया और स्वयंअल्फाबेट कंपनी के सीईओ बन गए।
सुन्दर पिचई ने गूगल सीईओ का पद ग्रहण 2 अक्टूबर, 2015 को किया। 3 दिसंबर, 2019 को वह अल्फाबेट के सीईओ बन गए।
गूगल के सीईओ सुंदर पिचई का जीवन परिचय, परिवार, शिक्षा, व्यक्तिगत जीवन तथा संघर्षशील जीवन से सफलता तक की पूरी कहानी