भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान

भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान

“घर बालक की प्रथम पाठशाला और माता-पिता उसके प्रथम शिक्षक होते हैं।”

उक्त कथन पूर्ण सत्य है बालक अपना पहला ज्ञान अपने परिवार और परिजनों से ही लेता है और उसके बाद ही वह समाज में प्रवेश करता है।

समाज में प्रवेश करके वह समाज के बारे में प्रयोगात्मक ज्ञान प्राप्त करता है

लेकिन इसके बाद भी उसे ज्ञान प्राप्ति के लिए विद्यालय और उसके पश्चात महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय की आवश्यकता होती है।

वर्तमान समय में हमें शिक्षा की कितनी आवश्यकता है उस शिक्षा से हम क्या क्या कर सकते हैं,

किस तरह से हम अपने तथा दूसरों के जीवन में परिवर्तन ला सकते हैं।

इसके लिए नेल्सन मंडेला का यह कथन पूर्णतया सार्थक है

“शिक्षा सबसे शक्तिशाली हथियार है जिसका उपयोग आप विश्व को बदलने के लिए कर सकते हैं”।

भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान
भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान

भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान

विश्व की सबसे प्राचीन और विकसित सभ्यता भारतीय सभ्यता है विश्व के सबसे प्राचीन ग्रंथ वेद है, जो कि ज्ञान का अथाह भंडार है।

प्राचीन काल से ही भारत में शिक्षा का प्रचार प्रसार अत्यंत व्यापक था।

वेदो के अध्ययन से हमें पता चलता है कि प्राचीन काल में भारत में सभी वर्गों को शिक्षा प्राप्ति का अधिकार था

प्राचीन समय में भारत में गुरुकुल पद्धति से शिक्षा दी जाती थी।

विद्यार्थी अपने गुरु के पास जाकर शिक्षा ग्रहण करते थे और शिक्षा पूर्ण होने पर ही अपने घर लौटते थे।

यह पद्धति अत्यंत कठिन थी परंतु इससे प्राप्त ज्ञान जीवन को बदलने वाला था

प्राचीन भारतीय शिक्षा का उद्देश्य केवल परीक्षाएं पास करवाकर डिग्रियां बांटना नहीं था बल्कि सीखे हुए ज्ञान को जीवन में धारण करना तथा यथा समय उसका प्रयोग किया जा सके शिष्य को इस योग्य बनाया जाना था।

भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान

आज से लगभग 2700 वर्ष पूर्व भारत में विश्व का पहला विश्वविद्यालय स्थापित किया गया।

यह विश्वविद्यालय तक्षशिला नामक स्थान पर स्थापित किया गया था।

इसके बाद लगभग 2300 वर्ष पूर्व नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना की गई।

यह दोनों ही विश्वविद्यालय वेद वेदांग के अतिरिक्त ज्ञान-विज्ञान, तकनीकी, गणित खगोल, भौतिकी, राजनीति शास्त्र, अर्थशास्त्र, नीति शास्त्र, व्याकरण आदि अनेक विषयों के लिए प्रसिद्ध थे।

इन्ही विश्वविद्यालयों में प्रसिद्ध भारतीय विद्वानों, जैसे- चरक, सुश्रुत, आर्यभट्ट, चाणक्य, पतंजलि आदि ने ज्ञान प्राप्त किया और ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों, जैसे- गणित, खगोल विज्ञान, भौतिकी, रसायन शास्त्र, चिकित्सा विज्ञान और शल्य चिकित्सा इत्यादि में महत्वपूर्ण योगदान दिया।

सभी प्रकार के स्वास्थ्य और विज्ञान में भारतीयों का स्थान प्रथम है

यथा- आचार्य कणाद परमाणु संरचना पर सर्वप्रथम प्रकाश डालने वाले महापुरूष थे।

कणाद का कहना था– “यदि किसी पदार्थ को बार-बार विभाजित किया जाए और उसका उस समय तक विभाजन होता रहे, जब तक वह आगे विभाजित न हो सके, तो इस सूक्ष्म कण को परमाणु कहते हैं। परमाणु स्वतंत्र रूप से नहीं रह सकतेI परमाणु का विनाश कर पाना भी सम्भव नहीं हैं।”

प्राचीन वैज्ञानिकों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त

बौधायन भारत के प्राचीन गणितज्ञ और शुल्ब सूत्र तथा श्रौतसूत्र के रचयिता थे। उस समय भारत में रेखागणित या ज्यामिति को शुल्व शास्त्र भी कहा जाता था।

सुश्रुत प्राचीन भारत के महान चिकित्साशास्त्री एवं शल्यचिकित्सक थे। उनको शल्य चिकित्सा का जनक कहा जाता है।

चरक एक महर्षि एवं आयुर्वेद विशारद के रूप में विख्यात हैं। वे कुषाण राज्य के राजवैद्य थे। इनके द्वारा रचित चरक संहिता एक प्रसिद्ध आयुर्वेद ग्रन्थ है।

जीवक कौमारभच्च प्राचीन भारत के प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्यथे। अनेक बौद्ध ग्रन्थों में उनके चिकित्सा-ज्ञान की व्यापक प्रशंसा मिलती है। वे बालरोग विशेषज्ञ थे।

आर्यभट प्राचीन भारत के एक महान ज्योतिषविद् और गणितज्ञ थे। इन्होंने आर्यभटीय ग्रंथ की रचना की जिसमें ज्योतिषशास्त्र के अनेक सिद्धांतों का प्रतिपादन है।

वराहमिहिर (वरःमिहिर) ईसा की पाँचवीं-छठी शताब्दी के भारतीय गणितज्ञ एवं खगोलज्ञ थे। वाराहमिहिर ने ही अपने पंचसिद्धान्तिका में सबसे पहले बताया कि अयनांश का मान 50.32 सेकेण्ड के बराबर है।

ब्रह्मगुप्त (५९८-६६८) प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ थे। वे तत्कालीन गुर्जर प्रदेश (भीनमाल) के अन्तर्गत आने वाले प्रख्यात शहर उज्जैन (वर्तमान मध्य प्रदेश) की अन्तरिक्ष प्रयोगशाला के प्रमुख थे और इस दौरान उन्होने दो विशेष ग्रन्थ लिखे: ब्रह्मस्फुटसिद्धान्त (सन ६२८ में) और खण्डखाद्यक या खण्डखाद्यपद्धति (सन् ६६५ ई में)। ये अच्छे वेधकर्ता थे और इन्होंने वेधों के अनुकूल भगणों की कल्पना की है। प्रसिद्ध गणितज्ञ ज्योतिषी, भास्कराचार्य, ने अपने सिद्धांत को आधार माना है और बहुत स्थानों पर इनकी विद्वत्ता की प्रशंसा की है। मध्यकालीन यात्री अलबरूनी ने भी ब्रह्मगुप्त का उल्लेख किया है।

भास्कराचार्य या भास्कर द्वितीय (1114 – 1185) प्राचीन भारत के एक प्रसिद्ध गणितज्ञ एवं ज्योतिषी थे। इनके द्वारा रचित मुख्य ग्रन्थ सिद्धान्त शिरोमणि है जिसमें लीलावती, बीजगणित, ग्रहगणित तथा गोलाध्याय नामक चार भाग हैं। ये चार भाग क्रमशः अंकगणित, बीजगणित, ग्रहों की गति से सम्बन्धित गणित तथा गोले से सम्बन्धित हैं।

भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान

विदेशी आक्रमणों के साथ ही भारतीय शिक्षा पद्धति का प्रभाव भी शुरू हो गया विदेशी आक्रांता ओं ने न सिर्फ भारतीय शिक्षा पद्धति का नाश किया बल्कि अनेक अनेक ग्रंथों विश्वविद्यालयों पुस्तकालय आदि को भी नष्ट कर दिया। अंग्रेजी शासनकाल में मैकाले द्वारा शुरू की गई शिक्षा पद्धति ने भारतीय शिक्षा की रीड की हड्डी ही तोड़ दी।

अंग्रेजी शिक्षा के प्रचार से भारतीय शिक्षा और ज्ञान विज्ञान अपना प्रभुत्व खोने लगे और उस पर एक नया स्वरूप छाने लगा जिसे पाश्चात्य शिक्षा कहा गया।

कालांतर में भारतीय विद्वानों ने भी इसी पाश्चात्य शिक्षा का अनुसरण किया स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद अनेक आयोग तथा समितियां गठित किए गए लेकिन उनमें से किसी ने भी भारतीय शिक्षा पद्धति की तरफ ध्यान नहीं दिया सभी ने पाश्चात्य शिक्षा पद्धति से ही शिक्षा देने का समर्थन किया जो शायद समय की मांग भी थी।

नालन्दा और विक्रमशिला विश्वविद्यालय से भी प्राचीन तेल्हाड़ा विश्वविद्यालय। जानने के लिए क्लिक कीजिए- https://thehindipage.com/indian-history/telhada-vishvavidhyalya/

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारत में शिक्षा से संबंधित आयोग और समितियां (Commissions and Committees related with Education over the years)

विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग या राधा कृष्ण आयोग (1948):

स्वतंत्र भारत का यह पहला शिक्षा आयोग था जो पूर्व राष्ट्रपति शिक्षाविद एवं दार्शनिक डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्ण की अध्यक्षता में गठित हुआ इसके द्वारा क्षेत्र, जाति, लैंगिक विषमता का भेदभाव किए बिना समाज के सभी वर्गों के लिए उच्च शिक्षा को उपलब्ध कराने की अनुशंसा की गई।

मुदालियर आयोग या माध्यमिक शिक्षा आयोग:

डॉ. ए. लक्ष्मण स्वामी मुदलियार की अध्यक्षता में गठित माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952):

समिति ने सम्पूर्ण भारत में एक समान प्रारूप लागू करने,

आउटकम की दक्षता में वृद्धि,

मैट्रिक पाठ्यक्रमों का विविधीकरण,

बहुउद्देशीय मैट्रिक विद्यालयों तथा तकनीकी विद्यालयों की स्थापना की सिफारिश की।

भारतीय शिक्षा आयोग या कोठारी आयोग (1964-66)

डॉ. दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में गठित भारतीय शिक्षा आयोग का गठन 1964 में किया गया

इस आयोग द्वारा – a आंतरिक परिवर्तन b गुणात्मक सुधार और c शैक्षिक सुविधाओं का विस्तार, के आधार पर एक व्यापक पुनर्निर्माण के तीन मुख्य बिंदुओं कि अनुशंसा की गयी।

1968 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति:

कोठारी आयोग की अनुशंसा के आधार पर 1968 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति का निर्माण किया गया।

इसने माध्यमिक विद्यालयों में क्षेत्रीय भाषाओं पर बल देने; संविधान में प्रस्तावित 6-14 वर्ष की आयु वर्गों के बालकों के लिए अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान करने;

अंग्रेजी को विद्यालयों में शिक्षा का माध्यम बनाने,

हिंदी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में स्वीकार करने एवं

संस्कृत के विकास को बढ़ावा देने तथा राष्ट्रीय आय का 6 प्रतिशत शिक्षा पर व्यय करने जैसी कई महत्त्वपूर्ण अनुशंसाएं की।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986):

(अद्यतन1992) इसके प्रमुख प्रावधानों में शामिल हैं-

समाज के सभी वर्गों विशेष रूप से अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और महिलाओं को शिक्षा की पहुँच सुनिश्चित करना;

निर्धनों के लिए छात्रवृत्ति का प्रावधान,

प्रौढ़ शिक्षा प्रदान करना,

वंचित/पिछड़े वर्गों से शिक्षकों की भर्ती करना और नए विद्यालयों एवं महाविद्यालयों का विकास करना;

छात्रों को प्राथमिक शिक्षा प्रदान करना;

गांधीवादी दर्शन के साथ ग्रामीण लोगों को शिक्षा प्रदान करना;

मुक्त विश्वविद्यालयों की स्थापना करना;

शिक्षा में IT का प्रचार करना;

तकनीकी शिक्षा क्षेत्र को प्रारम्भ करने के अतिरिक्त वृहद स्तर पर निजी उद्यम को बढ़ावा देना।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1992):

भारत सरकार द्वारा 1990 में आचार्य राममूर्ति की अध्यक्षता में 1986 की राष्ट्रीय नीति के परिणामों की समीक्षा करने के लिए एक आयोग का गठन किया गया।

इसकी प्रमुख अनुशंसाओं में शामिल थीं-

केंद्र और राज्य सरकारों को सलाह देने के लिए उच्चतम सलाहकार निकाय के रूप में केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड का गठन;

शिक्षा की गुणवत्ता में वृद्धि पर ध्यान केंद्रित करना;

छात्रों में नैतिक मूल्यों को विकसित करना तथा

जीवन में शिक्षा को आत्मसात करने पर बल देना।

टी एस आर सुब्रमण्यम समिति की प्रमुख सिफारिशें:भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान

फेल नहीं करने की नीति पांचवी कक्षा तक ही लागू होनी चाहिए।। उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को बेहतर बनाने के लिए विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत आने की अनुमति दी जानी चाहिए।

मानव संसाधन के अधीन एक ’भारतीय शिक्षा सेवा’ का गठन किया जाए, (Indian Education Service: IES) का गठन किया जाना चाहिए; शिक्षा पर व्यय GDP का कम से कम 6% तक बढ़ाया जाना चाहिए; मौजूदा B.Ed पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए स्नातक स्तर पर 50% अंकों के साथ न्यूनतम पात्रता शर्त होनी चाहिए; सभी शिक्षकों की भर्ती के लिए शिक्षक पात्रता परीक्षा (Teacher Eligibility Test: TET) अनिवार्य किया जाना चाहिए; सरकार और निजी स्कूलों में शिक्षकों के लिए लाइसेंसिंग या प्रमाणीकरण को अनिवार्य बनाना चाहिए; 4 से 5 वर्ष की आयु वर्ग के बच्चों के लिए पूर्व-विद्यालय शिक्षा को अधिकार के रूप में घोषित किया जाना चाहिए; मिड-डे-मील योजना का विस्तार माध्यमिक विद्यालय तक किया जाए ; भारत में कैंपस खोलने के लिए शीर्ष 200 विदेशी विश्वविद्यालयों को अनुमति दी जानी चाहिए।

नई शिक्षा नीति तैयार करने हेतु कस्तूरीरंगन आयोग (2017) का गठन : भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान

केंद्र सरकार द्वारा एक नई शिक्षा नीति तैयार करने हेतु कस्तूरीरंगन आयोग (2017) का गठन किया गया है।

नई शिक्षा नीति में ध्यान केंद्रित किए जाने वाले प्रमुख बिंदु हैं:

आंगनबाड़ी को प्री-प्राइमरी स्कूल में बदला जायेगा।

राज्य एक साल के भीतर कोर्स बनायेंगे तथा शिक्षकों का अलग कैडर बनायेंगे।

सभी प्राइमरी स्कूल प्री-प्राइमरी स्कूल से सुसज्जित होंगे। आगनबाड़ी केंद्रों को स्कूल कैम्पस में स्थापित किया जायेगा।

नो डिटेंशन अब कक्षा 05 तक होगा।

RTE को 12 वीं तक ले जाया जायेगा।

विज्ञान, गणित तथा अंग्रेजी का समान राष्ट्रीय पाठ्यक्रम होगा।

सामाजिक विज्ञान का एक हिस्सा समान होगा, शेष का निर्माण राज्य करेंगे।

कक्षा 6 से ICT आरंभ होगी।

कक्षा 6 से विज्ञान सीखने के लिए प्रयोगशाला की सहायता ली जायेगी।

गणित, विज्ञान तथा अंग्रेजी के कक्षा 10 हेतु दो लेवल होंगे-A तथा B

ICT का शिक्षण तथा अधिगम सुनिश्चित करने हेतु प्रयोग।

विद्यालय के कार्यों का कम्प्यूटीकरण तथा शिक्षकों-छात्रों की उपस्थिति की ऑनलाइन मॉनिटरिंग।

राज्यों में शिक्षकों की नियुक्ति के लिये अलग से ‘शिक्षक भर्ती आयोग’।

नियुक्ति पारदर्शी तथा मैरिट के आधार पर होगी।

सभी रिक्त पद भरे जाएं। प्रधानाचार्यों के लिये लीडरशिप ट्रेनिंग अनिवार्य।

राष्ट्रीय स्तर पर ‘टीचर एजुकेशन विश्वविद्यालय’ की स्थापना।

हर पांच साल में शिक्षकों को एक परीक्षा देनी होगी। इसे उनके प्रमोशन तथा इन्क्रीमेंट से जोड़ा जायेगा।

GDP का 6% शिक्षा पर खर्च करने के लक्ष्य को पूरा करने की कोशिश हो।

नयी संस्थाओं को खोलने के बजाय मौजूदा शिक्षण संस्थाओं को मजबूत किया जाये।

मिड डे मील का दायित्व शिक्षकों के ऊपर से हटाकर महिला स्वयं सहायता समूहों को दिया जायेगा।

भोजन बनाने की केंद्रिकत प्रणाली विकसित की जायेगी।

निष्कर्ष

आधुनिक शिक्षा आज की आवश्यकता है परंतु केवल भौतिक उन्नति ही जीवन का सार नहीं है इसके साथ आध्यात्मिक उन्नति भी आवश्यक है स्वतंत्र भारत में जितने भी आयोग और समितियां शिक्षा की उन्नति के लिए गठित किए गए।

उन सभी का विश्लेषण करने के बाद यह प्रतीत होता है कि किसी ने भी प्राचीन भारतीय ज्ञान और विज्ञान के बारे में ऐसा कोई विचार नहीं दिया जिससे कि प्राचीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान का सदुपयोग आज की भौतिकवादी सभ्यता में किया जा सके।

बिना आध्यात्मिक मुक्ति के गौरी भौतिकता सर्वनाश की ओर ले जाती है।

प्राचीन भारतीय ज्ञान विज्ञान में भौतिक उन्नति के स्थान पर आध्यात्मिक व्यक्ति को महत्व दिया गया था

इसीलिए उनका जीवन शांतिपूर्ण और सात्विक था।

प्राचीन भारतीय मनीषियों ने वर्तमान समय से कहीं अधिक उन्नति कर ली थी।

ज्ञान विज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में वह आज से कहीं आगे थे

अतः यह स्पष्ट हो जाता है कि आधुनिकता को अपनाया तो जाएं लेकिन अपने प्राचीन गौरव को ना छोड़ा जाए।

 

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श्री सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या के मतानुसार प्रांतीय भाषाओं और बोलियों का महत्व

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संघ लोक सेवा आयोग

संघ लोक सेवा आयोग (Union Public Service Commission)

ऐतिहासिक परिदृश्य

सन् 1855 तक भारतीय ईस्ट इंडिया कम्पनी के लिए सिविल सेवकों की भर्ती कम्पनी के उच्चाधिकारियों द्वारा कि जाती थी
और इसके बाद में उन्हें लंदन के हेलीबरी कॉलेज में प्रशिक्षण दे कर भारत भेजा जाता था।

भारत में, योग्यता आधारित आधुनिक सिविल सेवा की अवधारणा 1854 में ब्रिटिश संसद कीलॉर्ड मैकाले की अध्यक्षता वाली प्रवर समिति की रिपोर्ट के बाद स्पष्ट हुई।

रिपोर्ट में यह अनुशंसा की गई थी कि
भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी की संरक्षण आधारित प्रणाली के स्थान पर प्रतियोगी परीक्षा के द्वारा प्रवेश के साथ योग्यता आधारित स्थायी सिविल सेवा प्रणाली लागू की जानी चाहिए।

संघ लोक सेवा आयोग

इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु, 1854 में लंदन में सिविल सेवा आयोग की स्थापना की गई तथा
प्रतियोगी परीक्षाएं 1855 में प्रारम्भ की गयी।

संघ लोक सेवा आयोग
संघ लोक सेवा आयोग

प्रारम्भ में भारतीय सिविल सेवा के लिए परीक्षाओं का आयोजन सिर्फ लंदन में किया जाता था।
जिसके लिए अधिकतम आयु 23 वर्ष तथा न्यूनतम आयु 18 वर्ष थी।
पाठ्यक्रम इस प्रकार निर्धारित किया जाता था कि उसमें सर्वाधिक अंक यूरोपियन क्लासिकी
के थे जिससे भारतीय अभ्यर्थियों के लिए ये परीक्षाएं कठिन हो जाती थी।
परंतु फिर भी, रवीन्द्रनाथ टैगोर के भाई सत्येन्द्र नाथ टैगोर पहले भारतीय थे,
जिन्होंने 1864 में, सिविल सेवा परीक्षा में सफलता प्राप्त की।

संघ लोक सेवा आयोग

तीन वर्ष पश्चात 4 अन्य भारतीयों ने भी सफलता प्राप्त की।
ब्रिटिश सरकार नहीं चाहती थी कि बड़ी संख्या में भारतीय इन परीक्षाओं में सफलता प्राप्त करेंऔर भारतीय सिविल सेवा में प्रवेश करें।

अगले 50 वर्षों तक, भारतीयों ने इंग्लैंड के साथ-साथ भारत में भी परीक्षाएं आयोजित करने हेतु निवेदन किया
परंतु उन्हें सफलता नहीं मिली।

प्रथम विश्व युद्ध तथा मान्टेग्यूचैम्सफोर्ड सुधारों के पश्चात1922 से भारतीय सिविल सेवा परीक्षा का आयोजन भारत में भी होने लगा, सबसे पहले इलाहाबाद में तथा बाद में फेडरल लोक सेवा आयोग की स्थापना के साथ ही दिल्ली में भी इन परीक्षाओं का आयोजन आरम्भ हुआ।

लंदन में हो रही परीक्षा का आयोजन सिविलसेवा आयोग ही कर रहा था।
इसी प्रकार, स्वतंत्रतापूर्व भारतीय (शाही) पुलिस के उच्चाधिकारियों की नियुक्ति सेक्रेटरी ऑफ स्टेट द्वारा प्रतियोगिता-परीक्षा के माध्यम से की जाती थी।

संघ लोक सेवा आयोग

सेवा के लिए इस तरह की प्रथमखुली प्रतियोगिता का आयोजन जून 1893, में
इंगलैंड में हुआ तथा 10 श्रेष्ठ उम्मीदवारों को परीवीक्षाधीन सहायक पुलिस अधीक्षक नियुक्त किया गया।

शाही पुलिस में भारतीयों का प्रवेश 1920 के बाद ही आरम्भ हुआ तथा
बाद के वर्षों में सेवा हेतु परीक्षाओं का आयोजन इंगलैंड तथा भारत दोनों ही जगह होने लगा।
इस्लिंग्टन आयोग तथा ली आयोग की घोषणा तथा सिफारिशों के बावजूद पुलिस सेवा के भारतीयकरण की गति बहुत धीमी थी।

1931 तक पुलिस अधीक्षकों के कुलपदों के 20% पर ही भारतीय नियुक्त थे।
तथापि, सुयोग्य यूरोपियन उम्मीदवारों के उपलब्ध न होने के कारण 1939 के बाद से और अधिक भारतीयों को भारतीय पुलिस में नियुक्त किया गया ।

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1864 में तात्कालिक ब्रिटिश भारतीय सरकार ने शाही वन विभाग की शुरुआत की
तथा 1867 में शाही वन सेवा का गठन किया गया।

1920 में, यह निश्चय किया गया कि शाही वन सेवा के लिए आगामी भर्ती इंगलैंड तथा भारत में सीधी भर्ती तथा
भारत में प्रांतीय सेवा से पदोन्नति द्वारा की जाएगी।

स्वतंत्रता के पश्चात, अखिल भारतीय सेवा अधिनियम 1951 के तहत 1966 में भारतीय वनसेवा की स्थापना की गई।

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1887 में, एटचीन्सन आयोग ने नए पैटर्न पर सेवाओं के पुनर्गठन की सिफारिश की तथा सेवाओं को शाही,
प्रांतीय तथा अधीनस्थ- तीन वर्गों में बांटा।

शाही सेवाओं के भर्ती तथा नियंत्रण प्राधिकारी ‘सेक्रेटरी ऑफ स्टेट थे।
प्रारम्भ में, इन सेवाओं हेतु ज्यादातर ब्रिटिश उम्मीदवार ही भर्ती किए जाते थे।

प्रांतीय सेवाओं के लिए नियुक्ति तथा नियंत्रण प्राधिकारी संबंधित प्रांतीय सरकार थी,
जिसने भारत सरकार के अनुमोदन से इन सेवाओं के लिए नियम बनाए।

संघ लोक सेवा आयोग

भारत के अधिनियम 1919, पारित होने के साथ ही भारत के सेक्रेटरी ऑफ स्टेट की अध्यक्षता में संचालित शाही सेवाएं दो भागों- अखिल भारतीय सेवाएं तथा केन्द्रीय सेवाएं में बंट गई।

केन्द्रीय सेवाओं का संबंध केन्द्र सरकार के सीधे नियंत्रण वाले मामलों से था।
केन्द्रीय सचिवालय के अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण सेवाएं थी- रेलवे सेवाएं, भारतीय डाक तथा तार सेवातथा शाही सीमा शुल्क सेवा।

इनमें से कुछ के लिए, सेक्रेटरी ऑफ स्टेट ही नियुक्तियां करते थे,
परंतु ज्यादातर मामलों में इनके सदस्य भारत सरकार द्वारा नियुक्त तथा  नियंत्रित किए गए ।

संघ लोक सेवा आयोग

भारत में लोक सेवा आयोग का उद्गम भारतीय संवैधानिक सुधारों पर भारत सरकार के 5 मार्च, 1919 की प्रथम विज्ञप्ति में पाया जाता है।

अधिनियम की धारा 96(सी) में भारत में लोक सेवा आयोग की स्थापना की व्यवस्था है
जो “भारत में लोक सेवाओं के लिए भर्ती तथा नियंत्रण संबंधी ऐसे प्रकार्यों को वहन करेगा
जो उसे परिषद में सेक्रेटरी ऑफ स्टेट द्वारा निर्दिष्ट नियमावली के अंतर्गत सौंपे जाएंगे।”

संघ लोक सेवा आयोग

भारत सरकार अधिनियम, 1919 के पारित होने के बाद, स्थापित होने वाले निकाय के कार्यों तथा तंत्र को लेकर विभिन्न स्तरों पर लम्बे समय तक पत्राचार होने के बावजूद निकाय की स्थापना को लेकर कोई निर्णय नहीं हुआ।

बाद में यह विषय भारत में उच्च सिविल सेवाओं पर बने रॉयल आयोग (जिसे ली आयोग भी कहते हैं) को भेज दिया गया।

ली आयोग ने, 1924 में अपनी रिपोर्ट में यह सिफारिश की कि भारत सरकार अधिनियम, 1919 के अंतर्गत विचार किए गए सांविधिक लोक सेवा आयोग की स्थापना बिना किसी देरी के की जाए।

संघ लोक सेवा आयोग

भारत सरकार अधिनियम, 1919 की धारा 96(सी) के प्रावधानों तथा लोक सेवा आयोग की जल्द स्थापना को लेकर ली आयोग द्वारा 1924 में की गई जोरदार सिफारिशों के बाद भी भारत में पहली बार लोक सेवा आयोग की स्थापना 1 अक्तूबर, 1926 को की गई।

इसमें अध्यक्ष के अतिरिक्त 4 सदस्य भी थे।
यूनाइटेड किंगडम के गृह सिविल सेवा के एक सदस्य,
रॉस बार्कर आयोग के प्रथम अध्यक्ष बने।

संघ लोक सेवा आयोग

भारत सरकार अधिनियम, 1919 में लोक सेवा आयोग के कार्यों का उल्लेख नहीं था,
परंतु इसके कार्य भारत सरकार अधिनियम, 1919 की धारा 96(सी) की उपधारा (2) के अंतर्गत बनाई गई लोक सेवा आयोग (प्रकार्य) नियमावली, 1926 द्वारा विनियमित थे।

इसके अतिरिक्त, भारत सरकार अधिनियम, 1935 में फेडरेशन के लिए लोक सेवा आयोग तथा प्रत्येक प्रांत अथवा प्रांतों के समूहों के लिए प्रांतीय लोक सेवा आयोग पर विचार किया गया।

अतः, भारत सरकार अधिनियम, 1935 के प्रावधानों के अनुसार 1 अप्रैल, 1937 से प्रभावी होने के साथ ही लोक सेवा आयोग, फेडरल लोक सेवा आयोग बन गया ।

संघ लोक सेवा आयोग

26 जनवरी, 1950 को भारत के संविधान के प्रारंभ के साथ ही संविधान के अनुच्छेद 378 के खंड(l) के आधार पर फेडरल लोक सेवा आयोग, संघ लोक सेवा आयोग के रूप में पहचाना जाने लगा था फेडरल लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्य संघ लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्य बन गए।

संघ लोक सेवा आयोग का परिचय

संघ लोकसेवा आयोग एक संवैधानिक संस्‍था है,
जिसे प्रतियोगिता परीक्षाओं के आयोजन के साथ-साथ साक्षात्‍कार के माध्‍यम से चयन करने,
पदोन्‍नति पर नियुक्‍ति तथा प्रतिनियुक्‍ति पर स्‍थांनातरण के लिए अधिकारियों की उपयुक्‍तता के बारे में सलाह देने,
विभिन्‍न सेवाओं में भर्ती की पद्धति से संबंधित सभी मामलों में सरकार को परामर्श देने,
भर्ती नियम बनाने और संशोधन करने,
विभिन्‍न सिविल सेवाओं से संबंधित अनुशासनिक मामलें,
असाधारण पेंशन प्रदान करने संबंधी विविध मामले,
विधिक व्‍यय आदि की प्रतिपूर्ति,
भारत के महामहिम राष्ट्रपति महोदय द्वारा भेजे गए किसी मामले पर सरकार को सलाह देने और किसी राज्‍य के राज्यपाल द्वारा अनुरोध किए जाने पर उस राज्‍य में किसी या सभी आवश्‍यकताओं को महामहिम राष्‍ट्रपति महोदय के अनुमोदन के पश्‍चात पूरा करने का दायित्‍व सौंपा गया है।

 

अपने संवैधानिक दायित्‍वों को पूरा करने के लिए आयोग की सहायता के लिए अधिकारी/कर्मचारी होते है,
जिन्‍हें सामान्‍यत: आयोग के सचिवालय के रूप में जाना जाता है एवं जिसके प्रधान सचिव महोदय होते है।

आयोग की प्रशासनिक शाखा को आयोग के माननीय अध्‍यक्ष महोदय/  सदस्‍यों तथा अन्‍य अधिकारियों/ कर्मचारियों के वैयक्‍तिक मामले देखने के साथ-साथ आयोग सचिवालय के कार्य की व्‍यवस्‍था करने का दायित्‍व सौंपा गया है।

संघ लोक सेवा आयोग का गठन

अनुच्छेद– 315 (संघ और राज्यों के लिए लोक सेवा आयोग)

संविधान का अनुच्छेद 315 संघ के लिए एक लोक सेवा आयोग और प्रत्येक राज्य के लिए एक लोक सेवा आयोग का प्रावधान करता है।

दो या अधिक राज्य यह करार कर सकेंगे कि राज्यों के उस समूह के लिए एक ही लोक सेवा आयोग होगा और यदि इस आशय का संकल्प उन राज्यों में से प्रत्येक राज्य के विधान-मंडल के सदन द्वारा या जहाँ दो सदन हैं, वहाँ प्रत्येक सदन द्वारा पारित कर दिया जाता है तो संसद उन राज्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए विधि द्वारा संयुक्त राज्य लोक सेवा आयोग की (जिसे इस अध्याय में संयुक्त आयोग कहा गया है) नियुक्ति का उपबंध कर सकेगी।

अनुच्छेद– 316 (सदस्यों की नियुक्ति और पदावधि)

लोक सेवा आयोग के अध्‍यक्ष और अन्य सदस्यों की नियुक्ति,
यदि वह संघ आयोग या संयुक्त आयोग है तो,
राष्ट्रपति द्वारा और, यदि वह राज्य आयोग है तो,
राज्य के राज्यपाल द्वारा की जाएगी परंतु प्रत्येक लोक सेवा आयोग के सदस्यों में से यथाशक्य निकटतम आधे ऐसे व्यक्ति होंगे जो अपनी-अपनी नियुक्ति की तारीख पर भारत सरकार या किसी राज्य की सरकार के अधीन कम से कम दस वर्ष तक पद धारण कर चुके हैं और उक्त दस वर्ष की अवधि की संगणना करने में इस संविधान के प्रारंभ से पहले की ऐसी अवधि भी सम्मिलित की जाएगी जिसके दौरान किसी व्यक्ति ने भारत में क्राउन के अधीन या किसी देशी राज्य की सरकार के अधीन पद धारण किया है।

यदि आयोग के अध्‍यक्ष का पद रिक्त हो जाता है या यदि कोई ऐसा अध्‍यक्ष अनुपस्थिति के कारण या अन्य कारण से अपने पद के कर्तव्यों का पालन करने में असमर्थ है तो,
यथास्थिति, जब तक रिक्त पद पर खंड (1) के अधीन नियुक्त कोई व्यक्ति उस पद का कर्तव्य भार ग्रहण नहीं कर लेता है या
जब तक अध्‍यक्ष अपने कर्तव्यों को फिर से नहीं संभाल लेता है
तब तक आयोग के अन्य सदस्यों में से ऐसा एक सदस्य,
जिसे संघ आयोग या संयुक्त आयोग की दशा में राष्ट्रपति और राज्य आयोग की दशा में उस राज्य का राज्यपाल इस प्रयोजन के लिए नियुक्त करे, उन कर्तव्यों का पालन करेगा।

लोक सेवा आयोग का सदस्य, अपने पद ग्रहण की तारीख से छह वर्ष की अवधि तक या संघ आयोग की दशा में पैंसठ वर्ष की आयु प्राप्त कर लेने तक और राज्य आयोग या संयुक्त आयोग की दशा में बासठ वर्ष की आयु प्राप्त कर लेने तक इनमें से जो भी पहले हो, अपना पद धारण करेगा।

परंतु–

लोक सेवा आयोग का कोई सदस्य, संघ आयोग या संयुक्त आयोग की दशा में राष्ट्रपति को और राज्य आयोग की दशा में राज्य के राज्यपाल को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पद त्याग सकेगा;

लोक सेवा आयोग के किसी सदस्य को, अनुच्छेद 317 के खंड (1) या खंड (3) में उपबंधित रीति से उसके पद से हटाया जा सकेगा।

कोई व्यक्ति जो लोक सेवा आयोग के सदस्य के रूप में पद धारण करता है,
अपनी पदावधि की समाप्ति पर उस पद पर पुनर्नियुक्ति का पात्र नहीं होगा।

विशेष

संघ लोकसेवा आयोग के सदस्य पद ग्रहण की तिथि को 6 वर्ष की अवधि तक या
संघ आयोग की दशा में पैंसठ वर्ष की आयु प्राप्त कर लेने तक और राज्य आयोग या
संयुक्त आयोग की दशा में बासठ वर्ष की आयु प्राप्त कर लेने तक इनमें से जो भी पहले हो, अपना पद धारण करेगा।

इन नियुक्त सदस्यों की सेवा की शर्ते उनके कार्याकाल में अपरिवर्तनीय रहेंगी।

किसी सदस्य को केवल कदाचार के लांछन के आधार पर ही सर्वोच्च न्यायालय के परामर्श की प्राप्ति के उपरान्त राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकेगा।

संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यों की संख्या

संघ लोक सेवा आयोग के सदस्यों की संख्या समय-समय पर परिवर्तित होती रहती है।

1974-75 में संघ लोक सेवा आयोग में एक अध्यक्ष और 8 सदस्य थे। 1981-82 में एक अध्यक्ष और 7 सदस्य थे।

वर्तमान में (17/06/2019 की स्‍थिति के अनुसार) आयोग में एक अध्यक्ष और 10 सदस्य हैं।

अनुच्छेद– 317 (लोक सेवा आयोग के किसी सदस्य का हटाया जाना और निलंबित किया जाना)

खंड (3) के उपबंधों के अधीन रहते हुए,
लोक सेवा आयोग के अध्‍यक्ष या किसी अन्य सदस्य को केवल कदाचार के आधार पर किए गए राष्ट्रपति के ऐसे आदेश से उसके पद से हटाया जाएगा जो उच्चतम न्यायालय को राष्ट्रपति द्वारा निर्देश किए जाने पर उस न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 145 के अधीन इस निमित्त विहित प्रक्रिया के अनुसार की गई जाँच पर,
यह प्रतिवेदन किए जाने के पश्चात्‌ किया गया है कि, यथास्थिति,
अध्‍यक्ष या ऐसे किसी सदस्य को ऐसे किसी आधार पर हटा दिया जाए।

आयोग के अध्‍यक्ष या किसी अन्य सदस्य को,
जिसके संबंध में खंड (1) के अधीन उच्चतम न्यायालय को निर्देश किया गया है, संघ आयोग या संयुक्त आयोग की दशा में राष्ट्रपति और राज्य आयोग की दशा में राज्यपाल उसके पद से तब तक के लिए निलंबित कर सकेगा जब तक राष्ट्रपति ऐसे निर्देश पर उच्चतम न्यायालय का प्रतिवेदन मिलने पर अपना आदेश पारित नहीं कर देता है।

खंड (1) में किसी बात के होते हुए भी, यदि लोक सेवा आयोग का, यथास्थिति, अध्‍यक्ष या कोई अन्य सदस्य –

I दिवालिया न्याय निर्णीत किया जाता है, या

Il अपनी पदावधि में अपने पद के कर्तव्यों के बाहर किसी सवेतन नियोजन में लगता है, या

III राष्ट्रपति की राय में मानसिक या शारीरिक शैथिल्य के कारण अपने पद पर बने रहने के लिए अयोग्य है, तो राष्ट्रपति, अध्‍यक्ष या ऐसे अन्य सदस्य को आदेश द्वारा पद से हटा सकेगा।

यदि लोक सेवा आयोग का अध्‍यक्ष या कोई अन्य सदस्य,
निगमित कंपनी के सदस्य के रूप में और कंपनी के अन्य सदस्यों के साथ सम्मिलित रूप से अन्यथा, उस संविदा या करार से,
जो भारत सरकार या राज्य सरकार के द्वारा या निमित्त की गई या किया गया है,
किसी प्रकार से संपृक्त या हितबद्ध है या हो जाता है या उसके लाभ या उससे उद्‌भूत किसी फायदे या उपलब्धि में भाग लेता है तो वह
खंड (1) के प्रयोजनों के लिए कदाचार का दोषी समझा जाएगा।

अनुच्छेद– 318 (आयोग  के  सदस्यों और कर्मचारिवृंद की सेवा की शर्तों के बारे में विनियम बनाने की शक्ति)

संघ आयोग या संयुक्त आयोग की दशा में राष्ट्रपति और राज्य आयोग की दशा में उस राज्य का राज्यपाल विनियमों द्वारा –

आयोग के सदस्यों की संख्या और उनकी सेवा की शर्तों का अवधारण कर सकेगा; और

आयोग के कर्मचारिवृंद के सदस्यों की संख्या और उनकी सेवा की शर्तों के संबंध में उपबंध कर सकेगा:
परंतु लोकसेवा आयोग के सदस्य की सेवा की शर्तों में उसकी नियुक्ति के पश्चात्‌  उसके लिए अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जाएगा।

अनुच्छेद– 319 (आयोग  के सदस्यों द्वारा  ऐसे  सदस्य   रहने  पर  पद  धारण करने  के  संबंध  में  प्रतिषेध)

पद पर न रह जाने पर–

लोक सेवा आयोग का अध्‍यक्ष भारत सरकार या किसी राज्य की सरकार के अधीन किसी भी और नियुक्ति का पात्र नहीं होगा;

राज्य लोक सेवा आयोग का अध्‍यक्ष संघ लोक सेवा आयोग के अध्‍यक्ष या अन्य सदस्य के रूप में अथवा किसी अन्य राज्य लोक सेवा आयोग के अध्‍यक्ष के रूप में नियुक्त होने का पात्र होगा, किन्तु भारत सरकार या किसी राज्य की सरकार के अधीन किसी अन्य नियोजन का पात्र नहीं होगा; लोक सेवा आयोग के अध्‍यक्ष से भिन्न कोई अन्य सदस्य संघ लोक सेवा आयोग के अध्‍यक्ष के रूप में या किसी राज्य लोक सेवा आयोग के अध्‍यक्ष के रूप में नियुक्त होने का पात्र होगा,
किन्तु भारत सरकार या किसी राज्य की सरकार के अधीन किसी अन्य नियोजन का पात्र नहीं होगा;

किसी राज्य लोक सेवा आयोग के अध्‍यक्ष से भिन्न कोई अन्य सदस्य संघ लोक सेवा आयोग के अध्‍यक्ष या किसी अन्य सदस्य के रूप में अथवा उसी या किसी अन्य राज्य लोक सेवा आयोग के अध्‍यक्ष के रूप में नियुक्त होने का पात्र होगा,
किन्तु भारत सरकार या किसी राज्य की सरकार के अधीन किसी अन्य नियुक्ति का पात्र नहीं होगा।

अनुच्छेद– 320 (आयोग के कार्य)

संविधान के अनुच्छेद 320 के अंतर्गत,
अन्‍य बातों के साथ-साथ सिविल सेवाओं तथा पदों के लिए भर्ती संबंधी सभी मामलों में आयोग का परामर्श लिया जाना अनिवार्य होता है।
संविधान के अनुच्छेद 320 के अंतर्गत आयोग के प्रकार्य इस प्रकार हैं:

संघ के लिए सेवाओं में नियुक्‍ति हेतु परीक्षा आयोजित करना

2. साक्षात्‍कार द्वारा चयन से सीधी भर्ती

प्रोन्‍नति/ प्रतिनियुक्‍ति/ आमेलन द्वारा अधिकारियों की नियुक्‍ति

सरकार के अधीन विभिन्‍न सेवाओं तथा पदों के लिए भर्ती नियम तैयार करना तथा उनमें संशोधन

विभिन्‍न सिविल सेवाओं से संबंधित अनुशासनिक मामले

भारत के राष्‍ट्रपति द्वारा आयोग को प्रेषित किसी भी मामले में सरकार को परामर्श देना

अनुच्छेद– 321 (लोक सेवा आयोगों के कृत्यों का विस्तार करने की शक्ति)

यथास्थिति, संसद द्वारा या किसी राज्य के विधान-मंडल द्वारा बनाया गया कोई अधिनियम संघ लोकसेवा आयोग या राज्य लोकसेवा आयोग द्वारा संघ की या राज्य की सेवाओं के संबंध में और किसी स्थानीय प्राधिकारी या विधि द्वारा गठित अन्य निगमित निकाय या किसी लोक संस्था की सेवाओं के संबंध में भी अतिरिक्त कृत्यों के प्रयोग के लिए उपबंध कर सकेगा।

अनुच्छेद– 322 (लोकसेवा आयोगों के व्यय)

संघ या राज्य लोकसेवा आयोग के व्यय,
जिनके अंतर्गत आयोग के सदस्यों या कर्मचारिवृंद को या उनके संबंध में संदेय कोई वेतन,
भत्ते और पेंशन हैं,
यथास्थिति, भारत की संचित निधि या राज्य की संचित निधि पर भारित होंगे।

अनुच्छेद-323 (लोक सेवा आयोगों के प्रतिवेदन)

  1. संघ आयोग का यह कर्तव्य होगा कि वह राष्ट्रपति को आयोग द्वारा किए गए कार्य के बारे में प्रतिवर्ष प्रतिवेदन दे और राष्ट्रपति ऐसा प्रतिवेदन प्राप्त होने पर उन मामलों के संबंध में,
    यदि कोई हों,
    जिनमें आयोग की सलाह स्वीकार नहीं की गई थी,
    ऐसी अस्वीकृति के कारणों को सपष्ट करने वाले ज्ञापन सहित उस प्रतिवेदन की प्रति संसद के प्रत्येक सदन के समक्ष रखवाएगा।
  2. राज्य आयोग का यह कर्तव्य होगा कि वह राज्य के राज्यपाल को आयोग द्वारा किए गए कार्य के बारे में प्रतिवर्ष प्रतिवेदन दे और संयुक्त आयोग का यह कर्तव्य होगा कि ऐसे राज्यों में से प्रत्येक के, जिनकी आवश्यकताओं की पूर्ति संयुक्त आयोग द्वारा की जाती है, राज्यपाल को उस राज्य के संबंध में आयोग द्वारा किए गए कार्य के बारे में प्रतिवर्ष प्रतिवेदन दे और दोनों में से प्रत्येक दशा में ऐसा प्रतिवेदन प्राप्त होने पर, राज्यपाल उन मामलों के संबंध में,
    यदि कोई हों,
    जिनमें आयोग की सलाह स्वीकार नहीं की गई थी,
    ऐसी अस्वीकृति के कारणों को स्पष्ट करने वाले ज्ञापन सहित उस प्रतिवेदन की प्रति
    राज्य के विधान-मंडल के समक्ष रखवाएगा।

सचिवालय

भारत के संघ लोक सेवा आयोग के सचिवालय में निम्नलिखित पदाधिकारी होते हैं:

 

सचिव………….. 1

उपसचिव…….….2

अवर सचिव….…15

उपविभागीय अधिकारी….40

इस प्रकार कुल मिलाकर लगभग 58 पदाधिकारी आयोग की प्रबन्ध व्यवस्था एवं कार्य संचालन करते हैं।

 

स्रोत:

  1. भारत का संविधान- रजत जयंती संस्करण, विधि एवं न्याय

मंत्रालय, भारत सरकार

  1. राजव्यवस्था- डॉ. एम लक्ष्मीकांत

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राष्ट्रीय महिला आयोग National Women Commission

 

राष्ट्रीय महिला आयोग

राष्ट्रीय महिला आयोग (National Women Commission)

राष्ट्रीय महिला आयोग का इतिहास, गठन, अध्यक्ष, सदस्य, पदावधि, सेवा की शर्तें, वेतन-भत्ते, रिक्तियां, समितियां, कृत्य एवं नियम बनाने की शक्तियां आदि का विस्तृत विवरण

यत्रनार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।

यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।।

मनुस्मृति ३/५६ ।।

  • जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं और जहाँ नारी की पूजा नही होती है, उनका सम्मान नही होता है, वहाँ किये गये समस्त अच्छे कर्म निष्फल हो जाते हैं।
  • नारी के प्रति सम्मान की भावना युगो युगो से भारतीय संस्कृति में विद्यमान है परंतु आधुनिकता की चकाचौंध में नारी के सम्मान को भूल गए महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक एवं वैश्विक प्रस्थिति को उचित दिशा एवं दशा देने हेतु संसद 1990 में महिलाओं का राष्ट्रीय आयोग अधिनियम पारित किया ।
  • इस अधिनियम को राष्ट्र की सम्मति 30 अगस्त को प्राप्त हुयी थी।
  • अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार 31 जनवरी 1992 को राष्ट्रीय महिला आयोग की स्थापना हुई।
  • राष्ट्रीय महिला आयोग का प्रमुख उद्देश्य महिलाओं के सांविधानिक एवं कानूनी संरक्षण में सुधार, कानूनी उपचार का प्रबन्ध, कल्याणकारी सुविधाएँ प्रदान करना तथा महिलाओं को प्रभावित करने वाली सभी सरकारी नीतियों में सरकार को सुझाव देना है ।

राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम 1990 के अध्याय 2 की धारा 3 के अनुसार राष्ट्रीय महिला आयोग का गठन-

  • (I) केन्द्रीय सरकार, राष्ट्रीय महिला आयोग के नाम में बात एक निकाय का गठन करेगी जो इस अधिनियम के अधीन उसे प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग और समनुदिष्ट कृत्या का पालन करेगा।
  • (2) यह आयोग निम्नलिखित से मिलकर बनेगा-

(क) केन्द्रीय सरकार द्वारा नामनिर्दिष्ट एक अध्यक्ष, जो महिलाओं के हित के लिए समर्पित हो;

(ख) केन्द्रीय सरकार द्वारा ऐसे योग्य, सत्यनिष्ठ और प्रतिनिष्ठित व्यक्तियों में से नामनिर्दिष्ट पाँच सदस्य जिन्हें विधि या विधान, व्यवसाय संघ आंदोलन, महिलाओं की नियोजन सम्भाव्यताओं की वृद्धि के लिए समर्पित उद्योग या संगठन के प्रबंध, स्वैच्छिक महिला संगठन (जिनके अंतर्गत महिला कार्यकर्ता भी है), प्रशासन, आर्थिक विकास, स्वास्थ्य, शिक्षा या सामाजिक कल्याण का अनुभव है:परन्तु उनमें अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के व्यक्तियों में से प्रत्येक का कम से कम एक सदस्य होगा;

(ग) केन्द्रीय सरकार द्वारा नामनिर्दिष्ट एक सदस्य-सचिव जो- (i) प्रबंध, संगठनात्मक संरचना व सामाजिक आदोलन के क्षेत्र में विशेषज्ञ है, या

  • (ii) ऐसा अधिकारी है जो संघ की सिविल सेवा का या अखिल भारतीय सेवा का मदस्य है अथवा संप के अधीन कोई सिविल पद धारण करता है और जिसके पास समुचित अनुभव है।

राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम 1990 के अध्याय 2 की धारा 4 के अनुसारराष्ट्रीय महिला आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की पदावधि और सेवा की शर्तें-

  • (1) अध्यक्ष और प्रत्येक सदस्य तीन वर्ष से अनधिक ऐसी अवधि के लिए पद धारण करेगा जो केन्द्रीय सरकार इस निमित्त विनिर्दिष्ट करे।
  • (2) अध्यक्ष या कोई सदस्य (ऐसे सदस्य -सचिव से भिन्न जो संघ की सिविल सेवा का या अखिल भारतीय सेवा का सदस्य हैं अथवा संघ के अधीन कोई सिविल पद धारण करता है।) केन्द्रीय सरकार को संबोधित लेख द्वारा किसी भी समय, यथास्थिति, अध्यक्ष या सदस्य का पद त्याग सकेगा।
  • (3) केन्द्रीय सरकार, किसी व्यक्ति कोउपधारा (2) में निर्दिष्ट अध्यक्ष या सदस्य के पद से हटा देगी यदि वह-

(क) पूर्णतया दिवालिया हो जाता है:

(ख) ऐसे किसी अपराध के लिए दोषसिद्ध ठहराया जायेऔर कारावास सेदण्डित किया जाता है जिसमें केन्द्रीय सरकार की राय में नैतिक पतन वाला हो।

(ग) विकृतचित्त का हो जाता है और सक्षम न्यायालय की ऐसी घोषणा विद्यमान है।

(घ) कार्य करने से इंकार करता है या कार्य करने में असमर्थ हो जाता है।

(ङ) आयोग में अनुपस्थित रहने की इजाजत लिए बिना आयोग के लगातार तीन अधिवशनों में अनुपस्थित रहताहै या

(च) केन्द्रीय सरकार की राय में, उसने अध्यक्ष या सदस्य के पद का इस प्रकार दुरुपयोग किया है कि ऐसे व्यक्ति का पद पर बना रहना लोकहित के लिए अहितकर है।

परन्तु

इस खंड के अधीन किसी व्यक्ति को तब तक नहीं हटाया जाएगा जब तक कि उस व्यक्ति को इस विषय में सुनवाई का उचित अवसर नही दे दिया गया है।

  • (4) उपधारा (2) के अधीन वा अन्यथा होने वाली रिक्ति नए नामनिर्देशन द्वारा भरी जाएगी।
  • (5) अध्यक्ष और सदस्यों को संदेय वेतन और भत्ते, और उनकी सेवा के अन्य निबंधन और शर्तेंवेहोंगी जो विहित की जाए।

धारा 5. आयोग के अधिकारी और अन्य कर्मचारी

(1) केन्द्रीय सरकार, आयोग के लिए ऐसे अधिकारियों और कर्मचारियों की व्यवस्था करेगी जो इस अधिनियम के अधीन आयोग के कार्यों का दक्षतापूर्ण पालन करने के लिए आवश्यक हों।

(2) आयोग के प्रयोजनों के लिए नियुक्त अधिकारियों और अन्य कर्मचारियों को संदेय वेतन और भते और उनकी सेवा के अन्य निबंधन और शर्तें ये होंगी जो विहित की जाएं।

धारा 6. वेतन और भत्तों का अनुवान में से संवाद किया जाना : राष्ट्रीय महिला आयोग

अध्यक्ष और सदस्यों को संदेय वेतन और भत्ते तथा प्रशासनिक व्यय, जिनके अन्तर्गत धारा 5 में निर्दिष्ट अधिकारियों और अन्य कर्मचारियों को संदेय वेतन, भत्ते और पेंशन भी हैं, धारा 11 की उपधारा (1) में निर्दिष्ट अनुदानों में से संदत्त किए जाएंगे।

धारा 7. रिक्तियों आदि से आयोग की कार्यवाहियों का अविधिमान्य न होना-

आयोग का कोई भी कार्य या कार्यवाही आयोग में कोई रिक्ति विद्यमान होने या उसके गठन में त्रुटि होने के आधार पर ही प्रश्नगत या अविधिमान्य नहीं होगी।

धारा 8. आयोग की समितियां : राष्ट्रीय महिला आयोग

(1) आयोग ऐसी समितिया नियुक्त कर सकेगा जो ऐसे विशेष प्रश्नों पर विचार करने के लिए आवश्यक हो जो आयोग द्वारा समय-समय पर उठाए जाएं।

(2) आयोग को उपधारा (1) के अधीन नियुक्त किसी समिति के सदस्यों के रूप में, ऐसे व्यक्तियों में से जो आयोग के सदस्य नहीं हैं, उतने व्यक्ति सहयोजित करने की शक्ति होगी जितने वह उचित समझे और इस प्रकार सहयोजित व्यक्तियों को समिति के अधिवेशनों में उपस्थित रहने तथा उसकी कार्यवाहियों में भाग लेने का अधिकार होगा किन्तु उन्हें मतदान का अधिकार नहीं होगा।

(3) इस प्रकार सहयोजित व्यक्ति समिति के अधिवेशनों में उपस्थित होने के लिए ऐसे भत्ते प्राप्त करने के हकदार होंगे जो विहित किए जाएं।

धारा 9. प्रक्रिया का बायोग द्वारा विनियमित किया जाना

(1) आयोग या उसकी समिति का अधिवेशन जब भी आवश्यक हो किया जाएगा और वह ऐसे समय और स्थान पर किया जाएगा जो अध्यक्ष ठीक समझे

(2) आयोग अपनी प्रक्रिया तथा अपनी समितियों की प्रक्रिया स्वयं विनियमित करेगा।

(3) आयोग के सभी आदेश और विनिश्चय सदस्य-सचिव द्वारा या इस निमित्त सदस्य-सचिव द्वारा सम्पक रूप से प्राधिकृत आयोग के किसी अन्य अधिकारी द्वारा अधिप्रमाणित किए जाएंगे।

धारा 10. आयोग के कृत्य

  • राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम 1990 के अध्याय 3 की धारा 10 के अनुसार (1)आयोग निम्नलिखित सभी या किन्तु कृत्यों का पालन करेगा, अर्थात –

(क) महिलाओं के लिए संविधान और अन्य विधियों के अधीन उपबंधित रक्षोपायों से संबंधित सभी विषयों का अन्वेषण और परीक्षा करना:

(ख) उन रक्षोपायों के कार्यकरण के बारे में प्रति वर्ष, और ऐसे अन्य समयों पर जो आयोग ठीक समझे, केन्द्रीय सरकार को रिपोर्ट देना।

(ग) ऐसी रिपोटों में महिलाओं की दशा सुधारने के लिए संघ या किसी राज्य द्वारा उन रक्षोपायों के प्रभावी क्रियान्वयन के लिए सिफारिश करना।

(घ) संविधान और अन्य विधियों के महिलाओं को प्रभावित करने वाले विद्यमान उपबंधों का समय-समय पर पुनर्विलोकन करना और उनके संशोधनों की सिफारिश करना जिससे कि ऐसे विधानों में किसी कमी, अप्याप्तता या त्रुटियों को दूर करने के लिए उपचारी विधायी उपायों का सुझाव दिया जा सके।

(ङ) संविधान और अन्य विधियों के उपबंधों के महिलाओं से संबंधित अतिक्रमण के मामलों को समुचित प्राधिकारियों के समक्ष उठाना,

(च) निम्नलिखित से संबंधित विषयों पर शिकायतों की जांच करना और स्वपेरणा से ध्यान देना-

  1. महिला के अधिकारों का वचन:
  2. महिलाओं को संरक्षण प्रदान करने के लिए और ममता तथा विकास का उद्देश्य प्राप्त करने के लिए भी अधिनियमित विधियों का क्रियान्वयन
  3. महिलाओं की कठिनाइयों को कम करने और उनका कल्याण सुनिश्चित करने तथा उनको अनुतोष उपलब्ध कराने के प्रयोजनार्थ नीतिगत विनिश्चयों, मार्गदर्शक सिद्धांतों या अनुदेशों का अनुपालन, और ऐसे विषयों से उद्भूत प्रश्नों को समुचित प्राधिकारियों के समक्ष उठाना

इसके अलावा

(छ) महिलाओं के विरुद्ध विभेद और अत्याचारों से उद्भूत विनिर्दिष्ट समस्याओं या स्थितियों का विशेष अध्ययन या अन्वेषण कराना और बाधाओं का पता लगाना जिससे कि उनको दूर करने की कार्य योजनाओं की सिफारिश की जा सके।

(ज) संवर्धन और शिक्षा गांधी अनुसंधान करना जिससे कि महिलाओं का सभी क्षेत्रों में सम्यक् प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के उपायों का सुझाव दिया जा सके और उनकी उन्नति में अड़चन डालने के लिए उत्तरदायी कारणों का पता लगाना जैसे कि आवास और बुनियादी सेवाओं की प्राप्ति में कमी, उबाऊपन और उपजीविकाजन्य स्वास्थ्य परिसंकटों को कम करने के लिए और महिलाओं की उत्पादकता की वृद्धि के लिए सहायक सेवाओं और प्रौद्योगिकी की अपर्याप्तता।

(झ) महिलाओं के सामाजिक-आर्थिक विकास की योजना प्रक्रिया में भाग लेना और उन पर सलाह देना।

(ञ) संघ और किसी राज्य के अधीन महिलाओं के विकास की प्रगति का मूल्यांकन करना।

(ट) किसी जेल, सुधार गृह, महिलाओं की संस्था या अभिरक्षा के अन्य स्थान का, जहां महिलाओं को बंदी के रूप में या अन्यथा रखा जाता है, निरीक्षण करना या करवाना, और उपचारी कार्रवाई के लिए, यदि आवश्यक हो, संबंधित प्राधिकारियों से बातचीत करना।

(ठ) बहुसंख्यक महिलाओं को प्रभावित करने वाले प्रश्नों से संबंधित मुकदमों के लिए धन उपलब्ध कराना

(ड) महिलाओं से संबंधित किसी बात के, और विशिष्टतया उन विभिन्न कठिनाइयों के बारे में जिनके अधीन महिलाएं कार्य करती है. सरकार को समय-समय पर रिपोर्ट देना;

(ढ) कोई अन्य विषय जिसे केन्द्रीय सरकार उसे निर्दिष्ट करे।

(2) केन्द्रीय सरकार,

उपधारा (1) के खंड (ख) में निर्दिष्ट सभी रिपोर्टों को संसद के प्रत्येक सदन के समक्षरखवाएगी और उनके साथ संघ से संबंधित सिफारिशों पर की गई या की जाने के लिए प्रस्तावित कार्रवाई तथा यदि कोई ऐसी सिफारिश अस्वीकृत की गई हैं तो अस्वीकृति के कारणों को स्पष्ट करने वाला ज्ञापन भी होगा।

(3) जहां कोई ऐसी रिपोर्ट या उसका कोई भाग किसी ऐसे विषय में संबंधित है जिसका किसी राज्य सरकार से संबंध है यहाँ आयोग ऐसी रिपोर्ट याउसके भाग की एक प्रति उस राज्य सरकार को भेजेगा जो उसे राज्य के विधान-मंडल के समक्ष रखवाएगी और उसके साथ राज्य से संबंधित सिफारिशों पर की गयी या की जाने के लिए प्रस्तावित कार्रवाई तथा यदि कोई ऐसी सिफारिशें अस्वीकृत की गई है तो अस्वीकृति के कारणों को स्पष्ट करने वाला ज्ञापन भी होगा।

(4) आयोग को उपधारा

(1) के खंड (क) या खंड (च) के उपखंड (i) में निर्दिष्ट किसी विषय का अन्वेषण करते समय और विशिष्टतया निम्नलिखित विषयों के संबंध में ने सभी शक्तियां होंगी जो वाद का विचारण करने वाले सिविल न्यायालय की हैं, अर्थात् –

(क) भारत के किसी भी भाग से किसी व्यक्ति को समन करना और हाजिर कराना तथा शपथ पर उसकी परीक्षाकरना।

(ख) किसी दस्तावेज को प्रकट और पेश करने की अपेक्षा करना ,

(ग) शपथपत्रों पर साक्ष्य ग्रहण करना।

(घ) किसी न्यायालय या कार्यालय से किसी लोक अभिलेख या उसकी प्रतिलिपि की अपेक्षा करना

(ङ) साक्षियों और दस्तावेजों की परीक्षा के लिए कमीशन निकालना; और

(च) कोई अन्य विषय जो विहित किया जाए।

धारा 11. वित्त, लेखे और लेखापरीक्षा

राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम 1990 के अध्याय 4 की धारा 11 के अनुसार (1)केन्द्रीय सरकार द्वारा अनुदान केन्द्रीय सरकार, संसद द्वारा इस निमित्त विधि द्वारा किए गए सम्यक विनियोग के पश्चात, आयोग को अनुदानों के रूप में ऐसी धनराशि का संदाय करेगी जो केन्द्रीय सरकार इस अधिनियम के प्रयोजनों के लिए उपयोग किए जाने के लिए ठीक समझे।

(2) आयोग इस अधिनियम के अधीन कृत्यों का पालन करने के लिए उतनी धनराशि खर्च कर सकेगा जितनी वह ठीक समझे और वह धनराशि उपधारा (1) में निर्दिष्ट अनुदानों में से संदेय व्यय माना जाएगा।

धारा 12. लेखे और संपरीक्षा

(1) आयोग, समुचित लेखा और अन्य सुसंगत अभिलेख रखेगा और लेखाओं का वार्षिक विवरण ऐसे प्ररूप में तैयार करेगा जो केन्द्रीय सरकार भारत के नियंत्रक-महालेखापरीक्षक से परामर्श करके विहित करे।

(2) आयोग के सेवाओं की संपरीक्षा नियंत्रक-महालेखापरीक्षक ऐसे अंतरालों पर करेगा जो उसने द्वारा विनिर्दिष्ट किए जाए और उस परीक्षा के संबंध में उपगत कोई व्यय आयोग द्वारा नियंत्रक-महालेखापरीक्षक को संदेय होगा।

(3) नियंत्रक-महालेखापरीक्षक और इस अधिनियम के अधीन आयोग के सेवाओं की परीक्षा के संबंध में उसके द्वारा नियुक्त किसी व्यक्ति को उस संपरीक्षा के संबंध में वही अधिकार और विशेषाधिकार तथा प्राधिकार होंगे जो नियंत्रक-महालेखापरीक्षक को सरकारी लेखाओं की परीक्षा के संबंध में साधारणतया होते हैं और उसे विशिष्टतया बहियाँ, लेखा संबंधी वाउचरऔरअन्य दस्तावेज और कागज-पत्र पेश किए जाने की मांग करने और आयोग के किसी भी कार्यालय का निरीक्षण करने का अधिकार होगा।

(4) नियंत्रक-महालेखापरीक्षक या उसके द्वारा इस निमित्त नियुक्त किसी अन्य व्यक्ति द्वारा यथाप्रमाणित आयोग का लेखा और साथ ही उस पर संपरीक्षा रिपोर्ट आयोग द्वारा केन्द्रीय सरकार को प्रतिवर्ष भेजी जाएगी।

धारा 13वार्षिक रिपोर्ट

  • आयोग, प्रत्येक वित्तीय वर्ष के लिए अपनी वार्षिक रिपोर्ट,
  • जिसमें पूर्ववर्ती वित्तीय वर्ष के दौरान उसके क्रियाकलापों का पूर्ण विवरण होगा,
  • ऐगे प्रण में और ऐसे समय पर,
  • जो विजित किया जाए, तैयार करेगा और उसकी एक प्रति केंद्रीय सरकार को भेजेगा।

धारा 14वार्षिक रिपोर्ट और संपरीक्षा रिपोर्ट का संसद के समक्ष रखा जाना

केन्द्रीय सरकार, वार्षिक रिपोर्ट, रिपोर्ट की प्राप्ति के पश्चात यथाशक्य संसदके प्रत्येक सदन के समक्ष रखवायेगी जिसके साथ उसमें अतर्विष्ट सिफारिशों पर जहा तक उनका संबंध केन्द्रीय सरकार से है, की गयी कार्रवाई और यदि कोई ऐसी सिफारिश अरस्वीकृत की गई है तो अस्वीकृति के कारण का ज्ञापन और संपरीक्षा रिपोर्ट होगी।

प्रकीर्ण

धारा 15 आयोग के अध्यक्ष, सदस्यों और कर्मचारिवृन्द का लोक सेवक होना-

योग का अध्यक्ष, उसके सदस्य, अधिकारी और अन्य कर्मचारी भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) की धारा 21 के अर्थ में लोक सेवक समझे जाएंगे।

धारा 16. केन्द्रीय सरकार आयोग से परामर्श करेगी

केन्द्रीय सरकार, महिलाओं को प्रभावित करने वालेसभी प्रमुख नीतिगत मामलों पर आयोग से परामर्श करेगी।

धारा 17. नियम बनाने की शक्ति : राष्ट्रीय महिला आयोग

(1) केन्द्रीय सरकार, इस अधिनियम के उपबंधों को क्रियान्वित करने के लिए नियम राजपत्र में अधिसूचना द्वारा बना सकेगी।

(2) विशिष्टतया और पूर्वगामी शक्ति की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना,

ऐसे नियमों में निम्नलिखित सभी या किन्हीं विषयों के लिए उपबंध किया जा सकेगा, अर्थात :-

(क) धारा 4 की उपधारा (5) के अधीन अध्यक्षों और सदस्यों को और धारा की उपधारा (2) के अधीन अधिकारियों और अन्य कर्मचारियों को देय वेतन और भत्ते तथा उनकी सेवा के अन्य निबंधन और शर्तें

(2) धारा 8 की उपधारा (3) के अधीन सहयोजित व्यक्तियों द्वारा समिति के अधिवेशनों में उपस्थित होने के लिये भत्ते

(ग) धारा 10 की उपधारा (4) के खंड (च) के अधीन अन्य विषय;

(घ) वह प्रारूप जिसमें लेखाओं का वार्षिक विवरण धारा 12 की उपधारा (1) के अधीन रखा जाएगा:

(ङ) वह प्रसंग जिसमें और वह समय जब वार्षिक रिपोर्ट धारा 13 के अधीन तैयार की जाएगी.

(च) कोई अन्य विषय जिसे विहित किया जाना अपेक्षित है या किया जाए।

(3) इस अधिनियम के अधीन बनाया गया : राष्ट्रीय महिला आयोग

  • प्रत्येक नियम बनाए जाने के पश्चात् यथाशीघ्र संसद् के प्रत्येक सदन के सम्मुख जब वह सदन सत्र में हो,कुल तीसदिन की अवधि के लिए रखा जाएगा।
  • यह अवधि एक सत्र में अथवा दो या अधिक आनुक्रमिक सत्रों में पूरी हो सकेगी।
  • यदि उस मास के या पूर्वोक्त आनुक्रमिक सत्रों के ठीक बाद के सत्र के अवसान के पूर्व दोनों सदन उस नियम में कोई परिवर्तन करने के लिए तत्पश्चात वह ऐसेपरिवर्तित रूप में ही प्रभावी होगा।
  • यदि उक्त अवसान के पूर्व दोनों सदन सहमत हो जाए कि वह नियम नहीं बनाया जाना चाहिए तो तत्पश्चात् यह निष्प्रभावी हो जाएगा।
  • किन्तु निगम के ऐसे परिवर्तित या निष्प्रभावी होने से उसके अधीन पहले की गई किसी बात की विधिमान्यता पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा।

स्रोत:- राष्ट्रीय महिला आयोग अधिनियम, 1990

हाइकु (Haiku) कविता

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श्री सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या के मतानुसार प्रांतीय भाषाओं और बोलियों का महत्व

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राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग : संगठन तथा कार्य

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मानवाधिकार आयोग Human Rights – राज्य मानव अधिकार आयोग

राज्य मानव अधिकार आयोग – Human Rights

मानवाधिकार आयोग Human Rights | इतिहास, गठन, मुख्यालय, स्थापना, आयोग के सदस्य | राजस्थान राज्य मानव अधिकार आयोग | Manvadhikar Aayog

मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम 1993 के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग एवं राज्य स्तर पर राज्य मानव अधिकार आयोग को स्थापित करने की व्यवस्था है।

अधिनियम के अध्याय 5 की धारा 21 से 29 तक मेंराज्य मानवाधिकार आयोग के गठन शक्तियां एवं कार्यों का विस्तृत वर्णन किया गया है।

राजस्थान की राज्य सरकार ने दिनांक 18 जनवरी 1999 को एक अधिसूचना जारी कर राजस्थान राज्य मानव अधिकार आयोग का गठन किया, यह आयोग मार्च 2000 से क्रियाशील हो गया था।

आयोग में मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम 1993 के प्रावधानों के अनुसार एक पूर्णकालिक अध्यक्ष तथा चार सदस्यों का प्रावधान है।

राज्य मानव अधिकार आयोग का गठन (धारा 21) : मानवाधिकार आयोग Human Rights

(1) कोई राज्य सरकार, इस अध्याय के अधीन राज्य आयोग को प्रदत शक्तियों का प्रयोग करने के लिए और सौपे गए कृत्यों का पालन करने के लिए एक निकाय का गठन कर सकेगी जिसका नाम…………………(राज्य का नाम) मानव अधिकार आयोग होगा।

(2) राज्य आयोग ऐसी तारीख से, जो राज्य सरकार अधिसूचना द्वारा विनिर्दिष्ट करे, निम्नलिखित से मिलकर बनेगा, अर्थात् –

(क) एक अध्यक्ष, जो किसी उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायमूर्ति रहा है। मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम (संशोधित) 2019 के अनुसारअध्यक्ष पद के लिए उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के साथ-साथ उच्चन्यायालय के अन्य न्यायाधीश भी योग्य होंगे

(ख) एक सदस्य, जो किसी उच्च न्यायालय का न्यायाधीश है या रहा है. या राज्य में जिला न्यायालय का न्यायाधीश है या रहा है, और जिसे जिला न्यायाधीश के रूप में कम से कम सात वर्ष का अनुभव है,

(ग) एक सदस्य, जो ऐसे व्यक्तियों में से नियुक्त किया जाएगा जिन्हें मानव अधिकारों से संबंधित विषयों का ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव है,

(3) एक सचिव होगा, जो राज्य आयोग का मुख्य कार्यपालक अधिकारी होगा और वह राज्य आयोग की ऐसी शक्तियों का प्रयोग है और ऐसे कृत्यों का निर्वहन करेगा, जो राज्य आयोग उसे प्रत्यायोजित करे।

मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम (संशोधित) 2006 के अनुसार राजस्थान में राजस्थान मानव अधिकार आयोग की सदस्य संख्या एक अध्यक्ष तथा दो पूर्णकालिक सदस्यों को मिलाकर कुल तीन सदस्य है

(4) राज्य आयोग का मुख्यालय ऐसे स्थान पर होगा जो राज्य सरकार, अधिसूचना द्वारा, विनिर्दिष्ट करे।

(5) कोई राज्य आयोग केवल संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची 2 और सूची 3 में प्रगणित प्रविष्टियों में से किसी से संबंधित विषयों की बाबत मानव अधिकारों के अतिक्रमण किए जाने की जांच कर सकेगा:

परन्तु

यदि किसी ऐसे विषय के बारे में आयोग द्वारा या तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन सम्यक रूप से गठित किसी अन्य आयोग द्वारा पहले से ही जांच की जा रही है तो राज्य आयोग उक्त विषय के बारे में जांच नहीं करेगा।

राज्य आयोग उस तारीख से जिसको मानव अधिकारों काअतिक्रमण गठित करने वाले कार्य का किया जाना अभिकथित है एक वर्ष की समाप्ति के पश्चात किसी विषय की जाँच नहीं करेगा (अर्थात एक वर्ष से अधिक पुराने मामले की जाँच नही करेगा)।

(6) दो या दो से अधिक राज्य सरकार, राज्य आयोग के अध्यक्ष या सदस्य की सहमति से, यथास्थिति, ऐसे अध्यक्ष या सदस्य को साथ-साथ अन्य राज्य आयोग का सदस्य नियुक्त कर सकेगी यदि ऐसा अध्यक्ष या सदस्य ऐसी नियुक्ति के लिए सहमति देता है।

परन्तु उस राज्य की बाबत जिसके लिए, यथास्थिति, सामान्य अध्यक्ष या सदस्य या दोनों नियुक्त किए जाने है इस धारा के अधीन की गई प्रत्येक नियुक्ति धारा 22 की उपधारा (1) में निर्दिष्ट समिति की सिफारिशें अभिप्राप्त करने के पश्चात् की जाएगी।

राज्य आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति (धारा 22) : मानवाधिकार आयोग Human Rights

(1) राज्यपाल अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा अध्यक्ष और सदस्यों को नियुक्त करेगाः

परन्तु इस उपधारा के अधीन प्रत्येक नियुक्ति ऐसी समिति की सिफारिशें प्राप्त होने के पश्चात् की जाएगी, जो निम्नलिखित से मिलकर बनेगी, अर्थात् :

(क) मुख्य मंत्री – अध्यक्ष

(ख) विधान सभा का अध्यक्ष – सदस्य

(ग) उस राज्य का गृहमंत्री – सदस्य

(घ) विधानसभा में विपक्ष का नेता – सदस्य :

( जहां किसी राज्य में विधान परिषद है, वहा उस परिषद् का सभापति और उस परिषद में विपक्ष का नेता भी समिति के सदस्य होंगे )

शपथ-  राज्य मानव अधिकार आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों को शपथ राज्य उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश दिलाता है

आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों का पद त्याग या पदच्युति

मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम 1993 अध्याय 5 की धारा 23 में राज्य आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों को पदच्युत करने से संबंधित उपबंध किए गए हैं-

विशेषराज्य मानव अधिकार आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों की नियुक्ति राज्यपाल के द्वारा की जाती है परंतु उन्हें पद से हटाने की शक्ति केवल राष्ट्रपति के पास होती है।

(1) अध्यक्ष या कोई सदस्य राज्यपाल को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लिखित सूचना द्वारा अपना पद त्याग सकेगा।

(1क) उपधारा (2) के अनुसार आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों को राष्ट्रपति द्वारा निम्नलिखित में से किसी आधार पर पदच्युतकियाजा सकता है-

सिद्ध कदाचार/दुर्व्यवहार।

अक्षमता के आधार पर।

उक्त प्रकार से पदच्युत किये जाने से पूर्व राष्ट्रपति द्वारा-

उच्चतम न्यायालय को निर्देशित किया जाएगा।

विहित प्रक्रिया द्वारा उच्चतम न्यायालय द्वारा मामले की जांच की जाएगी।

जांच की रिपोर्ट राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत की जाएगी।

जांच रिपोर्ट में अध्यक्ष या सदस्य के विरुद्ध सिद्ध कदाचार/दुर्व्यवहार अथवा अक्षमता सिद्ध होने पर राष्ट्रपति उन्हें पदच्युत कर सकता है।

(2) उपधारा (1क) के अनुसार आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों को राष्ट्रपति द्वारा निम्नलिखित में से किसी आधार पर पदच्युतकियाजा सकता है-

दिवालिया घोषित कर दिया गया हो।

किसी लाभ के पद पर हो विकृत चित्त हो या सक्षम न्यायालय द्वारा इस प्रकार घोषित कर दिया गया हो।

मानसिक और शारीरिक दुर्बलता के कारण पद पर बने रहने के अयोग्य हो गया हो।

किसी ऐसे अपराध के लिए जो राष्ट्रपति की राय में नैतिक अपराध के लिए जो राष्ट्रपति की राय में नैतिक पतन वाला हो दोष सिद्ध हो गया हो और उसे कारागार की सजा दे दी गयी हो।

राज्य आयोग के अध्यक्ष और सदस्यों की पदावधि (धारा 24) : मानवाधिकार आयोग Human Rights

(1) अध्यक्ष के रूप में नियुक्त किया गया कोई व्यक्ति, अपने पद ग्रहण की तारीख से पांच वर्ष की अवधि तक या सत्तर वर्ष की आयु प्राप्त कर लेने तक, इनमें से जो भी पहले हो, अपना पद धारण करेगा। मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम (संशोधित) 2019 के अनुसार अध्यक्ष का कार्यकाल 3 वर्ष अथवा 70 वर्ष की आयु जो भी पहले होतक का होगा तथा वह 5 वर्ष के लिए पुनः नियुक्ति का पात्र भी होगा

(2) सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया कोई व्यक्ति, अपने पद ग्रहण की तारीख से पांच वर्ष की अवधि तक अपना पद धारण करेगा तथा पांच वर्ष की और अवधि के लिए पुनर्नियुक्ति का पात्र होगा। मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम (संशोधित) 2019 के अनुसार सदस्यों का कार्यकाल 3 वर्ष अथवा 70 वर्ष की आयु जो भी पहले होतक का होगा

परन्तु यह कि कोई भी सदस्य सत्तर वर्ष की आयु प्राप्त (पूर्ण) करने के बाद पद को धारण नहीं करेगा।

(3) अध्यक्ष या कोई सदस्य, अपने पद पर न रह जाने पर, किसी राज्य की सरकार के अधीन या भारत सरकार के अधीन किसी भी और नियोजन का पात्र नहीं होगा।

कतिपय परिस्थितियों में सदस्य का अध्यक्ष के रूप में कार्य करना या उसके कृत्यों का निर्वहन

अध्यक्ष की मृत्यु, पदत्याग या अन्य कारण से उसके पद में हुई रिक्ति की दशा में राज्यपाल, अधिसूचना द्वारा, सदस्यों में से किसी एक सदस्य को अध्यक्ष के रूप में तब तक कार्य करने के लिए प्राधिकृत कर सकेगा जब तक ऐसी रिक्ति को भरने के लिए नए अध्यक्ष की नियुक्ति नहीं हो जाती।

जब अध्यक्ष छुट्टी पर अनुपस्थिति के कारण या अन्य कारण से अपने कृत्यों का निर्वहन करने में असमर्थ है तब सदस्यों में से एक ऐसा सदस्य, जिसे राज्यपाल, अधिसूचना द्वारा, इस निमित्त प्राधिकृत करे, उस तारीख तक अध्यक्ष के कृत्यों का निर्वहन करेगा जिस तारीख को अध्यक्ष अपने कर्तव्यों को फिर से संभालता है।

राज्य आयोगों के अध्यक्ष और सदस्यों की सेवा के निबन्धन और शर्ते (धारा 26) : मानवाधिकार आयोग Human Rights

अध्यक्ष और सदस्यों को संदेय वेतन और भत्ते तथा उनकी सेवा के अन्य निबंधन और शतें ऐसी होंगी, जो राज्य सरकार द्वारा विहित की जाएं:

परन्तु अध्यक्ष किसी सदस्य के वेतन और भत्तों में तथा सेवा के अन्य निबंधनों और शर्तों में उसकी नियुक्ति के पश्चात् उसके लिए अलाभकारी परिवर्तन नहीं किया जाएगा।

राज्य आयोग के अधिकारी और अन्य कर्मचारिवृन्द (धारा 27)

(1) राज्य सरकार, आयोग को-

(क) राज्य सरकार के सचिव की पंक्ति से अनिम्न पक्ति का एक अधिकारी, जो राज्य आयोग का सचिव होगा।

(ख) ऐसे अधिकारी के अधीन, जो पुलिस महानिरीक्षक की पक्ति से नीचे का न हो, ऐसे पुलिस और अन्वेषण कर्मचारिवृन्द तथा ऐसे अन्य अधिकारी और कर्मचारिवृन्द, जो राज्य आयोग के कृत्यों का दक्षतापूर्ण पालन करने के लिए आवश्यक हो, उपलब्ध कराएगी।

(2) ऐसे नियमों के अधीन रहते हुए, जो राज्य सरकार द्वारा इस निमित्त बनाए जाए. राज्य आयोग, ऐसे अन्य प्रशासनिक, तकनीकी और वैज्ञानिक कर्मचारिवृन्द नियुक्त कर सकेगा, जो यह आवश्यक समझे।

(3) उपधारा (2) के अधीन नियुक्त अधिकारियों और अन्य कर्मचारिवृन्द के वेतन, भत्ते और सेवा की शर्तें ऐसी होगी, जो राज्य सरकार द्वारा विहित की जाए।

राज्य आयोग की वार्षिक और विशेष रिपोर्ट (धारा 28) : मानवाधिकार आयोग Human Rights

(1) राज्य आयोग, राज्य सरकार को वार्षिक रिपोर्ट प्रस्तुत करेगा

(2) राज्य सरकार, राज्य आयोग की वार्षिक और विशेष रिपोर्ट को

राज्य आयोग की सिफारिशों पर की गई या की जाने के लिए

प्रस्तावित कार्रवाई के ज्ञापन सहित और सिफारिशों की अस्वीकृति के कारणों सहित,

यदि कोई हो, जहां राज्य विधान-मंडल दो सदनों से मिलकर बनता है

वहां प्रत्येक सदन के समक्ष,

या जहां ऐसा विधान-मंडल एक सदन से मिलकर बनता है वहां उस सदन के समक्ष, रखवाएगी।

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग से संबंधित कतिपय उपबंधों का राज्य आयोगों को लागू होना (धारा 29)

धारा 9, धारा 10, धारा 12, धारा 13, धारा 14, धारा 15, धारा 16, धारा 17 और धारा 18 के उपबंध राज्य आयोग को लागू होंगे और वे निम्नलिखित उपांतरणों के अधीन रहते हुए प्रभावी होंगे, अर्थात्

(क) “आयोग’ के प्रति निर्देशों का यह अर्थ लगाया जाएगा कि वे “राज्य आयोग के प्रति निर्देश हैं,

(ख) धारा 10 की उपधारा (3) में, “महासचिव” शब्द के स्थान पर “सचिव’ शब्द रखा जाएगा.

(ग) धारा 12 के खंड (च) का लोप किया जाएगा,

(घ) धारा 17 के खंड (6) में से “केन्द्रीय सरकार या किसी” शब्दों का लोप किया जाएगा।

पूछे जाने वाले प्रश्न : मानवाधिकार आयोग Human Rights

राजस्थान राज्य मानव अधिकार आयोग:

राजस्थान में मानव अधिकारों के प्रभावी संरक्षण के लिए किए जा रहे कार्यों का बोध राजस्थान राज्य मानव अधिकार आयोग के क्रिया-कलापों से होता है।

इसका गठन मार्च 1999 में हुआ था मार्च 2000 में आयोग क्रियाशील हुआ।

मानव अधिकार क्या हैं? 

मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 की धारा 2(घ) के अनुसार ‘‘मानवअधिकारों’’ से तात्पर्य संविधान द्वारा प्रत्याभूत अथवा अंतरराष्ट्रीय प्रसंविदाओं में अन्‍तर्निहित उन अधिकारों से है जो जीवन, स्वतंत्रता, समानता एवं प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा से आशय संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 16 दिसम्बर,1966 को अभिस्वीकृत, अंतर्राष्ट्रीय नागरिक एवं राजनीतिक अधिकार प्रसंविदा से है।

राज्य आयोग के कार्य एवं उसमें निहित शक्तियां : राज्य मानव अधिकार आयोग

आयोग निम्नलिखित सभी या किन्हीं कृत्यों का निष्पादन करेगा, अर्थात्-

(क) स्वप्रेरणा से या किसी पीड़ित या उसकी ओर से किसी व्यक्ति द्वारा उसे प्रस्तुत याचिका पर

(1) मानव अधिकारों के उल्लंघन या उसके अपशमन की, या

(2) किसी लोक सेवक द्वारा उसउल्लंघन को रोकने में उपेक्षा की शिकायत की जांच करेगा,

(ख) किसी न्यायालय के समक्ष लम्बित मानव अधिकारों के उल्लंघन के किसी अभिकथन वाली किसी कार्यवाही में उस न्यायालय की अनुमति से हस्तक्षेप करेगा,

(ग) राज्य सरकार को सूचना देने के अध्यधीन,

राज्य सरकार के नियन्त्रणाधीन किसी जेल या किसी अन्य संस्था का,

जहॉं पर उपचार,सुधार या संरक्षण के प्रयोजनार्थ व्यक्तियों को निरूद्ध किया जाता है या

रखा जाता है निवास करने वालों की जीवन दशाओं का अध्ययन करने एवं

उस पर सिफारिशें करने के लिए निरीक्षण करेगा,

(घ) मानव अधिकारों के संरक्षण के लिए संविधान या तत्समय प्रवृत्त किसी कानून द्वारा या उसके अधीन प्रावहित सुरक्षाओं का पुनर्वालोकन करेगा तथा उनके प्रभावी क्रियान्वयन के लिए सिफारिशें करेगा,

(ड) उन कारकों का, जिसमें उग्रवाद के कृत्य भी हैं,

मानव अधिकारों के उपयोग में बाधा डालते हैं,

पुनरावलोकन करेगा एवं उपयुक्त उपचारात्मक उपायों की सिफारिश करेगा,

(च) मानव अधिकारों ने क्षेत्र में अनुसंधान एवं उसे प्रोन्नत करेगा

(छ) समाज के विभिन्न खण्डों में मानव अधिकार साक्षरता का प्रसार करेगा तथा प्रकाशकों,

साधनों (मीडिया) सेमीनारों एवं अन्य उपलब्ध साधनों के माध्यम से

इन अधिकारों के संरक्षण के लिए उपलब्ध सुरक्षाओं के प्रति जागरूकता को विकसित करेगा,

(ज) मानव अधिकारों के क्षेत्र में कार्य करने वाले गैर सरकारी संगठनों एव संस्थाओं के प्रयत्नों को प्रोत्साहन देगा,

(झ) ऐसे अन्य कृत्य करेगा जिन्हें वह मानव अधिकारों के संवर्धन के लिए आवश्यक समझेगा।

आयोग में निहित जांच से संबंधित शक्तियां : मानवाधिकार आयोग Human Rights

अधिनियम के अंतर्गत किसी शिकायत की जांच करते समय आयोग को सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अंतर्गत निम्नलिखित मामलों में, सिविल न्यायालय की सभी शक्तियां प्राप्त होंगी:-

(क) गवाहों को सम्मन जारी करके बुलाने तथा उन्हें हाजिरी हेतु बाध्य करने एवं उन्हें शपथ दिलाकर परखने के लिए,

(ख) किसी दस्तावेज का पता लगाने और उसको प्रस्तुत करने के लिए,

(ग) शपथ पत्र पर गवाही देने के लिए,

(घ) किसी न्यायालय अथवा कार्यालय से किसी सरकारी अभिलेख अथवा उसकी प्रतिलिपि की मांग करने के लिए,

(ड) गवाहियों तथा दस्तावेजों की जॉंच हेतु कमीशन जारी करने के लिए,

(च) निर्धारित किए गए किसी अन्य मामले के लिए।

क्या आयोग के पास अपना अन्वेषण दल है?

जी हॉं। मानव अधिकारों के हनन से संबंधित शिकायतों की जांच करने के लिए आयोग के पास अपना अन्वेषण दल है।

अधिनियम के अंतर्गत आयोग को इस बात की भी छू प्राप्त है कि वह राज्य सरकार के किसी अधिकारी अथवा अभिकरण की सेवाओं का उपयोग कर सके।

क्या आयोग स्वायत्तशासी निकाय है? 

जी हॉं। आयोग की स्वायतत्ता इसके सदस्यों की नियुक्त के ढंग,

उनके कार्यकाल की स्थिरता और सवैधानिक गारंटी,

उनको दी गर्इ पदवी और आयोग के लिए,

जिसमें अन्वेषण अभिकरण भी शामिल है,

स्टाफ की नियुक्ति का तरीका,

कर्मचारियों का दायित्व और उनके कार्य-निष्पादन से स्वयं स्पष्‍ट होता हो जाती है।

आयोग की वित्तीय स्‍वायत्तता का वर्णन अधिनियम की धारा 33 में किया गया है।

अध्यक्ष तथा सदस्यों की नियुक्ति मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में गठित एक समिति जिसमें विधान सभा के अध्यक्ष,

गृहमंत्री एवं विधान सभा के विपक्ष के नेता है सदस्य हैं कि अनुशंसा पर राज्यपाल द्वारा की जाती है।

आयोग द्वारा शिकायतों की जाँच किस प्रकार से की जाती है? 

मानव अधिकारों के हनन से संबंधित शिकायतों की जाँच करते समय

आयोग राज्य सरकार अथवा उनके अधीन किसी अन्य प्राधिकरण

अथवा संगठन से निर्दिष्टतारीख तक आयोग को सूचना या रिपोर्ट प्राप्त नहीं होती तो

वह अपनी ओर से स्वयं शिकायत की जाँच कर सकता है।

दूसरी और ऐसी सूचना या रिपोर्ट प्राप्त होने पर आयोग यदि संतुष्ट हो जाता है कि

अब आगे कोर्इ जाँच करने की जरूरत नहीं है

अथवा संबंधित राज्य सरकार या प्राधिकारी द्वारा अपेक्षित जाँच शुरू कर दी गई है तो वह,

आम तौर से, ऐसी शिकायत पर आगे जाँच नहीं करेगा तथा तदनुसार शिकायतकर्ता को तत्संबंधी कार्रवाई की सूचना दे देगा।

जाँच के बाद आयोग क्या कार्रवाई कर सकता है?

जाँच पूरी होने के पश्चात् आयोग निम्नलिखित में से कोई भी कार्रवाई कर सकता है:

(1) जाँच से आयोग को जहाँ यह पता चलता है कि लोक सेवक द्वारा मानव अधिकारों का हनन किया गया है अथवा उसने ऐसे हनन को रोकने की उपेक्षा की है तो ऐसी स्थिति मे आयोग राज्य अथवा प्राधिकारी को संबंधित व्यक्ति अथवा व्यक्तियों के खिलाफ अभियोजन अथवा ऐसी अन्य कार्रवाई शुरू करने की, जो उचित हो, अनुशंसा कर सकता है,

(2) आयोग उच्चतम न्यायालय या संबंधित उच्च न्यायालय से ऐसे निर्देशों,

आदेशों अथवा रिपोर्टों के लिए,

जो भी वह न्यायालय आवश्यक समझें, अनुरोध कर सकता है,

(3) आयोग पीड़ित व्यक्ति अथवा उसके परिवार के सदस्यों को,

जिसे भी आयोग आवश्यक समझे,

राज्य सरकार अथवा प्राधिकारी से अंतरिम सहायता तत्काल देने की अनुशंसा कर सकता है।

शिकायत किस भाषा में की जा सकती है?

शिकायतें हिन्दी, अंग्रेजी अथवा संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किसी भाषा में भेजी जा सकती है।

शिकायतें अपने आप में पूर्ण होनी चाहिए। शिकायतों के लिए कोई फीस नहीं ली जाती।

आयोग जब भी आवश्यक समझे आरोपों के समर्थन में और अधिक सूचना भेजने तथा शपथ-पत्र दाखिल करने की मांग कर सकता है।

स्वविवेक से तार तथा फैक्स द्वारा भेजी गर्इ शिकायतें भी स्वीकार कर सकता है।

आयोग द्वारा किसी प्रकार की शिकायतों पर कार्रवाई नहीं की जाती?

आमतौर से निम्नलिखित प्रकार की शिकायतों पर आयोग द्वारा कार्रवार्इ नहीं की जाती:

(क) ऐसी घटनाएं जिनकी शिकायतें उनके घटित होने के एक साल बाद की गई हों,

(ख) ऐसे मामले जो न्यायालय में विचाराधीन हों,

(ग) ऐसी शिकायतें भी, जो अस्पष्ट, बिना नाम अथवा छद्म नाम से की गई हों,

(घ) ऐसी शिकायतें जो ओछेपन की परिचाय कहों,

(ड) ऐसी शिकायतें जो सेना से सम्बन्धित मामलों के बारे में हो।

(च) यदि किसी शिकायत पर अन्य सक्षम आयोग द्वारा पूर्व में ही कार्यवाही आरम्भ की जा चुकी हो।

(छ) ऐसी शिकायत जो मूलरूप से किसी अन्य आयोग/अधिकारी/प्राधिकारी को संबोधित की गई हो

आयोग द्वारा प्राधिकारी/राज्य सरकार को भेजी गई रिपोर्ट/अनुशंसाओं के बारे में उनका क्या दायित्व है?

आयोगद्वारा प्राधिकारी/राज्य सरकार को भेजी गई सामान्य प्रकार की शिकायतों पर अपनी टिप्पणी की गई कार्रवाई की सूचना आयोग का एक महीने के भीतर भेजनी होती है

आयोग के अब तक कार्यों का केन्द्र बिन्दु (फोकस) क्या है?

आयोगके कार्य क्षेत्र में सभी प्रकार के वे मानव अधिकार आते हैं जिनमें नागरिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार शामिल हैं।

आयोग हिरासत में हुई मौतों, बलात्कार, उत्पीड़न, पुलिस और जेलों में ढांचागत सुधार, सुधार गृहों, मानसिक अस्पतालों की हालत सुधारने के मामलों पर विशेष ध्यान दे रहा है।

समाज के सबसे अधिक कमजोर वर्ग के लोगों के अधिकारों का संरक्षण करने की दृष्टि से,

14 वर्ष की आयु तक के बच्चों को आवश्यक तथा निशुल्क शिक्षा प्रदान करने,

गरिमा के साथ जीवन व्यतीत करने,

माताओं और बच्चों के कल्याण हेतु प्राथमिक सुविधाएं उपलब्ध कराने की,

आयोग ने सिफारिशें की हैं।

समानता और न्याय का हनन कर,

नागरिकों के खिलाफ किए जा रहे अत्याचारों,

विस्थापित हुए लोगों की समस्याएं और भूख के कारण लोगों की मौंतें,

बाल श्रमिकों का शोषण, बाल वेश्यावृत्ति,

महिलाओं के अधिकारों आदि पर आयोग ने अपना ध्यान केन्द्रित किया है।

आयोग द्वारा शुरू किए गए अन्य प्रमुख कार्य:

अपनी व्यापक रूप से बढ़ती हुई जिम्मेदारियों को ध्यान में रखते हुए आयोग ने शिकायतों की जॉंच के अलावा निम्नलिखित कार्यों को भी अपने हाथ में लिया है

नागरिक स्वतंत्रताएं : मानवाधिकार आयोग Human Rights

(1) पुलिस द्वारा गिरफ्तार करने के अधिकार के दुरूपयोग को रोकने के लिए दिशा-निर्देश।

(2) जिला मुख्यालय में ‘‘मानव अधिकार प्रकोष्‍ठ’’ की स्थापना।

(3)हिरासत में हुई मौतों, बलात्कार और मानवीय उत्पीड़न को रोकने के उपाय।

(4) व्यवस्थागत सुधार 1- पुलिस, 2- जेल, 3- नजर बन्दी केन्द्र।

(5) माताओं में अल्परक्तता और बच्चों में जन्मजात मानसिक अपंगता की रोकथाम।

(6) एचआईवी/एड्स से पीड़ित लोगों के मानव अधिकार।

(7) मानसिक अस्पतालों की गुणवत्ता में सुधार

(8) हाथ से मैला ढोने की प्रथा समाप्त करने के लिए प्रयास।

(9) गैर-अधिसूचत और खानाबदोश जनजातियों के अधिकारों का संरक्षण करने के लिए सिफारिशें करना।

(10) जनस्वास्थ्य प्रदूषण नियंत्रण, खाद्य पदार्थो में मिलावट की रोकथाम, औषधियों में मिलावट व अवधिपार औषधियों पर रोक।

(11) धर्म, जाति, उपजाति आदि के बहिष्कार के मामलात

(12) मानव अधिकारों की शिक्षा का प्रसार और अधिकारों के प्रति जागरूकता में वृद्धि।

क्या आप चाहतें हैं कि आपके परिवाद/शिकायत पर आयोग द्वारा शीघ्र प्रभावी कार्यवाही हो? 

यदि हां तो कृपया अपने परिवाद/शिकायत में यथा सम्भव निम्न सूचना अवश्य अंकित करें:-

(क) पीडित व्यक्ति का नाम, पिता/पति का नाम, जाति, निवास का पता-गांव/शहर, डाकघर, पुलिस थाना जिले सहित।

(ख) जिस व्यक्ति/अधिकारी/कार्यालय के विरूद्व शिकायत, उसका पूरा विवरण।

(ग) शिकायत/घटना/उत्पीड़न का पूरा विवरण (घटना, स्थान, तारीख, महीना वर्ष सहित)

(घ) घटना की पुष्टि करने वाले साक्षियों के नाम-पता, यदि ज्ञात हो तो

(ड) घटना की पुष्टि में दस्तावेजी सबूत, यदि कोई हो तो,

(च) यदि किसी अन्य अधिकारी/कार्यालय/मंत्रालय को शिकायत भेजी हो तो उसका नाम एवं उस पर यदि कोई कार्यवाही हुई हो तो उसका विवरण।

(छ) क्या आपने पूर्व में इस आयोग या राष्ट्रीय आयोग में इस विषय में शिकायत की हैं , यदि हां तो उसका विवरण एवं परिणाम।

(ज) क्या इस मामले में किसी फौजदारी/दीवानी/राजस्व अदालत में या विभागीय कोई कार्यवाही हुई या लंबित है , हां तो उसका विवरण। (उद्धृत– पूछे जाने वाले प्रश्न http://rahe.rajasthan.gov.in)

स्रोत:-

मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम 1993, मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम (संशोधित) 2006, मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम (संशोधित) 2019

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मानव अधिकार संरक्षण (संशोधन) अधिनियम-2019

मानव अधिकार संरक्षण (संशोधन) अधिनियम-2019

मानव अधिकार संरक्षण (संशोधन) अधिनियम-2019 के प्रमुख संशोधन, राष्ट्रीय राज्य मानव अधिकार आयोग का संगठन, कार्यकाल, शक्तियां संघ शासित क्षेत्र

प्रमुख संशोधन

1- राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का संगठनात्मक ढांचा

(क) मूल अधिनियम के अंतर्गत राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का अध्यक्ष केवल सर्वोच्च न्यायालय का पूर्व मुख्य न्यायाधीश नियुक्त हो सकता है। संशोधन के बाद उच्चतम न्यायालय का कोई भी पूर्व न्यायाधीश आयोग का अध्यक्ष हो सकता है।
(ख) मूल अधिनियम में ऐसे दो पूर्णकालिक सदस्यों का प्रावधान था, जिन्हें मानव अधिकारों की व्यापक समझ हो। संशोधन के पश्चात ऐसे सदस्यों की संख्या तीन होगी जिनमें से एक सदस्य महिला सदस्य होना आवश्यक है।
(ग) मूल संविधान में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोगए राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोगए राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोगए राष्ट्रीय महिला आयोग के अध्यक्ष ही मानव अधिकार आयोग के सदस्य होते हैं। संशोधन के पश्चात राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोगए राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग के अध्यक्ष तथा दिव्यांगों के लिए मुख्य आयुक्त को भी राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का सदस्य नियुक्त किया जा सकता है।

2- राज्य मानव अधिकार आयोग का संगठनात्मक ढांचा

मूल अधिनियम में राज्य मानव अधिकार आयोग का अध्यक्ष उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश को ही नियुक्त किया जा सकता है।

संशोधन के पश्चात उच्च न्यायालय का कोई भी पूर्व न्यायधीश राज्य मानव अधिकार आयोग का अध्यक्ष नियुक्त हो सकता है।

3- कार्यकाल

मूल अधिनियम में राष्ट्रीय तथा राज्य मानव अधिकार आयोग के अध्यक्ष का कार्यकाल 5 वर्ष या 70 वर्ष की आयु;

जो भी पहले होद्ध पूर्ण होने तक होता था।

संशोधन के पश्चात कार्यकाल 3 वर्ष या 70 वर्ष की आयु;

जो भी पहले हो, कर दिया गया है तथा अध्यक्ष पुनः नियुक्ति का पत्र भी होगा।

4- शक्तियां

मूल संविधान में राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के महासचिव तथा राज्य मानव अधिकार आयोग के सचिव उनकी शक्तियों का उपयोग करते थे जो उन्हें सौंपी जाती थी। संशोधन के बाद महासचिव और सचिव अध्यक्ष के अधीन सभी प्रशासनिक एवं वित्तीय शक्तियों का उपयोग कर सकेंगे, किंतु इनमें न्यायिक शक्तियां शामिल नहीं है।

5 संघ शासित क्षेत्र

संशोधन के बाद संघ शासित क्षेत्र से संबंधित मामलों को केंद्र सरकार राज्य मानव अधिकार आयोग को सौंप सकती है,

किंतु संघ शासित क्षेत्र दिल्ली से संबंधित मामले राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग द्वारा निपटाए जाएंगे।

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भारत का विधि आयोग (Law Commission, लॉ कमीशन)

मानवाधिकार (मानवाधिकारों का इतिहास)

मानव अधिकार संरक्षण (संशोधन) अधिनियम 2019

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग : संगठन तथा कार्य

भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान

श्री सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या के मतानुसार प्रांतीय भाषाओं और बोलियों का महत्व

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग : संगठन तथा कार्य

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का परिचय, इतिहास, कार्य, अर्थ, संगठन, मुख्य प्रभाग, सदस्यों की पदावधि आदि की पूर्ण जानकारी

“ईश्वर द्वारा निर्मित हवा पानी की तरह सब चीजों पर सबका समान अधिकार होना चाहिए”महात्मा गांधी

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का परिचय

मानवाधिकारों की रक्षा के लिए विश्व में अनेक संगठन कार्य कर रहे हैं।

विभिन्न देशों ने मानवाधिकारों के संरक्षण के लिए अपने अपने संविधान में प्रावधान किए हैं तथा ऐसे आयोगों की स्थापना की है,

जो उन देशों के नागरिकों के अधिकारों की रक्षा कर सकें।

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का गठन 12 अक्टूबर, 1993 को संसद के एक अधिनियम,

नामतः मानव  अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993(मानव अधिकार (संशोधन) अधिनियम 2006 द्वारा संशोधित) द्वारा हुआ था।

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का गठन 1991 में फ्रांस की राजधानी पेरिस में मानव अधिकारों के संरक्षण एवं संवर्धन हेतु आयोजित राष्ट्रीय संस्थानों की प्रथम अंतरराष्ट्रीय कार्यशाला में अंगीकृत किए गये तथा 20 दिसंबर 1993 को संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 48/134 संकल्प में पृष्ठांकित किए गए पेरिस सिद्धांतों के अनुसार है इस अधिनियम को अधिनियमित करने का कारण मानव अधिकारों का बेहतर संरक्षण एवं संवर्द्धन था।

यह एक ऐसा संस्थान है जो न्यायपालिका का अनुपूरक है और

देश में लोगों के सांविधिक रूप से निहित मानव अधिकारों की रक्षा एवं संवर्द्धन में लगा हुआ है।

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का अर्थ

अधिनियम के अनुसार मानव अधिकार का अर्थ है

संविधान द्वारा गारंटीकृत या अंतरराष्ट्रीय पारस्परिक संविधान में सन्निहित और भारत में न्यायालयों द्वारा प्रवर्तनीय जीवन, स्वतंत्रता, समानता और व्यक्ति विशेष की गरिमा संबंधी अधिकार।

अंतरराष्ट्रीय पारस्परिक संविदाओं का अर्थ

अंतरराष्ट्रीय पारस्परिक संविदाओं का अर्थ है सिविल एवं राजनीतिक अधिकारों संबंधी अंतरराष्ट्रीय पारस्परिक संविदाएं: आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकार संबंधी अंतरराष्ट्रीय पारस्परिक संविदाएं: महिलाओं के प्रति होने वाले हर प्रकार के भेदभाव का उन्मूलन संबंधी अभिसमय; बच्चों के अधिकार संबंधी अभिसमय और हर प्रकार के नृजातीय भेदभाव का उन्मूलन संबंधी अभिसमय। भारत सरकार ने वर्ष 1979 में सिविल एवं राजनीतिक अधिकारों संबंधी अंतरराष्ट्रीय पारस्परिक संविदा और आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकार संबंधी अंतर्राष्ट्रीय पारस्परिक संविदा को स्वीकार किया था

महिलाओं के प्रति भेदभाव का उन्मूलन

भारत सरकार ने वर्ष 1993 में महिलाओं के प्रति होने वाले हर प्रकार के भेदभाव का उन्मूलन संबंधी अभिसमय, वर्ष 1991 में बच्चों के अधिकार संबंधी अभिसमय और वर्ष 1968 में हर प्रकार के नृजातीय भेदभाव का उन्मूमलन संबंधी अभिसमय की अभिपुष्टि की।

यह उल्लेख करना अनुचित नहीं होगा कि भारतीय संविधान उन सभी बिन्दुओं को ध्यान में रखता है जिनका उल्लेख उपरोक्त संविदाओं में किया गया है।

सिविल एवं राजनीतिक अधिकारों संबंधी अंतरराष्ट्रीय पारस्परिक संविदा और आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकार संबंधी अंतरराष्ट्रीय पारस्परिक संविदा में उल्लिखित कई अधिकार भारतीय नागरिकों को उसी समय उपलब्ध हो गए थे जब भारत स्वतंत्र हुआ था क्योंकि यह अधिकार प्रमुख रुप से संविधान के भाग I और भाग IV में मौलिक अधिकार और राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत जैसे शीर्ष के तहत दिए गए हैं।

भारत की चिंता का मूर्त रूप

आयोग को स्वतंत्रता, कार्य करने की स्वायत्तता और व्यापक अधिदेश उपलब्ध कराना निर्विवादित रूप से मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम की सबसे बड़ी ताकत रही है, जो कि पेरिस सिद्धांतों के अनुरूप राष्ट्रीय मानव अधिकार संस्था के गठन और उचित कार्यकरण के लिए आवश्यक है।

भारत का राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग, मानव अधिकारों के संवर्द्धन और संरक्षण के संबंध में भारत की चिंता का मूर्त रूप है।

अपने अस्तित्व से लेकर अब तक भारत के राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के अनुभव ने यह दर्शाया है कि इसकी संरचना, नियुक्ति प्रक्रिया, अन्वेषण संबंधी शक्तियां, कार्यों का व्यापक विस्तार तथा विशेषज्ञ प्रभाग एवं स्टॉफ से संबंधित स्वतंत्रता और मजबूती, सांविधिक अपेक्षताओं द्वारा गारंटीकृत है।

आयोग का संगठन

आयोग में एक अध्यक्ष, चार पूर्णकालिक सदस्य तथा चार मनोनीत सदस्य हैं।

संविधि में आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों की नियुक्ति के लिए अर्हता निर्धारित की गई है।

मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 कि धारा 3 के अनुसार

(1)”भारत सरकार राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के रूप में जानी जाने वाली एक संस्था का, इस अधिनियम के अधीन उसे प्रदत्त शक्तियों के प्रयोग में, तथा उसे समनुदेशित कार्यों को निष्पादित करने के लिए गठन करेगी।

(2) राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की संरचना में निम्नलिखित होंगे-

अध्यक्ष

जो उच्चतम न्यायालय का मुख्य न्यायमूर्ति रहा है।

किंतु मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम (संशोधित) 2019 के अनुसारअध्यक्ष पद के लिए उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के साथ-साथ उच्चतम न्यायालय के अन्य न्यायाधीश भी योग्य होंगे

एक सदस्य

जो उच्चतम न्यायालय का सदस्य है, या सदस्य रहा है;

एक सदस्य जो उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीशहै, या मुख्यन्यायाधीश रहा है।

दो सदस्य

जिनकी नियुक्ति उन व्यक्तिों में से की जाएगी जिन्हेमानव अधिकारों से संबंधित मामलों का ज्ञान हो,उसका व्यावहारिकअनुभव हो।

किंतु मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम (संशोधित) 2019 के अनुसार ऐसे सदस्यों की संख्या तीन होगी जिनमें काम से कम एक महिला सदस्य अवश्य हो

मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 किधारा 12 के खण्डों (ख) से (ग) में विनिर्दिष्ट कार्यों के निर्वहन के लिए-

(NMC) राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग

(NCSC) राष्ट्रीय अनुसूचित जाति

(NCST) राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग

(NCW) राष्ट्रीय महिला आयोग के अध्यक्षों

के अतिरिक्तमानव अधिकार संरक्षण अधिनियम (संशोधित) 2019 के अनुसार

(NCBC) राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग का अध्यक्ष

बाल अधिकार संरक्षण आयोग का अध्यक्ष

दिव्यांगों के लिए मुख्य आयुक्त को राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के सदस्य समझा जायेगा।

अतः राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का गठन एक अध्यक्ष, पाँच पूर्णकालिक सदस्यों तथा सातमनोनित सदस्यों से होता है।

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों की नियुक्ति प्रधानमंत्री (अध्यक्ष), लोकसभा अध्यक्ष, भारत सरकार के गृह मंत्रालय के प्रभारी मंत्री. लोकसभा तथा राज्य सभा में विपक्ष के नेता तथा राज्य सभा के उपसभापति से गठित एक उच्च स्तरीय समिति की सिफारिश पर भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।

परन्तु उच्चतम न्यायालय के किसीवर्तमान न्यायाधीश या उच्च न्यायालय केवर्तमान मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति भारत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श किये बिना नही की जा सकती।

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों की नियुक्ति के लिए चयन समिति

  • प्रधानमंत्रीअध्यक्ष
  • लोक सभा का अध्यक्षसदस्य
  • भारत सरकार के गृह मंत्रालय का मंत्री प्रभारीसदस्य
  • लोकसभा में विपक्ष का नेतासदस्य
  • राज्यसभा में विपक्ष का नेतासदस्य
  • राज्यसभा का उपसभापतिसदस्य

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग का मुख्यालय तथा बैठकें

मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 कि धारा 3 (5) के अनुसार आयोग का मुख्यालय दिल्ली में होगा तथा भारत सरकार की पूर्व अनुमति से भारत के किसी भी अन्य स्थान पर कार्यालय स्थापित किया जा सकता है।

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग (प्रक्रिया)विनियम 1994 के विनियम 3 के अनुसार

आयोग कि बैठकें दिल्ली स्थित कार्यालय में संपन्न होगी।

राष्ट्रीय-मानव अधिकार आयोग (प्रक्रिया) विनियम 1994 के विनियम 4 के अनुसार

यदि आयोग आवश्यक और उचित समझे तो आयोग अपनी बैठक भारत में अन्य किसी भी स्थान पर कर सकता है।

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग (प्रक्रिया) विनियम 1994 के विनियम 20 के अनुसारअध्यक्ष से पूर्व अनुमति प्राप्त कर यदि कोई सदस्य मुख्यालय से इतर किस स्थान पर कार्य कर रहा हो तो ऐसी स्थिति में अधिनियम के अंतर्गत जांच के संबंध में पक्षकारों की सुनवाई हो तो आयोग के कम से कम दो सदस्यों की उपस्थिति अनिवार्य होगी।

सदस्यों की पदावधि

  1. मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 कि धारा 6 (1) के अनुसार अध्यक्ष के रूप में नियुक्त व्यक्ति उस दिनांक से जिसको वह अपना पद धारित करता है से पांच वर्ष की अवधि के लिये अथवा सत्तर वर्ष की आयु तक पद पर बना रहेगा।
    किंतु मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम (संशोधित) 2019 के अनुसार अध्यक्ष का कार्यकाल 3 वर्ष अथवा 70 वर्ष की आयु जो भी पहले होतक का होगातथा वह 5 वर्ष के लिए पुनः नियुक्ति का पात्र भी होगा

2. मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 कि धारा 6 (2) के अनुसार सदस्य के रूप में नियुक्त व्यक्ति उस दिनांक से जिसको वह अपना पद धारित करता है से, पाँच वर्ष की अवधि के लिए पद पर रहेगा तथा पाँच वर्षों की दूसरी अवधि के लिए पुन: नियुक्ति हेतु पात्र होगा।मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम (संशोधित) 2019 के अनुसार सदस्यों का कार्यकाल 3 वर्ष अथवा 70 वर्ष की आयु जो भी पहले होतक का होगा परन्तु यह कि कोई भी सदस्य सत्तर वर्ष की आयु प्राप्त (पूर्ण) करने के बाद पद को धारण नहीं करेगा।

3. मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1993 कि धारा 6 (3) के अनुसार,

कोई भी व्यक्ति आयोग का अध्यक्ष या सदस्य रह जाने के बाद भारतसरकार अथवा

किसी राज्य सरकार के अधीन आगे और नियुक्ति के लिए पात्र नहीं होगा।

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों का पद त्याग या पदच्युति

मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम 1993 की धारा 5 में आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों को पदच्युत करने से संबंधित उपबंध किए गए हैं-

अध्यक्ष या कोई सदस्य राष्ट्रपति को संबोधित अपने हस्ताक्षर सहित लिखित सूचना द्वारा अपना पद त्याग सकेगा।

धारा 5 की उपधारा 1 के अनुसार आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों को राष्ट्रपति द्वारा निम्नलिखित में से किसी आधार पर पदच्युतकियाजा सकता है-

  • सिद्ध कदाचार/दुर्व्यवहार।
  • अक्षमता के आधार पर।

उक्त प्रकार से पदच्युत किये जाने से पूर्व राष्ट्रपति द्वारा-

  • उच्चतम न्यायालय को निर्देशित किया जाएगा।
  • विहित प्रक्रिया द्वारा उच्चतम न्यायालय द्वारा मामले की जांच की जाएगी।
  • जांच की रिपोर्ट राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत की जाएगी।
  • जांच रिपोर्ट में अध्यक्ष या सदस्य के विरुद्ध सिद्ध कदाचार/दुर्व्यवहार अथवा
    अक्षमता सिद्ध होने पर राष्ट्रपति उन्हें पदच्युत कर सकता है।

धारा 5 की उपधारा 2 के अनुसार आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों को राष्ट्रपति द्वारा निम्नलिखित में से किसी आधार पर पदच्युतकियाजा सकता है-

I. दिवालिया घोषित कर दिया गया हो।

II. किसी लाभ के पद पर हो विकृत चित्त हो या सक्षम न्यायालय द्वारा इस प्रकार घोषित कर दिया गया हो।

III.  मानसिक और शारीरिक दुर्बलता के कारण पद पर बने रहने के अयोग्य हो गया हो।

IV. किसी ऐसे अपराध के लिए जो राष्ट्रपति की राय में नैतिक अपराध के लिए जो

राष्ट्रपति की राय में नैतिक पतन वाला हो दोष सिद्ध हो गया हो और उसे कारागार की सजा दे दी गयी हो।

जांच से संबधित शक्तियां

आयोग का मुख्य कार्यकारी अधिकारी महासचिव होता है।

जो भारत सरकार के सचिव स्तर का अधिकारी होता है।

आयोग का सचिवालय, महासचिव के सम्पूर्ण दिशानिर्देशों के तहत कार्य करता है।

आयोग को कोड ऑफ सिविल प्रोसीजर, 1908 के अंतर्गत वे सभी शक्तियां प्राप्त है जो सिविल कोर्ट किसी वाद के विचारण के समय अपनाता है, विशेष रूप से गवाहों की उपस्थिति हेतु समन करने तथा हाजिर करने तथा शपथ पर उनकी जांच करने हलफनामे पर साक्ष्य प्राप्त करने किसी पब्लिक रिकॉर्ड को मांगने अथवा किसी न्यायालय अथवा कार्यालय से उनकी प्रति मांगने तथा निर्धारित किए गए किसी अन्य मामले के संबंध में उल्लंघन के मामले में आयोग संबद्ध सरकार से उपचारी उपाय करने तथा पीड़ित अथवा मृतक के निकटतम संबंधी को मुआवजा देने के लिए कहता है तथा लोक सेवकों को उनके दायित्व एवं बाध्यताओं की भी याद दिलाता है।

मामले के अनुसार यह अभियोजन हेतु कार्यवाही प्रारम्भ करता है

अथवा संबद्ध व्यक्तियों के विरुद्ध जो भी उचित कार्यवाही हो करने का निदेश देता है।

गंभीर मामलों में स्वतः संज्ञान लेना एक ऐसी अन्य महत्त्वपूर्ण विशेषता जिसका यह अधिकतम उपयोग करता है,

ऐसा यह समाचार-पत्रों तथा मीडिया की रिपोर्ट के आधार पर करता है।

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के कार्य

आयोग का अधिदेश बहुत व्यापक हैं। मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम की धारा 12 में दिए गए आयोग के कार्य निम्नानुसार हैं-

स्वप्रेरणा से या किसी पीड़ित व्यक्ति द्वारा या उसकी ओर से किसी व्यक्ति द्वारा या किसी न्यायालय के निदेश पर आयोग को प्रस्तुत की गई याचिका पर

(1) मानव अधिकारों का अतिक्रमण या दुष्प्रेरण किए जाने की, या

(2) ऐसे अतिक्रमण के रोकने में किसी लोकसेवक द्वारा की गई उपेक्षा की शिकायत के बारे में जांच करना।

किसी न्यायालय के समक्ष लंबित किसी कार्यवाही में, जिसमें मानव अधिकारों के उल्लंघन का कोई आरोप शामिल है,

उस न्यायालय के अनुमोदन से हस्तक्षेप करना।

तत्समय प्रवृत्त किसी विधि में निहित किसी बात के होते हुए भी

राज्य सरकार के नियंत्रण के अधीन किसी जेल या किसी अन्य संस्था का,

जहां व्यक्ति उपचार, सुधार या संरक्षण के प्रयोजनों के लिए निरुद्ध या दाखिल किए जाते हैं,

वहां के संवासियों के जीवन की परिस्थितियों का अध्ययन करने हेतु और

इस संबंध में सरकार को सिफारिश करने हेतु वहां का दौरा करना।

मानव अधिकारों के संरक्षण के लिए संविधान या तत्समय प्रवृत्त किसी अन्य विधि द्वारा उपबंधित रक्षोपायों का पुनर्विलोकन करना और उनके प्रभावपूर्ण कार्यान्वयन के लिए उपायों की सिफारिश करना।

*आतंकवाद के कारनामे सहित ऐसे कारकों की पुनरीक्षा करना जो मानव अधिकारों के उपभोग में विघ्न डालती है और समुचित उपचारी उपायों की सिफारिश करना।

मानव अधिकारों से संबंधित संधियों तथा अन्य अंतरराष्ट्रीय दस्तावेजों का अध्ययन करना और

उनके प्रभावी कार्यान्वयन के लिए सिफारिश करना।

मानव अधिकारों के क्षेत्र में अनुसंधान करना और उसे बढ़ावा देना।

समाज के विभिन्न वर्गों के बीच मानव अधिकारों संबंधी जानकारी का

प्रसार करना और प्रकाशनों, मीडिया, गोष्ठियों और अन्य उपलब्ध साधनों के माध्यम से

इन अधिकारों के संरक्षण के लिए उपलब्ध रक्षोपायों के प्रति जागरूकता का संवर्द्धन करना।

मानव अधिकारों के क्षेत्र में कार्यरत गैर सरकारी संगठनों और संस्थानों के प्रयासों को प्रोत्साहित करना।

ऐसे अन्य कार्य करना, जो मानव अधिकारों के संरक्षण के लिए इसके द्वारा आवश्यक समझा जाए।

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के प्रभाग

आयोग के पांच प्रभाग है, वे हैं-

(i) विधि प्रभाग

(ii) अन्वेषण प्रभाग

(iii) नीति अनुसंधान, परियोजना तथा कार्यक्रम प्रभाग,

(iv) प्रशिक्षण प्रभाग, तथा

(v) प्रशासनिक प्रभाग।

विधि प्रभाग:

आयोग का विधि प्रभाग पीड़ित अथवा उसकी तरफ से किसी अन्य व्यक्ति द्वारा की गई मानव अधिकार उल्लंघन की शिकायतों पर अथवा हिरासतीय मृत्यु, हिरासत में बलात्कार, पुलिस कार्रवाई में मौत के संबंध में संबंधित प्राधिकारियों से सूचना प्राप्त होने पर दर्ज लगभग 1 लाख मामलों का पंजीकरण तथा निपटारा करता है।

प्रभाग को पुलिस/न्यायिक हिरासत में मौत, रक्षा/अर्द्ध सैनिक बलों की हिरासत में मौत के संबंध में भी सूचना प्राप्त होती है।

आयोग में प्राप्त सभी शिकायतों को एक डायरी सं. दी जाती है तथा उसके बाद शिकायत प्रबंधन एवं सूचना प्रणाली (सी.एम.आई.एस.) सॉफ्टवेयर, जिसे विशेष रूप से इसी उद्देश्य के लिए बनाया गया है, का प्रयोग करके उनकी छानबीन की जाती है तथा प्रक्रिया शुरू की जाती है।

शिकायत का पंजीकरण करने के पश्चात् उन्हें आयोग के समक्ष उसके निर्देशों के लिए रखा जाता है तथा उसके अनुसार, प्रभाग द्वारा उन मामलों में अनुवर्ती कार्रवाई की जाती है, जब तक उनका अंतिम रूप से निपटारा नहीं हो जाता।

विधि प्रभाग

महत्वपूर्ण प्रकृति के मामलों को पूर्ण आयोग द्वारा उठाया जाता है तथा पुलिस हिरासत अथवा पुलिस कार्रवाई में मौत से संबंधित मामलों पर खंड पीठों द्वारा विचार किया जाता है।

कुछ मामलों पर खुली अदालती सुनवाई में आयोग की बैठकों में विचार किया जाता है यह प्रभाग लंबित शिकायतों के निपटान में तेजी लाने तथा मानव अधिकार के मुद्दों पर राज्य प्राधिकारियों को संवेदनशील बनाने के उद्देश्य से राज्य की राजधानियों मेंशिविर बैठकों का भी आयोजन करता रहा है।

आयोग देश में अनुसूचित जातियों पर होने वाले अत्याचार के संबंध में खुली सुनवाई भी आयोजित कर रहा है कि अनुसूचित जातियों के प्रभावित व्यक्तियों से सीधे सम्पर्क स्थापित हो सके।

आयोग मानव अधिकारों की बेहतर सुरक्षा और संवर्द्धन के लिए उसे संदर्भित विभिन्न विधेयकों/ प्रारूप विधानों पर भी अपनी राय/विचार देता है।

बढ़ता समन्वय

विधि प्रभाग ने एन.एच.आर.सी. एण्ड एचआरडी” ‘बढ़ता समन्वय’ नामक एक पुस्तक का प्रकाशन किया है। इस प्रश्न को समाज के विभिन्न वर्गों से उत्साहवर्धक फीडबैक प्राप्त हो रहे हैं। मानव अधिकार संरक्षण जो एचआरडी से संपर्क करते हैं, उनके लिए एचआरडी (i) मोबाइल न. (ii) फैक्स न.  तथा (iii) ई-मेल: hrd-nhrc@nic-in के जरिए 24 घंटे उपलब्ध रहते हैं।

इस प्रभाग का मुख्य अधिकारी रजिस्ट्रार (विधि) है, जिसकी सहायता के लिए प्रजेटिंग अधिकारी, एक संयुक्त रजिस्ट्रार तथा कई उप रजिस्ट्रार, सहायक रजिस्ट्रार, अनुभाग अधिकारी तथा अन्य सचिवालय स्टाफ होते है।

अन्वेषण प्रभाग

अन्वेषण प्रभाग का मुखिया पुलिस महानिदेशक की श्रेणी का अधिकारी होता है। इसमें एक उप-महानिरीक्षक एवं तीन वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक हैं। प्रत्येक वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक अन्वेषण अधिकारियों (इसमें उप अधीक्षक एवं निरीक्षक शामिल है) के समूह का मुखिया है। अन्वेषण अनुभाग के कार्य बहुमुखी हैं जिनका विवरण नीचे दिया गया है।

स्थल निरीक्षण

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की ओर से पूरे देश में मानव अधिकारों के उल्लंघन से संबंधित मामलों का स्थल निरीक्षण तथा उचित कार्यवाही की संस्तुति करता है। अन्वेषण अनुभाग द्वारा किए गए स्थल निरीक्षण से न केवल आयोग के समक्ष सत्य प्रस्तुत होता है बल्कि इससे सभी संबंधितों-शिकायतकर्ताओं, लोक सेवकों आदि को एक संदेश भी जाता है आयोग स्थल निरीक्षण का आदेश विभिन्न लोक प्राधिकारियों को भिन्न-भिन्न मामलों जैसे पुलिस द्वारा अवैध नजरबन्दी, अतिरिक्त न्यायिक हत्या तथा अस्पतालों में सुविधाओं की कमी जिससे मौतों को रोका जा सकता हो. देता है। स्थल निरीक्षण से आम जनता के बीच विश्वास में बढ़ोतरी होती है तथा मानव अधिकारों के संरक्षण एवं संवर्धन में राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के प्रति उनका विश्वास भी बढ़ता है। अन्वेषण अनुभाग मामलों के मॉनिटरिंग के अलावा मामलों में परामर्श/विश्लेषण, जहां भी किया जाए, अपनी टिप्पणी एवं सुझाव भी देता है।

अभिरक्षा में मौतआयोग द्वारा राज्य प्राधिकारियों के लिए जारी दिशा-निर्देश के अनुसार अभिरक्षा (चाहे वह पुलिस अथवा न्यायिक अभिरक्षा हो) में हुई मौत के मामले में आयोग को 24 घण्टे के भीतर सूचित करना अपेक्षित है। इसके अतिरिक्त, यह प्रभाग पुलिस तथा न्यायिक अभिरक्षा में मौत के साथ-साथ पुलिस मुठभेड़ों में हुई मौतों के संबंध में राज्य प्राधिकारियों से प्राप्त सूचनाओं तथा रिपोटों का विश्लेषण करता है। अन्वेषण अनुभव इस प्रकार की सूचनाओं को प्राप्त करके रिपोर्ट का विश्लेषण मानव अधिकारों के उल्लंघन होने का पता लगाने के लिए करता है। अपने विश्लेषण को अधिक व्यवसायिक एवं उचित बनाने की दिशा में अन्वेषण अनुभाग राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के फॉरेंसिक विशेषज्ञों के पैनल की मदद लेता है।

तथ्य अन्वेषण मामले

अन्वेषण अनुभाग विभिन्न प्राधिकारियों से मामले में तथ्य अन्वेषण रिपोर्ट जैसा कि आयोग द्वारा निर्देशित हो, की मांग करता है अन्वेषण अनुभाग आयोग को यह बताने में सहायता करने के लिए कि क्या कोई मानव अधिकार उल्लंघन हुआ है अथवा नहीं इन रिपोर्टों का गहनता से विश्लेषण करता है। ऐसे मामले जहां प्राप्त रिपोर्ट भ्रामक अथवा वास्तविक नहीं है, आयोग इन पर भी स्थल निरीक्षण का आदेश देता है।

प्रशिक्षण

अन्वेषण अनुभाग के अधिकारी मानव अधिकार साक्षरता एवं मानव अधिकारों के संरक्षण हेतु उपलब्ध सुरक्षा उपायों की जागरुकता फैलाने के लिए जहां भी उन्हें आमंत्रित किया जाता है उन प्रशिक्षण संस्थानों एवं अन्य मंचों में व्याख्यान देते हैं।

रैपिड एक्शन सेल

वर्ष 2007 से अन्वेषण अनुभाग आयोग में रैपिड एक्शन सेल बनाने के लिए प्रयासरत है। आर.ए.सी. मामलों के तहत अन्वेषण अनुभाग उन मामलों पर विचार करता है जो अतितत्काल प्रकृति के हों जैसे अगले ही दिन बाल विवाह होने की संभावना हो: शिकायतकर्ता को यह भय हो कि उसके रिश्तेदार अथवा दोस्त को पुलिस द्वारा उठाकर फर्जी मुठभेड़ में मार दिया जाएगा आदि। समग्र रूप से इस प्रकार के मामले अन्वेषण अनुभव आयोग द्वारा तत्काल अनुवर्तन हेतु उठाता है। इसमें प्राधिकारियों/ शिकायतकर्ताओं से तथ्य प्राप्त करने शिकायतकर्ता को विभिन्न प्राधिकारियों का संदर्भ देने तथा त्वरित रूप से उनके जवाब भेजने के लिए कहने के लिए उनसे टेलीफोन पर व्यक्तिगत रूप से बात करना भी शामिल है।

केन्द्रीय सशस्त्र पुलिस बलों के कार्मिकों हेतु वाद-विवाद प्रतियोगिताः

मानव अधिकारों की जागरुकता एवं इनके प्रति संवेदनशीलता बढ़ाने के लिए केन्द्रीय सशस्त्र पुलिस बलों के कार्मिकों हेतु अन्वेषण अनुभाग नियमित रूप से वर्ष 1996 से प्रतिवर्ष वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन करता आ रहा है। यही नहीं वर्ष 2004 से, जैसा कि माननीय अध्यक्ष द्वारा निदेश दिया गया था, पूरे देश में सी.ए.पी.एफ. की बड़ी संख्या में भागीदारी हेतु अंतिम प्रतियोगिता के लिए रनअप के रूप में जोनवार वाद-विवाद प्रतियोगिता का भी आयोजन किया जाता है। जोनल प्रतियोगिताओं के दौरान चुनी गई टीम को सेमीफाइनल तथा फाइनल राउण्ड के लिए केन्द्र में आयोजित प्रतियोगिता के लिए चुना जाता है। प्रतिवर्ष इसमें अभूतपूर्व प्रतिभागिता एवं वाद-विवाद का सर्वोत्तम स्तर देखने को मिलता है।

राज्य पुलिस बलों के कार्मिकों हेतु वाद-विवाद प्रतियोगिता पुलिस आज उनके दायित्वों के निर्वहन में मानव अधिकारों के सिद्धांतों को मानने के लिए कर्तव्य बाधित है। मानव अधिकारों के दृष्टिकोण से पुलिस बल में निम्न एवं मध्य स्तर अत्यधिक प्रभावित है क्योंकि वे अपने दायित्वों का निर्वहन करते समय प्रत्यक्ष रूप आम जनता के संपर्क में आते हैं। वर्ष 2004 से राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के अन्वेषण अनुभाग द्वारा पुलिस कार्मिकों के बीच मानव अधिकार जागरूकता के स्तर को बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है जिसकेलिए राज्य पुलिस बल कार्मिकों के लिए वाद-विवाद प्रतियोगिता आयोजित करने हेतु राज्य/संघ शासित क्षेत्र को आवश्यक वित्तीय सहायता प्रदान करता है। वर्तमान में आयोग राज्यों/संघ शासित क्षेत्रों को वाद-विवाद प्रतियोगिता के आयोजन हेतु 15000/- की राशि प्रदान करता है।

नजरबंदी के स्थानों का दौराः

जेलों एवं अन्य संस्थानों जहां लोगों को उपचार, सुधार अथवा संरक्षण के उद्देश्य से नजरबंद अथवा

बंद करके रखा जाता है, उनमें जीवन-यापन की दशाओं से संबंधित बड़ी संख्या में शिकायतें प्राप्त होती है।

अन्वेषण अनुभाग के जांच अधिकारी जब भी आयोग द्वारा निर्देश दिया जाता है,

विभिन्न राज्यों में जेलो एवं अन्य संस्थानों का दौरा करते हैं तथा

विशेष आरोपों के संबंध में तथ्य प्रस्तुत करने के लिए अथवा कैदियों की सामान्य दशाओं अथवा

मानव अधिकारों पर आधारित संवासियों की दशाओं जिस पर

आयोग द्वारा अनुवर्तन आवश्यक हो, से संबंधित रिपोर्ट प्रस्तुत करते हैं।

नीति अनुसंधान परियोजना तथा कार्यक्रम प्रभाग

नीति अनुसंधान परियोजना तथा कार्यक्रम प्रभाग (पी.आर.पी.एंड पी). मानव अधिकारों पर अनुसंधान करता है तथा उनका प्रचार करता है तथा महत्त्वपूर्ण मानव अधिकार मुद्दों पर सम्मेलन, सेमिनार तथा कार्यशालाएं आयोजित करता है।

जब कभी भी आयोग, अपनी सुनवाई. कार्रवाईयों या अन्यथा इस निर्णय पर पहुंचता है कि

कोई विशेष विषय महत्त्वपूर्ण है, तो उसे पी.आर.पी. एण्ड पी. प्रभाग द्वारा संचालित किए जाने वाले

एक परियोजना/कार्यक्रम में परिवर्तित कर दिया जाता है।

इसके अतिरिक्त, यह प्रभाग मानव अधिकारों के संरक्षण एवं संवर्द्धन हेतु प्रचलित नीतियों,

कानूनों, संधियों तथा अन्य अंतरराष्ट्रीय दस्तावेजों की परीक्षा करता है।

यह प्रभाग, केन्द्र, राज्य तथा संघ शासित क्षेत्र के प्राधिकारियों द्वारा कार्यान्वित की जा रही

आयोग की सिफारिशों की मॉनीटरिंग में सहायता करता है।

यह प्रभाग, मानव अधिकार साक्षरता के विस्तार तथा मानव अधिकारों के संरक्षण के लिए

उपलब्ध सुरक्षापायों के बारे में जागरूकता का प्रसार करने में भी प्रशिक्षण प्रभाग की सहायता करता है।

प्रभाग का कार्य संयुक्त सचिव (प्रशिक्षण एवं अनुसंधान) तथा

संयुक्त सचिव (कार्यक्रम एवं प्रशासन), एक निदेशक/संयुक्त निदेशक,

एक वरिष्ठ अनुसंधान अधिकारी, अनुसंधान परामर्श, अनुसंधान एसोसिएट,

अनुसंधान सहायक तथा अन्य सचिवालय स्टॉफ द्वारा देखा जाता है।

प्रशिक्षण प्रभाग

समाज के विभिन्न वर्गों के बीच मानव अधिकार साक्षरता का विस्तार करने के लिए उत्तरदायी है।

अतः यह प्रभाग मानव अधिकारों के विभिन्न मुद्दों के बारे में

राज्य के विभिन्न सरकारी अधिकारियों तथा कार्यकर्ताओं तथा राज्य की एजेंसियों,

गैर सरकारी अधिकारियों, सिविल सामाजिक संगठनों के प्रतिनिधियों तथा

विद्यार्थियों को प्रशिक्षण देता है और उन्हें सुग्राही बनाता है।

इसके लिए यह प्रशासनिक प्रशिक्षण संस्थानों/पुलिस प्रशिक्षण संस्थानों तथा विश्वविद्यालयों/महाविद्यालयों के साथ सहयोग करता है इसके अलावा यह प्रभाग, कॉलेज तथा विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के लिए इन्टर्नशिप प्रोग्राम भी आयोजित करता है प्रभाग का अध्यक्ष एक संयुक्त सचिव (प्रशिक्षण एवं अनुसंधान) होता है जिसकी सहायता के लिए वरिष्ठ अनुसंधान अधिकारी (प्रशि.). एक सहायक तथा अन्य सचिवालय स्टाफ होता है।

प्रशिक्षण प्रभाग के तहत समन्वय अनुभाग, अंतरराष्ट्रीय संधियों और सम्मेलनों सहित सभी अंतरराष्ट्रीय मामलों की देख रेख करता है।

इसके अलावा यह विभिन्न राज्यों/ केंद्रशासित प्रदेशों में शिविर आयोग बैठकों/ जन सुनवाई के साथ समन्वय करता है आयोग के वार्षिक कार्यों अर्थात स्थापना दिवस औरमानव अधिकार दिवस (10 दिसम्बर) का आयोजन करता है।

यह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दोनों स्तरों पर आयोग के अध्यक्ष/सदस्यों/ वरिष्ठ अधिकारियों की यात्राओं के आयोजन के साथ-साथ प्रोटोकॉल कर्तव्यों का ध्यान रखने का भी कार्य करता है।

समन्वय अनुभाग में एक अवर सचिव, अनुभाग अधिकारी, सहायक अनुसंधान परामर्शदाता और अन्य सचिवीय कर्मचारी होते हैं।

प्रशासनिक प्रभाग

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के अध्यक्ष तथा सदस्यों की स्थापना, प्रशासनिक एवं संबंधित जरूरतो को पूरा करता है।

इसके अलावा,

यह प्रभाग कार्मिकों, लेखों, पुस्तकालय तथा राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के अधिकारियों तथा

स्टाफ के सदस्यों की अन्य जरूरतों को भी पूरा करता है

प्रभाग का अध्यक्ष एक संयुक्त सचिव (कार्यक्रम एवं प्रशासन) होता है तथा

उसकी सहायता के लिए एक निदेशक/ उप सचिव, अवर सचिव, अनुभाग अधिकारी तथा अन्य सचिवालयीय स्टॉफ होते हैं।

प्रशासनिक प्रभाग के तहत मीडिया एण्ड कम्यूनिकेशन यूनिट का कार्य प्रिंट एवं इलैक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग की गतिविधियों से संबंधित जानकारी का प्रचार करना है

यह प्रभाग मानव अधिकार नामक एक द्विभाषीय प्रकाशन करता है।

प्रकाशन एकक

आयोग की एक और महत्वपूर्ण इकाई है, जो आयोग के सभी प्रकाशनों को प्रस्तुत करने के लिए जिम्मेदार है।

वार्षिक रिपोर्ट, एन.एच.आर.सी. अंग्रेजी और

हिंदी पत्रिका नो योर राइट सीरीज इत्यादि इस प्रभाग द्वारा प्रकाशित कुछ प्रमुख प्रकाशन हैं।

इसके अलावा, यह प्रभाग सूचना का अधिकार अधिनियम, 2005 के तहत प्राप्त आवेदनों तथा अपीलों को भी देखता है।

Official Website- https://nhrc.nic.in/hi

विशेष बिन्दु

विशेष प्रतिवेदकों की नियुक्ति तथा कोर एवं विशेषज्ञ समूहों के गठन द्वारा आयोग की पहुंच में काफी विस्तार हुआ है।

आयोग ने अपने दायित्वों के निष्पादन के लिए पारदर्शी प्रणाली तथा प्रक्रियाएं तैयार की है।

आयोग ने विनियम तैयार करते हुए अपने काम-काज के प्रबंधन के लिए प्रक्रियाएं तैयार की हैं।

स्रोत:-

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के वार्षिक प्रतिवेदन, मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम 1993, मानव अधिकार संरक्षण अधिनियम (संशोधित) 2019

इन्हें भी पढ़िए-

भारत का विधि आयोग (Law Commission, लॉ कमीशन)

मानवाधिकार (मानवाधिकारों का इतिहास)

मानव अधिकार संरक्षण (संशोधन) अधिनियम 2019

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग : संगठन तथा कार्य

भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान

श्री सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या के मतानुसार प्रांतीय भाषाओं और बोलियों का महत्व

मानवाधिकार : अर्थ एवं इतिहास

मानवाधिकार : अर्थ एवं इतिहास

मानव के अधिकार (मानवाधिकार) का अर्थ

मानवाधिकार : अर्थ एवं इतिहास, उत्पत्ति, वर्गीकरण, विशेषताएं, विकास, तात्पर्य, मानवाधिकार क्या हैं? तथा इसके अतिरिक्त मानवाधिकारों की अन्य पूरी जानकारी

मानवाधिकार का सामान्य अर्थ मानव के अधिकार हैं अर्थात मानव के भी अधिकार जो नैसर्गिक हैं। मानवाधिकार से तात्पर्य है कि मानव के सभी अधिकार जो मानव होने के नाते उसे मिलने ही चाहिए मानवाधिकार कहलाते हैं। ये अधिकार मानव को जीवन जीने का अधिकार देते हैं। अपने जीवन को सुख में बनाने का अधिकार भी इन्हीं मानवाधिकारों से प्राप्त होता है। यह अधिकार प्रत्येक मानव के लिए होते हैं, किसी विशेष स्त्री या पुरुष अथवा किसी धर्म, संप्रदाय, जाति, वंश वर्ग, क्षेत्र, भाषा आदि के लिए नहीं। मानवाधिकार तो विश्वव्यापी है और यह सभी राष्ट्रों के सभी लोगों के लिए है। इन अधिकारों को प्राकृतिक अधिकार और जन्म अधिकार भी कहा जाता है।

पाश्चात्य विद्वान आर जे विंसेंट ने मानवाधिकारों को परिभाषित करते हुए लिखा है-

“मानवाधिकार भी अधिकार है जो प्रत्येक व्यक्ति को मानव होने के नाते प्राप्त होते हैं इन अधिकारों का आधार मानव स्वभाव में निहित है। ” (राय, अरूण, भारत का राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग : गठन कार्य एवं भावी परिदृश्य, पृ.सं. 11)

डेविड बेंथम एवं केबिन बॉयले के अनुसार

“मानवाधिकार एवं मूल स्वतंत्रता वे व्यक्तिगत अधिकार है, जो मानवीय आवश्यकताओं और क्षमताओं पर आधारित होते हैं।” (बीथम, डेविड एवं बॉयले, केबिन, लोकतंत्र 80 प्रश्न और उत्तर, पृ.सं. 10)

न्यायमूर्ति वी आर.कृष्ण अय्यर ने मानवाधिकारों की व्याख्या करते हुए कहा है कि

“ये वे अधिकार हैं जिनके बिना व्यक्तित्व का हनन और प्रतिष्ठा काविनाश हो जाता है। इन मौलिक स्वतंत्रताओं के छिन जाने या विकृति आ जाने से मानव के दैवीय गुणों का हास हो जाता है।”(चतुर्वेदी, डॉ. अरुण एवं लोढा, संजय, भारत में मानवाधिकार, पृ.सं. 61)

पुरुषोत्तम अग्रवाल ने मानवाधिकारों की परिभाषा इस प्रकार दी है-

“मानवाधिकार की समकालीन अवधारणा व्यक्तित्व के दार्शनिक विमर्श पर आधारित है। इसका अर्थ समाज की अवहेलना नहीं बल्कि यह है, कि किसी सामाजिक या राजनीतिक पहचान से परिभाषित होने से पहले हर मनुष्य व्यक्ति है और इस व्यक्तित्व की असहमति या उसकी अभिव्यक्ति के अंधाधुंध दमन का अधिकार किसी भी पहचान के राजनीतिक या सत्ता-तंत्र को नहीं होना चाहिए। (अग्रवाल, पुरूषोत्तम, तीसरा रूख, पृ.सं 6)

हेरोल्ड लास्की के अनुसार

“अधिकार मानव जीवन की ऐसी परिस्थितियाँ है जिसमें बिना सामान्यतः कोई व्यक्ति अपने व्यक्तित्व का पूर्ण विकास नहीं कर सकता।”

मानवाधिकार को संयुक्त राष्ट्र की सार्वभौम घोषणा के अनुसार “सभी मनुष्य समान अधिकार और स्वतंत्रता, जाति, रंग, भाषा, लिंग, धर्म, राजनीति या अन्य विचारधारा राष्ट्रीय या सामाजिक मूल सम्पत्ति जन्म या अन्य स्थितियों के किसी भेदभाव के बिना स्वतः मिल जाते है।”

द न्यू हिचंसन ट्वन्टीएथ सेन्चुरी इनसाइक्लोपीडिया के अनुसार

“मानवाधिकारों में जीवन का अधिकार, स्वतंत्रता, शिक्षा और कानून के समक्ष समानता, आन्दोलन की स्वतंत्रता, धर्म, संगठन, सूचना तथा राष्ट्रीयता का अधिकार सम्मिलित है।”

भारतीय न्यायाधीश ए. के. गांगुली के अनुसार- ”मानवाधिकार आधारभूत स्वाभाविक अपरिवर्तनीय तथा अविच्छेद यानि जो हस्तांतरित न हो सके और जो कि वास्तविक रूप से मानव को जन्म के साथ ही प्राप्त हो जाते है।”

मानवाधिकारों का इतिहास – मानवाधिकार : अर्थ एवं इतिहास

विश्वव्यापी मानवाधिकारों का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। मानव जैसे-जैसे सभ्यता की ओर बढ़ता है, वैसे-वैसे ही वे अपने अधिकारों के प्रति सचेत आ रहा है। मानवाधिकार के लिखित प्रमाण की बात की जाए तो हम पाते हैं, कि प्राचीन भारत में धर्म में मानवाधिकार संरक्षण धर्म को सर्वोच्च स्थान प्राप्त था। राजा और प्रजा दोनों धर्म से बंधे हुए थे। राजा धर्म के विरुद्ध आचरण नहीं कर सकता था। धर्म के अंतर्गत ही सभी प्रजा जनों के अधिकार सुरक्षित थे।ये श्लोक भारतीय मानवतावादी चिंतन की धुरी है-

सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामाया, सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चिद् दुख भाग्यवेत्।

 जो लिंगभेद हम देश और दुनिया में आज देखते हैं वह प्राचीन भारत में नहीं था। स्त्री को पुरुषों के समान अधिकार प्राप्त थे वे आदरणीय और शक्ति स्वरूपा मानी जाती थी। परिवार तथा समाज में नारी का स्थान सर्वोच्च माना जाता था-

“यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता।”

अर्थात जहां नारी की पूजा होती है वहां देवता निवास करते हैं

समाज में नारी का स्थान उच्च और आदर्श माना जाता था माता का स्थान गुरु और पिता से भी ऊंचा माना गया है-

“दशाचार्यानुपाध्याय उपाध्यायान्पिता दश।

दश चैव पितॄन्माता सर्वा वा पृथिवीमपि।।

गौरवेणायिभवति नास्ति मातृ-समो गुरू।

माता गरीयसी यच्च तेनैतां मन्यते जनः।।”

मानवाधिकारों का इतिहास

प्राचीन भारतीय साहित्य यथा वेद वेदांग उपनिषद इत्यादि सभी में यह प्रमाण बड़ी पुष्टता से मिलता है कि स्त्रियों को सभी तरह के अधिकार प्राप्त थे, वे पुरुषों के समान ही शिक्षा प्राप्त करती थी उन्हें संपत्ति का भी अधिकार प्राप्त था याज्ञवल्क्य ऐसी प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने विधवा स्त्री को उसके पति की संपत्ति देने का समर्थन किया।

“पत्नी दुहितरश्चैव व पितरौ भ्रातरस्तथा।

तत्सुता गोत्रजा बन्धुशिष्यसब्रह्मचारिण।।

एषामभावे पूर्वस्य धनभागुत्तरोत्तरः ।

स्वर्यातस्य हयपुत्रस्य सर्वपणैष्वयं विधि।।”  (याज्ञवल्क्य स्मृति -1/135-36)

मानवाधिकारों का इतिहास

कई स्त्रियों का शस्त्र विद्या सीखने का उल्लेख भी प्राचीन भारतीय ग्रंथों में प्राप्त होता है। रामायण काल में राजा दशरथ की पत्नी केकैयी का देवासुर संग्राम में दशरथ के साथ भाग लेने का उल्लेख प्राप्त होता है। तो अनेक विदुषी स्त्रियों का वैदिक ऋचा लिखने का उल्लेख प्राप्त होता है। ऋग्वेद दशम मण्डल के 39, 40 वें सूक्त तपस्विनी ब्रह्मवादिनी घोषा के हैं और ऋग्वेद के 1.27.7 वे मंत्र की ऋषि रोमशा, 1.5.29 वें मंत्र की विश्वारा, 1.10.45 वें मंत्र की दृष्टा इन्द्राणी, 1.10.159 वें मंत्र की रचयिता ऋषि अपाला थीं। अगस्त्य ऋषि की पत्नी लोपामुद्रा ने पति के साथ ही सूक्त का दर्शन किया था। सूर्या भी एक ऋषिका थीं। बृहदारण्यक उपनिषद में वर्णित गार्गी-याज्ञवल्क्य संवाद इस बात की ओर संकेत करता है, कि प्राचीन भारत में स्त्रियां ज्ञान प्राप्त करने में पुरुषों से पीछे नहीं थी।

मानवाधिकारों का इतिहास

प्राचीन भारत में प्रजा को भी अनेकानेक अधिकार प्राप्त थे जाति प्रथा और वर्ण व्यवस्था अवश्य थी लेकिन उसके नियम इतने कड़े नहीं थे किसी के साथ भी ऊंच-नीच का व्यवहार नहीं किया जाता था रामायण काल में स्वयं राम ने निषादराज को अपने पास आसन देकर उसका सम्मान किया और शबरी के जूठे बेर खाकर जाति-पाती के बंधन को नकार दिया था।

बहुत से भीतर मानवाधिकारों की जड़ें बेबीलोनिया सभ्यता में दृष्टिगत होती है यूनानी दर्शकों सुकरात प्लेटो अरस्तु आदि सभी ने मानवाधिकारों का समर्थ किया है रोमन दार्शनिक सिसरो ने भी मानवाधिकारों को प्राकृतिक न्याय से जोड़कर देखा है।

मानव अधिकार समय – सारणी (बीसवीं सदी तक) – मानवाधिकार : अर्थ एवं इतिहास

1215 – मैग्नाकार्टा का घोषणा पत्र ब्रिटेन के संबंधों के हितों में मानव अधिकारों की रक्षा से संबंधित था।

1679 – बन्दी प्रत्यक्षीकरण :
एक अंग्रेजी कानून जिसने व्यक्ति को स्वतंत्रता व मनमाने ढंग से गिरफ्तारी और दण्ड से रक्षण प्रदान किया।

1689 – अधिकारों का विधेयक (बिल ऑफ राइट्स):
इन अधिकारों की घोषणा से अंग्रेजी राज्य में याचिका देने, मतदान, व्यक्तिगत स्वतंत्रता व न्यायिक कार्यवाही की गारंटी मिली।

1776 – युनाइटेड स्टेट्स स्वतंत्रता की घोषणा :
‘जीवन के अधिकार’ को पहली पुष्टि हुई जो बीसवीं सदी में पुन: प्रकट हुई। यह तथ्य स्थापित हुआ कि सत्ता शासित की सहमति पर आधारित है।

मानव अधिकार समय – सारणी

1789 – फ्रांस में मानव तथा नागरिक के अधिकारों की घोषणा में सर्वत्रता का दावा था व यह इस प्रकार को सभी घोषणाओं का आदर्श माना जाता है।

1791 – महिला व नारी नागरिक के अधिकारों की घोषणा का मसौदा ओलिम्पे डी गोजीस द्वारा तैयार किया गया जिसमें 1789 की घोषणा को महिलाओं के लिए लागू करने की बात की गयी। (ओलिम्प डी गोजिस – “यदि महिलाएं फांसी खा सकती है, तो मंच भी पा सकती ?”)

1793 – मानव तथा नागरिक के अधिकारों की घोषणा जिसमें अश्वेतों को भी स्वतंत्रता का अधिकार है, यह प्रस्थापित हुआ।
पहली बार आर्थिक व सामाजिक अधिकारों की बात हुई-शिक्षा का अधिकार, काम का अधिकार, सहायता का अधिकार।
मानव अधिकारों के उन्नयन के संदर्भ में ‘विद्रोह के अधिकार’ की बात की गयी।

1848 – दूसरे फ्रांसीसी गणराज्य का संविधान :
राज्य के सामाजिक जवाबदारियों की पुष्टि, नागरिकों द्वारा अधिकारों का दावा, जुड़ने व एकत्र होने की स्वतंत्रता, सभी के लिए मताधिकार, कॉलोनी में दास प्रथा समाप्ति, मुफ्त प्राथमिक शिक्षा वगैरह इसके मुख्य पहलू रहे।

1863 – स्विट्जरलैंड में हेनरी ड्यूनेन्ट द्वारा रेड क्रॉस की अन्तर्राष्ट्रीय समिति का गठन :
युद्ध में घायल की रक्षा पर जेनेवा में पहली सभा (1929 में इसमें युद्ध के बंदियों को भी शामिल किया गया)

मानव अधिकार समय – सारणी

1920 – राष्ट्रों के बीच सहयोग को बढ़ावा देने और शांति व सुरक्षा की गारंटी के लिए राष्ट्रों के संघ की उत्पत्ति।

1924 – बालकों के अधिकारों की घोषणा – इस प्रकार की यह पहली अन्तर्राष्ट्रीय घोषणा थी।

1945 – संयुक्त राष्ट्र का सनद (चार्टर) जिनसे मानव अधिकारों व मूल स्वतंत्रताओं को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर समर्पित किया गया।

1945 – यूनेस्को का गठन।

1946 – न्यूरेमबर्ग ट्रायल : नाजी नेताओं को अन्तरराष्ट्रीय सैन्य न्यायाधिकरण द्वारा सुनवाई तथा दोष सिद्धि।

1948 – मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा – नागरिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक अधिकारों का संयोग।

1950 – मानव अधिकारों व मूल स्वतंत्रताओं के रक्षण पर यूरोपीय सम्मेलन।

1952 – महिला के राजनीतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन (संयुक्त राष्ट्र)।

1965 – सभी प्रकार के जातिगत भेदभाव की समाप्ति के लिए अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन (संयुक्त राष्ट्र)।

मानव अधिकार समय – सारणी

1971 – ‘फ्रांसीसी डॉक्टर’ मानवतावादी आन्दोलन की शुरुआत।

1972 – जातीयता के खिलाफ फ्रांसीसी कानून।

1974 – राज्यों के आर्थिक अधिकारों व जिम्मेदारियों पर अंतरराष्ट्रीय सनद।

1976 – 1948 की मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा का आदर सुनिश्चित करने के लिए दो अंतरराष्ट्रीय प्रतिज्ञापत्र।

1979 – महिलाओं के प्रति सभी प्रकार के भेदभाव की समाप्ति पर अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन (संयुक्त राष्ट्र)- महिला पुरुष समानता के लिए परिवार एवं समाज में पुरुष की पारम्परिक भूमिका में बदलाव की जरूरत की पुष्टि हुई।

1984 – यातना की रोकथाम पर अंतरराष्ट्रीय सभा

मानव अधिकार समय – सारणी

1988 – सहायता लेने के अधिकार को मान्यता (आपदा की स्थिति में)

1990 – बालकों के अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय सभा

1990 – मानवतावादी कॉरीडोर की जरूरत को मान्यता देते हुए संयुक्त राष्ट्र सामान्य सभा का प्रस्ताव

1991 – मध्यस्थी के अधिकार को पहली बार आधार मिला (इराक के उदाहरण से)

1992 – मानवतावादी सहायता की रक्षा के लिए बल प्रयोग को मान्यता (बॉसनिया – हरजेगोविना के उदाहरण में)

1998 – स्थायी अंतरराष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय की स्थापना

(आभार : एक्सनएड द्वारा प्रकाशित रिसोर्स बुक ‘अ ह्यूमन राइट्स अप्रोच टू डेवेलपमेन्ट’)

उद्धृत:- दलित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लिए प्रवेशिका उन्नति विकास शिक्षण संगठन और UNDP 2012

अनुच्छेद-1

इसमें कहा गया है कि सभी मानव प्राणी स्वतंत्र उत्पन्न हुए है।

अतः वे अधिकारों तथा महत्ता के क्षेत्र में समान हैं।

उनमें विवेक तथा चेतना है। अतः उनको नेतृत्व की भावना से कार्य करना चाहिये।

अनुच्छेद-2

प्रत्येक व्यक्ति समस्त अधिकारों तथा स्वतंत्रताओं को बिना किसी भेदभाव के प्राप्त करने का अधिकारी है।

अनुच्छेद-3

जीवन तथा स्वतंत्रता का अधिकार।

अनुच्छेद-4

दासता तथा दास व्यापर का निषेध ।

अनुच्छेद-5

अमानवीय व्यवहार तथा यातना का निषेध ।

अनुच्छेद-6

प्रत्येक व्यक्ति को सर्वत्र विधि के समक्ष व्यक्ति के रूप में मान्यता का अधिकार है

अनुच्छेद-7

सभी व्यक्ति विधि के समक्ष समान हैं और किसी विभेद के बिना विधि के समान संरक्षण के हकदार हैं।

सभी व्यक्ति इस घोषणा के अतिक्रमण में विभेद के विरूद्ध और ऐसे विभेद के उद्दीपन के विरूद्ध समान संरक्षण के हकदार है।

अनुच्छेद-8

प्रत्येक व्यक्ति को संविधान या विधि द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों का अतिक्रमण करने वाले कार्यों के विरूद्ध समक्ष राष्ट्रीय अधिकरणों द्वारा प्रभावी उपचार का अधिकार है।

अनुच्छेद-9

किसी भी व्यक्ति को मनमाने ढंग से गिरफ्तार, विरूद्ध या निवासित नहीं किया जायेगा।

अनुच्छेद-10

प्रत्येक व्यक्ति अपने अधिकारों और बाध्यताओं के और उसके विरुद्ध आपराधिक आरोप के अवधारणा में पूर्णतया समाज के रूप से स्वतंत्र और निष्पक्ष अधिकरण द्वारा सार्वजनिक सुनवाई का हकदार है।

अनुच्छेद-11 (मानवाधिकार : अर्थ एवं इतिहास)

(i) ऐसे प्रत्येक व्यक्ति को जिस पर दण्डित अपराध का आरोप है।
यह अधिकार है कि तब तक निरपराध माना जायेगा जब तक कि उसे लोक विचारण में जिसमें उसे अपने प्रतिरक्षा के लिए आवश्यक सभी गारंटिया प्राप्त हो विधि के अनुसार दोष सिद्ध नहीं कर दिया जाता।

(ii) किसी भी व्यक्ति को ऐसे कार्य या लोप के कारण जो किए जाने के समय राष्ट्रीय या अन्तर्राष्ट्रीय विधि के अधीन दांडिक अपराध नहीं था किसी दाण्डिक अपराध को दोषी निर्धारित नहीं किया जायेगा।
उस शक्ति से अधिक शक्ति अधिरोपित नहीं की जायेगी, जो उस समय लागू थी जब अपराध किया गया था।

अनुच्छेद-12

किसी भी व्यक्ति की एकांतता, कुटुम्ब धारा पत्र व्यवहार के साथ मनमाना हस्तक्षेप नहीं किया जायेगा

उसके सम्मान व ख्याति पर प्रहार नहीं किया जायेगा।

प्रत्येक व्यक्ति को ऐसे हस्तक्षेप या प्रहार के विरूद्ध विधि के संरक्षण का अधिकार है।

अनुच्छेद-13

(i) प्रत्येक व्यक्ति को प्रत्येक राज्य की सीमाओं के भीतर संचरण और निवास की स्वतंत्रता का अधिकार है।

(ii) प्रत्येक व्यक्ति को अपने देश को या किसी भी देश को छोड़ने और अपने देश में वापस आने का अधिकार है।

अनुच्छेद-14

विश्राम स्थल प्राप्त करने का अधिकार *

अनुच्छेद-15

(i) प्रत्येक व्यक्ति को राष्ट्रीयता का अधिकार है।

(ii) किसी भी व्यक्ति को मनमाने ढंग से न तो उसकी राष्ट्रीयता से और न राष्ट्रीयता परिवर्तित करने के अधिकार से वंचित किया जायेगा।

अनुच्छेद-16

(i) वयस्क पुरूषों व स्त्रियों को मूल वंश, राष्ट्रीयता या धर्म के कारण किसी भी सीमा के बिना विवाह करने और कुटुंब स्थापित करने का पूर्ण अधिकार है।
वे विवाह के विषय में, विवाहित जीवनकाल में और उसके विघटन पर समान अधिकारों के हकदार है।

(ii) विवाह के इच्छुक पक्षकारों को स्वतंत्र और पूर्ण सम्मति से ही विवाह किया जायेगा।

(iii) कुटुंब समाज की नैसर्गिक और प्राथमिक सामाजिक इकाई है और इसे समाज एवं राज्य द्वारा संरक्षण का हकदार है।

अनुच्छेद-17

सम्पत्ति रखने का अधिकार।

अनुच्छेद-18

विचार, अन्तरात्मा तथा धर्म की स्वतंत्रता का अधिकार।

अनुच्छेद-19

अभिव्यक्ति तथा सम्मति प्रकट करने का अधिकार।

अनुच्छेद-20

शान्तिपूर्ण ढंग से सभा व संघ बनाने का अधिकार।

अनुच्छेद-21 (मानवाधिकार : अर्थ एवं इतिहास)

(i) प्रत्येक व्यक्ति को अपने देश की सरकार में सीधे या स्वतंत्रतापूर्वक चुने गये प्रतिनिधियों के माध्यम से भाग लेने का अधिकार है।

(ii) प्रत्येक व्यक्ति को अपनी देश की लोक सेवा में समान पहुंच का अधिकारहै।

अनुच्छेद-22

सामाजिक सुरक्षा का अधिकार।

अनुच्छेद-23

(i) प्रत्येक व्यक्ति को कार्य करने का,
नियोजन के स्वतंत्र चयन का,
कार्य की न्यायोचित और अनुकूल दशाओं का एवं बेरोजगारी के विरुद्ध संरक्षण का अधिकार है।

(ii) प्रत्येक व्यक्ति को किसी विभेद के बिना समान कार्य के लिए समान वेतन का अधिकार है।

(iii) प्रत्येक व्यक्ति को जो कार्य करता है ऐसे न्यायोचित और अनूकूल पारिश्रमिक का अधिकार है।

(iv) प्रत्येक व्यक्ति को अपने हितों के संरक्षण के लिए ट्रेड यूनियन बनाने और उनमें सम्मिलित होने का अधिकार है।

अनुच्छेद-24

प्रत्येक व्यक्ति को विश्राम और अवकाश का अधिकार है,

जिसके अंतर्गत कार्य के घंटों की युक्तियुक्त सीमा और समय-समय पर वेतन सहित अवकाश का भी प्रावधान है।

अनुच्छेद-25

(i) प्रत्येक व्यक्ति को ऐसे जीवन स्तर पर अधिकार है जो स्वयं उसके और उसके कुटुम्ब के स्वास्थ्य और कल्याण के लिए पर्याप्त है जिसक अन्तर्गत भोजन,रूग्णता, असक्तता, वैधव्य, वृद्धावस्था या उसके नियंत्रण के बाहर परिस्थितयों में जीवन यापन के अभाव की दशा में सुरक्षा का अधिकार है।

(ii) मातृत्व और बाल्यकाल विशेष देखभाल और सहायता के हकदार हैं।

सभी बच्चे चाहे उनका जन्म विवाहित या अविवाहित जीवनकाल में हुआ हो, समान सामाजिक सुरक्षा प्राप्त करेंगे।

अनुच्छेद-26

शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है, कम से कम प्राथमिक और मौलिक स्तर पर शिक्षा निःशुल्क होगी।

अनुच्छेद-27

विभिन्न कलाओं में आनंद लेने का अधिकार तथा वैज्ञानिक विज्ञापनों में भाग लेना आदि।

अनुच्छेद-28

इस घोषणा पत्र में वर्णित अधिकारों व स्वतंत्रताओं को पूर्ण रूप से प्राप्त किया जा सकता है।

अनुच्छेद-29

इसमें उन दायित्वों का विवेचन किया गया है जिनका व्यक्ति को अपने समुदाय के प्रति निर्वाह करना है।

अनुच्छेद-30

इसमें कहा गया है कि कोई भी राष्ट्र इन अधिकारों की विवेचना अपने दृष्टिकोण से नहीं करेगा वरन् इसमें निहित अधिकारों को प्रदान करने के लिए कार्य करेगा।

इस प्रकार उपरोक्त घोषणा पत्र को सभी राष्ट्र व प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण आत्मीय निष्ठा के साथ पालन करे तो भारतीय “वसुधैवकुटुम्बकम” की भावना सम्पूर्ण विश्व में साकार हो और व्याप्त वैमनस्य, रंगभेद, क्षेत्रवाद व आतंकवादसमूल नष्ट हो जाए और विश्व एक आदर्श समाज में परिवर्तित हो जायेगा।

संयुक्त राष्ट्र द्वारा मानवाधिकार-संरक्षण के प्रयास: (मानवाधिकार : अर्थ एवं इतिहास)

संघ द्वारा मानवाधिकारों के विकास के लिये समय-समय पर अनेक कदम उठाये गये हैं।
इनमें से कुछ प्रमुख प्रयास हैं-

25 जून, सन् 1945 को संयुक्त राष्ट्र चार्टर पर हस्ताक्षर किये गये एवं अंतरराष्ट्रीय न्यायालय की स्थापना हुई।

21 जून, सन् 1946 को आर्थिक एवं सामाजिक परिषद द्वारा मानवाधिकार आयोग तथा महिलाओं की प्रस्थिति पर आयोग की स्थापना हुई।

9 दिसम्बर, सन् 1948 को महासभा द्वारा नरसंहार के अपराध की रोकथाम एवं दण्ड देने के संबंध में नरसंहार अभिसमय स्वीकृत हुआ।
वह 1951 से लागू हुआ।

संरक्षण के प्रयास

10 दिसम्बर, सन् 1948 को महासभा द्वारा मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा स्वीकृत हुई।

12 अगस्त सन् 1949 को युद्ध में घायल सैनिक, जनसामान्य और कैदियों के कल्याण से संबंधित सहमति पत्र पर राजनीतिक सम्मेलन हुआ और यह सन् 1950 से लागू हुआ।

दिसम्बर, सन् 1952 को महासभा द्वारा महिाओं के राजनीतिक अधिकार संबंधी सहमति पत्र स्वीकृत हुआ।
जो सन् 1954 से लागू हुआ।

नवम्बर सन् 1954 को महासभा द्वारा बच्चों के अधिकार संबंधी घोषणा’ स्वीकृत हुयी।

1 अगस्त, सन् 1956 को आर्थिक व सामाजिक परिषद द्वारा सदस्य राष्ट्रो से प्रति 3 वर्ष पर मानवाधिकार संबंधी प्रतिवेदन लेने का निर्णय लिया।

दिसम्बर, सन् 1965 को महासभा द्वारा ‘सभी प्रकार के नस्लभेद प्रकारों के उन्मूलन संबंधी सहमति पत्र को स्वीकृत हुआ जो सन् 1969 से लागू हुआ।

संरक्षण के प्रयास

16 दिसम्बर, सन् 1966 को महासभा द्वारा नागरिक तथा राजनीतिक अधिकारों संबंधी अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदा एवं आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक अधिकारों से संबंधित अंतरराष्ट्रीय प्रसंविदा घोषित हुयी।
यह सन् 1976 से प्रभावी हुई।

6 जून, सन् 1967 को आर्थिक एवं सामाजिक परिषद द्वारा मानवाधिकार आयोग तथा अल्पसंख्यकों की भेदभाव से सुरक्षा के लिये बने उप-आयोग को मानवाधिकार हनन के मामलों की जाँच का अधिकार दिया गया ।

7 नवम्बर, सन् 1967 को महासभा द्वारा महिलाओं के विरूद्ध भेदभाव की समाप्ति की घोषणा स्वीकृत हुई।

13 मई 1968 को मानवाधिकार से संबंधित अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में तेहरान घोषणा’ हुई।

26 नवम्बर, सन् 1968 को महासभा द्वारा ऐसे युद्ध अपराधों की वैधानिकता की क्रियान्विति न करने की घोषणा हुई जो कि मानवता के विरुद्ध हो।
यह घोषणा सन् 1970 से लागू हुई।

संरक्षण के प्रयास

11 दिसम्बर सन् 1969 को महासभा द्वारा सामाजिक प्रगति और विकास संबंधी घोषणा की स्वीकृति प्राप्त हुई।

30 नवम्बर 1973 को महासभा द्वारा समस्त प्रकार के रंगभेद संबंधी अपराधों की समाप्ति तथा दण्ड के लिये अंतरराष्ट्रीय सहमति पत्र स्वीकृत हुआ। यह सन् 1976 से प्रभावी हुआ।

9 दिसम्बर, सन् 1975 को महासभा द्वारा सभी व्यक्तियों को क्रूरता, अमानवीयता तथा प्रताड़ना से बचने के लिये घोषणा स्वीकृत हुई।

23 मार्च 1976 को नागरिक तथा राजनीतिक अधिकारों संबंधी. अंतरराष्ट्रीय प्रसंविदा तथा आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक अधिकारों संबंधी अंतरराष्ट्रीय बिल पारित हुआ।

18 दिसम्बर सन् 1979 को महासभा द्वारा महिलाओं से भेदभाव के सभी प्रकारों के उन्मूलन संबंधी सहमति पत्र (सीडॉ) स्वीकृत हुआ।

25 नवम्बर सन् 1979 को महासभा द्वारा धर्म या विश्वास पर आधारित भेदभाव तथा असहिष्णुता के उन्मूलन संबंधी घोषणा स्वीकृत हुयी।

10 दिसम्बर सन् 1984 को महासभा द्वारा यातना, क्रूरता तथा अमानवीयता के विरूद्ध सहमति पत्र स्वीकृत हुआ।

संरक्षण के प्रयास

28 मई सन् 1985 को आर्थिक एवं सामाजिक परिषद द्वारा आर्थिक सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकारों पर समिति स्थापित हुयी।

4 दिसंबर 1986 को महासभा द्वारा विकास के अधिकार की घोषणा स्वीकृत हुई।

9 दिसम्बर सन् 1988 को महासभा द्वारा सभी व्यक्तियों को किसी भी प्रकार की नजरबदी तथा कैद से बचाने संबंधी सिद्धान्त स्वीकृत हुए।

24 मई, 1989 को आर्थिक तथा सामाजिक परिषद द्वारा अवैधानिक स्वेच्छाचारी तथा विलंबित दण्ड से संबंधित प्रभावी सुरक्षा एवं जांच संबंधी सिद्धान्त स्वीकृत हुए।

20 नवम्बर 1989 को महासभा द्वारा बच्चों के अधिकारों से संबंधित एक सहमति पत्र स्वीकृत हुआ। यह सन् 1990 से प्रभावी हुआ।

18 दिसम्बर 1990 को महासभा द्वारा देशांतर गमन करने वाले श्रमिकों तथा उनके परिजनों के अधिकारों की रक्षा संबंधी अंतरराष्ट्रीय सहमति पत्र स्वीकृत हुआ।

संरक्षण के प्रयास

18 दिसम्बर 1992 को महासभा द्वारा जातीय धार्मिक तथा भाषाई अल्पसंख्यकों के अधिकारों संबंधी घोषणा स्वीकृत हुई।

22 मई 1993 को सुरक्षा परिषद द्वारा 1991 से यूगोस्लाविया में अंतरराष्ट्रीय मानवता करे कानून के उल्लंघन के मामलों के क्रम में अंतरराष्ट्रीय दण्ड न्यायाधिकरण की स्थापना हुई।

25 जून 1993 को मानवाधिकारों पर हुए अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में वियना घोषणा एवं कार्य योजना प्रस्तुत हुई।

20 दिसम्बर 1993 को महासभा द्वारा संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयुक्तका पद सृजित हुआ।

5 अप्रैल 1994 को जोस आयचला लासो (एक्वाडोर निवासी) संयुक्त राष्ट्रमानवाधिकार आयोग के प्रथम आयुक्त बने।

8 नवम्बर 1994 को सुरक्षा परिषद द्वारा 1994 को रवाडा में हुये नरसंहार तथा मानवता करे कानूनों के उल्लंघन को रोकने के क्रम में एक न्यायाधिकरण की स्थापना हुई।

संरक्षण के प्रयास

23 दिसम्बर 1994 को महासभा द्वारा 1995 से 2004 तक की समयावधि को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार शिक्षा दशक के रूप में मनाये जाने की घोषणा हुई।

12 सितम्बर 1997 को मैरी रॉबिन्सन (आयरलैण्ड) संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग की द्वितीय आयुक्त बनी।

17 जुलाई 1998 को महादेव का अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन हुआ तथा रोम में अन्तर्राष्ट्रीय दण्ड न्यायालय की स्थापना हुयी। इसकी पीठ हेग में है। (कटारिया सुरेंद्र,मानवाधिकार सभ्य समाज एवं पुलिस पृ. सं. 20-22 )

मानवाधिकारोंके संरक्षण के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ से इतर किए गए प्रयास एवं संगठन

1969 – सेंट जॉन्स कोस्टारिका अमेरिकी राज्यों के संगठन (OAS) के तत्वावधान में मानवाधिकारों का अमेरिकी अभिसमय  स्वीकार किया गया

जून 1981 – नैरोबी (केन्या) में अफ्रीकी एकता संगठन की अगुवाई में मानव तथा जन अधिकारों के अफ्रीकी चार्टर को अंगीकृत किया गया

जून 1993- वियना में मानवाधिकारों पर विश्व सम्मेलन (वियनाघोषणा)

अन्य महत्वपूर्ण संगठन – मानवाधिकार : अर्थ एवं इतिहास

वर्ल्ड फ्रेंड्स ऑफ अर्थ . एम्सटर्डम , 1871

सेव द चिल्ड्रन फंड , लंदन , 1919

इन्टरनेशनल कमीशन फार ज्यूरिस्ट्स, 1952

एमनेस्टी इंटरनेशनल लंदन 1962 |

माइनारिटी राइट्स ग्रुप लंदन 1965 ।

सरवाइवल इंटरनेशनल , 1969 ।

ह्यूमन राइट्स वाच , न्यूयार्क , 1978, आदि।

भारतीय संविधान में मानवाधिकारों के संरक्षण हेतु किए गए उपबंध – मानवाधिकार : अर्थ एवं इतिहास

भारतीय संविधानवेत्ताओं नेभारतीय लोगों के अधिकारों के बारे मेंविशेष रुप से ध्यान रखाऔर भारतीय संविधान में मानवाधिकारों के लिए अनेक उपबंध किए गए हैं संविधान के अनुच्छेद 14 से 30में सभी भारतीय नागरिकों के लिए मौलिक अधिकारदिए गए हैंइन प्रावधानों से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय संविधान निर्माताओं ने भारत की महान सभ्यता और संस्कृति को जीवंत रखते हुए मानव मात्र के कल्याण के लिए संवैधानिक प्रावधानों को लागू किया है-

अनुच्छेद 14 से 18 हर नागरिक को सभी क्षेत्रों में समानता का अधिकार प्रदान करते हैं-

अनुच्छेद 1

विधि के समक्ष समता का उल्लेख किया गया है।

सभी नागरिक कानून की नजर में समान हैं।

किसी व्यक्ति के साथ सिर्फ इसलिए अलग व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि
वह गरीब या अमीर है, शक्तिशाली या कमजोर है, महिला है या पुरुष है या किसी विशेष जाति का है।

अनुच्छेद 15

किसी भी व्यक्ति से धर्म, जाति, वर्ण, लिंग या जन्म स्थान केआधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा।

अनुच्छेद 16

राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति में सभी को अवसरों की समानता होगी।

धर्म, वंश, जाति, उद्भव, जन्म स्थान, निवास पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा।

अनुच्छेद 17

अस्पृश्यता समाप्ति की बात की गई है।

अस्पृश्यता के कारण किसी को अयोग्य घोषित करना दण्डनीय अपराध है।

अनुच्छेद 18

सभी उपाधियों का अंत किया गया है।

सेना या शिक्षा सम्बन्धी सम्मान के अलावा कोई उपाधि प्रदान नहीं की जाएगी और
विदेशी राज्य से कोई भेंट, उपलब्धि या पद, राष्ट्र की सहमति के बिना स्वीकार नहीं किया जाएगा।

अनुच्छेद 19 से 22 नागरिक की वाक् तथा जीवन स्वातंत्र्य के अधिकार से सम्बन्धित हैं – मानवाधिकार : अर्थ एवं इतिहास

अनुच्छेद 19

सभी नागरिकों को बोलने तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है, शांतिपूर्ण तरीके से सम्मेलन करने की, संगम या संघ बनाने की तथा भारत में कहीं भी निर्यात आने-जाने अथवा निवास करने की स्वतंत्रता है।

हर नागरिक कोई भी आजीविका अपनाने या कारोबार करने के लिए स्वतंत्र है।

इन स्वतंत्रताओं पर रोक तभी लग सकती है जब वे देश की शांति व अखण्डता को भंग करती हों अथवा सार्वजनिक नैतिकता, स्वास्थ्य आदि के खिलाफ हों।

अत: लोग संगठन बना सकते हैं, सामूहिक विरोध व हड़ताल कर सकते हैं, सम्मेलन आयोजित कर सकते हैं और सरकार की आलोचना भी कर सकते हैं।

अनुच्छेद 20

यह अनुच्छेद अपराधों के लिए दोषसिद्धि के सम्बन्ध में संरक्षण प्रदान करता है।

एक व्यक्ति प्रवृत्त विधि के अनुसार ही दोषी ठहराया जा सकता है तथा उसे कानून में लिखे अनुसार ही सजा दी जा सकती है।

किसी व्यक्ति को एक अपराध के लिए एक बार से अधिक अभियोजित और दंडित नहीं किया जा सकता।

अभियुक्त को स्वयं के विरूद्ध साक्षी होने के लिए बाध्य नहींकिया जा सकता।

अनुच्छेद 21

हर नागरिक को जीवन व दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार है जिसे विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया से ही वंचित किया जा सकता है।

संविधान के 86वें संशोधन के द्वारा 6 से 14 वर्ष के सभी बालकों को नि:शुल्क व अनिवार्य शिक्षा का अधिकार दिया गया है।

अनुच्छेद 22 – मानवाधिकार : अर्थ एवं इतिहास

गिरफ्तार व्यक्ति को उसकी गिरफ्तारी के कारण से अवगत होने, विधि व्यवसायी से परामर्श करने और प्रतिरक्षा करने का अधिकार है।

कुछ संयोगों को छोड़कर, गिरफ्तारी से चौबीस घंटे की अवधि में गिरफ्तार व्यक्ति को निकटतम मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाना जरूरी है।

अनुच्छेद 23 और 24

नागरिक को शोषण के विरूद्ध अधिकार प्रदान करते हैं जिनमें मानव का दुर्व्यापार, बेगार, बलात्श्रम व बाल मजदूरी शामिल हैं।

अनुच्छेद 25 से 28

धर्म की स्वतंत्रता के अधिकार से सम्बन्धित हैं।

ये हर नागरिक को अपने धर्म को मानने, आचरण व प्रचार करने की स्वतंत्रता देते हैं।

अनुच्छेद 29 और 30

अल्पसंख्यक वर्गों के संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धित हितों का संरक्षण करते हैं।

अनुच्छेद 32

अन्य अधिकारों के रक्षण के लिए महत्वपूर्ण है।

यह नागरिकों को संवैधानिक उपचारों का अधिकार प्रदान करता है।

भारत द्वारा अनुसमर्थित अंतरराष्ट्रीय मानक – मानवाधिकार : अर्थ एवं इतिहास

मानवाधिकार की सार्वभौमिक उद्घोषणा 1948

नागरिक तथा राजनीतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय सभा 1966

आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय सभा 1966

सभी प्रकार के जातीय भेदभाव उन्मूलन पर अअंतरराष्ट्रीय सभा 1965

महिलाओं के खिलाफ सभी प्रकार के भेदभाव के उन्मूलन पर अंतरराष्ट्रीय सभा 1979

बालकों के अधिकारों पर सभा 1989

अंतरराष्ट्रीय श्रम संस्थान सभा संख्या 29 – बंधक मजदूरी सभा 1930, अंतरराष्ट्रीय श्रम संस्थान सभा संख्या 111 – रोजगार में भेदभाव 1958, अंतरराष्ट्रीय श्रम संस्थान सभा संख्या 107 – देशज लोकसभा 1957

अंतत – मानवाधिकार : अर्थ एवं इतिहास

भारत में मानवाधिकारों के संरक्षण का मुख्य सैद्धान्तिक आधार सन् 1993 के मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम में निहित है यह कानून संविधान के अनुच्छेद 51 के अंतर्गत दिए गए निर्देशों के अनुकरण में और वियना सम्मेलन में दिए गए भारत के वचन को ध्यान में रखते हुए बनाया गया है।

संविधान में प्रदान मूलभूत अधिकारों को सहयोग करने वाले कई कानून हैं।

(आभार:- दलित मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लिए प्रवेशिका, उन्नति विकास शिक्षण संगठन और UNDP 2012)

 

उपर्युक्त विवेचन स्पष्ट हो जाता है कि मानवाधिकारों की जड़े अत्यंत गहरी है।

वैदिक सभ्यता और उससे भी पहले भारत में मानव अधिकारों का विशेष ध्यान रखा जाता था, और धर्म में मानव अधिकार सुरक्षित रहते थे भारत के बाहर भी विश्व के अनेक देशों में मानव अधिकारों के बारे में व्यापक जानकारी मिलती है और वर्तमान समय में मानवाधिकारों के संरक्षण के लिए अनेक संस्थाएं प्रयासरत हैं।

अनेक के देशों में ऐसे सांविधानिक उपबंध किए गए हैं जिनसे मानव अधिकारों को सुरक्षित और सुरक्षित रखा जा सके, लेकिन इसके बाद भी अनेक लोग इनका उल्लंघन करने का प्रयास भी करते हैं। ऐसी स्थिति में मानव अधिकारों के संरक्षण के लिए वैश्विक स्तर पर अभी और प्रयास करने की आवश्यकता है। (आभार:-हम इस आलेख की मौलिकता का दवा नहीं करते हैं इस आलेख के लेखन में अनेक पुस्तकों एवं शोध प्रबंधों का उपयोग किया गया है हम उन सभी पुस्तकों के लेखकों और शोधार्थियों का हार्दिक आभार प्रकट करते हैं जिनसे हमें सहयोग प्राप्त हुआ)

 

इन्हें भी पढ़िए-

भारत का विधि आयोग (Law Commission, लॉ कमीशन)

मानवाधिकार (मानवाधिकारों का इतिहास)

मानव अधिकार संरक्षण (संशोधन) अधिनियम 2019

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग : संगठन तथा कार्य

भारतीय शिक्षा अतीत और वर्तमान

श्री सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या के मतानुसार प्रांतीय भाषाओं और बोलियों का महत्व

भारत का विधि आयोग

भारत का विधि आयोग (Low Commission)

विधि संबंधी विषयों पर महत्त्वपूर्ण परामर्श देने के लिए सरकार आवश्यकतानुसार आयोग नियुक्त करती है; इन्हें विधि आयोग (Law Commission, लॉ कमीशन) कहते हैं। स्वतन्त्र भारत में अब तक 22 विधि आयोग बन चुके हैं। 22वें विधि आयोग के गठन हेतु केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने 19 फरवरी, 2020 को अनुमति प्रदान कर दी है, इस विधि आयोग का कार्याकाल भारत के राजपत्र में गठन के आदेश के प्रकाशन की तिथि से तीन वर्ष की अवधि के लिये होगा

भारत के विधि आयोग का इतिहास

प्रथम विधि आयोग (First Law Commission)

भारत में प्रथम विधि आयोग का गठन स्वतंत्रता से पूर्व किया गया था

ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन में 1833 का चार्टर एक्ट के अंतर्गत 1834 में ब्रिटिश पार्लियामेंट में मैकाले की सिफारिश पर भारत के पहले विधि आयोग का गठन किया गया था।

विधि एवं सांविधानिक इतिहास में इसका विशेष महत्त्व है।

प्रारंभ में विधि आयोग में चार सदस्य थे- लार्ड मैकाले, कैमरॉन, विलियम एंडरसन तथा मैक लियाड थे।

आयोग में अधिक-से अधिक पाँच सदस्य हो सकते थे। 1837 में मिलेट इसके पाँचवें सदस्य बने थे।

प्रथम विधि आयोग का उद्देश्य थे-

(1) न्यायालय एवं न्यायालयों की कार्यप्रणाली में क्या-क्या सुधार लाया जाए, इस संबंध में सुझाव देना।
(2) न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र एवं शक्तियों की जाँच करना।
(3) भारत में प्रचलित सभी विधियों-दीवानी, फौजदारी, लिखित एवं परंपरागत की जाँच पड़ताल करना।
(4) नियमों, परिनियमों, अधिनियमों आदि में परिवर्तन, परिवर्तन, संशोधन आदि के बारे में सुझाव देना।
(5) पुलिस विभाग की वास्तविक स्थिति की जाँच कर उनमें सुधार के उपाय सुझाना।

प्रथम विधि आयोग ने दंड संहिता आलेख भी (Draft of Indian Penal Code) तैयार किया, भारत का सिविल लॉ उस समय अव्यवस्थित था। उस पर दी गई गई रिपोर्ट, जिसे देशीय विधि (Lex Loci) रिपोर्ट नाम दिया गया, अत्यधिक महत्त्वपूर्ण मानी गयी।

द्वितीय विधि आयोग (Second Law Commission)

भारत के दूसरे विधि आयोग का गठन भी स्वतंत्रता से पूर्व हुआ।

1853 ईस्वी के चार्टर एक्ट के अंतर्गत द्वितीय विधि आयोग की स्थापना 29 नवंबर, 1853 को अंग्रेज न्यायाधीश जॉन रामिली की अध्यक्षता में की गयी। इस विधि आयोग में 8 सदस्य थे, इस आयोग को प्रथम विधि आयोग के द्वारा दिए गए सुझावों की जांच करने का कार्य सौंपा गया इस आयोग ने चार रिपोर्ट प्रस्तुत की जिनके अंतर्गत-

(i) अपनी प्रथम रिपोर्ट में आयोग ने फोर्ट विलियम स्थित सर्वोच्च न्यायालय एवं सदर दीवानी और निजामत अदालतों के एकीकरण का सुझाव दिया।

(ii) प्रक्रियात्मक विधि की संहिताएँ तथा योजनाएँ प्रस्तुत कीं।

(iii) इसी प्रकार पश्चिमोत्तर प्रांतों और मद्रास तथा बंबई प्रांतों के लिए भी तृतीय और चतुर्थ रिपोर्ट में योजनाएँ बनायी गयी फलस्वरूप 1859 ई. में दीवानी व्यवहार संहिता एवं लिमिटेशन एक्ट, 1860 में भारतीय दंडसंहिता एवं 1861 में आपराधिक व्यवहार संहिता बनी।

1861 ई. में ही भारतीय उच्च न्यायालय विधि पारित हुई।

1861 में दीवानी संहिता उच्च न्यायालयों पर लागू कर दी गयी।

अपनी द्वितीय रिपोर्ट में आयोग ने दंड संहिता और दंड प्रक्रिया संहिता को संहिताबद्ध करने की सिफ़ारिश की।यह सुझाव भी दिया कि हिंदुओें और मुसलमानों के वैयक्तिक कानून को स्पर्श करना बुद्धिमत्तापूर्ण न होगा।

इस आयोग का कार्यकाल केवल तीन वर्ष रहा।

तृतीय विधि आयोग (Third Law Commission)

तीसरे भारतीय विधि आयोग का गठन 2 दिसंबर, 1861 ई. में जान रामिली की ही अध्यक्षता में हुआ। और नियुक्ति का आधार द्वितीय विधि आयोग द्वारा तय समय सीमा में अपने कार्य को पूरा न करना माना गया था।
इसके सम्मुख मुख्य समस्या थी मौलिक दीवानी विधि के संग्रह का प्रारूप बनाना। तृतीय विधि आयोग की नियुक्ति भारतीय विधि के संहिताकरण की ओर प्रथम पद था।

आयोग ने कुल सात रिपोर्टें दीं-

प्रथम रिपोर्ट ने आगे चलकर भारतीय दाय विधि 1865 का रूप लिया।

द्वितीय रिपोर्ट में अनुबंध विधि का प्रारूप था।

तृतीय में भारतीय परक्राम्यकरण विधि का प्रारूप।

चतुर्थ में विशिष्ट अनुतोष विधि का प्रारूप।

पंचम में भारतीय साक्ष्य विधि का प्रारूप।

षष्ठ में संपत्ति हस्तांतरण विधि का प्रारूप प्रस्तुत किया गया था।

सप्तम एवं अंतिम रिपोर्ट आपराधिक संहिता के संशोधन के विषय में थी।

आपका मुख्य काम भारत के लिए सैद्धान्तिकी दीवानी विधि को अंग्रेजी विधि के आधार पर तैयार करना था। आयोग के सुझावों एवं रिपोर्टों के आधार पर निम्नलिखित मुख्य अधिनियम पास किए गए थे-

दि रेलिजस एंडाउमेंट्स ऐक्ट 1863
भारत कंपनी अधिनियम 1866
दि जनरल क्लाजेज एक्ट 1868
विवाह विच्छेद अधिनियम 1869
भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872
भारतीय संविदा अधिनियम 1872 उपर्युक्त सभी अधिनियम एच.एस. मैन तथा जे.एफ. स्टीफेन के कार्यकाल में पास हुए थे। स्टीफेन के बाद लार्ड हाय हाउस विधि सदस्य नियुक्त हुए थे। इनके कार्यकाल में विशिष्ट अनुताप अधिनियम 1877 (Specifie Rcl Cf At) बना था। इन्हीं के कार्यकाल में निम्नलिखित सैद्धांतिक विधियों को संहिताबद्ध करने का सुझाव रखा गया था-
न्यास विधि (Trust)

सुख भोगविधि (Eascments)

जलोढ़ और बाढ़ से संबंधित विधि (Alluvion and Diuvition)

मालिक और नौकर से संबंधित विधि

परक्राम्य विलेख (Negotiable Instrument) से संबंधित विधि

अचल संपत्ति के हस्तांतरण से संबंधित विधि।

चतुर्थ विधि आयोग (Fourth Law Commission)

ब्रिटिश भारत में ‘चतुर्थ विधि आयोग’ की स्थापना 11 फरवरी, 1879 को की गई।

इस आयोग में तीन सदस्य थे।

आयोग का मुख्य कार्य तृतीय विधि आयोग द्वारा प्रस्तावित विधियों की जाँच करना तथा अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करना था।

आयोग की सिफारिशों के परिणामस्वरूप भारतीय विधान मंडल ने निम्नलिखित विधियों को पास किया था-

परक्राम्य विलेख अधिनियम, 1881
प्रोबेट एंड एडमिनिस्ट्रेशन ऐक्ट 1881
न्याय अधिनियम, 1882
संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम1882
सुखाधिकार अधिनियम 1882

1912 ई. में चार ऐक्ट पास किए गए थे-

सहकारी समिति अधिनियम
पागलपन (Linuty) अधिनियम
भविष्य बीमा समिति अधिनियम
भारतीय जीवन बीमा कंपनी अधिनियम

चतुर्थ विधि आयोग की समाप्ति के साथ ही ब्रिटिश काल में विधि आयोगों द्वारा संहिताकरण का युग समाप्त हो गया।

शेष काल (14 अगस्त, 1947) तक में विधायन कार्य मुख्य रूप से भारत सरकार के विधायी विभाग द्वारा किया गया।

स्वतंत्र भारत में 19 नवंबर, 1954 ई. को लोकसभा में एक गैर-सरकारी प्रस्ताव के अंतर्गत एक विधि-आयोग बनाने की सिफारिश की,

सरकार द्वारा इसे स्वीकार करते हुए 5 अगस्त, 1955 ई. को तात्कालिक विधि मंत्री सी.सी. विश्वास ने लोकसभा में विधि आयोग की नियुक्ति की घोषणा की थी।

इस आयोग को पंचम विधि आयोग कहा जाता है।

श्री मोतीलाल चिमणलाल सीतलवाड़ इसके चेयरमैन थे और इसमें 11 सदस्य थे।

इसके समक्ष दो मुख्य कार्य रखे गए।

एक तो न्याय शासन का सर्वतोमुखी पुनरवलोकन और उसमें सुधार हेतु आवश्यक सुझाव,

दूसरा प्रमुख केंद्रीय विधियों का परीक्षण कर उन्हें आधुनिक अवस्था में उपयुक्त बनाने के लिए आवश्यक संशोधन प्रस्तुत करना।

भारतीय विधि आयोग, एक गैर-सांविधिक निकाय और गैर वैधानिक निकाय है।

यह भारत सरकार के आदेश से गठित एक कार्यकारी निकाय है।

इसका प्रमुख कार्य है, कानूनी सुधारों हेतु कार्य करना।

22 वां विधि आयोग (22nd Law Commission)

देश के 22वें विधि आयोग के गठन हेतु केन्द्रीय मंत्रिमण्डल ने 19 फरवरी, 2020 को अनुमति प्रदान कर दी है। इसका कार्यकाल भारत के राजपत्र में गठन के आदेश के प्रकाशन की तिथि से तीन वर्ष की अवधि के लिए होगा। इस संबंध में जारी एक संक्षिप्त अधिसूचना में कहा गया है-

‘‘आधिकारिक गजट में इस आदेश के प्रकाशन की तिथि से लेकर तीन साल की अवधि के लिए भारत के 22वें विधि आयोग के गठन को राष्ट्रपति की मंजूरी दी जाती है।’’
इससे पूर्व सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश बलबीर सिंह चौहान की अध्यक्षता वाले 21वें विधि आयोग (Law Commission) का कार्यकाल 31 अगस्त, 2018 को समाप्त हो गया था।

22वे विधि आयोग में निम्नलिखित शामिल होंगे-

(i) एक पूर्णकालिक अध्यक्ष (सामान्यता उच्चतम न्यायालय का कोई सेवानिवृत्त न्यायाधीश या उच्च न्यायालय का कोई सेवानिवृत्त मुख्य न्यायाधीश होता है।)
(ii) सदस्य सचिव सहित चार पूर्ण कालिक सदस्य।
(iii) कानूनी मामलों के विभाग के सचिव (पदेन सदस्य)।
(iv) सचिव, विधायी विभाग के सचिव (पदेन सदस्य)।
(v) अधिकतम पाँच अंशकालिक सदस्य।

प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी की अध्यक्षता में मंत्रिमंडल की 19 फरवरी की बैठक में लिए गए निर्णय के तहत यह आयोग निम्नलिखित कार्य करेगा।

(i) यह ऐसे कानूनों की पहचान करेगा, जिनकी अब तक कोई आवश्यकता नहीं है,जो अब अप्रासंगिक है और जिन्हें तुरन्त निरस्त किया जा सकता है।

(ii) डायरेक्टिव प्रिंसीपल्स ऑफ स्टेट पॉलिसी के प्रकाश में मौजूदा कानूनों की जाँच करना तथा सुधार के तरीकों के सुझाव देना और नीति निर्देशक तत्वों को लागू करने के लिए आवश्यक कानूनों के बारे में सुझाव देना तथा संविधान की प्रस्तावना में निर्धारित उद्देश्यों को प्राप्त करना।

(iii) विधि और न्याय प्रशासन से संबंधित किसी भी विषय पर विचार करना और सरकार को अपने विचारों से अवगत कराना, जो इसे विधि और न्याय मंत्रालय के माध्यम से सरकार द्वारा सान्द्रण किया गया हो।

(iv) विधि और न्याय मंत्रालय के माध्यम से सरकार द्वारा अग्रेषित किसी बाहरी देश को अनुसधान उपलब्ध कराने के अनुरोध पर विचार करना।

(v) गरीब लोगों की सेवा में कानून और कानूनी प्रक्रिया का उपयोग करने के लिए आवश्यक उपाय करना।

(vi) सामान्य महत्त्व के केन्द्रीय अधिनियमों को संशोधित करना ताकि उन्हें सरल बनाया जा सके और विसंगतियों, संदिग्धताओं और असमानता को दूर किया जा सके। अपनी सिफारिशों को अंतिम रूप देने से पहले आयोग नोडल मंत्रालय/विभागों तथा ऐसे अन्य हितधारकों के साथ परामर्श करेगा, जिन्हें आयोग इस उद्देश्य के लिए आवश्यक समझे उपर्युक्त के अतिरिक्त यह आयोग केन्द्र सरकार द्वारा इसे सौंपे गए या स्वतः संज्ञान पर विधि में अनुसंधान करने व उसमें सुधार करने, प्रक्रियाओं में देरी को समाप्त करने मामलों को तेजी से घटाने, अभियोग की लागत कम करने के लिए न्याय आपूर्ति प्रणालियों में सुधार लाने के लिए अध्ययन और अनुसंधान भी करेगा।

 

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