तुलसीदास Tulsidas

तुलसीदास Tulsidas जी की जीवनी एवं साहित्य रचनाएं

इस पोस्ट में हम तुलसीदास Tulsidas जी की जीवनी, साहित्य, रचनाएं एवं विशेष कथन संबंधी पूरी जानकारी प्राप्त करेंगे।

पूरा नाम -गोस्वामी तुलसीदास

बचपन का नाम- रामबोला

जन्म- सन 1532 (संवत- 1589)

जन्म भूमि- राजापुर, उत्तर प्रदेश (आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार)

कुछ इतिहासकार इनका जन्म स्थान ‘सोरों’ क्षेत्र (उत्तर प्रदेश) को मानते हैं सर्वप्रथम श्री गौरी शंकर द्विवेदी ने स्वरचित ‘सुकवि सरोज’ (1927 ईस्वी) पुस्तक में इनका संबंध ‘सोरो’ क्षेत्र से स्थापित किया था|

पंडित रामनरेश त्रिपाठी ने भी इनका जन्म स्थान ‘सोरों’ स्वीकार किया है|

लाला सीताराम, गौरीशंकर द्विवेदी, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामनरेश त्रिपाठी, रामदत्त भारद्वाज, गणपतिचन्द्र गुप्त के अनुसार– तुलसीदास का जन्म स्थान – सूकर खेत (सोरों) (जिला एटा)

बेनीमाधव दास, महात्मा रघुवर दास, शिव सिंह सेंगर, रामगुलाम द्विवेदी, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार तुलसीदास का जन्म स्थान– राजापुर (जिला बाँदा)

मृत्यु- सन 1623 (संवत- 1680)

मृत्यु स्थान- काशी

तथ्य:-
“संवत् सोरह सौ असी, असी गंग के तीर।
श्रवण शुक्ल सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर।”

अभिभावक – आत्माराम दुबे और हुलसी

पालन-पोषण- दासी चुनियां एवं बाबा नरहरिदास

भक्ति पद्धति- दास्य भाव

पत्नी – रत्नावली (दीनबंधु पाठक की पुत्री)

अपनी पत्नी की प्रेरणा से ही इन को ज्ञान की प्राप्ति हुई मानी जाती है पत्नी के दवारा बोले गए निम्न कथनों को सुनकर ही यह राम भक्ति की ओर उन्मुख हुए थे:-
“लाज न आवत आपको, दौरे आयहु साथ।
धिक-धिक एसे प्रेम को, कहा कहौं मैं नाथ।
अस्थि चर्म मय देह मम, तामैं एसी प्रीति।
तैसी जौं श्रीराम महँ, होती न तौ भवभीति ।।”

कर्म भूमि- बनारस

कर्म-क्षेत्र -कवि, समाज सुधारक

विषय – सगुण राम भक्ति

भाषा -अवधी, ब्रज

गुरु -नरहरिदास व शेष सनातन
नोट:- नरहरिदास ने ही इनका नाम रामबोला से बदलकर तुलसी रखा।

गोस्वामी तुलसीदास की गुरु परम्परा का क्रम

राघवानन्द
   ⇓

रामानन्द
   ⇓

अनन्तानन्द
   ⇓

नरहर्यानंद (नरहरिदास)
   ⇓

तुलसीदास

तुलसीदास जीवनी साहित्य रचनाएं
तुलसीदास जीवनी साहित्य रचनाएं

TULSIDAS के विषय में जानकारी के स्रोत

भक्तमाल- नाभा दास

भक्तमाल टीका- प्रियदास

दो सौ वैष्णव की वार्ता- गोकुलनाथ

गोसाई चरित्र और मूल गोसाई चरित्र- वेणी माधव दास

तुलसी चरित्र- बाबा रघुनाथ दास

घट रामायण- तुलसी साहिब हाथरस वाले

इनमें से वेणी माधव दास की रचना सबसे प्रामाणिक एवं महत्त्वपूर्ण मानी जाती है।

तुलसीदास का साहित्य परिचय

गोस्वामी तुलसीकृत 12 ग्रन्थों को ही प्रामाणिक माना जाता है। इसमें 5 बड़े और 7 छोटे हैं।

तुलसी की पाँच लघु कृतियों – ’वैराग्य संदीपनी’, ’रामलला नहछू’, ’जानकी मंगल’, ’पार्वती मंगल’ और ’बरवै रामायण’ को ’पंचरत्न’ कहा जाता है।

कृष्णदत्त मिश्र ने अपनी पुस्तक ’गौतम चन्द्रिका’ में तुलसीदास की रचनाओं के ’अष्टांगयोग’ का उल्लेख किया है।
ये आठ अंग निम्न हैं –
(1) रामगीतावली,
(2) पदावली,
(3) कृष्ण गीतावली,
(4) बरवै,
(5) दोहावली,
(6) सुगुनमाला,
(7) कवितावली
(8) सोहिलोमंगल।

तुलसीदास की प्रथम रचना वैराग्य संदीपनी तथा अन्तिम रचना कवितावली को माना जाता है। कवितावली के परिशिष्ट में हनुमानबाहुक भी संलग्न है (इसकी रचना तुलसी ने बाहु रोग से मुक्ति के लिए की)। किन्तु अधिकांश विद्वान रामलला नहछू को प्रथम कृति मानते हैं।

सांगरूपक तुलसी जी का प्रिय अलंकार है।

Tulsidas

इन्होंने ‘हनुमान बाहुक’ की रचना अपने किसी अनिष्ट निवारण के लिए की थी वर्तमान में अधिकतर विद्वान इस रचना को ‘कवितावली’ रचना का ही एक भाग मानते हैं।

सर्वप्रथम पंडित राम गुलाम दिवेदी ने इसे ‘कवितावली’ रचना का भाग माना था।

पंडित राम गुलाब द्विवेदी में इनके द्वारा रचित 12 रचनाओं का उल्लेख किया है।

बाबा बेनी माधव दास ने स्वरचित ‘मूल गोसाई चरित’ रचना में इनके ग्रंथों की संख्या 13 मानी है तथा इन 13 में ‘कवितावली’ का नाम उल्लेख प्राप्त नहीं होता है।

ठाकुर शिवसिंह सेंगर ने स्वरचित ‘शिवसिंह सरोज’ रचना में तुलसी द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या 18 मानी है।

एनसाइक्लोपीडिया ऑव् रिलीजन एण्ड एथिक्स- 12 ग्रंथ (प्रमाणिक रूप से स्वीकृत) मानें है।

मिश्रबंधुओं ने स्व रचित ‘हिंदी नवरत्न’ रचना में तुलसी द्वारा रचित 25 ग्रंथों का उल्लेख किया है जिनमें 13 अप्रमाणिक एवं 12 प्रमाणिक माने गए हैं।

नागरी प्रचारणी सभा, काशी की खोज रिपोर्ट ‘तुलसी’ नामक कवि की 37 रचनाओं का उल्लेख किया गया है, परंतु 1923 ईस्वी में सभा ने तुलसीदास के केवल 12 ग्रंथों को प्रमाणिक मान कर उनका प्रकाशन ‘तुलसी ग्रंथावली’ (खंड 1 व 2) के रुप में किया है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल एवं लाला सीता राम नें भी तुलसीदास की 12 रचनाओं को प्रमाणिक माना है।

गोस्वमी तुलसीदास रामानुजाचार्य के ’श्री सम्प्रदाय’ और विशिष्टाद्वैतवाद से प्रभावित थे। इनकी भक्ति भावना ’दास्य भाव’ की थी।

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ’रामचरितमानस’ को ’लोकमंगल की साधनावस्था’ का काव्य माना है।

जीवनी एवं साहित्य रचनाएं

इस पोस्ट में हम तुलसीदास जी की जीवनी, साहित्य, रचनाएं एवं विशेष कथन संबंधी पूरी जानकारी प्राप्त कर रहे हैं-

तुलसीदास की रचनाएं

गोस्वामी तुलसीदास की रचनाओं का संक्षिप्त परिचय निम्न हैं –
(जिन रचनाओं में राम व मंगल शब्द आते है वे अवधी में है शेष ब्रज भाषा में है।)

अवधी भाषा में रचित

1574 ई. रामचरित मानस (सात काण्ड)

1586 ई. पार्वती मंगल 164 हरिगीतिका छन्द

1586-ई. जानकी मंगल 216 छन्द

1586 ई. रामलला नहछु 20 सोहर छन्द

1612 ई. बरवै रामायण 69 बरवै छन्द

1612 ई. रामाज्ञा प्रश्नावली 49-49 दोहों के सात सर्ग

ब्रज भाषा में रचित

1578 ई गीतावली 330 छन्द

1583 ई. दोहावली 573 दोहे

1583 ई. विनय पत्रिका 276 पद

1589 ई. कृष्ण गीतावली 61 पद

1612 ई. कवितावली 335 छन्द

1612 ई. वैराग्य संदीपनी 62 छन्द

रामचरितमानस

रामचरितमानस की रचना संवत् 1631 (1574 ई.) में चैत्र शुक्ल रामनवमी (मंगलवार) को हुआ।

इसकी रचना में कुल 2 वर्ष 7 महीने 26 दिन लगे।

’रामचरितमानस’ पर सर्वाधिक प्रभाव ’अध्यात्म रामायण’ का पड़ा है।

तुलसीदास ने सर्वप्रथम ’मानस’ को रसखान को सुनाया था।

’रामचरितमानस’ की प्रथम टीका अयोध्या के बाबा रामचरणदास ने लिखी।

भाषा- अवधी

रचना शैली- चौपाई+दोहा/सोरठा शैली

प्रधान रस व अलंकार- शांत रस व अनुप्रास अंलकार

काव्य स्वरूप-प्रबंधात्मक काव्यांर्तगत ‘महाकाव्य’

कथा विभाजन

सात काण्डों में-

बाल कांड

अयोध्या कांड

अरण्य कांड

किष्किन्धा कांड

सुन्दर कांड

लंका कांड

उत्तर कांड

इस रचना को उत्तर भारत की बाइबिल कहा जाता है।

अयोध्याकाण्ड’ को रामचरितमानस का हृदयस्थल कहा जाता है। इस काण्ड की चित्रकूट सभा को आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने एक आध्यात्मिक घटना की संज्ञा प्रदान की।

चित्रकूट सभा में वेदनीति, लोकनीति एवं राजनीति तीनों का समन्वय दिखाई देता है।

रामचरितमानस की रचना गोस्वामीजी ने ’वान्तः सुखाय के साथ-साथ लोकहित एवं लोकमंगल के लिए किया है।

’रामचरितमानस’ के मार्मिक स्थल निम्नलिखित हैं –

राम का अयोध्या त्याग और पथिक के रूप में वन गमन,

चित्रकूट में राम और भरत का मिलन,

शबरी का आतिथ्य,

लक्ष्मण को शक्ति लगने पर राम का विलाप,

भरत की प्रतीक्षा आदि।

तुलसी ने ’रामचरितमानस’ की कल्पना मानसरोवर के रूपक के रूप में की है। जिसमें 7 काण्ड के रूप में सात सोपान तथा चार वक्ता के रूप में चार घाट हैं।

सप्तसोपान मानस के चारों घाटों का संक्षिप्त विवरण निम्नलिखित है-

रामयश जल से परिपूर्ण रामचरितमानस

काकभुशुंडि-गरुड़-संवाद
उपासना घाट : पनघट

शिव-पार्वती-संवाद
ज्ञानघाट : राजघाट (प्रथम वक्ता : श्रोता)

तुलसी-संत-संवाद
प्रजापति घाट गायघाट

याज्ञवल्क्य-भरद्वाज-संवाद
कर्मघाट : पंचायती घाट

विनयपत्रिका

रचनाकाल- 1582 ई. (1639 वि.), मिथिला यात्रा प्रस्थान के समय

कुलपद- 279

भाषा- ब्रज

प्रधान रस- शांत

रचना शैली- गीति शैली

इस रचना में इनके स्वयं के जीवन के बारे में भी उल्लेख प्राप्त होता है अंत: कुछ इतिहासकार कहते हैं- “तुलसी के राम को जानने के लिए रामचरितमानस पढ़ना चाहिए तथा स्वयं तुलसी को जानने के लिए विनय पत्रिका”।

इस ग्रंथ की रचना तुलसी ने राम के दरबार में भेजने के लिए की थी, जिसका उद्देश्य ‘कली काल से मुक्ति प्राप्त करना’ था।

इसमें 21 रागों का प्रयोग हुआ है।

गीतावली रचनाएं

रचनाकाल- 1571 ई.

कुल पद- 328

विभाजन- सात कांडो में

रचना शैली- गीतिकाव्य शैली

प्रधान रस- श्रृंगार रस (वात्सल्य युक्त)

बाबा बेनी माधव दास द्वारा रचित मूल गोसाई चरित के अनुसार यह तुलसीदास की प्रथम रचना मानी जाती है।

इस ग्रंथ का आरंभ राम के जन्मोत्सव से होता है।

इस रचना के अनेक पदों में सूरसागर की समानता देखने को मिलती है।

इसमें 21 रागों का प्रयोग हुआ है।

कवितावली रचनाएं

रचनाकाल-1612 ई. लगभग

कुल पद- 325 छंद

भाषा- ब्रज

शैली- कवित, सवैया शैली

रचना स्थल- सीतावट के तट पर

काव्य विभाजन – सात कांड

प्रधान रस- वीर ,रौद्र व भयानक रस

कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह तुलसीदास की अंतिम रचना मानी जाती है।

इस रचना में लंका दहन का उत्कृष्टतम वर्णन किया गया है जिसको देखकर यह कहा जाता है कि उन्होंने अपने जीवन में कभी भयंकर आग अवश्य देखी थी।

कवितावली में बनारस (काशी) के तत्कालीन समय में फैले महामारी का वर्णन उत्तराकाण्ड में किया गया है।

रामलला नहछू

1582 ई

भाषा-अवधी

यह सोहर छंद में रचित रचना मानी जाती है।

कुल 20 छंद है।

इस रचना में राम का नहछु (विवाह के अवसर पर महिलाओं द्वारा गाया जाने वाले गीत) वर्णित हैं।

वैराग्य-संदीपनी

1612 ई.

भाषा-ब्रज

इस में कुल 62 छंद हैं जिनको 3 प्रकार के छंदों (दोहा, सोरठा व चौपाई) में लिखा गया है।

बरवै रामायण

1612 ई.

भाषा-अवधी

कुल छंद-69 (सभी ‘बरवै’छंद)

कांड-सात

इस रचना के प्रारंभ में तुलसीदास जी द्वारा रस एवं अलंकार निरूपण का प्रयास भी किया गया है।

यह रचना इनके परम मित्र ‘रहीमदास’ के आग्रह पर रची मानी जाती है।

पार्वती मंगल

1582 ई.

भाषा-अवधी

कुल छंद-164 ( इसमें 148 में अरुण या मंगल छंद का व 16 में हरिगीतिका छंद प्रयुक्त हुआ है।)

इसमें शिव पार्वती विवाह का वर्णन है।

जानकीमंगल

1582 ई.

भाषा:- अवधी

कुल छंद-216 ( इसमें 192 अरुण व शेष 24 में हरिगीतिका छंद प्रयुक्त हुआ है)

इसमें राम व सीता के विवाह का वर्णन किया गया है।

रामललानहछू, पार्वती मंगल, , जानकी-मंगल इन तीनों ग्रंथों की रचना इन्होंने मिथिला यात्रा में की थी।

रामज्ञा प्रश्नावली

1612 ई.

भाषा:-ब्रज व अवधी

’रामाज्ञा प्रश्न’ एक ज्योतिष ग्रन्थ है।

यह ग्रंथ 7 सर्गो में विभाजित है प्रत्येक सर्ग में सात सप्तक हैं और प्रत्येक सप्तक में 7 दोहे हैं इस प्रकार को 343 छंद है।

इसके प्रत्येक दोहे से शुभ अशुभ संकेत निकलता है जिसे प्रश्नकर्ता अपने प्रश्न का उत्तर पा लेता है।

यह रचना पंडित गंगाराम ज्योतिषी के आग्रह पर रची मानी जाती हैं।

दोहावली : तुलसीदास जीवनी साहित्य रचनाएं

1583 ई.

भाषा:-ब्रज

कुल दोहे- 573

इसमें जातक के माध्यम से प्रेम की अनन्यता का चित्रण किया गया है।

कृष्ण गीतावली

1571 ई.

भाषा- ब्रज

इस रचना में सूरदास की भ्रमरगीत परंपरा का निर्वहन हुआ है।

यह रचना राम गीतावली के समकालीन मानी जाती है।

इस में कुल 61 पद हैं।

तुलसीदास एवं इनके साहित्य संबंधी विद्वानों के कथन

इस पोस्ट में हम तुलसीदास जी की जीवनी, साहित्य, रचनाएं एवं विशेष कथन संबंधी पूरी जानकारी

हरिऔध- कविता कर के तुलसी न लसे, कविता लसी पा तुलसी की कला।

भिखारीदास- तुलसी गंग दुजौ भए सुकविन के सरदार, इनके काव्यन में मिली भाषा विविध प्रकार।

रहीम- रामचरितमानस विमल, सन्तन जीवन प्रान। हिन्दुवन को वेद सम, यवनहिं प्रकट कुरान।

“सुरतिय,नरतिय,नागतिय,सब चाहति अस कोय। गोद लिए हुलसी फिरै, तुलसी सो सुत होय ।” -इस पद में प्रथम पंक्ति ‘तुलसीदास’ जी द्वारा एवं द्वितीय पंक्ति उनके घनिष्ठ मित्र ‘रहीम दास’ जी द्वारा रचित है।

लाला भगवानदीन और बच्चन सिंह ने तुलसीदास को ‘‘रूपकों का बादशाह’’ कहा है।

नाभादास ने इन्हें ‘कलिकाल का वाल्मीकि’ एवं ‘भक्तिकाल का सुमेरु’ कहा है।

स्मिथ- ‘‘मुगलकाल का सबसे महान व्यक्ति’’ (अकबर से भी महान एवं अपने युग का महान पुरुष) कहा है।

ग्रियर्सन के अनुसार- ‘बुद्धदेव के बाद सबसे बड़ा लोक-नायक।’

रामविलास शर्मा के अनुसार – “तुलसीदास हिंदी के जातीय कवि है।”

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल-
“अनुप्रास का बादशाह” कहा है।
“तुलसीदास जी उत्तर भारत की समग्र जनता के हृदय में पूर्ण प्रेम-प्रतिष्ठा के साथ विराजमान है।”
“तुलसीदास को ‘स्मार्त वैष्णव’ मानते हैं।”

Tulsidas

“हिन्दी काव्य की प्रौढ़ता के युग का आरम्भ गोस्वामी तुलसीदास द्वारा हुआ।”
‘‘यह एक कवि ही हिंदी को प्रौढ़ साहित्यिक भाषा सिद्ध करने के लिए काफी है। इनकी वाणी की पहुँच मनुष्य के सारे भावों व्यवहारों तक है।’’
“एक ओर तो वह व्यक्तिगत साधना के मार्ग में विरागपूर्ण शुद्ध भगवद्भजन का उपदेश करती है दूसरी ओर लोक पक्ष में आकर पारिवारिक और सामाजिक कर्तव्यों का सौन्दर्य दिखाकर मुग्ध करती है।’’
तुलसी के साहित्य को “विरुद्धों का सांमजस्य” कहा है।
“तुलसीदास जी रामानंद सम्प्रदाय की वैरागी परम्परा में नही जान पड़ते। रामानंद की परम्परा में सम्मिलित करने के लिए उन्हें नरहरिदास का शिष्य बताकर जो परम्परा मिलाई गई है वह कल्पित प्रतीत होती है।”
“हिंदी काव्य गगन के सूर्य।”
“भारतीय जनता के प्रतिनिधि कवि।”
“उस युग में किसी को तुलसी के समान सूक्ष्मदर्शिनी और सारग्राहिणी दृष्टि नहीं मिली।”

उदयभानु सिंह ने – “उत्प्रेक्षाओ का बादशाह” कहा है।

मधुसूदन सरस्वती- ‘आनन्द कानन (आनंद वन का वृक्ष)।’

ग्रियर्सन ने – “बुद्धदेव के बाद सबसे बड़ा लोकनायक” कहा है।

अमृतलाल नागर- “मानस का हंस।”

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार-
“लोकनायक वही होता है,जो समन्वय का अपार धैर्य लेकर आया हो। तुलसी का संपूर्ण काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है। इनका काव्य जीवन दो कोटियों को मिलाने वाला काव्य है।”
“तुलसी का सम्पूर्ण काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है।’’
‘‘उस युग में किसी को तुलसी के समान सूक्ष्मदर्शिनी और सारग्राहिणी दृष्टि नहीं मिली।’’

बाबू गुलाबराय ने तुलसी को ‘सुमेरू कवि गोस्वामी तुलसीदास’ एवं ’विश्वविश्रुत’ कहा है।

इस पोस्ट में आज हमने तुलसीदास जी की जीवनी, साहित्य, रचनाएं एवं विशेष कथन संबंधी पूरी जानकारी प्राप्त की।

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रसखान

रसखान जीवनी और साहित्य

रसखान के जीवन परिचय, जीवनी और संपूर्ण साहित्य, सवैया, कवित्त, सोरठे, दोहे एवं विशेष तथ्यों पर इस आलेख में प्रकाश डाला गया है।

आशा है कि आपको यह आलेख पसंद आएगा।

इसके अलावा आप कोमेंट में अपने सुझाव अवश्य दें।

जीवनी

पूरा नाम- सैय्यद इब्राहीम (रसखान)

जन्म- सन् 1533 से 1558 बीच (लगभग)

जन्म भूमि- पिहानी, हरदोई ज़िला, उत्तर प्रदेश

कर्म भूमि- महावन (मथुरा)

मृत्यु- सन् 1628 के आसपास

विषय- सगुण कृष्णभक्ति
नोट:- हिंदी कृष्ण भक्त मुस्लिम कवियों में रसखान का स्थान सबसे ऊपर है।

रसखान जीवनी और साहित्य
रसखान जीवनी और साहित्य

 

रसखान जीवनी और साहित्य

रचनाएं

रसखान जीवनी, संपूर्ण साहित्य, सवैया, कवित्त, सोरठे, दोहे एवं विशेष तथ्यों पर इस आलेख में प्रकाश डाला गया है।

सुजान रसखान- स्फुट पदो का संग्रह है, जिसमे 181 सवैये, 17 कवित्त, 12 दोहे तथा 4 सोरठे है|

प्रेमवाटिका- इसमें 53 दोहे है|

दानलीला- इसमे 11 दोहे है|

अष्टयाम

रसखान : जीवनी और साहित्य

विशेष तथ्य

शिवसिंह सरोज तथा हिंदी साहित्य के प्रथम इतिहास तथा ऐतिहासिक तथ्यों एवं अन्य पुष्ट प्रमाणों के आधार पर रसखान की जन्म-भूमि पिहानी ज़िला हरदोई माना जाए।

अब्राहम जार्ज ग्रियर्सन ने लिखा है सैयद इब्राहीम उपनाम रसखान कवि, हरदोई ज़िले के अंतर्गत पिहानी के रहने वाले, जन्म काल 1573 ई.।

यह पहले मुसलमान थे। बाद में वैष्णव होकर ब्रज में रहने लगे थे। इनका वर्णन ‘भक्तमाल’ में है।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने जिन मुस्लिम हरिभक्तों के लिये कहा था, “इन मुसलमान हरिजनन पर कोटिन हिन्दू वारिए” उनमें रसखान का नाम सर्वोपरि है।

जन्म- स्थान तथा जन्म काल की तरह रसखान के नाम एवं उपनाम के संबंध में भी अनेक मत प्रस्तुत किए गए हैं।

हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने अपनी पुस्तक में रसखान के दो नाम लिखे हैं:- सैय्यद इब्राहिम और सुजान रसखान, जबकि सुजान रसखान की एक रचना का नाम है। हालांकि रसखान का असली नाम सैयद इब्राहिम था और “खान’ उसकी उपाधि थी।

रसखान के जीवन परिचय, साहित्य, संपूर्ण साहित्य, सवैया, कवित्त, सोरठे, दोहे एवं विशेष तथ्यों पर इस आलेख में प्रकाश डाला गया है।

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‘रासो’ शब्द की व्युत्पत्ति – विभिन्न मत

‘रासो’ शब्द की जानकारी

‘रासो’ शब्द की व्युत्पत्ति, अर्थ, रासो साहित्य, विभिन्न प्रमुख मत, क्या है रासो साहित्य?, रासो शब्द का अर्थ एवं पूरी जानकारी।

‘रासो’ शब्द की व्युत्पति तथा ‘रासो-काव्य‘ के रचना-स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न प्रकार की धाराणाओं को व्यक्त किया है।

डॉ० गोवर्द्धन शर्मा ने अपने शोध- प्रबन्ध ‘डिंगल साहित्य में निम्नलिखित धारणाओं का उल्लेख किया है।

रास काव्य मूलतः रासक छंद का समुच्चय है।

रासो साहित्य की रचनाएँ एवं रचनाकार

अपभ्रंश में 29 मात्रओं का एक रासा या रास छंद प्रचलित था।

विद्वानों ने दो प्रकार के ‘रास’ काव्यों का उल्लेख किया है- कोमल और उद्धृत।

प्रेम के कोमल रूप और वीर के उद्धत रुप का सम्मिश्रण पृथ्वीराज रासो में है।

‘रासो’ साहित्य हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि है।

शब्द ‘रासो’ की व्युत्पत्ति के संबंध में विद्वानों में मतैक्य का अभाव है।

क्या है रासो साहित्य?

रासो शब्द का अर्थ बताइए?

‘रासो’ साहित्य अर्थ मत
‘रासो’ साहित्य अर्थ मत

विभिन्न विद्वानों ने इस संबंध में अनेक मत दिए हैं जिनमें से प्रमुख मत इस प्रकार से हैं-

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार बीसलदेव रासो में प्रयुक्त ‘रसायन’ शब्द ही कालान्तर में ‘रासो’ बना।

गार्सा द तासी के अनुसार ‘रासो’ की उत्पत्ति ‘राजसूय’ शब्द से है।

रामचन्द्र वर्मा के अनुसार इसकी उत्पत्ति ‘रहस्य’ से हुई है।

मुंशी देवीप्रसाद के अनुसार ‘रासो’ का अर्थ है कथा और उसका एकवचन ‘रासो’ तथा बहुवचन ‘रासा’ है।

ग्रियर्सन के अनुसार ‘रायसो’ की उत्पत्ति राजादेश से हुई है।

गौरीशंकर ओझा के अनुसार ‘रासा’ की उत्पत्ति संस्कत ‘रास’ से हुई है।

पं० मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या के अनुसार ‘रासो’ की उत्पत्ति संस्कत ‘रास’ अथवा ‘रासक’ से हुई है।

मोतीलाल मेनारिया के अनुसार जिस ग्रंथ में राजा की कीर्ति, विजय, युद्ध तथा तीरता आदि का विस्तत वर्णन हो, उसे ‘रासो’ कहते हैं।

विश्वनाथप्रसाद मिश्र के अनुसार ‘रासो’ की व्युत्पत्ति का आधार ‘रासक’ शब्द है।

कुछ विद्वानों के अनुसार राजयशपरक रचना को ‘रासो’ कहते हैं।

विभिन्न विद्वानों ने इस संबंध में अनेक मत दिए हैं जिनमें से प्रमुख मत इस प्रकार से हैं-

बैजनाथ खेतान के अनुसार ‘रासो या ‘रायसों’ का अर्थ है झगड़ा, पचड़ा या उद्यम और उसी ‘रासो’ की उत्पत्ति है।

के० का० शास्त्री तथा डोलरराय माकंड के अनुसार ‘रास’ या ‘रासक मूलतः नत्य के साथ गाई जाने वाली रचनाविशेष है।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार ‘रासो’ तथा ‘रासक’ पर्याय हैं और वह मिश्रित गेय-रूपक हैं।

कुछ विद्वानों के अनुसार गुजराती लोक-गीत-नत्य ‘गरबा’, ‘रास’ का ही उत्तराधिकारी है।

डॉ० माताप्रसाद गुप्त के अनुसार विविध प्रकार के रास, रासावलय, रासा और रासक छन्दों, रासक और नाट्य-रासक, उपनाटकों, रासक, रास तथा रासो-नृत्यों से भी रासो प्रबन्ध-परम्परा का सम्बन्ध रहा है. यह निश्चय रूप से नहीं कहा जा सकता। कदाचित् नहीं ही रहा है।

मं० र० मजूमदार के अनुसार रासाओं का मुख्य हेतु पहले धर्मोपदेश था और बाद में उनमें कथा-तत्त्व तथा चरित्र-संकीर्तन आदि का समावेश हुआ।

विजयराम वैद्य के अनुसार ‘रास’ या ‘रासो’ में छन्द, राग तथा धार्मिक कथा आदि विविध तत्व रहते हैं।

डॉ० दशरथ शर्मा के अनुसार रास के नृत्य, अभिनय तथा गेय-वस्तु-तीन अंगों से तीन प्रकार के रासो (रास, रासक-उपरूपक तथा श्रव्य-रास) की उत्पत्ति हुई।

विभिन्न विद्वानों ने इस संबंध में अनेक मत दिए हैं जिनमें से प्रमुख मत इस प्रकार से हैं-

हरिबल्लभ भायाणी ने सन्देश रासक में और विपिनबिहारी त्रिवेदी ने पृथ्वीराज रासो में ‘रासा’ या ‘रासो’ छन्द के प्रयुक्त होने की सूचना दी है।

कुछ विद्वानों के अनुसार रसपूर्ण होने के कारण ही रचनाएँ, ‘रास’ कहलाई।

‘भागवत’ में ‘रास’ शब्द का प्रयोग गीत नृत्य के लिए हुआ है।

‘रास’ अभिनीत होते थे, इसका उल्लेख अनेक स्थान पर हुआ है। (जैसे-भावप्रकाश, काव्यानुशासन तथा साहितय-दर्पण आदि।)

हिन्दी साहित्य कोश में ‘रासो’ के दो रूप की ओर संकेत किया गया है गीत-नत्यपरक (पश्चिमी राजस्थान तथा गुजरात में समद्ध होने वाला) और छंद-वैविध्यपरक (पूर्वी राजस्थान तथा शेष हिन्दी में प्रचलित रूप।)

‘रासो’ शब्द की व्युत्पत्ति, अर्थ, रासो साहित्य, विभिन्न प्रमुख मत, क्या है रासो साहित्य?, रासो शब्द का अर्थ एवं पूरी जानकारी।

हालावाद विशेष- https://thehindipage.com/halawad-hallucination/halawad/

‘रासो’ शब्द की व्युत्पत्ति – विभिन्न मत- https://thehindipage.com/raaso-sahitya/raaso-shabad-ki-jankari/

कामायनी के विषय में कथन- https://thehindipage.com/kamayani-mahakavya/kamayani-ke-vishay-me-kathan/

संस्मरण और रेखाचित्र- https://thehindipage.com/sansmaran-aur-rekhachitra/sansmaran-aur-rekhachitra/

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कामायनी के विषय में कथन

कामायनी के विषय में कथन

इस आलेख में कामायनी के विषय में कथन, Kamayani पर महत्त्वपूर्ण कथन, Kamayani पर किसने क्या कहा? कामायनी पर विभिन्न साहित्यकारों एवं आलोचकों के विचार आदि के बारे में जानकारी देने का प्रयास किया गया है।

कामायनी पर महत्त्वपूर्ण कथन

Kamayani पर किसने क्या कहा?

कामायनी को छायावाद का उपनिषद किसने कहा?

Kamayani पर विभिन्न साहित्यकारों एवं आलोचकों के विचार

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Kamayani कामायनी

कामायनी पर महत्वपूर्ण कथन

जयशंकर प्रसाद द्वारा रचित महाकाव्य कामायनी के संबंध में प्रमुख आलोचकों एवं साहित्यकारों के प्रमुख कथन-

कामायनी के बारे में संपूर्ण संक्षिप्त जानकारी प्राप्त करने के लिए यहाँ क्लिक कीजिए

नगेन्द्र- कामायनी मानव चेतना का महाकाव्य है। यह आर्ष ग्रन्थ है।

मुक्तिबोध- कामायनी फैंटेसी है।

इन्द्रनाथ मदान- कामायनी एक असफल कृति है।

नन्द दुलारे वाजपेयी- कामायनी नये युग का प्रतिनिधि काव्य है।

सुमित्रानन्दन पंत- कामायनी ताजमहल के समान है

नगेन्द्र- कामायनी एक रूपक है

श्यामनारायण पाण्डे- कामायनी विश्व साहित्य का आठवाँ महाकाव्य है

रामधारी सिंह दिनकर- कामायनी दोष रहित, दोष सहित रचना है

डॉ नगेन्द्र- कामायनी समग्रतः में समासोक्ति का विधान लक्षित करती है

नामवार सिंह- कामायनी आधुनिक सभ्यता का प्रतिनिधि महाकाव्य है

हरदेव बाहरी- कामायनी आधुनिक हिन्दी साहित्य का सर्वोत्तम महाकाव्य है

रामरतन भटनागर- कामायनी मधुरस से सिक्त महाकाव्य है

विश्वंभर मानव- कामायनी विराट सांमजस्य की सनातन गाथा है

कामायनी का कवि दूसरी श्रेणी का कवि है -हजारी प्रसाद द्विवेदी

कामायनी वर्तमान हिन्दी कविता में दुर्लभ कृति है- हजारी प्रसाद द्विवेदी

रामचन्द्र शुक्ल- कामायनी में प्रसाद ने मानवता का रागात्मक इतिहास प्रस्तुत किया है जिस प्रकार निराला ने तुलसीदास के मानस विकास का बड़ा दिव्य और विशाल रंगीन चित्र खींचा है

शांति प्रिय द्विवेदी- कामायनी छायावाद का उपनिषद् है

रामस्वरूप चतुर्वेदी- कामायनी को कंपोजिशन की संज्ञा देने वाले

बच्चन सिंह- मुक्तिबोध का कामायनी संबंधी अध्ययन फूहड़ मार्क्सवाद का नमूना है

Kamayani Par Kathan

मुक्तिबोध- कामायनी जीवन की पुनर्रचना है

नगेन्द्र- कामायनी मनोविज्ञान की ट्रीटाइज है

रामस्वरूप चतुर्वेदी- कामायनी आधुनिक समीक्षक और रचनाकार दोनों के लिए परीक्षा स्थल है

रामनाथ सुमन- कामायनी आधुनिक हिंदी कविता का रामचरित मानस है

आचार्य नंददुलारे वाजपेयी- कामायनी में प्रसाद ने मानवता का रागात्मक इतिहास प्रस्तुत किया है कामायनी मानवता का रागात्मक इतिहास एवं नवीन युग का महाकाव्य है

नामवर सिंह- कामायनी में नारी की लज्जा का जो भव्य चित्रण हुआ, वह सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में दुर्लभ है।

निराला- कामायनी संपूर्ण जीवन चरित्र है, यह मानवीय कमजोरियों पर मानव की विजय की गाथा है।

नामवर सिंह- मानस ने वाल्मीकि रामायण और कामायनी ने मानस के पाठकों के लिए बदल दिया है

आ. रामचंद्र शुक्ल- यदि मधुचर्या का अतिरेक और रहस्य की प्रवृति बाधक नहीं होती तो कामायनी के भीतर मानवता की योजना शायद अधिक पूर्ण और सुव्यवस्थित रूप में चित्रित होती।

नामवर सिंह- कामायनी मार्क्सवाद की प्रस्तुती हैं।

रामधारी सिंह दिनकर- कामामनी नारी की गरिमा का महाकाव्य है।

डॉ धीरेन्द्र वर्मा- कामामनी एक विशिष्ट शैली का महाकाय है, शिल्प की प्रौढ़ता कामायनी की मुख्य विशेषता है।

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भारतेंदु हरिश्चंद्र

इसमें हम भारतेंदु हरिश्चंद्र की जीवनी और संपूर्ण साहित्य की जानकारी प्राप्त करेंगे जो प्रतियोगी परीक्षाओं एवं हिंदी साहित्य प्रेमियों हेतु ज्ञानवर्धक सिद्ध होने की आशा है।

भारतेंदु हरिश्चंद्र की जीवनी

पूरा नाम- बाबू भारतेन्दु हरिश्चंद्र

जन्म- 9 सितम्बर सन् 1850

जन्म भूमि- वाराणसी, उत्तर प्रदेश

मृत्यु- 6 जनवरी, सन् 1885

Note:- मात्र 35 वर्ष की अल्प आयु में ही इनका देहावसान हो गया था|

मृत्यु स्थान- वाराणसी, उत्तर प्रदेश

अभिभावक – बाबू गोपाल चन्द्र

कर्म भूमि वाराणसी

कर्म-क्षेत्र- पत्रकार, रचनाकार, साहित्यकार

उपाधी:- भारतेंदु

नोट:- डॉक्टर नगेंद्र के अनुसार उस समय के पत्रकारों एवं साहित्यकारों ने 1880 ईस्वी में इन्हें ‘भारतेंदु’ की उपाधि से सम्मानित किया|

Bhartendu Harishchandra
Bhartendu Harishchandra

भारतेंदु हरिश्चंद्र के सम्पादन कार्य

इनके द्वारा निम्नलिखित तीन पत्रिकाओं का संपादन किया गया:-

कवि वचन सुधा-1868 ई.– काशी से प्रकाशीत (मासिक,पाक्षिक,साप्ताहिक)

हरिश्चन्द्र चन्द्रिका- 1873 ई. (मासिक)- काशी से प्रकाशीत

आठ अंक तक यह ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’ नाम से तथा ‘नवें’ अंक से इसका नाम ‘हरिश्चन्द्र चन्द्रिका’ रखा गया|

हिंदी गद्य का ठीक परिष्कृत रूप इसी ‘चंद्रिका’ में प्रकट हुआ|

3. बाला-बोधिनी- 1874 ई. (मासिक)- काशी से प्रकाशीत – यह स्त्री शिक्षा सें संबंधित पत्रिका मानी जाती है|

भारतेंदु हरिश्चंद्र की रचनाएं

इनकी कुल रचनाओ की संख्या 175 के लगभग है-

नाट्य रचनाएं:-कुल 17 है जिनमे ‘आठ’ अनूदित एवं ‘नौ’ मौलिक नाटक है-

भारतेंदु हरिश्चंद्र के अनूदित नाटक

विद्यासुंदर- 1868 ई.- यह संस्कृत नाटक “चौर पंचाशिका” के बंगला संस्करण का हिन्दी अनुवाद है|

रत्नावली- 1868 ई.- यह संस्कृत नाटिका ‘रत्नावली’ का हिंदी अनुवाद है|

पाखंड-विडंबन- 1872 ई.- यह संस्कृत में ‘कृष्णमिश्र’ द्वारा रचित ‘प्रबोधचन्द्रोदय’ नाटक के तीसरे अंक का हिंदी अनुवाद है|

धनंजय विजय- 1873 ई.- यह संस्कृत के ‘कांचन’ कवि द्वारा रचित ‘धनंजय विजय’ नाटक का हिंदी अनुवाद है

कर्पुरमंजरी- 1875 ई.- यह ‘सट्टक’ श्रेणी का नाटक संस्कृत के ‘काचन’ कवि के नाटक का अनुवाद|

भारत जननी- 1877 ई.- इनका गीतिनाट्य है जो संस्कृत से हिंदी में अनुवादित

मुद्राराक्षस- 1878 ई.- विशाखादत्त के संस्कृत नाटक का अनुवाद है|

दुर्लभबंधु-1880 ई.- यह अग्रेजी नाटककार ‘शेक्सपियर’ के ‘मर्चेट ऑव् वेनिस’ का हिंदी अनुवाद है|

Trik :- विद्या रत्न पाकर धनंजय कपुर ने भारत मुद्रा दुर्लभ की|

मौलिक नाटक- नौ

वैदिक हिंसा हिंसा न भवति- 1873 ई.- प्रहसन – इसमे पशुबलि प्रथा का विरोध किया गया है|

सत्य हरिश्चन्द्र- 1875 ई.- असत्य पर सत्य की विजय का वर्णन|

श्री चन्द्रावली नाटिका- 1876 ई. – प्रेम भक्ति का आदर्श प्रस्तुत किया गया है|

विषस्य विषमौषधम्- 1876 ई.- भाण- यह देशी राजाओं की कुचक्रपूर्ण परिस्थिति दिखाने के लिए रचा गया था|

भारतदुर्दशा- 1880 ई.- नाट्यरासक

नीलदेवी- 1881 ई.- गीतिरूपक

अंधेर नगरी- 1881 ई.- प्रहसन (छ: दृश्य) भ्रष्ट शासन तंत्र पर व्यंग्य किया गया है|

प्रेम जोगिनी- 1875 ई.– तीर्थ स्थानों पर होनें वाले कुकृत्यों का चित्रण किया गया है|

सती प्रताप- 1883 ई.यह इनका अधुरा नाटक है बाद में ‘ राधाकृष्णदास’ ने पुरा किया|

भारतेंदु हरिश्चंद्र की काव्यात्मक रचनाएं

इनकी कुल काव्य रचना 70 मानी जाती है जिनमे कुछ प्रसिद्ध रचनाएं:-

प्रेममालिका- 1871

प्रेमसरोवर-1873

प्रेमपचासा

प्रेमफुलवारी-1875

प्रेममाधुरी-1875

प्रेमतरंग

प्रेम प्रलाप

विनय प्रेम पचासा

वर्षा- विनोद-1880

गीत गोविंदानंद

वेणु गीत -1884

मधु मुकुल

बकरी विलाप

दशरथ विलाप

फूलों का गुच्छा- 1882

प्रबोधिनी

सतसई सिंगार

उत्तरार्द्ध भक्तमाल-1877

रामलीला

दानलीला

तन्मय लीला

कार्तिक स्नान

वैशाख महात्म्य

प्रेमाश्रुवर्षण

होली

देवी छद्म लीला

रानी छद्म लीला

संस्कृत लावनी

मुंह में दिखावनी

उर्दू का स्यापा

श्री सर्वोतम स्तोत्र

नये जमाने की मुकरी

बंदरसभा

विजय-वल्लरी- 1881

रिपनाष्टक

भारत-भिक्षा- 1881

विजयिनी विजय वैजयंति- 1882

नोट- इनकी ‘प्रबोधनी’ रचना विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की प्रत्यक्ष प्रेरणा देने वाली रचना है|

‘दशरथ विलाप’ एवं ‘फूलों का गुच्छा’ रचनाओं में ब्रजभाषा के स्थान पर ‘खड़ी बोली हिंदी’ का प्रयोग हुआ है|

इनकी सभी काव्य रचनाओं को ‘भारतेंदु ग्रंथावली’ के प्रथम भाग में संकलित किया गया है|

‘देवी छद्म लीला’, ‘तन्मय लीला’ आदि में कृष्ण के विभिन्न रूपों को प्रस्तुत किया गया है|

भारतेंदु हरिश्चंद्र के उपन्यास

हम्मीर हठ

सुलोचना

रामलीला

सीलावती

सावित्री चरित्र

भारतेंदु हरिश्चंद्र के निबंध

कुछ आप बीती कुछ जग बीती

सबै जाति गोपाल की

मित्रता

सूर्योदय

जयदेव

बंग भाषा की कविता

भारतेंदु हरिश्चंद्र के इतिहास ग्रंथ

कश्मीर कुसुम

बादशाह

विकिपीडिया लिंक- भारतेंदु हरिश्चंद्र

अंततः हम आशा करते हैं कि यह भारतेंदु हरिश्चंद्र की जीवनी और संपूर्ण साहित्य की जानकारी प्रतियोगी परीक्षाओं एवं हिंदी साहित्य प्रेमियों के लिए ज्ञानवर्धक होगी।

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