‘रासो’ शब्द की व्युत्पत्ति – विभिन्न मत

‘रासो’ शब्द की जानकारी

‘रासो’ शब्द की व्युत्पत्ति, अर्थ, रासो साहित्य, विभिन्न प्रमुख मत, क्या है रासो साहित्य?, रासो शब्द का अर्थ एवं पूरी जानकारी।

‘रासो’ शब्द की व्युत्पति तथा ‘रासो-काव्य‘ के रचना-स्वरूप के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न प्रकार की धाराणाओं को व्यक्त किया है।

डॉ० गोवर्द्धन शर्मा ने अपने शोध- प्रबन्ध ‘डिंगल साहित्य में निम्नलिखित धारणाओं का उल्लेख किया है।

रास काव्य मूलतः रासक छंद का समुच्चय है।

रासो साहित्य की रचनाएँ एवं रचनाकार

अपभ्रंश में 29 मात्रओं का एक रासा या रास छंद प्रचलित था।

विद्वानों ने दो प्रकार के ‘रास’ काव्यों का उल्लेख किया है- कोमल और उद्धृत।

प्रेम के कोमल रूप और वीर के उद्धत रुप का सम्मिश्रण पृथ्वीराज रासो में है।

‘रासो’ साहित्य हिंदी साहित्य की अमूल्य निधि है।

शब्द ‘रासो’ की व्युत्पत्ति के संबंध में विद्वानों में मतैक्य का अभाव है।

क्या है रासो साहित्य?

रासो शब्द का अर्थ बताइए?

‘रासो’ साहित्य अर्थ मत
‘रासो’ साहित्य अर्थ मत

विभिन्न विद्वानों ने इस संबंध में अनेक मत दिए हैं जिनमें से प्रमुख मत इस प्रकार से हैं-

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार बीसलदेव रासो में प्रयुक्त ‘रसायन’ शब्द ही कालान्तर में ‘रासो’ बना।

गार्सा द तासी के अनुसार ‘रासो’ की उत्पत्ति ‘राजसूय’ शब्द से है।

रामचन्द्र वर्मा के अनुसार इसकी उत्पत्ति ‘रहस्य’ से हुई है।

मुंशी देवीप्रसाद के अनुसार ‘रासो’ का अर्थ है कथा और उसका एकवचन ‘रासो’ तथा बहुवचन ‘रासा’ है।

ग्रियर्सन के अनुसार ‘रायसो’ की उत्पत्ति राजादेश से हुई है।

गौरीशंकर ओझा के अनुसार ‘रासा’ की उत्पत्ति संस्कत ‘रास’ से हुई है।

पं० मोहनलाल विष्णुलाल पंड्या के अनुसार ‘रासो’ की उत्पत्ति संस्कत ‘रास’ अथवा ‘रासक’ से हुई है।

मोतीलाल मेनारिया के अनुसार जिस ग्रंथ में राजा की कीर्ति, विजय, युद्ध तथा तीरता आदि का विस्तत वर्णन हो, उसे ‘रासो’ कहते हैं।

विश्वनाथप्रसाद मिश्र के अनुसार ‘रासो’ की व्युत्पत्ति का आधार ‘रासक’ शब्द है।

कुछ विद्वानों के अनुसार राजयशपरक रचना को ‘रासो’ कहते हैं।

विभिन्न विद्वानों ने इस संबंध में अनेक मत दिए हैं जिनमें से प्रमुख मत इस प्रकार से हैं-

बैजनाथ खेतान के अनुसार ‘रासो या ‘रायसों’ का अर्थ है झगड़ा, पचड़ा या उद्यम और उसी ‘रासो’ की उत्पत्ति है।

के० का० शास्त्री तथा डोलरराय माकंड के अनुसार ‘रास’ या ‘रासक मूलतः नत्य के साथ गाई जाने वाली रचनाविशेष है।

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के अनुसार ‘रासो’ तथा ‘रासक’ पर्याय हैं और वह मिश्रित गेय-रूपक हैं।

कुछ विद्वानों के अनुसार गुजराती लोक-गीत-नत्य ‘गरबा’, ‘रास’ का ही उत्तराधिकारी है।

डॉ० माताप्रसाद गुप्त के अनुसार विविध प्रकार के रास, रासावलय, रासा और रासक छन्दों, रासक और नाट्य-रासक, उपनाटकों, रासक, रास तथा रासो-नृत्यों से भी रासो प्रबन्ध-परम्परा का सम्बन्ध रहा है. यह निश्चय रूप से नहीं कहा जा सकता। कदाचित् नहीं ही रहा है।

मं० र० मजूमदार के अनुसार रासाओं का मुख्य हेतु पहले धर्मोपदेश था और बाद में उनमें कथा-तत्त्व तथा चरित्र-संकीर्तन आदि का समावेश हुआ।

विजयराम वैद्य के अनुसार ‘रास’ या ‘रासो’ में छन्द, राग तथा धार्मिक कथा आदि विविध तत्व रहते हैं।

डॉ० दशरथ शर्मा के अनुसार रास के नृत्य, अभिनय तथा गेय-वस्तु-तीन अंगों से तीन प्रकार के रासो (रास, रासक-उपरूपक तथा श्रव्य-रास) की उत्पत्ति हुई।

विभिन्न विद्वानों ने इस संबंध में अनेक मत दिए हैं जिनमें से प्रमुख मत इस प्रकार से हैं-

हरिबल्लभ भायाणी ने सन्देश रासक में और विपिनबिहारी त्रिवेदी ने पृथ्वीराज रासो में ‘रासा’ या ‘रासो’ छन्द के प्रयुक्त होने की सूचना दी है।

कुछ विद्वानों के अनुसार रसपूर्ण होने के कारण ही रचनाएँ, ‘रास’ कहलाई।

‘भागवत’ में ‘रास’ शब्द का प्रयोग गीत नृत्य के लिए हुआ है।

‘रास’ अभिनीत होते थे, इसका उल्लेख अनेक स्थान पर हुआ है। (जैसे-भावप्रकाश, काव्यानुशासन तथा साहितय-दर्पण आदि।)

हिन्दी साहित्य कोश में ‘रासो’ के दो रूप की ओर संकेत किया गया है गीत-नत्यपरक (पश्चिमी राजस्थान तथा गुजरात में समद्ध होने वाला) और छंद-वैविध्यपरक (पूर्वी राजस्थान तथा शेष हिन्दी में प्रचलित रूप।)

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आदिकाल के साहित्यकार
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सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या – प्रांतीय भाषा-बोलियाँ

सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या – प्रांतीय भाषा-बोलियाँ

श्री सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या के अनुसार प्रांतीय भाषा-बोलियाँ का महत्त्व

भाषा-बोलियाँ का महत्त्व

‘प्रांतीय भाषाओं के पुनरुद्धार से हिन्दी का आंतरप्रदेशिक महत्व किसी तरह कम नहीं हो सकता |

पच्छाहीं के लोगों ने बेशक हिंदी का थोड़ा बहुत फैलाव किया है और टूटी फूटी व्याकरण-भ्रष्ट हिंदी को अपनाकर पच्छाहीं के आसपास के लोगों ने हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाया है, लेकिन राष्ट्रभाषा या आंतरप्रदेशिक भाषा में और घरेलू बच्चों की शिक्षा की बोली या प्रांतीय कामकाज की बोली में बहुत पार्थक्य है|

मातृभाषा के सिवाय किसी दूसरी भाषा में मनुष्य के हृदय के भावों का पूरा-पूरा प्रकाश नहीं हो सकता और जब तक मनुष्य साहित्य में अपना पूरा प्रकाश नहीं कर सकता, तबतक वह जो साहित्य बनाने की कोशिश करता है, उसमें बहुत सी व्यर्थता आ जाती है |

श्री तुलसीदासजी और विद्यापति ने जो कुछ लिखा, अपनी मातृभाषा में ही लिखा, इसीलिए भारतीय-साहित्य के उद्यान में विद्यापति के पद और तुलसीदास का ‘रामचरितमानस’ हर तरह से सफल रचना होकर अधिक से अधिक लोकप्रिय हो सकी और जन-जन की जिव्हा पर आसानी से स्थान पा सकी|

महत्त्व

भारत में इस वक्त 15 मुख्य भाषाएँ चालू है |

प्रांतीय बोलियों की तो गिनती ही नहीं की जा सकती |

इन मुख्य या साहित्यिक भाषाओं में 11 भाषाएँ उत्तर भारत की गिनी जाती है और 4 दक्षिण भारत की |

इनके अतिरिक्त ऐसी कुछ भाषाएँ भी है

जो आज साहित्यिक महत्त्व की अधिकारिणी तो नहीं है,

परन्तु प्राचीन समय में उनका साहित्य उच्च कोटि का था

और उनकी संतानों के हृदय की सभी बातें उन्हीं भाषाओं में प्रकट होती थी |

राजस्थानी और मैथिली

राजस्थानी और मैथिली– और बोलियों के साथ इन दो भाषाओँ के निकेन्द्रीकरण की बात आज हिंदी संसार में लाई गई है |

‘हिन्दी प्रान्त’ में जो बोलियां सिर्फ घर में और सीमित प्रांत में काम में लाई जाती है, उन बोलियों के दो जबरदस्त और नामी वकील हिन्दी साहित्य क्षेत्र में पधारे हैं|

उनमें से एक हैं श्री बनारसीदास चतुर्वेदी और

दूसरे हैं श्री राहुलजी सांकृत्यायन |

भाषा तात्त्विकी दृष्टि से मेरी राय यह है कि जहां सचमुच व्याकरण का पार्थक्य दिखाई दे|

जहां प्राचीन साहित्य रहने के कारण प्रांतीय बोली के लिए उसके बोलने वालों में अभिमान बोध हो और जहां प्रांतीय बोली बोलने वाले बच्चों और वय:प्राप्त लोगों को हिंदी अपनाने में दिक्कत हो, वहाँ ऐसी प्रान्तीय बोली की शिक्षा और प्रांतीय कामकाज में ला देने का सवाल आ सकता है |

जहां तक हम देखते हैं व्याकरण की दृष्टि से राजस्थानी—खड़ीबोली हिंदी से पार्थक्य रखती है |

राजस्थानी जनता में अपने प्राचीन साहित्य के लिए एक नई चेतना भी दिखाई दे रही है |

राजस्थानी के प्राचीन साहित्य के बारे में कुछ बोलने की जरूरत नहीं |

अगर तथाकथित ‘हिंदी’ साहित्य से राजस्थानी में लिखा हुआ साहित्य निकाल दिया जाय, तो प्राचीन हिंदी साहित्य का गौरव कितना ही घट जाएगा|

चंदबरदाई

चंदबरदाई के पहले के समय में और उसके बाद के समय में राजस्थानमें जितने कवि हो गये हैं,

उन पर ज्यों-ज्यों प्रकाश डाला जाता है, त्यों-त्यों हमारा विस्मय और आनन्द बढ़ता जाता है |

केवल राजस्थानी बोलने वालों ही को इसका गौरव नहीं है, लेकिन समस्त भारत को इसका गौरव है |

इस गौरव के वश यदि राजस्थानी लोग अपनी मातृभाषा का पुनरुद्धार और पुनःप्रतिष्ठा करना चाहते हैं, तो इसमें नाराज होने और बुरा मानने का कुछ नहीं है |

भारत की प्रमुख 15 भाषाओँ में यदि राजस्थानी जैसी दो-चार भाषाएँ प्रतिष्ठित हो जाएं, तो इसमें आशंका और भय की कोई बात नहीं है | राजस्थानी लोग अपनी मूर्च्छित सी आत्मा को फिर सजग और सचेत करना चाहते हैं, इसमें समस्त भारत को लाभ पहुंचेगा, और राष्ट्रीय एकता की कोई भी हानि नहीं होगी |
(श्री सुनीतिकुमार चाटुर्ज्या—भारतीय भाषातत्त्व के आचार्य –कलकत्ता विश्वविद्यालय 11-2- 1944)

प्रख्यात राजस्थानी कवि और लेखक डॉ आईदान सिंह भाटी की फेसबुक वॉल से साभार प्राप्त

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