इस पोस्ट में आदिकाल Aadikal का सामान्य परिचय, हिंदी का प्रथम कवि, हिंदी का प्रथम ग्रंथ, आदिकाल से संबंधित विभिन्न विद्वानों के प्रमुख कथन एवं महत्त्वपूर्ण कथन शामिल हैं।
अपभ्रंश काल — डॉ. धीरेंद्र वर्मा, डॉ. चंद्रधर शर्मा गुलेरी
अपभ्रंश काल (जातीय साहित्य का उदय) — डॉ. बच्चन सिंह
उद्भव काल — डॉ. वासुदेव सिंह
सर्वमान्य मत के अनुसार आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा सुझाए गए नाम ‘आदिकाल’ को स्वीकार किया गया है।
हिंदी का प्रथम कवि
महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने ‘सरहपा/ सरहपाद’ को हिंदी का प्रथम कवि स्वीकार किया है। सामान्यतया उक्त मत को स्वीकार किया जाता है।
हिंदी का प्रथम कवि कौन हो सकता है, इस संबंध में अन्य विद्वानों के मत इस प्रकार हैं—
1. स्वयंभू (8वीं सदी) ― डॉ. रामकुमार वर्मा।
2. सरहपा (769 ई.) ― राहुल सांकृत्यायन व डॉ. नगेन्द्र
3. पुष्य या पुण्ड (613 ई./सं. 670) ― शिवसिंह सेंगर
4. राजा मुंज (993 ई/ सं. 1050)- चंद्रधर शर्मा गुलेरी
5. अब्दुर्रहमान (11वीं सदी) ― डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी
6. शालिभद्र सूरि (1184 ई.) ― डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त
7. विद्यापति (15वीं सदी) ― डॉ. बच्चन सिंह
हिंदी का प्रथम ग्रंथ
जैन श्रावक देवसेन कृत ‘श्रावकाचार’ को हिंदी का प्रथम ग्रंथ माना जाता है। इसमें 250 दोहों में श्रावक धर्म (गृहस्थ धर्म) का वर्णन है। इसकी रचना 933 ई. में स्वीकार की जाती है।
आदिकालीन साहित्य की विशेषताएं/प्रवृतियां—
1. वीरता की प्रवृत्ति
2. श्रृंगारिकता
3. युद्धों का सजीव वर्णन
4. आश्रय दाताओं की प्रशंसा
5. राष्ट्रीयता का अभाव
6. वीर एवं श्रृंगार रस की प्रधानता
7. ऐतिहासिक चरित काव्यों की प्रधानता
8. जन जीवन के चित्रण का अभाव
9. प्रकृति का आलंबन रूप
10. डिंगल और पिंगल दो काव्य शैलियां
11. संदिग्ध प्रामाणिकता
12. ‘रासो’ शीर्षक की प्रधानता
13. प्रबंध एवं मुक्तक काव्य रूप
14. छंद वैविध्य
15. भाषा ― अपभ्रंश डिंगल खड़ी बोली तथा मैथिली का प्रयोग
16. विविध अलंकारों का समावेश
अन्य महत्त्वपूर्ण तथ्य
आदिकाल में भाषाई आधार पर मुख्यतः दो प्रकार की रचनाएं प्राप्त होती हैं, जिन्हें अपभ्रंश की और देशभाषा अर्थात बोलचाल की भाषा इन दो भागों में वर्गीकृत किया जाता है। इसी आधार पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने आदिकाल का विभाजन किया है।
इसके अंतर्गत केवल 12 ग्रंथों को ही साहित्यिक मानते हुए उसका वर्गीकरण निम्नलिखित प्रकार से किया है―
देश भाषा काव्य― खुमानरासो, बीसलदेव रासो, पृथ्वीराज रासो, जय चंद्रप्रकाश, जय मयंक जस चंद्रिका, परमाल रासो, खुसरो की पहेलियां और विद्यापति पदावली।
उपयुक्त 12 पुस्तकों के आधार पर ही ‘आदिकाल’ का नामकरण ‘वीरगाथा काल’ करते हुए आचार्य शुक्ल लिखते हैं- “इनमें से अंतिम दो तथा बीसलदेव रासो को छोड़कर सब ग्रंथ वीरगाथात्मक ही हैं, अतः ‘आदिकाल’ का नाम ‘वीरगाथा काल’ ही रखा जा सकता है।”
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने अपभ्रंश के लिए ‘प्राकृतभाषा हिंदी’, ‘प्राकृतिक की अंतिम अवस्था’ और ‘पुरानी हिंदी’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया है।
आदिकाल Aadikal का सामान्य परिचय
तात्कालिक बोलचाल की भाषा को विद्यापति ने ‘देशभाषा’ कहा है। विद्यापति की प्रेरणा से ही आचार्य शुक्ल ने ‘देशभाषा’ शब्द का प्रयोग किया है।
आचार्य शुक्ल ने आदिकाल को ‘अनिर्दिष्ट लोक प्रवृत्ति का युग’ की संज्ञा दी है।
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने आदिकाल को ‘अत्यधिक विरोधी और व्याघातों’ का युग कहा है।
हजारीप्रसाद द्विवेदी, गणपतिचंद्र गुप्त इत्यादि प्रबुद्ध विद्वान स्वीकार करते हैं कि अपभ्रंश और हिंदी के मध्य निर्णायक रेखा खींचना अत्यंत दुष्कर कार्य है अतः हिंदी साहित्य की शुरुआत भक्तिकाल से ही माननी चाहिए।
आदिकाल से संबंधित विभिन्न विद्वानों के प्रमुख कथन
“जब तक भाषा बोलचाल में थी तब तक वह भाषा या देशभाषा ही कहलाती रही, जब वह भी साहित्य की भाषा हो गयी तब उसके लिये ‘अपभ्रंश’ शब्द का व्यवहार होने लगा।”― आ. शुक्ल।
“अपभ्रंश नाम पहले पहल बलभी के राजा धारसेन द्वितीय के शिलालेख में मिलता है, जिसमें उसने अपने पिता गुहसेन (वि.सं. 650 के पहले) को संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों का कवि कहा है।”― आ. शुक्ल।
“अपभ्रंश की पुस्तकों में कई तो जैनों के धर्म-तत्त्व निरूपण ग्रंथ हैं जो साहित्य की कोटि में नहीं आतीं और जिनका उल्लेख केवल यह दिखाने के लिये ही किया गया है कि अपभ्रंश भाषा का व्यवहार कब से हो रहा था। “― आ. शुक्ल।
“उनकी रचनाएँ (सिद्धों व नाथों की) तांत्रिक विधान, योगसाधना, आत्मनिग्रह, श्वास-निरोध, भीतरी चक्रों और नाड़ियों की स्थिति, अंतर्मुख साधना के महत्त्व इत्यादि की सांप्रदायिक शिक्षा मात्र हैं, जीवन की स्वाभाविक अनुभूतियों और दशाओं से उनका कोई संबंध नहीं। अतः वे शुद्ध साहित्य के अंतर्गत नहीं आतीं। उनको उसी रूप में ग्रहण करना चाहिये जिस रूप में ज्योतिष, आयुर्वेद आदि के ग्रंथ “― आ. शुक्ल।
आदिकाल से संबंधित विभिन्न विद्वानों के प्रमुख कथन
सिद्धों व नाथों की रचनाओं का वर्णन दो कारणों से किया है- भाषा और सांप्रदायिक प्रवृत्ति और उसके संस्कार की परंपरा। “कबीर आदि संतों को नाथपंथियों से जिस प्रकार ‘साखी’ और ‘बानी’ शब्द मिले उसी प्रकार ‘साखी’ और ‘बानी’ के लिये बहुत कुछ सामग्री और ‘सधुक्कड़ी’ भाषा भी।”― आ. शुक्ल।
“चरित्रकाव्य या आख्यान काव्य के लिये अधिकतर चौपाई, दोहे की पद्धति ग्रहण की गई है।… चौपाई-दोहे की यह परंपरा हम आगे चलकर सूफियों की प्रेम कहानियों में तुलसी के ‘रामचरितमानस’ में तथा ‘छत्रप्रकाश’, ‘ब्रजविलास’, सबलसिंह चौहान के ‘महाभारत’ इत्यादि अनेक अख्यान काव्यों में पाते हैं।”― आ. शुक्ल।
“इसी से सिद्धों ने ‘महासुखवाद’ का प्रवर्तन किया। ‘महासुह’ (महासुख) वह दशा बताई गई जिसमें साधक शून्य में इस प्रकार विलीन हो जाता है जिस प्रकार नमक पानी में। इस दशा का प्रतीक खड़ा करने के लिये ‘युगनद्ध’ (स्त्री-पुरुष का आलिंगनबद्ध जोड़ा) की भावना की गई।”― आ. शुक्ल।
आदिकाल से संबंधित विभिन्न विद्वानों के प्रमुख कथन
“प्रज्ञा और उपाय के योग से महासुख दशा की प्राप्ति मानी गई। इसे आनंद-स्वरूप ईश्वरत्व ही समझिये। निर्माण के तीन अवयव ठहराए गए- शून्य, विज्ञान और महासुख।… निर्वाण के सुख का स्वरूप ही सहवाससुख के समान बताया गया।”― आ. शुक्ल।
‘अपने मत का संस्कार जनता पर डालने के लिये वे (सिद्ध) संस्कृत रचनाओं के अतिरिक्त अपनी बानी (रचनाएँ) अपभ्रंश मिश्रित देशभाग में भी बराबर सुनाते रहे।’― आ. शुक्ल।
“सिद्ध सरहपा की उपदेश की भाषा तो पुरानी टकसाली हिंदी हैं, पर गीत की भाषा पुरानी बिहारी या पूरबी बोली मिली है। कबीर की ‘साखी’ की भाषा तो खड़ी बोली राजस्थानी मिश्रित सामान्य भाषा ‘सधुक्कड़ी’ है, पर रमैनी के पदों में काव्य की ब्रजभाषा और कहीं-कहीं पूरबी बोली भी है।” ― आ. शुक्ल।
सिद्धों ने ‘संधा’ भाषा-शैली का प्रयोग किया है। यह अंत:साधनात्मक अनुभूतियों का संकेत करने वाली प्रतीकात्मक भाषा शैली है।― आ. शुक्ल।
“गोररखनाथ का नाथपंथ बौद्धों की वज्रयान शाखा से ही निकला है। नाथों ने वज्रयानी सिद्धों के विरुद्ध मद्य, माँस व मैथुन के त्याग पर बल देते हुए ब्रह्मचर्य पर जोर दिया। साथ ही शारीरिक-मानसिक शुचिता अपनाने का संदेश दिया।”― आ. शुक्ल।
आदिकाल का सामान्य परिचय
“सब बातों पर विचार करने से हमें ऐसा प्रतीत होता है कि जलंधर ने ही सिद्धों से अपनी परंपरा अलग की और पंजाब की ओर चले गए। वहाँ काँगड़े की पहाड़ियों तथा स्थानों में रमते रहे। पंजाब का जलंधर शहर उन्हीं का स्मारक जान पड़ता है।”― आ. शुक्ल।
“राजा भोज की सभा में खड़े होकर राजा की दानशीलता का लंबा-चौड़ा वर्णन करके लाखों रुपये पाने वाले कवियों का समय बीत चुका था। राजदरबारों में शास्त्रार्थों की वह धूम नहीं रह गई थी। पांडित्य के चमत्कार पर पुरस्कार का विधान भी ढीला पड़ गया था। उस समय तो जो भाट या चारण किसी राजा के पराक्रम, विजय, शत्रुकन्या-हरण आदि का अत्युक्तिपूर्ण आलाप करता या रणक्षेत्रों में जाकर वीरों के हृदय में उत्साह की उमंगें भरा करता था, वही सम्मान पाता था।”― आ. शुक्ल।
“उस समय जैसे ‘गाथा’ कहने से प्राकृत का बोध होता था वैसे ही ‘दोहा’ या ‘दूहा’ कहने से अपभ्रंश का पद्य समझा जाता था।”―आ. शुक्ल।
“दोहा या दूहा अपभ्रंश का अपना छंद है। उसी प्रकार जिस प्रकार गाथा प्राकृत का अपना छंद है।”― हजारीप्रसाद द्विवेदी
आदिकाल का सामान्य परिचय
“इस प्रकार दसवीं से चौदहवीं शताब्दी का काल, जिसे हिंदी का आदिकाल कहते हैं, भाषा की दृष्टि से अपभ्रंश का ही बढ़ाव है।”― हजारीप्रसाद द्विवेदी (‘हिंदी साहित्य का आदिकाल’)
“डिंगल कवियों की वीर-गाथाएँ, निर्गुणिया संतों की वाणियाँ, कृष्ण भक्त या रागानुगा भक्तिमार्ग के साधकों के पद, राम-भक्त या वैधी भक्तिमार्ग के उपासकों की कविताएँ, सूफी साधना से पुष्ट मुसलमान कवियों के तथा ऐतिहासिक हिंदी कवियों के रोमांस और रीति काव्य- ये छहों धाराएँ अपभ्रंश कविता का स्वाभाविक विकास है।”― हजारीप्रसाद द्विवेदी
Paryayvachi Shabd in Hindi न अक्षर से शुरू होने वाले शब्दों के पर्यायवाची शब्द
Paryayvachi shabd in Hindi
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हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की प्रमुख पद्धतियाँ चार रही हैं। साहित्य, समाज, विज्ञान, संस्कृति, भूगोल, मानव विकास आदि सभी क्षेत्रों इतिहास और विकास को समझने के लिए उसका विश्लेषण करना आवश्यक है।
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की प्रमुख पद्धतियाँ
विश्लेषण करने वाले विद्वानों का पृथक-पृथक दृष्टिकोण होता है। साहित्येतिहास लेखन में भी साहित्येतिहासकारों का अपना दृष्टिकोण रहा है। यह दृष्टिकोण मुख्य रूप से चार प्रकार के हैं, जिन्हें साहित्येतिहास लेखन की पद्धति या प्रणाली कहा जाता है।
यह पद्धति या प्रणाली वर्णानुक्रम प्रणाली, कालानुक्रमी प्रणाली, वैज्ञानिक प्रणाली और विधेयवादी प्रणाली हो सकती है इसके अतिरिक्त विद्वानों ने कुछ गौण प्रणालियों का भी जिक्र किया है।
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की चार पद्धतियाँ
1 वर्णानुक्रम पद्धति
इस पद्धति में रचनाकारों का विवरण उनके नाम के प्रथम वर्ण के क्रम से दिया जाता है। उदाहरण के लियेए सूरदासए भिखारीदास और जयशंकर प्रसाद का समय भले ही भिन्न हो किंतु उनका क्रम इस प्रकार होगा जयशंकर प्रसादए भिखारीदासए सूरदास। यह पद्धति शब्दकोश लेखन की तरह होती है। अतः इसे ऐतिहासिक दृष्टि से असंगत माना जाता है क्योंकि यह इतिहास लेखन नहीं, बल्कि शब्दकोश लेखन है।
गार्सा द तासी ने इस्तवार द ला लितरेत्यूर ऐन्दुई ए ऐन्दुस्तानी और शिवसिंह सेंगर शिवसिंह सरोज ने अपने ग्रंथों में इसका प्रयोग किया है।
2 कालानुक्रमी पद्धति
इसमें रचनाकारों का विवरण उनके काल; समयद्ध के क्रम से दिया जाता है। रचनाकार की जन्मतिथि को आधार बनाया जाता है। सभी रचनाकारों की जन्मतिथि या जन्मवर्ष का सटीक पता लगाना भी एक दुष्कर कार्य है। ऐसी स्थिति में एक मोटा-मोटा अनुमान भर लगाया जाता है, इस स्थिति में यह पद्धति उपयोगी नहीं है।
साहित्येतिहासकार का उद्देश्य केवल कवियों का परिचय कराना नहीं होता वरन् तात्कालिक परिस्थितियों को सामने लाना भी होता है, जिसके कारण वह विशिष्ट साहित्य रचा गया। इस दृष्टिकोण से भी यह पद्धति उपयोगी नहीं है।
इस पद्धति से लिखे ग्रंथ भी वर्णानुक्रम पद्धति की तरह कवि वृत्त-संग्रह मात्र होते हैं।
जॉर्ज ग्रियर्सन ने अपने इतिहास ग्रंथ द मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ नॉर्दन हिंदुस्तान और मिश्रबंधुओं ने अपने इतिहास ग्रंथ मिश्र इंदु विनोद में इस पद्धति का प्रयोग किया है।
ग्रियर्सन के साहित्येतिहास ग्रन्थ में विधेयवादी पद्धति के कुछ आरंभिक सूत्र भी मिलने लगते हैं। इस संबंध में डॉ नलिन विलोचन शर्मा का निम्नलिखित मत महत्त्वपूर्ण है― हिंदी के विधेयवादी साहित्येतिहास के आदम प्रवर्तक शुक्ल जी नहीं प्रत्युत ग्रियर्सन हैं।
3 वैज्ञानिक पद्धति
यह पद्धति के मुख्यतः शोध पर आधारित है। इसमें साहित्येतिहासकार निरपेक्ष एवं तटस्थ रहकर वैज्ञानिक तरीके से तथ्य संकलन कर उसे क्रमबद्ध रूप में प्रस्तुत करता है।
हिंदी साहित्य में डॉ गणपति चंद्रगुप्त ने अपना साहित्येतिहास ग्रंथ हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास इसी पद्धति के आधार पर लिखा है।
इतिहास लेखन में सिर्फ तथ्य संकलन की ही नहीं, बल्कि उनकी व्याख्या एवं विश्लेषण की भी आवश्यकता होती है। जो कि इस पद्धति में नहीं हो पाता है अतः इस पद्धति को भी अनुपयुक्त माना जाता है।
4 विधेयवादी पद्धति
इस पद्धति में साहित्य की व्याख्या कार्य-कारण सिद्धांत के आधार पर होती है। इस पद्धति के जनक फ्रेंच विद्वान इपालित अडोल्फ़ तेन (Taine) ने इसे सुव्यवस्थित सिद्धांत के रूप में स्थापित किया।
तेन ने इस पद्धति को तीन शब्दों के माध्यम से स्पष्ट किया- जाति (Race), वातावरण (Milieu) आरक्षण विशेष (Moment)।
इस पद्धति के अनुसार, “किसी भी साहित्य के इतिहास को समझने के लिये उससे संबंधित जातीय परंपराओं, राष्ट्रीय और सामाजिक वातावरण एवं सामयिक परिस्थितियों का अध्ययन विश्लेषण आवश्यक है।”
इस पद्धति में साहित्य इतिहास की प्रवृत्तियों का विश्लेषण युगीन परिस्थितियों के संदर्भ में किया जाता है।
इसे इतिहास-लेखन की व्यापक, स्पष्ट एवं विकसित पद्धति माना गया है, क्योंकि इसके द्वारा साहित्य की विकास प्रक्रिया को बहुत कुछ स्पष्ट किया जा सकता है।
हिंदी में सर्वप्रथम रामचंद्र शुक्ल ने इस पद्धति का सूत्रपात किया।
हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की प्रमुख पद्धतियाँ
इस संदर्भ में आचार्य शुक्ल लिखते हैं―“प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता की चित्तवृत्तियों का संचित प्रतिबिंब होता है। …… आदि से अंत तक इन्हीं चित्तवृत्तियों की परंपरा को परखते हुए साहित्य परंपरा के साथ उसका सामंजस्य बिठाना ही साहित्य कहलाता है।”
उनके बाद रामस्वरूप चतुर्वेदी, बच्चन सिंह आदि विख्यात साहित्येतिहासकारों ने इस प्रणाली को आगे बढ़ाया।
रामस्वरूप चतुर्वेदी का कथन यहां स्मरणीय है- “कवि का काम यदि ‘दुनिया में ईश्वर के कामों को न्यायोचित ठहराना है’ तो साहित्य के इतिहासकार का काम है कवि के कामों को साहित्येतिहास की विकास प्रक्रिया में न्यायोचित दिखा सकना।” –(संदर्भ: ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ सं. डॉ. नगेंद्र, डॉ. हरदयाल)
कतिपय अन्य प्रणालियां
कुछ अन्य विद्वानों ने साहित्येतिहास लेखन की कुछ अन्य प्रणालियों का भी जिक्र किया है जो निम्नलिखित हैं―
नारीवादी पद्धति
हिन्दी साहित्य में सुमन राजे ने श्हिन्दी साहित्य का आधा इतिहासश् नारीवादी पद्धति के आधार पर लिखा है।
समाजशास्त्रीय पद्धति
समाजशास्त्रीय पद्धति कार्ल मार्क्स के द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के सिद्धांत पर आधारित है।
इन पद्धतियों के अतिरिक्त साहित्य के इतिहास लेखन की कई और आधुनिक पद्धतियाँ हैं जिनमें रूपवादी, संरचनावादी, उत्तर संरचनावादी और उत्तर आधुनिकतावादी प्रमुख है।
उक्त सभी पद्धतियों में प्रथम चार पद्धतियां विशेष महत्वपूर्ण हैं जिन के आधार पर हिंदी साहित्य में विशेष काम हुआ है।
रीतिकाल में काव्यशास्त्र से संबंधित अनेक ग्रंथों की रचना हुई। यह ग्रंथ काव्यशास्त्र के विभिन्न अंगों को लेकर लिखे गए। इनमें से कुछ ग्रंथ सर्वांग निरूपक ग्रंथ थे जबकि कुछ विशेषांग निरूपक थे। इस आलेख में नायक-नायिका भेद संबंधी रीतिकालीन काव्य-ग्रंथ की पूरी जानकारी मिलेगी।
विशेषांग निरूपक ग्रंथों में ध्वनि संबंधी ग्रंथ, रस संबंधी ग्रंथ, अलंकार संबंधी ग्रंथ, छंद शास्त्र संबंधी ग्रंथ, इत्यादि ग्रंथों का प्रणयन हुआ।
नायक-नायिका भेद संबंधी रीतिकालीन काव्य-ग्रंथ
1. हिततरंगिनी (1541 ई.) ― कृपाराम
2. साहित्य लहरी (1550 ई.) – सूरदास
3. रस मंजरी (1591 ई.) – नंददास
4. रसिकप्रिया (1591 ई.) – केशवदास
5. बरवे नायिका भेद (1600 ई.) – रहीम
6. सुंदर श्रृंगार निर्णय (1631 ई) – सुंदर
7. सुधानिधि (1634 ई.) – तोष
8. कविकुलकल्पतरु (1680 ई) – चितामणि
9 भाषा भूषण (1650 ई) – जसवन्त सिंह
10. रसराज (1710 ई) – मतिराम
11. रसिक रसाल (1719 ई.) – कुमारमणि शास्त्री
12. भावविलास, रसविलास, भवानीविलास एवं सुखसागर तरंग (18वीं शती का उत्तराद्धी – देव
13. रस प्रबोध (1742 ई.) – रसलीन
14. श्रृंगार निर्णय (1750 ई.)- भिखारीदास
15. दीप प्रकाश (1808 ई.) – ब्रह्मदत्त
16. जगद्विनोद (1810 ई.) – पद्माकर
17. नवरस तरंग (1821 ई.) – बेनी प्रवीन
18. व्यंग्यार्थ कौमुदी (1825 ई.) –प्रतापसाहि
19. रसिक विनोद (1846 ई.) ― चन्द्रशेखर वाजपेयी
20. रस मोदक हजारा (1848 ई.) – स्कन्दगिरि
नायक-नायिका भेद संबंधी रीतिकालीन काव्य-ग्रंथ
21. श्रृंगार दर्पण (1872 ई.)– नन्दराम
22. महेश्वर विलास (1879 ई.) – लछिराम
23. रस कुसुमाकर (1872 ई.) –प्रतापनारायण सिंह
24. रसमौर (1897 ई.) – दौलतराम
25. रसवाटिका (1903 ई.) – गंगाप्रसाद अग्निहोत्री
26. भानु काव्य प्रभाकर (1910 ई.) – जगन्नाथप्रसाद
27. हिन्दी काव्य में नवरस (1926 ई.) – बाबूराम बित्थरियाका
28. रूपक रहस्य (1931 ई.) – श्यामसुंदरदास
29. रसकलश (1931 ई.) – हरिऔध
30. नवरस (1934 ई.) – गुलाबराय
31. साहित्यसागर (1937 ई.) – बिहारीलाल भट्ट
32. काव्यकल्पद्रुम (1941 ई.) – कन्हैयालाल पोद्दार
33. ‘ब्रजभाषा साहित्य नायिका-भेद’ (1948 7ई.) – प्रभुदयाल मीतल
उक्त ग्रंथों में से कतिपय ग्रंथों में नायिका भेद के अतिरिक्त ‘रस’ का भी वर्णन मिलता है, लेकिन प्रमुखता नायिका भेद की ही रही है अतः यहां पर वह ग्रंथ भी शामिल किए गए हैं जिनमें नायिका भेद तथा रस दोनों का वर्णन मिलता है
रीतिकाल में काव्यशास्त्र से संबंधित अनेक ग्रंथों की रचना हुई। यह ग्रंथ काव्यशास्त्र के विभिन्न अंगों को लेकर लिखे गए। इनमें से कुछ ग्रंथ सर्वांग निरूपक ग्रंथ थे जबकि कुछ विशेषांग निरूपक थे। इस आलेख में रीतिकालीन छंदशास्त्र संबंधी ग्रंथ की जानकारी।
विशेषांग निरूपक ग्रंथों में ध्वनि संबंधी ग्रंथ, रस संबंधी ग्रंथ, अलंकार संबंधी ग्रंथ, छंद शास्त्र संबंधी ग्रंथ, इत्यादि ग्रंथों का प्रणयन हुआ।
छंद ― छंदशास्त्र की व्यवस्थित परंपरा का सूत्रपात छंदशास्त्र के प्रवर्त्तक पिगलाचार्य के छंद सूत्र’ (ई. पू. 200 के लगभग) से माना जाता है।
रीतिकालीन छंदशास्त्र संबंधी ग्रंथ
रीतिकालीन हिन्दी के छंदशास्त्र संबंधी ग्रंथ
1. छंदमाला – केशवदास (हिंदी में छंदशास्त्र की प्रथम रचना)
रीतिकाल में काव्यशास्त्र से संबंधित अनेक ग्रंथों की रचना हुई। यह ग्रंथ काव्यशास्त्र के विभिन्न अंगों को लेकर लिखे गए। इनमें से कुछ ग्रंथ सर्वांग निरूपक ग्रंथ थे जबकि कुछ विशेषांग निरूपक थे। इस आलेख में अलंकार निरूपक रीतिकालीन ग्रंथ की पूरी जानकारी प्राप्त करेंगे।
विशेषांग निरूपक ग्रंथों में ध्वनि संबंधी ग्रंथ, रस संबंधी ग्रंथ, अलंकार संबंधी ग्रंथ, छंद शास्त्र संबंधी ग्रंथ, इत्यादि ग्रंथों का प्रणयन हुआ।
अलंकार निरूपक रीतिकालीन ग्रंथ
1. कविप्रिया और रसिकप्रिया ― केशवदास ―
‘कविप्रिया’ में अलंकारों का वर्गीकरण प्रमुख रूप से हुआ है। इसका उद्देश्य काव्य-संबंधी ज्ञान प्रदान करना था अलंकारवादी कवि केशव ने अलंकार का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहा था कि भूषण बिनु न विराजई कविता, वनिता मित्त।
2. भाषाभूषण ― जसवंत सिंह ―
इसमें अलंकारों का लक्षण और उदाहरण 212 दोहों में वर्णित हुआ है। भाषाभूषण की शैली चंद्रालोक की शैली है।
3. अलंकार पंचाशिका (1690 ई.), ललितललाम ― मतिराम ―
अलंकार पंचाशिका कुमायूँ-नरेश उदोतचंद्र के पुत्र ज्ञानचंद्र के लिए लिखी गई थी जबकि ललितललाम बूँदी नरेश भावसिंह की प्रशंसा में सं. 1716 से 45 के बीच लिखा गया। जिसके क्रम व लक्षण को शिवराज भूषण में अक्षरश: अपनाया गया है।
अलंकार निरूपक रीतिकालीन ग्रंथ
4. शिवराज-भूषण ―
भूषण आलंकारिक कवि कहे जाते हैं। इसके पीछे ‘शिवराज-भूषण’ (1653 ई.) रचना है, जो आलंकारिक है।
5. रामालंकार, रामचंद्रभूषण, रामचंद्रामरण (1716 ई. के आसपास) ― गोप ―
गोप विरचित तीनों रचनाएँ चंद्रालोक की पद्धति पर विरचित हैं।
6. अलंकार चंद्रोदय (1729 ई. रचनाकाल) रसिक सुमति ―
इसका आधार ग्रंथ कुवलयानंद है।
7. कर्णाभरण (1740 ई. रचनाकाल) ― गोविन्द ―
इसकी रचना भाषाभूषण की शैली पर हुई है।
8. कविकुलकण्ठाभरण ― दुलह ―
‘कविकुलकण्ठाभरण’ का आधार ग्रंथ चंद्रलोक एवं कुवलयानंद है।
9. भाषाभरण (रचनाकाल 1768 ई) ― बैरीसाल ―
इस ग्रंथ का आधार कुवलयानंद एवं इसकी वर्णन-पद्धति भाषाभूषण के समान है।
10. चेतचंद्रिका (स. 1840-1870 शुक्लजी के अनुसार) ― गोकुलनाथ
11. पद्माभरण ― पद्माकर ―
पद्माकर द्वारा रचित ‘पद्माभरण’ के आधार चंद्रालोक, भाषाभूषण, कविकुलकण्ठाभरण और भाषाभरण इत्यादि रचनाएँ है।
12. याकूब खां का रसभूषण 1718 ई. एवं शिवप्रसाद का रसभूषण 1822 ई ―
अलंकार और रस दोनों के लक्षण और उदाहरण प्रस्तुत किये गए हैं।
13. काव्यरसायन ― देव का ‘काव्यरसायन’ ग्रंथ एक प्रसिद्ध आलंकारिक ग्रंथ है।
रीतिकाल में काव्यशास्त्र से संबंधित अनेक ग्रंथों की रचना हुई। यह ग्रंथ काव्यशास्त्र के विभिन्न अंगों को लेकर लिखे गए। इनमें से कुछ ग्रंथ सर्वांग निरूपक ग्रंथ थे जबकि कुछ विशेषांग निरूपक थे। इस आलेख में जानेंगे रीतिकाल के रस ग्रंथ की पूरी जानकारी।
विशेषांग निरूपक ग्रंथों में ध्वनि संबंधी ग्रंथ, रस संबंधी ग्रंथ, अलंकार संबंधी ग्रंथ, छंद शास्त्र संबंधी ग्रंथ, इत्यादि ग्रंथों का प्रणयन हुआ।
रीतिकाल के रस ग्रंथ
1. रसिकप्रिया ―केशवदास प्रथम रसवादी आचार्य है।
इनकी ‘रसिकप्रिया’ एक प्रसिद्ध रस ग्रंथ है।
2. सुंदर श्रृंगार , 1631 ई. ― सुंदर कवि ―
शाहजहाँ के दरबारी कवि सुंदर ने श्रृंगार रस और नायिका भेद का वर्णन इसमें किया है।
3. श्रृंगार मंजरी ― चिंतामणि ―
हिंदी नायिका-भेद के ग्रंथों में ‘श्रृंगार मंजरी’ का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। ‘कविकुलकल्पतरु’ इनकी रसविषयक रचना है। इस ग्रंथ में उन्होंने अपना उपनाम मनि (श्रीमनि) का प्रयोग 60 बार किया है।
4. सुधानिधि 1634 ई. ― तोष ―
रसवादी आचार्य तोष निधि ने 560 छंदों में रस का निरूपण (सुधानिधि 1634 ई.) सरस उदाहरणों के साथ किया है।
5. रसराज ― मतिराम ―
इस ग्रंथ में नायक-नायिका भेद रूप में श्रृंगार का बड़ा सुंदर वर्णन हुआ है।
6. भावविलास, भवानीविलास, काव्यरसायन― देव ―
देव ने केवल श्रृंगार रस को सब रसों का मूल माना है, जो सबका मूल है। इन्होंने सुख का रस शृंगार को माना। काव्य रसायन में 9 रसों का विवेचन भरतमुनि के नाट्यशास्त्र पर हुआ है।
7. रसिक रसाल 1719 ई. ― कुमारमणि भट्ट
8. रस प्रबोध 1798 सं. (1741 ई.) रसलीन ―
इनकी रसनिरूपण संबंधित रचना ‘रसप्रबोध’ में 1115 दोहो में रस का वर्णन है। रसलीन का मूल नाम सैयद गुलाब नबी था।
15. पद्माकर – ‘जगद्विनोद’ काव्यरसिकों और अभ्यासियों के लिए कंठहार है।
इसकी रचना इन्होंने महाराज प्रतापसिंह के पुत्र जगतसिंह के नाम पर की थी।
16. रसिकगोविन्दानन्दघन ― रसिक गोविंद – काव्यशास्त्र विषयक इनका एकमात्र ग्रंथ है।
17. नवरस तरंग ― बेनी प्रवीन ―
इनका ‘नवरस तरंग’ सबसे प्रसिद्ध श्रृंगार-ग्रंथ है, जिसे शुक्ल ने मनोहर ग्रंथ कहा है। श्रृंगारभूषण, नानाराव प्रकाश-बेनी की अन्य कृतियाँ है।
18. रसिकनंद, रसरंग ― ग्वाल ―
शुक्लर्जी ने लिखा है कि – ‘रीतिकाल की सनक इनमें इतनी अधिक थी कि इन्हे ‘यमुनालहरी’ नामक देवस्तुति में भी नवरस और षड्ऋतु सुझाई पड़ी है।’
19. महेश्वरविलास ― लछिराम ―
महेश्वरविलास नवरस और नायिका-भेद पर आधारित रचना है।
20. रसकुसुमाकर (1894 ई.) ― प्रतापनारायण सिंह –
अयोध्या के महाराज प्रतापनारायण सिंह की ‘रसकुसुमाकर में श्रृंगार रस का सुंदर विवेचन मिलता है।
21. रसकलस (1931 ई.) ― अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ―
हरिऔध की ‘रसकलस’ रचना रीति-परंपरा पर रस-संबंधी एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। हरिऔधजी ने अदभुत रस के अंतर्गत रहस्यवाद की गणना की है। यह इस ग्रंथ की नवीनता है।
रीतिकाल में काव्यशास्त्र से संबंधित अनेक ग्रंथों की रचना हुई। यह ग्रंथ काव्यशास्त्र के विभिन्न अंगों को लेकर लिखे गए। इनमें से कुछ ग्रंथ सर्वांग निरूपक ग्रंथ से थे जबकि कुछ विशेषांग निरूपक थे। रीतिकाल के ध्वनि ग्रंथ।
विशेषांग निरूपक ग्रंथों में ध्वनि संबंधी ग्रंथ, रस संबंधी ग्रंथ, अलंकार संबंधी ग्रंथ, छंद शास्त्र संबंधी ग्रंथ, इत्यादि ग्रंथों का प्रणयन हुआ।
रीतिकाल के ध्वनि ग्रंथ
1. कुलपति ― रस रहस्य (1670 ई.) ―
हिंदी रीतिशास्त्र के अंतर्गत ध्वनि के सर्वप्रथम आचार्य कुलपति मिश्र माने जाते हैं।
2. देव ― काव्यरसायन (1743 ई.) ―
देव ने ‘काव्यरसायन’ नामक ध्वनि-सिद्धांत निरूपण संबंधित ग्रंथ लिखा। इसका आधार ध्वन्यालोक ग्रंथ है। इसी ग्रंथ में अभिधा और लक्षणा का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए लिखा- “अभिधा उत्तम काव्य है, मध्य लक्षणालीन ।
अधम व्यंजना रस कुटिल, उलटी कहत नवीन।” ( काव्य रसायन)
इस ग्रंथ पर मम्मट के काव्यप्रकाश का प्रभाव है। इनका काव्य-संबंधी परिभाषा निजी एवं वैशिष्ट्यपूर्ण है।
4. कुमारमणि भट्ट ― रसिक रसाल (1719 ई.) ―
यह काव्यशास्त्र का एक श्रेष्ठ ग्रंथ है।
5. श्रीपति ― काव्यसरोज (1720 ई.) –
यह मम्मट के काव्यप्रकाश पर आधारित ग्रंथ है।
रीतिकाल के ध्वनि ग्रंथ
6. सोमनाथ ― रसपीयूषनिधि (1737 ई.) ―
सोमनाथ ने भरतपुर के महाराज बदनसिंह हेतु रसपीयूषनिधि की रचना की थी।
7. भिखारीदास ― काव्यनिर्णय (1750 ई.)
इसमें 43 प्रकार की ध्वनियों का निरूपण हुआ है।
8. जगत सिंह ― साहित्य सुधानिधि, (1801 ई.) ―
भरत, भोज, मम्मट, जयदेव, विश्वनाथ, गोविन्दभट्ट, भानुदत्त, अप्पय दीक्षित इत्यादि आचार्यों के ग्रंथों का आधार लेकर यह ग्रंथ सृजित हुआ है।
9. रणधीर सिंह ― काव्यरत्नाकर ―
‘काव्यप्रकाश’ और ‘चंद्रलोक’ के आधार पर तथा कुलपति के रस रहस्य’ ग्रंथ का आदर्श ग्रहणकर ‘काव्यरत्नाकर’ की रचना हुई।
रीतिकालीन ध्वनि ग्रंथ
10. प्रताप साहि ― व्यंग्यार्थ कौमुदी ―
यह व्यंग्यार्थ प्रकाशक ग्रंथ है, जिसमें ध्वनि की महत्ता प्रतिपादित हुई है।
11. रामदास ― कविकल्पद्रुम, (1844 ई.) ―
रामदास ने ध्वनि विषयक ग्रंथ ‘कविकल्पद्रुम’ या ‘साहित्यसार लिखा।
12. लछिराम रावणेश्वर ― कल्पतरु (1890) ―
लछिराम ने गिद्धौर नरेश महाराज रावणेश्वर प्रसाद सिंह के प्रसन्नार्थ 1890 ई. में ध्वनि विषयक रावणेश्वर कल्पतरु’ लिखा।
13. कन्हैयालाल पोद्दार ― रसमंजरी ―
यह ‘रस’ से संबंधित रचना है परन्तु इसका ढाँचा ‘ध्वनि’ पर निर्मित हुआ है। यह रचना गद्य में है जबकि इसके उदाहरण पद्यमय है। इस ग्रंथ पर मम्मट के ‘काव्यप्रकाश’ का प्रभाव है।
14. रामदहिन मिश्र ― काव्यालोक ―
यह आधुनिक काल का एक काव्यशास्त्रीय ग्रंथ है।
15. जगन्नाथ प्रसाद भानु ― काव्यप्रभाकर ―
यह आधुनिक काल का एक काव्यशास्त्रीय ग्रंथ है जिसकी रचना 1910 ई. में हुई।
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